सत्ता के मोह में अंधभक्ति के चलते कांगे्रस नेतृत्व की गठबंधन सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में क्राइमिया को जनमत संग्रह के आधार पर यूके्रन से उस के अलग होने व उसे रूसी साम्राज्य का हिस्सा मान कर एक तरह की राजनीतिक आत्महत्या की है. रूस से सटे यूक्रेन के हिस्से क्राइमिया की स्थिति कमोबेश वैसी ही है जैसी भारत में कश्मीर की है. अगर देश की मरजी के खिलाफ एक प्रांत जनमतसंग्रह करा ले और दूसरे देश में विलय को स्वीकृति दे दे तो यह कश्मीर के कट्टरपंथियों को निमंत्रण है कि वे भी ऐसा करें तो भारत सरकार दुनियाभर में ‘दुहाई है दुहाई है’ की मांग नहीं कर सकती.
यूक्रेन 50 साल तक जबरन सोवियत संघ के विशाल साम्राज्य का हिस्सा रहा है. 1991 में स्वतंत्र होने के बाद आज भी वहां रूसीभाषी काफी संख्या में हैं. क्राइमिया प्रांत में तो कुछ ज्यादा ही हैं. रूस की निगाह क्राइमिया पर लंबे समय से है क्योंकि वहां गरम पानी का समुद्र है और रूसी नौसेना का बड़ा अड्डा है. जब तक यूक्रेन रूस का हिस्सा था, वहां नौसेना के खूब केंद्र बने. पर बाद में भी रूस यूके्रन को अपने इशारे पर चलाना चाहता था.
पिछली बार यूके्रन के राष्ट्रपति चुनाव में रूसी समर्थक अलेक्जेंडर तुरचीनोव चुनाव जीत गए थे पर हाल में जनता के विरोध के मद्देनजर उन्हें पद छोड़ना पड़ा. पूरा यूके्रन हाथ में न आते देख रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने क्राइमिया से ही संतोष कर लिया पर भारत सरकार के समर्थन की बात समझ नहीं आती.
भारत सरकार को आमतौर पर जनमत संग्रहों को नकारना चाहिए क्योंकि देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां अगर जनमत संग्रह की नौबत आए तो दूरगामी प्रभाव देखे बिना लोग अलग होने के बहकावे में आ सकते हैं. यहां हिंदूमुसलिम का ही सवाल नहीं है, हर बोली, रंग और संस्कृति का भी है.
अगर मिजोरम, नागालैंड, बोडाओं, माओवादियों, तमिलों, दलितों, पंडितों को अवसर दिए जाएं तो हर कोई अपना स्वतंत्र देश मांग सकता है और जनमत संग्रह में मूर्ख जनता मोहर लगा सकती है बिना यह सोचेसमझे कि भविष्य में यह आपसी युद्धों को न्योता देना होगा. भारत सरकार को रूस के इरादों का घोर विरोध करना चाहिए ताकि कभी हमारे साथ ऐसा हो तो दुनिया हमारा साथ दे.