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फरवरी के दूसरे सप्ताह कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार, जानें पूरी डिटेल्स

Bollywood February 2nd Week 2024 Box Office Collection : फरवरी माह के दूसरे सप्ताह यानी कि 9 फरवरी को शाहिद कपूर और कृति सैनन की फिल्म ‘तेरी बातों में उलझा जिया’ के प्रदर्शन से पहले इस फिल्म को ले कर लोगों में उत्सुकता थी क्योंकि यह एक इंसान और एक रोबोट की प्रेम कहानी है. मगर 90 करोड़ रुपए की लागत में बनी यह फिल्म पहले सप्ताह में बौक्सऔफिस पर धराशाई हो गई. यह तो अपनी आधी लगात भी नहीं एकत्र कर सकी. पूरे सप्ताह में यह फिल्म बौक्सऔफिस पर बामुश्किल 40 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी जबकि निर्माता ने सोमवार से गुरुवार 4 दिनों के लिए एक टिकट खरीदने पर एक टिकट मुफ्त का औफर भी रखा था.

जी हां, पहले 3 दिन इस फिल्म ने सिर्फ 26 करोड़ रुपए ही जुटाए थे. तब फिल्म के निर्माता ने सोमवार से एक टिकट खरीदने पर एक टिकट मुफ्त का औफर दे दिया. बुधवार के दिन इस औफर के साथ ही वैलेंटाइन डे था. फिर भी पूरे सप्ताह में यह फिल्म 40 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी. इस में से निर्माता के हाथ में जो रकम जाएगी, उस में निर्माता क्या करेंगे, यह तो वही जानें.

अमित जोशी व आराधना शाह निर्देशित फिल्म ‘तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया’ को बरबाद करने में फिल्म से जुड़े हर इंसान ने अपना योगदान दिया. बतौर लेखक व निर्देशक अमित जोशी व आराधना शाह ने अपने काम को ईमानदारी से नहीं निभाया. एक रोबोट साइंटिस्ट और कंप्यूटर प्रोग्रामर सच जानते हुए भी रोबोट संग प्यार व रोमांस कैसे कर सकता है? चलिए यहां तक भी ठीक था. रोबोट साइंटिस्ट एक महिला रोबोट संग सैक्स भी करता है और उस के साथ विवाह करने के लिए हर किसी से झूठ बोलने व लड़ने के लिए भी तैयार है. इस तरह की कहानी पर कोई कैसे यकीन कर सकता है? मजेदार बात यह कि फिल्म में शाहिद कपूर रोबोट संग सैक्स संबंध बनाता है पर उसे एहसास ही नहीं होता कि वह जिस के साथ हम बिस्तर हो रहा है वह लड़की नहीं है. उस के अंदर कोई इमोशन नहीं है. वह तो एक गुड़िया है, जो उस में भरे गए प्रोग्राम के अनुसार काम करती है.

आखिर फिल्मकारों ने दर्शकों को इतना मूर्ख कैसे समझ लिया है? तो वहीं फिल्म में आर्यन का किरदार निभाने वाले अभिनेता शाहिद कपूर भी कम दोषी नहीं है. वह इस फिल्म में कबीर सिंह ही नजर आता है. वह अपनी अदाकारी से निराश करता है. ऐसे अभिनयहीन कलाकार को प्रति फिल्म 40 करोड़ रुपए दे कर निर्माता कम गलती नहीं कर रहे? रोबोट बनी कृति सैनन को 10 साल हो गए फिल्म इंडस्ट्री में, पर अभिनय वह सीख ही नहीं पाई. इस के बाद बची कसर फिल्म की प्रचार टीम व मार्केटिंग टीम ने पूरी कर दी. फिल्म की कहानी इंसान व रोबोट की प्रेम कहानी है, इस पर मीडिया संग विस्तार से बात कर फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के बजाय पीआर टीम के कहने पर देश के कुछ शहरों में शाहिद कपूर व कृति सैनन घूमते व डांस करते रहे. शायद यह सभी जानते थे कि इन लोगों ने एक अविश्वसनीय फिल्म बनाई है.

जिस के संग दर्शक नहीं जुड़ सकता. इसलिए भी ये मीडिया से दूर रहे होंगे. पर इस तरह के फिल्मकारों व कलाकारों के कारण सिनेमा डूब रहा है. मल्टीप्लैक्स डूब रहे हैं. 2023 में भी सिनेमा ने कोई कमाई नहीं की थी. 2024 में 6 सप्ताह के दौरान प्रदर्शित फिल्मों ने निर्माताओं व सिनेमाघर मालिकों का ऐसा बंटाधार किया है कि चर्चाएं हैं कि 2024 के अंत तक आधे मल्टीप्लैक्स बंद हो जाएंगे. शाहिद कपूर अपने अहं में ही डूबे हुए हैं. शायद उन्हें कोई सही सलाह नहीं दे रहा. सभी जानते हैं कि उन की 2 फिल्में एक सप्ताह की शूटिंग के बाद बंद कर दी गईं. पर शाहिद कपूर अपने ही रंगढंग में चल रहे हैं. ‘तेरी बातों में ऐसा उलझा जिया’ की बौक्सऔफिस पर जो दुर्गति हुई है उस का सब से बड़ा खमियाजा शाहिद कपूर को ही भुगतना पड़ेगा.

इन हीरोइनों ने प्लास्टिक सर्जरी से पाया खूबसूरत चेहरा, पर यह जानलेवा भी हो सकती है

Actresses who did plastic surgery : ग्लैमर की दुनिया में हमेशा सुर्खियों में रहने और लोगों का ध्‍यान खींचने के लिए आकर्षक दिखना बेहद जरूरी है. केवल डिज़ाइनर कपडे पहनना, मेकअप और हेयरस्टाइल ही खूबसूरती का पैमाना अब नहीं रहा. इसीलिए अपनी खबसूरती को अधिक निखारने के लिए कई बौलीवुड ऐक्ट्रेसेस तरहतरह के एक्सपैरिमैंट करने से पीछे नहीं रहतीं. इस से वे अपने चेहरे को आकर्षक और खूबसूरत भी बना लेती हैं. बौलीवुड की मोस्ट सक्सैसफुल हीरोइन्स ने भी प्लास्टिक सर्जरी से ही गुड लुक्स पाएं हैं. अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा से ले कर अनुष्का शर्मा, शिल्पा शेट्टी जैसी कई हीरोइन्स हैं जिन्होंने अधिक खूबसूरत दिखने के लिए प्लास्टिक सर्जरी करवाई है और आज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सफल हैं.

इस में वे अधिकतर अपनी जो-लाइन, लिप्स, नाक आदि पर एक्सपैरिमैंट करती है, ताकि मोटी नाक, पतले होंठ, अच्छे उभार, सही जो-लाइन आदि को क्रिएट कर सकें. लेकिन कई बार उन का यह दांव उन्‍हीं पर उलटा पड़ जाता है. अच्‍छी दिखने के बजाय उन का मूल रूप ही बिगड़ जाता है, जिस के चलते उन्‍हें सोशल मीडिया पर भी खूब खरीखोटी सुननी पड़ती है. फैंस उन का खूब मजाक बनाते हैं. पर वे इसे करने से परहेज नहीं करतीं क्योंकि पहले भले ही वे पहले कुछ दिनों तक अजीब दिखती हों लेकिन बाद में उन की लुक सही बैठने पर अच्छी दिखने लगती हैं. इस श्रेणी में कुछ खास हीरोइनें हैं जिन्होंने अपने लुक से सब को चकित किया और इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाई. आइए जानें ऐसी ऐक्ट्रेसेस के बारे में-

बाणी कपूर

इस श्रेणी में बाणी कपूर का नाम सब से पहले आता है. बाणी कपूर को फिल्मों में आने का शौक बचपन से था और वे इस की कोशिश भी कर रही थीं. लेकिन उन्हें कोई मौका नहीं मिल रहा था. कई जगह पर उन्हें अपनी लुक्स को ले कर बातें भी सुनने को मिलती थीं. ऐसे में उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी करवाई और उन्हें काम मिलने लगा. अब तो बाणी कपूर को पहचान पाना भी मुश्किल हो गया है.

कैटरीना कैफ

फिल्म जगत में सब से ज्यादा फीस लेने वाली अभिनेत्रियों में शुमार कैटरीना कैफ भी सर्जरी करवा चुकी हैं. इतनी खूबसूरत दिखने वाली कैटरीना की नाक उन्हें पसंद नहीं थी, इसलिए उन्होंने उस की सर्जरी करवाई, जिस से उन का लुक ग्लैमरस बन गया.

जान्हवी कपूर

फिल्मो में आने से पहले श्रीदेवी और बोनी कपूर की बेटी जान्हवी कपूर ने भी अपने लुक को चेंज करने के लिए अपनी नाक और ठुड्डी की सर्जरी करवाई है, क्योंकि उन्हें बचपन से ही पता था कि वे बड़ी हो कर ऐक्ट्रेस बनेंगी. सर्जरी के बाद उन के लुक में अच्छा बदलाव आया है. आज वे काफी खूबसूरत दिखती हैं.

सारा अली खान

फिल्म ‘केदारनाथ’ से डैब्यू करने वाली सारा अली खान, सैफ अली खान और अमृता की बेटी हैं. सारा के गुड लुक्स को पसंद करने वाले कई हैं लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उन्होंने गुड लुक्स सर्जरी से पाए हैं. उन्होंने एक जगह पर कहा भी है कि इंडस्ट्री में खूबसूरत दिखने का प्रैशर रहता है, जिस के चलते ये सब करवाना पड़ता है. इस से खुद में आत्मविश्वास बढ़ता है, लेकिन एक हद तक ही इसे अपनाने में सारा विश्वास रखती हैं.

आलिया भट

खूबसूरत दिखने वाली अभिनेत्री आलिया भट्ट भी बौलीवुड में कदम रखने के बाद खुद को सब से अधिक सुंदर दिखाने के लिए सर्जरी करवा चुकी हैं. उन्होंने नाक और होठों की सर्जरी करवाई है.

आयशा टाकिया

फिल्म ‘टार्जन द वंडर कार’ से फिल्म कैरियर शुरू करने वाली आयशा हमेशा से ही अपनी सर्जरी को ले कर चर्चा में रही हैं. पहले ब्रेस्ट इम्प्लांट, आइब्रो, जो-लाइन फिर लिप सर्जरी आदि करवा डाली. सर्जरी का उन्हें सुंदर दिखने में बहुत अधिक सहारा नहीं मिला, क्योंकि इस से पहले उन के नैचुरल लुक और मीठी मुसकान को दर्शकों ने काफी पसंद किया था.

टीवी स्टार भी कम नहीं

टीवी ऐक्ट्रेसेस भी इस लिस्ट में कम नहीं. कुछ टीवी ऐक्ट्रेसेस लिप और प्लास्टिक सर्जरी से खुद को क्वीन बनाने में कामयाब हो गई हैं. इस में गोल्डस्टार फेम मौनी राय फुलर लिप्स के कारण काफी ट्रोल का शिकार हुईं. उन का ऊपरी होंठ काफी पतला था, जिस से वे खुश नहीं थीं. यही वजह है कि उन्होंने सर्जरी का फैसला लिया. आज उन्हें कई फिल्मों में, कम ही सही पर, अभिनय करने का काम मिल रहा है. ‘विदाई’ फेम अभिनेत्री सारा खान ने भी लिप्स की सर्जरी करवाई है.

दर्दनाक है आंकड़े

यह सही है कि प्लास्टिक सर्जरी से खूबसूरत लुक्स हीरोइनों को मिले हैं और वे अब कामयाब हैं. यही वजह है कि प्लास्टिक सर्जरी का व्यापार बढ़ता जा रहा है. लेकिन कई बार इस का असर गलत होने पर मृत्यु तक हो सकती है. 29 वर्षीय ब्राजीलियाई मौडल और अभिनेत्री लुआना एंड्रेड को लिपोसक्शन सर्जरी के दौरान 4 बार दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. गौर करने वाली बात यह है कि ऐक्ट्रेस को दिल का दौरा सर्जरी के बीच में ही पड़ा था. कुछ वर्षों पहले कन्नड़ टैलीविज़न अभिनेत्री चेतना राज की भी बेंगलुरु के एक प्राइवेट अस्पताल में मृत्यु होने की ख़बर सामने आई थी.

मीडिया रिपोर्ट की मानें तो वजन कम करने के लिए की जाने वाली सर्जरी के बाद 7 ब्रिटिश नागरिकों की मौत हो गई थी. सब से अधिक चर्चा मेलिसा केर की मौत को ले कर हुई थी, जब तुर्की के सब से बड़े शहर इस्तांबुल में 31 साल की मेलिसा केर की 2019 में एक निजी अस्पताल में नितंब को बढ़ाने की सर्जरी (बट-लिफ़्ट सर्जरी) के दौरान मौत हो गई. वहीं वर्ष 2020 में 3 बच्चों की एक मां ने भी तुर्की जा कर लिपोसक्शन करवाया, लेकिन बाद में उन की मौत हो गई.

क्या है लिपोसक्शन ?

असल में लिपोसक्शन एक ऐसी सर्जिकल प्रक्रिया है जिस के जरिए शरीर में जमी अतिरिक्त चरबी को बाहर निकाला जाता है. इस से अधिकतर मोटापे या वजन को कम करने के लिए ही लोग करवाते हैं और उन्हें मनचाहा शारीरिक अकार मिलता है. डाक्टर व्यक्ति को पूरी तरह स्वस्थ होने पर ही इसे करवाने की सलाह देते हैं, ताकि बाद में किसी प्रकार की दुर्घटना न हो.

जब बढ़ती दाढ़ी की तुलना घटती जीडीपी से की गई थी

‘मुझे बगावत की भनक पहले ही लग चुकी थी, मैं चाहता तो उस दाढ़ी की दाढ़ी पकड़ उसे खींच सकता था,’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उन की मनमोहक दाढ़ी पर इतने अधिकारपूर्वक कौन बोल सकता है. जाहिर है, सिर्फ उद्धव ठाकरे जिन की वजह से एकनाथ शिंदे आज वहां विराजे हैं जहां तक पहुंचने के लिए अच्छेअच्छों को पापड़ बेलने पड़ते हैं. फिर शिंदे तो दाढ़ी उगने के दिनों में ठाणे में औटोरिकशा चलाते थे.

एक दिन यों ही शिवसेना की रैली में हायहाय उन्होंने की, तो उन का समय ऐसा चमका कि आज वे महाराष्ट्र चला रहे हैं, जिस में 2 पहिए भाजपा के और 2 शिवसेना के हैं. कुछ कलपुर्जे एनसीपी और कांग्रेस के भी इस से जुड़े हैं. अब कब तक यह जुगाड़वाली गाड़ी, बकौल उद्धव ठाकरे, इस दाढ़ी से चल पाएगी, यह राम जाने. कम ही लोग जानते हैं कि एकनाथ शिंदे के बचपन का नाम राहुल पांचाल था और वे सतारा के एक बेहद गरीब कुनबी समुदाय के परिवार से हैं. अपने औटोरिकशा में सवारियां ठूंस कर उन्हें एडजस्ट करने का तजरबा अब सरकार चलाने के काम आ रहा है.

उद्धव क्यों शिंदे से इतना चिढ़ते हैं कि उन का असली नाम जबां पर लाने में भी अपनी तौहीन समझते हैं. यह खीझ, तकलीफ या जलन कुछ भी कह लें किसी से छिपी नहीं रह गई है. महाराष्ट्र में अब हर कोई शिंदे को दाढ़ी नाम से ही बुलाता है. उन की घनी काली दाढ़ी है ही इतनी आईकैचर कि नजर उस पर ठहर कर रह जाती है. आजकल इतनी ‘हाई क्वालिटी’ की दाढ़ियां कम ही देखने में आती हैं.

उद्धव के हमले पर शिंदे चुप नहीं रहे. जवाब में उन्होंने कहा कि इस दाढ़ी के हाथ में आप की नब्ज दबी है. कव्वाली स्टाइल के ये सवालजवाब आम लोगों को समझ नहीं आए कि कौन सी नब्ज यानी राज की बात हो रही है जिस के उजागर होने से महफिल में न जाने क्या हो जाएगा. समझदार लोगों ने दाढ़ी से ज्यादा कुछ नहीं सोचा और उस में भी यही सोचा कि जो भी हो, शिंदे की काली चमकती दाढ़ी का कोई जवाब नहीं. दाढ़ी हो तो शिंदे जैसी, नहीं तो हो ही न.

राजनीति में दाढ़ी की अपनी अलग अहमियत है. यह उस वक्त और बढ़ गई थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोनाकाल में दाढ़ी रखी थी. इस दाढ़ी में बड़े सस्पैंस थे. वजह, यह कोई ऐरीगैरी दाढ़ी नहीं थी. कांग्रेसियों और वामपंथियों को इस में भी कोई चालाकी और साजिश नजर आ रही थी लेकिन दक्षिणापंथी भक्तगण मोदी की दाढ़ी को वात्सल्य भाव से निहारे जा रहे थे.  उन की नजर में मोदीजी गुरु वशिष्ठ और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दिख रहे थे जबकि विरोधियों को उन की दाढ़ी का यह स्टाइल हिंदी फिल्मों के एक विलेन अनवर जैसा लग रहा था. इस दाढ़ी पर कई दिनों तक टीकाटिप्पणियां होती रहीं लेकिन वह सब भी बढ़ी दाढ़ी की तरह निरर्थक साबित हुआ, कोई निष्कर्ष नहीं निकला.

कांग्रेसी नेता शशि थरूर भी मोदी की दाढ़ी को ले कर आंदोलित थे, जिस के लिए उन्होंने इंग्लिश के एक शब्द pogonotrophy का इस्तेमाल किया जिस का मतलब दाढ़ी बढ़ाना होता है. नएनए शब्द लौंच करने के लिए पहचाने जाने वाले थरूर ने एक ट्वीट के जरिए यह तक साबित कर दिया था कि जैसेजैसे जीडीपी गिर रही है वैसे वैसे मोदी की दाढ़ी बढ़ रही है. इस बाबत उन्होंने मोदी के दाढ़ीयुक्त चेहरे के 5 फोटोज भी शेयर किए थे जिन में दाढ़ी क्रमश: बढ़ती हुई नजर आ रही है.

इसी के साथ उन्होंने गिरती हुई जीडीपी के आंकड़े भी शेयर किए थे. इसे ग्राफिक्स इलस्ट्रेशन बताते हुए थरूर ने बढ़ती का नाम दाढ़ी और गिरती का नाम जीडीपी जैसी बात कर दी थी तो मोदीभक्त उन पर भड़क गए थे. उन्हें मोदी तो मोदी, उन की दाढ़ी तक की बुराई सुनना गवारा नहीं था और न आज है. क्योंकि, मोदी उन के आदर्श, आराध्य और प्रभु हैं.

पर ये लोग दाढ़ी के जरिए देश की तरक्की का ग्राफ दे कर थरूर के नहले पर दहला नहीं जड़ पाए थे. अंधभक्ति का एक बड़ा दुर्गुण यही है कि उस के पास सम्यक दृष्टि नहीं होती, फिर तर्कवर्क करना तो दूर की बात है.

मोदी की बढ़ी दाढ़ी के बवाल का जवाब कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिया था. उन की बढ़ी दाढ़ी पर भी खूब कमैंटबाजी हुई थी. भगवा गैंग में से किसी ने ताना मारा था कि दाढ़ी बढ़ा लेने से आप प्रधानमंत्री नहीं बन जाएंगे. मोदी समर्थक और भक्तों को राहुल की दाढ़ी इतनी चुभी थी कि उन्होंने इस की तुलना सद्दाम हुसैन की दाढ़ी से कर दी थी. असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने गुजरात में चुनावप्रचार के दौरान जैसे ही यह कहा कि दाढ़ी के चलते राहुल का चेहरा सद्दाम हुसैन जैसा होता जा रहा है, राहुलभक्त भी हावहाव करते उन पर टूट पड़े थे.

कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह ने कहा था यह वह व्यक्ति है जो कांग्रेस के नेताओं के पैर पकड़ता था. उन को शर्म आनी चाहिए आज वे जो भी हैं कांग्रेस की वजह से हैं. लेकिन हेमंत शर्मा नहीं शरमाए. शर्म तो उन्होंने तभी बेच खाई थी जिस दिन कांग्रेस छोड़ भाजपा जौइन की थी. इस से ज्यादा चुभने वाली बात अलका लाम्बा ने यह कही कि अच्छा हुआ जब हेमंत बिस्वा राहुल से मिलने गए थे तब राहुल ने उन के बजाय अपने वफादार कुत्ते को तरजीह दी. तब हेमंत बिस्वा को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि राहुल की दाढ़ी भी उन्हें बेइज्जत करा देगी.

दाढ़ी से परे दिलचस्प किस्सा राहुल के कुत्ते का है जिसे हेमंत जबतब सुनाया करते हैं कि एक बार जब वे राहुल से मिलने उन के घर पहुंचे तो उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाते पुचकारते रहे. अब राहुल ने उन्हें क्यों नहीं पुचकारा, यह भी कोई सस्पैंस की बात नहीं रह गई थी जो वे अपने मुंह से भाजपा की भाषा बोलने लगे थे.

खैर, वफादारी का ईनाम हेमंत को भी मिला और भाजपा ने उन्हें सुग्रीव व विभीषण की तरह गले लगाते उन का राजतिलक कर दिया यानी असम का मुख्यमंत्री बना दिया, जिस के एवज में वे आज तक मोदी के सामने नतमस्तक रहते हैं और राम नामी इतने हो गए हैं कि असम से सभी दाढ़ी वालों को खदेड़ने की योजनाएं बनाते रहते हैं.

नरेंद्र मोदी की दाढ़ी ज्यादा चर्चित रही थी या राहुल गांधी की, यह तो कोई नहीं बता पाया लेकिन एक फर्क लोगों ने साफ देखा कि राहुल की दाढ़ी खिचड़ी दाढ़ी है, उस में आधे बाल काले हैं जबकि मोदी की दाढ़ी पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखी झकास सफेद है. इस का ताल्लुक उम्र से है कि अभी राहुल गांधी जवान हैं जबकि मोदी जी वानप्रस्थ आश्रम की उम्र को भी पार कर चुके हैं. लेकिन वे कुछ भी हो जाएं अब कुरसी नहीं छोड़ने वाले. उम्र उन की राह में बाधा नहीं हो सकती.

अब मुमकिन है कि वे 400 पार की मंशा के लिए फिर से दाढ़ी न बढ़ाने लगें, हालांकि इस की उम्मीद कम है, फिर भी याद यह रखा जाना चाहिए कि वे मोदी हैं और मोदीजी कुछ भी कर सकते हैं, उन की मरजी.

दाढ़ी रखने का रिवाज मानव सभ्यता से मेल खाता हुआ है जिस का उद्भव धर्म से हुआ. हालांकि दाढ़ी खुद धर्मनिरपेक्ष है लेकिन इस दौर में दाढ़ी का भी धर्म होने लगा है. नरेंद्र मोदी ने कभी लोगों को वेशभूषा से पहचानने का मशवरा सार्वजनिक मंच से दिया था तो कई दिग्गज मुसलिम नेता तिलमिला उठे थे कि देखो, उन का इशारा मुसलमानों के कपड़ों और दाढ़ी की तरफ है. इस सच से हर कोई रोज रूबरू होता है कि हिंदुओं की दाढ़ी मुसलमानों की दाढ़ी से भिन्न होती है. इस विवाद से परे देखें तो दाढ़ी धर्मगुरुओं के चेहरे पर हमेशा से चिपकी रही है. उन की देखादेखी साधु और मौलाना वगैरह भी दाढ़ी रखते हैं.

लेकिन झंझट उस वक्त खड़ी होने लगी जब साधुओं के अलावा शैतानों ने भी दाढ़ी रखना शुरू कर दिया. वे अपनी पहचान छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं जबकि धार्मिक लोग पहचान उजागर करने के लिए दाढ़ी को फलनेफूलने देते हैं. चंबल के डाकू भी दाढ़ी रखते हैं और अंडरवर्ल्ड के डौन भी व गलियों के गुंडे भी. इसीलिए रोते छोटे बच्चों को चुप कराने के लिए यह कहते  डराया जाता है कि चुप हो जा, नहीं तो झोले और दाढ़ी वाला बाबा आ जाएगा. दाढ़ी न होती तो ये बच्चे भी बाबा से न डरते. अब थोड़ा बदलाव आया है कि अधिकतर गुंडे-डौन वगैरह क्लीन शेव रहने लगे हैं.

राजनीतिक और धार्मिक दाढ़ियों के बाद साहित्यिक दाढ़ियां खूब प्रसिद्ध हुईं. इतनी हुईं कि रवींद्रनाथ टैगोर की दाढ़ी अपनेआप में ब्रैंड बन गई. 70-80 के दाढ़ी रखने के शौकीन युवा सैलून जा कर टैगोर कट दाढ़ी की मांग करते थे और जो समाज का लिहाज नहीं करते थे वे हिटलर कट दाढ़ी रखते थे. कवियों और शायरों की तो पहचान ही उन की दाढ़ियों से होती है. तुकबंदी और पैरोडी के लिए मशहूर हास्य कवि काका हाथरसी की दाढ़ी भी अल्पकाल के लिए ब्रैंड बनी थी.

पंत और निराला की दाढ़ियों की नकल कम ही हुई लेकिन अगर किसी युवा की दाढ़ी बढ़ी हुई दिखती है तो उसे मजनू, शायर, कवि और फिलौसफर जैसे संबोधनों से नवाज दिया जाता है. इधर, कुछ सालों से लोगों की राय दाढ़ी के बारे में बदली है क्योंकि उन का स्टाइल फैशन के तहत आने लगा है जो फिल्मों से प्रेरित होती हैं.

अमिताभ बच्चन ने जब फ्रैंच कट दाढ़ी रखी थी, समूचे युवा आंदोलित हो उठे थे. फ्रैंच कट दाढ़ी रखने की होड़ ऐसी मची थी कि नाइयों की शामत आ गई थी. अमिताभ बच्चन की दाढ़ी के आगे मोदी या राहुल की दाढ़ी कहीं नहीं ठहरती. एक नामी अखबार ने तो अमिताभ की दाढ़ी पर संपादकीय ही लिख डाली थी जबकि संपादकीय आमतौर पर गंभीर सामयिक विषयों पर लिखी जाती है. फिल्मों में खलनायकों की दाढ़ी नायकों की दाढ़ी से ज्यादा लोकप्रिय होती है. ‘अमर अकबर एंथोनी’ फिल्म में प्राण ने 3 तरह की दाढ़ियां रखी थीं.

बढ़ी दाढ़ी अगर विलेन के लिए अनिवार्यता थी तो क्लीन शेव रहना हीरो की अनिवार्यता थी. इस से ही दर्शक दोनों में भेद कर पाता था. यह और बात है कई फिल्मों में नायक को दाढ़ी रखनी पड़ी और विलेन क्लीन शेव रहा.

शक्ति कपूर, रंजीत और गुलशन ग्रोवर अधिकतर फिल्मों में दाढ़ीविहीन दिखे. हीरो ने कहानी की मांग के मुताबिक दाढ़ी रखी. ‘गाइड’ फिल्म में देवानंद की दाढ़ी और ‘क्रोधी’ फिल्म में धर्मेंद्र की दाढ़ी कहानी की मांग थी.

नए दौर के नायक कार्तिक आर्यन, आयुष्मान खुराना और रणबीर कपूर भी किरदार के हिसाब से दाढ़ी रख लेते हैं लेकिन वे लहलहाती हुई नहीं होतीं, 3-4 दिन की बढ़ी हुई होती हैं. यही चलन आज के दौर के युवाओं में ज्यादा देखने में आता है. वे डेली शेव करते हैं. बात युवाओं की हो तो दाढ़ी के माने उन के लिए अलग होते हैं. आमतौर पर युवा फोड़े, फुंसी और मुंहासे छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं. कालेज के शुरुआती दिनों में अधिकतर युवा दाढ़ी बढ़ाते हैं पर उस के 2 इंच क्रौस होते ही घबरा भी उठते हैं और फिर सफाचट हो जाते हैं. आजकल की प्रेमिकाओं और पत्नियों को दाढ़ी कम ही भाती है.

दाढ़ी की महिमा अनंत है. इतिहास में अगर दक्षिण और दक्षिणापंथियों की दाढ़ियां दर्ज हैं तो मार्क्स और एंगल्स की दाढ़ियां भी किसी से उन्नीस नहीं थीं. उन की दाढ़ी में तिनके न के बराबर थे, इसलिए बेचारे अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं. ज्यादा तिनके वाली दाढ़ी दुनियाभर में चल रही है.

गुरुनानक, वशिष्ठ, भीष्म पितामह, दशरथ, रावण, वेदव्यास और कबीर तक की दाढ़ियां कम मशहूर नहीं हुईं. कई विदेशी दाढ़ियों ने भी लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था लेकिन उन में अधिकतर वैज्ञानिक ज्यादा थे, मसलन गैलेलियो, ग्राहम बैल, अल्फ्रेड नोबेल, चार्ल्स डार्विन वगैरह. लेकिन ये सब भी गुजरे कल की बात हो चले हैं. वैज्ञानिक अब दाढ़ी से बहुत ज्यादा मोह नहीं रखते.

इधर, कौर्पोरेट कल्चर के चलते भी दाढ़ियां कम रखी जा रही हैं क्योंकि दाढ़ी न रखना या न बढ़ाना साहबी की निशानी मानी जाती है जो अलिखित वसीयत में अंगरेज दे गए हैं. कलैक्टर, डाक्टर और इंजीनियर से ले कर पटवारी व ड्राइवर, कंडक्टर तक दाढ़ी नहीं बढ़ाते. मुमकिन है यह उन के प्रोफैशन की मांग हो लेकिन यह नपातुला सच है कि कोई 85 फीसदी मर्द जिंदगी में एक न एक बार दाढ़ी जरूर बढ़ाते हैं.

कोरोना के कहर के दौरान तो थोक में दाढ़ियां बढ़ीं थीं क्योंकि किसी को बाहर नहीं निकलना था. उस अप्रिय और बुरे दौर के हंसीमजाक में पत्नियां पतियों को भिक्षुक तक कहने लगी थीं. दाढ़ी पुराण के संक्षिप्त वर्णन के बाद समापन इन शब्दों के साथ कि उद्धव ठाकरे जैसे एकनाथ शिंदे को दाढ़ी कह कर संबोधित करते हैं वैसे ही उन की तरह हर दाढ़ी वाले का नामकरण रिश्ते के साथ होता है. जैसे दाढ़ी वाले फूफा, दाढ़ी वाले मौसा और दाढ़ी वाले मामा वगैरह जो हर किसी की रिश्तेदारी में निकल ही आते हैं. लेकिन, अपने पिता को कभी कोई दाढ़ी वाले पापा नहीं कहता.

रात में बार-बार नींद टूटना भी हो सकता है खतरनाक, हो सकती हैं ये समस्याएं

Sleeping Disorder Causes : अगर आपकी भी बार-बार टूटती है नींद, तो सावधान होने की जरूरत है. जी हां मैं आज इस बारे में यू हीं बात नहीं कर रही है, एक रिपोर्ट में ये खुलासा हुआ है कि बार-बार नींद टूटने से मानसिक क्षमता पर असर पड़ता है जो कि आगे चलकर खतरनाक हो सकता है इसलिए अगर आपको भी ये परेशानी है तो आपको इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. बीबीसी की एक रिपोर्ट के बारे में आपको बताती हूं जिसने इस मुद्दे पर हाल ही अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें बेहद ही चौंकाने वाली बातें हैं जिसपर आप सभी का ध्यान जाना जरूरी है.

दरअसल अगर आपको नींद ठीक से नहीं आती है तो इसे साइंस और मेडिकल की भाषा में ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया यानि की OSA के लक्षण कहते हैं जिसका दिमाग पर सीधा असर होता है. इससे दिमाग़ के सोचने-समझने की क्षमता पर बुरा असर पड़ सकता है.
इस विषय पर आई BBC की नई रिपोर्ट कहती है कि भारत में 10 में से एक व्यक्ति इस समस्या का शिकार है, और उम्र बढ़ने पर ये शख्स के दिमाग की कार्य क्षमता पर असर डालता है.

नींद पूरी न होने शरीर पर क्या असर पड़ता है ?

डॉक्टर बताते हैं कि अगर किसी शख्स की नींद पूरी नहीं होती तो केवल दिमाग ही नहीं बल्कि पूरे शरीर पर इसका असर पड़ता और काम करने की क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. इंसान के अंदर चिड़चिड़ापन, कोई भी फैसला लेने में असमर्थ, दिन में नींद आती है, आपकी याददाश्त कमजोर होने लगती है, इंसान चीजें भूलने लगता है. एग्जाइटी की प्रॅाब्लम होने लगती है, इंसान के अंदर शक्ती, ऊर्जा की कमी होने लगती है,ब्लडप्रेशर पर असर पड़ता है, अगर डायबीटिज हो तो बीमारी से निपटने की क्षमता में भी कमी आती है, और दिनभर थकान बनी रहती है. ये तो वो समस्याएं हैं आमतौर पर हर डॉक्टर बताते हैं. लेकिन बीबीसी से बातचीत में पदमश्री से सम्मानित डॉ कामेश्वर प्रसाद ने चौकांने वाले खुलासे किए. दरअसल उन्होंने बताया की लगभग 7505 वयस्कों पर एक शोध किया गया, जिसमें जीनोमिक्स, न्यूरोइमेजिंग और नींद से जुड़े कई पैमानों का अध्ययन किया गया. भारत में ये पहली तरह का शोध है, जिसमें, इसमें महिला और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर थी.

उन्होंने बताया की कई देशों की तरह भारत में भी ये समस्या तेजी से फैल रही है. युवाओं के साथ-साथ अब इस समस्या के कारण बुज़ुर्गों की संख्या भी बढ़ रही है. वैसे तो बुजुर्गों को आमतौर पर उम्र बढ़ते-बढ़ते कई बीमारियां घेर लेतीं हैं जिसमें हार्ट अटैक, भूलने की बीमारी, घुटनों में दिक्कत. लेकिन कुछ समस्या नींद पूरी न होने पर भी होती है. और बड़े-बुढ़ों को तो आमतौर पर उम्र के साथ-साथ नींद भी कम आती है.

ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (OSA) क्या है ?

ओएसए एक डिसआर्डर होता है, ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (OSA) नींद से जुड़ा एक ब्रीदिंग डिसऑर्डर है. इसकी वजह से सोते समय सांस बार-बार रुकती और फिर चलती है और अगर सांस बार-बार रुकेगी तो जाहिर है कि इंसान की नींद खुल जाएगी और पूरी रात ये सिलसिला चलता रहता है. इसे ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया कहते हैं. कई बार खर्राटों के कारण भी इंसान की नींद टूटती है.
एक नॉर्मल से उदाहरण से समझिए. जो महिलाएं मां बनती है बच्चे के जन्म के बाद करीब कई महीनों तक माता-पिता दोनों की नींद पर असर पड़ता है और ऐसे में उन्हें बच्चे की खुशी तो रहती है लेकिन साथ नींद पूरी न होने के कारण चिड़चिड़ापन आता है क्योंकि रात को बच्चा कई बार दूध पीने के लिए या किसी भी वजह से बार-बार उठता है तो मां को भी उठना पड़ता है. लेकिन क्योंकि बच्चे का खिलखिलाता हुआ चेहरे वो जैसे ही देखते हैं उनकी सारी थकान दूर हो जाती है. लेकिन अन्य व्यक्तियों में अगर ये समस्या है तो खतरनाक बीमारी बन जाती है.

कितनी नींद जरूरी होती है ?

डॉक्टर बताते हैं कि एक नवजात शिशु को ज़्यादा घंटों की नींद लेनी चाहिए जैसे तुरंत पैदा हुआ बच्चा करीब 20 घंटे तक सोता है या 14 से 17 घंटे भी हो सकते हैं. वहीं जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है नींद में कमी आने लगती है. वहीं 18-26 साल के युवा और 26-64 वर्ष के लोगों को सात से नौ घंटे और 65 से ज़्यादा उम्र के लोगों को 7-8 घंटे की नींद लेनी चाहिए. इतनी नींद बहुत जरूरी होती है सेहत के लिए.

मैं एक लड़की की तरफ बेहद आकर्षित हो रहा हूं, क्या मेरा उससे बात करना ठीक होगा ?

सवाल

मैं 28 वर्षीय सिंगल युवक हूं. रोज सुबह मैं बालकनी में बैठ कर जब चाय पीता हूं, उसी वक्त एक महिला सामने सड़क से गुजरती है. वेशभूषा से वह संभ्रांत, सुंदर और लगभग 32-35 वर्ष की लगती है. वह भी मेरी तरफ एक नजर जरूर देखती है. अब मैं रोज उस के आने का इंतजार करता हूं. मैं उस की तरफ बेहद आकर्षित होता जा रहा हूं. उस से बात करना चाहता हूं लेकिन क्या बात करूं, समझ नहीं आ रहा. मन बेचैन रहता है. क्या करूं?

जवाब

सब से पहले तो अपनी खयाली दुनिया से बाहर निकलें. यदि कोई महिला आप की तरफ देखती है तो इस का मतलब यह हरगिज नहीं कि वह आप को पसंद करती है, आप को प्यार करने लगी है. हमारी नजर है और यह किसी भी चीज या किसी की तरफ रहरह कर चली ही जाती है.

इसे भी इत्तफाक ही समझें कि जब आप चाय पीने बैठते हैं वह वहां से गुजरती है. वर्किंग महिला हो तो हो सकता है वही उस का आनेजाने का वक्त हो. आप को तो यह भी मालूम नहीं कि वह कौन है, शादीशुदा है या नहीं है. उस के मन में क्या है. यह आप का एकतरफा आकर्षण है.

आप खयाली दुनिया से बाहर निकलें और अपना वक्त जाया न करें. कुछ दिनों के लिए बालकनी के बजाय कमरे में ही चाय की चुसकी लें. मन धीरेधीरे शांत हो जाएगा. आप इन सब से बाहर निकलना चाहते हैं या फिर इस पचड़े में पड़ना चाहते हैं, यह आप को तय करना है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

एक त्यक्तित्व : क्या चचिया ससुर अपने समय का सदुपयोग कर रहे थे ?

मैं उधड़े ऊन की धुली हुई लच्छी का गोला बनाने में उलझी हुई थी. तभी पीछे से मेरे चचिया ससुर आए और इस के पहले कि मैं कुछ समझूं, उन्होंने मेरे हाथ से ऊन ले लिया और बोले, ‘‘लाओ बहू, यह काम तो मैं भी कर सकता हूं.’’

मेरे मुंह से मात्र ‘अरे’ निकल कर रह गया और उधर उन्होंने गोला बनाना भी शुरू कर दिया. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ उन्हें ताकती रह गई.

मेरे चचिया ससुर हाल ही में रेल विभाग के ऊंचे, गरिमापूर्ण पद से सेवानिवृत्त हुए थे. पिछले वर्ष मैं सपरिवार उन के यहां गई थी. वहां उन का बंगला, बगीचा, गाड़ी, नौकरचाकर, माली, आगेपीछे ‘हुजूरहुजूर’ करते अफसर, बाबू और चपरासियों को देख कर मैं उन के ठाटबाट का मन ही मन अंदाजा लगाने लगी थी. दूसरी ओर उन का मेरे हाथ से गोला बनाने के लिए ऊन की लच्छी ले लेना किस हद तक मुझे विस्मय में डाल गया था, कह नहीं सकती.

मैं आम हिंदुस्तानी परिवार की बेटी हूं, जहां लड़कों से काम लेने की कोई परंपरा नहीं होती. काम के लिए सिर्फ बेटी ही दौड़ाई जाती है. लड़के अधिकतर मटरगश्ती ही करते रहते हैं. किसी काम को हाथ लगाना वे अपनी हेठी समझते हैं. मैं ने पुरुषों को दफ्तर काम पर जाते देखा था, पर घर लौटने पर उन्हें कभी किसी नवाब से कम नहीं पाया.

मैं ऐसे माहौल में पल कर बड़ी हुई थी जहां पुरुषपद का सही सम्मान उसे निकम्मा बना कर रखने में माना जाता था. अत: मेरा चाचा के व्यवहार से अचंभित रह जाना स्वाभाविक ही था. वह हंस कर बोले, ‘‘कुछ मत सोचो बहू, मैं तुम्हारा उलझा ऊन सुलझा कर बढि़या गोला बना दूंगा.’’

‘‘वह बात नहीं है, चाचाजी. आप यह काम कर के मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों? क्या मैं इतना खराब गोला बना रहा हूं कि तुम्हें शर्म महसूस हो रही है?’’

‘‘नहीं, नहीं,’’ मेरी समझ में नहीं आया कि और क्या कहूं.

‘‘तुम कुछ मत सोचो. जाओ, अपना काम निबटा लो, मैं यह कर दूंगा,’’ मुझे हिचकिचाता देख कर फिर बोले, ‘‘देखो बहू, मैं तुम्हारी तरह न तो खाना बना सकता हूं, न कढ़ाईबुनाई कर सकता हूं, पर यह गोला बखूबी बना सकता हूं, सो यह काम मुझे करने दो.’’

‘‘नहींनहीं, यह ठीक नहीं लगता. कोई क्या कहेगा?’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘जो कुछ कहना है, सब तुम ही तो कहे जा रही हो, बहू. दूसरा कोई क्या कहेगा,’’ अब हंस कर चाची ने कहा, ‘‘मैं तो खुद बना देती, पर उलझे ऊन का गोला बनाने का धैर्य मुझ में नहीं, पर तुम्हारे चाचा में है. उन्हें गोला बनाने दो.’’

मैं और काम करने चली गई, पर मुझे बेहद अटपटा सा लगता रहा. मेरे अपने घर में पुरुषों का काम करना सदा हेय और बेकार बैठना आभिजात्य की कसौटी माना जाता रहा था. बहरहाल, उन दिनों मैं ने 3 बड़े पुलोवर उधेड़े थे और सब के गोले बनाए थे चाचा ने.

एक वही काम चाचा ने नहीं किया था, बल्कि घर के छोटेबड़े जितने भी काम पुरुष का मुंह ताकते पड़े रहते हैं, उन सब का जिम्मा उन्होंने अपने ऊपर ले लिया था. घर के मुख्यद्वार पर लगी घंटी भी उन्होंने ठीक करवा दी थी. पता नहीं कैसे चाचा को बिना कहे मालूम पड़ जाता कि मैं किसी चीज के खराब होने से असुविधा में हूं या तो वह खुद उसे ठीक करने बैठ जाते अथवा बाजार से ठीक करवा लाते. उन्होंने कभी मेरे पति के दफ्तर से लौट कर आने और मोटर पर बाजार जाने की प्रतीक्षा नहीं की.

चाचा को देख कर कोई ‘अवकाश प्राप्त’ कह ही नहीं सकता था. वह समय के हर पल का सदुपयोग करते थे. जैसी चुस्तीफुरती उन में थी, वैसी तो जवानों में भी कम ही देखने को मिलती है.

अपने घरों में व्यस्त रहने वाले तो बहुत लोग मिल जाएंगे. परंतु जो दूसरों के घर जा कर भी व्यस्त रह सकें और वह भी अपने काम में नहीं, बल्कि मेजबान के काम में, उस की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. चाचाजी के काम करने का ढंग कुछ ऐसा था कि उन्होंने कभी मुझे यह अनुभव नहीं होने दिया कि वह मुझ पर कोई एहसान कर रहे हैं.

चाचाजी कहते, ‘‘गृहिणी की इच्छा, अनिच्छा सर्वोपरि है क्योंकि वह गृह रूपी पहिए की धुरी है.’’

अब तक तो मैं ने गृहस्वामिनी की मरजी की बात सुनी थी, गृहिणी का इतना सम्मान व महत्त्व पहली बार जाना था.

उस रोज जो चाचाजी ने उधड़े ऊन का गोला बनाने का काम मुझ से लिया तो मेरा मन आत्मग्लानि से भर सा गया था. कोई पुरुष, वह भी बुजुर्ग, ऊपर से ससुराल पक्ष का इतना वरिष्ठ सदस्य, मेरे करने वाला काम मेरे हाथ से ले ले, बता नहीं सकती, कितनी शर्म की बात लग रही थी मुझे. शायद इस ग्लानि से मुक्ति पाने के लिए उस रोज 2 सब्जियां और दाल के स्थान पर 3 सब्जियां, दाल, सलाद बना दिया.

खाने पर बैठते ही चाचाजी ने पूछा, ‘‘अरे, आज क्या कोई मेहमान आने वाला है?’’

‘‘नहीं तो,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तो फिर यह तीसरी तरकारी क्यों?’’

‘‘बस, यों ही. आप को अच्छी लगती है न?’’

चाचाजी ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर तीसरी सब्जी को हाथ भी नहीं लगाया. भोजनोपरांत बोले, ‘‘देखो बहू, यदि तुम शाही दस्तरखान बिछा कर हमें मेहमान की तरह बोझ बना कर रखोगी तो हम समझेंगे बहू हमें जल्दी जाने का इशारा कर रही है.’’

‘‘नहीं, नहीं, चाचाजी, आप गलत समझ रहे हैं,’’ मैं ने जल्दी से कहा.

‘‘तो फिर कल से वही 2 तरकारी और दाल, बस.’’

‘‘जी, ठीक है.’’

सास के आतंकित करने वाले बहुत से रूप थे मन में. मगर चाची अपने गोरे, गोलमटोल हाथों में निरंतर सलाइयां चलाते हुए मेरे हर काम में कोई न कोई अच्छाई ढूंढ़ कर उस का गुणगान करती रहतीं.

अपनी गृहस्थी की चक्की में रातदिन जुटी रहने पर भी मैं जानती थी कि बहुत से काम अनभ्यस्त होने के कारण मैं उतनी दक्षता से नहीं कर सकती थी, जितनी कि मेरी जेठानियां, ननदें वगैरह करती थीं. पर चाची ने कभी इंगित नहीं किया कि उन्हें मेरा कोई काम बेढंगा या फूहड़पन से भरा हुआ लगा था.

मैं सोचने लगी, अगर इस महंगाई के जमाने में घर आने वाले मेहमान, चाचा के अनेक गुणों में से एकाध भी ले लें तो मेहमाननवाजी बोझ न महसूस हो. आश्चर्य तो तब होता है, जब बहू सास के घर, सास बहू के घर, बहन बहन के घर, देवरानी जेठानी के घर, ननद भाभी के और भाभी ननद के घर मेहमान बन कर रहती हैं और उन के कारण बढ़े हुए काम में चक्करघिन्नी की तरह घूमती गृहिणी के काम को हलका करने को हाथ नहीं बढ़ातीं, बल्कि हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं.

अकसर देखा गया है कि जो व्यक्ति कार्यकुशल होता है, वह अहंकारी भी होता है. इस के अलावा अधिकतर पत्नियों को अपने पति द्वारा दूसरों का काम करना फूटी आंख नहीं सुहाता. खुद चाहे कितना काम लें अपने पति से, अधिकार है उन्हें, पर कोई दूसरा उन के पति की निपुणता से प्रभावित हो कुछ करने को कह भर दे, तो उन्हें लगता है कि उन के पति का गलत इस्तेमाल हो रहा है, नाजायज फायदा उठाया जा रहा है.

चाचीजी में एक नहीं, हजार अनुकरणीय गुण थे. वह अपने पति को दूसरों का काम ही नहीं करने देती थीं, बल्कि उन के व अपने किए को ऐसा सहज रूप प्रदान करती थीं जैसे कहीं कुछ विशेष या असामान्य हुआ ही न हो.

सोचती हूं, चाचाजी पुरुष जाति को अपने निकम्मेपन के आभिजात्य से उबरने की दीक्षा दे जाते, चाचीजी स्त्रियों को सहिष्णुता और पति पर एकाधिपत्य से मुक्ति दिला जातीं तो वृद्धावस्था शायद कुछ कम शोचनीय हो जाती.

सरिता : मुन्ना को किस बात की चिंता हो रही थी ?

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उस का जाना, उस का होना : क्या रमण कभी अपने अकेलेपन से बाहर निकल पाया ?

आज बहुत सुबह पौ फटने के पहले ही नींद खुल गई थी रमण की, फिर नींद क्या आती, वह ही आ गई थी. उस की सांसों की गरमाहट बिलकुल समीप महसूस होने लगी और खुशबू से रमण का तनबदन तरबतर होने लगा. उस का पास आना और हौले से मुसकरा जाना होंठ को तिरछा करते हुए, पलकों को झपकाना उस के मनमहल में सैकड़ों छोटीछोटी घंटियां टुनटुना गया. वह हाथ बढ़ाता और वह हौले से बाल झटक देती, गीले बालों से मोती बिखर गए उस के चेहरे पर.

“अरे, आज इतनी सुबहसुबह तुम ने नहा भी लिया…” कहते हुए रमण ने अपने चेहरे पर पड़ी उस की जुल्फों से झरती मोतियों को हथेलियों में समेटने की कोशिश करने लगा, तो अहसास हुआ कि ये तो उस के ही नयनों से बहते अश्क हैं, जो चेहरा भिगो रहे हैं और वो… वो… वो तो कहीं नहीं हैं.
उस का सपना टूट जाता है और उठ कर बिस्तर पर बैठ जाता है, खिड़की के परदे सरका कर वह बाहर झांकता है, सचमुच अंधेरा है पूरब में. अभी पौ भी नहीं फटी है. सब सच है, बस उस का होना ही नहीं सच है…

‘उठ जाऊं या फिर से सोने की कोशिश करूं, क्या फर्क पड़ता है,’ रमण ने सोचा.

रात जब बिस्तर पर आया तो देर तक रम्या की यादों के साथ ही रहा. उस वक्त उस की कमी दिल में हलचल मचा पलकों को झपकाने तक में बाधक हो रही थी. देर तक उस के होने के एहसास के साथ वह आंखें भींचे पड़ा रहा था. वह उस के पहलू में करवटें बदल रही थी, कभी छन्न से चूड़ियां बजतीं तो कभी उस की पायल की रुनझुन बेचैन करने लगती. कभी रम्या की रेशमी पल्लू उस को छूती सरसराती हुई सिमट जाती.

कभी वह पास आती, कानों में कुछ फुसफुसाती हुई कहती, रमण दम साधे रहता. उसे मालूम था कि आंखें खोलीं या जबान, तो वह फिर गायब हो जाएगी. रम्या के बगल में बस होने के एहसास से वह आनंदित होता, रोमांचित होता रहता. पर उस के होने का एहसास भी नींद नहीं आने देता. समीप और न होने की सचाई भी बिलकुल यही काम करती. नींद न आनी होती है न, वह आती है चाहे बहाना कुछ भी हो.

अगर रम्या की मौजूदगी का भ्रम न हो, रात की नीरवता में घड़ी की सुइयां भी अपनी टिकटिक से मनहूसियत घोलने लगती हैं. बाहर चली हलकी सी हवा भी शोर मचा नींद भंग करने की दोषी हो जाती है. रम्या के होने से उसे घड़ीघड़ी प्यास या टायलेट जाने की भी जरूरत नहीं होती है, वरना ये दोनों क्रियाएं रातभर उस से उठकबैठक करवा दें.

एक सुकून भरा पल होता है, जब वह अपनी दिवंगत पत्नी को यथार्थ में महसूस करता है. जानतेबूझते हुए भी रमण उस स्थिति में जाने को व्यग्र रहता है, जब उस की रम्या उस के पास आ बैठती है. दिल खाली कर लेता है वह उस के संग, जो बातें दिनभर कुलबुलातीं रहती हैं जी में, कोई तो सुनने वाला होना चाहिए. नातेरिश्तेदार या बच्चों से क्या एक ही बात हर दिन दोहराना कि बहुत खालीपन है रम्या के बिना. और बाकी सारी बातें तो बेमानी ही हैं.

शुरू के महीने बहुत विचलन भरे थे रम्या के बिना, मानो शरीर में जान नहीं, भूख नहीं, प्यास नहीं. दिन और रात का अंतर खत्म हो चुका था, अपने होने का बोध समाप्त था. शरीर तो रम्या का फुंका था, घाट पर जान उस के शरीर से निकल गई थी. निष्प्राण, निष्प्रभ वह पड़ा रहता जीनेमरने के बीच कहीं, भावहीन, रसविहीन, संज्ञाशून्य.

दोस्तों, रिश्तेदारों, बच्चों सब के साथ रह कर रमण देख चुका था. जो शून्यता जीवन में आ चुकी थी उस की कोई भरपाई नहीं थी. दूसरी जगह उसे बिना मतलब एक औपचारिक व्यवहार करना होता. न हर वक्त रो कर किसी और का कीमती पल वह नष्ट करना चाहता था, न दूसरे किसी की बातें उसे छूतीं. जिन दोस्तों की संगत में वह घंटों मगन रहता था, अब न भाती, थोड़ी ही देर में जीवन की निस्सारिता से वह ऊब वहां से भागने को तत्पर होने लगता. पहले बेटेबहू, बेटीदामाद व उन के बच्चों के साथ खुद को परिपूर्ण समझता था, अब एक रम्या ने क्या जीवन से हाथ छुड़ाया, उस का भी सभी रिश्तों से मानो मन भर गया. नहीं लुभाती अब उसे पोती के गीत या कविता, मन नहीं होता कि देखे कि नाती अब कैसा दिख रहा है. बच्चों की नौकरी और औफिस की बातें उसे उबाऊ लगतीं, उस का जी बस और बस रम्या में लगा रहता. नहीं ऊबता उस एलबम को हजारवें बार भी पलट कर, जिस में उस की और रम्या की तसवीरें भरी पड़ी थीं. नहीं ऊब होती उसे बारबार वह वीडियो देखने में, जिस में रम्या ने डांस किया था बेटे की शादी के वक्त.

रम्या की रसोई उस की पुरानी महरी ही संभाल रही थी, चैंक उठी थी वह जब रमण ने उसे इडलियां बनाने को कहा था, क्योंकि उस ने तो कभी रमण को इडली खाते देखा ही नहीं था. इडली तो भाभी को ज्यादा पसंद थी. फिर धीरेधीरे उस ने गौर किया कि भइया अब सिर्फ वही खाना चाह रहे हैं, जो भाभी को पसंद था. हर दिन टेबल से 2 प्लेटें उठाते हुए वह चैंक जाती बारबार, जब दोनों ही प्लेट में जूठा लगा देखती.

घर का अकेलापन ज्यादा भाता, दुनिया से पीठ कर ही रहने की इच्छा प्रबल होने लगी. रम्या इतने आननफानन में यों ही चल बसी थी कि रमण का मन अब तक स्वीकार नहीं कर पाया था. ऐसे भी कोई जाता है भला, एक दिन सुबह उठे और अचानक गिर पड़े. अस्पताल पहुंचते ही डाक्टर मृत घोषित कर दे, उस ने तो न सुना था ऐसे किसी का गुजर जाना. अरे, मरने का कुछ तो बहाना होना चाहिए न? न सर्दी, न बुखार मानो बस सो कर उठी और चल बसी. जब तक शरीर बर्फ सा न हो गया, उस ने किसी को छूने न दिया था. अरे, अभी तो जिम्मेदारियों का बोझ उतरा था, अभी दो महीने पहले तक तो अम्मां की सेवा कर रही थी. उस के पहले नाती के जन्म के बाद एक साल तक उसे पाला था.

‘ऐसे कोई जाता है क्या,’ रमण बड़बड़ाता रहता, मानो कहीं न कहीं उस का कोई दोष रहा होगा, जो रम्या इस तरह चल बसी. वह हर वक्त बीते पलों को ध्यान से गुनता कि कभी क्या रम्या ने कुछ बताया तो नहीं था कि उसे कोई तकलीफ है या उस ने कभी नजरअंदाज तो नहीं किया उस की तकलीफों को. जाने क्यों उसे हर वक्त लगता कि कहीं न कहीं वह गुनाहगार है, उस के इस तरह गुजरने के लिए.

इसीलिए रमण कहीं नहीं जाना चाहता, वह रम्या को छोड़ किसी बात पर ध्यान देना नहीं चाहता था. उसे दिक्कत हो जाती ध्यान केंद्रित करने में कहीं और, अतः अपनी जगह पर रहना ही बेहतर है. अब वहां 2-2 प्लेटें लगा सामने रम्या के बैठे रहने की कल्पना तो नहीं कर पाता न. सचमुच उसे सुख मिलता, जब वह अकेले में टेबल पर 2 प्लेटें लगा कर बैठता, रम्या की पसंद की डिश रखता और महसूस करता कि वह सामने मुसकराती हुई बैठी है, वरना महीनों उस के हलक से खाना नहीं उतरा था, फिर इस व्यवस्था में झूठा ही सही, उसे भी सुकून मिलने लगा.

यों ही खयालों में खोएखोए वह बिस्तर पर बैठा रह गया था कि दरवाजे पर लगी घंटी की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई. महरी आई थी. आते ही उस ने सूचना दी, “आज दोपहर तक दोनों बच्चे आ रहे हैं भइया.”

यह सुन कर रमण चैंक उठा, “तुम्हें किस ने बताया?”

अब रमण असहज होने लगा. उफ्फ, उन के आने से रम्या उस से दूर हो जाएगी, कैसे वह ध्यान कर पाएगा. उसे नहीं मिलना था किसी से.

“कांता बाई तुम ने क्या कहा है बच्चों से…?’’ रमण परेशान होने लगा था. कहीं दो प्लेटों वाली बात तो नहीं बता दी इस ने. उफ्फ…
सचमुच दोपहर तक दोनों बच्चे घर पहुंच गए. इस बार दोनों अकेले ही आए थे. आते ही दोनों पापा को घेर कर बैठ गए. एक पल को अकेले नहीं छोड़ रहे थे. रात होतेहोते रमण उकता गया. ये दोनों कितना बोल रहे हैं, रम्या की उपस्थिति महसूस न कर पाने की झल्लाहट उस पर हावी होने लगी.

सुबह नींद खुली तो देखा 9 बज रहे थे, इतनी देर कैसे सोते रह गया ?

रमण विचार कर ही रहा था कि कांता बाई और बेटे की बातचीत कानों में पड़ी. उसे समझते देर न लगी कि कल उसे नींद की दवा दे कर सुलाया गया था और अब किसी मनोचिकित्सक के यहां ले जाने की तैयारी हो रही है.

4 साल हो गए मम्मी को गए… पापा खुद में खोते जा रहे हैं… हमारे साथ रहना नहीं चाहते… कैसे अकेले छोड़ दें… अच्छा हुआ कि आप ने बता दिया…

शब्द कटकट कर पहुंच रहे थे. रमण ने दुखी मन से आंखें बंद कर लीं फिर से, रम्या की उपस्थिति का अनुभव अनिवार्य लग रहा था. क्यों नहीं भान हो रही उस की उपस्थिति? रमण परेशान होने लगा कि उसे सुनाई दी चूड़ियों की छनछन पर कहीं दूर से आंचल की सरसराहट का भी अनुभव हुआ, पर वह भी कहीं दूर से, बिलकुल वहीं से जहां बच्चे कांता बाई से बातें कर रहे थे.
“तो क्या रम्या अपने बच्चों के आसपास है?”

अचानक रम्या की खनकती सी मधुर आवाज उस के कानों तक आई…

उनींदापन अब तक हावी था कि फिर लगा कि कमरे के बाहर सचमुच रम्या ही धीमेधीमे बोल रही है कहीं, अचानक रमण को भान हुआ कि वह कैसा होता जा रहा है? बेटे के द्वारा मनोचिकित्सक के पास ले जाने वाली बात से वह गंभीर हो उठा. क्या सचमुच कुछ मानसिक विकार उत्पन्न होने लगे हैं उस में? इस तरह काल्पनिक दुनिया में जानबूझ कर जीना एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए ठीक नहीं, पर… पर…
अचानक उसे अनुभव हुआ कि वह कितना स्वार्थी हो गया है, बच्चों ने भी तो अपनी मां को खोया है, वे भी तो वैसे ही व्यथित होंगे जैसे वह, पर उन्हें तो दुनियादारी निभानी शेष ही है, नौकरी, घरगृहस्थी सब देखनी है. उस के जैसा अवकाशप्राप्त तो नहीं हैं.

रमण ने आंखें खोल दीं और बच्चों की तरफ बढ़ चला. रम्या की आवाज का आकर्षण भी उसे बाध्य कर रहा था कि कमरे से बाहर झांके.

रसोई के दरवाजे के पास महफिल सजी थी तीनों की और उस की ही चर्चा चल रही थी, सब परेशान थे.

“ओह, ये बेटी बोल रही है, उस की आवाज सचमुच अपनी मां की ही तरह है, दूर से तो ऐसा ही भान हो रहा था,” रमण को लग रहा था कि बिटिया बोलती रहे.

“पापा, आप उठ गए, नींद आई आप को?” बेटे ने उसे देखते ही लपक कर पूछा.

“हां बेटा, शायद महीनों, वर्षों बाद ऐसी नींद आई होगी,” कहतेकहते रमण का ध्यान बेटे की नाक और होंठों की तरफ अटक गया, हूबहू रम्या की ही तरह तीखी नाक और पतले होंठ. शायद माथा भी और ठुड्डी भी, आज वह अलग नजर से बच्चों को घूर रहा था. बिलकुल अपनी मम्मी की ही तरह बेटी ने कलाई को हिलाया कि उस की चूड़ियां बज गईं.

“ओह, वाकई रम्या तो यहीं अपने कोखजायों में मौजूद है, उस की हाड़मांस से निर्मित उस के ही अंश हैं. मैं बेकार आंखे बंद कर दुनिया से छिप रम्या को खोज रहा था,“ रमण को अचानक मानो बोध हुआ. वह नई निगाह से बच्चों को फिर से देखने लगा और हर कोण में कहीं न कहीं रम्या झलकती रही.

“आज देर तक सोता रह गया, पर जब जागो तभी सवेरा,” कहता रमण अपनी दिनचर्या शुरू करने की कोशिश करने लगा.

इतना बहुत है : पत्नी की खुशी क्यों उदासी में बदल गई ?

घर के कामों से फारिग होने के बाद आराम से बैठ कर मैं ने नई पत्रिका के कुछ पन्ने ही पलटे थे कि मन सुखद आश्चर्य से पुलकित हो उठा. दरअसल, मेरी कहानी छपी थी. अब तक मेरी कई कहानियां  छप चुकी थीं, लेकिन आज भी पत्रिका में अपना नाम और कहानी देख कर मन उतना ही खुश होता है जितना पहली  रचना के छपने पर हुआ था.

अपने हाथ से लिखी, जानीपहचानी रचना को किसी पत्रिका में छपी हुई पढ़ने में क्या और कैसा अकथनीय सुख मिलता है, समझा नहीं पाऊंगी. हमेशा की तरह मेरा मन हुआ कि मेरे पति आलोक, औफिस से आ कर इसे पढ़ें और अपनी राय दें. घर से बाहर बहुत से लोग मेरी रचनाओं की तारीफ करते नहीं थकते, लेकिन मेरा मन और कान तो अपने जीवन के सब से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और रिश्ते के मुंह से तारीफ सुनने के लिए तरसते हैं.

पर आलोक को साहित्य में रुचि नहीं है. शुरू में कई बार मेरे आग्रह करने पर उन्होंने कभी कोई रचना पढ़ी भी है तो राय इतनी बचकानी दी कि मैं मन ही मन बहुत आहत हो कर झुंझलाई थी, मन हुआ था कि उन के हाथ से रचना छीन लूं और कहूं, ‘तुम रहने ही दो, साहित्य पढ़ना और समझना तुम्हारे वश के बाहर की बात है.’

यह जीवन की एक विडंबना ही तो है कि कभीकभी जो बात अपने नहीं समझ पाते, पराए लोग उसी बात को कितनी आसानी से समझ लेते हैं. मेरा साहित्यप्रेमी मन आलोक की इस साहित्य की समझ पर जबतब आहत होता रहा है और अब मैं इस विषय पर उन से कोई आशा नहीं रखती.

कौन्वैंट में पढ़ेलिखे मेरे युवा बच्चे तनु और राहुल की भी सोच कुछ अलग ही है. पर हां, तनु ने हमेशा मेरे लेखन को प्रोत्साहित किया है. कई बार उस ने कहानियां लिखने का आइडिया भी दिया है. शुरूशुरू में तनु मेरा लिखा पढ़ा करती थी पर अब व्यस्त है. राहुल का साफसाफ कहना है, ‘मौम, आप की हिंदी मुझे ज्यादा समझ नहीं आती. मुझे हिंदी पढ़ने में ज्यादा समय लगता है.’ मैं कहती हूं, ‘ठीक है, कोई बात नहीं,’ पर दिल में कुछ तो चुभता ही है न.

10 साल हो गए हैं लिखते हुए. कोरियर से आई, टेबल पर रखी हुई पत्रिका को देख कर ज्यादा से ज्यादा कभी कोई आतेजाते नजर डाल कर बस इतना ही पूछ लेता है, ‘कुछ छपा है क्या?’ मैं ‘हां’ में सिर हिलाती हूं. ‘गुड’ कह कर बात वहीं खत्म हो जाती है. आलोक को रुचि नहीं है, बच्चों को हिंदी मुश्किल लगती है. मैं किस मन से वह पत्रिका अपने बुकश्ैल्फ  में रखती हूं, किसे बताऊं. हर बार सोचती हूं उम्मीदें इंसान को दुखी ही तो करती हैं लेकिन अपनों की प्रतिक्रिया पर उदास होने का सिलसिला जारी है.

मैं ने पत्रिका पढ़ कर रखी ही थी कि याद आया, परसों मेरा जन्मदिन है. मैं हैरान हुई जब दिल में जरा भी उत्साह महसूस नहीं हुआ. ऐसा क्यों हुआ, मैं तो अपने जन्मदिन पर बच्चों की तरह खुश होती रहती हूं. अपने विचारों में डूबतीउतरती मैं फिर दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गई. जन्मदिन भी आ गया और दिन इस बार रविवार ही था. सुबह तीनों ने मुझे बधाई दी. गिफ्ट्स दिए. फिर हम लंच करने बाहर गए. 3 बजे के करीब हम घर वापस आए. मैं जैसे ही कपड़े बदलने लगी, आलोक ने कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो, अभी चेंज मत करो.’’

‘‘थोड़ा लेटने का मन है, शाम को फिर बदल लूंगी.’’

‘‘नहीं मौम, आज नो रैस्ट,’’ तनु और राहुल भी शुरू हो गए.

मैं ने कहा, ‘‘अच्छा ठीक है, फिर कौफी बना लेती हूं.’’

तनु ने फौरन कहा, ‘‘अभी तो लंच किया है मौम, थोड़ी देर बाद पीना.’’

मैं हैरान हुई. पर चुप रही. तनु और राहुल थोड़ा बिखरा हुआ घर ठीक करने लगे. मैं और हैरान हुई, पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’ कोई कुछ नहीं बोला. फिर दरवाजे की घंटी बजी तो राहुल ने कहा, ‘‘मौम, हम देख लेंगे, आप बैडरूम में जाओ प्लीज.’’

अब, मैं सरप्राइज का कुछ अंदाजा लगाते हुए बैडरूम में चली गई. आलोक आ कर कहने लगे, ‘‘अब इस रूम से तभी निकलना जब बच्चे आवाज दें.’’

मैं ‘अच्छा’ कह कर चुपचाप तकिए का सहारा ले कर अधलेटी सी अंदाजे लगाती रही. थोड़ीथोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजती रही. बाहर से कोई आवाज नहीं आ रही थी. 4 बजे बच्चों ने आवाज दी, ‘‘मौम, बाहर आ जाओ.’’

मैं ड्राइंगरूम में पहुंची. मेरी घनिष्ठ सहेलियां नीरा, मंजू, नेहा, प्रीति और अनीता सजीधजी चुपचाप सोफे पर बैठी मुसकरा रही थीं. सभी ने मुझे गले लगाते हुए बधाई दी. उन से गले मिलते हुए मेरी नजर डाइनिंग टेबल पर ट्रे में सजे नाश्ते की प्लेटों पर भी पड़ी.

‘‘अच्छा सरप्राइज है,’’ मेरे यह कहने पर तनु ने कहा, ‘‘मौम, सरप्राइज तो यह है’’ और मेरा चेहरा सैंटर टेबल पर रखे हुए केक की तरफ किया और अब तक के अपने जीवन के सब से खूबसूरत उपहार को देख कर मिश्रित भाव लिए मेरी आंखों से आंसू झरझर बहते चले गए. मेरे मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकली. भावनाओं के अतिरेक से मेरा गला रुंध गया. मैं तनु के गले लग कर खुशी के मारे रो पड़ी.

केक पर एक तरफ 10 साल पहले छपी मेरी पहली कहानी और दूसरी तरफ लेटेस्ट कहानी का प्रिंट वाला फौंडेंट था, बीच में डायरी और पैन का फौंडेंट था. कहानी के शीर्षक और पन्ने में छपे अक्षर इतने स्पष्ट थे कि आंखें केक से हट ही नहीं रही थीं. मैं सुधबुध खो कर केक निहारने में व्यस्त थी. मेरी सहेलियां मेरे परिवार के इस भावपूर्ण उपहार को देख कर वाहवाह कर उठीं. प्रीति ने कहा भी, ‘‘कितनी मेहनत से तैयार करवाया है आप लोगों ने यह केक, मेरी फैमिली तो कभी यह सब सोच भी नहीं सकती.’’ सब ने खुलेदिल से तारीफ की, और केक कैसे, कहां बना, पूछती रहीं. फूडफूड चैनल के एक स्टार शैफ को और्डर दिया गया था.

मैं भर्राए गले से बोली, ‘‘यह मेरे जीवन का सब से खूबसूरत गिफ्ट है.’’  अनीता ने कहा, ‘‘अब आंसू पोंछो और केक काटो.’’

‘‘इस केक को काटने का तो मन ही नहीं हो रहा है, कैसे काटूं?’’

नीरा ने कहा, ‘‘रुको, पहले इस केक की फोटो ले लूं. घर में सब को दिखाना है. क्या पता मेरे बच्चे भी कुछ ऐसा आइडिया सोच लें.’’

सब हंसने लगे, जितनी फोटो केक की खींची गईं, उन से आधी ही लोगों की नहीं खींची गईं.

केक काट कर सब को खिलाते हुए मेरे मन में तो यही चल रहा था, कितना मुश्किल रहा होगा मेरी अलमारी से पहली और लेटेस्ट कहानी ढूंढ़ना? इस का मतलब तीनों को पता था कि सब से बाद में कौन सी पत्रिका आई थी. और पहली कहानी का नाम भी याद था. मेरे लिए तो यही बहुत बड़ी बात थी.

मैं क्यों कुछ दिनों से उलझीउलझी थी, अपराधबोध सा भर गया मेरे मन में. आज अपने पति और बच्चों का यह प्रयास मेरे दिल को छू गया था. क्या हुआ अगर घर में कोई मेरे शब्दों, कहानियों को नहीं समझ पाता पर तीनों मुझे प्यार तो करते हैं न. आज उन के इस उपहार की उष्मा ने मेरे मन में कई दिनों से छाई उदासी को दूर कर दिया था. तीनों मुझे समझते हैं, प्यार करते हैं, यही प्यारभरी सचाई है और मेरे लिए इतना बहुत है.

शादी तभी करें जब आप हो इसके लिए तैयार, नहीं तो हो सकती है कई समस्याएं

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में परिवार वालों ने एक समलैंगिक युवक का दहेज के लालच में एक महिला से शादी करवा दी. बाद में लड़के ने स्वीकारा कि वह गे है और उसे लड़कियों में दिलचस्पी नहीं. महिला ने अपने घरवालों को इस की जानकारी दी. उस के बाद ससुराल वालों ने महिला के साथ मारपीट की. तब पीड़ित महिला ने 5 लोगों के साथ दहेज उत्पीड़न के अलावा अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज कराया.

इस 12 फरवरी को महिला ने पुलिस को शिकायतीपत्र लिख कर बताया कि 29 मई, 2021 को सुरेंद्र कुमार जायसवाल के बेटे मनीष कुमार जायसवाल के साथ उस की शादी कराई गई. महिला के पिता ने शादी में दान, दहेज और अन्य खर्चों के साथ कुल 34 लाख रुपए नकद खर्च किए थे. लेकिन जब बहू ससुराल आई तो उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं हुआ.

साथ ही, पति उसे दांपत्य सुख देने में असमर्थ रहा. उसे एहसास होने लगा कि पति समलैंगिक है या शादी के पहले से शारीरिक, मानसिक बीमारी से ग्रसित है. महिला ने अपने पति मनीष से बात की तो मनीष ने रोते हुए कहा कि मैं ने तुम्हें धोखा दिया है, तुम मुझे तलाक दे दो. मैं ने अपने परिवार और चाचा के दबाव में तुम से शादी की है. मनीष ने अपनी सचाई का खुलासा करते हुए कहा कि वह समलैंगिक हैं. यह सुन कर महिला हैरान रह गई.

जब उस ने यह बात अपने परिजनों को बताने को कहा तो उपरोक्त ससुराल वालों ने महिला के साथ गालीगलौज की और बेल्ट से पिटाई की. जिस के बाद महिला अपने भाई के साथ अपने मायके लौट आई. पुलिस ने महिला की शिकायत पर उस के पति, सास, ससुर, देवर और अन्य मायके वालों समेत 5 लोगों के खिलाफ केस दर्ज कर मामले की जांच शुरू कर दी.

अकसर लोग परिवार में किसी का मन रखने के लिए या किसी पारिवारिक स्थिति के दबाव में आ कर शादी के लिए हां बोल देते हैं. लेकिन शादी कोई मजाक नहीं है. शादी इंसान के जीवन का बहुत बड़ा फैसला होता है. इस के बाद जिंदगी मनमाने ढंग से जीने वाली नहीं रह जाती. जिम्मेदारियों का बोझ उठाना पड़ता है. लेकिन कुछ लोग इस बात को समझे बगैर परिवार के दबाव में आ कर शादी के लिए हां बोल देते हैं. ऐसे में शादी के शुरुआती दिन तो अच्छे लगते हैं लेकिन बाद में यह रिश्ता जबरन ढोने वाली मजबूरी बन कर रह जाता है.

ऐसे रिश्ते में न प्यार रहता है और न ही आपसी समझ. इसलिए जब भी आप के घर में आप की शादी की बात चले तो सिर्फ परिवार की मरजी के लिए हां न बोलें. इस शादी में आप को ख़ुशी मिल रही है या नहीं और आप अपने पार्टनर को ख़ुशी दे पाएंगे या नहीं, इस पर विचार जरूर कर लें. चूंकि शादी के बाद निभाना आप को और आप के पार्टनर को है, इसलिए शादी से पहले खुद से कुछ जरूरी सवाल करें, उस के बाद ही कोई फैसला करें.

सब से पहला सवाल है कि आप को अभी शादी क्यों करनी चाहिए ?

इस सवाल का जवाब पूरी ईमानदारी से ढूंढने का प्रयास कीजिए. शादी के बाद आप पार्टनर की जिंदगी का हिस्सा बन जाएंगे. आप को अपने साथ ही पार्टनर की खुशियों का भी खयाल रखना होगा. यही नहीं, शादी करने के बाद आप की इंडिपेंडैंट लाइफ की फ्रीडम खो जाती है. अपने साथी और घर की जिम्मेदारियां उठाने के अलावा आप को कुछ कम्प्रोमाइज भी करने पड़ते हैं. खुद से पूछें कि क्या इन सभी स्थितियों के लिए आप पूरी तरह तैयार हैं? कहीं यह शादी आप किसी मजबूरी में तो नहीं कर रहे?

आप के पार्टनर आप की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा ?

हर व्यक्ति की अपने पार्टनर को ले कर कुछ उम्मीदें होती हैं. ऐसे में जिस लड़की या लड़के से आप के परिवार वाले आप की शादी कराना चाहते हैं, क्या वह पार्टनर बनने के बाद आप की उम्मीदों पर खरा उतर पाएगा. इस बारे में अच्छे से सोच लें और जिस से आप की बात चल रही है, उस से बातें कर के परख लें. अब वह जमाना नहीं है जब लड़कियां एकतरफा समझौता कर के सबकुछ सह लेती थीं. आप का पार्टनर कहां रहना चाहता है, जौब या बिजनैस क्या करना चाहता है, उसे क्या पसंद है और क्या नहीं वगैरह की जानकारी लें. सामने वाले की उम्मीदों को आप किस हद तक पूरा करने में सक्षम हैं, इस के बारे में भी एक बार जरूर सोचें. जरूरत महसूस हो तो उस से दोचार बार मिलें और तसल्ली करें कि आप इस शादी को निभा पाएंगे.

फैमिली प्लानिंग के लिए कितने तैयार हैं आप ?

शादी का फैसला लेने के साथ ही आप को इस बारे में भी जरूर सोचना चाहिए क्योंकि शादी होते ही कुछ समय बाद परिवार के लोगों में बच्चे को ले कर बातें शुरू हो जाती हैं. आप एक या दो साल इन बातों को टाल सकते हैं लेकिन इस के बाद आप को भी फैमिली प्लानिंग करनी ही होगी. बच्चा आ जाने के बाद जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ जाती हैं. इन सब के लिए आप किस हद तक तैयार हैं.

जब बात लव मैरिज की हो

भले ही आप अपने साथी के साथ कई वर्षों से रह रहे हों और अपने पार्टनर से बेहद प्यार करती हों लेकिन शादी का डिसिजन वास्तव में एक बड़ा फैसला है. याद रखें, शादी दो दिन की खुशियां नहीं है बल्कि यह जीवनभर का साथ और कमिटमैंट है. आप आज किसी से मिले, कल आप को प्यार हुआ और चंद दिनों में ही आप ने शादी का फैसला कर लिया. यह सबकुछ फिल्मों में देखने या दिल में सोचने में भले ही अच्छा लगता हो लेकिन वास्तविक जीवन इस से काफी अलग होता है. रिश्ते बेहद कोमल और नाजुक पौधे के समान होते हैं जिन्हें बढ़ने में समय लगता है और अगर इन की सही तरह से देखरेख न की जाए तो ये सूख जाते हैं. अगर आप जल्दबाजी में फैसला कर लेती हैं तो हो सकता है कि आप को बाद में पछताना पड़े.

वैसे भी, जब बात शादी की आती है तो मन में कई तरह के संशय होते हैं. जब तक आप के मन के सभी संशय दूर न हो जाएं तब तक आप कदम न बढ़ाएं. इस के लिए आप दोनों साथ मिलबैठ कर बात कर सकते हैं और अपने फ्यूचर प्लान के बारे में डिस्कस कर सकते हैं.
शादी करने के लिए आप दोनों का एकदूसरे को जानना व विश्वास करना बेहद जरूरी है. शादी तब करें जब यह यकीन हो जाए कि आप उन के अतीत से ले कर उन के सपनों के बारे में जानते हैं, साथ ही, उन पर भरोसा कर सकते हैं. शादी के लिए भरोसा बहुत ज़रूरी है.

इन बातों के लिए भी तैयार रहें-

कमिटमैंट और जिम्मेदारियों के लिए तैयार रहें

रिलेशनशिप एक्सपर्ट पौलेट शर्मन के अनुसार, कमिटमैंट एक क्रूशियल स्किल है जो शादी में किसी और के साथ जुड़ने से पहले होनी चाहिए. सब से पहले आप को उस व्यक्ति के बारे में आश्वस्त होना चाहिए जिस से आप शादी कर रहे हैं और उस के साथ कमिटेड होने का निर्णय लेना चाहिए क्योंकि शादी में हमेशा कठिन समय आता है. एकदूसरे के प्रति कमिटेड होने का मतलब है कि आप दोनों एकसाथ कठिन रास्तों से गुजरने के लिए तैयार हैं. कमिटमैंट आप को धैर्य और अनुशासन जैसे अन्य गुणों को विकसित करने में मदद करता है जो रिश्ते में महत्त्वपूर्ण हैं.

अपने साथी के परिवार से भी प्यार जरूरी

जब आप किसी व्यक्ति से विवाह करते हैं तो आप उन के परिवार के साथ विवाह कर रहे होते हैं. विवाह उतना ही परिवारों के बीच का मिलन है जितना व्यक्तियों के बीच. एक परिवार को पुत्र प्राप्त होता है और दूसरे को पुत्री प्राप्त होती है. यानी, आप किसी व्यक्ति से उस के परिवार के फायदों, दायित्वों और तनावों आदि के साथ भी विवाह कर रहे हैं. आप को अपने नए परिवार के सदस्यों के साथ मिलनाजुलना सीखना चाहिए. शादी से पहले यह आसान हो सकता है लेकिन उस के बाद यह पहले जैसा नहीं हो सकता. कभीकभी आप को अपने साथी के परिवार के लिए वैसे ही समझौता करना पड़ सकता है जैसे आप अपने साथी के लिए करते हैं. यदि आप अपने साथी के परिवार के साथ अच्छा व्यवहार करना नहीं सीखते हैं तो इस से विवाह संबंध निभाने में मुश्किलें आ सकती हैं और यह रिश्ता टूट भी सकता है.

सुनिश्चित करें कि आप की उम्मीदें व्यावहारिक हैं

आप अपने साथी से कितना भी प्यार करते हैं या उन्हें अपना आदर्श मानते हों पर यह याद रखें कि कोई भी इंसान पूर्ण नहीं होता. इसलिए शादी करने से पहले खुद को टटोलें कि आप कहीं उन से जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं तो नहीं रखने वाले? यह भी समझें कि ऐसे समय भी आएंगे जब वे इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाएंगे और तब भी आप को उन के साथ खड़ा रहना होगा उसी प्यार और विश्वास के साथ.

मैं की जगह हम बनने को तैयार रहें

शादी के बाद आप एकदूसरे के जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, इसलिए आप का जीवन अब आप में से प्रत्येक के बारे में नहीं, बल्कि आप दोनों के बारे में है. अब आप अपना जीवन केवल अपने लिए नहीं जिएंगे बल्कि पार्टनर के लिए भी जिएंगे. इसलिए जो फैसले आप शादी से पहले आवेश में आ कर लेते थे उन्हें अब अपने साथी को ध्यान में रखते हुए अधिक सोचसमझ कर लेना होगा. निर्णय लेने से पहले आप को उन से परामर्श करना होगा.

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