भारतीय जनता पाटी का सुसंस्कृत, सौम्य और सभ्य चेहरा यदि कोई है तो वह सुषमा स्वराज का है. सुषमा स्वराज ने लोकसभा में 5 साल तक विपक्षी नेता की भूमिका जिस तरह अदा की है, वह याद रखने वाली है और राज्यसभा के अरुण जेटली के मुकाबले वे कहीं ज्यादा स्वीकार्य रही हैं. इसलिए जब टिकट बंटवारे पर वे बिफरीं और न केवल कार्यकारिणी में बल्कि ट्विटर पर भी उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की तो थोड़ी फुसफुसाहट हुई.

सुषमा स्वराज कट्टर संघपंथियों में से नहीं हैं कि जीतने की चाह में सारे नियमकानून ताक पर रख दिए जाएं. कर्नाटक के बदनाम खान मालिकों को टिकट देने में नरेंद्र मोदी के गुट ने जो तत्परता दिखाई वे उस से नाराज हैं. लालकृष्ण आडवाणी भी इस निमंत्रण के खिलाफ हैं पर वे अपनी खुद की सत्ता के खंभे उखड़ते देख कर चुप रह गए लेकिन सुषमा नहीं.

प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी की जगह सुषमा स्वराज का चेहरा आगे होता तो भाजपा को इतना विरोध न झेलना पड़ता. हां, सुषमा स्वराज हिंदुत्व समर्थकों की बरात को उस तरह इकट््ठा न कर पातीं जिस तरह नरेंद्र मोदी ने किया. नरेंद्र मोदी ने न केवल गुजरात में बड़े उद्योगपतियों की एक बड़ी जमात को अपने इर्दगिर्द रखा, उन पर 2002 के दंगों का दाग भी है जो बहुत से कट्टरपंथियों के लिए एक तिलक के समान है.

सुषमा स्वराज के विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी गुट राजनाथ सिंह के साथ मिल कर अपना काम कर लेने में सफल हो चुका है पर चुनावों में यह महंगा पड़ सकता है. यह नहीं भूलना चाहिए कि कांगे्रस पर प्रशासन में ढीलढाल का कोई आरोप नहीं है, उस पर उस भ्रष्टाचार का आरोप है जो उस के मंत्रियों ने किया, प्रभावशालियों ने किया. अगर वैसे ही भ्रष्टाचारी भारतीय जनता पार्टी में होंगे तो क्या दिखेंगे नहीं?

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