भारत में अमीर और अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब गंदगी में फटेहाल रह रहे हैं. इस पर यकीन करने के लिए आंकड़ों की जरूरत नहीं है क्योंकि आंखों से साफ दिख रहा है. शहरों, छोटे या बडे़ सभी में मौल खुल रहे हैं, भव्य होटल बन रहे हैं, फैंसी गाडि़यों के शोरूम खुल रहे हैं, ऊंची दीवारों और गेटों से घिरी कालोनियां बन रही हैं, कपड़ों की दुकानें खुल रही हैं.
वहीं, गंदे मकानों की बस्तियां बढ़ रही हैं, लोग खचाखच भरी बसों में या टैंपोनुमा टैक्सियों में मलबे जैसे लदे चल रहे हैं. हर पटरी पर सस्ते खाने की दुकानें खुल रही हैं जहां खाने के साथ धुआं और गंदगी मुफ्त मिलती है. आम आदमी के लिए विषैला, गंदा पानी है. पहनने को सिर्फ ऐक्सपोर्ट सरप्लस हैं जो पटरियों पर बिकते हैं.
अमेरिका भी इस भेदभाव से बच नहीं रहा. 2009 से 2012 तक सिर्फ 3 सालों में जहां उच्च श्रेणी के 1 प्रतिशत लोगों की आय 30 प्रतिशत बढ़ी, वहीं शेष 99 प्रतिशत लोगों की आय मात्र आधा प्रतिशत. वहां के काफी शहरों से गरीबों का पलायन हो रहा है और अमीरों के लिए मकान तोड़ कर धड़ाधड़ भवन बनाए जा रहे हैं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की जगह रेडियो टैक्सियां लेने लगी हैं. 50 सैंट की कौफी के स्टौल के नजदीक ही 5 डौलर की कौफी की दुकानें खुल रही हैं.
नई संचार तकनीक के जरिए पैसा एक बार फिर कुछ लोगों के हाथों में इकट्ठा होने लगा है. जिन के पास कंप्यूटर और मोबाइल की तकनीक है वे मोटा लाभ कमाने लगे हैं. उन को धंधा चलाने में मदद करने वाली फाइनैंस कंपनियों और बैंकों के शेयरों के दाम दूने हो रहे हैं. ऊंची तकनीक वाला सामान बनाने वाली कंपनियां ट्रक भरभर कर पैसा कमा रही हैं.
यह भेदभाव दुनिया को विस्फोटक कगार पर ला रहा है. कम पैसे वाले 99 प्रतिशत लोग कई देशों में उग्र हो उठे हैं. भारत में आम आदमी पार्टी भी इन्हीं लोगों के कारण चमक रही है. इसी वर्ग के चलते अमेरिका में ‘औक्युपाई वाल स्ट्रीट’ आंदोलन काफी तेज चला, हालांकि अब फीका हो गया है.
दुनिया के नेताओं को इस की चिंता है पर उन के हाथ बंधे हैं क्योंकि कारखानों, नौकरियों की बागडोर उन्हीं के हाथों में है जो 1 प्रतिशत में हैं. उन से बैर कौन ले, कैसे ले. वही राजनीति पर भी कब्जा जमाए बैठे हैं. नेता असहाय हैं, बेबस हैं.