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हमारी बेडि़यां

विदर्भ क्षेत्र के अमरावती जिले के आदिवासी क्षेत्र मेलघाट में चिखलदरा अच्छी आबोहवा वाला पर्यटन स्थल है. हम लोग उस स्थल पर घूमने के लिए गए हुए थे. हमें पता चला कि पास ही के गाड़ीझड़प गांव में रोंगटे खड़े कर देने वाला एक अघोरी का मामला सामने आया है. वहां एक नाबालिग कुंआरी लड़की से जन्मे 20 दिन के बच्चे का पेट फूलने तथा श्वास लेने में तकलीफ होने के चलते उसे अस्पताल के बजाय भूमका (तांत्रिक) के हवाले कर दिया गया. भूमका ने उपचार के नाम पर नवजात को 100 से अधिक बार गरम दरांती से चटके दिए. उस के शरीर को दागा. गरम दरांती से दागने से नवजात का पूरा नाजुक शरीर झुलस गया. देखने के बाद हम लोगों ने मामले की जानकारी चिखलदरा के तहसीलदार को दी और बच्चे को वहां के पिछड़े इलाके के लिए बनाए गए चुरणी ग्रामीण अस्पताल ले जाया गया. इतने बडे़ अस्पताल में कोई भी डाक्टर मौजूद न होने के कारण बच्चे को आखिरकार नागपुर ले जाया गया. हमें बताया गया कि यहां बच्चे से ले कर बुजुर्ग तक सभी को शरीर में कहीं भी दर्द होने के स्थान पर ‘डंबा’ के नाम से गरम दरांती से दागने का यही उपचार प्रचलित है.

गंगा प्रसाद मिश्र, नागपुर (महा.)

*

मेरे पड़ोस में बुजुर्ग पतिपत्नी रहते हैं. वे एक दिन मुझ से बोले, ‘मैं सेजिया दान करा रहा हूं, पंडित से मेरी बात हो गई है.’ उन के घर में सेजिया दान की तैयारी होने लगी. नया बैड व उस पर का सारा सामान रजाई, गद्दा खरीद कर लाया गया. सेजिया दान के दिन उन का बेटा व बहू भी मुंबई से आ गए.

कार्यक्रम शुरू हुआ. पंडितजी पूजापाठ करा रहे थे. पूजा के बाद उन्होंने लकडि़यों को करीने से लगाना शुरू किया. लकडि़यां लगाने के बाद उन्होंने अपने झोले में से एक पुतला निकाला व उसे लकडि़यों पर लिटाने लगे. इतने में उन का बेटा बिगड़ गया. कहने लगा, ‘अरे, आप यह क्या कर रहे हैं? दान लेने के लिए आप जीतेजी मेरे पिताजी का पुतला जला रहे हैं.’ पंडितजी को बहुत डांटा और तुरंत पूजा बंद कराई. पिताजी को भी डांटा कि आप वैसे ही पंडितजी को बुला कर दान कर देते, ये सब ढोंग करने की क्या आवश्यकता थी. उन के बेटे की बात मुझे बहुत अच्छी लगी. मैं ने भी उस का पूरा सहयोग किया. पंडितजी चुपचाप सामान ले कर चले गए.

उपमा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

सूक्तियां

जिंदगी

यों तो जिंदगी जैसेतैसे सभी की गुजर जाती है पर असली जीना तो उन का है जो एक उद्देश्य के लिए जीते हैं. दरअसल कुछ चाहने और फिर उसे प्राप्त करने की कोशिश में ही आदमी जिंदगी का असली मजा ले सकता है.

दानवीर

युद्ध में वीरता दिखाना आश्चर्य का काम नहीं है, किंतु ईर्ष्याहीन हो कर दान करना बहुत कठिन है. संसार में महापराक्रमी शूरवीर तो अनेक हैं किंतु दानवीर सब से श्रेष्ठ है.

तरुणाई

तरुणाई अपने खून की गरमी के कारण अपनी रुचियां बदल देती है, बुढ़ापा आदत के वशीभूत हो कर उन्हीं का पीछा करता रहता है.

झूठ

हरेक झूठ, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, एक ऐसी खाई का किनारा होता है जिस की गहराई कभी नहीं नापी जा सकती.

जीनामरना

यह बात कोई महत्त्व नहीं रखती कि आदमी मरता कैसे है, बल्कि यह कि वह जीता किस तरह है.

कार्य

मनुष्य के संपूर्ण कार्य उस की इच्छा के प्रतिबिंब होते हैं.

ये पत्नियां

हमारे एक फैमिली फ्रैंड हैं समीरभाई. वे गुलाम अली की गजलें बहुत अच्छी तरह गाते हैं. जब भी हम लोग उन के घर जाते हैं, 2-4 गजलें जरूर सुनते हैं. पर उन की पत्नी को गजलों का शौक नहीं है. उस दिन मैं, भाभी व भैया समीरभाई के घर गए. वे हमें देख कर खुश हो गए व जल्दी से हारमोनियम ले कर आ गए. और मेरी भाभी ने फरमाइश की, ‘चुपकेचुपके रातदिन आंसू बहाना याद है…’ सुनाइए. समीरभाई हारमोनियम पर उस की धुन निकाल कर गुनगुनाने लगे. तभी समीरभाई की बीवी, विभा बोल पड़ीं, ‘‘आप लोग क्या लेंगे?’’

समीरभाई जल्दी से बोले, ‘‘अरे भई, कुछ भी ले आओ, सब चलेगा.’’ फिर उन्होंने मुखड़ा शुरू किया ही था कि विभाजी ने पूछा, ‘‘पर ठंडा लेंगे या गरम?’’ मेरे भाई ने कहा, ‘‘मेरा गला खराब है, आप तो गरम ही ले आइए,’’ समीरभाई ने अंतरा उठाया ही था कि विभाजी ने फिर पूछा, ‘‘चाय लेंगे या कौफी?’’ मैं ने कहा,

‘‘विभाजी, आप कौफी बना लीजिए.’’ वे रसोई में गईं. समीरभाई ने चैन की सांस ली. समीरभाई आखिरी लाइन पर थे कि वे वापस आईं और कहने लगीं, ‘‘?अरे भई, अभी मैं ने कौफी की बौटल देखी, कौफी तो खत्म हो गई.’’ समीरभाई ने झुंझला कर गाना बंद कर दिया और हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘ओ मेरी अर्धांगिनी, चाय ही बना लाओ. वह तो है. सब वही पी कर तुम्हें दुआ देंगे,’’ उन की बात सुन कर हम लोग मुसकरा पड़े. विभाजी झेंप कर चाय बनाने चली गईं.  

शकीला एस हुसैन, भोपाल (म.प्र.)

*

मुझे बुखार आया था. पुराना थर्मामीटर टूट चुका था, सो तुरंत नया थर्मामीटर मंगवाया. थोड़ी देर बाद मेरी बीवी बोली, ‘‘ओहो, थर्मामीटर तो धोते समय टूट गया.’’ ‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर मैं ने दूसरा थर्मामीटर मंगवाया. बेगम साहिबा रोनी सूरत बना कर फिर बोलीं, ‘‘वह दूसरा भी धोते समय टूट गया.’’ मैं ने कहा, ‘‘अरे, ऐसा क्या कर रही हो कि धोते वक्त ही टूट रहा है?’’ वे बोलीं, ‘‘आप ही तो कांच के सामान को गरम पानी में धोने के बाद इस्तेमाल करने को कहते हैं.’’ उन की बात सुन कर सारा माजरा मेरी समझ में आ गया. वे थर्मामीटर को भी गरम पानी में डाल देती थीं जिस से पारा ऊपर तक पहुंच कर टूट जाता था. मुझे अपनी बीवी की नादानी पर जोर से हंसी आ गई और मुंह से निकला, वाह श्रीमतीजी.           

सागर अग्रवाल, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

बच्चों के मुख से

मेरी भतीजी है तो 5 वर्ष की लेकिन बहुत बातूनी है. अभी भी वह बोतल से ही दूध पीती है. वह अकसर मेरी छोटी बहन से उलझा करती है. एक दिन वह बहन से बोली, ‘‘बूआ, मैं बहुत से ऐसे काम कर सकती हूं जो आप नहीं कर सकतीं.’’ बहन बोली, ‘‘नहीं, मैं सभी काम कर सकती हूं,’’ तो वह बोली, ‘‘आप मम्मा से दूध की बोतल ले कर मेरी तरह लेट कर दूध नहीं पी सकतीं.’’ मेरी बहन का मुंह देखने लायक था. हम सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

मैं ने अपने 2वर्ष 3 माह के बेटे अर्णव को एक धूप का काला चश्मा ला कर दिया. उसे वह बहुत शौक से पहनता है और पहन कर खुश हो जाता है. एक दिन अर्णव अपनी नानी के साथ खेल रहा था. नानी एक पत्रिका पढ़ रही थीं. पत्रिका के चित्रों में अर्णव दिलचस्पी दिखा रहा था. जब भी कोई विज्ञापन का चित्र उसे अच्छा लगता, तुरंत हाथ रख कर नानी को रोक देता व उस चित्र को ध्यान से मन भर कर देखता. मन भरने के बाद ही वह उन्हें आगे पढ़ने देता. इसी क्रम में एक विज्ञापन देख कर वह जोर से बोल उठा, ‘‘नानीनानी, देखो इन आंटी ने चश्मा, पेट में पहन रखा है.’’ चित्र देख कर नानी की हंसी छूट पड़ी, देखा, एक ब्रा कंपनी के विज्ञापन में एक महिला ने काली ब्रा पहन रखी थी, जिस का आकार अर्णव के चश्मे के फ्रेम से मिलता था.

गुंजन गुप्ता, बेंगलुरु (कर्नाटक)

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मेरे भांजे का 8 वर्षीय बेटा अर्णव बहुत ही शरारती व हाजिरजवाब है. गरमी की छुट्टियों में 5-6 दिन अपनी बूआ के घर रह कर बूआ के साथ लौटा. भांजे ने अपनी बहन के जाने के बाद अर्णव से कहा कि इतने दिनों तक पापा की याद नहीं आई? और मैं ने तो तुम्हें बूआ को गोद दे दिया है तो फिर अपनी मां (बूआ) के साथ क्यों नहीं गया? अर्णव थोड़ी देर तो चुपचाप सब सुन कर बैठा रहा, फिर कमरे से बाहर चला गया. भांजे ने सोचा कि मजाक कहीं ज्यादा तो नहीं हो गया? वह रूठ गया है शायद. तभी अर्णव कमरे में आया और बड़ी मासूमियत से गाने लगा, ‘‘अपने तो अपने होते हैं.’’ उस को हैरत से देखते हुए दोनों पतिपत्नी हंस पड़े कि क्या मौके का गीत गाया है और उसे यह गीत याद कैसे आया.

अंजु सिंगड़ोदिया, हावड़ा (प.बं.)

मत बांधो बंधन में

प्रकृति की कृति को आप ने

कभी देखा गौर से?

बहती कलकल करती नदी

गुनगुनाते भौंरे, कुहकती कोयल

कब अलापते हैं

राग किसी मजहब का

वृक्ष पेड़पौधे पर्वत पहाड़

कब पहनते कोई संप्रदाय चिह्न

और कब बंधे जीवजंतु

किसी जातधरम के बंधन में

ये तनिक भी कैद नहीं

किसी पंथ संप्रदाय के बाड़े में

प्रकृति की ही कृति मानव

फिर क्योंकर है कैद

इन सब अमानवीय बंधनों में

कितना जकड़ा है वह

ये कैसा सभ्य सुसंस्कृत

प्रगतिवादी है मानव

काश, आदमी सिर्फ आदमी होता

स्वजनित छल प्रपंचों से दूर

प्रकृति की मूल कृति

निखालिस आदमजात इक जीव.

                – केवलानंद पंत

जैनेरिक दवा : दो पाटों के बीच पिस रहे मरीज

हाल ही में मोदी सरकार ने नई दवा नीति की घोषणा की है. दवा बनाने वाली कंपनियों से ले कर बेचने वालों और उपभोक्ताओं तक हर किसी को इस नीति में खामी नजर आ रही है. दवा नीति को दवाओं की कीमतों में वृद्धि के मद्देनजर देखा जा रहा है, क्योंकि थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर कीमत में सालाना संशोधन अनिवार्य हो गया है. हालांकि दावा है कि एक साल में दवा की कीमतों में वृद्धि 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. इस के अलावा जिन दवाओं की बिक्री 1 प्रतिशत से ज्यादा है, ऐसी 348 आवश्यक दवाओं की कीमत की सीमा सरकार निर्धारित करेगी. पिछले 18 सालों में दवाओं की कीमतों में वृद्धि का आंकड़ा देखा जाए तो साफ  हो जाएगा कि इन की कीमतों में बेहताशा वृद्धि हुई है. 1996 से 2006 के बीच का आंकड़ा बताता है कि कीमतों में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी. लेकिन इस के बाद एक समय ऐसा भी आया जब सिप्ला ने कैंसर के इलाज में इस्तेमाल होने वाली जैनेरिक दवाओं की कीमतें 76 प्रतिशत घटा दीं. इस से मस्तिष्क के कैंसर की दवा टेमोसाइड की 250 मिलिग्राम टैबलेट की कीमत कम हुई. 20 हजार रुपए से अधिक की कीमत वाली यह दवा 5 हजार रुपए में मिलने लगी थी. वहीं फेफड़े के कैंसर की जेफ्टीसिप 250 मिलिग्राम की 30 गोली वाले पैक की कीमत 10 हजार रुपए से घट कर साढ़े 4 हजार रुपए रह गई थी.

मोदी सरकार ने नई दवा नीति की घोषणा कर के बड़ा झटका दिया है. कैंसर से ले कर ब्लडप्रैशर तक की दवाएं महंगी हो गई हैं. कैंसर की जो दवा (ग्लिवेक) साढ़े 8 हजार रुपए में मिलती थी, वह अब लगभग 1 लाख रुपए की हो गई है. इसी तरह कैंसर की एक अन्य दवा की कीमत पहले 500 रुपए थी, वह अब दोगुनी कीमत (1,100 रुपए) की हो गई है. ब्लडप्रैशर की एक दवा की कीमत 147 रुपए से बढ़ कर 1,600 रुपए हो गई है. रैबीज की जो दवा पहले 2,700 रुपए में आती थी, अब लगभग 7 हजार रुपए की हो गई है. जाहिर है मरीज और उस के परिजन की जेब पर मर्ज से कहीं भारी पड़ता है मर्ज का इलाज. अब अगर जैनेरिक दवाओं की बात करें तो कहने की जरूरत नहीं कि ये मरीज और मरीज के परिजन को बहुत बड़ी राहत देती हैं. इस का अंदाजा आगे दिए गए विवरण से मिल जाता है. ये दवाएं अपने वैज्ञानिक फार्मूले के नाम से मिलती हैं, ब्रैंड के नाम से नहीं.

कैंसर के इलाज के लिए दी जाने वाली दवाओं में से एक दवा है नेक्सावर. यह दवा मरीज को आजीवन लेनी पड़ती है. इस दवा का पेटेंट जरमन फार्मास्युटिकल कंपनी बेयर के पास है. इस की 120 गोलियों वाले एक पैक की कीमत 2013 तक 2.84 लाख रुपए थी. जाहिर है पहली बार इस की कीमत जानने के बाद मरीज के परिजनों के होश फाख्ता हो जाएंगे. इस दवा का जैनेरिक नाम सोराफिनिब टौसीलेट है. इस की कीमत लगभग 8 हजार रुपए है. इसी तरह मलेरिया के लिए 3 तरह के इंजैक्शन दिए जाते हैं, जो आर्टिसुनेट सौल्ट से तैयार किए जाते हैं. 3 इंजैक्शनों के एक पैक की कीमत लगभग 400 रुपए है जबकि इस की जैनेरिक दवा की कीमत महज 30 रुपए है. डायबिटीज के लिए बाजार में कई ब्रैंडेड कंपनियों की दवाएं उपलब्ध हैं. सभी ब्रैंडेड कंपनियों की ये दवाएं ग्लाइमपीराइड नामक सौल्ट से बनती हैं. इस मर्ज की 10 ब्रैंडेड गोलियों की एक फाइल की कीमत जहां 125 रुपए है, वहां ग्लाइमपीराइड की कीमत महज 2 रुपए है.

इसी तरह सर्दीजुकाम के लिए भी बाजार में तरहतरह के ब्रैंड की दवाएं मिलती हैं. जुकाम की दवा में आमतौर पर सेट्रीजाइन सौल्ट होता है. ब्रैंडेड दवा की कीमत जहां 35 रुपए फाइल (10 गोलियों का एक पैक) है वहीं जैनेरिक सौल्ट सेट्रीजाइन की कीमत महज ढाई रुपए होती है. हैजे की दवा जिस सौल्ट से तैयार की जाती है उस का नाम है डोमपेरिडौन. इस की ब्रैंडेड दवा के एक फाइल की कीमत 33 से 40 रुपए तक है, वहीं जैनेरिक दवा की कीमत सिर्फ और सिर्फ 1.25 रुपए है. क्रोसीन की जैनेरिक दवा का नाम है पैरासिटामौल, जिस की कीमत क्रोसीन की तुलना में तीनचौथाई कम होती है. साफ  है कि इन सभी मर्ज की ब्रैंडेड दवाओं की कीमतें जैनेरिक दवा की तुलना में कहीं अधिक होती हैं. गौरतलब है कि आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ कार्यक्रम के जरिए जैनेरिक दवा का अच्छाखासा प्रचार हुआ. यह बात जनजन के मन में घर कर गई कि ब्रैंडेड दवाओं की तुलना में ये कहीं सस्ती होती हैं. तब से आम जनता में जैनेरिक दवाओं की मांग बढ़ती चली जा रही है. आलम यह है कि अब लोग डाक्टरों से प्रिस्क्रिप्शन में जेनरिक दवाओं के नाम लिखने पर जोर दे रहे हैं. कैमिस्ट की दुकान में भी हर रोज औसतन एकाध लोग जैनेरिक दवा की मांग करते हैं. लेकिन दोनों ही स्तर पर लोगों को निराशा ही मिलती है. जहां तक जैनेरिक बनाम ब्रैंडेड दवा पर चर्चा का सवाल है तो यह बदस्तूर जारी है.

ब्रैंडेड बनाम जैनेरिक दवा

इस मुद्दे की विस्तार से चर्चा करने से पहले यह समझ लें कि यह जैनेरिक दवा आखिर है क्या? दरअसल, हरेक दवा का एक रासायनिक संयोजन होता है. इसे फार्माकोपियल कहते हैं, जिस का अर्थ दवा का मूल घटक या ऐक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रीडैंट है. जैनेरिक दवा वह दवा है जो बिना किसी पेटेंट के बनाई जाती है और वितरित भी की जाती है. जैनेरिक दवा के फार्मुलेशन का पेटेंट हो सकता है किंतु उस के सक्रिय घटक या रासायनिक संयोजन का पेटेंट नहीं होता. जबकि ब्रैंडेड दवा का पेटेंट होता है, और जिस के प्रचारप्रसार पर कंपनी लाखों रुपए खर्च करती है. कंपनी को दवा को दुकानों तक पहुंचाने के लिए सेल्समैन और मैडिकल रिप्रैजेंटेटिव की यात्रा पर खर्च करना पड़ता है और डाक्टरों के जरिए इस की बिक्री करवाने के लिए इंसैंटिव आदि देना होता है. कंपनी जैनेरिक दवा की लागत में इन खर्चों को जोड़ देती है. इस कारण ब्रैंडेड दवा की कीमत बढ़ जाती है.

जैनेरिक दवाओं की कीमत पर सरकार का अंकुश होता है. लेकिन किसी ब्रैंड विशेष की दवा का पेटेंट होता है और उस की कीमत निर्माता कंपनी खुद तय करती है. जाहिर है वह महंगी होगी. सीटीजेड, पाईरेस्टेट-100ए मेरिसुलाइड, ओमेसेक-20, ओमिप्राजोल, लिगनोकेन, बूपीवैक्सीन, एसिटिल सालिसाइकिल एसिड डिक्लोफेनेक, इबूप्रोफेन, पैरासिटामौल, क्लोरोक्वीन, एमलोडिपिन, एटीनोलेल, लोसार्टन, मेटफोरमिन, प्रोगेस्टीरोन आदि कुछ जैनेरिक दवाएं हैं. इन से तैयार बहुत सारी दवाएं बाजार में बिकती हैं. भारत में इस समय लगभग दवा के 93 हजार ब्रैंड हैं.

दवा की कीमतों को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थिति कितनी गंभीर है. लेकिन सवाल यह है कि डाक्टरों द्वारा दवा का जैनेरिक नाम लिख देने से क्या समस्या का समाधान हो जाएगा? कोलकाता में लंबे समय से जनरल फिजीशियन के रूप में प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डा. सौमित्र राय का कहना है कि भारत के हर छोटेबड़े शहर और कसबे में डाक्टरों को ले कर लोगों को छिटपुट शिकायतें रहती ही हैं. इस नई मांग के मद्देनजर डाक्टरों की मानवीयता को जैनेरिक और ब्रैंडेड दवाओं से जोड़ कर मापा जा रहा है. डा. राय का कहना है कि जैनेरिक दवा को ले कर जो प्रचार इन दिनों हुआ है, यह उसी का नतीजा है. सामान्यतौर पर प्रिस्क्रिप्शन लिखने में दिक्कतें पेश आ रही हैं. मरीज और मरीज के परिजनों के मन में एक ही बात घर कर गई है कि जैनेरिक दवा सस्ती होती है. इसीलिए डाक्टरों पर दबाव बनाया जा रहा है कि पर्ची में जैनेरिक नाम ही लिखा जाए, न कि किसी ब्रैंडेड का. कुल मिला कर एक भ्रम की स्थिति बन गई है.

डा. राय मरीज और मरीज के परिजनों की इस मांग को गैरवाजिब मानते हैं. उन का कहना है कि दवा खरीदना बाजार से बासमती चावल या खाद्य तेल खरीदने जैसा कतई नहीं है. इसे और खुलासा करते हुए वे कहते हैं कि बासमती चावल या खाद्य तेल खरीदना है तो यह हम और हमारी जेब पर निर्भर करता है कि हम ब्रैंडेड खरीदेंगे या खुला. जाहिर है खुदरा या खुले बासमती चावल की कीमत ब्रैंडेड बासमती की तुलना में कम होगी. अगर खुला चावल यानी गैर ब्रैंडेड चावल बढि़या है तो ठीक है. लेकिन अगर अच्छा नहीं है तो भी कुछ नहीं किया जा सकता. इस के उलट अगर ब्रैंडेड चावल खराब है तो हम क्रेता सुरक्षा अदालत में जा सकते हैं. जबकि खुला चावल खराब निकलता है तो कुछ नहीं किया जा सकता. दवा का भी मामला ठीक वैसा ही है. जैनेरिक दवा की गुणवत्ता अच्छी न होने की सूरत में कुछ नहीं किया जा सकता. वहीं ब्रैंडेड दवा पर नजर रखने के बहुत सारे उपाय हैं.

डा. राय कहते हैं कि दूसरी सब से जरूरी बात यह कि चावल हम अपनी पसंद का खरीदने को आजाद हैं और इस की पूरी जिम्मेदारी भी हम उठाने को तैयार हो सकते हैं. लेकिन दवा के मामले में हमारे पास न यह मौका होता है और न ही यह आजादी कि हम अपने लिए दवा पसंद करें. जाहिर है कि दवा प्रिस्क्राइब करने का काम डाक्टर का है और दवा से जुड़ी तमाम जिम्मेदारी डाक्टर की है. और कैमिस्ट की दुकान से दवा के साथ रसीद लेने पर दवा के अच्छेखराब की जिम्मेदारी कैमिस्ट की हो जाती है. मजेदार बात यह है कि यहीं से तमाम विवादों की भी शुरुआत होती है. चूंकि यह डाक्टर को तय करना होता है कि किसी दवा का वह कौन सा नाम लिखेगा, जाहिर है दवा निर्माता कंपनी के विपणन विभाग द्वारा डाक्टर को प्रभावित करने की पूरी गुंजाइश रह ही जाती है. ऐसे कंपनी विशेष डाक्टर पर प्रिस्क्रिप्शन में अपनी कंपनी की दवा लिखने के लिए दबाव बनाती है.

कमीशन का खेल

एक आम धारणा बन गई है कि डाक्टर कंपनी के दबाव में आ कर किसी कंपनी विशेष की दवा पर्ची में लिखता है. नतीजतन, मरीज पर्ची में लिखी गई कीमती दवा खरीदने को मजबूर होता है. डा. राय कहते हैं कि बहुत सारे मामलों में ऐसा होता भी है कि अपने कमीशन के स्वार्थ और फायदे के लिए या फिर कंपनी द्वारा दिए गए इंसैंटिव के दबाव में डाक्टर उस विशेष कंपनी की दवा पर्ची में लिख भी रहे हैं. दबाव डालने के लिए दवा निर्माता कंपनियां उन्हें कभी कुछ उपहार देने या उन्हें विदेश टूर पर भेजने का हथकंडा तक अपनाती हैं. इस के पीछे कमीशन का खेल भी होता है. दवा की कीमत के अनुपात में कंपनी कमीशन देती है. अधिक कीमत, अधिक कमीशन. यही नहीं, कई दवा निर्माता कंपनियां तो चिकित्सकों के घर का पूरा खर्च तक उठा रही हैं. जाहिर है डाक्टर कम कीमत वाली दवा पर्ची में नहीं लिखते हैं. 

कानून की उड़ती धज्जियां

दवा की कीमत का जहां तक सवाल है, सरकार ने ड्रग प्राइस ऐंड कंट्रोल एक्ट 1940 में बनाया था. लेकिन यह एक्ट पूरी तरह से लागू नहीं है. ब्रैंडेड कंपनियां मनमानी कर रही हैं. जैनेरिक दवाएं उत्पादक से सीधे रिटेलर तक पहुंचती हैं. इन दवाओं के प्रचारप्रसार पर कंपनियों को कुछ खर्च नहीं करना पड़ता. इन पर छपे मूल्य पर स्थानीय कर अतिरिक्त लिखा होता है. एक ही कंपनी की पेटेंट और जैनेरिक दवाओं के मूल्य में काफी अंतर होता है. चूंकि जैनेरिक दवाओं के मूल्य निर्धारण पर सरकारी अंकुश होता है, इसलिए वे सस्ती होती हैं, जबकि पेटेंट दवाओं की कीमत कंपनियां खुद तय करती हैं, इसलिए वे महंगी होती हैं. लेकिन क्या इस चलन को बंद करने का केवल यही एकमात्र रास्ता है कि पर्ची में दवा का जैनेरिक नाम ही लिखा जाए? अपने ही सवाल के जवाब में डा. राय बहुत जोर दे कर कहते हैं, ‘‘नहीं, समस्या का यह कोई समाधान नहीं.’’

दवा के लिए जवाबदेही

डा. राय कहते हैं कि अगर डाक्टर ने दवा का जैनेरिक नाम लिख दिया, तो मरीज या उस का परिजन दवा की दुकान में जा कर क्या खरीदेगा? क्या खरीदा जाए और क्या नहीं-अलिखित रूप से यह तय करने वाला दवा दुकान का कर्मचारी ही हो जाएगा. और तब कंपनियों का ध्यान डाक्टर से हट कर दुकानदारों और उस के कर्मचारियों पर जा टिकेगा. निर्माता कंपनियां जो दबाव डाक्टर पर बनाया करती हैं, वही दबाव दुकानदारों और उस के कर्मचारियों पर बनाने लगेंगी. यह एक बहुत ही भयानक स्थिति होगी. डाक्टर तो फिर भी डाक्टर है. मरीज का एकमात्र भरोसा. उस पर प्रिस्क्रिप्शन में दवा लिख कर हस्ताक्षर करने और अपना रजिस्ट्रेशन नंबर लिखने के बाद डाक्टर की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. इसी के साथ डाक्टर के सिर पर इंडियन मैडिकल काउंसिल, राज्य स्वास्थ्य विभाग और उपभोक्ता अदालत आदि की तलवारें लटकती रहती हैं. उसे जवाबदेही करनी पड़ती है. जबकि कैमिस्ट और उस के कर्मचारी की किसी बात के लिए जवाबदेही नहीं बनती है. इसीलिए इन पर डाक्टर जैसा भरोसा नहीं किया जा सकता. दुकानदार अपनी पसंदीदा दवा बेच कर निकल जाएंगे, और ग्राहक को पता ही नहीं चलेगा कि उस ने क्या खरीदा. उस पर यह सब जबानी ही होगा.

सरकार करे पहल

जैनेरिक दवाएं अपने रासायनिक नामों से ही बेची जाती हैं. रासायनिक संयोजन के कई फायदे हैं, जैसे इस का नाम भूलने की संभावना भी कम होती है. दवा की कीमत भी कम हो जाती है. डा. सौमित्र राय कहते हैं कि बाजार में बिकने वाली ज्यादातर दवाएं दो या दो से अधिक दवाओं के सम्मिश्रण से बनती हैं. दुनियाभर में इन दवाओं को मान्यता मिली हुई है. ऐसी दवाओं का जैनेरिक नाम लिखना लगभग असंभव है.

वे कहते हैं कि कुछ दवाएं हैं जो आमतौर पर सभी घरों में होती हैं, जैसे जेलूसिल या डाइजीन. निकल कर देख लीजिए कि इस के यौगिक या घटक क्याक्या हैं और कितनी मात्रा में हैं. यह पूरी तालिका किसी भी डाक्टर के लिए लिखना असंभव है. अगर जेलूसिल खाना है तो क्या इस के तमाम यौगिक लिख कर दुकान में जाना व्यावहारिक होगा? थोड़ा और साहस कीजिए और बिकोसूल कैप्सूल के यौगिकों को ध्यान से देखें. इस का जैनेरिक नाम लिखना डाक्टर के लिए कितना मुश्किल होगा! और भी थोड़ा आगे बढ़ कर सोचें. मान लीजिए कोई हाई ब्लडप्रैशर का मरीज है. इस के लिए कम से कम 50 तरह की दवाएं हैं. डाक्टर कौन सा नाम लिखेगा, यह जैनेरिक दवा बनाने वाली कंपनी द्वारा प्रभावित हो सकता है. उस पर जेनरिक दवा भी कोई न कोई कंपनी ही बनाती है. फिर क्या गारंटी है कि वहां भ्रष्टाचार शुरू नहीं होगा? यहां भी कैमिस्ट, स्टौकिस्ट्स और डाक्टरों की मिलीभगत शुरू हो जाएगी. सब जानते हैं कि हमारे यहां दवा का कारोबार डाक्टर, कैमिस्ट और स्टौकिस्ट की मिलीभगत से होता है. इस मिलीभगत को तोड़ने के लिए सरकार को पहल करनी होगी. जैनेरिक दवाओं को लोकप्रिय बनाने का दायित्व सरकार के फार्मास्युटिकल विभाग को उठाना होगा, बाजार में सभी दवाओं का जैनेरिक वर्जन उपलब्ध कराना होगा.

वे आगे कहते हैं कि 2008 में सरकार ने एक योजना ‘औषधिष’ के तहत इस की पहल भी की थी. लेकिन यह पहल बीच में ही ठप हो गई. और फिर पूरी योजना ठंडे बस्ते में चली गई. इस योजना के तहत देश के विभिन्न राज्यों में जैनेरिक दवाओं की दुकानें खोली जानी थीं. लेकिन महज 300 दुकानें खोलने के बाद यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई. हो सकता है दवा निर्माता कंपनियों के दवाब में आ कर ऐसा हुआ हो. बहरहाल, इस मुद्दे पर सही माने में विचार तभी किया जा सकेगा जब हम दिल पर हाथ रख कर अपनेआप से यह सवाल पूछेंगे कि बाजार से खुला खाद्य तेल खरीदना क्या हम पसंद करेंगे? इसीलिए बेहतर है कि यह काम डाक्टर के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए. सरकार जब तक बाजार में ब्रैंडेड दवा की बिक्री जारी रखेगी, तब तक डाक्टर को दवा का ब्रैंड चुनने की छूट देनी ही होगी. बेहतर है कि सरकार बाजार से ब्रैंड उठा ले और तमाम जैनेरिक दवा बाजार में उपलब्ध हों. मुद्दे का सारांश यह कि अगर जख्म है तो उसे ठीक करना जरूरी है, न कि जख्म का स्थान बदलना. इस से भी बड़ी बात यह कि ब्रैंडेड बनाम जैनेरिक दवा के 2 पाटों के बीच पिस रहे हैं मरीज व उस के परिजन

नेपाल भूकंप त्रासदी : जिंदगी की उम्मीद जगाते डाक्टर

प्रकृति से खिलवाड़, वैज्ञानिक और तकनीकी मोरचे पर कमजोरी और कुछ कमाई के बेपरवा नजरिए ने नेपाल को बरबादी के उस कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है जहां से उसे वापस आने में अरसा लग जाएगा. पर्यटन उद्योग की टूटी कमर ले कर देश की अर्थव्यवस्था को खड़ा करना नेपाल के लिए असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर है. प्राकृतिक आपदा से तहसनहस हुए नेपाल में जान व माल दोनों का भारी नुकसान हुआ. यह नुकसान और ज्यादा हो सकता था अगर मातम की इस बदरंग तसवीर में 2 चेहरे बड़े उजले नजर न आते. एक, बचाव के लिए जान जोखिम पर डालते हुए सेना के जवान और दूसरे, घायल व मरणासन्न लोगों में जिंदगी की उम्मीद फूंकते डाक्टर. मौजूदा दौर में चिकित्सा जगत और चिकित्सक अपने सेवाभाव के बजाय व्यावसायिक रवैए के चलते अकसर आलोचनाओं से घिरे रहते हैं. इस से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के ज्यादातार डाक्टर इलाज के नाम पर सिर्फ पैसा कमाने को ही अपना पेशा समझने लगे हैं. उन्हें गरीब आदमी की परेशानी व उस की आर्थिक मजबूरियों से कोई वास्ता नहीं है. कई मामलों में तो मरीज के आर्थिक व मानसिक शोषण की हद हो जाती है.

बहरहाल, नेपाल के भूकंप हादसे में तसवीर उलट नजर आई. भारत व नेपाल समेत दुनियाभर के डाक्टर इस मुश्किल घड़ी में न सिर्फ एकजुट नजर आए बल्कि अपने सेवाभाव से सैकड़ों जानें भी बचाईं. भारतीय डाक्टरों का नेपाल में सेवाभाव देखने वाला था. देशभर के अलगअलग राज्यों से डाक्टरों की टीमें तमाम चिकित्सा के औजार, दवाओं और राहत सामग्री ले कर नेपाल में राहत कार्यों में जीजान से जुटी दिखीं. वहां न तो तंबुओं का इंतजाम था, न ही दवाओं की आपूर्ति. बावजूद इस के, जिस से जो बन पड़ा, किया. कई डाक्टर तो ऐसे इलाकों में काम कर रहे थे जहां खानेपीने की भी पर्याप्त आपूर्ति नहीं थी. मसलन, भूकंप पीडि़तों को मुसकराहट दे कर वापस लौटे पटना के चिकित्सकों की टीम कभी रस्सी के सहारे पहाड़ों पर चढ़ी तो कभी रूखासूखा खा कर दिन गुजारा. लेकिन तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद ये लोगों की मदद में जुटे रहे. चिकित्सकों की ऐसी कई टीमों को नेपाल में सेवाभाव के लिए पुरस्कारों से भी नवाजा गया है. नेपाल से लौटे कई डाक्टरों को कई बार रस्सियों के सहारे पहाड़ों पर चढ़ कर काम करने जाना पड़ा. काफी कम साधनों के बावजूद इन से जो बन पड़ा, वहां के मरीजों के लिए किया. साथ ही, सेना के जवानों ने इन का कंधे से कंधे मिला कर साथ दिया.

जब ये डाक्टर सेवा मिशन में लगे थे, उसी समय नई दिल्ली से भी भारतीय डाक्टरों की एक टीम नेपाल में 150 चिकित्सकों को प्रशिक्षण दे रही थी ताकि हृदय रोगों की शुरुआती स्तर पर पहचान कर इलाज जल्दी हो सके. ऐसे ही समय अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के जे एन मैडिकल कालेज के 10 सदस्यीय डाक्टरों का एक दल नेपाल में राहत के लिए जीजान से जुटा था. रिपोर्टिंग के लिए गए एक पत्रकार, जो पेशे से न्यूरोसर्जन भी हैं, अपने सेवाभाव के चरमोत्कर्ष पर तब दिखे जब उन्होंने रिपोर्टिंग छोड़ 15 साल की एक बच्ची, जो दीवार में दब कर जख्मी हो गई थी, की ब्रेन सर्जरी की. ऐसा पहली बार नहीं है कि 45 वर्षीय डाक्टर संजय गुप्ता ने रिपोर्टिंग के दौरान सर्जरी की हो. इस से पहले वे 2003 में इराक में रिपोर्टिंग के दौरान भी इराकी नागरिकों और अमेरिकी सैनिकों की इमरजैंसी सर्जरी कर चुके हैं. 2010 में हैती में आए भूकंप में भी संजय गुप्ता और अन्य डाक्टरों ने 12 साल की एक बच्ची की खोपड़ी से कंक्रीट का टुकड़ा निकाला था.

कई डाक्टर ऐसे भी थे जो भूकंप के दौरान हिलतीडोलती बिल्ंिडग से भाग कर अपनी जान बचाने के बजाय औपरेशन थिएटर में किसी की जिंदगी बचाने में जुटे थे. कोई गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी कर रहा था तो कोई अन्य मरीज को जरूरी चिकित्सा मुहैया करा रहा था. ऐसे ही रांची के डा. विवेक गोस्वामी ने भी नेपाल में करीब 2 हजार घायलों का इलाज किया. वहां के गोरखा जिले में भारतीय मैडिकल टीम चिकित्सा सेवा में बतौर टीम लीडर डा. विवेक की टीम में 4 डाक्टर, 2 रामकृष्ण मिशन के पदाधिकारी और शेष पैरा मैडिकल कर्मचारी थे. इस टीम ने लगभग 250 लोगों का मेजर और माइनर औपरेशन किया. भारत की ओर से गए चिकित्सकों और राष्ट्रीय आपदा कार्यबल की टीमों ने वहां के बदहाल मंजर को बदल कर कइयों के चेहरे पर मुसकान बिखेर दी.

ऐसा नहीं है कि डाक्टरों ने सिर्फ नेपाल में ही अपने सेवाभाव को जिंदा रखा हो. नेपाल आपदा तो महज बानगी है. जहां भी डाक्टरों को मौका मिलता है, अपने सेवाभाव के तहत वे न सिर्फ अपने डाक्टरी पेशे का फर्ज निभाते हैं बल्कि कई बार अपनी सीमाओं से परे जा कर इंसानियत की मिसालें भी पेश करते हैं.  दिल्ली से आईएमए के महासचिव डाक्टर के के अग्रवाल ने भी अपने अनुभवी डाक्टरों की एक टीम को नेपाल भेजा था, जिस में डा. चेतन पटेल की अगुआई में डा. अनूप वर्मा और डा. शशांक शृंगारपुरे शामिल थे. वहां के बिगड़े हालात, आपदा प्रबंधन को ले कर लोगों में अल्पज्ञान और जरूरतों के अलावा डाक्टरों के सामने आने वाली मुश्किलों पर ढेर सारा खट्टामीठा अनुभव ले कर लौटे डा. चेतन पटेल बताते हैं कि आपदा क्षेत्रों में मैडिकल प्रोफैशनल्स को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे मैडिकल आपूर्ति की कमी, विशेषज्ञों का अभाव और स्वच्छ पानी की कमी आदि. इस के अलावा डाक्टरों को अकसर अस्थायी अस्पतालों या टैंटों में मरीजों की देखभाल करनी होती है. प्राकृतिक आपदाओं का पूर्व अनुमान पहले से नहीं लगाया जा सकता और ये हमेशा आपदा प्रबंधन की मांग करती हैं. कुदरती आपदाओं के समय मैडिकल डाक्टरों का बहुत अहम रोल हो जाता है. इसलिए ऐसी घटनाओं से सबक लेते हुए डिजास्टर मैनेजमैंट और क्राइसिस मैनेजमैंट, दोनों विषयों को एमबीबीएस और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सेज में लाजिमी कर दिया जाना चाहिए. जिस तरह युद्ध के समय मैडिकल क्राइसिस के प्रबंधन के लिए एक तय प्रोटोकौल होता है वैसे ही कुदरती आफतों के समय भी यही प्रोटोकौल लागू होना चाहिए ताकि ऐसी स्थिति में जान और माल का नुकसान कम से कम हो.

डा. चेतन की मानें तो लोग डिजास्टर मैनेजमैंट के बारे में ज्यादा जानते नहीं हैं, जिस का नुकसान यह होता है कि कई बार उन की भी जान नहीं बचाई जा सकती जिन की बच सकती थी. डिजास्टर मैनेजमैंट 3 सूत्रों पर आधारित होता है : एक, व्यक्ति बिना हवा के 3 मिनट से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता. दो, व्यक्ति बिना पानी के 3 दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता. तीन, व्यक्ति बिना खाए 3 हफ्ते से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता. वे बताते हैं कि आपदा प्रबंधन के समय गंभीर रोगियों को पहले चिकित्सा देने की विधि अपनाई जाती है. पहले घंटे में अस्पताल पहुंचने वाले ज्यादातर लोग वे होते हैं जिन्हें ज्यादा गंभीर चोटें नहीं आई होतीं. ज्यादा गंभीर मरीज 1 घंटे के बाद आना शुरू करते हैं. इसलिए पहले 1 घंटे में अपने सारे संसाधन खर्च न करें. कुल जरूरत का मूल्यांकन पहले 1 घंटे के अंत तक पहुंचे लोगों की संख्या को 2 से गुणा कर के किया जा सकता है. गंभीर रोगियों को पहले चिकित्सा देने की विधि अनुसार उन मरीजों को चिकित्सा पहले दी जाती है जिन्हें उपलब्ध सुविधाओं के अनुसार तुरंत चिकित्सा की जरूरत है. आपदा प्रबंधन की टीम के प्रत्येक सदस्य को यह पता होना चाहिए कि एक व्यक्ति को वापस होश में कैसे लाना है. वरिष्ठ सदस्यों को टीम की अगुआई करनी चाहिए और प्रबंधन व संयोजन की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए. और ऐसा ही हम करते हैं और किया भी.

अकसर प्राकृतिक हादसे के दौरान समुचित चिकित्सीय सुविधाओं और जरूरी खानपान की आपूर्ति न होने के चलते जानलेवा बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है, इस बात की तस्दीक करते हुए डा. चेतन बताते हैं कि किसी प्राकृतिक आपदा के बाद पानी से फैलने वाली बीमारियों में प्रमुख रूप से हैजे की बीमारी होती है. अगर समय रहते इस की रोकथाम न की जाए तो यह एक और बड़ी आपदा में तबदील हो सकती है. इस की रोकथाम का एकमात्र उपाय है स्वच्छ पानी. इसीलिए कोई डाक्टर, जो आपदाओं के समय पीडि़तों की मदद करना चाहता है और अपनी सेवाएं देना चाहता है, उसे आईएमए जैसे मैडिकल संगठनों के जरिए जाना चाहिए ताकि उपलब्ध मैडिकल सेवाओं और जरूरी एहतियातों का उचित प्रयोग व पालन किया जा सके.

देश में डाक्टर को लोग सबकुछ मानते हैं. अपनी जिंदगी की तमाम मुश्किलें और मर्ज भरोसे और उम्मीद के साथ उन के सामने रखते हैं. अधिकतर डाक्टर अपने ज्ञान और शिक्षा का उपयोग लोगों की भलाई के लिए करते हैं जिस के कारण डाक्टरी को सब से नेक पेशा माना जाता है. परंतु पैसे के लालच और बाजार की सभ्यता ने इस पेशे पर भी सेवाभाव के ऊपर व्यावसायिकता की काली चादर लपेटनी शुरू कर दी है. उम्मीद है कि जैसे नेपाल त्रासदी की संकट घड़ी में सैकड़ों डाक्टर अपनी जान की परवा किए बिना हर हाल में अपने फर्ज को निभा कर आफत के मारों का दुख कम किया है, आशा है कि यह सेवाभाव कमाई की चकाचौंध में  फीका पड़ने के बजाय ऐसे ही बरकरार रहेगा और भविष्य में कोई भी डाक्टर बिरादरी पर उंगली नहीं उठाएगा.

आर्थिक खबरें

वस्तु एवं सेवाकर विधेयक यानी जीएसटी के संसद में पारित होने के एक दिन बाद शेयर बाजार में जैसे हाहाकार मच गया और बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक एक झटके में 4 माह के न्यूनतम स्तर पर आ गया. जीएसटी विधेयक पर निवेशकों, खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों की चिंता के कारण बाजार 722 अंक तक लुढ़क गया. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में सूचकांक में एक दिन की यह दूसरी सब से बड़ी गिरावट है. वर्ष 2015 में शेयर बाजार में पहली बार इतनी ऊंची गिरावट दर्ज हुई है. इस दौरान नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 10 साल की सर्वाधिक 3 प्रतिशत की गिरावट पर पहुंच गया. बताया जा रहा है कि जीएसटी विधेयक पर विपक्ष के बहिर्गमन, भूसंपदा (विनियोग और विकास) विधेयक तथा न्यूनतम वैकल्पिक कर यानी मैट पर बनी स्थिति से निवेशकों में निराशा का माहौल छा गया. मई की शुरुआत बाजार के लिए अच्छी नहीं रही. विश्व बैंक तथा अन्य संस्थाओं के अच्छी विकास दर रहने के अनुमान के बावजूद बाजार में निराशा का माहौल रहा. अप्रैल के आखिरी सप्ताह के दौरान मैट को ले कर उठे विवाद के कारण विदेशी निवेशक बिकवाली में जुट गए. तिमाही परिणामों के उम्मीद के अनुरूप नहीं रहने के कारण भी बाजार पर नकारात्मक असर देखने को मिला. इस से पहले 21 अप्रैल को बाजार में जम कर बिकवाली हुई और सूचकांक लुढ़क गया.

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एनजीओ की अराजकता की नाकेबंदी जरूरी

हाल में एक अच्छी खबर आई है कि सरकार ने 9 हजार गैर सरकारी संगठनों यानी एनजीओ का पंजीकरण रद्द कर दिया है. उन संगठनों पर आरोप है कि उन्होंने बारबार नोटिस दिए जाने के बाद भी 3 वर्ष पहले यानी 2009 से 2012 तक के कामकाज अथवा खर्चे का कोई ब्योरा सरकार को नहीं दिया. ये सब संगठन विदेशों से चंदा अर्जित करने वाले हैं. इस तरह के साढ़े 10 हजार संगठनों को सरकार ने नोटिस भेजा लेकिन शेष डेढ़ हजार के खिलाफ अब तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है. इसी तरह से डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने 21 हजार से अधिक एनजीओ को 2009 तक 3 साल का हिसाबकिताब नहीं देने पर नोटिस दिया था. ऐसा लगता है कि तब सबकुछ सुलझ गया होगा, इसलिए एनजीओ के खिलाफ कार्यवाही नहीं हुई. एनजीओ कुकुरमुत्तों की तरह फैले हुए हैं और लगातार इन की संख्या बढ़ रही है. सब एनजीओ चांदी काट रहे हैं. विदेशी सहायता वालों पर तो लगता है कि सरकार की कुछ नजर है भी लेकिन देश में विभिन्न मंत्रालयों द्वारा जनसेवा के लिए दिए जाने वाले पैसे को फर्जी एनजीओ और उन के लिए निधि मंजूर करने वाले बाबू मिल कर डकार रहे हैं.

हमारे यहां जितने एनजीओ हैं उन में एकचौथाई भी जमीन पर ईमानदारी से काम करें तो हमारे समाज का कायापलट हो सकता है. एनजीओ की गतिविधियों का आकलन तो उन के द्वारा प्रस्तुत फोटो को आधार मान कर और बाबुओं के साथ सांठगांठ के तहत होता है. देश में भ्रष्टाचार का यह एक तरह का जीओ यानी सरकारी आदेशपत्र है. इन संस्थाओं को जैसे धन की लूट की खुली छूट मिली हुई है. सरकार के भ्रष्टाचारी तंत्र की वजह से इन संगठनों पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है. यदि इन 9 हजार संगठनों की तरह सरकार से सहायता लेने वाले अन्य संगठनों की गतिविधियों की भी जांच की जाए तो कम से कम 75 फीसदी संगठन बंद हो सकते हैं और देश के हजारों करोड़ रुपए बरबाद होने से बच सकते हैं. एनजीओ में पारदर्शिता आए तो आधे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है.

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इंटरनैट की भारतीय गति

इंटरनैट आज मोबाइल के बाद हमारे समाज में सब से तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ने के साथ ही इंटरनैट उपभोक्ताओं की संख्या में भी भारी इजाफा हो रहा है. मोबाइल पर नैटवर्क की सुविधा की वजह से नैट यूजर की संख्या में खासा इजाफा हो रहा है. शहरों और कसबों के बाद अब गांव में भी उपभोक्ताओं में मोबाइल नैट कनैक्शन लोकप्रियता की तरफ बढ़ रहा है. कसबों और ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल नैटवर्क ही काफी कमजोर है. इंटरनैट की स्थिति तो इस से भी खराब है, इस के बावजूद इंटरनैट, खासकर युवाओं में खासी लोकप्रियता हासिल कर रहा है. नैटवर्क की उपलब्धता की हकीकत यह है कि सेवाप्रदाता कंपनियां 3जी सुविधा दे रही हैं लेकिन उन की गति 2जी से भी कम है. दूसरी वजह नैटवर्क उपभोक्ताओं से सेवाप्रदाताओं की यूजर की कीमत पर ज्यादा लाभ कमाने की उत्कंठा है. सेवाप्रदाता कंपनियां पैसा तो कमाना चाहती हैं लेकिन उपभोक्ता को सुविधा नहीं देना चाहतीं. एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में बेहतर इंटरनैट सुविधा देने के लिए 6 लाख से अधिक टावर चाहिए लेकिन हमारे यहां सिर्फ 4 लाख के आसपास ही उपलब्ध हैं. शेष 2 लाख टावर लगाने के लिए करीब 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है लेकिन सेवाप्रदाता कंपनियां पैसा नहीं होने का हवाला दे कर टावर लगाने से हाथ खड़ा कर रही हैं. सेवाप्रदाता अपनी सेवाओं के लिए टावर साझा करती हैं. एक ही टावर से कई प्रदाता सेवाएं दे रहे हैं. सो, इंटरनैट की गति धीमी होना स्वाभाविक है. सेवाप्रदाताओं की इस युक्ति के कारण इंटरनैट स्पीड सेवा के स्तर पर भारत दुनिया में 123वें स्थान पर है जबकि पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश इस क्रम में हम से बहुत अच्छी स्थिति में हैं. विश्व में सब से बेहतर सेवा दक्षिण कोरियाकी मानी जा रही है. उस की सेवा की गुणवत्ता हम से 12 गुना ज्यादा है. जापान में इंटरनैट सेवा की गुणवत्ता हम से 8 गुना बेहतर है. हमें अपने क्रम को ठीक करना है तो उपभोक्ता को बेहतर सुविधा देनी होगी और इस के लिए पैसा वसूलने वालों पर नकेल कसनी होगी.

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बैंक पर भारी पड़ता जनधन खातों का बोझ

सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई जन उपयोगी घोषणाओं के साथ ही जनधन खाता खोलने की महत्त्वाकांक्षी योजना शुरू की जिस के बल पर बैंकों में रिकौर्ड खाते खुले. सरकार ने इसे अपनी उपलब्धि बताया तो आम जनता को बैंक में खाता खोलने का सुनहरा अवसर मिला. सरकार ने कहा कि इन खातों को जीरो बैलेंस आधार पर खोला जाए. इस के बावजूद इन खातों में 15 हजार करोड़ रुपए पिछले साल के अंत तक ही जमा हो गए थे. बहरहाल, कई गरीबों के लिए यह अच्छा फैसला रहा लेकिन बैंक इस के बोझ तले खून के आंसू बहा रहे हैं. खातों के रखरखाव, पासबुक, एटीएम आदि पर प्रति खाते की दर से करीब 250 रुपए सालाना खर्च आ रहा है. खाते को व्यवस्थित रखना अनिवार्य है, भले ही इस में पैसा हो या नहीं हो. बैंकों का कहना है कि करीब 60 फीसदी खातों में कोई पैसा जमा नहीं है. वित्त मंत्रालय का कहना है कि मार्च तक इस योजना के तहत 14.71 करोड़ खाते खुले हैं जिन में 8.52 करोड़ खाते जीरो बैलेंस के हैं. इन में 2.56 लाख खाते ग्रामीण बैंकों में खुले हैं और 61 लाख खाते निजी बैंकों में हैं. शेष खाते सार्वजनिक बैंकों में खोले गए हैं.

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

पहचान का अधिकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की परित्यक्ता जसोदा बेन अब हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही हैं. वे फिर जानना चाहती हैं कि उन्हें किस तरह की सुरक्षा दी गई है और उन की पात्रता क्या है. जसोदा बेन का कहना है कि वे तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करती हैं लेकिन उन के सुरक्षाकर्मी सरकारी वाहनों में चलते हैं और इंदिरा गांधी की हत्या उन के सुरक्षाकर्मियों ने ही की थी. दरअसल, जसोदा बेन सीधे यह पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं कि नरेंद्र मोदी की जिंदगी में उन की हैसियत कानूनन क्या है. इसलिए घुमाफिरा कर बात कर रही हैं पर बहुत ज्यादा दिनों तक सब्र रख पाएंगी, ऐसा लग नहीं रहा. जब भी उन के मन की बात जबां पर आएगी तब भूचाल तो आएगा और परित्यक्ताओं की बेचारगी व बदहाली की तरफ लोगों का ध्यान भी जाएगा.

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गडकरी सिंचाई विधि

यह हम भारतीयों की खास पहचान और आदत भी है कि जहां खाली जगह या दीवार देखते हैं वहां पेट हलका करने के लिए खड़े होने में संकोच या लिहाज नहीं करते. वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने नागपुर में एक सार्वजनिक सभा में यह खुलासा किया कि वे भी दिल्ली स्थित अपने सरकारी आवास में ऐसा करते हैं लेकिन उन की मंशा नेक यानी पेड़पौधों को सींचने की रहती है. बकौल गडकरी, पेशाब से पेड़पौधे हरेभरे रहते हैं और वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं. बात सच है कि हरियाली लाने के लिए गांवदेहात से महानगरों तक में आम लोग सिंचाई की इस पद्धति का अनजाने में ही सही, इस्तेमाल करते हैं और प्राकृतिक दबाव के चलते यह भूल जाते हैं कि पेड़पौधों में भी देवता निवास करते हैं. गडकरी ऐसा करें उन की मरजी लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि कभी काझिकोड जाएं तो संभल कर रहें क्योंकि वहां के डीएम पारसनाथ ने एलान कर रखा है कि खुले में पेशाब करने वालों के फोटो, जो भी खींच कर लाएगा उसे इनाम दिया जाएगा.

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प्यारी पौलिटिक्स

धीरेधीरे साबित यह हो रहा है कि चर्चित पुरुष के पीछे एक नहीं, बल्कि 2 या 2 से भी ज्यादा महिलाओं का हाथ होता है. आम आदमी पार्टी के नेता और सब से महंगे मंचीय कवि कुमार विश्वास इस की ताजा मिसाल हैं. उन पर एक महिला, जो अब पीडि़ता कही जाने लगी है, ने बड़ा रोमांटिक किस्म का आरोप लगाया है जो हालफिलहाल प्यार और शोषण की सीमारेखा पर लटकाअटका है. सच क्या है और इस की अहमियत क्या है, यह अब अदालत में ही साबित हो पाएगा बशर्ते पीडि़ता कानून का सहारा ले. वरना इस कथित संवेदनशील मुद्दे पर दिल्ली महिला आयोग ही दोफाड़ हो चुका है. लेकिन इस आग में भी, थोड़ाबहुत ही सही, धुआं तो है, यह हर कोई मानने लगा है.

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बातों का क्या

बहैसियत पत्रकार के रूप में पहचाने जाने वाले दिग्गज भाजपाई नेता अरुण शौरी को उम्मीद थी कि कुछ देर से ही सही, नरेंद्र मोदी उन की कथित विद्वत्ता का सम्मान करते हुए मंत्री बनाएंगे लेकिन मोदी ने भाव नहीं दिया. लिहाजा इस हताशा, अवसाद वगैरह से उबरने के लिए उन्होंने पुराना जंग लगा हथियार बिना चमकाए इस्तेमाल कर डाला. बकौल शौरी, मोदी सरकार के विकास के दावे अतिशयोक्ति वाले हैं जो सुर्खियां बटोरने के लिए किए जाते हैं और पार्टी पर मोदी, जेटली व शाह की तिकड़ी का दबदबा है. इस बयान पर कोई हाहाकार मचना तो दूर की बात है, किसी ने चूं तक नहीं की. सो, शौरी समेत मोदी पीडि़त भाजपा नेताओं को ज्ञान प्राप्त हो गया कि समरथ को नहिं दोष गुसाईं का मतलब लोकतंत्र में भी होता है.

यह भी खूब रही

मेरी बेटी मीनू 12वीं कक्षा की वार्षिक परीक्षा की तैयारी कर रही थी. एक दिन वह गणित का एक प्रश्न हल कर रही थी, कई बार प्रयास करने पर भी वह हल नहीं हो पा रहा था. मेरी बेटी और मेरे पति दोनों ही गणित में काफी होशियार हैं. सो उस ने शाम को अपने पापा से कहा कि उस से एक प्रश्न हल नहीं हो पा रहा है. इन्होंने बड़े आत्मविश्वास से कहा, ‘‘अरे, इतना आसान प्रश्न तुम से हल नहीं हो रहा है. मैं इस को अभी चुटकी में हल कर देता हूं.’’ इन्होंने सवाल हल करना शुरू किया. काफी देर बाद हल निकल आया, मीनू बोेली, ‘‘पापा, प्रश्न हल तो हो गया पर चुटकी लंबी हो गई.’’

अरुणा रस्तोगी, मोतियाखान (न.दि.)

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बात उस समय की है जब मैं कंप्यूटर ओ लेवल का फौर्म भर रही थी. फौर्म मेरी दीदी ने भर दिया. बस, साइन करने ही बाकी थे. हम चालान बनवाने बैंक गए. समय लगने के कारण हम भैया के घर चले गए. वहीं पर मैं ने दीदी के बताए अनुसार फौर्म देखा और बधाई दे कर हाथ मिलाने लगे. मैं और दीदी हतप्रभ हो कर उन्हें देखने लगे. हम ने पूछा, ‘‘बधाई किस बात की?’’

तो भैया तपाक से बोले, ‘‘तुम इस संस्थान की निदेशक बन गई हो.’’ हमारे कुछ भी समझ में नहीं आया पर जब फौर्म देखा तो हम भी हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. दरअसल, दीदी ने गलती से एप्लीकैंट की जगह निदेशक की जगह पर हस्ताक्षर कर दिए थे.

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

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एक दिन मैं अपने कपड़े सिलवाने के लिए दर्जी के पास गई. अभी मैं उसे समझा ही रही थी कि एक महिला हड़बड़ी में आई और उसे डांटने लगी. दिखने में वह नौर्थईस्ट की लग रही थी. बिना सोचेसमझे वह चिल्लाए जा रही थी, ‘‘अनवर, मेरी सलवार खोल दी.’’ अनवर ने ‘न’ में सिर हिलाया तो वह बोली, ‘‘पिछले हफ्ते से बोल रही हूं. सब के काम करते हो, एक मेरी सलवार खोलने का समय नहीं है तुम्हारे पास? अभी खोलो मेरी सलवार. मैं अब और इंतजार नहीं कर सकती. जल्दी करो भई.’’ मुंह में पान भरा होने के कारण अनवर मुसकराता रहा और हम उस समय थोड़ा इधरउधर हो कर मुंह दबा कर हंसते रहे. दरअसल, वह अपनी सलवार में कुछ सुधार करवाने आई थी जो शायद उस ने अनवर से सिलवाई होगी. वह सलवार उसे टाइट हो रही थी.

करुणा कोहर, मोती बाग (न.दि.)

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