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‘दिल्ली चलो’ नारे के साथ किसानों का दिल्ली कूच, चौतरफा घिरी केंद्र सरकार

देशभर के किसानों ने अपनी मांगों को ले कर एक बार फिर केंद्र सरकार को घेर लिया है. किसानों के ‘दिल्ली चलो’ मार्च को करीब 200 से अधिक संगठनों का समर्थन प्राप्त है. न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी को ले कर कानून बनाने समेत विभिन्न मांगों के लिए पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों ने राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन की पूरी तैयारी कर ली है.

इस के अलावा भी किसानों की अनेक मांगें हैं, जिन के लिए वे सालों से संघर्षरत हैं. किसान लखीमपुर खीरी हिंसा के पीड़ितों को न्याय दिलाने की मांग कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में 8 लोगों की जानें गई थीं जिन में 4 किसान थे. इस में सीधेसीधे आरोप भाजपा नेता व केंद्रीय मंत्री अजय कुमार मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा पर लगा था.

किसानों की मांग है कि भारत को डब्ल्यूटीओ से बाहर निकाला जाए. किसान चाहते हैं कि कृषि वस्तुओं, दूध उत्पादों, फलों, सब्जियों और मांस पर आयात शुल्क कम करने के लिए भत्ता बढ़ाया जाए. किसानों की यह भी मांग है कि किसानों और 58 साल से अधिक आयु के कृषि मजदूरों के लिए पैंशन योजना लागू कर के 10 हजार रुपए प्रतिमाह पैंशन दी जाए.

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में सुधार के लिए सरकार की ओर से स्वयं बीमा प्रीमियम का भुगतान करना, सभी फसलों को योजना का हिस्सा बनाना और नुकसान का आंकलन करते समय खेत के एकड़ को एक इकाई के रूप में मान कर नुकसान का आकलन करना भी उन की मांगों में शामिल हैं.

किसान नेताओं का कहना है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को उसी तरीके से लागू किया जाना चाहिए और भूमि अधिग्रहण के संबंध में केंद्र सरकार की ओर से राज्यों को दिए गए निर्देशों को रद्द किया जाना चाहिए. इस के अलावा कीटनाशक, बीज और उर्वरक अधिनियम में संशोधन कर के कपास सहित सभी फसलों के बीजों की गुणवत्ता में सुधार किया जाए.

सरकार ने नहीं की मांग पूरी

2 वर्षों पहले दिल्ली के बौर्डर पर धरने पर बैठे किसानों का आंदोलन इतना मुखर था कि नरेंद्र मोदी सरकार को 3 कृषि कानूनों- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून 2020, कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून 2020 और आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020 को रद्द करना पड़ा था.

किसानों को डर था कि सरकार इन कानूनों के जरिए पूंजीपतियों की घुसपैठ कृषि क्षेत्र में बढ़ा देगी और कुछ चुनिंदा फसलों पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के नियम खत्म कर सकती है. इस के बाद उन्हें बड़ी एग्री-कमोडिटी कंपनियों का मुहताज होना पड़ेगा.

उस दौरान एक मांग स्वामीनाथन आयोग को लागू किए जाने को ले कर भी थी. मोदी सरकार ने उस दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू करने का वादा भी किया था, जो सिर्फ चर्चाओं तक ही सिमट गया.

इस मसले पर किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय की अगुआई में कमेटी बनाई गई थी. इन मंत्रियों की किसानों के साथ हाल ही में 2 बार (8 फरवरी और 12 फरवरी) बातचीत हुई, जो बेनतीजा रही. इस के बाद ही किसान संगठनों ने यह फैसला लिया कि 13 फरवरी को वे दिल्ली कूच करेंगे.

किसानों का कूच

विभिन्न किसान संगठनों के दिल्ली कूच करने के आह्वान के बाद किसानों ने दिल्ली की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया, जिस में बड़ी संख्या में युवा भी हैं. किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए बौर्डर पर खतरनाक कील-कांटे बिछाए जा गए हैं.

हरियाणा-पंजाब के शंभू बौर्डर पर पुलिस और किसानों के बीच संग्राम शुरू हो गया है. पुलिस ने ड्रोन के जरिए किसानों पर आंसू गैस के गोले छोड़े हैं. किसान वहीं डटे हुए हैं. इस विरोध प्रदर्शन के लिए यूपी के साथ ही हरियाणा और पंजाब के किसान भी दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं. बड़ी संख्या में किसान सड़क का मार्ग छोड़ कर खेतों के रास्ते निकल पड़े हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक किसानों ने अंबाला-शंभू, खनौरी-जींद और डबवाली बौर्डर्स से दिल्ली में दाखिल होने की योजना बना रखी है. हरियाणा सरकार ने सीमाओं पर सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए हैं. 15 जिलों में धारा 144 लागू कर दी गई है. गाजीपुर, सिंघु और टिकरी में भी पुलिस बल तैनात हैं.

किसानों के प्रदर्शन के बीच किसान नेता सरवन सिंह पंढेर का बयान आया है. उन्होंने कहा है कि वे नहीं चाहते हैं कि किसी तरह की अव्यवस्था हो. उन्होंने कहा कि किसान संगठन सरकार के साथ टकराव से बचना चाहते हैं और कुछ हासिल हो, इसी आशा व भरोसे की वजह से ही मीटिंग में बातचीत कर रहे हैं.

उन्होंने कहा कि हरियाणा के हर गांव में पुलिस भेजी जा रही है. ऐसा लग रहा है कि पंजाब और हरियाणा भारत के राज्य नहीं हैं, बल्कि इंटरनैशनल बौर्डर बन गए हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर सरकार बुलाना चाहेगी तो वे बातचीत के लिए तैयार हैं.

दिल्ली कूच करने के आह्वान में इस बार भारतीय किसान यूनियन शामिल नहीं है और औल इंडिया किसान सभा ने भी किसानों के आंदोलन से फिलहाल दूरी बनाई हुई है, जबकि संयुक्त किसान मोरचा के बैनर तले 16 फरवरी को राष्ट्रव्यापी भारत बंद का आह्वान किया गया है, जिस में तमाम किसान और मजदूर पूरे दिन हड़ताल पर रहेंगे और काम बंद करेंगे.

दोपहर 12 बजे से ले कर शाम 4 बजे तक देश के सभी राष्ट्रीय राजमार्गों का घेराव किया जाएगा और हाईवे बंद किए जाएंगे. भाकियू नेता राकेश टिकैत ने कहा, “क्या पाकिस्तान के बौर्डर पर कीलकांटे लगे हैं, दीवारें खड़ी हैं, यह तो अन्याय है. अगर इस तरह अत्याचार होंगे तो हम भी आ रहे हैं. न हम किसान से दूर हैं, न दिल्ली से.”

भाकियू नेता राकेश टिकैत ने आगे कहा, “हम आंदोलन का हिस्सा अभी तक तो नहीं हैं. मगर इस का मतलब नहीं है कि हम किसानों के आंदोलन को समर्थन नहीं दे रहे.”

उन्होंने कहा कि चंडीगढ़ में किसान नेताओं और सरकार के मंत्रियों के बीच सहमति नहीं बन पाई क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य देने पर सरकार सहमत नहीं हो रही है और मामले को लटकाए रख रही है. टिकैत का कहना है कि किसानों के पिछले आंदोलन को समाप्त हुए 13 महीने बीत गए हैं लेकिन न तो आंदोलन कर रहे किसानों पर से आपराधिक मामले वापस लिए गए हैं और न ही उन्हें अपनी फसलों का सही मूल्य ही मिल पा रहा है.

उन्होंने कहा, “स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने में अभी भी आनाकानी चल रही है जिस की वजह से पूरे देश के किसान नुकसान उठा रहे हैं. इस आंदोलन में हम शामिल नहीं थे, लेकिन नाइंसाफी हुई, तो हम भी आंदोलन में कूदने पर मजबूर हो जाएंगे.”

2 चेहरे कर रहे किसान आंदोलन को लीड

किसान आंदोलन का जिक्र जब भी होता है तो दिमाग में सब से पहला नाम राकेश टिकैत का आता है. राकेश टिकैत 2020 में हुए किसान आंदोलन के बड़े चेहरे थे. कृषि कानूनों के विरोध में शुरू हुए उस आंदोलन का नेतृत्व करने वाले राकेश टिकैत इस बार शुरू हुए किसानों के आंदोलन का नेतृत्व नहीं कर रहे हैं. इस बार 2 नए चेहरे इस आंदोलन को लीड कर रहे हैं. इन में एक नाम पंजाब किसान नेता सरवन सिंह पंढेर का है, जिन के नेतृत्व में पंजाब से हजारों किसान दिल्ली कूच कर रहे हैं. वहीं दूसरा नाम जगजीत सिंह डल्लेवाल का है जो इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं.

क्या आप भी अपने बच्चे को साथ सुलाते हैं, तो भुगतने पड़ सकते हैं ये नुकसान

Should Children Sleep With Parents : बच्चों का माता-पिता के साथ सोना सही है या गलत, यह मत अलग-अलग देशों में भिन्न-भिन्न हैं. इसे लेकर सभी के अपने तर्क भी हैं. हालांकि भारत में माता-पिता के साथ बच्चों का सोना बहुत ही आम बात है. बच्चे को अपने साथ सुलाना, दुलार भरा स्पर्श, ढेर सारी बातें, भावनाओं का आदान प्रदान अक्सर माता-पिता इसी दौरान करते हैं. माना जाता है कि ऐसा करना बच्चों के समग्र स्वास्थ्य के लिए बेहतर रहता है. लेकिन बच्चों की परवरिश का यह महत्वपूर्ण हिस्सा क्या वाकई उतना अच्छा है, जितना समझा जाता है. क्या इसके भी कोई नुकसान है, चलिए जानते हैं.

मजबूत होता है रिश्ता

माता-पिता के साथ बच्चे सबसे ज्यादा सुरक्षित और रिलेक्स महसूस करते हैं. ऐसे में जब वे पेरेंट्स के साथ सोते हैं तो उनके बीच एक मजबूत भावनात्मक संबंध बनता है. यह बच्चे को न सिर्फ रिश्ते और परिवार की अहमित बताता है. बल्कि उन्हें संयुक्त रहने की प्रेरणा भी देता है. माता-पिता के पास होने के एहसास से बच्चे अच्छी और गहरी नींद ले पाते हैं. यही कारण है भारत सहित कई देशों की संस्कृति में इस पैटर्न को अपनाया गया है.

कई जोखिमों से दूर रहता है बच्चा

बच्चा जब माता-पिता के साथ सोता है तो वह कई जोखिमों से बचा रहता है. माता-पिता बच्चे की सेहत को लेकर अधिक सजग रह पाते हैं, ऐसे में सांस लेने में तकलीफ, खांसी-जुकाम या फिर बेचैनी आदि का पता उन्हें आसानी से लग पाता है. पेरेंट्स तुरंत बच्चे की मदद कर पाते हैं, जिससे इंफेंट डेथ सिंड्रोम का जोखिम कम होता है.

माता-पिता की नींद में खलल

बच्चों का माता-पिता के साथ सोना भले ही उन्हें सुरक्षित माहौल देता है, लेकिन कई बार पेरेंट्स के लिए यह परेशानी का कारण बन सकता है. जब बच्चा साथ में सोता है तो कई बार पेरेंट्स की नींद में बाधा उत्पन्न होती है. बार-बार बच्चे को चेक करना, उन्हें ठीक तरीके से सुलाना, उन्हें सोने की पर्याप्त जगह देने के कारण पेरेंट्स की नींद रात में कई बार टूटती है. इससे उनकी नींद खराब होती है. कई बार इसके कारण दिनभर थकान भी महसूस होती है.

बच्चा नहीं बन पाता आत्मनिर्भर

आपने देखा होगा कि अक्सर बच्चे किसी दूसरे के घर में माता-पिता के बिना सो नहीं पाते. खासतौर पर रात में यह समस्या आती है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चा सोने के लिए पेरेंट्स पर निर्भर हो जाता है. उसे माता-पिता के साथ ही सुरक्षित और आरामदायक महसूस होता है. इसलिए समय-समय सोने का स्थान बदलते रहें. बच्चे को साथ में सोने के साथ अकेले सोने की भी आदत डालें. हालांकि कुछ शोध के अनुसार जो बच्चे पेरेंट्स के साथ सोते हैं वे अधिक व्यवहार कुशल होते हैं. वे ज्यादा पॉजिटिव होते हैं और उनमें मनोविकार भी कम होते हैं. उन्हें इस बात का कॉन्फिडेंस होता है कि उनके माता-पिता उनके साथ हैं.

इस उम्र तक बच्चों को साथ सुलाएं

अब सवाल यह है कि आखिर माता-पिता को किस उम्र तक बच्चे को साथ सुलाना चाहिए. दरअसल, यह बात पेरेंट्स और बच्चे के अनुसार तय की जा सकती है. हालांकि सात से आठ साल की उम्र से आपको बच्चे को अलग सुलाने का कदम उठा लेना चाहिए. ऐसा करने से बच्चे जल्दी आत्मनिर्भर बनेंगे. बच्चों को हमेशा अपने पास वाला कमरा ही दें, जिससे उन्हें आपके नजदीक होने का एहसास रहे.

कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी

ये बात सही है कि माता-पिता और बच्चों का साथ सोना उनके संबंध को मजबूत करता है. लेकिन फिर भी पेरेंट्स को हमेशा कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए. अगर बच्चा ज्यादा छोटा है तो अधिक सावधान रखने की जरूरत है, जिससे बच्चे का दम न घुटे और वह चोट से बचा रहे. ध्यान रखें कि गद्दा बहुत ज्यादा सख्त न हो, बिस्तर पर आरामदायक बैडशीट बिछाएं, बैड पर ज्यादा बिस्तर न रखें, बैड या उसके आस-पास ऐसी चीजें न रखें, जिससे बच्चे को नुकसान हो.

मेरे पति बहुत शक्की स्वभाव के हैं, मैं उनकी इस आदत को कैसे छुड़ाऊं ?

सवाल

मैं 32 वर्षीय विवाहित महिला हूं. विवाह को 5 वर्ष हो चुके हैं. मेरे पति के साथ एक समस्या है कि वे बहुत शक्की स्वभाव के हैं. मैं किसी भी पुरुष से बात करूं, फिर चाहे वह सेल्सबौय ही क्यों न हो तो वे मुझ से लड़नेझगड़ने लगते हैं. किसी से फोन पर भी बात करूं तो पूछते हैं किस का फोन था, क्या बात हुई. मैं अपने पति से बहुत प्यार करती हूं लेकिन उन का मेरे प्रति यह रवैया मुझे दुखी कर देता है. मैं ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की है कि मैं उन के अलावा और किसी को नहीं चाहती लेकिन उन की शक कर ने की आदत मुझे परेशान करती है.

जवाब

देखिए, शक का कोई इलाज नहीं होता. आप के पति के साथ भी ऐसा ही है. सामान्यतया शक वही लोग करते हैं जिन्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता और वे दूसरों से खुद को कमतर समझते हैं. आप अपने पति के गुणों की तारीफ करें और जताएं कि वे संपूर्ण हैं और उन के अलावा आप किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकतीं. आप का यह व्यवहार धीरेधीरे उन के शक्की स्वभाव को बदल देगा.

 

जेनिटल हर्पीज संक्रमण हो सकता है खतरनाक, इसलिए जानें बचाव के उपाय

Genital Herpes Treatment : हम ज्यादा नैतिकता की बात नहीं करेंगे पर बीमारियां तो कहीं भी सिर उठा कर घुस सकती हैं और इन में से एक जेनिटल हर्पीज जननिक जुलपिती वायरस के कारण होती है. चिकित्सा विज्ञान में इस बीमारी को हार्पी प्रोजेनिटलाइज (जननिक जुलपिती) के नाम से जाना जाता है.

यह रोग किसी संक्रमित रोगी के साथ यौन संपर्क करने से फैलता है. इस रोग का वायरस त्वचा में प्रवेश कर नजदीक के स्नायु तक पहुंच जाता है. यह कोविड जैसा तो नहीं, पर हर वायरस कुछ न कुछ डराता है. यह चूंकि यौन संबंध से होता है, इसलिए इसे छिपाया जाता है.

हर्पीज वायरस के शरीर में प्रवेश करने के कुछ सप्ताह बाद रोगी के जननांगों पर बारीकबारीक फुंसियां निकलने लगती हैं. इन फुंसियों में धीरेधीरे तरल भरने लगता है और ददोरे होने लगते हैं.

इन रोगियों में पिन के आकार की सख्त जगह बन जाना आम बात है. मूत्र त्यागते समय जलन होने लगती है, बुखार, जोड़ों में दर्द तथा अरुमूल में पीड़ादायक सूजन आ जाती है. इसे ‘प्राथमिक संक्रमण’ के नाम से जाना जाता है और यह स्थिति 10-20 दिनों तक बनी रह सकती है.

अगर रोगी अपनी चिकित्सा न कराए, तो इन दरोरों में जीवाणुओं द्वारा संक्रमण हो सकता है और इन में मवाद पड़ जाता है.

महिलाओं में तो प्राथमिक संक्रमण भी बड़ा ही पीड़ादायक हो सकता है, उन के लिए चलना भी मुश्किल हो जाता है.

जेनिटल हार्पीज का दोबारा होना कोई अपवाद नहीं है. इस का होना तो आम बात है. प्राथमिक संक्रमण कम हो जाता है लेकिन कुछ समय बाद यह संक्रमण फिर से सक्रिय होने लगता है. कुछ युवकयुवतियों में तो इस का संक्रमण जल्दीजल्दी होते देखा गया है जबकि कुछ में कुछ समय बाद फिर से यह संक्रमण देखा गया है.

वहीं, इस रोग के फिर से होने पर बहुत ही कम पीड़ा होती है. सच तो यह है कि कुछ रोगी तो अपने जननांगों को जब तक देखते नहीं हैं तब तक उन्हें पता नहीं चलता कि उन को यह रोग हो भी गया है. उन के एक या दो ददोरे हो सकते हैं. ये दोचार दिन में ही ठीक हो जाते हैं. सामान्यतया हर्पीज के संक्रमण के फिर से होने पर न ही बुखार आता है, न ही कोई सूजन आती है.

निदान : आमतौर पर इस हालत का निदान रोगी के लक्षणों को देख कर किया जाता है. वैसे तो इस के लिए किसी भी जांच की आवश्यकता नहीं पड़ती है, फिर भी इस के लिए रक्त की जांच उपलब्ध है. यह जांच अनुसंधान या निदान में किसी संशय की स्थिति में की जाती है.

चिकित्सा : जेनिटल हर्पीज छोटी माता या खसरे जैसा ही वायरल संक्रमण होता है. कुछ ही समय में स्थिति सामान्य हो जाती है. फिर भी दूसरे वायरल संक्रमण से भिन्न इस संक्रमण का फिर से सक्रिय होना चिंताजनक बात है.

जेनिटल हर्पीज में एंटीवायरल औषधि वाइक्लोवीर चिकित्सा के रूप में उपयोग की जाती है. प्राथमिक संक्रमण के समय दिन में 5 बार 200 एमजी की इस की टेबलेट दी जाती है. इस दवा का इस्तेमाल डाक्टर की सलाह के अनुसार करें. लेकिन ध्यान रहे कि इस निदान में भी यह गारंटी नहीं है कि इस रोग की पुनरावृत्ति न हो.

इसीलिए अधिकांश यौन रोग विशेषज्ञ साइक्लोविर क्रीम की सिफारिश करते हैं. यह क्रीम अपेक्षाकृत सस्ती भी होती है. यह चिकित्सा सुनिश्चित करती है कि दरोरे जल्दी से ठीक हो रहे हैं और इस वायरस के फैलने की संभावना कम हो रही है.

नक्काशी: भाग 3- मयंक और अनामिका के बीच क्या हुआ था?

“आजकल विश्व साहित्य पढ़ रहा हूं. सुबह से निज़ार कब्बानी की कविताओं में डूबा हुआ था.“

“अच्छा. लेकिन मैं ने कभी उन के बारे में नहीं सुना. आप उन की कोई पंक्ति सुनाइए जो आप को सब से ज्यादा पसंद हो.”

“हां जरूर, अनामिका.”

इतनी देर में जामयांग चाय ले कर आ गया और वे दोनों वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ गए. मयंक गुप्ता ने चाय का एक घूंट पिया और कविता कहनी शुरू की.

“मैं कोई शिक्षक नहीं हूं, जो तुम्हें सिखा सकूं कि कैसे किया जाता है प्रेम. मछलियों को नहीं होती शिक्षक की जरूरत, जो उन्हें सिखाता हो तैरने की तरकीब और पक्षियों को भी नहीं, जिस से कि वे सीख सकें उड़ान के गुर. तैरो ख़ुद अपनी तरह से, उड़ो ख़ुद अपनी तरह से, प्रेम की कोई पाठ्यपुस्तक नहीं होती.”

अनामिका जी कहीं खो गई थीं और मयंक गुप्ता एकदम चुप हो गए.

“बहुत ही सुंदर है. कविताओं के सम्मोहन उन के काम आते हैं जिन को इन की जरूरत है. लेकिन ज्यादातर लोग तो अंधीदौड़ में शामिल हैं,” अनामिका जी कुछ सोचते हुए बोलीं.

“जरूरत से ज्यादा बौद्धिकता और आधुनिकता ने हमारे स्वाभाविक मृदु भाव छीन लिए हैं, अनामिका.”

“जी, समाज हर बात को ‘इंटैलेक्चुअल लैंस’ से ही देखता है और भाव जगत को देखनेसमझने की कोशिश कोई नहीं करता.”

मयंक गुप्ता अनामिका को ध्यान से देख रहे थे और उन की आंखों में जो गूढ़ सांकेतिक भाषा थी, मिस अनामिका समझ पा रही थीं.

“भाव जगत एक विस्तृत विषय है- एक आदिम अवस्था, सामाजिक तो बिलकुल भी नहीं.” मयंक गुप्ता चाय पीते हुए बोले.

“और, शब्द केवल संकेत दे सकते हैं. प्रेम जैसे विस्तृत विषय को केवल जिया जा सकता है, जाना नहीं जा सकता,” अनामिका बोलीं.

मयंक गुप्ता जैसे किसी नए लोक में थे- यथार्थ और स्वप्न के पार की कोई दुनिया. दोनों एकदूसरे को देख रहे थे और जामयांग उन दोनों को. वह खाने में त्सम्पा बना कर लाया था.

मयंक गुप्ता कुछ सहज हुए और मज़ाक में बोले कि तिब्बती लोग जीवन के पहले खाने से अंतिम खाने तक त्सम्पा और चाय पर ही निर्भर रहते हैं. उस के बाद दोनों घंटों बैठे बातें करते रहे और फिर अनामिका वापस होम स्टे आ गईं.

मयंक गुप्ता को ले कर अनामिका के विचार उदार थे और वे यह भी जानती थीं कि प्रोफैसर का उन के प्रति आकर्षण स्वाभाविक और विशुद्ध है. प्रेम सामाजिक नहीं, अस्तित्वगत है. इतना व्यापक कि हर रूप में बांटा जा सकता है. जीवन और प्रेम भी कभी तार्किक हुए हैं भला?

उन दोनों का ऐसे ही मिलना चलता रहा और हिमपात के दिन आ गए. पूरी धौलाधार हिमपात के दिनों में बर्फ की चमकती पोशाक पहन लेती थी. जीवन में पहली बार रुई जैसी नर्म ताजा बर्फ के फूल आसमान से झरते हुए अनामिका जी देख रही थीं और खुद को अकल्पनीय दुनिया में पा रही थीं. उस दिन अनामिका कुदरत के इस तिलिस्म को देखने दूर तक चली गईं और धर्मकोट के ऊपरी शिखर पर जा कर अचंभित हो गईं. बर्फबारी रुकी हुई थी और बहती हुई ठंडी हवा के शोर में एक नई आवाज भी सुनाई दे रही थी, मठों से संगीत की आवाज. ध्वज जोरजोर से लहरा रहे थे. दूर की पहाड़ियों में जो दरारें थीं, उन में बर्फ ऐसे भर गई थी जैसे घाव भरते हैं.

अनामिका ने खूब तसवीरें लीं और मयंक गुप्ता के घर की तरफ चल पड़ीं. मयंक गुप्ता स्वास्थ्य कारणों से बर्फबारी के कारण बाहर नहीं आ रहे थे. पिछले तीनचार दिनों से वे घर में ही थे. उन के पास जाते ही अनामिका पहाड़ों और बर्फ की सुंदरता का बखान करने लगीं और गरमजोशी से मयंक गुप्ता को तसवीरें दिखाने लगीं. वे 55 साल की महिला नहीं, बिलकुल बच्चे जैसी लग रही थीं और मयंक गुप्ता उन को अनवरत देखते, सुनते जा रहे थे, जबकि खोए वे अपने खयालों में थे.

प्रेम में दूसरा ही सबकुछ हो जाता है, खुद से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण. ‘मैं’ का विसर्जन हो जाता है, बचता है सिर्फ ‘होना’, मयंक गुप्ता यह महसूस कर पा रहे थे. उन की आंखें अप्रत्याशित कारणों से नम हो उठीं और उन्होंने मिस अनामिका के कंधे पर हाथ रख दिया. यह पहली बार हुआ था. इस छुअन से अनामिका अपनी तिलिस्मी दुनिया से बाहर यथार्थ में आ गईं और उन की सिसकी निकल गई. यह वह आत्मीय स्पर्श था जो उन्हें आजीवन नहीं मिला था.

वे दोनों देर तक चुपचाप बैठे रहे. अनामिका जान चुकी थीं कि जीने के लिए नियम या सामाजिक बंधन नहीं बल्कि अनाम प्रेम चाहिए.

मयंक गुप्ता के हाथ उन के सिर और कंधे को सहलाते रहे और अनामिका देर तक रोती रहीं. 30 साल की चट्टान जैसी कठोर शादीशुदा जिंदगी की दुखद, निरर्थक और भयावह यादें आज खुद को प्रत्यक्ष रूप से उद्घाटित कर रही थीं.

“यदि मेरे साथ चलने पर तुम्हारी जिंदगी में कोई खुशी आ सकती है तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं, अनामिका. हम अगला आने वाला जीवन एकसाथ गुजार सकते हैं”

अनामिका कुछ संभली और उन्होंने अपने आंसू पोंछे.

वे मुसकराती हुई बोलीं, ”प्रोफैसर गुप्ता, मैं सारा जीवन खंडित वार्त्तालाप करती आई हूं लेकिन अब इतने सालों बाद मुझे मेरे अंदर के स्वर स्पष्ट भाषा में निर्देश दे रहे हैं कि अब मुझे किसी भी तरह के बंधन की नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की जरूरत है. मैं आप के प्यार के साथ मुक्त हो कर जीना चाहती हूं जैसे एक दिन आप ने कविता में बोला था कि तैरो खुद अपनी तरह से, उड़ो खुद अपनी तरह से…”

मयंक गुप्ता चुप रहे. कुछ पलों के बाद बहुत गरिमा के साथ उन्होंने अनामिका की बात को मुसकराते हुए मौन समर्थन दिया. जीवन की वास्तविकता एक हद पर जा कर हम से शब्द छीन लेती है. विशुद्ध प्रेम के उज्ज्वल प्रकाश में निराशा का एक कतरा भी नहीं रहता और एक गहरी समझ का उदय होता है.

उस दिन अनामिका ने अपने अगले ट्रैवल डैस्टिनेशन के बारे में भी बात की. हिमाचल के पहाड़ों पर लंबा समय गुजार देने के बाद अब वे जंगलों की तरफ जाना चाहती थीं और आखिरकार एक महीने बाद वे चली भी गईं.

इस बात को एक साल बीत चुका था और अनामिका इन दिनों सुंदरवन के जंगलों में फोटोग्राफी कर रही थीं.

मयंक गुप्ता और वे लगातार फोन और चिट्ठियों के माध्यम से संपर्क में बने रहते थे और एक बार दोनों की मुलाकात जिम कार्बेट में हुई थी जब अनामिका ने मयंक गुप्ता को जंगल सफारी के लिए बुलाया था. पत्रों में वे मयंक गुप्ता को अपने नएनए अनुभव बतातीं और मयंक गुप्ता उन को ‘थौट औफ द डे’.

आज मयंक गुप्ता अपनी किताबों में डूबे हुए थे कि जामयांग उन के पास एक कोरियर ले कर आया. मयंक गुप्ता खुशी से उछल पड़े, यह अनामिका ने भेजा था. जल्दीजल्दी उन्होंने खोला तो उस में मयंक गुप्ता की जिम कार्बेट वाली एक फ्रेम्ड तसवीर निकली, जो मयंक गुप्ता को भी याद नहीं था कि अनामिका ने कब खींची थी

और साथ में एक पत्र तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तरफ से एक एंट्रीपास था. बिना वक्त गंवाए मयंक गुप्ता ने चिट्ठी पढ़नी शुरू कि तो पता चला कि इस साल का ‘एमेच्योर फ़ोटोग्राफ़र औफ़ द ईयर’ का पुरस्कार मिस अनामिका को मिलने जा रहा था और अनामिका ने उन को उस कार्यक्रम के लिए अगले हफ्ते दिल्ली बुलाया था.

मयंक गुप्ता की आंखों में चमक आ गई. वे सोचने लगे कि अनामिका ने स्वतंत्र जीवन की अमर और अंतहीन प्रकृति को पा लिया था. सालों की गहन विनयशीलता, कष्ट, सादगी और संयम मनुष्य की मनोवृत्ति की नक्काशी कर के कैसे बदल देते हैं, अनामिका को देख कर समझ आ रहा था.

बिखरते बिखरते : माया क्या सोचकर भावुक हो रही थी ?

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लक्ष्मण-रेखा : लीना आकाश के तरफ देखते हुए क्या सोच रही थी ?

लीना अपनी थकी हुई, झुकी हुई गर्दन उठाकर आकाश की ओर देखने लगी. उसकी आँखों में एक विचित्र सा भाव था, मानो भीतर कही कुछ चेष्टा कर रही हो, किसी बीती बात को याद करने की, अपने अंदर घुटी हुयी साँसों को गतिमान करने की, किसी मृत स्वप्न को जीवित करने की, और इस कोशिश में सफल न हो रही हो.

दोपहर की उस सूनी सड़क पर जैसे मानो कोई शाप की छाया मँडरा रही थी. मनुष्य ने इस धरती केअनेक टुकड़े कियें. देश, महादेश बनायें. प्रत्येक देश और महादेश की एक परिसीमा तय की गयी. प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक इन सीमाओं के लिये युद्ध होते रहे हैं. लेकिन, कोरोना बिना अनुमति सीमाओं को तोड़ती हुई अपना साम्राज्य फैलाती गयी. बिना किसी पासपोर्ट, बिना कोई वीजा, आज वो विश्व की लगभग हर शहर में मातम बाँटती घूम रही है. उसके भय से सभी अपने-अपने घरों में बंदी थें, जीवित रहने की यह महत्वपूर्ण शर्त जो थी.

भारत के अन्य शहरों की तरह फिरोजपुर में भी लॉकडाउन था. लीना विवाहिता थी, एक बच्चे की माँ. उसके पति का नाम अमरीश सिंह है. रेलवे में काम करता है. वे उसी हैसियत से रेलवे के इन क्वाटर्ररों में रहते हैं. पहले प्रातः काल नौ बजे चले जाता था. उसके बाद दोपहर में खाना खाने घरआता, फिर घंटे भर बाद पुनः जाकर शाम छ बजे तक लौट आता था. कभी-कभी दोस्तों के साथ पीने बैठे जाता तो देर भी हो जाया करती थी.

पर लॉकडाउन ने दिनचर्या बदल कर रख दी थी. दस बजे सोकर उठना, नाश्ता करना, स्नान करना, टी वी देखना, दोपहर का भोजन करना, उसके बाद फिर से पैर फैलाकर सो जाना. शाम में चाय के साथ पकौड़े का आनंद उठाना, बालकोनी से चिल्लाकर कुछ दोस्तों से बातें करना, उसके बाद टी वी देखने बैठ जाना, रात का खाना खाना और पुनः बिस्तर पर गिर जाना. लेकिन, कुछ ही दिनों में इस अत्यधिक आराम से परेशान हो गये बेचारें. पिछले कई दिनों से उकताया हुआ घूम रहा था. पहले काम का रोना रोता था, अब आराम का.

घर के काम में लीना की सहायता के लिये आरती आती थी. लेकिन लॉकडाउन में उसे भी छुट्टी मिल गयी थी. अमरीश को लीना की यह मुसीबत दिखती नहीं थी. वो लीना को भी कहाँ ठीक से देख पाया था. देखना क्या मात्र आँखों से होता है ! यदि हाँ तो, अमरीश लीना को नहीं,एक लोथ को रोज देखता था.

एक लोथ जिसकी आत्मा मर चुकी थी. एक लोथ जिसके चारों तरफ लक्ष्मण रेखा खींचकर उसकी रक्षा की जा रही थी. एक लोथ जिसे निर्णय करना आता ही कहाँ था. उसके लिये प्रश्न करना निषेध था. कभी-कभी शारीरिक अत्याचारों से पीड़ित होकर वह लोथ अपने स्वामीसे एक क्षीण फ़रियाद करती. उसकी व्यथा को कोई उत्तर नहीं मिलता. लोथ एक शरीर कहाँ थी ! वह  दान में दे दी गयी एक वस्तु थी, जिसे अपने कष्टों के लिये मात्र आँसू गिराने का अधिकार था. अमरीश उस लोथ से अपनी भूख मिटाता था !

लीना पढ़ी-लिखी थी. वो अपने अधिकारों को भी जानती थी. उसने बीएड किया था. केन्द्रीय विधालय में उसका चयन भी हो गया. चार-पाँच महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में उसकी पोस्टिंग की खबर प्राप्त हुयी थी.

लेकिन अमरीश के अनुसार लीना शहर से बाहर जाकर काम करने लायक नहीं थी. दूसरी बात यह भी थी कि वो चली जाती तो घर का काम कौन करता ! सब कुछ सोच-समझकर, लीना की नौकरी करने की इच्छा का सम्मान करते हुये, अमरीश ने उसे फिरोजपुर में ही किसी प्राइवेट स्कूल को जॉइन करने की आज्ञा दे दी थी.

अपने अधिकारों को जानना और उनके लिये आवाज उठाना दो अलग विषय हैं. इस समाज के लिये लीना एक माँ थी, बेटी थी, बहू थी, पत्नी थी, स्त्री थी, कुटुंब की इज्जत थी; मात्र मनुष्य नहीं थी. लीना भी एक ऐसे भ्रमजाल में कैद थी, जहाँ उसने स्वयं को खो दिया था. डूबने से बचने के लिये हाथ तो मारना ही पड़ता है, पर लीना के दोनों हाथ पीछे बंधे हुये थें. एक प्रयास बंधन को खोल सकता था, लेकिन प्रयास करना वो भूल गयी थी.

पिछले एक घंटे से लीना खिड़की पर खड़ी थी. जब उन्होंने भोजन समाप्त किया तब दो बजने वाले थें. अमरीश सोने की बात कहकर बेडरूम में चला गया था. बेटा तो पहले ही सो गया था.  वो खड़ी रह गयी थी.

तभी दूर कुछ खड़का. एकाएक वह चौंकी, फिर वही खड़ी-खड़ी अपने-आप में ही एक लंबी-सी थकी हुयी साँस के साथ बोली-“तीन बज गये..” मानो एक लंबी यात्रा का समापन हुआ हो.

तभी रसोई में खुले हुये नल ने कहा-टिप-टिप-टप..

“पानी ..” इतना कहकर वो ऐसे उछली जैसे बिजली की नंगी तार को छू दिया हो. रसोई में बर्तनों की खनखनाहट के बीच वो बर्तन धोने लगी.

जब लीना बर्तन धो चुकी तो सोचा चलकर कुछ पढ़ लिया जाये. वो पिछले एक महीने से शिवानी का उपन्यास कृष्णकली पढ़ रही थी. नहीं-नहीं, पढ़ना कहना गलत होगा, पढ़ने का प्रयास कर रही थी. हाँ, तो आज पुनः पढ़ने का सोच ही रही थी कि ‘खट’ आवाज के साथ बेटे की एक तेज चीख कानों से आकर टकरायी. वो उस तरफ दौड़ी. आज फिर कृष्णकली प्रतीक्षा करती रह गयी. यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया.

अमरीश बेटे के पास ही सो रहा था. गुस्से और खीझ के मिले-जुले स्वर में चिल्लाया, “क्या हुआ !” जैसे समझ ही नहीं पा रहा कि क्या हुआ !

शिशु चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा था. लीना उसे हृदय से लगाकर चुप कराने का प्रयास करने लगी. करुणा-भरे स्वर में बोली-“चोट बहुत लग गयी बेचारे को ! आपने देखा ..” अपनी बात को स्वयं ही चबा गयी थी.

चटाक..

एक छोटे क्षण भर के लिये लीना स्तब्ध रह गयी, फिर एकाएक उसके मन ने, उसके समूचे अस्तित्व ने, स्वयं को दुत्कार दिया.

अमरीश बोलता जा रहा था-“इसके चोटें लगती ही रहती हैं, रोज ही गिर पड़ता है. तुमसे एक बच्चा नहीं संभाला जाता ! दिन भर घर में बैठ कर बस मोटी होती जा रही हो ! बाहर जाकर दो आदमी से बात करने लायक नहीं हो ! मैं भी सोचता हूँ, चलो मूर्ख है घर देख लेगी ! लेकिन नहीं ! एक फूहड़ गृहणी हो तुम ! आराम का जीवन मिला है ना, इसलिये मेहनत करना जानती ही नहीं हो !”

अमरीश का यह थप्पड़, पहला नहीं था. यह अमावस्या लीना के जीवन में आती रहती थी. किंतु जब से लॉकडाउन हुआ, अमावस्या स्थायी हो गयी थी.

कुछ ही देर में, पूर्ववत शांति हो गयी थी. अमरीश फिर लेटकर ऊँघ रहा था.

मृतवत जड़ता के साथ लीना अपने शिशु को लेकर चली गयी.

घर में काफ़ी देर मौन रहा. थोड़ी देर तक तो वह मौन भावनाशून्य ही रहा. लीना को ऐसा लगा जैसे ये नीरसता और निर्जीवता उसे घेर लेगी. इसमें एक प्रतीक्षा भी थी. उसका अपना मन स्वयं के उठने की प्रतीक्षा कर रहा था.

शिशु अब नीचे बैठकर खेल रहा था. तभी अमरीश उठकर आ गया. पहले उसने लीना की ओर देखा और फिर बाहर बालकोनी में जाकर खड़ा हो गया.

थोड़ी देर बाद जैसे उसे ध्यान आया कि वह चाहकर भी बाहर नहीं जा सकता. घर में पड़ी बीयर की बोतलें भी समाप्त हो गयी थी. सामने की बालकोनी में अनिल खड़ा सिगरेट पी रहा था. अमरीश पर नजर पड़ते ही, हाथ हिलाकर इशारा किया. अमरीश ने भी हाथ हिला दिया. सिगरेट की एक तलब उसके भीतर भी जग गयी थी. वो झुंझलाया सा लीना के सामने पड़ी हुयी कुर्सी पर आकर बैठ गया था.

“मन कड़वाहट से भर रहा है. आजकल दिन तो जैसे समाप्त ही नहीं होता. गली-गली, चौक-मुहल्ले सब जैसे मर गये हैं. अब और नहीं बैठा जाता घर में. मैं जेल में नहीं रह सकता. कोई सजायाफ़ता कैदी हूँ क्या ! कल अनिल का फोन आया था. जरूरी सामान लेने का बहाना करके बाहर घूमने जाया जा सकता है. अरे ! कुछ नहीं होता ! मैं बाहर से आता हूँ !” इतना कहकर वो उठ खड़ा हुआ.

लीना ने कुछ नहीं कहा, कुछ कहना भी नहीं चाहती थी. वैसे भी लीना के कहने का कोई लाभ नहीं था. अमरीश उसकी सुनता ही कहा था. थोड़ी ही देर बाद वो चला गया.

अमरीश के जाते ही कमरे में सूर्यास्त आ गया और लीना उस अरुणिमा में भींग गयी थी. वैसे भी ऐसे एकांत लीना को प्रिय थें. कुछ देर का यह काल्पनिक संसार, उसके मन को प्रसन्नता से भर दिया करती था.

दूध पीकर और थोड़ी देर खेलकर शिशु भी पुनः सो गया था. लीना ने उसे बिस्तर पर लिटाकर दोनों तरफ से तकिया लगा दिया और स्वयं बालकोनी में आकर खड़ी हो गयी.

वह निश्चल खड़ी, स्थिर दृष्टि से पश्चिमी आकाश को देखती रही. आस-पास कोई सुरम्य दृश्य नहीं था, लेकिन सब कुछ सुंदर लग रहा था. वो देखती रही, और देखती रही.

लीना को उस निर्जन वातावरण में भी एक संगीत सुनायी दे रहा था. तभी एक जानी-पहचानी कर्कश ध्वनि उसके कानों से टकरायी.

‘आए..आए..मार डाला’

लीना ने थोड़ा लटककर नीचे झाँका. चार-पाँच पुलिसवालों से घिरा अमरीश कराह रहा था. घमंडी अमरीश घर से बिना मास्क लगाये निकाल गया था. कुछ दूर पर ही पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गया था. डंडे से उसकी पूजा हो चुकी थी. अब उठक-बैठक की तैयारी हो रही थी.

“भाई माफ कर दो ..” अमरीश गिड़गिड़ा रहा था.

एक पुलिसवाला बोला-“एक तो बिना मास्क लगाये निकाल आया ! जब मना किया तो गाली देता है ! झूठा ! समान लेने निकला था तो थैला कहाँ है !?”

“सर ! सर मैं सच कह रहा हूँ, मेरा घर सामने ही है !मैं रेलवे का कर्मचारी ही हूँ ! पहचान पत्र घर में रह गया है. वो..वो.. मेरे घर की बालकोनी है ! लीना .. लीना .. लीना..” अमरीश चिल्लाया था.

किसी शक्ति के वशीभूत लीना तुरंत नीचे बैठ गयी थी. जब अमरीश और पुलिसवालों ने ऊपर देखा, वहाँ कोई नहीं था.

“पागल औरत ! वैसे तो पूरे टाइम बालकोनी में टंगी रहती है, और आज पता नहीं कहाँ गायब है ! सर .. सर .. मैं ..हाय !” पैर पर डंडा पड़ते ही उसका गुस्सा कराह में बदल गया था.

उठक-बैठक आरंभ हो गयी थी. पुलिसवाले गिनती कर रहे थें. अपने-अपने घरों से पूरा मोहल्ला तमाशा देख रहा था. कुछ लोग शायद वीडियो भी बना रहे थें. चिल्लाने के स्थान पर अमरीश अब रो रहा था.

लीना कोई गीत गुनगुना रही थी. एक प्रतीक्षा समाप्त हो गयी थी. एक मुर्दा शरीर में कोई प्राण फूँक गया था. देखते ही देखते पूरा आसमान बादलों से ढँक गया. मौसम बदल रहा था. चुभती गर्मी को मात देने के लिये किसी आंधी की आवश्यकता नहीं होती, वर्षा की मंजुल फुहारें ही बहुत होती हैं.

एक चुप,अत्याचारी को ताकत और प्रताड़ित को भय देता है. एक साहसिक विरोध पहले विचारों में पनपता है, फिर क्रिया में उतरता है.

लीना वहाँ बैठी घंटों, मिनटों, परिस्थति के अत्यधिक विश्लेषण में बिता सकती थी, उन टुकड़ों को फिर से जोड़ने की कोशिश में और सोचने में कि शायद ऐसा हो सकता था, या वैसा हो सकता था. लेकिन उसने उन टुकड़ों को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

“सर ! ये मेरे पति श्री अमरीश सिंह हैं ! इनसे गलती ही गयी !”

लीना की शांत और दृढ़ आवाज सुनते ही पुलिसवालों ने अमरीश को रुकने का इशारा कर दिया.

उनमें से एक बोला-“मैडम ! आप जैसे पढ़े-लिखे लोग नहीं समझोगे तो जो बेचारे अनपढ़ है उनसे क्या उम्मीद करें ! घर में रहो, सुरक्षित रहो !”

लीना ने कहा-“जी ! आप सही कह रहे हैं !”

फिर दूसरा पुलिसवाला अमरीश की तरफ देख कर बोला-“भाग्यशाली हो कि घर है ! उनका सोचो जिनके घर ही नहीं हैं ! चलो जाओ ! मैडम आ गयीं, इसलिये छोड़ रहे हैं !”

अमरीश ने धीमे से सिर हिलाया और लीना का सहारा लेकर घर की तरफ चल पड़ा था. अपमान और पीड़ा से कराहता हुआ वो आगे बढ़ रहा था. लेकिन उसका दंभ अभी भी समाप्त नहीं हुआ था.

फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचते ही लीना की कलाई को मड़ोड़ कर बोला-“कहाँ मर गयी थी ! जितना दर्द मुझे हुआ है, उससे कहीं ज्यादा तुझे न दिया तो मेरा नाम अमरीश नहीं !

बिना एक पल गवायें, लीना ने अमरीश का हाथ छोड़ दिया. आकस्मिक हुये इस आघात के लिये अमरीश प्रस्तुत नहीं था. वो लड़खड़ा कर लीना के पैरों के पास गिर पड़ा था.

एक रहस्यमयी मुस्कान लीना के होंठों पर खेल गयी थी.

वो नीचे झुकी और अमरीश के कानों में बुदबुदाई-“चोट लगी ! दर्द हुआ ! मुझे भी दर्द होता है !”

अमरीश की आँखें फटी की फटी रह गयीं. लीना के चेहरे पर भय के स्थान पर आत्मविश्वास आ गया था, दबे हुये कंधें तन गये थें, सदा झुकी रहने वाली गर्दन आज स्वाधीनता के साथ खड़ी थी. वो समझ ही नहीं पाया कि इतने कम समय में यह परिवर्तन कैसे आ गया. वो कहाँ जानता था कि परिवर्तन के लिये समय नहीं, आंतरिक शक्ति का जागना आवश्यक होता है.

लीना ने उसे सहारा देकर पुनः खड़ा किया और लगभग धकेलते हुए अंदर ले गयी.

अमरीश को अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा था.

अपने पति के चेहरे पर आते भावों का आनंद उठाते हुये लीना बोली-“आज से लेकर लॉकडाउन के समाप्त होने तक घर की यह चौखट, तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है. बाहर निकलने की सोचना भी मत!”

“तू भूल गयी है, मैं कौन हूँ ! तेरी लक्ष्मण रेखा तो मैं बनाऊँगा !” अमरीश ने भय का जाल फिर फेंका.

इस बार लीना डरी नहीं बल्कि मुस्कुराई.

वो बोली-“मैं तो जानती ही हूँ कि तुम कौन हो ! लेकिन मैं अब यह भी जान गयी हूँ कि मैं कौन हूँ ! तुमने शायद ध्यान नहीं दिया, तुम्हारी बनायी डर की लक्ष्मण रेखा मैंने कब की पार कर ली ! अब मुझपर भूलकर भी हाथ मत उठाना क्योंकि मेरे हाथ भी खुल गये हैं. और हाँ, लॉकडाउन के कारण नीचे गली में पुलिसवालों का आना-जाना भी लगा रहेगा”

इतना कहकर लीना आगे बढ़ी ही थी कि सहसा उसे कुछ याद आ गया.

अमरीश की आँखों में आँखें डालकर बोली- “मैंने अपनी नौकरी जॉइन करने का निर्णय ले लिया है !”

सारा जहां अपना : अंजलि के लिए रिश्तों से ऊपर पैसे थे ?

मयंक बेचैनी से कमरे में चहल- कदमी कर रहा था. रात के 10 बज चुके थे. वह सोने जा रहा था कि दीप के स्कूल से आए प्रधानाचार्य के फोन ने उसे परेशान कर दिया. प्रधानाचार्य ने कहा था कि दीप बीमार है और आप को याद कर रहा है.

‘‘उसे हुआ क्या है?’’ घबरा कर मयंक ने पूछा.

‘‘वायरल फीवर है.’’

‘‘कब से?’’

‘‘सुस्त तो वह कल शाम से ही था, पर फीवर आज सुबह हुआ है,’’ प्रधानाचार्य ने बताया.

‘‘क्या बेहूदा मजाक है,’’ मयंक के स्वर में सख्ती घुल गई थी, ‘‘तुरंत आप ने चैकअप क्यों नहीं करवाया? बच्चों की ऐसी ही देखभाल करते हैं आप लोग? मेरे बेटे को कुछ हो गया तो…’’

‘‘आप बेवजह नाराज हो रहे हैं,’’ प्रधानाचार्य ने उस की बात बीच में काट कर विनम्रता से कहा था, ‘‘यहां रहने वाले सभी बच्चों का घर की तरह खयाल रखा जाता है, पर उन्हें जब मांबाप की याद आने लगे तो उदास हो जाते हैं. यद्यपि हम पूरी कोशिश करते हैं कि ऐसा न हो, पर नए बच्चों के साथ अकसर ऐसी समस्या आ जाती है.’’

‘‘दीप अब कैसा है?’’ प्रधानाचार्य की विनम्रता से प्रभावित हो कर मयंक सहजता से बोला था.

‘‘चिंता की कोई बात नहीं है. डाक्टर के साथ मैं लगातार उस की देखभाल कर रहा हूं. आप सुबह आ कर उस से मिल लें तो बेहतर रहेगा.’’

वह तो इसी वक्त जाना चाहता था पर पिछले 2 घंटे से तेज बारिश हो रही थी. अब तक तो पूरा शहर टापू बन चुका होगा. रास्ते में कहीं स्कूटर फंस गया तो मुसीबत और बढ़ जाएगी. फिलहाल जाने का विचार छोड़ कर वह सोफे पर पसर गया. सामने फे्रम में जड़ी अंजलि की मुसकराती तसवीर रखी थी. उस के बारे में सोच कर उस के मुंह का स्वाद कसैला हो गया.

अंजलि सिर्फ बौस, आफिस और अपने बारे में ही सोचती थी और किसी विषय में सोचनेसमझने का उस के पास समय ही नहीं था. उस पर तो हर पल काम, तरक्की और अधिक से अधिक पैसा कमाने की धुन सवार थी. मशीनी युग में वह मशीन बन गई थी, शायद इसीलिए उस के दिल में बेटे और पति के लिए कोई संवेदना नहीं थी. अब तो मयंक अकेला रहने का अभ्यस्त हो गया था. कभीकभी न चाहते हुए भी समझौता करना पड़ता है. यही तो जिंदगी है.

अचानक बिजली चली गई. कमरा घने अंधकार के आगोश में सिमट गया. वह यों ही निश्चल और निश्चेष्ट बैठा अपने जीवन के बारे में सोचता रहा. अब उस के भीतर और बाहर फैली स्याही में कोई फर्क नहीं था. कुछ देर बाद गरमी से घुटन होने पर वह उठा और दीवार का सहारा लेते हुए खिड़की खोली. ठंडी हवा के झोंकों से उस के तपते दिमाग को राहत मिली.

बाहर बारिश का तेज शोर शांति भंग कर रहा था. सहसा तेज ध्वनि के साथ बिजली चमक कर कहीं दूर गिरी. उसे लगा कि ऐसी ही बिजली उस के आंगन में भी गिरी है, जिस में उस का सुखचैन, अंजलि का प्रेम और दीप का चुलबुला बचपन राख हो चुका है. उस ने तो सहेजने की बहुत कोशिश की पर सबकुछ बिखरता चला गया.

6 साल का दीप पहले कितना शरारती था. उस के साथ घर का हर कोना खिलखिलाता था पर अब तो वह हंसना ही भूल गया था. उस के और अंजलि के बीच आएदिन होने वाले झगड़ों में दीप का मासूम बचपन खो चुका था. विवाद टालने के लिए वह कितना एडजस्ट करता था और अंजलि थी कि छोटी से छोटी बात पर आसमान सिर पर उठा लेती थी. उस का छोटा सा घर, जिसे उस ने बड़े प्यार से सींचा था, ज्वालामुखी बन चुका था, जिस की आंच में अब वह हर पल सुलगता था. मयंक की आंखों में आंसुओं के साथ बीती यादें चुपके से उतर कर तैरने लगीं.

वह अपने आफिस की ओर से जिस मल्टी नेशनल कंपनी में फाइनेंशियल डील के लिए गया था, अंजलि वहां अकाउंटेंट थी. हायहैलो के साथ शुरू हुई औपचारिक मुलाकात रेस्तरां में चाय की चुस्कियों के साथ दिल की गहराई तक जा पहुंची थी. 1 साल के भीतर दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. मयंक हनीमून के लिए किसी हिल स्टेशन पर जाना चाहता था. उस ने आफिस में छुट्टी के लिए अर्जी दे दी थी, पर अंजलि तैयार नहीं हुई.

‘पहले कैरियर सैटल हो जाने दो, हनीमून के लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है.’

‘अच्छीखासी तो नौकरी है,’ मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया, ‘मोटी तनख्वाह मिलती है, और क्या चाहिए?‘

‘जो मिल जाए उसी में संतुष्ट रहने से इनसान कभी तरक्की नहीं कर सकता,’ अंजलि ने परोक्ष रूप से उस पर कटाक्ष किया, ‘मिडिल क्लास की सोच सीमित दायरे में सिमटी रहती है, इसीलिए वह हाई सोसायटी में एडजस्ट नहीं हो पाता.’

मयंक तिलमिला कर रह गया.

‘बड़ा आदमी बनने के लिए बड़े ख्वाब देखने पड़ते हैं और उन्हें साकार करने के लिए कड़ी मेहनत,’ अंजलि बोली, ‘अभी स्टेटस सिंबल के नाम पर हमारे पास क्या है? कार, बंगला, ए.सी. और नौकरचाकर कुछ भी तो नहीं. इस खटारा स्कूटर और 2 कमरे के फ्लैट में कब तक खटते रहेंगे?’

‘तुम्हें तो किसी अरबपति से शादी करनी चाहिए थी,’ मयंक कुढ़ कर बोला, ‘मेरे साथ यह सब नहीं मिल सकेगा.’

मयंक को मन मार कर छुट्टी कैंसिल करानी पड़ी. घर की सफाई और खाना बनाने के लिए बाई थी. कई जगह काम करने के कारण वह शाम को कभीकभार लेट हो जाती थी.

मयंक कभी चाय की फरमाइश करता तो अंजलि टीवी प्रोग्राम पर निगाह जमाए बेरुखी से जवाब देती, ‘तुम आफिस से आए हो तो मैं भी घर में नहीं बैठी थी. 2 कप चाय बनाने में थक नहीं जाओगे.’

‘ये तुम्हारा काम है.’

‘मेरा क्यों?’ वह चिढ़ जाती, ‘तुम्हारा क्यों नहीं? तुम से पहले आफिस जाती हूं और काम भी तुम से अधिक टिपिकल करती हूं. अकाउंट संभालना हंसीखेल नहीं है.’

इस के बाद तो मयंक के पास 2 ही रास्ते बचते थे, खुद चाय बनाए या बाई के आने का इंतजार करे. दूसरा विकल्प उसे ज्यादा मुफीद लगता था. वह नारीपुरुष समानता का विरोधी नहीं था. पर अंजलि को भी तो उस के बारे में कुछ सोचना चाहिए. जब वह शांत हो जाता तो अंजलि अपने लिए एक कप चाय बना कर टीवी देखने में मशगूल हो जाती और वह अपमान के घूंट पी कर रह जाता था. उस के वैवाहिक जीवन की नौका डोलने लगी थी.

मयंक ने सदा ऐसी पत्नी की कल्पना की थी जो उस के प्रति समर्पित रहे. केवल अहं की तुष्टि के लिए समानता की बात न करे, बल्कि सुखदुख में बराबर की भागीदार रहे. उस के मन को समझे, हृदय की गहराई से प्यार करे और जिस के आंचल की छांव तले वह दो पल सुखशांति से विश्राम कर सके. बाई के बनाए खाने से पेट तो भर जाता था, पर मन भूखा ही रह जाता था. काश, अंजलि कभी अपने हाथ से एक कौर ही खिला देती तो वह तृप्त हो जाता.

एक सुबह अंजलि आफिस के लिए तैयार हो रही थी कि तेज चक्कर आने लगे. मयंक उसे तुरंत अस्पताल ले गया. चैकअप कर के डाक्टर ने बधाई दी कि वह मां बनने वाली है.

‘मैं अभी बच्चा अफोर्ड नहीं कर सकती.’

‘तो पहले से सेफ्टी करनी थी.’

‘आगे से ध्यान रखूंगी,’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए, ‘फिलहाल तो इस बच्चे का गर्भपात चाहती हूं.’

‘ये खतरनाक हो सकता है,’ डाक्टर गंभीरता से बोली, ‘संभव है आप भविष्य में फिर कभी मां न बन सकें.’

‘अपना भलाबुरा मैं बेहतर समझती हूं. आप अपनी फीस बताइए.’

‘अंजलिजी,’ वह सख्ती से बोली, ‘डाक्टर के लिए मरीज का हित सर्वोपरि होता है. आप के लिए जो उचित था, मैं ने बता दिया. वैसे भी यहां भू्रणहत्या नहीं की जाती है.’

‘आप नहीं करेंगी तो कोई और कर देगा.’

‘बेशक, शहर में ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं है जो रुपयों के लालच में इस घिनौने काम को अंजाम दे देंगे, पर मैं ने कइयों को जिद पूरी होने के बाद औलाद के लिए तड़पते देखा है.’

उस दिन घर में तनाव का माहौल रहा. मयंक चाहता था कि आंगन मासूम किलकारियों से गुलजार हो. हो सकता है मां बनने के बाद अंजलि के स्वभाव में परिवर्तन आ जाए, तब गृहस्थी की बगिया महक उठेगी, पर अंजलि तैयार नहीं थी. उस का तर्क था कि यही तो उम्र है कुछ कर गुजरने की. अभी से बालबच्चों के भंवर में उलझ गई तो लक्ष्य तक कैसे पहुंच सकेगी? सफलता की सीढि़यां चढ़ने के लिए टैलेंट के साथ आकर्षक फिगर भी चाहिए, वरना कौन पूछता है.

मयंक बड़ी मुश्किल और मिन्नतों के बाद उसे राजी कर सका.

अंजलि ने ठीक समय पर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया. अपने प्रतिरूप को देख मयंक निहाल हो गया. बेटे ने उस का उजड़ा मन प्रकाश से भर दिया था इसलिए बड़े प्यार से उस का नाम दीप रखा. दिन में उस की देखभाल करने के लिए मयंक ने एक अच्छी आया का प्रबंध कर लिया था.

बेटे को जन्म तो अंजलि ने दिया था, पर मां की भूमिका मयंक निभा रहा था. दीप सुबहशाम उस की बांहों के झूले में झूल कर बड़ा होने लगा.

वह 4 साल का हो गया था.

रात के 10 बज चुके थे, अंजलि आफिस से नहीं लौटी थी. मयंक उस के मोबाइल पर कई बार फोन कर चुका था. घंटी जा रही थी, पर वह रिसीव नहीं कर रही थी. उस ने आफिस फोन किया, वहां से भी कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी इस वक्त वहां किसी को नहीं होना था. दीप को सुला कर वह जागता रहा. अंजलि 12 बजे के बाद आई.

‘कहां थी अब तक?’ मयंक ने सवाल दागा, ‘मैं कितना परेशान हो गया था.’

‘मेरा प्रमोशन बौस की प्राइवेट सेके्रटरी के पद पर हो गया,’ उस की चिंता से बेफिक्र वह मुदित मन से बोली, ‘कंपनी की ओर से शानदार बंगला और ए.सी. गाड़ी मिलेगी. प्रमोशन की खुशी में बौस ने पार्टी दी थी, वहीं बिजी थी.’

‘फोन तो रिसीव कर लेती.’

‘शोरशराबे में आवाज नहीं सुनाई दी.’

‘तुम ने ड्रिंक ली है?’ उस के मुंह से आती महक ने उसे आंदोलित कर दिया.

‘कम आन डियर,’ अंजलि ने लापरवाही से कहा, ‘बौस नहीं माने तो थोड़ी सी लेनी पड़ी. उन्हें नाराज तो नहीं कर सकती न, सब का खयाल रखना पड़ता है.’

‘शर्म आती है तुम्हारी बातें सुन कर. मेरी कभी परवा नहीं की और दूसरों की खुशी के लिए मानमर्यादा ताक पर रख दी.’

‘व्हाट नौनसेंस,’ वह बिफर पड़ी, ‘यू आर मेंटली इल. मेरा कद तुम से ऊंचा हो गया तो जलन होने लगी.’

‘तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो इसलिए ऐसे घटिया विचार तुम्हारे दिमाग में ही आ सकते हैं.’

‘तुम ने मुझे नीच कहा,’ वह क्रोध से कांपने लगी.

‘अभी तुम होश में नहीं हो,’ मयंक ने विस्फोटक होती स्थिति को संभालने की कोशिश की, ‘सुबह बात करेंगे.’

‘तुम्हारा असली रूप देख कर होश में तो आज आई हूं. मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुम जैसे संकीर्ण इनसान के साथ मैं ने इतने दिन कैसे गुजार लिए.’

पानी सिर के ऊपर बहने लगा था. मयंक की इच्छा हुई कि उस का नशा हिरन कर दे, पर इस से बात बिगड़ सकती थी.

दीप जाग गया था और मम्मीपापा को चीखतेचिल्लाते देख सहमा सा खड़ा था. मयंक उसे ले कर दूसरे कमरे में चला गया. अंजलि इस के बाद भी काफी देर तक बड़बड़ाती रही.

अब वह अकसर देर रात को लौटती और कभीकभी अगले दिन. मयंक पूछता तो पार्टी या टूर की बात कह कर बेरुखी से टाल देती. अब तो ड्रिंक लेना उस के लिए रोजमर्रा की बात हो गई थी. मयंक समझाने की कोशिश करता तो दंगाफसाद शुरू हो जाता था. इस दमघोंटू माहौल में दीप अंतर्मुखी होता जा रहा था. उस का बचपन जैसे उस के भीतर सिमट चुका था. मयंक ने हर संभव कोशिश की पर उस के होंठों पर मुसकान न ला सका. वह घबरा कर उसे मनोचिकित्सक के पास ले गया.

पूरी बात सुन कर डाक्टर बोले, ‘बच्चों में फूल सी कोमलता और मासूमियत होती है, जिस की खुशबू से घर का उपवन महकता है. वह जिस डाल पर खिलते हैं, उस की जड़ मातापिता होते हैं. जब जड़ को घुन लग जाए तो फूल खिले नहीं रह सकते.’

थोड़ा रुक कर डाक्टर फिर बोले, ‘मि. मयंक आप इस तरह भी समझ सकते हैं कि बच्चा अपने आसपास के वातावरण को बारीकी से महसूस करता है और उसी के अनुरूप ढलता है. मांबाप के झगड़े में वह स्वयं को भावनात्मक रूप से असुरक्षित महसूस करता है, इस स्थिति में उस के भीतर कुंठा या हिंसा की प्रवृत्ति पनपने लगती है. कभीकभी वह विक्षिप्त अथवा कई तरह के मानसिक रोगों का शिकार भी हो जाता है. पतिपत्नी के ईगो में उस का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय हो जाते हैं. मेरी राय में आप घर में शांति स्थापित करें या दीप को इस माहौल से कहीं दूर ले जाएं.’

मयंक ने अंजलि को सबकुछ बताया पर उस के स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. उसे बेटे से अधिक अपने कैरियर से लगाव था. मयंक ने बहुत सोचसमझ कर उसे शहर से दूर आवासीय विद्यालय में एडमिशन दिला दिया था. इस के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था.

सफलता का नशा अंजलि के सिर इस कदर चढ़ कर बोल रहा था कि एक दिन मयंक से नाता तोड़ कर नए बंगले में शिफ्ट हो गई. उस ने मयंक को जीवन के उस मोड़ पर छोड़ दिया था जिस के आगे कोई रास्ता नहीं था. बेवफाई से वह टूट चुका था. वह तो दीप के लिए जी रहा था, वरना उस के मन में कोई चाह शेष नहीं थी.

बिजली आ गई थी. खिड़की बंद कर उस ने गालों पर ढुलक आए आंसू पोंछे और वापस सोफे पर आ कर बैठ गया.

वह सुबह स्कूल पहुंचा. बेटे को सहीसलामत देख कर उस की जान में जान आई. दीप भी उस से ऐसे लिपट गया मानो वर्षों बाद मिला हो.

‘‘पापा,’’ उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘आप भी यहीं आ जाओ. मैं आप के बिना नहीं रह सकता.’’

‘‘तुझे लेने ही तो आया हूं, सदा के लिए,’’ उसे प्यार कर के वह बोला, ‘‘मेरा बेटा हमेशा पापा के पास रहेगा.’’

‘‘मैं घर नहीं जाऊंगा,’’ दीप की आंखों में आतंक की परछाइयां तैरने लगीं, ‘‘मम्मी से बहुत डर लगता है.’’

‘‘हम दोनों के अलावा वहां कोई नहीं रहेगा. अब सारा जहां अपना है, खूब खेलेंगे, खाएंगे और मस्ती करेंगे. दीप अपनी मर्जी की जिंदगी जिएगा.’’

‘‘सच, पापा,’’ वह खिल गया.

मयंक ने उस का माथा चूम लिया.

अजनबी : आखिर कौन था दरवाजे के बाहर ?

‘‘नाहिद जल्दी उठो, कालेज नहीं जाना क्या, 7 बज गए हैं,’’ मां ने चिल्ला कर कहा.

‘‘7 बज गए, आज तो मैं लेट हो जाऊंगी. 9 बजे मेरी क्लास है. मम्मी पहले नहीं उठा सकती थीं आप?’’ नाहिद ने कहा.

‘‘अपना खयाल खुद रखना चाहिए, कब तक मम्मी उठाती रहेंगी. दुनिया की लड़कियां तो सुबह उठ कर काम भी करती हैं और कालेज भी चली जाती हैं. यहां तो 8-8 बजे तक सोने से फुरसत नहीं मिलती,’’ मां ने गुस्से से कहा.

‘‘अच्छा, ठीक है, मैं तैयार हो रही हूं. तब तक नाश्ता बना दो,’’ नाहिद ने कहा.

नाहिद जल्दी से तैयार हो कर आई और नाश्ता कर के जाने के लिए दरवाजा खोलने ही वाली थी कि किसी ने घंटी बजाई. दरवाजे में शीशा लगा था. उस में से देखने पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था क्योंकि लाइट नहीं होने की वजह से अंधेरा हो रहा था. इन का घर जिस बिल्ंि?डग में था वह थी ही कुछ इस किस्म की कि अगर लाइट नहीं हो, तो अंधेरा हो जाता था. लेकिन एक मिनट, नाहिद के घर में तो इन्वर्टर है और उस का कनैक्शन बाहर सीढि़यों पर लगी लाइट से भी है, फिर अंधेरा क्यों है?

‘‘कौन है, कौन,’’ नाहिद ने पूछा. पर बाहर से कोई जवाब नहीं आया.

‘‘कोई नहीं है, ऐसे ही किसी ने घंटी बजा दी होगी,’’ नाहिद ने अपनी मां से कहा.

इतने में फिर घंटी बजी, 3 बार लगातार घंटी बजाई गई अब.

‘‘कौन है? कोई अगर है तो दरवाजे के पास लाइट का बटन है उस को औन कर दो. वरना दरवाजा भी नहीं खुलेगा,’’ नाहिद ने आराम से मगर थोड़ा डरते हुए कहा. बाहर से न किसी ने लाइट खोली न ही अपना नाम बताया.

नाहिद की मम्मी ने भी दरवाजा खोलने के लिए मना कर दिया. उन्हें लगा एकदो बार घंटी बजा कर जो भी है चला जाएगा. पर घंटी लगातार बजती रही. फिर नाहिद की मां दरवाजे के पास गई और बोली, ‘‘देखो, जो भी हो चले जाओ और परेशान मत करो, वरना पुलिस को बुला लेंगे.’’

मां के इतना कहते ही बाहर से रोने की सी आवाज आने लगी. मां शीशे से बाहर देख ही रही थी कि लाइट आ गई पर जो बाहर था उस ने पहले ही लाइट बंद कर दी थी.

‘‘अब क्या करें तेरे पापा भी नहीं हैं, फोन किया तो परेशान हो जाएंगे, शहर से बाहर वैसे ही हैं,’’ नाहिद की मां ने कहा. थोड़ी देर बाद घंटी फिर बजी. नाहिद की मां ने शीशे से देखा तो अखबार वाला सीढि़यों से जा रहा था. मां ने जल्दी से खिड़की में जा कर अखबार वाले से पूछा कि अखबार किसे दिया और कौनकौन था. वह थोड़ा डरा हुआ लग रहा था, कहने लगा, ‘‘कोई औरत है, उस ने अखबार ले लिया.’’ इस से पहले कि नाहिद की मां कुछ और कहती वह जल्दी से अपनी साइकिल पर सवार हो कर चला गया.

अब मां ने नाहिद से कहा बालकनी से पड़ोस वाली आंटी को बुलाने के लिए. आंटी ने कहा कि वह तो घर में अकेली है, पति दफ्तर जा चुके हैं पर वह आ रही हैं देखने के लिए कि कौन है. आंटी भी थोड़ा डरती हुई सीढि़यां चढ़ रही थी, पर देखते ही कि कौन खड़ा है, वह हंसने लगी और जोर से बोली, ‘‘देखो तो कितना बड़ा चोर है दरवाजे पर, आप की बेटी है शाजिया.’’

शाजिया नाहिद की बड़ी बहन है. वह सुबह में अपनी ससुराल से घर आई थी अपनी मां और बहन से मिलने. अब दोनों नाहिद और मां की जान में जान आई.

मां ने कहा कि सुबहसुबह सब को परेशान कर दिया, यह अच्छी बात नहीं है.

शाजिया ने कहा कि इस वजह से पता तो चल गया कि कौन कितना बहादुर है. नाहिद ने पूछा, ‘‘वह अखबार वाला क्यों डर गया था?’’

शाजिया बोली, ‘‘अंधेरा था तो मैं ने बिना कुछ बोले अपना हाथ आगे कर दिया अखबार लेने के लिए और वह बेचारा डर गया और आप को जो लग रहा था कि मैं रो रही थी, दरअसल मैं हंस रही थी. अंधेरे के चलते आप को लगा कि कोई औरत रो रही है.’’

फिर हंसते हुए बोली, ‘‘पर इस लाइट का स्विच अंदर होना चाहिए, बाहर से कोई भी बंद कर देगा तो पता ही नहीं चलेगा.’’ शाजिया अभी भी हंस रही थी.

आंटी ने बताया कि उन की बिल्ंिडग में तो चोर ही आ गया था रात में. जिन के डबल दरवाजे नहीं थे, मतलब एक लकड़ी का और एक लोहे वाला तो लकड़ी वाले में से सब के पीतल के हैंडल गायब थे.

थोड़ी देर बाद आंटी चाय पी कर जाने लगी, तभी गेट पर देखा उन के दूसरे दरवाजे, जिस में लोहे का गेट नहीं था, से   पीतल का हैंडल गायब था. तब आंटी ने कहा, ‘‘जो चोर आया था उस का आप को पता नहीं चला और अपनी बेटी को अजनबी समझ कर डर गईं.’’ सब जोर से हंसने लगे.

पीडीए यानी पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक भी चला समाजवाद की राह

4 अक्टूबर, 1992 को जब समाजवादी पार्टी बनी तो उस की विचारधारा समाजवाद रखी गई थी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की राजनीति किसानों पर आधारित थी. मुलायम सिंह की राजनीतिक शुरुआत किसान नेता चौधरी चरण सिंह के सान्निध्य में हुई थी. मुलायम उन को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. चौधरी चरण सिंह के बाद लोकदल का बंटवारा हुआ. तब मुलायम सिह यादव ने देवीलाल का दामन थाम लिया. जनता दल के बाद मुलायम सिह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाई. समाजवादी पार्टी के नाम में भले ही समाजवाद था पर उस के संगठन में समाजवाद की कोई जगह नहीं थी.

यह बात और है कि मुलायम सिंह यादव ने पार्टी को चलाने के लिए जो जातीय ढांचा तैयार किया उस में पिछड़ी जातियों को एक स्थान दिया. यह केवल दिखावेभर के लिए था. समाजवादी पार्टी में सब से प्रमुख स्थान मुलायम सिंह यादव ने अपने परिवार को दिया, दूसरा स्थान अपनी यादव जाति को दिया. धीरेधीरे ये दोनों ही पार्टी पर हावी होते गए. समाजवादी पार्टी को मुसिलम वोटबैंक का मजबूत साथ 1990 से ही मिलना शुरू हो गया था जब मुलायम सिंह यादव ने अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाई थी. उस दौर में मुलायम सिंह यादव का नाम ‘मुल्ला मुलायम’ भी पड़ गया था.

तब से मुसलिम और यादव समाजवादी पार्टी का सब से मजबूत वोटबैंक बन गया था. बाकी जातियों को जरूरतभर का महत्त्व मिलता था. जरूरत थी तो मुलायम सिह यादव ने बसपा के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. इस के बाद बसपा नेता मायावती को खत्म करने की राजनीति के तहत 2 जून, 1995 को लखनऊ का गेस्टहाउस कांड हो गया. 2003 में मुलायम सिंह यादव ने लोकदल के चौधरी अजित सिंह और भाजपा छोड़ कर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाने वाले कल्याण सिंह के साथ समझौता कर सरकार बनाई.

खुद ही मुख्यमंत्री बने पर 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा से वे हार गए. इस के बाद 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया. इस के बाद का समाजवाद पूरी तरह से परिवारवाद में बदल गया. समाजवादी पार्टी ही नहीं, मुलायम परिवार भी टूट गया. मुलायम सिह यादव के भाई शिवपाल यादव अलग हुए. उस के बाद समाजवादी पार्टी कोई चुनाव जीती नहीं. जबकि उस ने कांग्रेस, बसपा और लोकदल के साथ समझौता कर चुनाव लड़े थे.

पीडीए भी केवल नाम का

लगातार हार का सामना कर रहे अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए पीडीए का नारा दिया. पीडीए की परिभाषा वे लगातार बदलते रहे. पहले पीडीए का मतलब पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक बताया गया. जो मुसलिम वर्ग साथ था उस के बारे में खुल कर बोलने से अखिलेश यादव बचते रहे. इस के बाद ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा बदलते हुए उस को इंग्लिश का ’ए’ समझाते हुए कहा गया ‘ए’ फौर ‘अगड़ा’ यानी सवर्ण और ‘ए’ फौर ‘आधी आबादी’ भी होता है. सपा ने अपने सब से बड़े वोटबैंक मुसलिम को अल्पसंख्यक कहा जिस से उस में बौद्ध, जैन जैसे अल्पसंख्यकों के साथ मुसलिम को रखा जा सके. उस के बाद अल्पसंख्यक की ‘ए’ कैटेगरी बनाई गई जिस में औरतों और अगड़ों को जगह दी गई.

इस तरह से पीडीए की कल्पना लगातार बदलती रही. जब राज्यसभा जैसे मौके आए तो 3 में से 2 स्थान यानी आलोक रंजन और जया बच्चन को टिकट दिया गया. जो अगड़ा वर्ग से आते हैं. रामजी लाल सुमन को टिकट दिया गया. इस तरह से पीडीए का ध्यान यहां नहीं रखा गया. इस को ले कर अखिलेश यादव निशाने पर हैं. समाजवाद की ही तरह से सपा में पीडीए भी केवल नामभर के लिए रह गया है. समाजवाद का अर्थ होता है समाज के हर वर्ग को समान अधिकार. समाजवादी पार्टी में न तो कभी समाजवाद था और न ही पीडीए में हर वर्ग को जगह दी गई.

समाजवादी पार्टी की सब से बड़ी परेशानी यह है कि वह अपनी विचारधारा पर कभी खरी नहीं उतरी. धर्मनिरपेक्षता की बात करतेकरते वह सनातन की राह पर चल देती है. वह शंकर का मंदिर भी बनवा रही है. पार्टी मुखिया पहले भी परशुराम का फरसा लगवा चुके हैं. बिना विचारधारा के कोई राजनीतिक दल चुनाव नहीं जीत सकता है. पीडीए भी समाजवाद की तरह सपा की फाइलों में कैद है. सपा की नीतियों में न पीडीए दिख रहा है, न समाजवाद.

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