बौलीवुड में हमशक्लों पर बनी सभी फिल्में फूहड़ नहीं होतीं. दर्शकों को ‘धूम 3’ में आमिर खान की हमशक्ल वाली भूमिका याद होगी. ‘धूम 3’ के लेखक ने इन दोनों हमशक्लों के लिए एक तो बढि़या स्क्रिप्ट लिखी, दूसरे, निर्देशक ने इन हमशक्लों को खूबसूरती से निर्देशित किया. मगर साजिद खान की यह ‘हमशकल्स’ एकदम फूहड़ है. इस में सभी पुरुष कलाकारों ने मैड कौमेडी की है. सभी प्रमुख पुरुष कलाकार पागल बने हैं. इन पागलों की मैड कौमेडी देख कर आप का भी दिमाग खराब हो सकता है.
कौमेडी करने के लिए यह जरूरी तो नहीं कि ऊटपटांग हरकतें ही की जाएं. इन्हीं साजिद खान ने इस से पहले ‘हाउसफुल’ और ‘हाउसफुल 2’ में दर्शकों को खूब हंसाया था. मगर इस फिल्म में उन्होंने दर्शकों को सिवा सिरदर्द के कुछ नहीं दिया है. ‘हमशकल्स’ में शुरू से आखिर तक बेसिरपैर की घटनाएं भरी पड़ी हैं. फिल्म देखते वक्त दर्शकों को लगता है जैसे उन्हें सिनेमाघर में नहीं किसी पागलखाने में बिठा दिया गया है और वे फिल्म खत्म होने का इंतजार करते रहते हैं. मगर फिल्म है कि खत्म ही नहीं हो पाती, द्रौपदी की साड़ी की तरह लंबी खिंचती चली जाती है.
कहानी करोड़पति परिवार के वारिस अशोक सिंघानिया (सैफ अली खान) की है. कुमार (रितेश देशमुख) उस का दोस्त है. अशोक का पिता कोमा में बैड पर लेटा है. अशोक का मामा अमरनाथ (राम कपूर) अशोक को भी पागल करार दे कर सारी जायदाद हड़पना चाहता है. वह एक साइंटिस्ट से मिल कर अशोक और कुमार को पानी में मिला कर एक दवा पिलवाता है जिस से वे कुत्तों जैसी हरकतें करने लगते हैं. उन दोनों को पागलखाने में भरती करा दिया जाता है.
उसी पागलखाने में अशोक और कुमार के हमशक्ल भी हैं जो एक होटल में रसोइए थे और आपराधिक प्रवृत्ति के हैं. उन के नाम भी वे ही हैं. इसी वार्ड में अशोक के मामा अमरनाथ का भी एक हमशक्ल है. कुछ ही दिनों में डाक्टरों को लगता है कि अशोक और कुमार अब ठीक हैं. इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता है. लेकिन इन दोनों के बदले दूसरे वार्ड में भरती अशोक और कुमार बाहर निकल आते हैं और असली अशोक कुमार के घर पर रहने आ जाते हैं. यहां उन की मुलाकात अशोक की प्रेमिका मिष्टी (तमन्ना भाटिया) और सैक्रेटरी शनाया (बिपाशा बसु) से होती है. ये दोनों इन पागलों को ही असली समझ कर उन से प्यार करने लगती हैं.
उधर, असली अशोक और कुमार उसी पागलखाने में बंद मामा अमरनाथ के हमशक्ल की मदद ले कर अपने असली कंस मामा का भंडाफोड़ करने पहुंच जाते हैं. यहां अशोक और कुमार के एक और हमशक्ल आ जाते हैं. साथ ही अमरनाथ मामा का भी हमशक्ल आ जाता है. खूब कन्फ्यूजन पैदा होता है. आखिरकार कन्फ्यूजन खत्म होता है करोड़पति सिंघानिया के कोमा से बाहर आने पर. वह अपने असली बेटे को पहचान लेता है और अपने एंपायर को अमरनाथ के हाथों में जाने से बचा लेता है.
फिल्म की यह कहानी कन्फ्यूजनों से भरी पड़ी है. सभी कलाकारों ने फूहड़ ऐक्ंिटग की है. तीनों अभिनेत्रियों के पास करने लायक कुछ था ही नहीं. मामा की भूमिका में राम कपूर महिला के गैटअप में एकदम बेकार लगता है. सतीश शाह की भूमिका जेल वार्डन की है जो टौर्चर करने के नएनए तरीके ईजाद करता रहता है. कुल मिला कर सभी कलाकारों ने जम कर ओवरऐक्ंिटग की है.
फिल्म का निर्देशन बेकार है. गीतसंगीत लाउड है. तीनों कलाकारों का महिला गैटअप काफी फूहड़ लगता है. रितेश देशमुख का सतीश शाह पर बारबार पेशाब करना गंदगी दर्शाता है. कोकीन के परांठे खा कर लोगों का अभद्र हरकतें करना शर्मनाक लगता है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.