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दूसरी शादी जोखिम भी है

महिला सशक्तीकरण और महिलाओं की जागरूकता जैसे शब्दों से आमतौर पर एक ही तसवीर दिमाग में बनती है कि महिला पुरुष के अधीन न हो, उसे आजादी मिले और अपने फैसले वह खुद ले, तभी यह माना जा सकता है कि उस ने बराबरी का दरजा हासिल कर लिया है या एक मुकम्मल मुकाम उसे मिल गया है. ऐसी बातें सुनने और सोचने से पुरुष प्रधान समाज के दरकने का एक सुखभर मिलता है जबकि हैरानी इस बात पर होती है कि हर कोई जानता है कि भारतीय परिवेश में यह एक खयालभर है.

वहीं, एक बड़ा फर्क आया है जिस पर आमतौर पर सोचने वालों की नजर नहीं पड़ती. वह फर्क यह है कि पुरुष दूसरी शादी अब पहले जैसे हक, रुतबे और शान से नहीं करता. यह ऐसा बदलाव है जिसे महसूस तो किया जा सकता है लेकिन व्यक्त नहीं किया जा सकता और जिस का सीधा संबंध समाज में औरत की मजबूत होती स्थिति से है. भोपाल के एक 40 वर्षीय इंजीनियर आशुतोष (बदला नाम) का कहना है, ‘‘तब के केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की मौत की खबर टैलीविजन पर प्रसारित हो रही थी तब मैं पत्नी के साथ टीवी देख रहा था. देर रात जैसे ही न्यूज रीडर ने यह बताना शुरू किया कि यह उन दोनों की ही तीसरी शादी थी तो मैं अचानक असहज हो उठा. इस की वजह मेरी पत्नी ही बेहतर समझ सकती थी और उस ने यह कहते हुए कि ‘क्या ट्रैजिडी वाली न्यूज लगातार देख रहे हो, कुछ और लगाते हैं.’ चैनल बदल दिया.’’ दरअसल, आशुतोष की भी यह दूसरी शादी है जो 12 साल पहले हुई थी. उन की पहली शादी 15 साल पहले हुई थी और शादी के 2 साल बाद ही तलाक हो गया था. पहली पत्नी का कहीं और अफेयर था पर मांबाप के दबाव के चलते वह अपने प्रेमी से शादी नहीं कर पाई थी. शादी की पहली रात ही उस ने खुल कर आशुतोष को सारी बात बता दी थी. पहली ही रात पत्नी के मुंह से ऐसी बात सुन कर आशुतोष को कितना सदमा लगा होगा, यह सहज समझा जा सकता है. वहीं दूसरा सदमा उस वक्त लगा जब पत्नी ने तलाक की मांग यह कहते कर डाली कि जब हम सहज तरीके से साथ नहीं रह सकते तो बेवजह की शादी ढोने से फायदा क्या?

तलाक में पारिवारिक प्रतिष्ठा आड़े आ रही थी. यह भी उसे समझ आ रहा था कि पत्नी का तलाक मांगना गलत नहीं है. इस बात पर झल्लाने से कोई फायदा नहीं था कि जब तलाक लेना ही था तो फिर शादी क्यों की? यही बात वक्त रहते वह अपने मांबाप को बता देती तो यह नौबत ही क्यों आती? बहरहाल, तलाक हुआ जिस के लिए दोनों परिवारों के लोग बैठे, चूंकि पढ़ेलिखे और समझदार थे इसलिए दूसरे मामलों जैसे आरोपप्रत्यारोपों की नौबत नहीं आई पर दोनों के ही अभिभावकों ने न्यायाधीश की तरह एक बार और सोचने की बात कही. आशुतोष थोड़ा रुक कर बताते हैं, ‘‘इतना कुछ होने के बाद सोचने के लिए कुछ बचा नहीं था और मैं उसे इस हालत में स्वीकारने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, न ही किसी तरह का फिल्मी बड़प्पन दिखाने का मेरा इरादा था. लिहाजा हिंदू मैरिज ऐक्ट की धारा 13बी के तहत परस्पर सहमति से 1 साल में तलाक हो गया.

यह 1 साल बहुत तनाव में गुजरा. मुझे 2 बार अदालत जाना पड़ा और जज को बताना पड़ा कि मतभेदों के चलते हमारा साथ रहना किसी भी हाल में मुमकिन नहीं. ‘‘तलाक के बाद मेरे सामने एक बहुत बड़ा समाज था, जो शादी के बाद इतनी जल्द तलाक हो जाने के बाबत सवाल कर रहा था. लोग तरहतरह की अनर्गल बातें भी करने लगे थे. मैं उस गलती की सजा भुगत रहा था जो दरअसल मैं ने की ही नहीं थी. इस से मुझे यह समझ आया कि जो लोग तलाक के लिए सालोंसाल अदालत के चक्कर काटते रहते हैं उन की क्या हालत होती होगी. ‘‘सालछह महीने बीत जाने के बाद मैं थोड़ा सामान्य हुआ. अब तक दूसरी शादी के प्रस्ताव आने लगे थे. शुभचिंतकों ने भी यह कहते दबाव बनाना शुरू कर दिया था कि कब तक ऐसे रहोगे, जिंदगी यों नहीं कटती. जो हो गया उसे हादसा समझ भूल जाओ और नए सिरे से जिंदगी शुरू करो. पर जिस माहौल और संस्कारों में मैं पला था उन में तलाक के हादसे को झेल पाना और भुला पाना आसान नहीं था. उस पर नया डर मन में यह आ रहा था कि कहीं दूसरी शादी भी सफल न हुई तो क्या होगा. सुखद बात यह रही कि दूसरी शादी सफल रही. वजह, पत्नी रागिनी (बदला नाम) का बेहद समझदार होना था.’’ आशुतोष आगे बताते हैं, ‘‘बेमन से रिश्तेदारों के दबाव में, मैं रागिनी को देखने गया था और सारी बातें उसे बता दी थीं, मुझे परखने का उस का पैमाना मैं आजतक समझ नहीं पाया पर इतना जरूर है कि शादी के बाद उस ने कभी पहली शादी के बाबत न तो कोई सवाल किया न ही उन दिनों को कुरेदा जिन्हें मैं ने जिल्लत और जलालत की तरह जिया था.’’

सही व गलत का गणित शादी के बारे में मजाक में यह गलत नहीं कहा जाता कि यह जुआ है. इस में हारे तो दूसरी शादी के बारे में जरूर संजीदगी से कहा जा सकता है कि यह बहुत बड़ा जोखिम है. हर किसी को रागिनी जैसी पत्नी नहीं मिलती. आमतौर पर, मजबूरी में ही सही, तलाकशुदा से शादी करने वाली महिलाएं अकसर पति पर तरहतरह के ताने कसा करती हैं जो पहली पत्नी से संबंधित होते हैं. मसलन, मैं उस (पहली) जैसी नहीं… तभी तो तुम्हारी उस से पटरी नहीं बैठी, वह तो मैं थी जिस ने तुम्हें पसंद कर लिया, याद रखना, अगर मैं भी चली गई तो कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रह जाओगे, आदि. जाहिर है ये ताने कोई नहीं सुनना चाहेगा जो तलाक से भी ज्यादा तकलीफदेह होते हैं, इसलिए अब तलाकशुदा पुरुष तलाकशुदा या विधवा चाहने लगे हैं. यह समझौता भी है और समझदारी भी.

दूसरी शादी करने वाला दहेज भी अकसर नहीं मांगता. वह केवल एक ऐसी पत्नी चाहता है जो उसे उस की पहली शादी के जख्मों पर मरहम का काम करे. इसलिए जरूरत से ज्यादा समझौते भी वह करता है. चिंताएं और डर तलाकशुदा से शादी का फैसला करने वाली महिला की अपनी चिंताएं और डर होते हैं. आमतौर पर ये आसपास के अनुभवों व उदाहरणों से प्रभावित होते हैं. और अनुभव यही है कि दूसरी शादी की सफलता की संभावना 50 फीसदी ही होती है और वह भी पत्नी की समझदारी पर ज्यादा टिकी होती है. एमएनआईटी भोपाल के एक प्राध्यापक राजेश पटेरिया कहते हैं, ‘‘यह सोचना बेमानी है कि तलाकशुदा या दूसरी शादी करने वाला हमेशा कुंठित या भयभीत होता है. हां, उस में ग्लानि जरूर होती है और एक अपराधबोध भी होता है जो उसे भयभीत रखता है. दरअसल, दोनों के बीच पैदा होने वाले तालमेल पर निर्भर करता है कि जिंदगी कैसे कटेगी.’’

वहीं, राजेश मानते हैं कि दूसरी शादी के मामले में पुरुष शर्तें थोपने की स्थिति में नहीं रह गया है. वजह, लड़कियों का तेजी से आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना और बढ़ती सामाजिक सुरक्षा है. कई तलाकशुदा महिलाएं नौकरी कर रही हैं पर पुरुष की तरह दूसरी शादी करने का जोखिम नहीं उठा रहीं. दूसरी शादी के मामले में साफ है पुरुष ज्यादा जोखिम उठाता है महिलाएं कम. वजह, वे अतीत को दोहराना नहीं चाहतीं. कलहभरी जिंदगी जीने से उन्हें अकेले रहना बेहतर लगता है. वैसे भी समाज में दूसरी शादी करने वाले को एक अलग निगाह से देखा जाता है. इस में सम्मान के बजाय बेचारगी ज्यादा नजर आती है. भले ही इस की मियाद कम हो पर जब तक रहती है तब तक पुरुष जोखिम में रहता है और सामाजिक दबाव उसे मजबूर करता रहता है कि वह दूसरा दांपत्य सफल बनाने के लिए झुके. जाति का सवाल दूसरी शादी का सब से बड़ा सामाजिक पहलू यह होता है कि इस में जाति का सवाल नहीं उठता. जब वह दूसरी शादी करता है तब तक सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत हो चुका होता है. उसे समाज की परवा नहीं रहती. दूसरी शादी में ज्यादातर पहले प्यार होता है और फिर शादी की बात आती है इसलिए जाति का मामला सामने नहीं आता. समाजसेवी प्रशांत कुमार राय कहते हैं कि यह आम बात है कि दूसरी पत्नी में जाति की बात नहीं उठती है. वैसे भी शादी की सफलता के लिए जातिबिरादरी जैसी चीज की जरूरत नहीं रहती. पति व पत्नी को इस बात की समझ होनी चाहिए कि शादी के बाद किस तरह जीवन जिया जाता है. परेशानी की बात यह है कि जातिबिरादरी और धर्म लोगों की जिंदगी कैसे जीना है, यह नहीं सिखाते. वे चाहते हैं कि पति और पत्नी किसी न किसी तरह लड़ाईझगड़े में उलझे रहें. पतिपत्नी की लड़ाई के चलते ही धर्म की दुकानदारी चलती है. पतिपत्नी के बीच लड़ाई होने पर सब से पहले ये लोग पुजारी, साधुसंत और तांत्रिक के पास जाते हैं. इन में से ज्यादातर लोग पतिपत्नी के बीच लड़ाई का लाभ उठाते हैं.

पतिपत्नी के बीच का झगड़ा सुलझाने के लिए थाने और कचहरी में भी भीड़ लगी हुई है. लेकिन किसी भी तरह के कानून के सहारे पतिपत्नी के बीच समझौता नहीं कराया जा सकता. एक वकील प्रेमप्रकाश सक्सेना कहते हैं, ‘‘मैं ने जितने भी दूसरे विवाह अदालत में कराए हैं, किसी में भी बिरादरी की बात सामने नहीं आई है. दूसरी शादी को पहले समाज अच्छी नजरों से नहीं देखता था लेकिन अब इस के प्रति नजरिया बदल रहा है.’’ और भी हैं फैक्टर मध्य प्रदेश के इंदौर की एक प्राध्यापिका ने कैरियर बनाने के लिए 40 की उम्र तक शादी नहीं की, सबकुछ पा लेने के बाद उसे जीवनसाथी की जरूरत महसूस हुई. इस प्राध्यापिका के पास ज्यादा क्या, कोई भी विकल्प बढ़ती उम्र के चलते नहीं था. लिहाजा, एक तलाकशुदा से शादी कर ली. आज यह प्राध्यापिका खुश है. पति सरकारी अधिकारी हैं और उसे बहुत चाहते हैं. दूसरी शादी के मामले में यह विरोधाभास क्यों, इस पर भोपाल की नामीगिरामी ब्यूटीशियन निक्की बावा का कहना है, ‘‘उम्र तो एक अहम फैक्टर है ही, पर बातबात में फिल्म ऐक्ट्रैस की नकल करने वाली आज की युवतियां शादी के मामले में उन के नक्शेकदम पर नहीं चलतीं जो अकसर तलाकशुदा से शादी करती हैं. फैशन और पहनावे के मामले में ही नायिकाएं उन की रोल मौडल हैं, व्यक्तिगत मसलों पर नहीं.’’

यानी पैसा भी एक बड़ा फैक्टर है. बहुत ज्यादा या बिलकुल कम पैसे वालों के लिए दूसरी शादी ज्यादा फर्क नहीं डालती क्योंकि उन दोनों वर्गों की एक अलग दुनिया है जहां कोई वर्जना या सामाजिक जवाबदेही नहीं होती. अपनी बात को आगे बढ़ाते निक्की बावा बताती हैं, ‘‘मध्यवर्गी युवतियां सैकंडहैंड हस्बैंड की बात पर हंसती हैं और शादी करने से डरती इसलिए हैं कि तलाकशुदा अपने अतीत को भूल नहीं सकता और उस के संबंध पहली पत्नी से कभी सुधर भी सकते हैं. दरअसल, वे एक उन्मुक्त और रूमानियत भरा दांपत्य चाहती हैं जो शादीशुदा से नहीं मिल पाता क्योंकि वह किसी और के साथ पहले जी चुका होता है. घर के आर्थिक हालात अच्छे न हों या कोई दूसरी व्यक्तिगत वजह जो उन की कोई कमी या कमजोरी हो तभी वे तलाकशुदा से शादी करने को तैयार होती हैं.’’ दूसरी शादी के साइड इफैक्ट बिहार के रहने वाले और दिल्ली में एक बड़ी कंपनी में काम करने वाले सुमंत सिन्हा अपनी ही कंपनी में काम करने वाली खुद से ज्यादा उम्र की औरत के चक्कर में ऐसे फंसे कि उन्हें अपना सबकुछ लुटाना और गंवाना पड़ गया. सुमंत खुद तो कुंआरे थे पर जिस औरत से वे प्यार करते थे वह शादीशुदा, 2 बच्चों की मां थी. यह सब जानने के बाद भी सुमंत उस के प्यार में बौराए हुए थे. 2 साल की डेटिंग के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला ले लिया. उन की प्रेमिका ने अपने पति को तलाक दे दिया, फिर दोनों ने शादी कर ली. सुमंत अपनी बीवी पर इस कदर फिदा थे कि उन्होंने फ्लैट बीवी के नाम पर खरीदा और लाखों का फिक्स्ड डिपौजिट भी उसी के नाम करवा दिया. कुछ महीनों तक दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहे.

7 महीने के बाद सुमंत के होश तब उड़ गए जब उन की प्यारी बीवी फिक्स्ड डिपौजिट और फ्लैट के सारे कागजात व लाखों रुपए के जेवर ले कर चंपत हो गई. वे पिछले 4 सालों से अकेले ही रह रहे हैं और जब उन के नातेरिश्तेदार दूसरी शादी करने को कहते हैं तो वे गुस्से से फूट पड़ते हैं. उन्होंने दोबारा विवाह नहीं करने की कसम खा ली है. पटना हाईकोर्ट के वकील उपेंद्र प्रसाद कहते हैं कि दूसरी शादी के चक्कर या झांसे में फंस कर अकसर जिंदगियां बरबाद होती रही हैं. विवाहित होने के बाद भी अपनी बीवी और बच्चों को भुला कर दूसरी औरत के फेर में फंस कर मर्द एकसाथ कई जिंदगियों को तबाह कर डालते हैं. पटना के प्रोफैसर मटुकनाथ इस के चर्चित उदाहरण हैं. बीवी और जवान बच्चों के बाप 50 साल के मटुकनाथ अपनी स्टूडैंट जूली के चक्कर में ऐसे फंसे कि अपने भरेपूरे परिवार को एक झटके में छोड़ दिया. मगध विश्वविद्यालय के प्रोफैसर अरुण कुमार कहते हैं कि हर चीज हद में ही अच्छी मानी जाती है. हद से ज्यादा हर चीज खतरनाक हो जाती है. विवाहित होने के बाद भी मर्द अगर दूसरी औरत के चक्कर में क्षणिक आनंद पाने के लालच में फंसते हैं तो बाकी जिंदगी उन के और उन के परिवार वालों के लिए सजा बन कर रह जाती है. एक कड़वा अनुभव कोलकाता की एक निजी कंपनी में आर्थिक सलाहकार रह चुके राजशेखर राय के साथ कुछ ऐसा ही हुआ.

पहली पत्नी की अचानक मौत के कुछेक साल बाद राज ने दोबारा शादी कर ली. उस वक्त बेटे आदित्य की उम्र महज 6 साल थी. पारिवारिक दबाव के आगे हथियार डाल कर राजशेखर ने दूसरी शादी के लिए सहमति दे दी और शादी हो भी गई. जिस से शादी हुई उस की भी दूसरी शादी थी और पहले पति से उस की 10 साल की बेटी थी. परिजनों ने भी आश्वस्त किया था कि इस शादी से राज के बेटे आदित्य को कोई समस्या नहीं होगी. उसे मां और बड़ी बहन मिल जाएगी. एक भरेपूरे परिवार में उस का पालनपोषण अच्छा होगा. लेकिन शादी के बाद देखा ग या कि दूसरी पत्नी अपनी बेटी का जिस तरह खयाल रखती उस तरह राज के बेटे का खयाल नहीं रखती. घर पर अशांति के डर से राजशेखर पत्नी से इस बारे में ज्यादा कुछ कभी कह भी नहीं पाए. नतीजतन, बेटा आदित्य पिता से दूर होता चला गया. घर पर रह कर वह मायूस रहने लगा. अंत में राजशेखर ने बेटे को दार्जिलिंग के रिहायशी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी ले कर वह दिल्ली में जा कर बस गया. वहीं उस ने अपनी सहयोगी से शादी कर ली और इस की सूचना भर पिता को दे दी. आज राजशेखर को इस बात का मलाल है कि इस दूसरी शादी से अगर किसी का सब से ज्यादा नुकसान हुआ तो उन के 6 साल के बेटे आदित्य का. घर तो उन्होंने बसाया, लेकिन उन का बेटा बेघर हो गया.

दूसरी शादी भी बसंत है जयपुर की एक प्रतिष्ठित कंपनी में आर्किटैक्ट इंजीनियर, 1 लाख रुपए महीने का वेतन पाने वाली नीलू, उम्र 32 साल, ने जब अपना तलाकशुदा जीवनसाथी चुना तो घर पर कोहराम मच गया लेकिन वादविवाद और विरोध के बावजूद शादी कर ली. ताज्जुब करेंगे प्रथम जोड़े की तरह ही या यों कहिए उस से भी अधिक वे खुश, आनंदित और प्रफुल्लित नजर आते हैं. दूसरी शादी से डर क्यों क्या पहली शादी के दांपत्य में गृहक्लेश व विवाद नहीं छिड़ते? कितने ही परिवार ऐसे मिल जाएंगे कि ताउम्र उन के विवाद नहीं सुलझे. समझौता बस, समझौता. कहीं औरतें सहती हैं तो कहीं पुरुष सहते हैं. प्रश्न विवेक और धैर्य के संतुलन का है. मध्यवर्गीय जयपुर की 27 वर्षीया गुडि़या अपने झक्की पति की आदतें, व्यवहार, आक्रामक आचरण, मन को बारबार छलनी कर देने वाले शब्दबाणों को 5 साल तक सहती रही. अंतत: घर व ससुराल से तिरस्कृत गुडि़या ने 3 बच्चों के पिता से शादी की जिस की पत्नी बीमारी की वजह से चल बसी थी. वह कहती है, ‘‘यह समझौता नहीं है. पहली शादी अधिकतर मांबाप ही तय करते हैं. उस में उन की राय, सोच और उन के दबाव व निष्कर्ष का पालन अधिक होता है. लड़कालड़की की आपसी खुशी, चाहत व वैचारिकता के स्तर को बड़ी आसानी से अनदेखा कर दिया जाता है जो बाद में संबंधों को कायम रखने के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं.

एक स्थिति और समय के बाद तो खुद मातापिता या रिश्तेदार दूर हट जाते हैं.’’ बदलाव की राह ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो दूसरी शादी के बाद सुखद दांपत्य जीवन जी रहे हैं लेकिन जब भी दूसरी शादी से संबंधित कोई हादसा या तलाक की बात सामने आती है तो वे स्वाभाविक रूप से बेचैन हो उठते हैं. इस मानसिकता को दूसरी शादी करने वाले ही बेहतर बता सकते हैं. लेकिन ऊपर जिस बदलाव की बात कही गई वह यह है कि दूसरी शादी करने वाले उम्मीदवार के पास अधिकांश प्रस्ताव लगभग 90 फीसदी तलाकशुदा या विधवाओं के आते हैं. बात बहुत सीधी और स्पष्ट है कि अपवादस्वरूप ही तलाकशुदा पुरुष किसी अविवाहित से शादी कर पाते हैं. इस में भी कई फैक्टर माने रखते हैं. मसलन, पहली पत्नी की मृत्यु स्वाभाविक रूप से हुई हो और उस से बच्चे न हों तो ही अविवाहिताएं उन्हें प्राथमिकता में रखती हैं. दूसरे, तलाक की वजह और पहली पत्नी से वर्तमान संबंधों की इतनी सफाई देनी पड़ती है कि दूसरी शादी के मामले में पुरुष के सामने बहुत ज्यादा विकल्प नहीं होते. इसलिए अकसर दूसरी शादी सफल नहीं होती और हो भी तो दंपती रोमांटिक तौर पर सुखद और सहज नहीं रह पाते.

इस में दिलचस्प बात यह है कि दांपत्य जीवन में अनुभव कोई खास माने नहीं रखता. ऐसे में दूसरी शादी की सफलता दूसरी पत्नी की समझदारी पर ज्यादा निर्भर रहती है. अगर उस से विचार मेल न खाए या किसी मामूली बात पर भी अनबन हो तो झुकना पति को ही पड़ता है क्योंकि शशि थरूर जैसे तीसरी शादी की बात वह सपने में भी नहीं सोच पाता. दूसरी, तीसरी शादी धनाढ्य वर्ग में आम है और निम्न वर्ग में भी, लेकिन मध्य वर्ग की दुनिया इतने उसूलों, बंदिशों, नियमों और जकड़नों से भरी रहती है कि दूसरी शादी का फैसला काफी सोचसमझ कर पुरुष को लेना पड़ता है.

-भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, कोलकाता से साधना शाह, लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति, मुंबई से सोमा घोष और जयपुर से प्रकाश जैन

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जुलाई (प्रथम) 2014

‘सरकार की सकारात्मक शुरुआत’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप के विचार पढ़े. दरअसल, आने वाले दिन तय करेंगे कि नई सरकार क्या करती है. सरिता के माध्यम से प्रधानमंत्री से मेरी गुजारिश है कि वे यथार्थ के धरातल पर खड़े हो कर देश की समृद्धि का तानाबाना बुनें. सरकारी तंत्र की आतंकवादी एवं उन्मुक्त कार्यवाहियों से आम आदमी कितना त्रस्त है यह किसी से छिपा नहीं है. शारीरिक अपंगता व वरिष्ठता का कोई लिहाज नहीं. करोड़ों डकार जाने वाले शासकीय तंत्र वाले देश में आम आदमी को मामूली गलती का गंभीर खमियाजा भुगतना पड़ता है. प्रधानमंत्री का सचिवों से सीधा संपर्क रखना फिलहाल प्रशंसनीय कदम है. विपक्षी दल एकजुट हो कर देशहित व जनहित के कार्य करने के बदले अपनी हार पर तिलमिलाते हुए खिसियानी बिल्ली की तरह नुक्स निकाल कर दोषारोपण करते हैं. अकर्मण्यता से ग्रस्त देश की एक अच्छीखासी आबादी को कर्मठता की अहमियत का एहसास कराता आप का संपादकीय सटीक है. दुख की बात यह है कि यहां धर्मनिरपेक्षता ने ही अकर्मण्यता को प्रश्रय दे रखा है जहां कर्म करने के बदले फल प्राप्ति के केवल गुर सिखाए जाते हैं जो राष्ट्र की उन्नति के रास्ते में कांटे ही बोते हैं क्योंकि कर्मठता ही समृद्धि की जननी होती है. जिस देश के वासी जितने कर्मठ हैं वह देश उतना ही उन्नति के शीर्ष पर है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

* संपादकीय टिप्पणी ‘सरकार की सकारात्मक शुरुआत’ में आप ने सरकार की 1 महीने की नीतियों को सही बताया है. मैं चाहता हूं इसी प्रकार विश्लेषण करते रहिए. दरअसल, देश का भला चाहने वाले केवल वे लोग हैं जो न तो कांगे्रसी हैं, न ही भाजपाई और न ही अन्य किसी राजनीतिक पार्टी वाले, बल्कि वे हैं जिन्हें मतलब केवल जनता की भलाई से है. फिरोज गांधी नेहरू के दामाद होते हुए भी उन्हें गलत काम करने से सदैव रोकते थे. पूर्ण बहुमत मिलने के बाद जनता मोदी सरकार से यही उम्मीद करती है कि वह सत्ता में रहने तक वही फैसले ले जो पूरे देश और देशवासियों के भले के लिए हों, भले ही कुछ फैसले चाहे भाजपा को थोड़ा नुकसान ही पहुंचाएं क्योंकि भाजपा में भी कई गलत लोग हैं. भाजपा सरकार को चाहिए कि वह कांगे्रस के साथ बदले की भावना से न पेश आए. पिछली सरकार द्वारा नियुक्त किए गए गवर्नरों को हटाने की जरूरत नहीं है. हां, दागी पदाधिकारियों को बदला जा सकता है. इसी तरह ‘आधार कार्ड’ बनाने जैसी स्कीम को बेकार करार देना मुनासिब नहीं, बल्कि उसे और अच्छा बनाया जा सकता है. मुझे अभी तक के फैसलों से ऐसा लग रहा है कि वह अमीरों के लिए ज्यादा और गरीबों के लिए न के बराबर है. आप का यह कहना कि भविष्य में केवल 2 पार्टी ही हों ताकि मजबूत सरकार के साथ ठोस विपक्ष भी हो, बिलकुल सही है. चुनाव में पैसा भी कम लगेगा और वोटर के लिए आसानी होगी.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

* आप की संपादकीय टिप्पणी ‘सरकार की सकारात्मक शुरुआत’ पढ़ी. नरेंद्र मोदी पुराने, सड़ेगले नियम हटा कर, नई कार्यशैली लागू करते जा रहे हैं, यह सराहनीय है. बढ़ती महंगाई और पुराने नियम हटने पर विपक्ष तो हल्ला मचाएगा ही. भाजपा को यह भी याद कर लेना चाहिए कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार को सीट संभाले हुए 2 दिन भी नहीं हुए थे और उस ने उस के हर कदम की आलोचना शुरू कर दी थी, अब कहते हैं कि उस की सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी को पहले काम तो समझ लेने दो. अगर मोदी सरकार अदालतों में वर्षों से लंबित मुकदमे कम कर सके, पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार कर सके, मंत्रियों व सांसदों को वातानुकूलित कमरों से निकाल कर जनता की समस्याएं सुलझाने में लगा सके और महंगाई को बढ़ने से रोक सके तो यह उस की विशिष्ट उपलब्धि होगी. वरना ढाक के तीन पात वाली बात ही होगी.

मुकेश जैन ‘पारस’ बंगाली मार्केट (न.दि.)

* घिनौनी करतूत जुलाई (प्रथम) अंक का अग्रलेख ‘बदायूं बलात्कार कांड : धूमिल होती देश की अस्मत’ पढ़ा. समाजवादी पार्टी के प्रमुख का शर्मनाक बयान कि ‘लड़के तो लड़के हैं, उन से गलती हो जाती है, मगर उन्हें फांसी पर थोड़े ही चढ़ा दिया जाए,’ संयुक्त राष्ट्र तक जा पहुंचा. देशवासियों का सिर चाहे शर्म से झुक गया हो मगर ऐसे मूर्खतापूर्ण तथा निंदनीय बयान देने वालों को शर्म नहीं आई. लिहाजा, बजाय बलात्कारियों को पकड़ने के, वे यह गीत भी गाते नजर आए कि बलात्कार तो अन्य राज्यों में किए जा रहे हैं फिर मात्र उत्तर प्रदेश के ही पीछे लोग लट्ठ ले कर क्यों पड़े हैं. इस के अलावा लगता है कि जैसे देशभर के ही दलित/पिछड़े या तो मात्र प्रताडि़त किए जाने को ही पैदा होते हैं, शायद इसीलिए दबंग अपराधी खुले सांडों के समान बेरोकटोक घूमतेफिरते नजर आते हैं.

तारा चंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

* यौन विकृति जुलाई (प्रथम) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘बदायूं बलात्कार कांड : धूमिल होती देश की अस्मत’ में वर्णित तथ्यों के अतिरिक्त बलात्कार के संदर्भ में मैं कुछ अन्य तथ्यों को प्रेषित कर रहा हूं. बलात्कार एक सामाजिक विकृति ही नहीं, यौन विकृति भी है. हमें यह सोचना होगा कि हम ने कैसी सामाजिक व्यवस्था और कैसी सामाजिक संरचना को स्वीकार किया है जिस में मानवीय मूल्यों का पाखंड तो बहुत है जबकि उन मूल्यों के अमल का विस्तार सिरे से गायब है. वास्तव में इस के लिए सारा समाज दोषी है. समाज की मानसिकता से बलात्कारी निश्चित रूप से वाकिफ होते हैं. वे भेडि़ए इस तथ्य से भलीभांति परिचित होते हैं कि बलात्कार के मामले में समाज का रवैया कैसा होता है. दूसरा तथ्य यह है कि बलात्कार की पीड़ा अकसर दलित और गरीब लड़कियों/महिलाओं को ही झेलनी पड़ती है. जहां तक कानून के द्वारा बलात्कार की विभीषिका पर नियंत्रण की बात है, मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा कि कानून के द्वारा इस पर नियंत्रण संभव नहीं है. क्योंकि यह सर्वविदित है कि कानून उसी को न्याय दिला सकता है जिस में कानून को अपने पक्ष में करने की ताकत हो. आज सैक्स का जो शारीरिक विस्फोट हो रहा है, वह होना ही था क्योंकि हम ने सैक्स को दूषित मान लिया, जबकि वह प्राकृतिक है. प्रकृति का विरोध न तो उचित है और न ही संभव है. सैक्स को हम ने एक रोग के रूप में पाल लिया है, विकृत रूप में, जिस ने संपूर्ण जीवन को विषाक्त कर दिया है. हम जिस चीज से बचना चाहते हैं चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है. बलात्कारियों का मनोविश्लेषण भी आवश्यक है. रोग के मूल में जाना आवश्यक है.

डा. रघुवंश कुमार, पटना (बिहार)

* तरहतरह के बुजुर्ग ‘युवा व वृद्ध विशेष’ के तहत जुलाई (प्रथम) अंक में बुजुर्गों की परेशानियों के बारे में काफीकुछ लिखा गया है जिसे पढ़ कर आंख भर आती है. इन सब का कुछ हद तक समाधान इसी अंक में प्रकाशित कहानी ‘सब से बड़ा सुख’ में मौजूद है. बुजुर्ग हमेशा से ही तो बुजुर्ग नहीं रहते, उन्हें शुरू से ही प्यार से रिश्ते बनाने की पहल करनी चाहिए तभी वे बुढ़ापे में अपने बच्चों का साथ पा सकते हैं. इस संदर्भ में एक घटना बताना चाहूंगी : मेरी एक सहेली के सासससुर की शादी की स्वर्णजयंती मनाई गई. बेटेबहू ने खुद पहल कर सारा इंतजाम किया. सास ने ननदों को कुछ कम देने को कहा तो बहू ने आगे बढ़ के कुछ ज्यादा ही दिया. पर एक दिन उस ने सास को ननद से बात करते सुन लिया. सास कह रही थीं, इन लोगों को जो देना है, देने दो, मैं तुम्हें अपनी चूडि़यां दे दूंगी. यह सुन कर बहू पर तो वज्रपात हो गया. आप ही बताइए, बुजुर्ग लाचार ही हैं कि और कुछ. हर जगह एक जैसा नहीं होता. रिश्ते दोनों तरफ से बनते हैं. ऐसा कर के क्या बुजुर्ग इज्जत और प्रेम पा सकते हैं? रश्मि जैन, कोलकाता (प.बं.) द्य आप के पत्र आलोचना बनाम उत्साहवर्धन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, अच्छा व बुरा. पर ऐसा लगता है कि सरिता प्रबंधन एक ही पहलू को पकड़ कर बैठा है. देश व समाज में फैली कुरीतियों की आलोचना करना जायज है पर इस का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इस देश में सबकुछ गड़बड़ ही है. जो अच्छे कार्य हो रहे हैं, जो लोग या संस्थाएं विभिन्न क्षेत्रों में अच्छे कार्य कर रही हैं, उन की हौसलाअफजाई करें, उन की कहानी जनमानस के सामने लाएं ताकि दूसरों को प्रेरणा मिल सके. एक ऐसे दौर में, जब चारों तरफ निराशा का माहौल है तब आप की यह पहल न सिर्फ सकारात्मक माहौल की रचना करेगी बल्कि बेहतर कल के निर्माण में भी एक बहुत बड़ा कदम साबित होगी.

मनोज जैन, चेन्नई (तमिलनाडु)

डर्टी पिक्चर से परहेज

करीना कपूर का हाल इन दिनों ‘गुड़ खाए और गुलगुलों से परहेज’ वाला हो गया है. तभी तो मैडम कहती हैं कि ‘डर्टी पिक्चर’ में जो रोल विद्या बालन ने किया था, वे कभी नहीं करतीं. करीना के मुताबिक, डर्टी पिक्चर जैसी फिल्में करना उन्हें शोभा नहीं देता. वैसे करीना शायद भूल गई हैं कि वे अपनी पिछली फिल्मों में लिपलौक, बिकिनी से ले कर कई इंटीमेट सींस कर चुकी हैं. ऐसे में उन से इस तरह की बात सुनना अजीब लगता है. इतना ही नहीं, वे फिल्म ‘चमेली’ में वेश्या के किरदार में भी नजर आई थीं. ऐसे में बोल्ड रोल से परहेज कैसे कर सकती हैं. करीना शायद जानती नहीं हैं कि डर्टी पिक्चर में विद्या बालन को सर्वश्रेष्ठ अभिनय के कई अवार्ड मिले थे. फिर करीना इस तरह की बात कर के क्या साबित करना चाहती हैं

हमशकल्स

बौलीवुड में हमशक्लों पर बनी सभी फिल्में फूहड़ नहीं होतीं. दर्शकों को ‘धूम 3’ में आमिर खान की हमशक्ल वाली भूमिका याद होगी. ‘धूम 3’ के लेखक ने इन दोनों हमशक्लों के लिए एक तो बढि़या स्क्रिप्ट लिखी, दूसरे, निर्देशक ने इन हमशक्लों को खूबसूरती से निर्देशित किया. मगर साजिद खान की यह ‘हमशकल्स’ एकदम फूहड़ है. इस में सभी पुरुष कलाकारों ने मैड कौमेडी की है. सभी प्रमुख पुरुष कलाकार पागल बने हैं. इन पागलों की मैड कौमेडी देख कर आप का भी दिमाग खराब हो सकता है.

कौमेडी करने के लिए यह जरूरी तो नहीं कि ऊटपटांग हरकतें ही की जाएं. इन्हीं साजिद खान ने इस से पहले ‘हाउसफुल’ और ‘हाउसफुल 2’ में दर्शकों को खूब हंसाया था. मगर इस फिल्म में उन्होंने दर्शकों को सिवा सिरदर्द के कुछ नहीं दिया है. ‘हमशकल्स’ में शुरू से आखिर तक बेसिरपैर की घटनाएं भरी पड़ी हैं. फिल्म देखते वक्त दर्शकों को लगता है जैसे उन्हें सिनेमाघर में नहीं किसी पागलखाने में बिठा दिया गया है और वे फिल्म खत्म होने का इंतजार करते रहते हैं. मगर फिल्म है कि खत्म ही नहीं हो पाती, द्रौपदी की साड़ी की तरह लंबी खिंचती चली जाती है.

कहानी करोड़पति परिवार के वारिस अशोक सिंघानिया (सैफ अली खान) की है. कुमार (रितेश देशमुख) उस का दोस्त है. अशोक का पिता कोमा में बैड पर लेटा है. अशोक का मामा अमरनाथ (राम कपूर) अशोक को भी पागल करार दे कर सारी जायदाद हड़पना चाहता है. वह एक साइंटिस्ट से मिल कर अशोक और कुमार को पानी में मिला कर एक दवा पिलवाता है जिस से वे कुत्तों जैसी हरकतें करने लगते हैं. उन दोनों को पागलखाने में भरती करा दिया जाता है.

उसी पागलखाने में अशोक और कुमार के हमशक्ल भी हैं जो एक होटल में रसोइए थे और आपराधिक प्रवृत्ति के हैं. उन के नाम भी वे ही हैं. इसी वार्ड में अशोक के मामा अमरनाथ का भी एक हमशक्ल है. कुछ ही दिनों में डाक्टरों को लगता है कि अशोक और कुमार अब ठीक हैं. इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता है. लेकिन इन दोनों के बदले दूसरे वार्ड में भरती अशोक और कुमार बाहर निकल आते हैं और असली अशोक कुमार के घर पर रहने आ जाते हैं. यहां उन की मुलाकात अशोक की प्रेमिका मिष्टी (तमन्ना भाटिया) और सैक्रेटरी शनाया (बिपाशा बसु) से होती है. ये दोनों इन पागलों को ही असली समझ कर उन से प्यार करने लगती हैं.

उधर, असली अशोक और कुमार उसी पागलखाने में बंद मामा अमरनाथ के हमशक्ल की मदद ले कर अपने असली कंस मामा का भंडाफोड़ करने पहुंच जाते हैं. यहां अशोक और कुमार के एक और हमशक्ल आ जाते हैं. साथ ही अमरनाथ मामा का भी हमशक्ल आ जाता है. खूब कन्फ्यूजन पैदा होता है. आखिरकार कन्फ्यूजन खत्म होता है करोड़पति सिंघानिया के कोमा से बाहर आने पर. वह अपने असली बेटे को पहचान लेता है और अपने एंपायर को अमरनाथ के हाथों में जाने से बचा लेता है.

फिल्म की यह कहानी कन्फ्यूजनों से भरी पड़ी है. सभी कलाकारों ने फूहड़ ऐक्ंिटग की है. तीनों अभिनेत्रियों के पास करने लायक कुछ था ही नहीं. मामा की भूमिका में राम कपूर महिला के गैटअप में एकदम बेकार लगता है. सतीश शाह की भूमिका जेल वार्डन की है जो टौर्चर करने के नएनए तरीके ईजाद करता रहता है. कुल मिला कर सभी कलाकारों ने जम कर ओवरऐक्ंिटग की है.

फिल्म का निर्देशन बेकार है. गीतसंगीत लाउड है. तीनों कलाकारों का महिला गैटअप काफी फूहड़ लगता है. रितेश देशमुख का सतीश शाह पर बारबार पेशाब करना गंदगी दर्शाता है. कोकीन के परांठे खा कर लोगों का अभद्र हरकतें करना शर्मनाक लगता है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

बौबी जासूस

‘बौबी जासूस’ को देख कर आप को ज्यादा खुशी नहीं होगी. फिल्म के लीड किरदार में विद्या बालन का नाम देख कर दिल खुश हुआ था कि ‘डर्टी पिक्चर’, ‘कहानी’ और ‘डेढ़ इश्किया’ में वाहवाही बटोरने वाली विद्या बालन की प्रतिभा एक बार फिर से देखने को मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिल्म के निर्देशक व पटकथा ने काफी निराश किया. हालांकि विद्या बालन ने पूरी तरह फिल्म को अपने कंधों का सहारा दिया है. लेकिन वह सफल नहीं हो सकी है. ‘बौबी जासूस’ एक साधारण फिल्म बन कर रह गई है.

‘बौबी जासूस’ पहली ऐसी फिल्म है जिस में जासूस का किरदार किसी महिला द्वारा किया गया है. उस ने फिल्म में भिखारी से ले कर वाचमैन और ड्राइवर तक के 12 गेटअप बदले हैं. सभी गेटअपों में उस ने अपनी छाप छोड़ी है. मगर बुरा हो फिल्म की पटकथा का, जिस ने सब गुड़गोबर कर के रख दिया.

फिल्म की कहानी हैदराबाद की तंग गलियों में रहने वाले परिवार की है. 30 साल की बौबी (विद्या बालन) उस परिवार की बेटी है. उस के परिवार वाले उस की शादी कर देना चाहते हैं परंतु बौबी पर जासूस बनने का जनून सवार है. वह पहले तो एक नामी डिटैक्टिव एजेंसी में नौकरी पाने की कोशिश करती है. नौकरी न मिलने पर वह अपनी डिटैक्टिव एजेंसी खोल लेती है.

शीघ्र ही उस की मुलाकात विदेश से हैदराबाद आए एक शेख अनीस शेख (किरण कुमार) से होती है. वह उसे एक लड़की को ढूंढ़ने का केस देता है. डील पूरी होने पर शेख उसे एक बड़ी रकम देता है, साथ ही अब की बार वह एक और लड़की को ढूंढ़ने का केस बौबी को देता है. बौबी का माथा ठनकता है. उसे पता चलता है कि वह लड़की तो घर से गायब है. बौबी उस शेख के पीछे पड़ जाती है. वह उस की ही जासूसी करनी शुरू कर देती है.

आखिरकार वह पता लगा लेती है कि शेख का मकसद क्या है. सालों पहले उस का परिवार उस से बिछुड़ गया था और शेख विदेश चला गया था. बौबी शेख के परिवार के लोगों को मिला कर खुश होती है. घर आने पर बौबी यह सब अपने पिता को बताती है, जिसे सुन कर बौबी से नफरत करने वाला पिता खुश होता है. वह बौबी की शादी उस से प्यार करने वाले तसव्वुर (अली फैजल) से करा देता है.

फिल्म की इस कहानी में ढेरों कमियां हैं. निर्देशक किरदारों को उभार पाने में असफल रहा है. अनीस शेख का किरदार नैगेटिव लगता है जबकि वह ऐसा है नहीं. लाला का किरदार भी उभर नहीं पाया है. लगता है निर्देशक ने फिल्म शुरू करने से पहले होमवर्क नहीं किया है.

मध्यांतर से पहले फिल्म कुछ हद तक दिलचस्प है. मध्यांतर के बाद फिल्म अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती. फिल्म में विद्या बालन और अली फैजल के बीच रोमांस तो दिखाया गया है परंतु यह जोड़ी रोमांटिक वातावरण नहीं पैदा कर सकी है. अली फैजल का किरदार विद्या बालन के आगे बौना ही है. बौबी के पिता की भूमिका में राजेंद्र गुप्ता ने अपनी छाप छोड़ी ह फिल्म का गीतसंगीत पक्ष कमजोर है. शांतनु मोइत्रा का संगीत बेअसर है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. हैदराबाद की भीड़ में कई दृश्य शूट किए गए हैं. जिस तरह विद्या बालन की फिल्म ‘कहानी’ कोलकातामयी लगी थी वैसे ही यह फिल्म हैदराबादमयी लगती है.

एक विलेन

दक्षिण कोरिया की साइको थ्रिलर फिल्म ‘आई सा द डैविल’ से प्रेरित ‘एक विलेन’ एक रोमांटिक थ्रिलर फिल्म है. निर्देशक का मानना है कि हर इंसान में एक विलेन होता है. जीवन में घटी कुछ बुरी घटनाएं इंसान को विलेन बना देती हैं और वह अपने ही इर्दगिर्द अंधेरों में घूमता रहता है. उस ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि नफरत को नफरत से नहीं, प्यार से मिटाया जा सकता है. फिल्म युवाओं के मतलब की है.

‘मर्डर-2’ और ‘आशिकी-2’ में निर्देशन देने वाले मोहित सूरी ने अपनी इस फिल्म के नायक सिद्धार्थ मल्होत्रा को ही विलेन बनाया है. सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अपनी रोमांटिक इमेज से बाहर निकल कर नैगेटिव भूमिका की है. मोहित सूरी ने ज्यादातर महेश भट्ट कैंप की ही फिल्में निर्देशित की हैं, इसीलिए ‘एक विलेन’ में भी उन फिल्मों का कुछ असर दिख जाता है. लेकिन एक बात है, महेश भट्ट की फिल्मों की तरह मोहित सूरी ने अपनी इस फिल्म में सैक्स का तड़का नहीं लगाया है.

फिल्म की कहानी एक बच्चे द्वारा बचपन में अपने पिता की हत्या देख कर बड़े होने पर एक गैंगस्टर बनने की है. गुरु (सिद्धार्थ मल्होत्रा) सीजर (रैमो फर्नांडीस) के लिए काम करता है. उस की मुलाकात आयशा (श्रद्धा कपूर) से होती है, जिसे गंभीर बीमारी है. वह अपनी जिंदगी हंसीखुशी से बिताना चाहती है. वह गुरु को विलेन कह कर पुकारती है. दोनों में प्यार हो जाता है. आयशा, गुरु के दर्द को समझती है और धीरेधीरे उस के अंदर से नफरत की भावना को खत्म करती है. गुरु अपराध की दुनिया से नाता तोड़ लेता है. दोनों शादी कर लेते हैं. आयशा प्रैग्नैंट हो जाती है.

उधर शहर में एक साइको किलर राकेश (रितेश देशमुख) कई महिलाओं को अपना निशाना बना कर मार डालता है. उसे लगता है कि सब उस का उपहास उड़ाते हैं, इसीलिए वह औरतों की जान लेता फिरता है. वह आयशा को भी मार डालता है. गुरु को जब इस साइको किलर के बारे में पता चलता है तो वह उस से बदला लेने के लिए उस की जम कर पिटाई तो करता है, लेकिन उसे मरने नहीं देता ताकि वह फिर से उसे मार सके. आखिरकार वह साइको किलर मारा जाता है. उस का 8-10 वर्षीय बेटा डर के मारे घर में दुबका रहता है. गुरु के अंदर इंसानियत जागती है और वह हाथ बढ़ा कर उस बच्चे को अपना लेता है. उस वक्त उसे आयशा की प्यारभरी बातें याद आती हैं.

फिल्म में 2 कहानियां साथसाथ चलती हैं. ये कहानियां फ्लैशबैक में चलती हैं. मगर फ्लैशबैक कहींकहीं गड़बड़ा गया है. फिल्म की कहानी तो हट कर है, साथ ही प्रैजेंटेशन भी हट कर है. पटकथा में कई झोल होने के बावजूद मोहित सूरी ने दर्शकों को काफी हद तक बांधे रखा है. ‘आशिकी-2’ में अपने अभिनय से वाहवाही लूटने वाली श्रद्धा कपूर ने इस फिल्म में भी दर्शकों का मन मोह लिया है. गुरु के रोल में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने भी अच्छा काम किया है. रितेश देशमुख ने अब तक हास्य भूमिकाएं ही की हैं, मगर इस फिल्म में पहली बार उस ने नैगेटिव भूमिका की है और उस की यह भूमिका दर्शकों को पसंद भी आई है. प्राची देसाई ने एक आइटम सौंग पर परफौर्म किया है. फिल्म के ऐक्शन सीन अच्छे हैं. संवादों में भी दम है. गाने रोमांटिक हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक असरदार है. फिल्म का छायांकन भी अच्छा है.

मिशन ग्लास्गो

23 जुलाई से 3 अगस्त तक चलने वाले ग्लास्गो में 20वें कौमनवैल्थ गेम्स में भारत की ओर से कुल 224 खिलाडि़यों को परचम लहराने का मौका है. इस से पूर्व दिल्ली में कौमनवैल्थ गेम्स में 38 गोल्ड के साथ मैडल्स की सेंचुरी लगा कर भारतीय दल अपना दमखम दिखा चुका है. इस बार 7 पैरा ऐथलीट्स को भी भारतीय दल में शामिल किया गया है जो साइकिलिंग, लौन बौल्स, वेटलिफ्टिंग, एथलेटिक्स सहित तैराकी की 22 कैटेगरीज में हिस्सा लेंगे. रग्बी सेवंस, नैटबौल और ट्रायथलान को छोड़ कर भारतीय खिलाड़ी बाकी 14 खेलों की अलगअलग प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लेंगे.

सरदार सिंह की अगुआई में पुरुष हौकी टीम से भी इस बार काफी उम्मीदें हैं. प्रमुख कोच टेरी वौल्श ने कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि वे टूर्नामैंट का अंत अच्छे प्रदर्शन के साथ करेंगे. टीम के कप्तान सरदार सिंह का कहना है कि पिछले कुछ हफ्तों में हम ने कड़ी मेहनत की है इसलिए उम्मीद है कि हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे और हमारे अंदर इतनी क्षमता है कि हम किसी भी टीम को मुश्किल में डाल सकते हैं.

बहरहाल, भारतीय खिलाड़ी पूरे आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरेंगे. उन पर दबाव भी रहेगा क्योंकि वर्ष 2010 के कौमनवैल्थ गेम्स में भारतीय खिलाडि़यों का प्रदर्शन अच्छा रहा था. खिलाड़ी भी उम्मीद यही कर रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा मैडल मिलें ताकि भारत का नाम दुनिया के सामने गर्व से रखा जा सके.

अंगरेजों के घर टीम इंडिया

55वर्ष के बाद टीम इंडिया इंगलैंड के दौरे पर 5 टैस्ट मैचों की सीरीज खेल रही है. लेकिन टीम इंडिया की सब से बड़ी मुसीबत यह है कि वह विदेशी धरती पर उछाल लेती गेंदों के आगे मात खा जाती है. वैसे भी कप्तान महेंद्र सिंह धौनी और उन के मौजूदा साथियों को लगातार 5 टैस्ट मैचों की सीरीज खेलने का अनुभव भी नहीं है. युवा खिलाडि़यों में जोश तो है लेकिन अपने खेल के प्रदर्शन को दिखाते हुए उन्हें यह साबित करना होगा कि वे विदेशी धरती पर भी लोहा मनवा सकते हैं. वर्ष 1959 में 5 टैस्टों की सीरीज की बात करें तो उस दौरान टीम इंडिया की भारी फजीहत हुई थी और उन्हें 0-5 से हार का मुंह देखना पड़ा था. अगर इंगलैंड में टैस्ट सीरीज की बात करें तो अब तक टीम इंडिया 16 टैस्ट सीरीज खेल चुकी है और उसे महज 3 में जीत हासिल हुई है और एक मैच को टीम इंडिया ड्रा कराने में कामयाब रही है.

यह टैस्ट सीरीज कप्तान धौनी के लिए असली टैस्ट है. धौनी और उस के युवा साथी खिलाड़ी अच्छी तरह जानते है कि विदेशी धरती पर टैस्ट मैच जीतना उतना आसान नहीं है. खुद धौनी का रिकौर्ड विदेशी पिचों पर अच्छा नहीं है. धौनी की कप्तानी में भारत 23 मैच खेल चुका है जिस में महज 5 मैचों में जीत हासिल हुई है और उसे 11 मैचों में हार का सामना करना पड़ा है जबकि 7 मैच ड्रा रहे हैं. विदेशी धरती पर धौनी फेल ही रहे हैं. वे 23 मैचों में 32.61 की औसत से 1174 रन ही बना पाए हैं.

टीम इंडिया का सारा दारोमदार गेंदबाजों पर टिका हुआ है. वर्ष 2007 में राहुल द्रविड़ की कप्तानी में 3 टैस्ट मैचों की सीरीज में तेज गेंदबाज जहीर खान और लेग स्पिनर अनिल कुंबले ने अपना जौहर दिखाया था और भारत की 1-0 से जीत हासिल हुई थी. लेकिन अब दोनों गेंदबाज संन्यास ले चुके हैं, इसलिए धौनी के सामने यह बड़ी चुनौती है कि मौजूदा टीम में गेंदबाजों पर विशेष ध्यान दें.

बहरहाल, कई बार विश्व विजेता बन चुकी टीम इंडिया और धौनी ब्रिगेड को टैस्ट सीरीज के कमतर परिणामों से न सिर्फ उबरना होगा बल्कि इस टैस्ट सीरीज पर खिताबी जीत हासिल कर उन आलोचकों के मुंह भी बंद करने होंगे जो ?टीम इंडिया को सिर्फ फटाफट क्रिकेट का ही उस्ताद मानते हैं, टैस्ट मैचों के लायक नहीं.

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