Download App

पोंगापंथ के दलदल में धंसते सुशासन बाबू

सरकार का काम स्कूल व अस्पताल बनवाना है न कि मंदिरों का निर्माण और मजारों पर चादर चढ़ाना. बावजूद इस के भाजपा को राम नाम की माला जपने वाली पार्टी कहने वाले नीतीश कुमार खुद सियासत में धर्म का तड़का लगा कर बिहार में दुनिया का सब से विशाल मंदिर बनवाने पर आमादा हैं. सियासत में धर्म का रंग चढ़ाए इन राजनीतिक हस्तियों की असल मंशा क्या है, इस पर रोशनी डाल रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.
‘देदे राम दिला दे राम, पीएम की कुरसी पर बैठा दे राम…’ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आजकल अपने भाषणों में इस जुमले का इस्तेमाल जरूर करते हैं. राम के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा पर जम कर तीर चलाते हैं. जनता की तालियां लूटते हैं. भाजपा को राम नाम की माला जपने वाली पार्टी करार देने में लगे नीतीश बिहार में दुनिया का सब से बड़ा मंदिर बनाने को हरी झंडी दिखा चुके हैं. भाजपा के राममंदिर की राजनीति का करारा जवाब देने के लिए नीतीश ने इस हिंदू मंदिर को बनवाने का काम चालू भी करवा दिया है.
कभी खुद को पूजापाठ से दूर रखने का दावा करने वाले नीतीश कुमार मंदिरों और मसजिदों में घूमघूम कर खुद को धार्मिक दिखाने के चक्कर में लगे हुए हैं. कभी मंदिर में जा कर पूजा कर रहे हैं तो कभी मजारों पर जा कर चादर चढ़ा रहे हैं. कभी लालू यादव के पाखंड की खिल्ली उड़ाने वाले नीतीश अब खुद ही पोंगापंथ के दलदल में धंसते जा रहे हैं.
भाजपा की मंदिर की राजनीति के काट के लिए नीतीश ने बिहार के वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर के केसरिया इलाके में दुनिया का सब से बड़ा और ऊंचा मंदिर बनाने की कवायद शुरू करवाई है. हाजीपुर-बिदुपुर रोड पर 15 एकड़
जमीन में बनने वाला यह रामायण मंदिर 222 फुट ऊंचा होगा. मंदिर बनवाने के लिए 5 मार्च, 2012 को भूमिपूजन किया गया था. मंदिर को बनाने में करीब 200 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है. यह मंदिर कंबोडिया के अंकरोवाट मंदिर की नकल होगा.
बिहार राज्य अति पिछड़ा महासंघ के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि नीतीश कुमार, भाजपा और तमाम राजनीतिक दल मंदिर और मसजिद बनाने में जितनी रकम खर्च करते हैं उतनी रकम से गरीबों की कई योजनाएं जमीन पर उतारी जा सकती हैं. सरकार का काम है अस्पताल और स्कूल आदि बनवाना, न कि मंदिर बनवाना और मजार पर चादर चढ़ाना. अगर इस के पीछे वोटबैंक बनाना ही वजह है तो गरीबों और पिछड़ों के लिए बनाई गई योजनाओं को ही सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो देश के गरीब और पिछड़े उन के परमानैंट वोटर बन जाएंगे.
मजार पर चादर
पिछले जनवरी महीने में कड़ाके की ठंड के बीच जब बिहार के गरीब ठंड से ठिठुर रहे थे तो नीतीश कुमार उन्हें ठंड से बचने के लिए चादरकंबल आदि देने के बजाय मजार पर चादर चढ़ाने में मशगूल रहे. नीतीश कुमार के साथ राजद सुप्रीमो लालू यादव भी मजार पर चादर चढ़ा कर मुसलिमों को रिझाने की सियासत में लगे रहे.
14 जनवरी को मुसलमानों के पर्व और 31 जनवरी को उर्स के मौके पर हाड़ कंपाती ठंड के बीच दोनों नेताओं में मजार पर चादर चढ़ाने की होड़ लगी रही. पटना से सटे फुलवारीशरीफ प्रखंड के मजार पर दोनों नेताओं ने चादर चढ़ाई. मुसलिम नेता आसिफ आलम कहते हैं कि मजार पर चादर चढ़ाने से मुसलमान अब खुश नहीं होने वाला, पढ़ालिखा मुसलमान समझ गया है कि सभी सियासी दल उन का दोहन करते रहे हैं और मुसलमानों का हमदर्द बनने की नौटंकी करते रहे हैं.
22 जुलाई, 2009 को सूर्यग्रहण के दौरान नीतीश और लालू के बीच चली जबानी जंग को बिहार के लोग तो आज तक नहीं भूल सके हैं. पटना से 40 किलोमीटर दूर तरेगना के आर्यभट्ट साइंस सैंटर में सूर्यग्रहण के दौरान नीतीश कुमार ने सूर्यग्रहण का नजारा लेते हुए चाय और बिस्कुट खाए थे तो लालू यादव ने कहा था कि सूर्यग्रहण के समय कुछ भी खानेपीने से पाप लगता है.
नीतीश की इस हरकत की वजह से ही बिहार भयानक सूखे की चपेट में आया. उस साल कम बारिश होने की वजह से बिहार के 38 में से 33 जिलों में सूखा पड़ा था. तब नीतीश ने लालू के अंधविश्वास का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सूर्यग्रहण धर्म की चीज नहीं, बल्कि यह विज्ञान से जुड़ा मसला है. लालू के ऐसी कट्टरपंथी बातों की वजह से ही बिहार की हंसी उड़ाई जाती है. आज वही नीतीश पाखंड और आडंबरों से पूरी तरह घिरे दिखाई दे
रहे हैं.
नेताओं की मंदिर, मसजिद, मजार, चर्च आदि जगहों पर जा कर सिर झुकाने, पूजापाठ करने और दानदक्षिणा देने की पोंगापंथी प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है. उन्हें यह लगता है कि जनता की समस्याओं को हल करने के बजाय पूजापाठ से ही वोटबैंक मजबूत हो जाएगा. चुनाव का मौसम आने पर हर दल के नेता ऐसी ऊलजलूल हरकतों में लग जाते हैं. सभी नेताओं को अपने काम और जनता से ज्यादा भरोसा पत्थर की मूर्तियों और मजारों पर है.
पाखंड पर भरोसा
कोई मंदिरमसजिद में सिर झुकाता फिर रहा है तो किसी ने पंडितों को अपना हाथ दिखला कर ऐसी अंगूठी पहन ली है कि मानो चुनाव में जीत पक्की हो गई हो. बाबाओं के चक्कर में नेता दिल्ली, राजस्थान, बनारस, हरिद्वार, देवघर तक के चक्कर काट आए हैं. इतना ही नहीं, अकसर मांसमदिरा का लुत्फ लेने वाले नेता चुनावी मौसम में पूरी तरह से शाकाहारी भी हो गए हैं.
नीतीश शिवलिंग पर दूध चढ़ा रहे हैं तो लालू यादव हर साल छठ पूजा पर गंगा नदी में नारियल, फूल व पैसा बहाते रहे हैं. लालू गोपालगंज के थाबे मंदिर अकसर जाया करते हैं. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान भी दरगाहों पर चादर चढ़ा कर अपनी पार्टी को जीत दिलाने के टोटके में लगे हुए हैं, हालांकि वे राम नाम जपने वाली भाजपा की उंगली पकड़ चुके हैं.

दलबदल का खेल नेताओं की ‘राज’ लीला

सियासत क्या न करवाए. विचारधारा को ताक पर रख कर जिस तरह से सियासी धुरंधर वर्तमान राजनीति में पाला बदल रहे हैं उस को देख कर दलबदलू सियासत का पुराना दौर याद आ जाता है. हवा का रुख देख सियासतदां कैसे दोस्त को दुश्मन और दुश्मन को दोस्त बना रहे हैं, पढि़ए शैलेंद्र सिंह की रिपोर्ट.
 
उत्तर प्रदेश के एक दिन के मुख्यमंत्री के रूप में पहचाने जाने वाले जगदंबिका पाल ने 2009 में डुमरियागंज लोकसभा सीट से चुनाव जीता था. इस के पहले वे उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सहित दूसरे महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे हैं. चुनाव जीतने के बाद वे टीवी चैनलों पर कांग्रेस का पक्ष बहुत मजबूती से रखते देखे जाते थे. 
2014 के लोकसभा चुनाव आतेआते उन का मन बदल गया. वे कांग्रेस के बजाय भारतीय जनता पार्टी से चुनाव लड़ने की कवायद करने लगे. यह उन के बाहुबल का ही कमाल था कि उन को भाजपा की सदस्यता और लोकसभा का टिकट एकसाथ मिल गया. इस को ले कर भाजपा में विवाद भी खड़ा हुआ पर जगदंबिका पाल की सैटिंग के आगे सारा विरोध फेल हो गया. डुमरियागंज लोकसभा सीट में 5 विधानसभा क्षेत्र बांसी, कपिलवस्तु (नौगढ़), डुमरियागंज, सोहरतगढ़ और इटवा आते हैं. कांग्रेस ने जगदंबिका पाल के खिलाफ मजबूत घेराबंदी करने के लिए भाजपा के विधायक जयप्रताप सिंह की पत्नी वसुंधरा कुमारी को डुमरियागंज लोकसभा क्षेत्र से टिकट दे दिया है. ऐसे में दलबदल करने के बाद भी जगदंबिका पाल की चुनावी राह आसान नहीं है. 
प्रदेश के बस्ती शहर व उस के आसपास के क्षेत्र में जगदंबिका पाल जानापहचाना नाम है. उन की पत्नी स्नेहलता पाल यहां से नगर पालिका अध्यक्ष रही हैं. इसी जनाधार का लाभ उठाने के लिए 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने पुत्र अभिषेक पाल को बस्ती विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाया. वह हार गया. बांसी क्षेत्र के नरही गांव के रहने वाले मंगेश दुबे कहते हैं, ‘‘जगदंबिका पाल ने 1 साल पहले से ही भाजपा में जाने की तैयारी कर ली थी. चुनाव जीतने के बाद वे आम लोगों से मिलते नहीं थे. जो उन के करीबी होते थे उन्हीं से वे घिरे रहते थे. हम लोग कई बार उन से मिलने जाते व क्षेत्र की परेशानियां, खासकर बाढ़ से बचाव की योजना बनाने की बात करते तो वे टाल जाते थे. ऐसे में उन को लगने लगा था कि लोकसभा चुनाव में उन की जीत नहीं होगी. इस वजह से वे मोदी के कंधे पर सवार हो गए हैं. लेकिन वसुंधरा कुमारी के आने के बाद कांग्रेस यहां मजबूत हालत में आ 
गई है.’’ 
जगदंबिका पाल ने लोकतांत्रिक कांग्रेस बना कर भाजपा के तब के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की सरकार गिरा दी थी. वे खुद मुख्यमंत्री बन बैठे थे. आज भी वे अपने को पूर्व मुख्यमंत्री कहलवाना पसंद करते हैं. यह बात और है कि अदालत ने इस तख्तापलट को रद्द करते हुए 1 दिन के बाद ही कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया था. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह उस समय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष होते थे. कल्याण सिंह की सरकार बचाने के लिए भाजपा के बडे़ नेताओं को राष्ट्रपति के दर पर जाना पड़ा था. वहां विधायकों की परेड हुई. 
इसे वोटों का फेर ही कहेंगे कि आज राजनाथ सिंह, जगदंबिका पाल और कल्याण सिंह एक ही पार्टी में हैं. इस से साफ लग रहा है कि राजनीति में विचारधारा नहीं केवल ‘राज’ लीला का दौर चल रहा है. 
चुनाव की पूर्व संध्या पर दलबदल करने वालों में जगदंबिका पाल अके ले नेता नहीं हैं. छोटेबडे़ हर स्तर पर इतने नेताओं ने दलबदल किया है कि उन के नाम गिना पाना संभव नहीं है. चर्चा का विषय वे नेता हैं जो किसी विचारधारा के साथ राजनीति कर रहे थे, अब दलबदल कर ठीक उलटी विचारधारा के साथ चुनाव लड़ने के लिए मैदान में हैं.
दोस्त बन जाते हैं दुश्मन
बिहार के रामकृपाल यादव राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद के पुराने सिपाही रहे हैं. अपने नेता लालू प्रसाद यादव के साथ वे हर सुखदुख की घड़ी में खडे़ रहते थे. समाजवादी विचारों से ओतप्रोत रामकृपाल यादव पटना लोकसभा सीट से सांसद रहे हैं. राजद ने उन को राज्यसभा सदस्य भी बनवाया था. इस लोकसभा में वे पाटलिपुत्र क्षेत्र से चुनाव लड़ना चाहते थे. राजद ने यहां से लालू यादव की बेटी मीसा यादव को टिकट दे दिया. यह बात रामकृपाल यादव को अच्छी नहीं लगी.  उन्होंने राजद नेता लालू प्रसाद यादव के खिलाफ मोरचा खोल दिया. वे भाजपा में चले गए. भाजपा ने उन को पाटलिपुत्र से टिकट दे दिया. जिस भाजपा और उस 
की सांप्रदायिकता को कोसकोस कर रामकृपाल यादव ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया, आज उसी भाजपा की शान में कसीदेपढ़ते वे नजर आ रहे हैं. 
कुछ यही हाल है जनता दल यूनाइटेड के नेता साबिर अली का. जदयू ने साबिर अली को पार्टी की दिल्ली इकाई का अध्यक्ष बनाया था. वे लोकजनशक्ति पार्टी से जदयू में आए थे. साबिर अली को जदयू ने बिहार की शिवहर सीट से लोकसभा का प्रत्याशी घोषित किया था. जब लोकजनशक्ति पार्टी का भाजपा के साथ चुनावी तालमेल हो गया तो साबिर अली को भी जदयू बोझ लगने लगा. वे पार्टी की लाइन के खिलाफ जा कर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने लगे. यह बात जदयू को पसंद नहीं आई और उस ने साबिर अली को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. उस के बाद साबिर अली को भाजपा का सहारा मिला लेकिन पार्टी के ही अंदर विरोध के कारण साबिर अली से भाजपा का सहारा भी छिन गया. दलबदल करने वाले नेताओं की लिस्ट में नाम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं.
इस लिस्ट में मध्य प्रदेश के कांग्रेसी नेता डा. भागीरथ प्रसाद के साथसाथ उत्तर प्रदेश में अमर सिंह और जयाप्रदा जैसे बडे़ नाम भी शामिल हैं. कभी समाजवादी विचारधारा को पालपोस कर खड़ा करने वाले अमर सिंह व जयाप्रदा अब राष्ट्रीय लोकदल से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. अमर सिंह कहते हैं, ‘‘मेरे 2 बेटियां हैं, कोई बेटा नहीं है. ऐसे में मैं लोकदल नेता जयंत चौधरी को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करता हूं.’’ अमर सिंह ऐसे बोल मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव के लिए कभी बोला करते थे. ऐन चुनाव के पहले नेता न केवल पार्टी बदल रहे हैं बल्कि नए रिश्ते बनाने से भी नहीं चूक रहे हैं. वैसे देखा जाए तो चुनाव के पहले दलबदल करने की आदत नई नहीं है. नई बात यह है कि इस बार दलबदल में विचारधारा को पूरी तरह से ताक पर रख दिया गया है. 
अपनी बातों पर भरोसा नहीं
केवल दलबदल करने वाले ये नेता ही नहीं, उन को टिकट देनी वाली पार्टियां भी सवालों के घेरे में हैं. नेताओं ने साफ कर दिया है कि उन को किसी तरह की नीतियों या अपनी कही बातों पर भरोसा नहीं है. ऐसे नेता राजनीति में इसलिए हैं कि उन की सत्ता बनी रहे. इस के लिए उन को जिस का भी सहारा लेना पडे़गा, लेने में कोई परेशानी नहीं है. क ई नेताओं ने इस चुनाव में टिकट कटने पर दलबदल करने का काम किया है. उन में राजस्थान के भाजपा नेता जसवंत सिंह प्रमुख हैं. 
भाजपा ने जब जसवंत सिंह को बाड़मेर से टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में आ गए. यहां भाजपा ने कांग्रेस से आए सोनाराम को टिकट दिया है. वैसे जसवंत सिंह इस के पहले दार्जिलिंग से लोकसभा पहुंचे थे. वे अपना रिटायरमैंट बाड़मेर सीट से लेना चाहते हैं. उन के बेटे मानवेंद्र सिंह भाजपा से विधायक हैं. 
नेता चुनाव हारने का जोखिम लेने को तैयार रहते हैं. पर चुनाव न लड़ें, ऐसा नहीं करना चाहते. हारने के बाद भी नेताओं की पहचान बनी रहती है. नेताओं को आम लोगों की कोई परवा नहीं होती. वे केवल अपने चमचों की बात सुनते और उसी पर यकीन करते हैं. हैरानी की बात यह है कि नेताओं के चमचे उन को सही बात नहीं बताते, केवल उन की तारीफ ही करते रहते हैं. ऐसे में नेता को सचाई का पता नहीं चलता है. दरअसल, नेता को अपने आसपास भीड़ देखने की बुरी आदत पड़ जाती है. वह चमचों का सच जान कर भी इसलिए चुप रहता है कि उस के आसपास लोगों की भीड़ लगी रहे. 
क्यों बदलते हैं पार्टी
नेताओं का राजनीति और विचारधारा से कोई मतलब नहीं रह गया है. नेताओं और उन के चमचों के कारण जनता का एक बड़ा वर्ग नेताओं से नाराज हो जाता है. ऐसे में नेताओं को लगता है कि अब चुनाव जीतना संभव नहीं है. तब वे दलबदल कर दोबारा चुनाव? मैदान में आ जाते हैं. 
कांग्रेस के सांसद रहे जगदंबिका पाल ने अगर अपनी सांसद निधि से क्षेत्र का सही तरह से विकास किया होता तो आज उन को अपनी सीट जीतने के लिए भाजपा की चौखट पर नाक नहीं रगड़नी पड़ती. जगदंबिका पाल को लगता है कि कांग्रेसी विचारधारा को मानने वाला वोटर उन की सचाई को समझ चुका है. ऐसे में अब भाजपाई विचारधारा वाले वोटर को बरगलाया जाए.
जिन नेताओं ने दलबदल किया उन में से ज्यादातर नेता अपने इलाके में ही सिमट कर रह गए थे. वे अपने इलाके में जाते तक नहीं थे. इन में से ज्यादातर को यह लग रहा है कि भाजपा की पतंग ऊंची उड़ रही है, वे उस के सहारे अपनी वाहवाही भी करवा सकते हैं. कल तक जो नेता भाजपा को पानी पीपी कर कोस रहे थे अब उस की वाहवाह करते दिख रहे हैं.
हकीकत में इन लोगों ने जिस पार्टी में ये थे वहां के लिए कुछ नहीं किया. जहां जा रहे हैं वहां भी वे कुछ नहीं करेंगे. इन की न कोई अपनी नीति है न  जिम्मेदारी. जिस पार्टी में गए हैं वहां 2 दिन तक इन का खूब आदर होगा. इस के बाद इन की हालत पुराने रिश्तेदार सी हो जाएगी. 
नेताओं के इस खेल को भाजपा भी समझती है. उसे अपने नेता, वोटर और उस के वोटबैंक पर पूरा भरोसा नहीं था. ऐसे में उसे लग रहा है कि जिन नेताओं से जो कुछ मिल रहा है, ले लो. बाद में उन को देख लिया जाएगा. जो होशियार नेता थे उन्होंने अपना विलय भाजपा में नहीं किया ताकि समय आते ही आसानी से भाजपा का साथ छोड़ जाएं. जो नेता पार्टी विलय कर भाजपा में आ चुके हैं उन के सामने असमंजस के हालात बने रहेंगे. जो नेता चुनाव हार जाएंगे उन के सामने तो रास्ते खुले होंगे पर जो जीत कर सांसद बन जाएंगे वे कब तक 
घुटन महसूस करेंगे, यह देखने वाली बात होगी.                                                 

दलित नेता जीत की चाह में विचारधारा दरकिनार

इसे सत्ता की भूख कहें या सियासी समझौता, पर इतना तो तय है कि दलित विचारधारा के समर्थक व हाशिए पर पड़ी इस जाति की रहनुमाई का दावा करने वाले नेता चुनाव आते ही स्वार्थसिद्धि में मसरूफ हो जाते हैं. आज जागरूक हो चुका दलित क्या अपने तथाकथित रहनुमाओं के पीछे चलेगा, इस का विश्लेषण कर रहे हैं शैलेंद्र.
‘‘देश की राजनीति में दलित विचारधारा का अपना अलग और खास महत्त्व है. दलित बिरादरी अब जागरूक और समझदार हो चली है. वह अपना भलाबुरा सहीसही समझती है. ऐसे में यह समझना कि वह दलित नेताओं की भक्त बनी रहेगी, जरूरी नहीं,’’ यह कहना है दलित चिंतक और अवकाशप्राप्त पुलिस औफिसर एस आर दारापुरी का. वे कहते हैं, ‘‘साल 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में दलितों की अगुआई करने वाली बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा को उन सीटों पर भी हार का मुंह देखना पड़ा जो दलित के लिए सुरक्षित थीं. कई ऐसे दलित नेता चुनाव हारे जो दलितों की अगुआई का दंभ भरते थे.’’
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के ग्रामीण इलाके में मोहनलालगंज विधानसभा सीट है. यह दलित बिरादरी के लिए सुरक्षित सीट है. यहां दलितों के बडे़ नेता होने का दंभ भरने वाले आर के चौधरी चुनाव लड़ रहे थे.
आर के चौधरी बसपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके थे. वे कांशीराम के समय से मायावती के साथ जुडे़ रहे. बसपा से अलग
हो कर उन्होंने ‘बीएस 4’ नामक पार्टी बनाई. वे मोहनलालगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह भी चुके थे. ऐसे में उन का दावा मजबूत था. मोहनलालगंज के वोटरों ने न केवल आर के चौधरी को हरा दिया बल्कि बसपा से चुनाव लड़ने वाली पुष्पा रावत को भी वोट नहीं दिया. यहां पिछड़ों की अगुआई करने वाली समाजवादी पार्टी की चंद्रा रावत को जीत मिली. ऐसी एक नहीं, कई सुरक्षित सीटें हैं जहां से बसपा को हार का सामना करना पड़ा था.
सुरक्षित सीटों पर केवल बसपा ही नहीं दलित की अगुआई का दावा करने वाली तमाम पार्टियां भी जीत हासिल नहीं कर पाईं. दलित नेता उदितराज की इंडियन जस्टिस पार्टी, रामदास अठावले  की रिपब्लिकन पार्टी औफ इंडिया और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी यानी लोजपा भी इस लाइन में खड़ी नजर आती हैं. एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘दलित वर्ग की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है. वह अब वोटबैंक बन कर नहीं रहना चाहता. उस ने देखा है कि किस तरह से दलितों की राजनीति करने वाले नेताओं ने उस का शोषण किया है. बसपा की बदलती राजनीति का प्रभाव इस वोटबैंक पर बहुत गहरे तक हुआ है. अब वह ऐसे किसी बहकावे में आएगा, इस के आसार नजर नहीं
आ रहे.’’
आरक्षण का सब्जबाग
अखिल भारतीय पासी समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामलखन पासी उत्तर प्रदेश में पासी समाज को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से बढ़ाने की दिशा में 35 साल से काम कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘‘इंडियन जस्टिस पार्टी के उदितराज ने आरक्षण के नाम पर दिल्ली में कुछ लोगों की भीड़ एकत्र कर यह दिखाने की कोशिश की थी कि वे दलितों के बडे़ नेता हैं. जब वे उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए आए तो उन की बुरी हालत हो गई. वे 3 बार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, रौबर्ट्सगंज और हरदोई से लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं. लोकसभा चुनाव में उन को अधिकतम 5 हजार वोट ही मिल सके. ऐसे में उत्तर प्रदेश में उदितराज के जनाधार को समझा जा सकता है.’’
वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘दलित वोटबैंक देख चुका है कि उस के नाम का सहारा ले कर राजनीतिक दल और नेता अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं. उसे कोई लाभ नहीं मिला है. बसपा ने अपने नेताओं के हितों को पूरा करने के लिए दलितपिछड़ों के गठबंधन को 1995 में तोड़ा, उस का नुकसान दलित और पिछड़ी दोनों ही जातियों को उठाना पड़ा. अगर दलित पिछड़ों का यह गठबंधन उत्तर प्रदेश में कायम रहता तो इस वर्ग का ज्यादा भला हो सकता था. दलित पिछड़ों के टकराव में ये जातियां हाशिए पर आ गईं. इन के नेता अवसरवादी गठबंधन कर के अपना हित साधने में सफल होते रहे.’’
अहम है दलित वोट
देश की राजनीति में दलित वोटबैंक करीब 20 फीसदी के आसपास है. दलित वोटों का एक बड़ा यानी भाजपा समूह दलित पार्टियों के साथ जुड़ा रहा है. एक हिस्सा अभी भी कांग्रेस के साथ खड़ा नजर आता है. भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा ने दलितों को जोड़ने के लिए समयसमय पर कुछ उपाय किए पर दलित वोट उस के साथ खड़ा नहीं हुआ.
भाजपा में दलितों को प्रतिनिधित्व देने के नाम पर पार्टी फोरम के लेवल पर संगठन भी बनाए गए हैं पर इन के नेताओं को कभी महत्त्व नहीं दिया गया. भाजपा को अपनी भूल का एहसास चुनाव के समय होता है. इस भूल को सुधारने के लिए वह फौरीतौर पर दलित नेताओं को पार्टी में जोड़ने का काम करती है.
उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव के पहले बसपा से निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा कोभाजपा में लाया गया. इस के बाद उन का क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला. बाद में बाबू सिंह कुशवाहा की पत्नी और भाई समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. रामलखन पासी कहते हैं, ‘‘भाजपा वैचारिक रूप से ऊंची जातियों की पार्टी है, जिन की सोच मनुवादी व्यवस्था पर कायम है. ऐसे में उस के साथ दलित नेता या दलित नेताओं के साथ भाजपा लंबे समय तक नहीं रह सकती.
‘‘चुनाव के समय भाजपा ऐसे काम वोटबैंक को संदेश देने के लिए करती है. दलित वोटर उस की इस बात को समझता है. ऐसे गठबंधन समाज का किसी भी तरह से हित नहीं कर पाएंगे.’’
योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘भाजपा ने दलितपिछड़ों को एकजुट होने से रोकने के लिए बसपा नेता मायावती को सहारा दे कर उन को मुख्यमंत्री बनवाने का काम किया था. इस से दलितपिछड़ों के वोट बंट गए पर इस का लाभ भाजपा को नहीं हुआ. अपनी इसी रणनीति के कारण भाजपा उत्तर प्रदेश में लगातार पिछड़ती चली गई. इस लोकसभा चुनाव में भी उसे अपने पर भरोसा नहीं है. इसी वजह से वह उदितराज, कौशल किशोर और अनुप्रिया पटेल जैसे दलित बिरादरी के नेताओं को साधने में लगी रही. ये दलित नेता भी बिरादरी में अपनी साख खो चुके हैं. इसी कारण अहम वोटबैंक होने के बाद भी दलित नेता हाशिए पर दिखते हैं.’’
विकास पर चढ़ा जातिवाद का रंग
भाजपा ने कांग्रेस के भ्रष्टाचार और गुजरात के विकास को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाने की बात कही थी. जैसेजैसे चुनाव प्रचार ने गति पकड़नी शुरू की, भाजपा के ये दोनों ही मुद्दे पिछड़ते नजर आने लगे. सीधेतौर पर भाजपा ने राममंदिर की बात करने से परहेज किया पर इशारोंइशारों में वह हिंदुत्व और भगवा रंग को सामने रखती रही. गुजरात के विकास की बात केवल भाषणों तक सीमित हो गई.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने को पिछड़ी जाति और चाय वाला बता कर प्रचारित किया. जब इस का असर भी वोटरों पर नहीं दिखा तो वह दलित वोटबैंक पर डोरे डालने लगी. इस के लिए वह दलित नेता रामविलास पासवान, उदित राज और रामदास अठावले को पार्टी में ले आई. भाजपा में इसे मोदी की नई टीम के रूप में प्रचारित किया जाने लगा.
बिहार में 15 फीसदी दलित वोट हैं. यह कहा जाता रहा है कि बिहार में रामविलास पासवान का इस वोटबैंक पर मजबूत कब्जा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में यह महसूस नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान की पार्टी 12 सीटों पर चुनाव लड़ी पर एक भी सीट पर उसे जीत हासिल नहीं हो सकी. दरअसल, बिहार में दलित वोटों के 15 फीसदी में से केवल 4 फीसदी पर ही रामविलास पासवान का प्रभाव है. यह पूरा वोटबैंक रामविलास का साथ देता नहीं दिख रहा है. बिहार में भाजपा की छवि सवर्ण पार्टी के तौर पर है. ऐसे में रामविलास के साथ आने से भाजपा की यह छवि सही दिख सकती है.
उत्तर प्रदेश में उदितराज का तो इस से भी बुरा हाल है. आरक्षण की राजनीति कर के उदितराज दलितों के नेता जरूर हो सकते हैं पर उन के साथ वोटर नहीं हैं. उदितराज राजनीतिक रूप से भाजपा के लिए किसी भी तरह से लाभकारी नहीं हो सकते. उन का प्रभाव केवल सोनकर बिरादरी पर है जिन की आबादी बहुत कम है. वह भी पूरी तरह से उदित राज के पक्ष में एकजुट नहीं है.
महाराष्ट्र के रामदास अठावले पहले कांग्रेस व एनसीपी के साथ रहे हैं. 2009 में लोकसभा चुनाव में हार के बाद वे इस गठबंधन से बाहर हुए और अब भाजपा के साथ हैं. महाराष्ट्र में उन का प्रभाव केवल मुंबई तक ही सीमित है. महाराष्ट्र में वे शुरू से ही भाजपा व शिवसेना के विरोध की राजनीति करते रहे हैं. ऐसे में वे इन के साथ कितने दिन चल पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी.
भाजपा का छिपा स्वार्थ
भाजपा के लोग मानते हैं कि दलित नेताओं के आने से भाजपा को कोई बहुत बड़ा लाभ नहीं होने वाला है. दलित वोटबैंक इन के साथ नहीं है. इन को भाजपा में लाना पार्टी की एक रणनीति का हिस्सा भर है.
नरेंद्र मोदी का विरोध करने वाले तर्क देते थे कि उन की अगुआई में दूसरे दल भाजपा के गठबंधन का साथ नहीं देंगे. इन छोटीछोटी पार्टियों को अपने साथ ला कर भाजपा इस तर्क का उत्तर देने की कोशिश कर रही है. इन नेताओं से भाजपा का केवल यही स्वार्थ है.
इस बहाने अगर कुछ वोट उसे मिल  जाएं तो वह उस के लिए अतिरिक्त लाभ होगा.

आजादी के 67 साल फिर भी भारत बेहाल

अनोखा मुल्क है भारत. देश के शहर, कसबे और गांव सब अजीबोगरीब और अव्यवस्थित नजर आते हैं. नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी अपनी सरकारों के गुड गवर्नेंस के जुमले बेशर्मी से दोहराते हैं लेकिन जरा जा कर तो देखें बाजार, सड़क, गलियां, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, सरकारी दफ्तरों में कुशासन की गंदगी सड़ांध मार रही है. भ्रष्टाचार और प्रदूषण के संक्रमण से बीमार होते हमारे देश की कुछ ऐसी ही तसवीर पेश करती जगदीश पंवार की रिपोर्ट.
 
 
देश के 2 बड़े नेता भाजपा के नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के राहुल गांधी अपनीअपनी सरकारों के विकास के ढोल पीटते दिखाई देते हैं, गुड गवर्नेंस पर भी बोलते हैं पर उन का विकास कैसा है, किस के लिए है, उन का सुशासन कैसा है? 
छोटे शहर, कसबे कूड़ेकचरे के ढेर से अटे पड़े हैं. सड़कें, गलियां टूटीफूटी हैं. नालियों का पानी गंदगी से सड़ांध मार रहा है. चौराहों के कोनों पर नगरपालिका या परिषदों ने कूड़ाघर बना रखे हैं. वाहन सड़कों, गलियों में बेतरतीब खड़े दिखते
हैं. रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, बाजार, गलीमहल्ले, कालोनियां, सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल, सरकारी दफ्तर और धर्मस्थल सभी व्यवस्था पर सवाल उठाते नजर आ रहे हैं. 
धरती पर अगर कहीं व्यवस्था का बंटाधार है तो वह भारत में है. राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक अव्यवस्था के बीच हर तरफ लोगों की रोजमर्रा की परेशानियों का आलम है पर चुनावी चिल्लपों के बीच किसी भी नेता या राजनीतिक दल के घोषणापत्रों, नारों व भाषणों में उन समस्याओं का जिक्र नहीं है, जिन से लोग रोजाना रूबरू होते हैं. कोई भी राजनीतिक दल उन व्यावहारिक दिक्कतों की बात करता सुनाई नहीं दिया जिन से हर शहर, कसबा और गांववासी दोचार होता आ रहा है. 
चुनाव आते ही वादों की झड़ी लगा कर हर दल का नेता सत्ता पर काबिज होते ही जनता को अनसुना कर देता है. आम जनता के सामने आने वाली बिजली, पानी, शिक्षा, महंगाई, भ्रष्टाचार और न्याय व्यवस्था जैसी आधारभूत चुनौतियों से मुंह चुराते इन सियासतदां की बदौलत ही इस देश की ऐसी दुर्गति हुई है. पता नहीं कब तक और हमारे जनप्रतिनिधि जनता की चुनौतियों से निबटने के बजाय उन से भागते फिरेंगे. 
आम जनता के लिए पगपग पर परेशानियां मुंहबाए खड़ी हैं. 23 मार्च की सुबह 6 बजे हम एनसीआर के कुछ शहरों, कसबों के विकास का जायजा लेने दिल्ली के रोहिणी स्थित घर से निकले. एक के बाद एक 3-4 आटोरिकशा वालों को रुकने का इशारा किया. लेकिन वे रुके नहीं, सभी अनदेखा कर चले गए. फिर एक आटो रुका. 
‘सराय रोहिल्ला चलोगे?’
 ‘250 रुपए लगेंगे’, आटो वाले ने किराया बताया. 
‘लेकिन मीटर से 120 के आसपास लगते हैं?’ 
जाम मिलेगा, टै्रफिक वाले नहीं जाने देंगे जैसे रटेरटाए बहाने बनाए. जिदबहस के बाद 150 रुपए में जाने को तैयार हुआ.  6.40 बजे उस ने रेलवे स्टेशन पर उतार दिया. हम खुश थे कि ट्रेन 7.10 की है. समय से पहले पहुंच गए. 2 टिकट खिड़की थीं लेकिन दोनों पर भीड़. फिर भी तसल्ली थी कि 10-15 मिनट में नंबर आ ही जाएगा. ज्योंज्यों खिड़की के नजदीक पहुंचने लगे, आसपास अव्यवस्था का नजारा दिखने लगा. 
बगैर लाइन दोनों तरफ 10-10,
12-12 लोग टिकट लेने के लिए खड़े थे. पीछे से आवाजें आ रही थीं, लाइन में आ जाओ पर लोग टस से मस नहीं हो रहे थे. एक तरफ महिलाएं टिकट लेने की जद्दोजहद में थीं. महिलाएं भी बिना लाइन एकदूसरे से धक्कामुक्की कर रही थीं. 
टिकट खिड़की के आसपास पुलिस का कोई जवान नहीं था जो लोगों को लाइन में लगने को कह सके. टिकट लेना ही परेशानी नहीं, टिकट लेने के बाद भीड़ से बाहर निकलना और भी मुश्किल था. भीड़ को हटा कर लाइन के लिए बनी दोनों ओर लोहे की रेलिंग के नीचे बैठ कर निकलना पड़ रहा था. महिलाओं के लिए भीड़ के बीच रेलिंग के नीचे से निकलना बड़ा मुश्किल हो रहा था, किसी तरह जूझ कर निकल रही थीं. पुरुषों ने अपने साथ की महिलाओं को इसलिए टिकट लेने भेजा ताकि महिलाओं को जल्दी टिकट मिल सके पर उलटा देरी और परेशानी अधिक उठानी पड़ रही थी. शोरशराबा, हायतौबा मची थी. 
लाइन में खड़े 40 मिनट बीत चुके थे पर नंबर नहीं आया. अभी भी 10-12 लोग आगे थे, साइड में बगैर लाइन वाले अलग. तभी किसी सवारी ने कहा कि  ट्रेन चल पड़ी है. 7.10 बजे वाली गाड़ी निकल गई. अब तक हम लाइन में ही थे. किसी ने बताया अब अगली ट्रेन 8.20 पर है. धीरेधीरे लाइन के खिसकने से हम आगे पहुंच चुके थे. सामने अंदर 50-55 साल के मुरदे से दिखने वाले टिकट क्लर्क के मरे हुए से हाथ चल रहे थे. उसे इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बाहर लाइन में खड़े लोगों का क्या हाल है, किस कदर परेशान हैं. टिकट लेने के बाद बड़ी राहत मिली. लगा, जैसे कोई बड़ी मुहिम जीत ली हो.
ऐसे माहौल में किसी का सामान गायब हो जाए, किसी की जेब कट जाए, किसी का बच्चा इधरउधर हो जाए तो कोई जिम्मेदार नहीं, किसी की जवाबदेही नहीं है. यह देश की राजधानी दिल्ली के एक बड़े रेलवे स्टेशन का हाल है. यहां से गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, बिहार और दक्षिणी राज्यों के लिए ट्रेनों के आवागमन की सुविधा है. 
उस के बाद हम 8.20 बजे की ट्रेन में बैठ गए. करीब डेढ़ घंटे बाद हरियाणा के रेवाड़ी और फिर बस से इतने ही समय में महेंद्रगढ़ जिले के नारनौल कसबे में उतरे. यह तहसील मुख्यालय है. बस स्टैंड काफी बड़ा था पर चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य. करीब 1 दर्जन बसों के खड़े होने की स्टैंड में व्यवस्था थी. बस स्टैंड चारों तरफ से दीवारों से घिरा था पर अंदर गंदगी भरी पड़ी थी. यात्री परेशान थे. अंदर टौयलेट बना हुआ था. टौयलट के बाहर एक अपंग व्यक्ति बैठा था पर भीतर बदबू थी. नाक पर रूमाल रख कर फारिग होना पड़ रहा था. यात्री इस टौयलेट का इस्तेमाल करने के बजाय बस स्टैंड के भीतर ही दीवारों पर पेशाब करते हैं. समूचे परिसर में कूड़ेदान कहीं दिखाई नहीं दिया.
दोपहर के 12 बज चुके थे. बुकिंग खिड़कियों के पास प्रबंधक का केबिन दिखाई दिया. सामने एक सज्जन माथे पर हाथ रखे तनाव और सोचने की मुद्रा में बैठे दिखाई दिए. टेबल पर कोई फाइल, कागज नहीं. कुछ कर्मचारी आ कर उन से अभिवादन कर के जा रहे थे. लगा, इस अधिकारी का काम शायद कर्मचारियों की नमस्ते का जवाब देना ही हो. जब हम अंदर दाखिल हुए और सफाई व्यवस्था व यात्रियों की सुविधा से संबंधित उन से सवाल किए तो सोच व तनाव में दिखने वाले ये सज्जन अब मुसकराहट और विनम्रता के साथ पिघले हुए नजर आने लगे. 
वीरभान नाम के इस अधिकारी ने बताया कि बस स्टैंड की सफाई व्यवस्था के लिए सरकारी कर्मचारी भी हैं और प्राइवेट भी. रोजाना यहां से अलगअलग राज्यों के लिए लगभग 120 बसों का संचालन होता है इसलिए यहां यात्रियों की भरमार रहती है. लेकिन फैले कूड़े और बदबू पर उन का कोई जवाब नहीं था.
न्याय की उड़ती धज्जियां
बगल में सटे केबिन के बाहर रणवीर सिंह, स. जिला न्यायवादी की तख्ती लगी थी. अंगरेजी में लिखा था, एडीए, एचपीएलएस. वीरभान से जब हम ने उन के बारे में पूछा कि पास वाले केबिन में बैठे सज्जन क्या देखते हैं? तो उन्होंने बताया कि वे रोडवेज के अदालती मामले देखते हैं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता इसलिए हुई क्योंकि न्यायवादी के नेमप्लेट लगे केबिन में मुख्य सीट पर बैठे हुए धूम्रपान कर रहे यह शख्स न्याय की धज्जियां धुएं में उड़ाते दिख रहे थे.
बस स्टैंड पर कई लोग खाली बैठे थे. कोई ताश खेल रहा था, कोई गप लड़ा रहा था. कोई कामधाम नहीं. ये लोग स्थानीय लग रहे थे, मुसाफिर नहीं. यात्री चोरउचक्कों, उठाईगीरों से हरदम डरे, सहमे. सुरक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं.
उस के बाद हम बस स्टैंड से बाहर निकल कर मुख्य सड़क पर आ गए. अद्भुत, अजीबोगरीब नजारा था. समूची सड़क पर अव्यवस्थित दृश्य. करीब 40 फुट लंबी इस रोड के दोनों ओर आड़ेतिरछे वाहनों की कतार, दुकानों के आगे दोनों तरफ 8-8,10-10 फुट पर फैला सामान. आनेजाने वाले वाहनों और आम लोगों के लिए बीच में बची संकरी सड़क. सड़क भी टूटीफूटी. यहां से गुजरना जांबाजों के ही वश की बात थी. आम लोगों के लिए पैदल चलना बड़ा दूभर था. 

नारनौल पुराना कसबा है. बाजारों में सजी दुकानें, जगहजगह मंदिर, सड़कों पर टैंपो, आटोरिकशा, खच्चर गाडि़यां, यह नजारा था यहां के महावीर चौक से रेलवे स्टेशन, लोहा मार्केट, नई मंडी का. बस स्टैंड से रेलवे स्टेशन की ओर करीब 
4 किलोमीटर का खस्ताहाल रास्ता, दुकानों के आगे 7-8 फुट तक सामान रख कर सड़कों का आवागमन मुश्किल. राहगीरों के लिए अड़चनों का अंबार. रेलवे रोड पर नई मंडी की अधिकांश दुकानें मानो बाहर मुख्य सड़क पर आ गई हैं. श्रीअंबा ट्रेडर्स, गुजरमल पंसारी, सतीश इंटरप्राइजैज, रेलवे स्टेशन के आगे छज्जूराम हलवाई की भट्ठी सड़क पर ही सुलग रही थी.
सिविल अस्पताल की तो बात ही छोड़ दीजिए. ऐसा लगता है अस्पताल कूड़ाघर के बीच में बना हुआ हो. मुख्य दरवाजे के भीतर पुलिस चौकी और आगे अस्पताल. बाहरी दीवारों के आसपास कूड़ेकचरे के ढेर. 2 बड़े कूडे़दान लगे हुए थे जो कचरे से उफन रहे थे. सामने श्री अग्रवाल सभा का विशाल भवन. भवन से जुड़े श्रीदुर्गा मंदिर में महिलाओं का भजनकीर्तन चल रहा था पर उस के सामने अस्पताल के कोने में कूड़े में से धुआं निकल कर आसपास का माहौल दुर्गंधयुक्त और प्रदूषित बना रहा था पर यहां रहने वाले दुकानदारों व अन्य लोगों को मानो कोई परवा नहीं. शायद इसलिए नहीं है कि दुर्गा माता सब संकट दूर कर देंगी.
लोहा मंडी के आगे सड़क पर सामान फैला हुआ था. नीचे 3 फुट गहरा, इतना ही चौड़ा नाला दुकानों के आगे से बह रहा था. कहींकहीं से नाले की हटी पट्टी के कारण गंदे पानी की बदबू फैल रही थी. काठ मंडी का भी यही हाल था.
सड़क के किनारे लगे खंभों के तार खुले पड़े हुए थे. गलियों में मिट्टी के ढेर लगे थे. महल्ला कूड़े के ढेर में तबदील दिख रहा था. जगहजगह नालियों की गाद निकाल कर बाहर छोड़ दी गई थी.
अव्यवस्था का आलम
केंद्र सरकार के दफ्तरों में एक पोस्टऔफिस का भवन नया और सुंदर तो था पर 3 दरवाजों वाले इस कार्यालय में प्रवेश के लिए नाक पर रूमाल रख कर जाना पड़ा. पोस्टऔफिस के बाहर की करीब 200 फुट की दीवार कचरे, मिट्टी के ढेर से अटी पड़ी थी. एक कमरे में
3 कर्मचारी हंसीठट्ठों में लीन थे. कमरे के बाहर और भीतर गर्द, मिट्टी जमे कागजों के बंडलों के सैकड़ों ढेर. सामने ही पोस्टमास्टर के एस झाझोलिया की नेमप्लेट लगी थी पर साहब नदारद थे. 
दोपहर के साढे़ 3 बज चुके थे. बाहर कोई चौकीदार नहीं था और न ही औफिस में ज्यादा भीड़ नजर आई. 4-5 युवक नौकरियों के फौर्म और लिफाफा लिए रजिस्ट्री के लिए खड़े थे पर अंदर 8 काउंटरों में 7 लोग थे जिन में 3 महिला और 4 पुरुष थे. बीचबीच में बाहर से एक कर्मचारी आ कर जोर से बोल कर सब का ध्यान बंटा रहा था. 
पोस्टऔफिस के नजदीक स्थित नगरपरिषद कार्यालय के मुख्य दरवाजे के बाहर बड़ा सा कूड़े का ढेर लगा था. समझा जा सकता है कि जब स्वयं साफसफाई कराने वाले विभाग के दरवाजे पर कचरे का पहाड़ लगा हो तो वह शहर की सफाई कैसे सुनिश्चित करा सकता है.
जहां नजर गई वहीं अव्यवस्था का आलम. मार्केट कमेटी के बाहर आड़ेतिरछे स्कूटर, मोटरसाइकिलें कीचड़ और कूड़े के ऊपर खड़ी थीं. आसपास गाय, कुत्ते, सूअर मंडरा रहे थे. यहां आने वाले किसान, व्यापारियों को किस कदर जूझते हुए इन सब से बचतेबचाते हुए आनाजाना पड़ता होगा, दिख रहा था. 
अनोखा देश है भारत. हमारे शहर, कसबे किसी बाहरी को सचमुच अजीबोगरीब लगते हैं. कुछ भी सुव्यवस्थित नहीं है. बाजार, सड़कें, गलियां, बस स्टैंड, बसें, रेलवे स्टेशन, रेलगाडि़यां, सरकारी दफ्तर, धर्मस्थल सभी व्यवस्था को ठेंगा दिखाते नजर आते हैं. लोग परेशान दिखते हैं.
सड़कों पर जानलेवा गड्ढे हैं. सड़कों, गलियों में बाहर कपड़े सूख रहे हैं. किनारे पर गाय, भैंसों का गोबर और उपले सुखाए जा रहे हैं.
शहर में मंदिरों की लाइन है पर लोगों को शांति, सुकून नहीं है. अंगरेजी स्कूलों की भरमार है लेकिन शिक्षा नहीं.
केंद्र सरकार के एक और विभाग रेलवे स्टेशन की बात करें तो नया और काफी विशाल भवन है. दिल्ली, अहमदाबाद, मुंबई रूट वाले इस स्टेशन से ट्रेनों का आवागमन अधिक नहीं है. इस वजह से यात्रियों को लोकल ट्रेनों की जरूरत है पर जनता की परेशानी कौन हल करे. यहां दोपहर ढाई बजे के बाद रेवाड़ी के लिए रात को साढे़ 8 बजे गाड़ी है. यानी पूरे 8 घंटे बाद. माल के लिए बने शैड के नीचे जानवरों का जमावड़ा, स्टेशन पर गंदगी फैलाने वालों के लिए कानूनी दंड की चेतावनी जरूर दी गई है पर यह व्यवस्था देखने वाला कोई नजर नहीं आया.
रेलवे पूछताछ कार्यालय में कोई नहीं था. चारों टिकट खिड़कियां बंद थीं. स्टेशन मास्टर के कमरे के बाहर डी एस चौहान की तख्ती लटकी हुई थी पर साहब थे नहीं. प्रवेशद्वार के बाहर फैली गंदगी रेल अधिकारियों की उस कानूनी चेतावनी को ठेंगा दिखा रही थी जिस में कहा गया है, ‘भारतीय रेल अधिनियम 212 के अंतर्गत रेल परिसर में किसी तरह की गंदगी फैलाने पर रेल अधिनियम 1989 की धारा 198 के तहत 500 रुपए तक जुर्माना किया जा सकता है.’
शाम के 6.30 बज चुके थे. अहिंसा तिराहे के पास पाताली हनुमान मंदिर से कानफोड़ू शोर गूंज रहा था. वाहनों के शोरशराबे ने वातावरण को दमघोंटू बना दिया था. आसपास रहने वाले दुकानदार और बड़ेबूढे़, बीमार, बच्चे कैसे सहन कर रहे होंगे. पर आस्था के अंधों की भीड़ को भला दूसरों की परेशानियों से क्या लेनादेना. रेलवे रोड पर श्रीलक्ष्मीनारायण मंदिर, श्रीदुर्गा मंदिर अंदर से मार्बल के बने सुंदर दिखते थे पर बाहर भक्तों का दुख, क्लेश बढ़ता जा रहा था. कोई देखने, सुनने वाला नहीं था.
जनता हलकान नेता अनजान
यादव बाहुल्य इस क्षेत्र में लोकसभा चुनावों की चर्चा का मामला था. विकास, वादों और वादाखिलाफी की बातें. जाट आरक्षण पर चर्चा. इलाके से मौजूदा सांसद श्रुति चौधरी हैं जोकि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल के परिवार की हैं. उन्हें ताकतवर नेता माने जाने के बावजूद उन के इलाके की जनता को पगपग पर परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.
नारनौल से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर हरियाणाराजस्थान सीमा से सटा सिंघाना कसबा है. इस कसबे की तसवीर भी कोई अलग नहीं थी. एक जैसी समस्याएं. आधा घंटा बारिश के बाद सड़कों, गलियों की दशा बुरी हो गई थी. लोग सड़क किनारे चलने वाले वाहनों से बच कर चल रहे थे. पानी, कीचड़ उछल कर आसपास बिखर रहा था. मुख्य सड़क के पास से गुजर रही इस गली का बुरा हाल था. करीब
15 फुट की इस गली के दोनों ओर नालियां हैं. नालियों का कीचड़ निकाल कर बाहर छोड़ दिया गया था. आनेजाने वालों के लिए बीच में महज 5 फुट की जगह बची. छोटे वाहन भी यहीं से गुजर रहे थे.
यह देश के मशहूर उद्योगपति सेठ पीरामल का बगड़ कसबा है. बस स्टैंड पर यात्रियों के लिए छाया का कोई साधन नहीं था. लोग पेड़ के नीचे खड़े थे. दिल्ली से झुंझुनू के बीच स्थित इस कसबे में सेठ ने स्कूल, कालेज, बागबगीचे, अस्पताल, मंदिर बनवाए पर उस पैसे की कीमत न प्रशासन ने समझी, न जनता ने. मुख्य सड़क के दोनों ओर गंदगी के ढेर लगे हुए थे.
कसबे में निर्दलीय प्रत्याशी डा. राजकुमार की चुनावी रैली निकलने वाली थी. सड़क के दोनों ओर आड़ीतिरछी खड़ी करीब 200 गाडि़यों ने जाम लगा दिया था. रोडवेज बसों और अन्य आनेजाने वाले वाहनों का रास्ता रुका हुआ था. रेंगरेंग कर वाहन चल रहे थे. पुलिस के दर्जनों जवान खड़े थे, जिन में 3 स्टार लगे पुलिस अफसर भी थे पर दूसरों को हो रही परेशानी कोई नहीं देख रहा था.
रात्रि को लौटते हुए रेवाड़ी रेलवे स्टेशन पर नौकरी की परीक्षा दे कर आ रहे युवाओं का भारी रेला था. अजमेर से जम्मूकश्मीर सुपर फास्ट पूजा ऐक्सप्रैस के रिजर्वेशन डब्बों में युवकों की भीड़ घुस गई. रिजर्वेशन वाले यात्री परेशान. ट्रेन के दरवाजों पर लटके हुए थे लोग. ऐसे हालात आएदिन शहरों में गाडि़यों, बसों में देखे जा सकते हैं पर न तो रेलवे प्रशासन न ही रोड यातायात विभाग युवाओं के लिए अलग से ट्रेन या बस की व्यवस्था करता है. सरकारें राजनीतिक पार्टियों के अधिवेशनों के लिए स्पैशल ट्रेनों की व्यवस्था तो कर सकती हैं पर युवाओं के लिए नहीं.
बसों में सवारियां ठूंसठूंस कर भरी जाती हैं. प्राइवेट बसें बेलगाम चलती हैं. आएदिन बेकुसूर लोग लापरवाही, अव्यवस्था के कारण मारे जाते हैं.
रेवाड़ी से लगभग 25 किलोमीटर दूर धारूहेड़ा के सरकुलर रोड व बस स्टैंड के पास गंदे पानी का बड़ा सा दरिया बना हुआ है. स्थानीय लोग कहते हैं कि इसे हटाने की मांग की जा रही है पर न तो नगरपालिका और न ही विधायक इस पर कोई ध्यान दे रहे हैं. 6 महीने से दोनों मुख्य मार्गों पर दूषित पानी होने पर नगरपालिका द्वारा करोड़ों रुपए खर्च कर देने के बावजूद इस की निकासी का प्रबंध नहीं हो पाया.
सरकुलर रोड धारूहेड़ा की मुख्य रोड है और इस पर से प्रतिदिन 2 हजार लोग गुजरते हैं. लोगों को सीवर के गंदे पानी के बीच से निकलना पड़ता है. इस के अलावा यहां के भगतसिंह चौक से दिल्ली की ओर आने वाली सड़क पर रेहड़ी व दुकानदारों द्वारा अवैध कब्जा करने से वाहन चालकों और आम लोगों को आनेजाने में दिक्कतें उठानी पड़ती हैं. क्षेत्र में प्रदूषण से बुरा हाल है.
अमल करने वाला नहीं
ताजा सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल गंदगी और वायु प्रदूषण से 80 लाख लोग बीमार पड़ रहे हैं. गंदगी से लोग परेशान हैं. सफाई व्यवस्था का न तो सरकार के पास और न ही समाज के पास कोई कारगर हल है. अगर इस का समाधान है भी तो अमल करने वाला कोई नहीं.
चारों ओर बदहाली, अव्यवस्था का आलम है. किसी भी पार्टी के एजेंडे में आम जनता के सामने आ रही व्यावहारिक दिक्कतों का समाधान नहीं है. ये समस्याएं एजेंडे में हैं ही नहीं. यह सब व्यवस्था कौन ठीक करेगा. कांग्रेस और भाजपा इन दिक्कतों के बारे में बात ही नहीं करतीं. ये दल इन समस्याओं से अनजान हैं. जनता भी इन बातों को नहीं उठाती. वह इसे अपनी नियति मान बैठी है. 
शहरों में जो चमक है वह महज 10 फीसदी लोगों के पैसों की है. शेष 90 फीसदी बदहाल हैं. तरक्की हुई है लेकिन अमीर और आम आदमी के अनुपात में भारी फर्क है. छोटे शहरों, कसबों में तरक्की कम, बदहाली, अव्यवस्था अधिक दिखाई देती है. 
नगरीय विकास में क्या ये चीजें नहीं आतीं? इन समस्याओं में भारी भ्रष्टाचार भी है पर भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन की बात केवल आम आदमी पार्टी करती है. वह झाड़ू से अव्यवस्था का सफाया करना चाहती है पर दिक्कत है कि राजनीतिक दल और जनता दलदल में रहने की आदी हो चुकी है पर इन दोनों को यह पता नहीं है कि इस से नुकसान इन का ही हो रहा है. 
अपनी ढपली अपना राग
भाजपा तो साधुसंतों के चमत्कारों की कहानियों में आस्था रखने वाली पार्टी है. संघ की पाठशाला से दीक्षित पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी कृष्णसुदामा की कथा पर यकीन करने वाले व्यक्ति हैं. इस कथा में गरीब सुदामा कृष्ण से मिलने जाता है और जब लौट कर अपने घर आता है तो टूटाफूटा झोंपड़ा सोने के महल में तबदील मिलता है. गंदगी की जगह साफसफाई मिलती है. इसी तरह की कांग्रेस की सोच है. अमीरीगरीबी को वह ऊपर वाले की देन मान कर चलती आई है.
अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो जनता अपनी रोजमर्रा की व्यावहारिक समस्याओं के किसी तरह के समाधान की उम्मीद नहीं करे. उन के पास युवाओं, महिलाओं, वृद्धों, बच्चों, व्यापारियों, गरीबों सब के लिए व्रत, मंत्र, कथाएं हैं और फिर वे खुद बनारस में भगवान शिव से सब के कल्याण की प्रार्थना करेंगे ही. 
आम जनता की दिक्कतों का व्यक्ति की तरक्की पर असर पड़ता है. विकास दर प्रभावित होती है. सरकारें केवल 10 प्रतिशत लोगों के लिए तमाम तरह की सुविधाएं मुहैया करा रही हैं बाकी 90 प्रतिशत मुसीबतें झेलते हुए रोजीरोटी कमा रहे हैं. नई सरकार के सामने मानव विकास के लिए लोगों में कार्यक्षमता बढ़ाना चुनौती है. साफसफाई, स्वच्छता, स्वस्थ माहौल, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि विकास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं.सरकारों को आम जनजीवन से जुड़ी व्यावहारिक दिक्कतों के समाधान के रास्ते ढूंढ़ने को प्राथमिकता देनी चाहिए. जनता को खुद भी अपनी इन समस्याओं के प्रति संजीदा होने की जरूरत है. 
 

क्रिकेट खेल नहीं तमाशा है

यह अफसोस है कि सुप्रीम कोर्ट क्रिकेट पर अपना समय लगा रहा है और उसे कौन चलाएगा, यह तय कर रहा है. क्रिकेट के प्रति भारतीयों का पागलपन चाहे जिस कद्र हो, क्रिकेट से देश को कुछ मिलता नहीं है. यह तो स्वास्थ्य बढ़ाने वाला खेल भी नहीं है.

ऐसे खेल में सट्टेबाजी हो या फिक्ंिसग, क्या फर्क पड़ता है. इस को कौन चलाए, यह क्रिकेट आयोजकों का मामला है क्योंकि यह खेल नहीं तमाशा है. हां, सुप्रीम कोर्ट पूछ सकता है कि क्रिकेट खिलाडि़यों को किस वजह से भारतरत्न, पद्मश्री अवार्ड आदि दिए जाते हैं. अगर इन्हें ये सब देने हैं तो सर्कस कलाकारों को पहले दें जो जान की बाजी लगा कर करतब दिखाते हैं ताकि दर्शक खुश हो सकें.   

अमीर, गरीब और राजनेता

भारत में अमीर और अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब गंदगी में फटेहाल रह रहे हैं. इस पर यकीन करने के लिए आंकड़ों की जरूरत नहीं है क्योंकि आंखों से साफ दिख रहा है. शहरों, छोटे या बडे़ सभी में मौल खुल रहे हैं, भव्य होटल बन रहे हैं, फैंसी गाडि़यों के शोरूम खुल रहे हैं, ऊंची दीवारों और गेटों से घिरी कालोनियां बन रही हैं, कपड़ों की दुकानें खुल रही हैं.

वहीं, गंदे मकानों की बस्तियां बढ़ रही हैं, लोग खचाखच भरी बसों में या टैंपोनुमा टैक्सियों में मलबे जैसे लदे चल रहे हैं. हर पटरी पर सस्ते खाने की दुकानें खुल रही हैं जहां खाने के साथ धुआं और गंदगी मुफ्त मिलती है. आम आदमी के लिए विषैला, गंदा पानी है. पहनने को सिर्फ ऐक्सपोर्ट सरप्लस हैं जो पटरियों पर बिकते हैं.

अमेरिका भी इस भेदभाव से बच नहीं रहा. 2009 से 2012 तक सिर्फ 3 सालों में जहां उच्च श्रेणी के 1 प्रतिशत लोगों की आय 30 प्रतिशत बढ़ी, वहीं शेष 99 प्रतिशत लोगों की आय मात्र आधा प्रतिशत. वहां के काफी शहरों से गरीबों का पलायन हो रहा है और अमीरों के लिए मकान तोड़ कर धड़ाधड़ भवन बनाए जा रहे हैं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की जगह रेडियो टैक्सियां लेने लगी हैं. 50 सैंट की कौफी के स्टौल के नजदीक ही 5 डौलर की कौफी की दुकानें खुल रही हैं.

नई संचार तकनीक के जरिए पैसा एक बार फिर कुछ लोगों के हाथों में इकट्ठा होने लगा है. जिन के पास कंप्यूटर और मोबाइल की तकनीक है वे मोटा लाभ कमाने लगे हैं. उन को धंधा चलाने में मदद करने वाली फाइनैंस कंपनियों और बैंकों के शेयरों के दाम दूने हो रहे हैं. ऊंची तकनीक वाला सामान बनाने वाली कंपनियां ट्रक भरभर कर पैसा कमा रही हैं.

यह भेदभाव दुनिया को विस्फोटक कगार पर ला रहा है. कम पैसे वाले 99 प्रतिशत लोग कई देशों में उग्र हो उठे हैं. भारत में आम आदमी पार्टी भी इन्हीं लोगों के कारण चमक रही है. इसी वर्ग के चलते अमेरिका में ‘औक्युपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन काफी तेज चला, हालांकि अब फीका हो गया है.

दुनिया के नेताओं को इस की चिंता है पर उन के हाथ बंधे हैं क्योंकि कारखानों, नौकरियों की बागडोर उन्हीं के हाथों में है जो 1 प्रतिशत में हैं. उन से बैर कौन ले, कैसे ले. वही राजनीति पर भी कब्जा जमाए बैठे हैं. नेता असहाय हैं, बेबस हैं.

 

क्राइमिया, रूस और भारत

सत्ता के मोह में अंधभक्ति के चलते कांगे्रस नेतृत्व की गठबंधन सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में क्राइमिया को जनमत संग्रह के आधार पर यूके्रन से उस के अलग होने व उसे रूसी साम्राज्य का हिस्सा मान कर एक तरह की राजनीतिक आत्महत्या की है. रूस से सटे यूक्रेन के हिस्से क्राइमिया की स्थिति कमोबेश वैसी ही है जैसी भारत में कश्मीर की है. अगर देश की मरजी के खिलाफ एक प्रांत जनमतसंग्रह करा ले और दूसरे देश में विलय को स्वीकृति दे दे तो यह कश्मीर के कट्टरपंथियों को निमंत्रण है कि वे भी ऐसा करें तो भारत सरकार दुनियाभर में ‘दुहाई है दुहाई है’ की मांग नहीं कर सकती.

यूक्रेन 50 साल तक जबरन सोवियत संघ के विशाल साम्राज्य का हिस्सा रहा है. 1991 में स्वतंत्र होने के बाद आज भी वहां रूसीभाषी काफी संख्या में हैं. क्राइमिया प्रांत में तो कुछ ज्यादा ही हैं. रूस की निगाह क्राइमिया पर लंबे समय से है क्योंकि वहां गरम पानी का समुद्र है और रूसी नौसेना का बड़ा अड्डा है. जब तक यूक्रेन रूस का हिस्सा था, वहां नौसेना के खूब केंद्र बने. पर बाद में भी रूस यूके्रन को अपने इशारे पर चलाना चाहता था.

पिछली बार यूके्रन के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी समर्थक अलेक्जेंडर तुरचीनोव चुनाव जीत गए थे पर हाल में जनता के विरोध के मद्देनजर उन्हें पद छोड़ना पड़ा. पूरा यूके्रन हाथ में न आते देख रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने क्राइमिया से ही संतोष कर लिया पर भारत सरकार के समर्थन की बात समझ नहीं आती.

भारत सरकार को आमतौर पर जनमत संग्रहों को नकारना चाहिए क्योंकि देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां अगर जनमत संग्रह की नौबत आए तो दूरगामी प्रभाव देखे बिना लोग अलग होने के बहकावे में आ सकते हैं. यहां हिंदूमुसलिम का ही सवाल नहीं है, हर बोली, रंग और संस्कृति का भी है.

अगर मिजोरम, नागालैंड, बोडाओं, माओवादियों, तमिलों, दलितों, पंडितों को अवसर दिए जाएं तो हर कोई अपना स्वतंत्र देश मांग सकता है और जनमत संग्रह में मूर्ख जनता मोहर लगा सकती है बिना यह सोचेसमझे कि भविष्य में यह आपसी युद्धों को न्योता देना होगा. भारत सरकार को रूस के इरादों का घोर विरोध करना चाहिए ताकि कभी हमारे साथ ऐसा हो तो दुनिया हमारा साथ दे.

 

हवाई जहाज का गायब होना

कुआलालंपुर से बीजिंग जाने वाली फ्लाइट एमएच 370 का लापता हो जाना उस की दुर्घटना से ज्यादा दर्दनाक रहा है. 12-15 दिन तक जब हवाईजहाज का पता न चला तो यह पक्का था कि सभी पर्यटक मारे गए हैं पर यह आश्चर्य रहा कि ऐसे समय जब एक आम आदमी को भी मोबाइल नैटवर्क की सहायता से भीड़ में से खोजा जा सकता है तो रडारों, सैटेलाइट संपर्कों के बावजूद इस भारीभरकम 777 बोइंग को क्यों नहीं ढूंढ़ा जा सका?

यह तो 10-12 दिनों में पक्का हो गया था कि हवाई जहाज अपने नियत फ्लाइट रूट से अलग हो कर कहीं गया पर उस के रेडियो कौंटैक्ट क्यों बंद किए गए और वह कैसे जगहजगह लगे रडारों से बचता हुआ निकल गया?

अगर यह हवाई जहाज गहरे समुद्र में गिरा है तो शायद उसे वर्षों तक ढूंढ़ा न जा सके. 10 हजार फुट की गहराई के समुद्र में किसी हवाई जहाज को ढूंढ़ना भूसे में सूई को ढूंढ़ने से भी कठिन है. वहां पानी का दबाव इतना अधिक होता है कि उसे खोजना असंभव होता है.

कठिनाई यह भी रही कि यात्रियों और चालक दल की पारिवारिक जांचपड़ताल पर भी कुछ ऐसा न मिला जिस से कहा जा सके कि यह अपहरण की साजिश थी. कुछ लोग जाली पासपोर्ट पर जरूर थे पर उन की पृष्ठभूमि ऐसी नहीं निकली कि उन को शक के घेरे में लिया जा सके.

हवाई यात्रा आज बेहद सुरक्षित है और कुछ मामलों में सड़क दुर्घटनाएं ज्यादा होती हैं. ऐसे में एक विशाल हवाई जहाज का खो जाना वर्षों तक पहेली बना रहेगा. यह संतोष की बात है कि इस खोज में दुनिया के सारे देश एकसाथ काम करने लगे और मलयेशिया सरकार या मलयेशियाई हवाई कंपनी को कोसा कम गया.

 

‘आप’ और मीडिया

आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ और मीडिया के बीच विवाद सुलझने की जगह गहराता जा रहा है. मीडिया बेशक आम आदमी पार्टी के कामों को माइक्रोस्कोप से देख रहा है और उस की विरोध की किसी भी आवाज को ऐसे दर्शाया जाता है मानो शराफत की सफेद चादर पर काला धब्बा पूरी चादर को काली कर गया हो. वहीं सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, रामकृपाल सिंह यादव, अमर सिंह आदि की पैंतरेबाजी को वह ऐसे दिखाता है मानो छोटी घटना हो, कोई मक्खी मार दी गई हो.

अरविंद केजरीवाल की बौखलाहट स्वाभाविक है क्योंकि ‘आप’ को एक समर्थक मीडिया की सख्त जरूरत है. आम आदमी पार्टी के पास भाजपा और कांगे्रस की तरह काली करतूतों या मालिकों के मुनाफों या धर्म की दुकानों के अरबों रुपए तो हैं नहीं.

मीडिया का एकतरफा व्यवहार कुछ नया नहीं है. आमतौर पर अखबार या चैनल अपनीअपनी पसंद के नेताओं को कुछ ज्यादा सहानुभूति से दर्शाते हैं और यह उन का हक है. समाचारपत्रों या चैनलों से निष्पक्ष होने की अपेक्षा करना गलत है क्योंकि यही तो विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार है कि आप अपने पाठकों को या दर्शकों को वह बताएं जो आप चाहते हैं. यह मीडिया संचालकों का मौलिक अधिकार है.

पर हां, अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें. अगर मीडिया बड़े उद्योगपतियों का है और बड़े उद्योगपति किसी खास पार्टी को समर्थन दे रहे हैं तो उन्हें या किसी को भी शिकायत करने का पूरा अधिकार है. मीडिया को इस पर तिलमिलाना नहीं चाहिए बल्कि अपनी आलोचना उसी तरह लेनी चाहिए जैसी वह दूसरों की करता है.

हमारे देश में धर्म के दुकानदारों व अदालतों की तरह मीडिया भी अपनेआप को ‘टच मी नौट’ की गिनती में रखने लगा है और मीडिया विरोधी कोई भी बात अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन मान ली जाती है. जबकि यह गलत है. दूसरों पर कालिख मलने वालों के हाथों पर कालिख तो लग ही जाती है, यह मीडिया भी नहीं भूल सकता. यह पाठक पर छोडि़ए कि वह अपना विवेक किस हद तक इस्तेमाल करता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें