Download App

चिकित्सा उपकरण होंगे सस्ते

आम आदमी सब से ज्यादा पीडि़त अस्पतालों में होता है. बीमार कोई भी पड़ सकता है लेकिन बीमार को हमारी चिकित्सा प्रणाली जिस कदर अस्वस्थ करती है वह रोंगटे खड़े करता है. हमारे यहां जीवनरक्षक औषधियां और चिकित्सा उपकरण अत्यधिक महंगे और आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं. सरकार का कीमतों पर नियंत्रण नहीं है. लिहाजा, आम आदमी पिसता ही जा रहा है. सरकार ने कम लागत वाली आवश्यक दवाओं की एक राष्ट्रीय सूची यानी एनएलईएम तैयार की है. उस सूची में जो भी दवा या उपकरण शामिल किए जाते हैं उन की कीमत 70 से 80 फीसदी तक घट जाती है. राष्ट्रीय सूची होने के बावजूद हमारे यहां दवाएं बहुत महंगी है और कई जरूरी दवाएं इस सूची में शामिल नहीं हैं. चिकित्सा उपकरणों की स्थिति तो और भी खराब है. उस की स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर 14 हजार से अधिक चिकित्सा उपकरणों की सूची है जबकि उन में से मुश्किल से 20 उपकरण ही इस सूची में शामिल हैं. देश में दवाओं की कीमत निर्धारण करने के लिए नैशनल फार्मास्यूटिकल प्राइजिंग अथौरिटी यानी एनपीपीए है. एनपीपीए को दवाओं की कीमत निर्धारित करने का अधिकार है. संगठन का कहना है कि वह चिकित्सा उपकरणों की कीमत कम करने के लिए उपकरणों की सूची तैयार कर के एनएलईएम के समक्ष पेश करने को तैयार है. यदि ऐसा होता है तो आने वाले समय में जीवन रक्षक चिकित्सा उपकरणों की कीमत कम हो सकती है. सरकार को इस दिशा में और तेजी से पहल करनी चाहिए ताकि लोगों को जीवनरक्षक दवाएं व उपकरण कम कीमत पर मिल सकें.

ऋण वसूली के लिए बैंकों के सख्त नियम

बैंक ऋण वसूली के लिए नियमों को और कड़ा बनाने के वास्ते माथापच्ची कर रहे हैं. रिजर्व बैंक तथा केंद्र सरकार के बीच वसूली को सुनिश्चित बनाने के लिए कई दौर की बैठकें हो चुकी हैं. फिलहाल इस का ठोस नतीजा सामने नहीं आया है. वित्तमंत्री ने स्थिति का ठोस परिणाम सामने आते नहीं देखा तो उन्होंने एक समिति का गठन कर दिया. यह समिति पता लगाएगी कि जो लोग क्षमता होते हुए भी ऋण लौटाने से कतराते हैं उन लोगों से किस तरह से ऋण वसूला जाए. समिति ऋण वसूली के मुद्दे पर गंभीरता से विविध नजरिए से विचार कर रही है. रिजर्व बैंक ने बैंकों से कह दिया है कि जो लोग ऋण लौटाने में कोताही बरत रहे हैं उन्हें अतिरिक्त ऋण नहीं दिया जाए. ऋण वसूली के लिए समिति के समक्ष जो भी सुझाव आएंगे उन्हें सख्ती से लागू किया जाएगा. यह कदम बैंकों में निरंतर बढ़ रही गैर निस्पादित परिसंपत्ति यानी एनपीए के स्तर को संतुलित बनाने के लिए भी उठाया गया है. बैंकों में समाप्त वित्त वर्ष तक एनपीए का स्तर पिछले वर्ष के 3.84 प्रतिशत से बढ़ कर 4.72 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया है. बैंकों का कहना है कि उन्हें ऋण वसूली के लिए अधिकार दिए जाने चाहिए. बैंकों के पास इस के लिए फिलहाल कोई अधिकार नहीं हैं और जो हैं वे बहुत प्रभावी नहीं हैं. बैंकों का कहना है कि यदि उन्हें ऋण वसूली पर सख्ती का अधिकार मिलता है तो एनपीए का स्तर घटाया जा सकता है और ऋण वसूली को बढ़ाया जा सकता है.

भारत बनेगा दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत

भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया के लिए चर्चा का विषय है. दुनियाभर के अर्थशास्त्री तेजी से बढ़ रही भारतीय अर्थव्यवस्था के आकलन में अकसर व्यस्त रहते हैं. अर्थव्यवस्था का आकलन करने वाली ब्रिटेन की मशहूर संस्था प्राइज वाटरहाउस कूपर्स यानी पीडब्लूसी ने हाल ही में एक अनुमान में कहा है कि भारत 2030 तक दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. अब तक इस स्तर पर ब्रिटेन के पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा था. पीडब्लूसी के ताजा आकलन के अनुसार, दूसरे स्थान पर चीन की अर्थव्यवस्था रहेगी. चीन का स्थान भले ही अमेरिका के बाद दूसरा होगा लेकिन यह अमेरिका के बहुत निकट पर स्थित होगा. जापान को पछाड़ कर चीन पहले ही आगे निकल चुका है. अध्ययन में कहा गया है कि ब्रिटेन 2030 तक दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था होगा जबकि भारत का स्थान मैक्सिको लेगा. भारत इस समय दुनिया की 10वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन अगले डेढ़ दशक में भारत तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगा और समूह-7 के सदस्य इटली तथा कनाडा का स्तर मैक्सिको से भी कम हो जाएगा. संस्था का कहना है कि ब्रिक्स के सदस्य देशों में भारत, चीन, ब्राजील तथा रूस निकट भविष्य में वैश्विक आर्थिक मंच पर बहुत प्रभावी हो सकते हैं. कुछ समय पहले तक अटकलें लगाई जाती रही थीं कि ब्रिटेन दूसरे स्थान की आर्थिक शक्ति बन रहा है लेकिन धीरेधीरे वैश्विक स्तर पर हो रहे आकलनों में ब्रिटेन लगातार पिछड़ रहा है. लेकिन इस का अर्थ यह न लगाएं कि देश के नागरिक संपन्नता में तीसरे स्थान पर होंगे. ये आंकड़े केवल हमारी बड़ी जनसंख्या के कारण हैं.

सूचकांक 26 हजार के पार

जुलाई के दूसरे पखवाड़े में कंपनियों के बेहतर तिमाही परिणाम और विदेशों से अच्छे संकेत मिलने के नतीजे में शेयर बाजार में रौनक का माहौल रहा. निवेशकों में उत्साह बना रहा जबकि गाजा संकट और यूके्रन का संकट लगातार वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की कोशिश करता रहा. नई सरकार के पहले आम बजट पेश करने के बाद बाजार में माहौल सकारात्मक रहा और उत्साहित बाजार ने 22 जुलाई को दूसरी बार 26 हजार अंक का आंकड़ा पार किया. इस से पहले बाजार ने 7 जुलाई को यानी नई सरकार के रेल बजट पेश करने से महज 1 दिन पहले और आम बजट से 3 दिन पहले यह आंकड़ा हासिल किया था. जुलाई के तीसरे सप्ताह में 21 जुलाई को बाजार लगातार छठे दिन तेजी पर बंद हुआ और रिकौर्ड ऊंचाई हासिल कर के 26,025 अंक तक जा पहुंचा. अगले दिन फिर लय बरकरार रही और सूचकांक ने नया रिकौर्ड बनाया. नैशनल स्टौक ऐक्सचेंज यानी निफ्टी भी लगातार नई ऊंचाई की तरफ बढ़ता गया. जानकारों का कहना है कि निकट भविष्य में मानसून और वैश्विक माहौल बाजार के मिजाज को बिगाड़ सकते हैं. इस से पहले 15 जुलाई को बाजार लगातार 5 दिन की गिरावट से उबरा और 221 अंक की तेजी पर बंद हुआ. कारोबारियों का कहना है कि बाजार का माहौल अच्छा है. बजट के दौरान सूचकांक में गिरावट जरूर आई थी लेकिन अब उस ने लगातार सकारात्मक रुख अख्तियार कर लिया है.

भारत भूमि युगे युगे

मोदी का डिजाइनर मेकओवर

हर दौर में देशवासी चाहते रहे हैं कि हमारा प्रधानमंत्री जो भी हो, दूसरे देशों के राजनयिकों से उन्नीस न लगे यानी स्मार्ट, खूबसूरत और टिपटौप दिखे. नरेंद्र मोदी के डिजाइनर मेकओवर की तैयारी हो रही है. उन्हें सितंबर में प्रतीक्षित अमेरिकी यात्रा करनी है. मुंबई के ट्राय कांस्टा नामी डिजाइनर हैं जो प्रधानमंत्री की ग्लोबल इमेज गढ़ रहे हैं यानी मोदी नए लुक में अमेरिका जाएंगे. उन के तेवर तो बदले होंगे ही. हाफ बांह का कुरता मोदी ने बारिश के पहले तक पहना था. अब शायद वे सूट, पैंट और शर्ट की तरफ बढ़ रहे हैं. पीएम की पोशाक कैसी होनी चाहिए, इस पर हर एक की अपनी राय है जिस का सार यह है कि बराक ओबामा को टक्कर देती होनी चाहिए.

पलट गया पासा

नटवर सिंह कौन हैं, यह याद करने के लिए आम लोगों को दिमाग पर जोर डालना पड़ता है तब याद आता है कि वे कभी विदेशी मंत्री हुआ करते थे और उन दर्जनों कांग्रेसियों में से एक हैं जिन्हें सोनिया गांधी ने मुंह लगा कर बाद में हाशिए पर ढकेल दिया. अब इन्हीं नटवर से सोनिया को मुंह छिपा कर मिलना पड़ रहा है. वजह, एक किताब है जिस का नाम है, ‘वन लाइफ इज नौट एनफ’. सोनिया नहीं चाहतीं कि यह किताब प्रकाशित हो जिस का विमोचन पूर्व अटौर्नी जनरल सोली सोराबजी के कर कमलों द्वारा होना तय हुआ है. इस पुस्तक में धमाकेदार सामग्री की गंध महसूस की जा रही है. वैसे भी, राजनीति में किताबों का चलन बेवजह नहीं बढ़ रहा है जो प्रकाशन के पहले ही बिकने लायक चर्चित कर दी जाती हैं.

अजीज की अजीब बातें

अजीज कुरैशी इन दिनों उत्तर प्रदेश के भी प्रभारी राज्यपाल हैं, उन की राय में भगवान भी चाहे तो बलात्कार नहीं रोक सकता. बलात्कार और दुष्कर्म के बढ़ते मामलों पर हर एक नेता का अपना अलग दर्शन है जो सभी ने सुना पर भगवान को भी घसीटता हुआ बयान पहली बार आया. सार यह है कि बलात्कार भी भगवान की मरजी से होते हैं. धर्मग्रंथ भी बलात्कार संबंधी प्रसंगों से भरे पड़े हैं. ऋषिमुनि, साधुसंत बातबात पर बलात्कार कर डालते थे यानी कि बलात्कार पुरुष का शौक है और पौरुष भी है. अच्छा तो यह रहा कि किसी ने यह एतराज नहीं जताया कि कुरैशी को भगवान की जगह अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए था. यानी, बलात्कार पर ऊपर वाले भी एक हैं.

दाल में काला

सुनंदा पुष्कर की मौत की सीबीआई जांच से सब से ज्यादा कौन परेशान है, जवाब साफ है सिर्फ शशि थरूर. इस हाईप्रोफाइल असामान्य मौत को सामान्य मानने को आम आदमी कतई तैयार नहीं था पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने बड़ी सादगी से इसे सामान्य करार दे दिया था. अब पुरानी बातें नए अंदाज में सामने आ रही हैं. आईपीएल के सट्टे की बात हो या पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार से शशि थरूर के प्रेमप्रसंग की, तमाम राज खुलेंगे और दिक्कत पूर्व विदेश मंत्री को होगी जो बीते दिनों अकसर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे गढ़ते रहे. लोगों का माथा तो तभी ठनका था कि दाल में जरूर कुछ काला है जिसे अब सीबीआई खंगालेगी.

तीस्ता जल समझौता

प्रधानमंत्री बनने के साथ नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता पड़ोसी देशों के साथ संबंध को मजबूती देने की है. लेकिन इस समय मोदी सरकार के बंगलादेश के साथ संबंध चुनौतीपूर्ण मोड़ पर आ कर खड़े हो गए हैं. तीस्ता जल के बंटवारे को ले कर बंगलादेश से भारत के संबंध इस समय नाजुक दौर में हैं. एक तरफ पश्चिम बंगाल तो दूसरी तरफ बंगलादेश और इन दो पाटों के बीच भारत सरकार. तमाम कोशिशों के बाद भी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह न तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को राजी कर पाए और न ही बंगलादेश को. लेकिन भाजपा सरकार फूंकफूंक कर कदम रखना चाह रही है. तभी तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपनी बंगलादेश यात्रा से पहले ममता बनर्जी से फोन पर बातचीत की. माना जा रहा है कि ममता को राजी किए बगैर तीस्ता विवाद को सुलझाना मुश्किल है. बंगलादेश के साथ भारत के कई मुद्दे लटके हुए हैं जिन में प्रमुख हैं, तीस्ता जल का बंटवारा, सीमा विवाद, प्रत्यार्पण समझौता. यूपीए सरकार इन मुद्दों को सुलझाने में नाकाम रही है. तीस्ता नदी के जल के बंटवारे का सवाल है तो इस में सब से बड़ी अड़चन पश्चिम बंगाल की आपत्ति है.

वर्ष 2011 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बंगलादेश की यात्रा पर गए थे तब यह समझौता हो गया था कि दोनों देश तीस्ता जल का बराबरबराबर इस्तेमाल करेंगे लेकिन तब भी ममता बनर्जी ने यह तर्क देते हुए विरोध किया था कि इस से सूखे के मौसम में पश्चिम बंगाल के किसान तबाह हो जाएंगे. आइए, सब से पहले देखते हैं कि तीस्ता जल बंटवारे का पूरा मुद्दा है क्या? 1815 में एंग्लोनेपाली युद्ध के बाद तीस्ता को ले कर नेपाल के राजा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक संधि हुई, जो सुगौली संधि के नाम से जानी जाती है. नेपाल के राजा ने मेची और तीस्ता नदी के बीच के तराई भूखंड को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया. विवाद की शुरुआत 1971 में बंगलादेश बना. तब तीस्ता के जल को ले कर विवाद शुरू हुआ. गौरतलब है कि तीस्ता नदी पाहुनरी ग्लेशियर से निकल कर उत्तर में सिक्किम और उत्तर बंगाल से हो कर बंगलादेश तक जाती है. पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी से तीस्ता का प्रवाह बंगलादेश के रंगपुर जिले में पहुंचता है. अंत में यह ब्रह्मपुत्र नदी में जा कर मिल जाती है.

1972 में संयुक्त नदी आयोग का गठन किया गया था. 1983 में भारत और बंगलादेश के बीच तीस्ता जल बंटवारे पर एक तदर्थ समझौता हुआ, जिस के तहत दोनों देशों के बीच क्रमश: 39 प्रतिशत और 36 प्रतिशत पानी का बंटवारा हुआ. लेकिन 30 सालों के बाद नए द्विपक्षीय समझौते का विस्तार किया जाना था तो दोनों देशों के लिए बराबरी में यानी 50 प्रतिशत जल बंटवारे का प्रस्ताव रखा गया. इस पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आपत्ति जताई. हमारे देश में पानी राज्य का विषय है और पश्चिम बंगाल सरकार पानी के बंटवारे के प्रस्तावित अनुपात को ले कर लंबे समय से विरोध कर रही है. इस विरोध का कारण यह है कि सूखे के मौसम में उत्तर बंगाल का जनजीवन तीस्ता नदी के जल पर निर्भर करता है. ममता बनर्जी सरकार के सिंचाई मंत्री राजीव बनर्जी का तर्क यह है कि उत्तर बंगाल की अनदेखी कर के भारत और बंगलादेश के बीच मैत्री संबंध को तूल देना केंद्र के लिए उचित भी नहीं होगा. गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के तराई वाले हिस्से के लिए तीस्ता का महत्त्व सूखे के मौसम में अधिक है. इस बात से इनकार नहीं, पर यही बात बंगलादेश के लिए भी लागू होती है. सूखे के मौसम में बंगलादेश के किसानों को भी तीस्ता का पानी राहत देता है. ममता बनर्जी का मत है कि सूखे के मौसम में तीस्ता में इतना पानी होता ही नहीं कि 25 प्रतिशत से अधिक पानी बंगलादेश को दिया जा सके. जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है तो मां, माटी, मानुष की राजनीति करने वाली ममता की अपनी जनता के प्रति जवाबदेही है, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता.

पश्चिम बंगाल को न केवल उत्तर बंगाल के किसानों के लिए तीस्ता के पानी की जरूरत है, बल्कि कोलकाता पोर्ट के लिए भी यह जरूरी है. कोलकाता पोर्ट में पानी कम हो जाने की सूरत में माल ढुलाई का काम प्रभावित होता है. तीस्ता पर नियंत्रण व समस्या तीस्ता की बहती धारा पर भारत का नियंत्रण जलपाईगुड़ी के करीब गाजोलडोबा में तीस्ता बैराज के जरिए होता है. वहीं बंगलादेश ने भी अपने उत्तरपश्चिम हिस्से में नहरों के नैटवर्क के विस्तार के लिए तीस्ता नदी के करीब लालमोनीहार जिले में डालिया बैराज का निर्माण किया है. नहरों के नैटवर्क का नियंत्रण डालिया बैराज के जरिए होता है. लेकिन बंगलादेश को सूखे के मौसम में समस्या तब पेश आती है जब पश्चिम बंगाल के गाजोलडोबा बैराज के नियंत्रण के कारण बंगलादेश का डालिया बैराज तक पानी नहीं पहुंच पाता. इस से नहरों का नैटवर्क प्रभावित होता है. वहीं, बारिश के मौसम में गाजोलडोबा बैराज से अतिरिक्त जल छोड़े जाने पर बंगलादेश के उत्तरपश्चिम हिस्से में बाढ़ की समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है. एक तरफ फसल का नुकसान होता है तो दूसरी ओर नदी के कटाव के कारण गांव के गांव तबाह हो जाते हैं. बारिश के मौसम में तीस्ता बैराज से पानी न छोड़ा जाए तो उत्तरी बंगाल का तराई वाला हिस्सा बाढ़ में डूब जाएगा. जाहिर है समस्या का हल कठिन है. लेकिन दोनों देशों के अंतर्राष्ट्रीय संबंध और तीस्ता से जुड़े अपनेअपने सामाजिकआर्थिक मुद्दों के मद्देनजर इस का एक सर्वमान्य हल ढूंढ़ना भी जरूरी है.

कांग्रेस के अच्छे दिन

दिल्ली से उत्तराखंड की दूरी महज 200 किलोमीटर है. इसी वजह से दिल्ली की केंद्र सरकार का यहां जल्दी असर होता है. पूरे देश में प्रचंड बहुमत से लोकसभा चुनाव जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड में 3 माह के अंदर अपनी चमक खोनी शुरू कर दी है. 21 जुलाई, 2014 को उत्तराखंड की 3 विधानसभा सीटों धारचूला, डोईवाला और सोमेश्वर उपचुनाव के नतीजे 25 जुलाई को आए. नतीजे देख कर सभी हैरान रह गए. विधानसभा चुनाव में भाजपा को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई. पिथौरागढ़ जिले की धारचूला सीट से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत उम्मीदवार थे. हरीश रावत ने 20 हजार से अधिक मतों से चुनाव जीत कर अपनी कुर?सी की ताकत का एहसास करा दिया. भाजपा के बी डी जोशी को यहां हार का मुंह देखना पड़ा. बी डी जोशी को केवल 10 हजार के करीब वोट ही मिल सके.

धारचूला सीट पर पहले भी कांग्रेस का कब्जा था. कांग्रेस के विधायक हरीश धामी ने यह सीट मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए छोड़ी थी. हरीश रावत राज्यसभा के सदस्य थे. मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 माह के अंदर उन को विधायक बनना था. कांग्रेस ने देहरादून जिले की डोईवाला व अल्मोड़ा जिले की सोमेश्वर सीट भाजपा के कब्जे से छीन ली है. इन दोनों ही सीटों पर लोकसभा चुनावों में भाजपा को भारी बढ़त मिली थी. सोमेश्वर सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ी रेखा आर्य ने भाजपा के मोहनराम आर्य को 10 हजार वोटों से पराजित किया. डोईवाला सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट ने भाजपा के राष्ट्रीय सचिव व पूर्व मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को पराजित किया. देहरादून जिले की डोईवाला सीट भाजपा विधायक डा. रमेश पोखरियाल निशंक और अल्मोड़ा जिले की सोमेश्वर सीट अजय टम्टा के सांसद बनने के बाद खाली हुई थी. डा. रमेश पोखरियाल हरिद्वार और अजय टम्टा अल्मोड़ा लोकसभा सीट से संसद सदस्य चुने गए थे. उत्तराखंड उपचुनाव के नतीजे 2 तरह से कांग्रेस के लिए खुशियां ले कर आए हैं.

3 विधानसभा सीटें जीतने के बाद 70 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों का आंकड़ा 35 पहुंच गया है. 1 मनोनीत विधायक के साथ कांग्रेस को अब बहुमत हासिल हो गया है. इस से हरीश रावत सरकार मजबूती से काम कर सकेगी. अगर भाजपा विधानसभा उपचुनाव जीत जाती तो कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ जाती. उत्तराखंड में कांग्रेस को अपने बल पर बहुमत हासिल नहीं था. इस के साथ ही साथ उत्तराखंड चुनाव में भाजपा की हार से यह साबित हो गया है कि लोकसभा चुनाव जीतने के बाद की चमक फीकी पड़ने लगी है. इस की शुरुआत उत्तराखंड से हो चुकी है. अगली चुनौती उत्तर प्रदेश अक्तूबर माह में उत्तर प्रदेश में 12 सीटों पर उपचुनाव होने हैं. इन में 1 सीट मैनपुरी लोकसभा की है जो समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के इस्तीफा देने के बाद खाली हुई है.

जिन विधानसभा सीटों के चुनाव होने हैं वे बुंदेलखंड से ले कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैली हुई हैं. इन सीटों में गौतमबुद्धनगर की नोएडा, शामली की कैराना, खीरी की निघासन, बहराइच की बलहा, हमीरपुर, बिजनौर और लखनऊ पूर्व, महोबा की चरखारी, मुरादाबाद की ठाकुरद्वारा, सहारनपुर, कौशांबी की सिराथू और वाराणसी की रोहनियां शामिल हैं. इन सीटों में केवल वाराणसी की रोहनियां सीट अपना दल की अनुप्रिया पटेल के संसद सदस्य बनने के बाद खाली हुई है. बाकी सभी सीटों पर पहले भाजपा के विधायक जीते थे. अब वे संसद सदस्य चुन लिए गए हैं जिस के कारण यहां पर उपचुनाव होने हैं. अपना दल भी भाजपा का सहयोगी दल ही है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के इन उपचुनावों में भाजपा की साख दांव पर लगी है. फीकी पड़ती चमक भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी की जो चमक बनी थी वह दिनोंदिन फीकी पड़ने लगी है.

जनता को अब कांग्रेस और भाजपा सरकार के बीच का कोई अंतर समझ नहीं आ रहा है. भाजपा ने महंगाई, कालाधन और पाकि स्तान के साथ सीमा विवाद को ले कर जो वादे चुनाव के पहले किए थे अब उन को पूरा करने से कतरा रही है. उत्तर प्रदेश ने भाजपा को 73 सांसद दिए. प्रदेश की जनता को उम्मीद थी कि भाजपा उन की परेशानी को समझ कर दूर करने का काम करेगी. उत्तर प्रदेश की खराब कानून व्यवस्था, बिजली और पानी के संकट पर भाजपा की केंद्र सरकार पूरी तरह से मौन है. भाजपा की जीत में युवाओं का बड़ा हाथ था. केंद्र में सरकार बनने के बाद युवाओं के लिए भाजपा ने कोई कदम नहीं उठाया. इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों की फीस बढ़ा दी गई. संघ लोकसेवा आयोग ने प्रतियोगी परीक्षाओं में सी सैट जैसे बदलाव किए जिस से हिंदी बोलने और पढ़ने वाले छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं में हाशिए पर डाला जा सकेगा. इस से गांव के इलाकों के छात्र इन परीक्षाओं में पिछड़ जाएंगे. एक तरफ भाजपा इस मुद्दे पर छात्रों का साथ देने की बात कर रही है तो दूसरी ओर केंद्र सरकार छात्रों को टालने की कोशिश में है.

ऐसी तमाम परेशानियां हैं जिन पर विपक्ष के रूप में भाजपा आक्रामक थी, अब केंद्र में सरकार बनाने के बाद वह मौन हो गई है. इन हालात ने जनता में भाजपा के खिलाफ गुस्सा बढ़ाने का काम किया है. उत्तराखंड उपचुनाव के नतीजे देख कर भाजपा को सबक सीखने की जरूरत है. भाजपा की अगली चुनौती उत्तर प्रदेश में होने वाले उपचुनाव हैं. इन में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी भाजपा की जीत की चमक को फीका करने की पूरी कोशिश करेगी. प्रचार का कमाल है कि धर्म जैसी अदृश्य, अनावश्यक और अप्राकृतिक अवधारणा को अरबों को बेच ही नहीं दिया जाता, उस के लिए मरनेमारने और मारने के बाद बड़े पिरामिड और ताजमहल जैसी इमारतों पर आदमी को और उस की मेहनत को न्योछावर तक कर दिया जाता है. भारतीय जनता पार्टी धर्म और चुनाव से जीती पर कुछ कर पाना उस के लिए आसान नहीं. अब लगता है नेताओं में देवत्व का भाव भी कम दिखने लगा है और भाजपा उस की शिकार ही हुई है.

विस्थापन का दर्द

8 जून, 2014 की दोपहर 3 बजे हम मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले की सुहागपुर तहसील के तहत आने वाले गांव कूकरा में थे. आसमान से आग इतनी भीषण बरस रही थी कि पक्षी तो पक्षी, कोई मवेशी भी जमीन पर नहीं दिख रहा था. गांव था या है, इस का यह मतलब नहीं कि वहां सालों पुराने घने छायादार बरगद या पीपल के पेड़ थे, अमराई थी, आसपास लहलहाते खेत थे, कोई कुआं या पनघट था या कुछ नएपुराने कच्चे मकान और छोटीमोटी सरकारी इमारतें थीं, गलियां थीं, घरों के बाहर लगाई गई मौसमी सब्जियों के पेड़ या बेलें थीं. इस कूकरा गांव का मतलब था 2 एकड़ सपाट बंजर जमीन, जिस में बंजारों की तरह तकरीबन 40 परिवारों के 200 सदस्य ला कर छोड़ दिए गए थे. इस तारीख तक 4-6 कच्चे मकान ही बल्लियों के सहारे आकार लेते दिख रहे थे वरना तो सभी गांववासी तपती जमीन पर बैठे जैसेतैसे सिर पर छांव का इंतजाम कर सूनी आंखों से आग उगलते आसमान की तरफ बारबार नजर उठा कर देख रहे थे कि कब इस की तपिश कम हो और वे अपना काम शुरू करें.

काम यानी घर बनाना शुरू करें, चारों तरफ घरगृहस्थी का सामान, कच्चे चूल्हे, खपरैल, बिस्तर, बरतनभांडे पड़े थे जिन के इर्दगिर्द घर की मालकिनें और उन की गोदी में छोटेछोटे बच्चे बैठे थे. अधिकांश पुरुष या तो जंगल की तरफ चले गए थे या फिर 12 किलोमीटर दूर तहसील मुख्यालय पर मालूम करने गए थे कि उन का क्या हो रहा है. कुछ बुजुर्ग चंद कदमों की दूरी पर बबूल के एक पेड़ की छांव के नीचे बैठे, जाने क्याक्या सोच रहे थे. जैसे ही हमारी गाड़ी इस गांव के बाहर कच्ची सड़क पर रुकी, थोड़ी हलचल मची, बच्चे हल्ला मचाते दूर आ कर खड़े हो गए. महिलाओं ने उत्सुकतावश दूर से देखा, फिर घूंघट करने का उपक्रम करने लगीं. बूढ़ों ने भी हमारी तरफ कदम बढ़ाए. एक 18-20 साल का युवक, जो उस वक्त शायद अज्ञात खतरों से रखवाली के लिए रुक गया था, प्रमुखता से आगे आया. तय है कि अगवानी के लिए नहीं बल्कि बाकियों की तरह यह जिज्ञासा लिए कि हम कौन हैं और क्यों आए हैं. ऐसा होता है विस्थापन हम ने परिचय दिया तो उस युवक, जिस का नाम निर्भय सिंह मर्सकोले था, ने एक खटिया मंगवा कर बिछवा दी.

बातचीत में उस ने बताया, ‘‘अब से कुछ दिन पहले जब नए प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी पद की शपथ ले रहे थे तब गांव कूकरा के वासियों को वन विभाग ने यहां ला कर छोड़ दिया और कहा कि अब यही तुम्हारा गांव है, यहां रहो और कमाओखाओ. वह कहता है कि हम सभी गौंड आदिवासी हैं.’’ नए कूकरा में इस दिन तक पीने का पानी तक नहीं था, दूसरी बुनियादी सहूलियतों की तो बात करना ही बेकार है. कोई 200 मीटर दूर कच्ची सड़क के नीचे एक टैंकर खड़ा था. निर्भय ने बताया, ‘‘इस का पानी धूप में इतना गरम हो गया है कि इसे पीया नहीं जा सकता. लिहाजा, अभी जो 8-10 कुल मटके हैं उन में डालडाल कर ठंडा कर पी रहे हैं पर इस पानी को पीने से कई लोग बीमार हो गए हैं, खासतौर से बच्चे, जो यहां आने के बाद उलटीदस्त के शिकार हो चले हैं. आसपास इलाज की कोई सुविधा नहीं है. ‘‘सुबहशाम दूर जंगल में जा कर औरतें लकडि़यां बीन लाती हैं, उन्हीं को जला कर हम खाना बना रहे हैं. शौच के लिए भी पानी की बोतल या लोटा ले कर जाना पड़ता है. बिजली न होने से रात को परेशानियां और बढ़ जाती हैं.’’

पुराने कूकरा से क्यों हटाया गया, इस सवाल का जवाब देते निर्भय ने बताया, ‘‘हमें वन विभाग के लगातार नोटिस मिल रहे थे कि यह विशेष क्षेत्र है, लिहाजा हम गांव खाली कर दें. अकसर वन विभाग के कर्मचारी आ कर हम लोगों को धौंस दिया करते थे कि यहां से हटो, वरना हमें जबरदस्ती करनी पड़ेगी. कूकरा से सटे गांव नांदेर के लोगों को भी हटा कर दूसरी जगह ले जा कर छोड़ दिया गया है. ‘‘हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें. गांव के अधिकांश लोग अनपढ़ हैं. एक वकील से बात की तो उस ने जिताने का भरोसा दिलाया. सभी गांव वालों ने चंदा कर उस की फीस की रकम जुटाई. उस के बाद मामले का क्या हुआ अभी तक अतापता नहीं. अचानक 28 मई को वन विभाग वाले आए और हमें खदेड़ना शुरू कर दिया.’’ ये बातें बतातेबताते निर्भय के चेहरे पर निराशा और आक्रोश के मिलेजुले भाव आ जाते हैं. पास बैठे एक बुजुर्ग धन्नालाल मर्सकोले ने बताया, ‘‘जबरदस्ती से बचने के लिए हमें मजबूरी में राजी होना पड़ा. ट्रक और ट्रैक्टर में सामान लदवा कर हमें यहां ला कर छोड़ दिया गया. हमारे मवेशी वहीं रह गए. उन्हें लाने की कोई पहल या इंतजाम विभाग के लोग नहीं कर रहे. हम से कोरे कागजों पर अंगूठे व दस्तखत ले लिए गए.’’ धन्नालाल चारों तरफ नजर डाल कर कहते हैं, ‘‘हम पीढि़यों से वहां रह रहे थे, कभी सोचा न था कि यों बेघर हो जाएंगे.’’

धन्नालाल सहित सभी बेघरों को दुख इस बात का है कि उन्हें जंगल में ला कर पटक दिया गया और अब कोई सुध नहीं ले रहा. यह वक्त था जब देशभर में ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ की धुन बज रही थी जबकि कूकरा गांव के लोग बुरे दिनों से जूझते अपने अस्तित्व, बसाहट और पहचान की लड़ाई से दोचार हो रहे थे जो आज भी जारी है और न जाने कब तक चलेगी. खाट से कुछ दूर बैठी एक गृहिणी को उस की लगभग 8 वर्षीय बेटी रीना बारबार अपनी मां का पल्लू खींच पूछ रही थी कि क्या ये हमें वापस अपने गांव ले जाएंगे? रीना का बालमन कितने गहरे अवसाद में था, सहज समझा जा सकता है. अपनी खिचड़ी दाढ़ी पर हाथ फेरते धन्नालाल ने अपनी बात, जो असल में व्यथा थी, इस तरह दार्शनिक अंदाज में बयां की कि शाम को चिडि़या वापस आई तो न पेड़ था न घोंसला, इसलिए वह बेचैनी से फड़फड़ाती फिर रही है. ऐसी ही हालत हमारी है. हम तो कभी भी ऊपर जा सकते हैं, अब अपनी मिट्टी में ही दफन होने की ख्वाहिश भी खत्म हो गई. लेकिन बच्चों का क्या होगा, यह सोचसोच कलेजा कांप जाता है.

अब तो हमारा अपने ‘बड़ा देव’ से भी भरोसा उठ गया है. राहत पर लूटखसोट अगले दिन दलित संघ की अगुआई में कुछ विस्थापित सुहागपुर तहसील पहुंचे और तहसीलदार स्वाति तिवारी को बदहाली के बाबत ज्ञापन दिया. हैरत और तरस की बात इन तहसीलदार साहिबा का यह कहना रहा कि उन्हें तो मालूम ही नहीं कि इन का विस्थापन या पुनर्वास हुआ है. उन के पास तो कोई अधिकृत या अनाधिकृत खबर ही किसी विभाग या दूसरे माध्यम से नहीं आई. दरअसल, खबर इसलिए नहीं आई कि यह वन विभाग के मुलाजिमों और दलालों की मिलीभगत थी. एक संपन्न किसान की परती जमीन पर उन्हें बसा दिया गया और बिक्री के अनुबंध कर लिए गए. सभी परिवारों को बता दिया गया कि वे अपनीअपनी सहूलियत और समझौते के मुताबिक भूखंड काट लें जो उन्होंने काट लिए. दलित संघ के अध्यक्ष डा. गोपाल नारायण आप्टे बताते हैं, ‘‘न तो इन सभी लोगों के बैंक खाते खोले गए न ही इन्हें स्पष्ट बताया गया कि इन्हें कितना पैसा विभाग देगा.’’ पूछने पर निर्भय ने बताया, ‘‘हमें 10-10 लाख रुपए देने का वादा किया गया है. खातों में कुछ रुपया आया था जिस में से सामान की ढुलाई के पैसे तुरंत हम से ले लिए गए और कहा जा रहा है कि इस जमीन के दाम भी इसी राहत राशि से चुकाने हैं.’’ खुद को स्मार्ट प्रदर्शित कर रहे इस युवक ने मन ही मन हिसाबकिताब लगाते बात आगे बढ़ाई कि फिर तो हमारे पास कुछ नहीं बचना, हमारी जमीन तो वहीं रह गई, अगर मजदूरी न मिली तो फाके करने की नौबत आ जाएगी. इस 2 एकड़ बंजर जमीन की कीमत 8 लाख रुपए भी नहीं है लेकिन विस्थापितों से किए अनुबंध पर अमल हुआ तो भूमि स्वामी को तकरीबन 40 लाख रुपया मिलेगा. इस से लगता है विस्थापन विशेष क्षेत्र के संरक्षण के लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति विशेष के फायदे और कमीशन के लिए हड़बड़ाहट में एक साजिश के तहत किया गया.

यानी रोजगार देना तो दूर की बात है, वन विभाग, सरकार और दलाल इन की राहत राशि पर छीनाझपटी में जुटे हैं, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा. सुहागपुर के विधायक ठाकुर दास नागवंशी से इस प्रतिनिधि ने जब इस बारे में पूछा तो वे मासूमियत से बोले, ‘‘मुझे कुछ मालूम ही नहीं, देखूंगा.’’ लेकिन विधायकजी के मुंहलगे और खुद को चालाक यानी समझदार प्रदर्शित कर रहे एक युवा ने फुसफुसा कर बताया, ‘‘विधायकजी पहले एक दुकान में काम करते थे. भाजपा को इस सुरक्षित सीट से कोई उम्मीदवार नहीं मिल पाया था, इसलिए इन्हें खड़ा कर दिया गया. शिवराज लहर में ये जीत गए हैं. अब सीख जाएंगे कामकाज करना.’’ पुनर्वास के नाम पर इस तरह के छल और ज्यादतियां नई बात नहीं. मिसाल ढेरों हैं. मध्य प्रदेश को लें तो 60 के दशक में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विंध्याचल इलाके के सिंगरौली क्षेत्र में रिहंद बांध बनाने के लिए वहां के लोगों से हट जाने की गुजारिश करते हुए कहा था, ‘आप लोग अभी हट जाएं, हम आप को स्विट्जरलैंड जैसी जगह यहीं बना कर देंगे.’

स्विट्रजरलैंड तो दूर की बात है सिंगरौली के विस्थापितों को कहीं जगह नहीं मिली, मुआवजा भी सालों बाद नाममात्र का मिला था. आज उन की तीसरी पीढ़ी यहांवहां मेहनतमजदूरी कर बसर कर रही है. यही हाल कूकरा के लोगों का होना दिख रहा है और मुमकिन ही नहीं तय है कि यही हाल सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों का होगा. उन में दहशत है. विस्थापन, निमाड़ इलाके के लोगों की नियति बनता जा रहा है. मेधा पाटकर सरीखी तेजतर्रार समाजसेवी लड़लड़ कर हारती नजर आ रही हैं. दहशत में निमाड़ विस्थापन और पुनर्वास की क्रूरता का कूकरा बहुत छोटा संस्करण है. केंद्र सरकार के 12 जून के एक फैसले के चलते अब इस तरह की त्रासदी निमाड़ इलाके के 193 गांवों के 50 हजार परिवारों यानी ढाई लाख लोगों को भुगतनी पड़ेगी. केंद्र सरकार और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण यानी एनसीए ने गुजरात के केवडि़या स्थित सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 121.012 मीटर से बढ़ा कर 138.68 मीटर करने की इजाजत दे दी है. इस बांध की ऊंचाई बढ़ाने का मसौदा 8 साल से लंबित पड़ा था जिसे प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने फुरती दिखाते हुए एक पखवाड़े में निबटा दिया.

एनसीए के मुताबिक, इस से गुजरात में पेयजल समस्या का समाधान हो जाएगा और बांध से पैदा होने वाली 1,450 मेगावाट बिजली को 4 राज्यों–गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बांट दिया जाएगा. इस से मध्य प्रदेश को सर्वाधिक 826 मेगावाट बिजली मिलेगी. सरकार वन्यजीवों की सुरक्षा के नाम पर विस्थापन करे या बांधों से मिलने वाली बिजली और सिंचाई के नाम पर विस्थापन करे, उस का हक है लेकिन यह कोई नहीं देखता कि पुनर्वास के मामले में क्यों वह अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेरे रहती है, जो बवाल की बड़ी वजह है. बहरहाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन ने तुरंत आक्रामक पहल करते हुए आंकड़े पेश कर दिए कि बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से तकरीबन ढाई लाख लोग प्रभावित होंगे, और इस बाबत कोई तैयारी सरकार ने नहीं की है. जल संसाधन मंत्री उमा भारती कह जरूर रही हैं कि सामाजिक न्याय मंत्रालय विस्थापितों के लिए उठाए कदमों से पूरी तरह संतुष्ट है. पर हकीकत एकदम उलट है. नर्मदा घाटी में इस बाबत कहीं कोई तैयारी नहीं दिख रही. फैसले ने हरसूद त्रासदी की याद दिला दी है जहां के हजारों विस्थापित अभी भी भटक रहे हैं. न तो उन का पुनर्वास हुआ है न ही मुआवजा मिला है. आंदोलनकारियों की मानें तो डूब में आ रहे ढाई लाख लोगों को वैकल्पिक जमीन, आजीविका और भ्रष्टाचार की जांच के चलते पुनर्वास का काम रुका हुआ है.

88 बसाहटों के कार्य घटिया हैं और 3 हजार फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच चल रही है. एक आंदोलनकारी की मानें तो यह फैसला राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया है जो गैरकानूनी भी है. सरदार सरोवर बांध परियोजना पर विवाद और विरोध नई बातें नहीं हैं. 1993 से ही विवाद और विकास साथ चलते रहे हैं. विस्थापितों के हकों को बांध के मकसद और पुनर्वास से संबंध रखते दर्जनों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं. मेधा पाटकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुआई करती रही हैं. उन का साथ कई हस्तियों ने समयसमय पर दिया है. उन में समाजसेवी अन्ना हजारे, लेखिका अरुंधति राय और फिल्म अभिनेता आमिर खान भी शामिल हैं. अतीत की तरह इस परियोजना का वर्तमान भी कड़वा है और सामने है, इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ढाई लाख लोगों के सिर पर रोजीरोटी का संकट. सब से बड़ा संकट आदिवासी बाहुल्य जिले धार के निसरपुर कसबे पर है जिस का अगला हरसूद बनना तय है. 10 हजार की आबादी वाला यह कसबा जलमग्न हो जाएगा. निसरपुर के चारों तरफ के लगभग 50 गांव भी डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. निसरपुर की एक चूड़ी विके्रता महिला ऊषाबाई कुमारवत की मानें तो उन के सामने अंधेरा ही अंधेरा है, सबकुछ छिनने जा रहा है और हम असहाय हैं. पुनर्वास स्थल पर जा कर क्या करेंगे, क्या खाएंगे, पता नहीं. यही चिंता तकरीबन 200 कुम्हार परिवारों और 125 मछुआरे परिवारों की भी है. इन की भी नींद उड़ी हुई है. धार के अलावा बड़वानी और खरगौन जिले के डूब क्षेत्र में आ रहे गांवों के लोग भी पुनर्वास स्थल को ले कर असंतुष्ट, शंकित और नाराज हैं.

एनवीए से जुड़े गांव खापरखेड़ा के देवराम कनेरा का कहना है कि पुनर्वास स्थल पर बिजली, सड़क और पानी के इंतजाम नहीं हैं. फिर दीगर सहूलियतों की तो बात करना ही बेमानी है. वे इन बातों को उठाते हैं तो उन्हें बांध विरोधी कह कर झिड़क दिया जाता है. इन लोगों की चिंता और दहशत बेवजह नहीं है. दरअसल, साल 2002 में भी विस्थापन हुआ था लेकिन मुआवजा देर से मिला और पुनर्वास स्थल भी देर से बना. नतीजतन, विस्थापित लोग मकान भी नहीं बना पाए. विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन भी नहीं दी गई. विख्यात लेखिका अरुंधति राय विस्थापन को कू्ररता करार दे चुकी हैं क्योंकि सरकार पुनर्वास का ध्यान नहीं देती. मेधा पाटकर की भी इस दलील में दम है कि सरकार इतने सालों में पुनर्वास नहीं कर पाई तो इतनी जल्दी क्या कर लेगी. उच्चतम न्यायालय ने विस्थापन का जो ऐक्शन प्लान दिया है उस पर अमल नहीं हो रहा है. अब दोबारा मैदानी और कानूनी लड़ाई लड़ने जा रही मेधा पाटकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी कोसने लगी हैं. उन की नजर में मुख्यमंत्री संवेदनहीन हैं, चर्चा ही नहीं करते. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कम से कम बात तो कर लेते थे. ऐसा होना चाहिए पुनर्वास ऊंचाई बढ़ाने के नए फैसले पर राजनीति शुरू हो गई है. कांग्रेस हर स्तर पर विरोध कर रही है.

कहा यह जा रहा है कि नरेंद्र मोदी इस मामले में प्रधानमंत्री की नहीं, बल्कि गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह से पेश आए हैं. बहरहाल, इन बातों से मूल समस्या हल नहीं होने वाली जो कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति की वजह से है. विस्थापितों और विस्थापन प्रक्रिया को बाबुओं व पटवारियों के हवाले छोड़ देना फसाद की असल जड़ है, जिस की तरफ जाने क्यों आंदोलनकारियों का भी ध्यान नहीं जाता. राजनीतिक और कानूनी विरोध आसान काम है पर सरकारी अमलों से निबटना दुष्कर काम है. यही वे लोग हैं जो मनमानी करते हैं, विस्थापन के नाम पर लुटपिट रहे लोगों से भी घूस खाते हैं और फर्जीवाड़े से पैसा बनाते हैं. फर्जी रजिस्ट्री कांड का परदाफाश होना इस की गवाही देता है. पुनर्वास के नाम पर कूकरा में जो छोटे पैमाने पर हुआ वह नर्मदा घाटी में 20 सालों से बड़े पैमाने पर हो रहा है.

दिक्कत यह है कि पुनर्वास का कोई खाका सरकार के पास नहीं है. वह लोगों को उजाड़ तो देती है पर बसा नहीं पाती. विस्थापन होना चाहिए या नहीं, इस बहस से बचने का इकलौता हल है व्यवस्थित पुनर्वास. इस के तहत इन प्रावधानों पर सख्ती से अमल होना चाहिए कि सरकार सुविधायुक्त पुनर्वास स्थल विकसित कर विस्थापितों को दे, जहां तमाम बुनियादी सहूलियतें हों, जमीन के बदले जमीन दे और रोजगार की गारंटी दे. चूंकि यह काम खर्चीला और लंबा है, इसलिए तमाम सरकारें इस जिम्मेदारी से बचती हैं. तय है आंदोलन और आंदोलनकारी न होते तो विस्थापितों की और ज्यादा दुर्गति होती. एनवीए ने कमर कस ली है तो तय यह भी है कि निमाड़ में बवंडर मचेगा. एक दफा विकास की शर्त पर विस्थापन भले ही कू्ररता न मानी जाए पर पुनर्वास का न होना किसी क्रूरता से कम नहीं, इस बाबत सरकार कठघरे में है.

ब्रिक्स शिखर सम्मेलन

ब्राजील में संपन्न ब्रिक्स शिखर सम्मेलन 2014 में आर्थिक उपलब्धियों की दिशा में उठाए गए कदमों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता के कसीदे काढ़े जा रहे हैं. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में ब्रिक्स सम्मेलन पर बयान दे कर भारत को होने वाले फायदे गिनाए तो विपक्षी कांग्रेस के एक अहम नेता व पूर्व वित्तमंत्री पी चिदंबरम विकास बैंक की स्थापना किए जाने के निर्णय पर खुशी जता रहे हैं. असल बात यह है कि ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहली बार पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई अलग भारत का रुतबा नहीं गांठ पाए.

विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले 5 देशों–ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के समूह यानी ‘ब्रिक्स’ के शिखर सम्मेलन में आर्थिक पक्ष में कुछ सार्थक फैसले जरूर लिए गए पर दुनिया की मौजूदा दूसरी जटिल चुनौतियों पर इन देशों के बीच कोई गंभीर मंत्रणा नहीं हुई. ब्रिक्स के पांचों ही देश वर्तमान में आर्थिक मसलों से ज्यादा अंदरूनी राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक संकटों से अधिक जूझ रहे हैं. आज जब विश्व में इराक, सीरिया, इसराईल, फिलिस्तीन, यूक्रेन, रूस समेत ईरान, सूडान, मिस्र से ले कर अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तक मजहबी मुसीबतें बेकुसूरों की जानें ले रही हैं, ऐसे में मोदी इस मंच से विश्व को झकझोरने से चूक गए. ऐसे में भारत अपना कोई अलग प्रभाव नहीं छोड़ पाया जबकि आशा थी कि वे भारत की नई छवि पेश करेंगे.

सम्मेलन में मोदी ने मौजूदा चुनौतियों की बात नहीं की, जो इस समय में विश्व के सामने जटिल स्थिति पेश कर रही हैं. हालांकि विश्व के सब से बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के इस नेता को इन देशों के राष्ट्रप्रमुख बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे कि हाल में भारी बहुमत से जीत कर आए नरेंद्र मोदी शायद कोई दूर की कौड़ी ले कर आए हों. इतना जरूर हुआ कि मोदी को इस बार देश की गरीबी, पिछड़ापन, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, बलात्कार और विभिन्न जातियों व वर्गों में बंटे समाज की समस्याओं की वजह से शर्मिंदगी और हीनता का शिकार नहीं होना पड़ा. इस सम्मेलन की कुछ उपलब्धियां गिनाई जा रही हैं, उन में ब्रिक्स देशों का 100 अरब डौलर का अपना अंतर्राष्ट्रीय विकास बैंक स्थापित किया जाना और विदेशी मुद्रा भंडार की घोषणा शामिल हैं. बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में होगा और पहले 6 साल बैंक का मुखिया कोई भारतीय होगा. विकास बैंक का राग विकास बैंक का सपना कोई आज का नहीं है. विकास बैंक की स्थापना की रूपरेखा काफी पहले बन चुकी थी. 2012 में भारत में ब्रिक्स सम्मेलन के आयोजन से पहले नई दिल्ली में ब्रिक्स अकादमी फोरम की बैठक हुई थी, उस की मेजबानी दिल्ली के थिंक टैंक औब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने की थी. उस में पहली बार विकास बैंक या निवेश फंड की स्थापना और औपरेशन पर विचार की सलाह दी गई थी.

इस बैंक का मकसद ब्रिक्स देशों की आधारभूत और विकास परियोजनाओं समेत उभरते और विकासशील देशों के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना था. यानी नई विश्व अर्थव्यवस्था बनाने की मांग पहले से उठाई जाती रही है. अब इसे ब्रिक्स देशों के नेतृत्व की समझदारी और दूरदर्शिता माना जा सकता है कि उस ने एक विकल्प तैयार किया है. नतीजतन, ब्रिक्स देशों में विकास परियोजनाओं की मदद के लिए न्यू डैवलपमैंट बैंक और मौद्रिक या वित्तीय संकट के समय प्रत्यक्ष सहायता के लिए आकस्मिक कोष व्यवस्था अब अस्तित्व में आ गए हैं. विकास बैंक और मुद्र्रा कोष 2 साल बाद शुरू होंगे. यह उसी तरह से हुआ है जैसे वाजपेयी ने आते ही पोखरण में परमाणु विस्फोट किया था जबकि परमाणु बम कांग्रेसी सरकारों ने बना रखे थे. मोदी ने आते ही नौैसेना के विशाल भारतीय युद्धपोत आईएनएस विक्रमादित्य का उद्घाटन किया मानो यह उन की अपनी कल्पना हो. इस तरह के कामों में समय लगता है और पहले से चल रहे होते हैं. हां, जिस ने फीता काटा, उस के फोटो जरूर छपेंगे.

मुद्दों पर खींचातानी इस विकास बैंक के मुद्दे पर चीन और दूसरे देशों के बीच हुई खींचतान ने कुछ आशंकाओं को जन्म भी दिया है. चीन लंबे समय तक अड़ा रहा है कि वह आकस्मिक कोष में ज्यादा योगदान करेगा, जिस से उस के प्रबंधन पर उस की अधिक पकड़ बन जाए लेकिन दूसरे देशों के अडिग रुख के कारण चीन को यह तो मानना पड़ा कि बैंक में पांचों सदस्य देशों की समान हिस्सेदारी होगी, लेकिन आईएमएफ की तर्ज पर बने आकस्मिक कोष में चीन का शुरुआती योगदान 41 अरब डौलर होगा जबकि ब्राजील, भारत और रूस 18-18 अरब डौलर तथा दक्षिण अफ्रीका 5 अरब डौलर का योगदान करेंगे. इस से इस संस्था में चीन की मरजी ज्यादा चलने की आशंका है. जरूरत पड़ने पर चीन अपने योगदान की आधी राशि निकाल सकेगा. दक्षिण अफ्रीका अपने योगदान की दोगुनी राशि ले सकेगा और बाकी देश जितना योगदान करेंगे, उतना ले सकेंगे. ब्रिक्स के कुल सकल घरेलू उत्पाद में चीन का हिस्सा तकरीबन 72 प्रतिशत है. उस की यह आर्थिक शक्ति भविष्य में नई संस्थाओं में असंतुलन का कारण बन सकती है.

इस नई संस्था की स्थापना वित्तीय जगत में अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों की दादागीरी को चुनौती देने के लिए हुई है. जहां तक ब्रिक्स की स्थापना की बात है, रूस के येकतेरिनबर्ग में शहर में 16 जून, 2009 को पहले औपचारिक शिखर सम्मेलन के साथ इस समूह की स्थापना हो गई. शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका को आमंत्रित सदस्य के रूप में स्थान दिया गया और दिसंबर 2010 में उसे पूर्ण सदस्यता दी गई. आंकड़े बताते हैं कि 2000 से 2008 के बीच विश्व उत्पादन में हुई वृद्धि में इन देशों का 30 फीसदी योगदान रहा है. इस की वजह इन देशों का विशाल मध्यवर्ग है. इस के अलावा जहां रूस तेल और प्राकृतिक गैस, ब्राजील औद्योगिक कच्चा माल, चीन मैन्युफैक्चरिंग, भारत सेवा क्षेत्र और दक्षिण अफ्रीका कृषि व खनन से भरपूर है. लेकिन भारत और चीन के बीच तनाव है. उधर चीन और रूस महाशक्ति बनना चाहते हैं.

भारत उस सम्मेलन में ब्रिक्स को विकसित देशों के जी-7 समूह के मुकाबले खड़ा कराने में जरा भी सफल नहीं हुआ. जी-7 समूह देशों में कनाडा, फ्रांस, जरमनी, इटली, अमेरिका, जापान और ब्रिटेन हैं और फिलहाल ये रूस और चीन दोनों से खफा हैं. भारत ने क्या खोया, क्या पाया अच्छी बात यह रही कि इस सम्मेलन में मोदी मीडिया का लावलश्कर साथ ले कर नहीं गए. लेकिन आरोप है कि मोदी अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए मीडिया को ले कर नहीं गए. इस का लाभ हुआ कि भारतीय जनता को नहीं पता चला जो सरकारी यज्ञ था और अप्रिय बातें दबी रह गईं. विदेशी पत्रकार भी वहां नाममात्र के थे और उन की भी रुचि फुटबाल में थी, इन दूसरे दरजे के नेताओं में नहीं. मोदी ने ब्रिक्स को एक बेहतर संगठन बनाने की बात कही. मोदी को विदेशी संबोधन का अनुभव नहीं है.

आमतौर पर उन की जो सामान्य ऊर्जा भारतीय श्रोताओं के सामने दिखाई पड़ती है, ब्राजील मंक वह गायब थी. सम्मेलन में मोदी विदेश नीति को ले कर अपना दृष्टिकोण सामने नहीं रख पाए और यह बताने में असमर्थ रहे कि इस समय दुनिया के सामने सब से बड़ी चुनौतियां क्या हैं, जिन से किस तरह निबटा जाना चाहिए. सक्रिय नीति निर्माता के रूप में मोदी की भूमिका दिखाई नहीं पड़ी. सम्मेलन में सब से बड़ा आर्थिक एजेंडा दिखाई दिया. यह ठीक है कि मजबूत आर्थिक सुधार की चुनौती से निबटने के तरीके तलाशे गए हैं लेकिन इन देशों के सामने अन्य तमाम मुद्दे हैं जिन पर गंभीरता से विचारों और सहयोग का आदानप्रदान किया जा सकता है. इस समय रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, भारत, ब्राजील मजहबी संकटों से अधिक जूझ रहे हैं. ये देश घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर त्रस्त हैं. हाल में मलयेशिया के यात्री विमान को मार गिराने के लिए अमेरिका रूस पर आरोप लगा रहा है कि उस ने आतंकवादियों को शह दी. रूस चेचन विद्रोहियों का सामना करता आ रहा है. रूस का यूक्रेन से सीमा के निकट स्वायत्तता के मसले को ले कर विद्रोहियों और यूक्रेनी सैनिकों के बीच भीषण संघर्ष चल रहा है. इन विद्रोहियों के पास अत्याधुनिक सक्षम मिसाइलें हैं. हाल में मलयेशियाई यात्री विमान इन्हीं विद्रोहियों ने गिराया था, इस बात के पुख्ता सुबूत मिले हैं.

दुनियाभर के हवाईर् मार्ग सुरक्षित नहीं हैं. चीन के लिए स्वयं बौद्धों का तिब्बत और उस के समर्थक कांटा बने हुए हैं. दक्षिण अफ्रीका मजहबी, जातीय, कबीलाई संघर्ष में उलझा हुआ है. आएदिन सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं. धार्मिक संगठन आतंकी संगठनों में तबदील होते जा रहे हैं. ईश्वर, गौड, खुदा की माला जपने वाले हाथ एकदूसरे के खून से सने नजर आने लगे हैं. भारत में नक्सलियों का फैलाव बढ़ता जा रहा है. सामाजिक भेदभाव की उपज नक्सली आंदोलन को सरकार हथियारों के बल पर खत्म करने पर तुली है. धर्मों के बीच तनाव अलग, एक ही धर्र्म के अंदर के पंथों के बीच लड़ाई सड़कों पर जबतब आती रहती है. धर्म के रखवाले धार्मिक राष्ट्र बनाने की बात करने लगे हैं. वे सरकार पर दबाव डालने की कोशिश में हैं. ब्रिक्स सम्मेलन ऐसे समय में हुआ है जब पूरी दुनिया वित्तीय संकट के साथसाथ मजहबी सामाजिक संकट झेल रही है. समूचा विश्व तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर पर खड़ा है. सम्मेलन में इन देशों ने केवल 17 पेज का एक घोषणापत्र जारी कर औपचारिकता पूरी कर ली.

इस में आतंकवाद की निंदा करते हुए कहा गया कि वैचारिक, राजनीतिक और धार्मिक किसी भी काम में आतंकवाद के लिए कोई जगह नहीं है. मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से कैलास मानसरोवर यात्रा के लिए एक और मार्ग खोलने का आग्रह कर के अपने हिंदू वोटरों को भले ही खुश करने की कोशिश की पर इस से समस्याएं और अधिक खड़ी होंगी. एक धर्म को प्रश्रय देने का मतलब, दूसरे से नाराजगी मोल लेना. यात्रियों की सुरक्षा की चिंता, उस पर सरकारी खजाने से भारीभरकम खर्च अलग. क्या मोदी एक तरफ चीन, ब्राजील, रूस जैसे देशों से व्यापार कर के कमाया पैसा इस तरह की धार्मिक यात्राओं पर खर्च करेंगे? ऐसे में कैसा विकास होगा? कैलास मानसरोवर जैसी यात्राओं से धर्म का कारोबार ही फैलेगा, जबकि दुनिया की ज्यादातर समस्याएं धर्मों से जुड़ी हुई हैं. सिर्फ व्यापार, व्यापार, व्यापार ही नहीं. व्यापार से पैसा तो आ जाएगा, ब्रिक्स देशों में पैसों से तमाम विकास हो सकेंगे लेकिन तरक्की, केवल पैसों से नहीं, सामाजिक सुधारों से आ पाएगी. अगर दुनिया आपसी कलह में उलझी रहेगी तो फिर विकास किस काम का.

घर बैठे कमाई

भोपाल के पौश इलाके शिवाजी नगर में रहने वाली नीलम कोहली के पति वन विभाग में उच्च पद पर हैं. शादी के बाद नीलम को जब घरपरिवार और बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी से फुरसत हुई तो अपना कुछ करने की उन की पुरानी इच्छा ने सिर उठाया. लिहाजा, खानेपकाने की शौकीन नीलम ने घर से ही स्नैक्स का कारोबार शुरू कर दिया, जो अब इतना बढ़ गया है कि दर्जनभर कर्मचारी उन्हें रखने पड़े हैं. कैटरिंग या व्यंजन का काम चलाना आसान इसलिए भी है कि इस में लागत कम आती है.

कच्चा माल हर कहीं मिल जाता है जिस में तेल, बेसन, मसाले और ईंधन प्रमुख हैं. घर में बेसन के तरहतरह के नमकीन दाल चूड़ा, भुजिया और दूसरे व्यंजन आसानी से बनाए जा सकते हैं. इन्हें बेचने में शुरुआती दौर में परिचितों का सहारा लिया जा सकता है. इस में पैसा नकद मिलता है और कई बार तो ग्राहक अग्रिम भी देते हैं. प्रचार के लिए बेहतर है कि शुरू में घरघर जा कर अपने उत्पाद, उस की खूबियां बता कर बेचे जाएं और जायके के लिए सैंपल दिए जाएं. बच्चों के लिए खासतौर से बगैर मिर्च वाले आइटम जैसे सेव, गठिया वगैरह बनाए जाएं.

सामान के नाम पर पैकिंग मशीन और एक इलैक्ट्रौनिक तराजू पर्याप्त होता है. कारोबार बढ़ाने के लिए अच्छा यह भी होता है कि आसपास के घरों में अपने विजिटिंग कार्ड दे दिए जाएं जिस से जरूरत पड़ने पर ग्राहक फोन पर और्डर बुक करा सकें. कारोबार का दूसरा चरण खाना बनाने का है. आजकल छोटेमोटे पारिवारिक आयोजनों में 40-50 लोगों को खाना खिलाना आम बात है. यदि इस के लिए होटल में लोग आयोजन करें तो 300 रुपए प्रति व्यक्ति खर्च आता है.

यही सामान इन्हें घर पर मुहैया कराया जाए तो वे 200 रुपए प्रति व्यक्ति देने को खुशीखुशी तैयार रहते हैं. जबकि उस की लागत 120 रुपए के लगभग आती है. खाने का काम शुरू करने में ज्यादा बरतनों की जरूरत पड़ती है जिन का इंतजाम कर पाना मुश्किल काम नहीं.

-प्रतिनिधि

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें