बनारस से सांसद बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने बनारस के विकास के लिए भले ही कुछ नहीं सोचा हो मगर यहां सांध्य बेला में होने वाली गंगा आरती में शामिल हो कर उन्होंने इसे देश भर में विख्यात अवश्य कर दिया है. आज आलम यह है कि शहर तो शहर, गांव व देहात के लोग भी गंगा आरती देखने बनारस चले आ रहे हैं. विश्वनाथ मंदिर से ज्यादा मांग गंगा आरती की हो गई है. दूरदर्शन ने गंगा आरती का जिस तरह से सजीव प्रसारण किया उस से तो यही लगता है कि गंगा से ज्यादा यह आरती लोगों के लिए अहमियत रखती है.बनारस सदियों से धर्म के अंध अनुयायियों के लिए पहली पसंद रहा है. चाहे दक्षिण भारतीय हो या फिर महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, सभी जगह के लोग मुक्ति के लिए बनारस आते रहे हैं. जिस तरह से गंगा आरती को हाईलाइट किया जा रहा है उस से बनारस के घाटों का महत्त्व मुंबई की चौपाटी की तरह हो गया है. जिस को देखो, यही कहता है, ‘‘सुना है कि बनारस की गंगा आरती बड़ी अच्छी होती है.’’ज्यादातर लोगों के लिए गंगा आरती तफरी के अलावा कुछ नहीं. सत्य यह है कि गंगा आरती देखने के साथ वे गंगा को मैली कर रहे हैं.

रात के वक्त जब गंगा के सारे ऐब छिप जाते हैं तब लाइट और साउंड के माध्यम से गंगा की आरती उतारने का प्रदर्शन किया जाता है. उसे देखने के लिए देशविदेश के लोग जमा होते हैं. इस के लिए लोग काफी किराया दे कर नाव करते हैं. आरती के समय गंगा में एक तरह से ट्रैफिक जाम हो जाता है. यह दुर्लभ नजारा तब दिखता है जब गंगा में ट्रैफिक जाम होता है. एक तरफ शीतला घाट पर गंगा की आरती उतारी जाती है तो उसी के बगल में राजेंद्र प्रसाद घाट के नीचे सीवर का पानी बहता हुआ गंगा में मिलता है.गंगा के पौराणिक महत्त्व के घाटों के निकट यदि कोई बैठ जाए तो यह पता लगते देर नहीं लगती कि गंगा कितनी बदबूदार है. मंदिरों में चढ़ाई गई फूलमाला या यों कहें कि सारा कचरा गंगा में बहा दिया जाता है. 100 साल पहले जब गंगा निश्चय ही साफसुथरी थी तब तो हम इतनी भव्यता के साथ गंगा की आरती नहीं उतारते थे, अब जब अचानक गंगा में पैसा दिखा तो उस की आरती उतारी जाने लगी.

इस के पीछे अब सोचीसमझी धर्म की दुकानदारी है. बिना ग्लैमर के आज कुछ नहीं बिकता. बनारस में सैकड़ों शिव के मंदिर हैं मगर भीड़ काशी विश्वनाथ के मंदिर में जुटती है, क्यों? वजह साफ है, वह सोने से ढका है-ठीक वैसे ही जैसे कोई नई बहुरिया नख से शिख तक गहनों से लदी ससुराल में कदम रखती है. तब उस की कैसी खातिर होती है.आज गंगा आरती के पीछे यही मानसिकता है. इसे भी लाभदायक बनाया जाए, सो वास्तविकता से लोगों का ध्यान खींचने के लिए गंगा की आरती को भव्यता देना शुरू कर दिया गया. इसी बहाने लोग बनारस आएंगे तो साथ में मनीबैग भी रहेगा. मनीबैग रहेगा तो धर्म के नाम पर कमाने के लिए तो हजार बहाने हैं ही.सरकार कहती कि पहले गंगा को गंदा करना छोड़ो, हम से जो मदद चाहते हो हम देने के लिए तैयार हैं. इस के बाद ब गंगा साफसुथरी हो जाती, तब प्रधानमंत्री को आना चाहिए था.

धर्म से जुड़ी राजनीति

बनारस की गंगा के प्रदूषण के लिए सरकारी तंत्र जिम्मेदार है, जो सीवर को गंगा में ही बहाता है. उस के अलावा वहां की जनता और बाहरी लोग जिम्मेदार हैं जो धर्म के नाम पर काशी आ कर गंगा को प्रदूषित करते हैं. उन घाटों की स्थिति तो और भी खराब है जहां लोग गंगा आरती देखने के साथ गंगा को मुंबई की चौपाटी समझ कर गोलगप्पे, चाट, भेलपुरी खा कर पेपर प्लेट, जूठन आदि घाटों के आसपास फेंक कर चले जाते हैं. बाद में यही कचरा किसी न किसी बहाने गंगा में जाता है और उसे प्रदूषित करता है.आरती के समय जो दीये जला कर गंगा में छोड़े जाते हैं वे भी गंगा के प्रदूषण को बढ़ाते हैं. अनपढ़गंवार लोग हों तो कुछ हद तक माना भी जा सकता है मगर वहां तो पढ़ेलिखे लोग भी खुलेआम गंगा के साथ नाइंसाफी करते हैं.मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर प्रतिवर्ष 32 हजार से ज्यादा लाशें जलाई जाती हैं व उन की राख गंगा में प्रवाहित कर दी जाती है. हालांकि सरकार ने विद्युत शवदाह गृह बनवाया है लेकिन धार्मिक आस्था के चलते लकड़ी से लाश को जलाने को प्राथमिकता दी जाती है. मृत पशुओं को गंगा में ही बहाया जाता है. अप्राकृतिक मौत के शिकार व्यक्तियों को भी गंगा में बिना जलाए बहा दिया जाता है. और तो और, देश के नामीगिरामी लोगों की लाशों की राख को भी विमानों द्वारा काशी ला कर गंगा में बहाया जाता है.गंगा के प्रदूषण के लिए सब से बड़ा कारक है धार्मिक आस्था. कोई भी धार्मिक या सामाजिक आयोजन बिना गंगा के अधूरा रहता है. लोग शादी के बाद अपनी नईनवेली दुलहन को गंगा पुजाने के लिए घाट पर ले आते हैं. आरपार की माला चढ़ाते हैं. दोनों के सुखमय भविष्य के लिए धार्मिक अनुष्ठान कराए जाते हैं. अंधआस्था के चलते मंदिरों में टनों चढ़ाए गए मालाफूलों को गंगा में ही प्रवाहित किया जाता है.

घाटों की यह हालत है कि वहां 5 मिनट भी बैठ पाना संभव नहीं है. सड़े मालाफूलों से बदबू फैलती रहती है. दुर्गापूजा हो या कालीपूजा या फिर जातिगत पूजा के चलते बनाई गई मूर्तियां, सब गंगा में ही बहाई जाती हैं. तीज में महिलाएं जिस शिवपार्वती की कच्ची मूर्ति बना कर पूजा करती हैं, उसे भी गंगा में ही बहाने की परंपरा है.धर्म और राजनीति दोनों अलगअलग हैं. मोदी ने विकास के नाम पर वोट मांगे. मगर जिस तरह से जीतने के बाद वे काशी विश्वनाथ मंदिर दर्शन और गंगा आरती देखने आए उस से यही संदेश जाता है कि कहीं न कहीं वे धर्म को राजनीति से जोड़ कर चलते रहना चाहते हैं. धर्म के राजनीतिकरण के दुष्प्रभाव किसी से छिपे नहीं हैं.

गंगा एक नदी है, जैसे यमुना, गोमती या ब्रह्मपुत्र. लोग इसे किस रूप में लेते हैं, यह उन की निजी सोच है. इसे एक नदी के रूप में लेना चाहिए. नदी स्वच्छ रहेगी तो उस पर निर्भर रहने वाली आबादी स्वस्थ रहेगी. इसी धारणा को ले कर चलना होगा. हर नदी साफसुथरी रखनी होगी. मान भी लिया जाए कि गंगा एक पवित्र नदी है तब तो लोगों की और भी जिम्मेदारी बनती है कि उसे साफ नहीं रख सकते तो कम से कम गंदा तो न करें. मगर हकीकत है कि जो लोग गंगा से पाप धोने की लालसा रखते हैं वही गंगा में गंदगी छोड़ कर आते हैं. धोबी कपड़ा धोता है तो दूसरे लोग साबुन लगा कर नहातेधोते हैं. पशुओं को नहलायाधुलाया जाता है सो अलग.

नाकाफी प्रयास

चुनाव प्रचार के दौरान कहा गया था कि गंगा को साबरमती जैसा साफ और निर्मल कर दिया जाएगा. बाकायदा साबरमती तब, जब वह देखने लायक नहीं थी और अब देखने लायक हुई तो उस का फोटो विज्ञापनों के जरिए जनता को दिखाया गया. साबरमती का 3-4 किलोमीटर का हिस्सा ही साफ है, बाकी तो पहले जैसा ही है. अब ज्यादातर लोगों ने साबरमती देखी तो नहीं. हां, गंगा के प्रति गैर जिम्मेदार जनता सुन कर खुश हुई है कि उन्हें कुछ नहीं करना होगा. वे जैसे गंगा को पहले की तरह से मैली करते आ रहे हैं, करेंगे. साफसफाई का जो काम करना होगा वे मोदी करेंगे. जो समाज अपने घर की गंदगी दूसरों के घर के सामने फेंकने में गौरवान्वित महसूस करता हो वह क्या भीड़ का हिस्सा बन कर गंगा के प्रति या देश की स्वच्छता के प्रति ईमानदार हो जाएगा. इस में निश्चय ही संदेह है.

गंगा सफाई के लिए अभी तक जितने भी सरकारी प्रयास हुए वे नाकाफी रहे. केंद्र सरकार ने 27 वर्षों में गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए 2 महत्त्वपूर्ण कदम उठाए. पहला, गंगा ऐक्शन प्लान जिस का आरंभ 14 जून, 1986 में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजीव गांधी ने राजेंद्र प्रसाद घाट पर शिलान्यास कर के किया. खूब तामझाम हुआ. हवनकीर्तन हुए. इस का प्रचार भी खूब किया गया. मगर हुआ कुछ खास नहीं. बनारस शहर के 22 सीवरों व नालों का मलजल गंगा में मिल रहा है. वरुणा नदी और असि नदी के बीच में बसे होने के कारण इस शहर का नाम वाराणसी पड़ा है. असि नदी तो नाला में बदल गई है, वहीं वरुणा नदी में मिलने वाले सीवरों को गंगा में प्रवाहित किया जाता है. दूसरा, नैशनल गंगा रिवर बेसिन अथौरिटी का गठन 5 वर्ष पूर्व किया गया था. इस के भी कोई खास नतीजे देखने को नहीं मिल रहे हैं. गंगा की गंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकार अभी सिर्फ लोकलुभावने भाषणों में ही उलझी हुई है.

यथार्थवादी सोच जरूरी

आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम गंगा हो या कोई दूसरी नदी, उस के प्रति यथार्थवादी सोच रखें. गंगा आरती करने से गंगा साफसुथरी नहीं हो जाएगी. जितना तामझाम गंगा आरती के लिए रोजाना होता है उस से अच्छा होता जो लोग इस से जुड़े हैं वे सभी दर्शनार्थियों से कहें कि गंगा का लुफ्त उठाने आए हो तो आधा घंटा गंगा की साफसफाई के लिए दो, वरना कोई हक नहीं है गंगा के घाटों पर सैरसपाटा करने का.यह कोई मनोरंजन का स्थल नहीं. अगर पंडेपुजारी और जनता ही गंगा को गंदा करने से बाज आएं तो गंगा काफी हद तक साफ हो जाएगी. रही बात सीवर व कैमिकल्स की, जो फैक्टरियों के द्वारा गंगा में बहाए जाते हैं, उस के लिए सरकारी मशीनरियां सख्त हो जाएं तो गंगा निर्मल हो सकती है. पर कितने गरीब मजदूरों की नौकरियां जाएंगी इस का भी अंदाजा लगा लें. अगर कारखाने बंद करते हैं तो क्या मंदिर भी बंद नहीं होने चाहिए? पर जो समाज मजदूरों की नहीं पुजारियों की सुनता है, उस का क्या किया जाए

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