विज्ञान की दुनिया अनूठी है. रोचक शोधों और तरक्की के हर आयाम को छूती साइंस हर पल कुछ नया खोज रही है. आइए जानते हैं कुछ दिलचस्प वैज्ञानिक शोधों से जुड़ी बातें :

खरबों गंध की पहचान

आमतौर पर माना जाता है कि मनुष्यों में गंध पहचानने की क्षमता बहुत कमजोर होती है. मगर हाल ही में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि मनुष्य लगभग 3 खरब अलगअलग गंधों के बीच भेद कर पाते हैं.हमारी नाक में कई ग्राही होते हैं. जब हम सांस लेते हैं तो हवा में मौजूद गंध वाले अणु इन ग्राहियों से जुड़ जाते हैं. जैसे ही गंधयुक्त अणु ग्राही से जुड़ता है, दिमाग को एक संदेश पहुंचता है. अधिकांश गंध एक से अधिक रासायनिक अणुओं के मेल से बनती हैं, यह समझना अपनेआप में एक पहेली रही है कि मस्तिष्क इतने सारे संदेशों में से गंध को कैसे पहचान पाता है.

मनुष्यों में गंध पहचानने की क्षमता का आकलन करने के लिए रौकफेलर विश्वविद्यालय की लेसली वोशाल और उन के साथियों ने 128 ऐसे रासायनिक पदार्थ लिए जिन के विभिन्न सम्मिश्रण अलगअलग गंध पैदा करते हैं. वोशाल के दल ने इन रसायनों के कई अलगअलग मिश्रण बनाए, किसी मिश्रण में 10 तो किसी में 20 रसायनों को मिलाया गया था.

अब कुछ वौलंटियर्स को भरती किया गया. ये वौटियर्स पेशेवर शराब या कौफी या चाय को चखने वाले लोग नहीं थे बल्कि साधारण लोग थे. हरेक वौलंटियर को एक बार में 3-3 मिश्रण सूंघने को दिए गए. इन में से 2 मिश्रण हूबहू एकजैसे ही थे जबकि तीसरा अलग था. वौलंटियर्स को यह पहचानना था कि कौन सा मिश्रण अलग गंध वाला है. यह प्रयोग कई मिश्रणों के साथ किया गया. औसतन जब 2 मिश्रणों के रसायनों में 50 प्रतिशत का अंतर था तो वौलंटियर्स उन के बीच भेद कर पाए. जब वोशाल के दल ने यह गणना की कि 128 रसायनों के कितने अलगअलग मिश्रण बन सकते हैं और उस संख्या पर अपने प्रयोग के आंकड़ों को लगाया तो निष्कर्ष निकला कि औसतन हर वौलंटियर 3 खरब गंध मिश्रणों के बीच भेद कर पाएंगे.वैसे इस मामले में काफी विविधता भी है. जैसे उक्त प्रयोग में सब से खराब प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति के आंकड़े दर्शाते हैं कि वह 8 करोड़ अलगअलग गंधों के बीच भेद कर पाएगा जबकि सब से बढि़या सूंघने वाले के मामले में यह संख्या हजार खरब तक हो सकती है. वैसे, हमारे पर्यावरण में इतनी खुशबुएं होती ही नहीं हैं कि हमें अपनी इस पूरी क्षमता का उपयोग करने का मौका मिले या जरूरत पड़े.

अल्जाइमर से बचाता है तनाव

यदि आप याददाश्त खोने से बचना चाहते हैं तो अपनी कोशिकाओं को तनाव में रखिए. हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया गया है कि बढ़ा हुआ कोशिकीय तनाव दिमाग की कोशिकाओं को एक ऐसा प्रोटीन बनाने को प्रोत्साहित करता है जो अल्जाइमर व दूसरे किस्म के स्मृति भ्रंश से बचाव करता है. दुनियाभर में 65 वर्ष से अधिक आयु के करीब 4-5 करोड़ लोग अल्जाइमर से पीडि़त हैं. इस रोग का संबंध दिमाग में कुछ प्रोटींस (एमिलौयड बीटा और टाऊ) के जमा होने के साथ देखा गया है. मगर यह स्पष्ट नहीं है कि याददाश्त  किस वजह से जाती है.

ताजा अध्ययन में हारवर्ड मैडिकल स्कूल के बू्रस यान्कनर ने एक नए प्रोटीन पर ध्यान दिया है. यह तो पहले से पता था कि यह प्रोटीन अन्य जीन्स को बंद व चालू करने का काम करता है और भू्रण में दिमाग के विकास का नियंत्रण करता है मगर ऐसा माना जाता था कि यह प्रोटीन वयस्कों में नहीं पाया जाता. इस खोज से हैरत में पड़ कर उन्होंने इंसानों और चूहों के मस्तिष्क में से कुछ कोशिकाएं प्राप्त कीं और यह समझने की कोशिश की कि मस्तिष्क की कोशिकाओं में रेस्ट की मात्रा किन कारणों से बदलती है और इस का क्या असर होता है. यान्कनर को पता चला कि किसी भी किस्म का तनाव, जैसे प्रतिरक्षा तंत्र की सक्रियता या प्रोटीन का संग्रह दिमाग में रेस्ट की मात्रा को बढ़ाता है. उम्र बढ़ने के साथ इस तरह के तनाव बढ़ते हैं. जो और भी आश्चर्यजनक बात पता चली वह यह थी कि रेस्ट की मात्रा बढ़ने पर यह प्रोटीन उन जीन्स को बंद करने लगता है जो कोशिकाओं की स्वाभाविक मृत्यु के लिए जिम्मेदार होते हैं. यानी रेस्ट की मात्रा बढ़ जाए तो दिमाग की कोशिकाओं की मृत्यु पर रोक लगती है.

गौरतलब है कि जहां शरीर की बाकी कोशिकाएं मरने से पहले नई कोशिकाएं बन सकती हैं, वहीं दिमाग की कोशिकाओं में ऐसी क्षमता नहीं होती. कहने का मतलब है कि आप जिन तंत्रिका कोशिकाओं के साथ पैदा होते हैं, उन्हीं के साथ मरते हैं. बीच में जितनी तंत्रिका कोशिकाएं मर गईं, सो मर गईं. इस का मतलब यह निकलता है कि रेस्ट प्रोटीन दिमाग की कोशिकाओं को मरने से बचा कर दिमाग को देर तक दुरुस्त रखने में मदद करता है.            

 

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