अब तक की कथा :

नील को अपने पास देख कर दिया हतप्रभ रह गई. ऐसे भी होते हैं लोग. इतने बेशर्म. नील दिया से ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो. बातों ही बातों में नील ने बताया कि वह पहले भी प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुंबई आया था. नील पूरे रास्ते दिया की चापलूसी करता रहा और वह उस की बेशरमाई के बारे में सोचती रही. आखिर वह बुत बनी हुई लंदन पहुंच गई. नील की मां ने आरती कर के उस का व बेटे का स्वागत किया और उसे नीचे का एक कमरा दे दिया गया. क्या दिया के संबंध नील से बन सके? घर से फोन आने पर वह बात क्यों नहीं कर सकी?

अब आगे...

ससुराल पहुंच कर दिया को लग रहा था जैसे वह किसी सुनसान जंगल में पहुंच गई है जहां दूरदूर तक पसरा सन्नाटा उसे ठेंगा दिखा रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था वह यहां किस से करेगी अपने मन की बात? नील इतनी सहजता से बात कर रहा था कि दिया उस के चरित्र को समझने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी. क्या अधिकार इतनी जल्दी छिन जाते हैं या छीन लिए जाते हैं. दिया का मन इस गुत्थी में उलझने के लिए तैयार नहीं था. रिसीवर क्रैडिल पर रख कर दिया सोफे पर बैठ गई. तभी नील का स्वर सुनाई दिया, ‘‘तुम फ्रेश हो जाओ, फिर कुछ खापी लेते हैं. तुम तैयार हो जाओ, इतनी देर में मैं सूप और सैंडविच तैयार कर लेता हूं.’’

दिया चुपचाप देखती रही. कहां क्या करना है उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. उस से ऐसा बरताव हो रहा था मानो वह न जाने कब से वहीं रहती आई हो. चुपचाप उठ कर वह उस कोठरीनुमा कमरे में गई. वह कमरा जिस में नील ने उस का सामान सरका दिया था. ‘उस के यहां नौकरों के कमरे भी कितने खुले हुए हैं,’ उस ने सोचा और खिड़की से बाहर देखने लगी. आकाश में चिडि़या तक नहीं दिखाई दे रही थी. मरघट का सा सन्नाटा. वह भीतर ही भीतर कांप गई.

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