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पाठकों की समस्याएं

मैं  एक लड़के से बेहद प्यार करती हूं. लेकिन उस से अपने मन की बात कहने से डरती हूं क्योंकि वह दिखने में बहुत स्मार्ट है जबकि मैं उतनी स्मार्ट नहीं हूं. कालेज की सभी लड़कियां उसे पसंद करती हैं. मुझे डर है कि अपनी भावनाओं का इजहार करने से कहीं वह मुझ से दोस्ती भी न तोड़ दे. मैं ऐसा क्या करूं कि वह मुझे पसंद करने लगे?

यह आप के मन की हीनभावना और आप में आत्मविश्वास की कमी है, इसलिए आप अपने मन की बात उस लड़के से कहने में हिचक रही हैं और खुद को कमतर समझ रही हैं. बिना डरे अपने मन की बात उस लड़के से कहिए. अगर वह आप का दोस्त है तो आप की भावनाओं की कद्र करेगा और अपनी भावनाएं भी आप के सामने प्रकट करेगा. वह आप को पसंद करने लगे इस के लिए अपने भीतर आत्मविश्वास जगाइए. अपने व्यक्तित्व में अपने पहनावे व चालढाल से बदलाव लाइए. सैल्फ गू्रमिंग कीजिए और दोस्ती टूटने के डर से मन की बात मन में न रखिए. वैसे भी आप को पसंद करता है तभी आप का दोस्त है. यह अलग बात है कि वह आप को उस नजर से देखता है या नहीं, जिस नजर से आप उसे देखती हैं, यह उस से बात करने पर ही पता चलेगा.

मैं 34 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं. मेरी समस्या यह है कि पिछले डेढ़ साल से सैक्स करने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं होती है. मेरी पत्नी में कोई कमी नहीं है. वह सुंदर है, आकर्षक है. वह भी मेरे इस बदले व्यवहार से परेशान है. मैं क्या करूं, सलाह दें?

आप की पत्नी का आप के इस व्यवहार से परेशान होना वाजिब है क्योंकि उस की भी अपनी शारीरिक जरूरतें हैं. लेकिन अगर आप को यह समस्या पिछले डेढ़ साल से ही हुई है तो आप किसी सैक्सोलौजिस्ट से मिलें. वह आप की सैक्स के प्रति अरुचि का कारण व उस का समाधान बताएगा. कई बार वर्क स्ट्रैस भी सैक्स के प्रति अरुचि का कारण बनता है, इसलिए अपनेआप को रिलैक्स करें, औफिस की टैंशन घर न लाएं व पत्नी के साथ अधिक से अधिक समय बिताएं.

मैं 20 वर्षीय साइंस का स्टूडैंट हूं और एक लड़की से प्यार करता हूं. समस्या यह है कि वह लड़की मेरे गांव की ही है. क्या हमारी शादी हो सकती है? और मुझे डर है कि अगर हम शादी करेंगे तो दुनिया वाले क्या कहेंगे?

आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं. आप दोनों अगर एक ही गांव से हैं तो इस में कोई समस्या नहीं है. क्या एक ही गांव में 2 भिन्न परिवारों के बीच वैवाहिक रिश्ते नहीं बनते हैं? आप बेझिझक हो कर अपने परिवार वालों से इस बारे में बात कर सकते हैं व उन की रजामंदी से विवाह भी कर सकते हैं. जब प्यार किया है व परिवार वालों की रजामंदी से विवाह करेंगे तो दुनिया वाले भी आप के रिश्ते को स्वीकार लेंगे.

मैं 33 वर्षीय पुरुष हूं. कुछ ही समय में मेरा विवाह होने वाला है लेकिन मेरी समस्या यह है कि जिस लड़की से मेरा विवाह हो रहा है उस ने खुद बताया है कि उस का एक बौयफ्रैंड था जिस के साथ उस के शारीरिक संबंध भी थे. मैं उस लड़की से प्यार तो करता हूं लेकिन समझ नहीं पा रहा हूं कि उस से विवाह करूं या नहीं क्योंकि मुझे लगता है उस के बारे में यह जानने के बाद मैं उस से विवाह नहीं कर पाऊंगा. क्या करूं, सलाह दीजिए?

वह लड़की ईमानदार है, इसीलिए उस ने विवाह से पूर्व के अपने संबंध के बारे में आप को सबकुछ सचसच बता दिया है. अगर आप उस पर विश्वास करते हैं और पूरी जिंदगी बिना उस पर शक किए बिताने को तैयार हैं तो ही उस से विवाह करिए वरना आप हमेशा उस पर शक करते रहेंगे और आप दोनों का वैवाहिक जीवन दुखमय हो जाएगा.

मैं 28 वर्षीय युवती हूं. अगले माह मेरा विवाह होने वाला है. मेरी समस्या यह है कि मुझे सैक्स के नाम से डर लगता है. मैं क्या करूं जिस से मेरा यह डर निकल जाए और हमारा वैवाहिक जीवन सुखमय रहे?

आप का यह डर सही नहीं है. आप की समस्या को सैक्स फोबिया कहते हैं. इस डर से पीडि़त स्त्री व पुरुष सैक्स संबंध बनाने से डरते हैं या इस से बचने के उपाय ढूंढ़ते हैं और सुहागरात को टौर्चर की रात समझने लगते हैं. कई बार सैक्सुअल अब्यूज,शारीरिक बनावट व इंटरकोर्स से प्रैग्नैंट होने का डर भी सैक्स के प्रति डर का भाव पैदा करता है. आप चाहें तो इस डर को हटाने के लिए प्रीमैरिज काउंसलिंग ले सकती हैं जहां आप की सारी शंकाओं का समाधान मिल जाएगा व आप अपने सैक्स संबंधों को बिना किसी डर के ऐंजौय कर पाएंगी.

मैं एक विवाहित स्त्री हूं और 2 बच्चों की मां हूं. पिछले वर्ष ही मेरे पति से मेरा तलाक हुआ है. उस के बाद पति ने 6 महीने बाद ही दूसरा विवाह कर लिया था. पर अब वे मुझे अपने साथ रहने के लिए कह रहे हैं. मैं क्या करूं?

आप के पति शादीविवाह व संबंधविच्छेद को गुड्डेगुडि़यों का खेल समझ रहे हैं, जिस में जब चाहा संबंध जोड़ लिया, जब चाहा तोड़ दिया. जबकि वैवाहिक रिश्ते ऐसे नहीं निभते. जब आप को उन्हें अपने साथ ही रखना था तो आप से तलाक क्यों लिया और दूसरी शादी क्यों की? क्या उन्होंने बताया कि वे ऐसा क्यों चाह रहे हैं, क्या उन्हें अपनी गलती का एहसास हो रहा है और क्या वे अपनी दूसरी पत्नी को भी तलाक देना चाह रहे हैं और आप के पास वापस लौटना चाह रहे हैं? इन सभी बातों पर खुल कर बात कीजिए. आप खुद क्या चाहती हैं, इस पर भी सोचिए क्योंकि आप के 2 बच्चे भी हैं. कुछ भी निर्णय लेने से पहले उन के भविष्य के बारे में भी सोचिए.

कोशिशें की गईं कि मैं घुटने टेक दूं : समीना सिद्दीकी

खबरी मैदान में टिकता वही है जिस की कलम में दम और लफ्जों में बेबाकी हो. हिंदी मीडिया जगत की बात की जाए तो यहां कई चेहरों ने अपनी खास पहचान कायम की है. उन में महिलाएं भी कम नहीं हैं. ऐसा ही एक नाम है समीना सिद्दीकी, जो पिछले 28 वर्षों से इस क्षेत्र में अपनी अलग छवि गढ़े हुए है. वर्तमान में वे राज्यसभा टीवी में सीनियर ऐंकर के पद पर सेवारत हैं.समीना ने विशेषकर महिलाओं से जुड़े मुद्दों को बेहद दमदार ढंग से उठाया है. पत्रकारिता, परिवार व अपनी जीवनयात्रा के बारे में उन्होंने खुल कर बताया.

मीडिया जगत में आप ने खास पहचान बना ली है. कैसा रहा अब तक का सफर?

कई मानों में आसान रहा मगर कठिन भी. कठिन इसलिए कि एक औरत के लिए मीडिया में अपनी जगह बनाना और फिर उन तमाम मर्यादाओं का पालन करते हुए आगे निकलना, जो समाज और परिवार में उस के लिए तय की गई है, आसान नहीं है. बहुत मुश्किलें आईं, कई बार कोशिशें की गईं कि मैं घुटने टेक दूं. लेकिन क्योंकि मैं काम जानती थी और मेरी कलम में ताकत थी, इसलिए वे मुश्किलें बहुत बड़ी मुश्किलें साबित नहीं हो सकीं  सफर आसान इस लिहाज से रहा क्योंकि मेरी पृष्ठभूमि इसी क्षेत्र से थी. मुझे भाषा आती थी, मीडिया में काम करना जानती थी. मेरे पिता शुरू से आकाशवाणी में रहे. जहां मेरी शादी हुई वे भी मीडिया क्षेत्र से हैं. इसलिए यहां किस तरह का चलन और व्यवहार जरूरी है, किस तरह खुद को साबित करना है, ये सब बचपन से समझ रही थी.

मुसलिम परिवार से होने के नाते क्या कुछ बंदिशों का सामना भी करना पड़ा आप को?

जी हां, क्योंकि मेरी मां राजनीति विज्ञान की प्रोफैसर हैं इसलिए पिता ने शुरू से यही चाहा कि उन की बेटी के लिए टीचिंग का क्षेत्र अच्छा है. इस में परिवार के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है. इस के उलट मीडिया में अपने लिए भी वक्त निकालना मुश्किल होता है. पिता चूंकि शुरू से मीडिया से जुड़े रहे इसलिए वह शौक मुझ में भी बैठा हुआ था. हुआ यों कि जब मैं भोपाल में थी तब मेरे सभी दोस्त आकाशवाणी में अनाउंसर पद के लिए अप्लाई कर रहे थे. मैं ने भी 1989 में विविध भारती में औडिशन दिया और चयन हो गया. तब तक मैं ने ग्रेजुएशन कर लिया था. उस वक्त करने को कुछ काम नहीं था. पापा को यह बात मालूम नहीं थी क्योंकि वे 15-20 दिनों के लिए औफिशियल टूर पर थे. इत्तफाक से जब पापा लौटे तो विविध भारती में चयन होने का लैटर डाकिया उन के हाथ में ही पकड़ा गया. पापा इस बात से बहुत नाराज हुए, कहा, ‘मैं ने तुम्हें समझाया था कि यह बहुत मुश्किल रास्ता है.’

हालांकि मैं ने बीए, बीएड और 4 साल का टीचिंग कोर्स किया था, पर टीचिंग में मेरा दिल नहीं लगता था. पापा को जब लगा कि यह नहीं मानेगी तो उन्होंने मुझे ढेर सारी बातें समझाईं.

उन्होंने एक बात खासतौर पर कही कि मेरा नाम मत खराब करना और याद रखना तुम्हारे दुपट्टे पर हमेशा एक सेफ्टीपिन रहे. पापा की इस सांकेतिक बात के कितने सारे माने थे, यह समय गुजरने के साथ समझ आता गया. वे मुझ से कई दिन तक नाराज भी रहे थे कि मैं ने एक आरामदेह रास्ता छोड़ कर एक बहुत मुश्किल रास्ता चुना. लेकिन पापा के लगातार सहयोग से दुपट्टे से ले कर कलम तक का सफर आज भी जारी है.

पत्रकारिता में पहचान बना कर अकसर लोग राजनीति में शामिल हो जाते हैं. आप का इरादा?

मैं राजनीति में शामिल होऊंगी या नहीं, पता नहीं, क्योंकि मैं ने कभी कोई चीज प्लान नहीं की. जो मिलता गया, लेती गई. वैसे कई राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की तरफ से चुनाव लड़ने के प्रस्ताव मिल चुके हैं.

परिवार और पत्रकारिता में सामंजस्य कैसे बनाती हैं?

मेरी एक बेटी है जिस का नाम समन है. वह 12वीं कक्षा में पढ़ती है. उस ने शुरू से ही एक वर्किंग मां देखी है इसलिए वह रुटीन की आदी हो गई है. लेकिन अब वह बड़ी हो गई है तो मुझे स्वयं लगता है कि मुझे उस को समय देना चाहिए लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता. हां, पति मेरीगैरमौजूदगी में उसे मां की कमी महसूस नहीं होने देते.

मीडिया में प्रतिद्वंद्विता पर क्या कहेंगी आप?

मीडिया में सिर्फ आदमी ही नहीं, औरत भी आप की प्रतिद्वंद्वी होती है. आप के साथ काम करने वाली लड़कियां 2 मिनट में आप के सीने पर पैर रख कर आगे निकलने को तैयार रहती हैं. मेरे पैर जमीन पर मजबूती के साथ शायद इसलिए जमे रहे क्योंकि मुझे बचपन से जो शिक्षा और वातावरण मिला उस ने मुझे यही सिखाया कि अगर आप में काबिलीयत है तो कुछ मुश्किल नहीं.

मीडिया में जमे रहने के लिए जरूरी है कि भाषा पर आप की पकड़ हो, लिखना बहुत अच्छा आना चाहिए, आप अपनी बात खूबसूरती के साथ कैसे रख सकते हैं, यह बड़ी विशेषता है.

पत्रकारिता में आने को लालायित युवा वर्ग को आप क्या संदेश देंगी?

युवाओं से मैं यही कहना चाहती हूं कि वे मीडिया में आएं मगर सिर्फ ग्लैमर देख कर नहीं. आप मीडिया को क्या दे सकते हैं, यह तय कर के आएं. क्या आप उसी चलन पर चलना चाहते हैं जो चला आ रहा है या आप में वह पोटैंशियल है कि आप अपनी तरफ से मीडिया को कुछ नया दे सकेंगे?

आज ढेरों मीडिया संस्थान हैं जो ढेरों कोर्स करवा रहे हैं. मैं भी शुरू में बतौर इंस्ट्रक्टर इन संस्थानों में जाती रही थी लेकिन फिर मैं ने देखा कि वहां आने वालों को बहुत जल्दी है सीखने की और टीवी के परदे पर दिखने की. भाषा और अदायगी उन की लिस्ट में बहुत नीचे हैं. उन का मानना है कि अच्छी सूरत और स्टाइल है तो सबकुछ मिलेगा. एक स्तर तक हो सकता है यह सही हो लेकिन यह बहुत कम वक्त के लिए होता है.

मैं ने 1989 में रेडियो जौइन किया था और 1992 में दूरदर्शन. इतने लंबे अंतराल के बाद भी आज मैं सीनियर ऐंकर के पद पर हूं. यहां मुझे नई जिम्मेदारियां मिलीं, नया सीखने को मिला. मुझे जो मिला, वह सीखा. अभी तक मैं परदे पर थी, अब सड़कों पर जा कर हाशिए पार कर गए मुद्दों को कवर करती हूं.

कबड्डी के अच्छे दिन

कल तक का गुमनाम खेल कबड्डी अब सुर्खियों में है. बड़ेबड़े धनकुबेरों ने गांवगांव से कबड्डी के धुरंधरों को लाखों रुपए दे कर राज्यों की टीम की शक्ल में खरीद लिया है. धूलमिट्टी की कबड्डी अब पांचसितारा होटलों तक पहुंच चुकी है. गांव, देहात, कसबों और शहरों के गलीकूचों में खेले जाने वाला कबड्डी का खेल अब इंडोर स्टेडियमों की दूधिया रोशनी में खेला जाएगा. जी हां, हम बात कर रहे हैं प्रो-लीग कबड्डी की. महान क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, बौलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन, अभिनेता अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्या राय, बौलीवुड के शहंशाह शाहरुख खान, आमिर खान, जया बच्चन, उद्योगपति आनंद महिंद्रा, टीना अंबानी, राज कुंद्रा के अलावा तमाम मशहूर हस्तियों की उपस्थिति में इस लीग का उद्घाटन हुआ.

क्रिकेट मैच देखतेदेखते खेल प्रशंसक शायद ऊब चुके हैं. क्योंकि 34 दिनों तक चलने वाले इस मेले का सीधा प्रसारण स्टार स्पोर्ट्स टैलीविजन पर हो रहा है जिस में दर्शक नए तरह की कमेंट्री से दोचार हो रहे हैं. खेलप्रेमियों को नए तरह का आनंद मिल रहा है.

गांव, देहातों में कोई ऐसा स्कूल नहीं होगा जहां कबड्डी न खेली जाती हो, यह सब से कम खर्च में खेला जाने वाला खेल है. देश में इस के तकरीबन 3,944 रजिस्टर्ड क्लब हैं.

लेकिन अब यह खेल भी पेशेवर हो रहा है. दरअसल, बड़ीबड़ी हस्तियों ने इस खेल की फ्रेंचाइजी खरीदी है. वे इस बात को जानतेसमझते हैं कि बड़ीबड़ी कंपनियों के उत्पाद को अब गांवों, देहातों या कसबों तक कैसे पहुंचाया जाए. इसलिए धनकुबेरों ने अपने उत्पादों को पहुंचाने के लिए उन खेलों को चुना जो गांवगांव में खेले जाते हों.

खैर, चाहे जो भी हो लेकिन इस से एक फायदा यह जरूर हो गया कि एशियन गेम्स तक सफर करने वाली कबड्डी अब हाशिए पर नहीं रहेगी और इसे अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक नई पहचान मिलेगी. साथ ही, आर्थिक स्थिति से जूझ रहे कबड्डी के खिलाडि़यों के अच्छे दिनों की शुरुआत होगी.

अभिनव ने कहा अलविदा

वर्ष 2004 में जब एथेंस ओलिंपिक में राज्यवर्द्धन सिंह राठौर ने डबल ट्रैप शूटिंग में सिल्वर मैडल जीता तो पूरा देश गर्व से खिल उठा था. उस के बाद शूटिंग में हम आगे बढ़ते गए और वर्ष 2008 में उन्होंने देश को बीजिंग ओलिंपिक में गोल्ड मैडल दिलाया. इस मैडल से नए निशानेबाजों के लिए उन्होंने नई उम्मीद जगा दी. अभिनव ने अपनी कामयाबी स्कौटलैंड ग्लास्गो कौमनवैल्थ गेम्स में भी जारी रखी. उन्होंने एक बार फिर देश को गोल्ड मैडल दिलाया. हालांकि इस के साथ ही इस शूटर ने आगे से कौमनवैल्थ गेम्स में हिस्सा न लेने का ऐलान भी कर दिया.

कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन अभिनव ने महज 15 वर्ष की उम्र में ही निशानेबाजी शुरू कर दी थी. अभिनव वर्ष 1998 के कौमनवैल्थ गेम्स में और वर्ष 2000 में सिडनी ओलिंपिक में सब से कम उम्र के निशानेबाज रहे थे. वर्ष 2001 में उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में कुल 6 मैडल हासिल किए. वर्ष 2006 में मेलबर्न में वे पहली बार अपने खेल के वर्ल्ड चैंपियन बने और उसी वर्ष उन्होंने मेलबर्न कौमनवैल्थ गेम्स में पेयर्स में गोल्ड और व्यक्तिगत स्पर्धा में ब्रौंज मैडल जीता. वर्ष 2010 में दिल्ली में हुए कौमनवैल्थ गेम्स में उन्हें सिल्वर मैडल से संतोष करना पड़ा लेकिन ग्लास्गो में उन्होंने गोल्ड मैडल हासिल कर यह कसर पूरी कर ली. पदक हासिल करने के बाद अभिनव बिंद्रा ने कहा कि यह मेरा अंतिम राष्ट्रमंडल खेल है. 5 राष्ट्रमंडल खेल और 9 पदक मेरे लिए पर्याप्त हैं. यह पदक शानदार है क्योंकि मैं ने कड़ी मेहनत की थी और मुझे खुशी है कि मैं यह लक्ष्य हासिल करने में सफल रहा. उन्हें राजीव गांधी खेलरत्न से भी नवाजा गया है.

अभिनव के लिए वर्ष 2016 में होने वाला रियो ओलिंपिक उन का अंतिम ओलिंपिक  होगा कि नहीं, इस बारे में वे फिलहाल कुछ कहना नहीं चाहते. 31 वर्षीय अभिनव से यह उम्मीद है कि वे रियो ओलिंपिक को अपना अंतिम ओलिंपिक मानें और उस में गोल्ड मैडल जीत कर अलविदा कहें और दुनिया के तमाम युवाओं का आदर्श बनें. बहरहाल, ग्लास्गो कौमनवैल्थ गेम्स में अभिनव के अलावा श्रेयसी सिंह, जीतू राय, गुरुपाल सिंह जैसे नए निशानेबाजों ने देश के लिए मैडल जीत कर यह उम्मीद जगा दी है. राठौर और अभिनव के बाद देश के लिए ये नई उम्मीद बन कर उभरे हैं. इन निशानेबाजों से आने वाले ओलिंपिक गेम्स में पदक की उम्मीद तो की ही जा सकती है.

क्या करें

सुबह 9 बजे तैयार हो कर दफ्तर के लिए निकलने ही वाला था कि पत्नी, जो दूसरे शहर में रहती है, का फोन मेरे मोबाइल पर आया. सुन कर मुझे ऐसे लगा कि पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो. सारा दिन यही सोचता रहा कि आखिर क्या हो गया है आज की युवा पीढ़ी को. न सिर्फ पढ़ेलिखे और शहरों में रहने वाले लड़केलड़कियों के बीच ऐसा कुछ होता है, हमारे गांव भी इस तरह की संस्कृति से अछूते नहीं रह गए हैं. ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि इस का जीताजागता उदाहरण मुझे अपनी ही रिश्तेदारी में देखने को मिला.

दरअसल, हमारी पत्नी गांवों से संबंध रखती है. उस की दीदी की बेटी ने 12वीं पास कर के बीए प्रथम वर्ष में निकट के दूसरे गांव में दाखिला लिया था. एक दिन कालेज से फोन आया कि मातापिता आ कर अपनी बेटी को वापस घर ले जाएं. जब पत्नी की दीदी और जीजाजी वहां पहुंचे तो महिला प्रोफैसर ने बताया कि बच्ची 5 माह के गर्भ से है और तबीयत बिगड़ जाने की स्थिति में कालेज में ही गश खा कर गिर गई थी. ऐसे में कालेज प्रशासन के लिए उसे रखना ठीक नहीं था.

सब से शर्मनाक बात यह थी कि उस के गर्भ में जो 5 माह का बच्चा पल रहा था उस का जिम्मेदार उस की बूआ का लड़का था जोकि मां के अकस्मात गुजर जाने के बाद से इन के पड़ोस में ही रहने लगा था अपने पिता के साथ. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि एक ओर खाई तो दूसरी तरफ कुआं. घिनौनी हरकत करने वाला बाहर का व्यक्ति होता तो उसे पुलिस के हवाले किया जा सकता था या उस पर दबाव डाल कर बच्ची से शादी करवाई जा सकती थी.

एक और गंभीर बात, डाक्टर के अनुसार उस का गर्भ गिराया नहीं जा सकता था क्योंकि उस से उस की जान को खतरा हो सकता था. इधर, हिंदू समाज ऐसे रिश्ते को शादी के बंधन में बंधने से रोकता है. इन दोनों ने जो भी कुछ किया, चाहे वह अनजाने में किया हो या जानबूझ कर, किसी भी हालत में समाज को स्वीकार्य नहीं होगा. हम अपनेआप को कितना भी तरक्कीपूर्ण समाज कह लें, कई परिस्थितियों में हम अपनेआप को असहाय ही पाते हैं.

संजय कुमार, बेंगलुरु (कर्नाटक)

अच्छे दिन आने वाले हैं

लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली में लगे होर्डिंग यानी सड़क किनारे लगे विज्ञापनपट्ट पर ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाक्य के साथ श्रीमान नरेंद्र मोदीजी का हंसताखिलखिलाता हुआ चेहरा देख कर मेरा माथा ठनका और उसी समय मुझे लगा था कि इस होर्डिंग पर लिखने वाले पेंटर ने कुछ गड़बड़ी कर दी है या फिर कहीं कुछ वाक्य संरचना में त्रुटि व प्रूफ की कमी रह गई है. सच कहूं तो आज नहीं, मेरी नजर में तो उसी वक्त आ गया था कि यह वाक्य कुछ इस प्रकार लिखा जाना चाहिए था, ‘हमारे अच्छे दिन आने वाले हैं, नई सरकार’.जनाब, आप को पता ही है कि प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों और निजी अस्पतालों पर अनावश्यक मरीजों की शारीरिक जांच करा कर उन की जेब से पैसा लूटने का आरोप लगा हुआ है. उन पर लगाया गया यह आरोप जायज है या नहीं, यह तो मैं सिद्ध नहीं कर सकता परंतु इतना जरूर बताना चाहूंगा कि कई दिनों से पेट में दर्द के चलते मेरे मन में परिवार के बुरे दिन आने के विचार आ रहे थे, इसलिए मैं अपना इलाज करवा कर यथाशीघ्र कुशल हो जाना चाहता था. तो सीधे ही जा पहुंचा अपने घर के नजदीक वाले एक प्राइवेट अस्पताल में.

डाक्टर के पास मेरा नंबर आते ही उस ने पूछा, ‘खाली पेट आए हो न?’ मैं पेट के रोग का शिकार था, ऊपर से बुद्धिजीवी इसलिए पहले ही सबकुछ सोचसमझ कर खाली पेट ही अस्पताल गया था. मैं ने तुरंत डाक्टर साहब से कहा, ‘हां, एकदम खाली पेट आया हूं. आप को जो भी जांच करवानी हो, आज ही करवा लीजिए ताकि मेरा समय भी बचे और मेरा इलाज भी जल्दी से जल्दी शुरू हो सके.’

पेट की एंडोस्कोपी के साथसाथ, होल एबडौमिनल अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन, एमआरआई, ईसीजी, ईकोकार्डियोग्राम, शुगर, यूरिन जांच सहित ब्लड की अन्य तमाम जांचें जब हो गईं तो मैं ने सोचा कि इन लैब कर्मियों ने हमारे शरीर से काफी खून चूस लिया है, इसलिए चलो अब यहां की कैंटीन में जा कर कुछ खापी लिया जाए और अपने शरीर को दुरुस्त किया जाए. जो होगा, सो देखा जाएगा. यदि मरेंगे भी तो कम से कम खापी कर ही सही. फिर पत्नी महोदया साथ थीं, इसलिए ज्यादा कुछ न ले सका. 350 रुपए का एक पनीर मसाला डोसा ले कर दोनों ने आधाआधा खाया. शादी के 25 वर्ष बाद हनीमून के समय एक ही थाली में एकसाथ खाया हुआ राजस्थान के उदयपुर शहर की झील वाले रैस्टोरैंट का दालबाटी चूरमा याद आ गया क्योंकि हनीमून के बाद तो शायद ही कभी हम दोनों ने एक ही थाली में एकसाथ खाया हो. उस समय अनजाना प्रेम था और इस समय पक्की मजबूरी.

खैर जनाब, पनीर मसाला डोसा खाने के बाद हमें तलब लगी एक कप चाय पीने की. सो हम ने आव देखा न ताव, सीधे काउंटर पर जा कर 100 रुपए का नोट थमाते हुए 2 कप चाय का और्डर दे डाला.

काउंटर पर बैठे हुए व्यक्ति ने पहले तो अपने पास खड़े हुए व्यक्ति से कहा, ‘साहब को जल्दी से 2 कप गरमागरम चाय दो.’ उस ने तेजी दिखाई और एक ट्रे में 2 कप चाय रख कर हमें थमा दी. तब तक काउंटर पर बैठा व्यक्ति कंप्यूटरीकृत मशीनसे हमारा बिल निकाल चुका था और बोला, ‘सर, यह रहा आप का बिल, आप ने मुझे 100 रुपए दिए हैं, कृपया 100 रुपए और दे दीजिए.’

मैं ने बिल पर अपनी दृष्टि गड़ाई तो देखा कि वहां पर 2 चाय के लिए पूरे 200 रुपए लिखे हुए थे. देख कर चाय पीने का मजा तो काफूर हो गया. मन ही मन गुस्सा आने लगा कि ये लोग सरेआम लूट रहे हैं. इन के तो अच्छे दिन आ गए, मगर हम मरीज भला आखिर क्या करें? कहां से लाएं इन का पेट भरने के लिए ढेर सारे रुपए? शरीर की स्थिति ऐसी कि काटो तो खून नहीं. कुछ खून तो जांच लैब कर्मियों ने निकाल लिया, रहा बचा अब यह कैंटीन वाला चूस रहा है.

खैर जनाब, पर्स में रुपए हों या न हों, बिल तो भरना ही था. सो, पत्नी से रुपए मांग कर बिल भरा. 5 रुपए के वास्तविक मूल्य की एक कप चाय के स्थान पर पूरे 100 रुपए प्रति कप चाय हमें भरने ही पड़े. पेट तो पहले से ही बीमार था, दिमाग और खराब हो गया. गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास. उस दिन अच्छे दिन की तलाश में बुरा समय देखना पड़ा.

जब डाक्टर द्वारा लिखित समस्त जांचों की रिपोर्टें आईं तो उस में कहीं भी कुछ भी नहीं निकला. डाक्टर साहब ने तुरंत अपने प्रिस्क्रिप्शन में केवल गैस की एक दवा, 2 हफ्ते तक रोजाना खाली पेट खाने और रोजाना सुबह की सैर करने के निर्देश दे कर छुट्टी दे दी और मैं ठीक हो गया. लेकिन अपने अच्छे दिन की तलाश में अस्पताल पहुंच कर डाक्टर की महंगी फीस, इलाज हेतु आवश्यकता से ज्यादा जांचों का कुचक्र व कैंटीन आदि के खर्च से हमें यह अच्छी तरह से समझ आ गया था कि मरीजों की जांच के गोरखधंधे में डाक्टर, अस्पताल, कैंटीन और बड़ीबड़ी कंपनियां खूब चांदी काट रही हैं और हमारी सरकार अपने अच्छे दिनों को पा कर चैन की बंसी बजा रही है या आंख मूंद कर सो रही है. उन के अच्छे दिन हैं, स्वाभाविक है आंख मूंद कर सोना और सुनहरे सपने देखना उन के लिए लाभकारी ही होगा.

चुनाव से पहले देशभर की जनता ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ नारे को पा कर उत्साहित थी. उसे नहीं पता था कि यह सिर्फ एक छलावा है या फिर सिर्फ एक नया नारा मात्र है, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ और कुछ भी नहीं.

चुनाव के दौरान दिए जाने वाले पुराने नारों को याद कर मुझे जवाहर लाल नेहरू के ‘आराम हराम है’, लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान जय किसान’ और इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे बहुत याद आ रहे हैं. इत्तफाक से ये तीनों ही प्रधानमंत्री हुए.

चुनाव में तीनों की जीत हुई मगर इन के द्वारा जनता को दिए हुए नारों के अर्थ में आज तक कोई खास बदलाव नहीं आया. ‘आराम हराम है’ में आराम तो आज भी आराम ही है, वह तो अभी तक हराम न हुआ. सदियों से आराम करने वाला आराम ही कर रहा है और काम करने वाला काम. ‘जय जवान जय किसान’ में भले ही जवान की जय हुई हो (वह भी इस डर से कि वह हम सब की सुरक्षा के लिए सदा तत्पर रहता है) मगर किसान की जय तो आज तक नहीं हो पाई और ‘गरीबी हटाओ’ नारे से जनाब अभी तक तो गरीबी हटी नहीं और आगे का हमें विश्वास नहीं.

हमारे देश में नारे और प्रधानमंत्री अवश्य बदलते रहे मगरवास्तविकता में क्या बदला, क्या नहीं, यह सभी जानते हैं. कुल मिला कर कहा जाए कि नारों की बदौलत ही इस देश के कई प्रधानमंत्री अपनेअपने चुनाव जीतते रहे. वे अपने दिन बदलते रहे

और उन के अच्छे दिन आते रहे.

एक दिन बुरे दिन की अच्छे दिन से मुलाकात हो गई तो वह बोला, ‘भाई अच्छे दिन, देशभर की जनता परेशान है कि अच्छे दिन नहीं आ रहे. आखिर ऐसा क्यों है? तुम आते क्यों नहीं?’

अच्छे दिन ने गुस्सा होते हुए कहा, ‘खबरदार, जो अच्छे दिनों की बात की. भारत की जनता को तो नाखुश रहने की आदत है और वह थोड़ी सी नासमझ भी है. चुनाव के दौरान उस से आखिर यह तो नहीं कहा गया था कि सरकार बनने के 7 दिनबाद जरूर ही अच्छे दिन आ जाएंगे. वहां पर निश्चित समयांतराल का तो कोई जिक्र ही नहीं किया गया था. बस, यही तो कहा गया था, अच्छे दिन आने वाले हैं.

इस का मतलब साफ है कि अच्छे दिन आएं तो सही और न आएं तो भी संभावना तो सदा बनी ही रहेगी कि कभी न कभी तो अच्छे दिन आएंगे ही न. आज नहीं तो कल. कल नहीं तो परसों ही सही मगर आएंगे जरूर. फिर जनता तो खामखां ही चिंतित है, जब आएंगे तब आ जाएंगे अच्छे दिन. वैसे भी चुनाव के दौरान दिए गए नारों का काम होता है जनता को बहलानाफुसलाना और अपना उल्लू सीधा करना.

बस, इतनी सी बात नहीं समझते हमारे देश के वोटर. केवल यही कमी है हमारे देश के वोटरों में. वोटर को तो खुश होना चाहिए कि इस बार नए नारे ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ने फिर से सरकार पलट दी और नई सरकार बनवा दी. देश में प्रगति हो या न हो, आम नागरिक के अच्छे दिन आएं या न आएं प्रगतिशील नारे तो अपना काम करते ही रहेंगे और हर चुनाव में अपना दम दिखाते रहेंगे. मेरी राय में तो केवल इसी बात को समझते हुए ही सभी भारतवासियों को अब तसल्ली कर लेनी चाहिए.

अच्छे दिन की बात सुन कर बुरा दिन फिर भी नहीं माना और उस ने सोचा कि क्यों न मैं ही अपनी सोच को थोड़ा विस्तार दूं ताकि लोग न नए प्रधानमंत्री को कोसें, न किसी राज्यमंत्री को. इसलिए वह स्वयं ही अच्छे दिन के नापने के मापदंड की पहचान करने लगा. उस ने पाया कि देश का कोई भी राज्य ऐसा नहीं था जहां पर सरकार और जनता के मध्य आपसी बहस न चल रही हो. किसी प्रदेश में बिजली न आने के हाहाकार को ले कर तो कहीं सीमा पर घुसपैठ, गोलीबारी, कहीं कानूनी धाराओं को ले कर विवाद, कहीं जबानी जंग, तो कहीं बलात्कार व महिलाओं पर बढ़ते हादसों को देख कर वह भी परेशान हो उठा.

दरअसल, बुराई को भी अपने अंदर भरी हुई इतनी बुराइयों का वास्तविक ज्ञान ही नहीं था. जगहजगह बुराई ही बुराई, जंग, बलात्कार व महंगाई को देखदेख कर वह थक कर चूर हो गया और भूखप्यास से पीडि़त हो कर उस ने एक छोटे से वातानुकूलित रैस्टोरैंट में जा कर भोजन करना चाहा तो वहां लगी रेट सूची को पढ़ कर ही वह चक्कर खा कर गिर पड़ा.

थोड़ी देर बाद जब उसे होश आया तो उस के सामने रैस्टोरैंट का वेटर बिल लिए हुए खड़ा था, जिस में सिर्फ 1 गिलास ठंडे पानी का बिल था. वह भी पूरे 20 रुपए प्रति गिलास. इतना महंगा बिल देख कर उस से नहीं रहा गया, वह बोला, ‘क्यों भाई, इतना महंगा पानी क्यों?’

वातानुकूलित रैस्टोरैंट के मैनेजर ने जवाब दिया, ‘भइया, यह मिनरल वाटर है, ऊपर से इसे ठंडा करने में बिजली खर्च होती है. तो भई, अब तो समझ ही गए होगे कि इस का मूल्य इतना महंगा क्यों है? कल ही बिजली के दामों में बढ़ोतरी हुई है. अच्छा है कि होश में आने के बाद आप ने चाय नहीं मांगी. आज से ही बाजार में चीनी की कीमत बढ़ जाने के कारण अब हमारे इस छोटे से रैस्टोरैंट में भी प्रति कप चाय का मूल्य पूरे 50 रुपए कर दिया गया है.’

बुरे दिन को अब सबकुछ अच्छी तरह से समझ आ गया था, इसलिए वातानुकूलित उस रैस्टोरैंट में भी माथे पर आई हुई ढेर सारी पसीने की बूंदों को पोंछा और चुपचाप अपने घर लौट आया और अपनी सहनशक्ति बढ़ाने का योगाभ्यास करने लगा. उस ने अब देश के बाजार, रुपए और अर्थव्यवस्था के बारे में अधिक सोचने व अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के बजाय सदा के लिए चुप रहना ही उचित समझा. लेकिन पता नहीं क्यों, फिर भी उसे इंतजार था कि आज नहीं तो कल ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’. आज नहीं तो कल अच्छे दिन जरूर आएंगे. बुरा वक्त सदा नहीं रहता.

यह भी खूब रही

हम सब गोआ की एचपीसीएल कालोनी में रहते थे. मैं, मेरे 2 बच्चे और दीदी के 2 बच्चे सब साथ में हंसीमजाक कर रहे थे. मेरी बेटी कुछ बातों से नाराज हो कर दूसरे कमरे में चली गई. उसे मनाने के लिए हम ने चौकीदार अरुण को बुलाया जो कभी भी पूरी बात सुनने से पहले काम करने को तत्पर हो जाता था. हम ने अरुण को कहा, ‘‘जाओ, नीचे दुकान से पर्क चौकलेट ले कर आओ.’’ वह गया और वापस आ कर बोला, ‘‘वहां फ्रौक नहीं मिलता.’’ मैं बोली, ‘‘अरे फ्रौक नहीं पर्क चौकलेट लाओ.’’

अरुण ने कहा, ‘‘तभी मैडम मैं ने सोचा 10 रुपए में फ्रौक कहां से मिलेगा. अभी लाता हूं.’’ गया और आ कर बोला, ‘‘मैडम, पर्क नहीं है.’’ मैं बोली, ‘‘ठीक है, कैडबरी का एक पैकेट ले आओ.’’ वापस आ कर बोला, ‘‘मैडम वह भी नहीं है.’’ मैं गुस्से से बोली, ‘‘ठीक है, जो भी पैकेट हो, ले आओ.’’ वह गया और ले आया सिगरेट का पैकेट. हम सब हंसतेहंसते बेदम हो गए.

मंजू दंडापत, कोयंबटूर (तमिलनाडु)

मेरी दूर की चाची की बेटी की सगाई थी. कार्यक्रम होटल में था. खाने के बाद मैं आइसक्रीम लेने पहुंची तो बहुत भीड़ थी क्योंकि एक ही वेटर डब्बे से धीरेधीरे एकएक स्कूप आइसक्रीम निकाल रहा था. वक्त ज्यादा लग रहा था. कुछ लोग उसे ताना मारने लगे. शुरू में तो वह सुनता रहा परंतु 5 मिनट बाद 2 मिनट में लौटने का बहाना कर के वह चला गया. फिर क्या था, सभी अपनेअपने चम्मच घुसा कर अपनी प्लेटें भरने लगे. लोगों के चेहरे देखने लायक थे. हम अपनी हंसी रोक न पाए.

सुमन डेंबला, जयपुर (राज.)

मैं राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद, उ.प्र. का प्रदेश अध्यक्ष हूं. मेरा कार्यालय विधायक निवास, दारूलशफा, लखनऊ में आबंटित है. एक नया चपरासी रखा गया, जो इंटर पास था. आंदोलन कार्यक्रमों के कुछ पत्र (सर्कुलर) प्रदेश के सभी जनपदों में जाने थे. एक पत्र में माह में कई अवकाश पड़ने के कारण बारबार बदलाव करना पड़ा था. अंतिम बदलाव व हर पत्र के पीछे फोटोस्टेट करने की संख्या लिखने के बाद भी 5 दिन तक जब पत्र नहीं भेजे गए तब मैं ने चपरासी को डांटते हुए कहा कि अभी तक पत्र क्यों नहीं गए. वह बोला कि आप लोग बारबार करप्शन में लगे थे, इसी कारण मैं ने फोटोकापी नहीं की, क्योंकि वे बरबाद हो जातीं. करेक्शन को करप्शन कहते सुन हम लोग हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

हरि किशोर तिवारी, लखनऊ (उ.प्र.)

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