Download App

फ़िल्मी गॉसिप

कोंकणा की इतिहास क्लास

चालू और मसाला फिल्मों के बीच कई बार ऐसी फिल्में भी आती हैं जो तथ्यात्मक तौर पर सटीक होती हैं. अनंत महादेवन निर्देशित फिल्म ‘गौर हरी दास्तां’ भी ऐसी ही फिल्म है. स्वतंत्रता सेनानी गौर हरी दास की असल जिंदगी से प्रेरित इस फिल्म में मुख्य भूमिका विनय पाठक और कोंकणा सेन निभा रहे हैं. दरअसल, गौर हरी दास को कई साल लग गए थे सरकारी तौर पर साबित करने के लिए कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे. दुनियाभर के पुरस्कार समारोहों में प्रशंसित और पुरस्कृत यह फिल्म जल्द ही रिलीज होगी. फिल्म में वास्तविकता लाने के लिए इतिहास की गहन जानकारी रखने वाले स्कौलर्स की पूरी टीम भी इस प्रक्रिया में शामिल रही. फिल्मों में रिसर्च बड़ी जरूरी है वरना अधकचरी जानकारी लिए तमाम फिल्में लोगों को गुमराह ही करती हैं.

*

विज्ञापन में फिल्मी जोड़ी

फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ के बाद पिछली बार ‘बदलापुर’ में नजर आई हुमा कुरैशी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की हिट जोड़ी पर इस बार विज्ञापन कंपनियों की नजर पड़ गई है. इस जोड़े की कैमिस्ट्री को भुनाने के लिए नामी ब्रैंड के विज्ञापन में इन्हें कास्ट किया गया है. इस विज्ञापन फिल्म को उन की पिछली हिट फिल्म गैंग्स औफ वासेपुर का एक्सटैंशन भी कहा जा सकता है. ऐसा अकसर देखा गया है कि जो जोड़ी फिल्मी परदे पर दर्शकों को पसंद आती है वह विज्ञापन फिल्मों में भी सराही जाती है. वैसे आजकल विज्ञापन फिल्में करना फिल्मी सितारों के लिए मजे का काम नहीं रह गया है. हालिया मैगी विवाद से कानूनी पचड़े में फंसे बड़े कलाकारों को यह बात समझ आ गई होगी. उम्मीद है कि हुमा और नवाज के साथ ऐसा नहीं होगा.

*

आइफा के धुरंधर

साल दर साल भारतीय फिल्मों की विदेशों में बढ़ती लोकप्रियता को भुनाता 16वां आइफा अवार्ड्स समारोह इस बार कुआलालंपुर में हुआ. बाकी सारे अवार्ड समारोहों की तर्ज पर यहां भी शाहिद कपूर की फिल्म ‘हैदर’ और कंगना राणावत की फिल्म ‘क्वीन’ ने खूब सारे पुरस्कार बटोरे. शाहिद को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और कंगना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब मिला, वहीं दीपिका पादुकोण को ‘वुमेन औफ द ईयर’ का पुरस्कार दिया गया. राजू हीरानी ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार फिल्म पीकू के लिए प्राप्त किया. सहायक कलाकार के लिए रितेश देशमुख और तब्बू को फिल्म हैदर के लिए पुरस्कृत किया गया. बैस्ट डेब्यू के लिए फिल्म ‘हीरोपंती’ की जोड़ी टाइगर श्रौफ और कृति सनन को चुना गया.

*

भानुशाली का दबमेश

आजकल फिल्मी सितारों के बीच सोशल मीडिया और तकनीक के इस्तेमाल काफी देखने को मिलते हैं. कभी फिल्म का प्रचार करने के लिए तो कभी अपने फैन्स से संवाद के लिए तकनीक का सहारा लेते फिल्मस्टार अब तकनीकी मामलों में बड़े ऐक्सपर्ट हो गए हैं. टीवी और फिल्मों के पौपुलर चेहरे जय भानुशाली ने भी अपनी पत्नी के साथ मिल कर दबमेश वीडियो बनाया है जिसे साजिद नाडियाडवाला एंटरटेनमैंट को समर्पित किया है. वैसे भी इन दिनों इन सितारों पर दबमेश का बुखार सिर चढ़ कर बोल रहा है, ऐसे में यह दोहरा काम होता है, पहला, दर्शकों को मुफ्त में मनोरंजन मिलता है और दूसरा, इन्हें पब्लिसिटी.

फिल्म समीक्षा

दिल धड़कने दो

बहुत से जानेमाने कलाकारों को ले कर यूरोप के एक कू्रज पर फिल्माई गई यह फिल्म विजुअली अच्छी बन पड़ी है. निर्देशिका जोया अख्तर ने एक धनाढ्य वर्ग के परिवार की समस्या को फिल्म में उठाया है. उस का मानना है कि कोई भी परिवार परफैक्ट नहीं होता, चाहे वह मध्यवर्ग का हो या उच्चवर्ग का. हर परिवार में कुछ दिक्कतें, उलझनें होती हैं. धनाढ्य वर्ग की समस्याएं भी मध्यवर्ग जैसी ही होती हैं. वे भी अपने बेटाबेटी में फर्क करते हैं. खुद चाहे बड़ी उम्र में भी फ्लर्ट करते हों पर चाहते हैं कि उन के बेटेबेटियां उन की मरजी से शादी करें. इसी जद्दोजहद में पारिवारिक रिश्तों में तनाव आ जाता है और वे उलझते चले जाते हैं. जोया अख्तर की यह फिल्म खोखले रिश्तों की बात करती है. लोग अपने स्टेटस के प्रति बहुत कौंशस रहते हैं. पार्टियों में वे खुद को ऐसा दिखाते हैं मानो वे सब से ज्यादा सुखी हों परंतु उन के परिवार के सदस्यों में हर वक्त तनाव बना रहता है.

यह फिल्म उन दर्शकों के लिए है जो मारामारी या ऊटपटांग फिल्में देखने से परहेज करते हैं. लंबाई ज्यादा है. पहला 1 घंटा तो निर्देशिका ने किरदारों का परिचय कराने में ही जाया कर दिया है. इसलिए मध्यांतर से पहले फिल्म कुछ बोझिल सी है. रोमांटिक सीन देखने वालों को भी फिल्म निराश करती है. फिल्म की कहानी एक पंजाबी मेहरा परिवार की है. कमल मेहरा (अनिल कपूर) अरबपति हैं. वे हर वक्त अपनी पत्नी नीलम मेहरा (शेफाली शाह) पर अपने पैसों का रौब झाड़ते रहते हैं. कबीर मेहरा (रणवीर सिंह) उन का बिगड़ैल बेटा है. बिजनैस करने में वह जीरो है. कमल मेहरा की बेटी आयशा मेहरा (प्रियंका चोपड़ा) उन के मैनेजर के बेटे सनी (फरहान अख्तर) से प्यार करती थी तो कमल मेहरा ने सनी को पढ़ने के लिए अमेरिका भेज दिया और बेटी की शादी अपनी पसंद के लड़के मानव (राहुल बोस) से कर दी थी. आयशा अपने पति को पसंद नहीं करती.

कमल मेहरा की बेटी अपने मातापिता की शादी की 30वीं सालगिरह पर शहर के कुछ रईसों के साथ कू्रज पर 15 दिन तक घूमने का प्रोग्राम बनाती है. कमल मेहरा की कंपनी घाटे में चल रही है. इस से उबरने के लिए कमल मेहरा ललित सूद (परमीत सेठी) की बेटी नूरी (रिदिमा सूद) से कबीर की शादी का प्लान बनाते हैं. उधर कबीर कू्रज पर डांस करने वाली फारा (अनुष्का शर्मा) पर फिदा हो जाता है. लेकिन कबीर के मातापिता उस पर नूरी से शादी करने का दबाव डालते हैं. इसी दौरान अमेरिका से सनी वापस लौट आता है. उस के आते ही आयशा अपने पति को तलाक दे देती है. पूरा मेहरा परिवार मुसीबत में फंस जाता है. अंत में फारा को शिप से निकाल दिया जाता है तो कबीर फारा के पीछे समुद्र में छलांग लगा देता है. मेहरा परिवार उसे बचा लेता है. उस परिवार को लगता है कि बच्चों को भी अपनी मरजी से जीने का अधिकार है. फिल्म की यह कहानी हमें बहुत कुछ समझाती है. मातापिता को बच्चों पर अपनी मरजी नहीं थोपनी चाहिए. निर्देशिका ने फिल्म में इंसान की तुलना जानवर से की है और कहा है कि इंसान अंदर से कुछ और होते हैं और बाहर से कुछ और. निर्देशिका ने दिखाने की कोशिश की है कि अगर लड़का लड़की से मिलता है तो घर वाले खुश होते हैं और कहते हैं कि लड़का जवान हो गया है और अगर लड़की किसी लड़के से मिलती है तो उस पर बंदिशें लगाई जाती हैं. मातापिता अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. इस फिल्म में पिता अपनी बात मनवाने के लिए जवान बेटे से कहता है, ‘प्लेन लेना है या नहीं…बोल…’

जोया अख्तर की इस फिल्म में उस ने कुछ नया कर के दिखाया हो, लगता नहीं. ‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’, ‘हनीमून ट्रैवल्स’, ‘लक बाय चांस’ में भी उस ने इसी तरह का ट्रीटमैंट किया था. अनिल कपूर का काम काफी अच्छा है. शेफाली शाह के साथ उस की जोड़ी जमी है. रणवीर कपूर के किरदार में खिलंदड़ापन है तो प्रियंका चोपड़ा बुझीबुझी रही है. फिल्म का संगीत खास नहीं है. इस्तांबुल और ग्रीस की लोकेशनें सुंदर बन पड़ी हैं.

*

वैलकम टू कराची

यह फिल्म आप का वैलकम करने वाली नहीं बल्कि टैंशन देने वाली है. इस मुगालते में न रहें कि आप को ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘जौली एलएलबी’ जैसी परफौर्मेंस देने वाले अरशद वारसी की बढि़या परफौर्मेंस देखने को मिलेगी. अरशद वारसी और जैकी भगनानी ने इस फिल्म में जम कर मूर्खतापूर्ण हरकतें की हैं.

‘बीवी नं. 1’ और ‘हीरो नं. 1’ जैसी दर्जनों सुपरहिट फिल्में देने वाले वाशू भगनानी ने अपने बेटे जैकी भगनानी को एक और मौका देने के लिए इस फिल्म को बनाया है. उस ने अपने बेटे को ले कर कई फिल्में बनाईं लेकिन खोटा सिक्का चल नहीं पाया. इस फिल्म में उस ने अपने पापा को तो निराश किया ही है, दर्शकों के सिर में भी दर्द पैदा किया है. फिल्म में जैकी भगनानी के पिता का किरदार निभा रहा ऐक्टर दिलीप ताहिल उस से कहता है, ‘सोच के लिए दिमाग चाहिए, जो तुम्हारे पास नहीं है.’ ‘वैलकम टू कराची’ में निर्देशक आशीष मोहन ने बहुत से मसालों का प्रयोग किया है लेकिन फिर भी वह फिल्म को मजेदार नहीं बना पाया है. उस ने पूरी फिल्म में अरशद वारसी और जैकी भगनानी से मसखरी कराई है. दोनों ने अपनी ऊटपटांग हरकतों से दर्शकों को हंसाया है लेकिन फिर भी बात बन नहीं सकी है.

फिल्म की कहानी गुजरात में रहने वाले 2 दोस्तों शम्मी (अरशद वारसी) और केदार पटेल (जैकी भगनानी) की है. शम्मी को नेवी से निकाला जा चुका होता है. केदार की तमन्ना अमेरिका जाने की है लेकिन हर बार उसे वीजा नहीं मिल पाता. वह शम्मी के साथ मिल कर बिना वीजा लिए बोट में सवार हो कर अमेरिका के लिए निकल पड़ता है. लेकिन रास्ते में ही समुद्र में उन की बोट डूब जाती है. जब उन्हें होश आता है तो दोनों खुद को कराची में पाते हैं. यहीं से उन के लिए मुश्किलें शुरू होती हैं. दोनों तालिबानियों के हत्थे चढ़ जाते हैं. एक दिन दोनों तालिबानियों के कैंप को रिमोट बम से उड़ा देते हैं. अमेरिका का गुप्तचर विभाग उन पर नजर रखे हुए है. वह उन दोनों की जांचपड़ताल कर उन्हें भारत भेजता है. दोनों नकली पासपोर्ट बनवा कर लौटने की कोशिश करते हैं. हवाई अड्डे पर उन्हें एक तालिबानी कमांडर पायलट के रूप में नजर आता है, जो हवाई जहाज को बम से उड़ाने वाला है. दोनों उस तालिबानी के मंसूबों पर पानी फेर देते हैं और वापस इंडिया लौटते हैं. फिल्म की इस कहानी में कई पेंच हैं. 2 युवकों का गलती से पाकिस्तान पहुंच जाना, मजाकिया स्टाइल में बोलना, उन का तालिबानियों के हत्थे चढ़ जाना, वहां से भागने की कोशिश करना-यहां तक तो ठीक है परंतु उन दोनों को ले कर पाकिस्तान की राजनीति में हलचल मचना, सियासी राजनीति जैसी बातों को ले कर फिल्म को बेकार खींचा गया है. फिल्म के निर्देशन में कमियां हैं. निर्देशक ने सिर्फ अरशद और जैकी पर ही ध्यान केंद्रित किया है, बेचारी लौरेन गौटलिब की तरफ ध्यान नहीं दिया है. इसलिए फिल्म में लव सीन नहीं आ सके हैं.

फिल्म का संगीत चालू टाइप का है. एक गाने के बोल ‘लल्ला लल्ला लोरी दारू की कटोरी…’ दूसरे गाने के बोल, ‘उल्लू के पट्ठे…खजूर में अटके’ हैं. पिता की भूमिका में दिलीप ताहिल हास्यास्पद लगा है. छायांकन अच्छा है.

*

इश्कदारियां

इस फिल्म का टाइटल ‘इश्कदारियां’ जरूर है परंतु इस में इश्क गायब है. नायक और नायिका दोनों रूखेरूखे से लगे हैं. नायक महाअक्षय चक्रवर्ती मिथुन चक्रवर्ती का बेटा है. उस की 2-3 फिल्में रिलीज हो चुकी हैं. न वह पहले किसी फिल्म में चला, न ही इस फिल्म में चल पाया है. सपाट और भावहीन चेहरा, ऊपर से खराब संवाद अदायगी ने यह साबित कर दिया है कि वह भविष्य में भी चलने वाला नहीं है. फिल्म की कहानी प्रेमत्रिकोण की है. कहानी अमेरिका से शुरू होती है. अगम दीवान (महाअक्षय चक्रवर्ती) एक अरबपति नौजवान है. एक युवा महिला पत्रकार उस के अरबपति होने की पोल खोलती है. उस का कहना है कि उस के पिता ने हिमाचल प्रदेश में एक परिवार से 20 लाख रुपए की धोखाधड़ी की थी. उसी पैसे से बेटे ने इतना बड़ा अंपायर खड़ा किया है. अगम दीवान को यह बात चुभ जाती है. वह अपने सेक्रेटरी (केविन दवे) के साथ इस बात की सचाई का पता लगाने भारत आता है. वह हिमाचल प्रदेश के उस गांव में जाता है जहां वह परिवार अब भी रहता है. उस परिवार में एक युवती लवलीन (एवलिन शर्मा) अपनी दादी के साथ रहती है. वह डोनेशन लेले कर एक स्कूल चलाती है. अगम दीवान अनजान बन कर लवलीन से मिलता है और स्कूल में नौकरी कर लेता है. वह कदमकदम पर लवलीन की मदद करता है परंतु उसे पता नहीं चलने देता. यहां तक कि जब उसे पता चलता है कि लवलीन अर्जुन (मोहित दत्ता) नाम के एक युवक से प्यार करती है तो वह उस की शादी भी उस से तय करा देता है. अंत में लवलीन को जब अगम दीवान के प्यार के बारे में पता चलता है तो वह शादी का मंडप छोड़ कर उस के साथ हो लेती है.

फिल्म की यह कहानी अच्छाखासा बोर करती है. पटकथा एकदम ढीलीढाली है. 15 मिनट में ही फिल्म अपनी पकड़ छोड़ देती है. हर 2-3 दृश्यों के बाद एवलिन शर्मा का सीन परदे पर आ जाता है. एवलिन शर्मा ने इस फिल्म में नौन ग्लैमरस भूमिका की है. अब तक वह लगभग सभी फिल्मों में बिकिनी में ही नजर आई है. लेकिन इस बार वह फ्लौप साबित हुई है. इस फिल्म में एक सीन है स्टेज पर परफौर्म करने का. जब हौल में एक भी दर्शक नहीं पहुंचता तो नायक लोगों को फ्री टिकट और नाश्तेपानी के लिए कुछ पैसे औफर कर हौल में भिजवाता है. यही हाल इस फिल्म का भी है. फ्री में भी देखने लायक नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत बेकार है. हिमाचल की कुछ लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं.

खेल खिलाड़ी

खेल बीसीसीआई का

एक तरफ विराट कोहली की अगुआई में टीम इंडिया बंगलादेश में टैस्ट सीरीज को ले कर उत्साहित थी तो वहीं पूर्व खिलाड़ी राहुल द्रविड़ को नई जिम्मेदारी मिलने से खुशी है. भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ को बीसीसीआई ने भारत ए और अंडर-19 टीम का कोच नियुक्त किया है. इस से ठीक पहले बीसीसीआई ने भारत के 3 दिग्गजों, जो अब रिटायर्ड हो चुके हैं- सचिन तेंदुलकर, वीवीएस लक्ष्मण और सौरव गांगुली को अपनी सलाहकार समिति में जोड़ने की घोषणा की थी. राहुल को भी यह औफर दिया गया था पर उन्होंने सलाहकार समिति में शामिल होने से इनकार कर दिया था. तब से अटकलें लगाई जा रही थीं कि राहुल को नई जिम्मेदारी मिलेगी. पर सवाल उठता है कि द्रविड़ ने आखिर सलाहकार समिति में आने से मना क्यों कर दिया? इस के पीछे कहा जा रहा है कि गांगुली जहां होंगे वहां द्रविड़ नहीं होंगे क्योंकि दोनों की आपस में हमेशा से तनातनी रही है. इस बात में कितनी सचाई है, शायद क्रिकेट के दिग्गज भी न बता पाएं क्योंकि बीसीसीआई में कोई भी काम रहस्यमयी ढंग से होता है और वहां पारदर्शिता के बारे में सोचना ही गलत होगा. वहां घपलों की भरमार है और बीसीसीआई में कुंडली मार कर बैठे आकाओं को लगता है कि कोई खिलाड़ी इन घपलों का परदा उठा न दे इसलिए वे कुछ ऐसे खिलाडि़यों को अपने साथ रखना चाहते हैं ताकि वक्त आने पर उन का इस्तेमाल कर सकें. यह तो जगजाहिर है कि बीसीसीआई को चलाने वाले धनकुबेरों के अलावा राजनेता और कुछ पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी भी हैं.

बीसीसीआई को न तो खेल की गुणवत्ता की चिंता है और न ही खिलाडि़यों को बेहतर बनाने की, उसे सिर्फ चिंता है तो पैसों की. शायद इसी डर से कुछ खिलाडि़यों को वह पैसों के दम पर अपने पाले में रखना चाहता है ताकि वे उस के खिलाफ मुंह न खोलें. वैसे भी टीम में जो मौजूदा खिलाड़ी हैं वे कभी भी बीसीसीआई के खिलाफ मुंह खोलते नहीं देखे गए हैं क्योंकि अगर वे ऐसा करेंगे तो वे भलीभांति समझते हैं कि उन का हश्र क्या होगा. और जो नए खिलाड़ी तैयार हो रहे हैं, वे तो बीसीसीआई के खिलाफ बोलने का सोचेंगे भी नहीं. तो फिर बीसीसीआई के अंदर भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद के खिलाफ बोलेगा कौन, यह बड़ा सवाल है.

*

फीफा की चमक फीकी

फीफा फुटबाल विश्वकप की जब शुरुआत होती है तो पूरी दुनिया के खेलप्रेमी मस्ती में झूम उठते हैं और रातरात भर जाग कर खेल का आनंद उठाते हैं. पर यह बात पुरुष वर्ग के फुटबाल विश्वकप में होती है. लेकिन इन दिनों फीफा महिला फुटबाल विश्वकप की खुमारी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही है पर उतना नहीं जितना कि पुरुष वर्ग के खेल में देखी जाती है. वैसे वैंकूवर, एडमेटन, विनिपेग, मोकटोन ओटावा और मौंट्रियल में होने वाले मैचों के लिए 10 लाख से अधिक टिकट बिक चुके हैं. कनाडा और चीन में चल रहे इस विश्वकप में 8 देशों की महिला खिलाड़ी अपना दमखम दिखाने में लगी हुई हैं, जिन में सब से प्रबल दावेदार जरमनी और अमेरिका को माना जा रहा है. फीफा इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले को ले कर उलझा हुआ है और 5वीं बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद सेप ब्लाटर को इस्तीफा देना पड़ा लेकिन फीफा को उम्मीद है कि इस से फर्क नहीं पड़ने वाला है. वैसे कनाडा फुटबाल प्रमुख विक्टर मोंटेग्लियानी का मानना है कि यह टूर्नामैंट फुटबाल के इतिहास के सब से खराब दौर के लिए आशा की किरण बनेगा. भले ही अधिकारी कुछ भी कह लें पर फीफा में भ्रष्टाचार के चलते उस की चमक घटी है. और ऐसा न हो कि यह टूर्नामैंट बेनूर हो जाए. इस टूर्नामैंट में 4-4 टीमों के 6 ग्रुप हैं. कुल 16 टीमें दूसरे राउंड में प्रवेश करेंगी. विश्वविजेता टीम को 20 लाख डौलर का पुरस्कार दिया जाएगा और 5 जुलाई को वैंकूवर में फाइनल मैच खेला जाएगा.

अंधविश्वास

भारत को भावनाओं व आस्थावान लोगों का देश भी कहा जाता है. भावना और आस्था के चलते अधिकांश देशवासी स्वत: अंधविश्वास के शिकार बने हुए हैं. पाखंड की जद में आए कमजोर व गरीब तबके की गाढ़ी कमाई का खासा हिस्सा अंधविश्वास पर खर्च हो जाता है. यही नहीं, देश के पढ़ेलिखे तबके में भी अंधश्रद्धा भरी पड़ी है. इसी धर्मभीरुता का एक दृश्य मध्य प्रदेश में कभी भी देखा जा सकता है. मध्य प्रदेश के रतलाम जिले की आलोट तहसील के गांव बरखेड़ा कलां में जोगणिया माता का मंदिर स्थापित है. वहां हर रविवार सैकड़ों बकरों की बलि दी जाती है. यह मन्नत पूरी होने पर दी जाती है. पाखंड व अंधविश्वास का आलम यह है कि इस घृणित कार्य में स्थानीय प्रशासन भी मदद करता है. आलोट पुलिस थाने में पदस्थ एएसआई रणवीर सिंह भदौरिया भी स्वयं बकरों की खुलेआम बलि देते हुए दिखे. वहां जा कर पता चला कि बकरों की बलि देने के काम के लिए स्पैशलिस्ट होते हैं जिन का कार्य बकरों की मुंडियों को काटना होता है. रविवार, 10 मई का दिन था. हम साथियों के साथ दर्शन करने के लिए जोगणिया माता के मंदिर गए. वहां देख कर मन व्यथित हो उठा. पुलिस अधिकारी रणवीर सिंह भदौरिया हवा में नंगी तलवार लहराते हुए धड़ाधड़ बकरों की मुंडियां काटते हुए चंबल नदी में फेंक रहे थे. अंधविश्वासी लोग जयकारे लगा रहे थे. उन मूक पशुओं की पुकार किसी को भी सुनाई नहीं दे रही थी. सभी जानवरों की मौत का मंजर देख रहे थे. देखते ही देखते सैकड़ों बकरों की मुंडियां नदी के कुंड में फेंकी गईं. पुलिस की वरदी को कलंकित करने का कार्य पुलिस अधिकारी कर रहा था. कानून नाम की कोई चीज दूर तक नजर नहीं आ रही थी.

अंधविश्वास में जकड़ा समाज

ऐसा अंधविश्वास व पाखंड का नंगानाच धर्म के नाम पर हो रहा था. उसी जल से जिस में बकरों की मुंडियां डाली जा रही थीं, आम जनता नहा रही थी. उसी जल को पी कर अपने पूर्वजन्म के पापों को धो रही थी. भारत का संविधान समतामूलक, शोषणविहीन समाज की स्थापना के साथ ही हर जीवप्राणी को जीने का अधिकार देता है. ऐसे में खुलेआम बेजबान जानवरों का कत्लेआम कहां का न्याय है. इसी तरह कई जगह बलिप्रथा थी, जिसे बंद करवाया जा चुका है. यहां भी इस प्रथा को बंद किया जाना चाहिए. इस सिलसिले में कुछ जागरूक लोगों ने रतलाम के पुलिस अधीक्षक से शिकायत की है. लेकिन लगता नहीं है कि प्रशासन कोई पहल करेगा क्योंकि वह व उस के लोग भी तो अंधविश्वास के पुजारी हैं.

बच्चों के मुख से

पड़ोसी का 4 वर्षीय बेटा मोनू जब बच्चों के साथ पार्क में खेलने जाता तो अकसर एक बच्चे से मार खा कर रोता हुआ घर लौटता था. एक दिन उस की मम्मी ने कहा, ‘‘अब जब भी वह तुम्हें मारे तो तुम भी उस की पिटाई कर देना.’’ इस पर मोनू तपाक से बोला, ‘‘मम्मी, आप ही कहते हो कि गंदे बच्चे एकदूसरे को मारते हैं, मैं भी गंदा बच्चा बन जाऊं क्या?’’ मोनू का जवाब सुन कर उस की मम्मी की बोलती बंद हो गई.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

*

एक दिन मैं पार्क में बैठी थी. बच्चों को दौड़तेखेलते देख रही थी. तभी वहां एक महिला अपने पोते तथा कुत्ते के साथ आई और मेरे साथ बैंच पर बैठ गई. बच्चा लगभग 3-4 साल का था. वह गेंद को दूर तक फेंक देती और दोनों को दौड़ कर लाने को कहती. ऐसा कई बार हुआ और अधिकतर कुत्ता ही पहले गेंद को मुंह में दबाए ले आता. इस पर उस महिला ने अपने पोते से कहा, ‘‘देख, तू अच्छे से नहीं खातापीता न. इसलिए तू तेज दौड़ नहीं पाता है और कुत्ते से हार जाता है,’’ इस पर बच्चे ने कहा, ‘‘दादीमां, ऐसी बात नहीं है, असल में कुत्ते के 4 पैर हैं और मेरे तो 2 ही हैं. इसलिए वह मेरे से जीत जाता है,’’ उस की यह बात सुन कर मैं और उस की दादी हंस पड़ीं.

ईशू मूलचंदानी, नागपुर (महा.)

*

एक बार मेरे कमरे की दीवार पर ढेरों चींटियां कतारबद्ध चल रही थीं. मेरा तीन साल का बेटा बहुत ही ध्यान से आधे घंटे से एक ही जगह खड़ेखड़े चींटियों को देख रहा था. मैं ने पूछा, ‘‘बाबू, आप आधे घंटे से क्या देख रहे हो इन चींटियों में?’’ उस ने तुरंत कहा, ‘‘मम्मी, इन लोगों में ऐक्सिडैंट नहीं होता क्या?’’ मैं ने सोचा, ये ऐसा क्यों पूछ रहा है, फिर समझ में आया कि जब चींटियां चलती हैं तो जातीआती चींटियां एकदूसरे से मुंह से मुंह सटा कर निकलती हैं. मुझे बेटे की बात पर पहले तो हंसी आई, फिर एक सोच उभरी कि हम इंसान कभीकभी कितने खुदगर्ज बन जाते हैं कि किसी परिचित को देख कर भी अनदेखा कर के निकल जाते हैं. हम से हजार गुना बेहतर तो ये नन्ही चींटियां हैं जिन की आंखें न (मैं ने कहीं पढ़ा था कि चींटियों के आंखें नहीं होतीं) होते हुए भी वे एकदूसरे से मिले बगैर आगे नहीं बढ़तीं.

उमा श्याम गट्टानी, जोरहाट (असम)

हमारी बेडि़यां

हमारे दफ्तर में एक अधिकारी की नईनई पोस्ंटग हुई थी. पदोन्नति पा कर उन्होंने सीधे हमारे दफ्तर में जौइन किया था. उन में जोश कुछ ज्यादा था. कुरसी पर बैठते ही अपने चपरासी को फरमान सुना दिया कि मैं हर शनिवार को काली गाय को गुड़ और दाल (चने की दाल) खिला कर ही अपनी कुरसी पर बैठता हूं. मैं जब तक काली गाय को गुड़ और दाल खिला कर उस के पैर नहीं छू लेता तब तक कलम नहीं खोलता हूं. सो, तुम्हें हर शनिवार को काली गाय का इंतजाम करना पड़ेगा. काली गाय का इंतजाम करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था. वहां तो तमाम गायें ऐसे ही घूमती रहती थीं. एक शनिवार काली गाय नहीं मिली. एक ऐसी गाय मिली जो पूरी काली तो थी लेकिन कहींकहीं उस की पीठ पर सफेद छींटे थे. अधिकारी ने देखते ही कहा कि यह तो पूरी काली नहीं है. हम लोगों ने समझाया कि साहब, 95 प्रतिशत यह काली है, सफेद छींटे का कोई खास मतलब नहीं है. हम लोगों के समझाने पर अधिकारी ने गाय को गुड़ और दाल खिलाई. अब गाय के पैर छूने की बारी थी, सो आगे के पैर तो उन्होंने आसानी से छू लिए लेकिन जैसे ही पिछले पैर छूने को बढ़े, गाय ने पीछे से लात मार दी. लात अधिकारी के सिर में लगी. खून बहने लगा. उन्हें हम लोगों ने अस्पताल में भरती करा दिया. कई दिन बाद जब वे दफ्तर आए तो उन्होंने हम लोगों से कहा कि तुम लोगों ने मेरे साथ धोखा किया. हम ने पूछा, ‘‘क्या?’’ वे बोले, ‘गाय पूरी काली नहीं थी, इसलिए उस ने मुझे लात मार दी.’

एस पी सिंह, लखनऊ (उ.प्र.)

*

मैं झारखंड राज्य के वैद्यनाथधाम देवघर नामक क्षेत्र में रहती हूं. यहां परंपरा है कि जब कोई मर जाएगा तब उसे मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति 12 दिनों तक लगातार सुबह की बेला में श्मशानघाट पर जाएगा और नदी में स्नान कर के एक लोटा पानी मृतक के अस्थिकलश पर अर्पित करेगा. पिछले वर्ष 19 अक्तूबर को हमारे पड़ोस में रहने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति गुजर गया जिसे मुखाग्नि उस के 18 साल के बेटे ने दी. यह लड़का शरीर से थोड़ा रुग्ण है, फिर भी लोगों ने उस के लिए भी निर्धारित नियम लागू कर दिया. किंतु इस का परिणाम भयंकर साबित हुआ. लड़के को बुखार आ गया, सांस लेने में तकलीफ हुई. उसे अस्पताल में भरती कराया गया. हैरानी यह है कि स्थानीय लोग परंपरा बदलने के लिए अब भी तैयार नहीं हैं. 

प्रेमशीला गुप्ता, देवघर (झारखंड)

कमाल देखिए

सियासत की गहरी चाल देखिए

कभी तीर, कभी शमशीर, ढाल देखिए

वही मसीहा, सितमगर भी है वही

उन की रहमदिली का कमाल देखिए

होगा ये मुल्क कभी चिडि़या सोने की

अब आम आदमी को बदहाल देखिए

कर रहे हैं यूं तो हम रोज तरक्की

फिर भी मांगते हैं भीख, मिसाल देखिए

मांगते हैं हम जिंदगी से हिसाब

जिंदगी पूछती है हम से सवाल देखिए

हम ने ही उन्हें भेजा है दिल्ली भोपाल

दे रहे हैं वे हमें धक्के मजाल देखिए

माना कि हम हैं पंछी आजाद गगन के

मगर कभी शिकारी तो कभी जाल देखिए.

        – रमेशचंद्र शर्मा

शरशय्या

स्त्रियां अधिक यथार्थवादी होती हैं. जमीन व आसमान के संबंध में सब के विचार भिन्नभिन्न होते हैं परंतु इस संदर्भ में पुरुषों के और स्त्रियों के विचार में बड़ा अंतर होता है. जब कुछ नहीं सूझता तो किसी सशक्त और धैर्य देने वाले विचार को पाने के लिए पुरुष नीले आकाश की ओर देखता है, परंतु ऐसे समय में स्त्रियां सिर झुका कर धरती की ओर देखती हैं, विचारों में यह मूल अंतर है. पुरुष सदैव अव्यक्त की ओर, स्त्री सदैव व्यक्त की ओर आकर्षित होती है. पुरुष का आदर्श है आकाश, स्त्री का धरती. शायद इला को भी यथार्थ का बोध हो गया था. जीवन में जब जीवन को देखने या जीवन को समझने के लिए कुछ भी न बचा हो और जीवन की सांसें चल रही हों, ऐसे व्यक्ति की वेदना कितनी असह्य होगी, महज यह अनुमान लगाया जा सकता है. शायद इसीलिए उस ने आग और इलाज कराने से साफ मना कर दिया था. कैंसर की आखिरी स्टेज थी.

‘‘नहीं, अब और नहीं, मुझे यहीं घर पर तुम सब के बीच चैन से मरने दो. इतनी तकलीफें झेल कर अब मैं इस शरीर की और छीछालेदर नहीं कराना चाहती,’’ इला ने अपना निर्णय सुना दिया. जिद्दी तो वह थी ही, मेरी तो वैसे भी उस के सामने कभी नहीं चली. अब तो शिबू की भी उस ने नहीं सुनी. ‘‘नहीं बेटा, अब मुझे इसी घर में अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहने दो. जीवन जैसेतैसे कट गया, अब आराम से मरने दो बेटा. सब सुख देख लिया, नातीपोता, तुम सब का पारिवारिक सुख…बस, अब तो यही इच्छा है कि सब भरापूरा देखतेदेखते आंखें मूंद लूं,’’ इला ने शिबू का गाल सहलाते हुए कहा और मुसकरा दी. कहीं कोई शिकायत, कोई क्षोभ नहीं. पूर्णत्वबोध भरे आनंदित क्षण को नापा नहीं जा सकता. वह परमाणु सा हो कर भी अनंत विस्तारवान है. पूरी तरह संतुष्टि और पारदर्शिता झलक रही थी उस के कथन में. मौत सिरहाने खड़ी हो तो इंसान बहुत उदार दिलवाला हो जाता है क्या? क्या चलाचली की बेला में वह सब को माफ करता जाता है? पता नहीं. शिखा भी पिछले एक हफ्ते से मां को मनाने की बहुत कोशिश करती रही, फिर हार कर वापस पति व बच्चों के पास कानपुर लौट गई. शिबू की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. आंखों में आंसू लिए वह भी मां का माथा चूम कर वापस जाने लगा.

‘‘बस बेटा, पापा का फोन जाए तो फौरन आ जाना. मैं तुम्हारे और पापा के कंधों पर ही श्मशान जाना चाहती हूं.’’ एअरपोर्ट के रास्ते में शिबू बेहद खामोश रहा. उस की आंखें बारबार भर आती थीं. वह मां का दुलारा था. शिखा से 5 साल छोटा. मां की जरूरत से ज्यादा देखभाल और लाड़प्यार ने उसे बेहद नाजुक और भावनात्मक रूप से कमजोर बना दिया था. शिखा जितनी मुखर और आत्मविश्वासी थी वह उतना ही दब्बू और मासूम था. जब भी इला से कोई बात मनवानी होती थी, तो मैं शिबू को ही हथियार बनाता. वह कहीं न कहीं इस बात से भी आहत था कि मां ने उस की भी बात नहीं मानी या शायद मां के दूर होने का गम उसे ज्यादा साल रहा था.

आजकल के बच्चे काफी संवेदनशील हो चुके हैं, इस सामान्य सोच से मैं भी इत्तफाक रखता था. हमारी पीढ़ी ज्यादा भावुक थी लेकिन अपने बच्चों को देख कर लगता है कि शायद मैं गलत हूं. ऐसा नहीं कि उम्र के साथ परिपक्व हो कर भी मैं पक्का घाघ हो गया हूं. जब अम्मा खत्म हुई थीं तो शायद मैं भी शिबू की ही उम्र का रहा होऊंगा. मैं तो उन की मृत्यु के 2 दिन बाद ही घर पहुंच पाया था. घर में बाबूजी व बड़े भैया ने सब संभाल लिया था. दोनों बहनें भी पहुंच गई थीं. सिर्फ मैं ही अम्मा को कंधा न दे सका. पर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी मैं ने बहुत सहज और सामान्य रूप से लिया. बस, रात में ट्रेन की बर्थ पर लेटे हुए अम्मा के साथ बिताए तमाम पल छनछन कर दिमाग में घुमड़ते रहे. आंखें छलछला जाती थीं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी आज बच्चों की अपनी मां के प्रति इतनी तड़प और दर्द देख कर मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने तरीके से सही ठहरा कर लेता हूं. असल में अम्मा के 4 बच्चों में से मेरे हिस्से में उन के प्यार व परवरिश का चौथा हिस्सा ही तो आया होगा. इसी अनुपात में मेरा भी उन के प्रति प्यार व परवा का अनुपात एकचौथाई रहा होगा, और क्या. लगभग एक हफ्ते से मैं शिबू को बराबर देख रहा था. वह पूरे समय इला के आसपास ही बना रहता था. यही तो इला जीवनभर चाहती रही थी. शिबू की पत्नी सीमा जब सालभर के बच्चे से परेशान हो कर उस की गोद में उसे डालना चाहती तो वह खीझ उठता, ‘प्लीज सीमा, इसे अभी संभालो, मां को दवा देनी है, उन की कीमो की रिपोर्ट पर डाक्टर से बात करनी है.’

वाकई इला है बहुत अच्छी. वह अकसर फूलती भी रहती, ‘मैं तो राजरानी हूं. राजयोग ले कर जन्मी हूं.’ मैं उस के बचकानेपन पर हंसता. अगर मैं उस की दबंगई और दादागीरी इतनी शराफत और शालीनता से बरदाश्त न करता तो उस का राजयोग जाता पानी भरने. जैसे वही एक प्रज्ञावती है, बाकी सारी दुनिया तो घास खाती है. ठीक है कि घरपरिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उस ने बहुत ईमानदारी और मेहनत से निभाई है, ससुराल में भी सब से अच्छा व्यवहार रखा लेकिन इन सब के पीछे यदि मेरा मौरल सपोर्ट न होता तो क्या कुछ खाक कर पाती वह? मौरल सपोर्ट शायद उपयुक्त शब्द नहीं है. फिर भी अगर मैं हमेशा उस की तानाशाही के आगे समर्पण न करता रहता और दूसरे पतियों की तरह उस पर हुक्म गांठता, उसे सताता तो निकल गई होती उस की सारी हेकड़ी. लगभग 45 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ऐसे कई मौके आए जब वह महीनों बिसूरती रही, ‘मेरा तो भविष्य बरबाद हो गया जो तुम्हारे पल्ले बांध दी गई, कभी विचार नहीं मिले, कोई सुख नहीं मिला, बच्चों की खातिर घर में पड़ी हूं वरना कब का जहर खा लेती.’ बीच में तो वह 3-4 बार महीनों के लिए गहरे अवसाद में जा चुकी है. हालांकि इधर जब से उस ने कीमोथैरेपी न कराने का निश्चय कर लिया था, और आराम से घर पर रह कर मृत्यु का स्वागत करना तय किया था, तब से वह मुझे बेहद फिट दिखाई दे रही थी. उस की 5%-5%% की धाकड़ काया जरूर सिकुड़ के बच्चों जैसी हो गई थी लेकिन उस के दिमाग और जबान में उतनी ही तेजी थी. उस की याददाश्त तो वैसे भी गजब की थी, इस समय वह कुछ ज्यादा ही अतीतजीवी हो गई थी. उम्र और समय की भारीभरकम शिलाओं को ढकेलती अपनी यादों के तहखाने में से वह न जाने कौनकौन सी तसवीरें निकाल कर अकसर बच्चों को दिखलाने लगती थी.

उस की नींद बहुत कम हो गई थी, उस के सिर पर हाथ रखा तो उस ने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े.

‘‘शिबू के लिए काजू की बरफी खरीदी थी?’’

‘‘हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.’’ मैं ने उस का सिर सहलाते हुए कहा तो वह आश्वस्त हो गई.

‘‘नर्स के आने में अभी काफी समय है न?’’ उस की नजरें मुझ पर ठहरी थीं.

‘‘हां, क्यों? कोई जरूरत हो तो मुझे बताओ, मैं हूं न.’’

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. बस, जरा दरवाजा बंद कर के तुम मेरे सिरहाने आ कर बैठो,’’ उस ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, ‘‘मरने वाले के सिर पर हाथ रख कर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ, रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?’’ मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया. सोते हुए ज्वालामुखी में प्रवेश करने से पहले उस के ताप को नापने और उस की विनाशक शक्ति का अंदाज लगाने की सही प्रतिभा हर किसी में नहीं होती, ‘‘पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?’’

‘‘जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नाखून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं. सो, अगर रिश्ते में दरार आए तो दरार को मिटाओ, न कि रिश्ते को. यही सोच कर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं. सूझ तो बरसों से रहा है बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैं ने खुद को भ्रम का हवाला दे कर बहलाए रखा. बस, अब जातेजाते सच जानना चाहती हूं.’’

‘‘जब अभी तक बहलाया है तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंच कर सब सचझूठ का हिसाब कर लेना,’’ मैं ने छत की तरफ उंगली दिखा कर कहा. मेरी खीज का उस पर कोई असर नहीं था.

‘‘और वह विभा, जिसे तुम ने कथित रूप से घर के नीचे वाले कमरे में शरण दी थी, उस से क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?’’

‘‘छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनापशनाप बक रही हो? कोई जरूरत हो तो बताओ वरना मैं चला.’’ मैं उन आंखों का सामना नहीं करना चाहता था. क्षोभ और अपमान से तिलमिला कर मैं अपने कमरे में आ गया. शिबू ने जातेजाते कहा था, मां को एक पल के लिए भी अकेला मत छोडि़एगा. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैं ने पहली बार उस की जबान से सुनी हैं, पहले भी ऐसा सुना है. मुझे लगा था कि वह अब सब भूलभाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घरगृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ जाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ में भी खुराफाती दिमाग कितना तेज काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं में होने लगी. कभीकभी तो ये ऐसी मूसलाधार होती हैं कि उस के निरंतर आघातों से मेरा शरीर कहीं छलनीछलनी न हो जाए, ऐसा संदेह मुझ को होने लगता है. परंतु मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो वक्त बीत गया वह मुंह से निकले हुए शब्द की तरह कभी लौट कर वापस नहीं आता लेकिन उस की स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं.

रानी भाभी की नाजोअदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. 17-18 की अल्हड़ और नाजुक उम्र में मैं उन के रूप का गुलाम बन गया था. भैया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का जिम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था जिस से वे अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थीं त्रियाचरित्र की खूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर खूब नाराज भी हुई थीं, मुझे भी कस कर लताड़ा तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था. कालेज में ऐडमिशन लेने के बाद तो मैं पक्का ढीठ हो गया. अकसर भाभी के साथ रिश्ते का फायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई तो पासपड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ खबरदार कर दिया था. साधारण रूपरंग वाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनीसुनाई बातों पर, काफी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्वस्त हो गई थी. वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ बड़ी सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं.

भाभी जब भी घर आतीं तो इला एकदम चौकन्नी रहती. उम्र की ढलान पर पहुंच रही भाभी के लटकेझटके अभी भी एकदम यौवन जैसे ही थे. रंभाउर्वशी के जींस ले कर अवतरित हुई थीं वे या उन के तलवों में साक्षात पद्मिनी के लक्षण थे, पता नहीं? उन की मत्स्यगंधा देह में एक ऐसा नशा था जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था. फिर मैं तो कुछ ज्यादा ही अदना सा इंसान था. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर आहऊह कर के बैठने की कोशिश करने लगी. मैं ने तकिया पीछे लगा दिया.

‘‘कोई तुम्हारी पसंद की सीडी लगा दूं? अच्छा लगेगा,’’ मैं सीडी निकालने लगा.

‘‘रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद सब अच्छा और शांति ही शांति है, परम शांति. तुम यहां आओ, मेरे पास आ कर बैठो,’’ वह फिर से मुझे कठघरे में खड़ा होने का शाही फरमान सुना रही थी.

‘‘ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं. बोलो, कुछ चाहिए?’’

‘‘हां, सचसच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझ कर घर ले कर आए थे और नीचे बेसमैंट में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की थी, उस से तुम्हारा संबंध कब बन गया था और कहां तक था?’’

‘‘फिर वही बात? आखिरी समय में इंसान बीती बातों को भूल जाता है और तुम.’’

‘‘मैं ने तो पूरी जिंदगी भुलाने में ही बिताई है,’’ वह आंखें बंद कर के हांफने लगी. फिर वह जैसे खुद से ही बात करने लगी थी, ‘‘समझौता. कितना मामूली शब्द है मगर कितना बड़ा तीर है जो जीवन को चुभ जाता है तो फांस का अनदेखा घाव सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सब से ज्यादा गहराई होती है वही रिश्ते मुझे सतही मिले. जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीवजंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशकीमती मोती थे तो कुछ बुराइयों जैसे जीवजंतु भी. कोई ऐसा गोताखोर नहीं था जो उन जीवजंतुओं से लड़ता, बचताबचाता उन मोतियों को देखता, उन की कद्र करता. सब से गहरा रिश्ता मांबाप का होता है. मां अपने बच्चे के दिल की गहराइयों में उतर कर सब देख लेती है लेकिन मेरे पास में तो वह मां भी नहीं थी जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती.

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

जिंदगी

कहने को तो हम

जिंदा हैं मगर

बस चल रही हैं सांसें

यूं ही बेतरतीब सी

बेजान शरीर का बोझ उठाए

चलते जा रहे हैं हम

पर क्या सचमुच

वाकई हम जिंदा हैं?

जब निष्प्राण हैं सब भावनाएं

दम तोड़ रही है इंसानियत

बेजान हो गए हैं रिश्ते

क्या जिंदगी सिर्फ यही है?

सिर्फ जिंदा मत रहो दोस्त

आगे बढ़ कर जी लो तुम

बांट लो किसी का दर्द

अपना दुख भी कर लो कम

जिंदगी जीने के लिए ही तो है

तुम मुरदों के नहीं

जिंदा इंसानों के शहर में रहते हो

इसीलिए भावनाओं में प्राण दो

और इंसानियत को बल दो

किसी का गम अपनाओ

किसी की खुशियां बन जाओ

क्योंकि हम जिंदा हैं

और जिंदगी हमीं से है.

                 – अर्चना भारद्वाज

बात ऐसे बनी

मैं ने शिक्षक पद हेतु साक्षात्कार के लिए अपने पैतृक गांव से सिल्चर के लिए प्रस्थान किया. वर्ष 1993 में अगस्त का महीना था. असम में भयंकर बाढ़ आई हुई थी. ट्रेन सेवा ठप हो गई थी. यात्रियों की भीड़ थी. मैं किसी तरह बिहार पहुंचा. वहां से गुवाहाटी जाने के लिए बस पर सवार हुआ. बस के चलने में कुछ देरी थी. मुझे प्यास लग रही थी. मैं अपनी अटैची बस में छोड़ कर सामने एक नल पर पानी पीने गया. पानी पीने के बाद मैं ने बस की तरफ मुड़ कर देखा तो बस वहां नहीं थी. मेरे सारे मूल प्रमाणपत्र अटैची में ही थे. मुझे चिंता होने लगी कि मैं साक्षात्कार कैसे दे पाऊंगा. मैं चारों तरफ देख रहा था. बसों का रंग, आकार एकजैसा होने के कारण पहचान नहीं पा रहा था. अचानक आवाज सुनाई दी, ‘‘ए लड़के, इधर आ.’’ मैं ने मुड़ कर देखा, वह बस का कंडक्टर था. वह मुझ पर गुस्सा कर रहा था. मैं चुप रहा. उस ने कहा कि अब बस से नीचे उतरना तो ड्राइवर या कंडक्टर से पूछ लेना कि बस कितनी देर तक रुकेगी. मैं अपनी सीट पर बैठ गया. गुवाहाटी पहुंच गया. वहां से सिल्चर गया. सफलता मिली. आज मैं शिक्षक हूं. कंडक्टर की हिदायत अभी तक याद है. उस ने मुझे हिदायत दी थी कि कभी भी बस से ड्राइवर या कंडक्टर से पूछे बिना नहीं उतरना. उस दिन को नहीं भूलता. अब मैं यात्रा के दौरान बस या ट्रेन से उतर कर पानी पीने या कोई सामान खरीदने में बहुत सावधानी बरतता हूं.

अनिरुद्ध पाठक, धनबाद (झारखंड)

*

मैं बीए की छात्रा थी. मेरी बड़ी बहन अपने 3 साल के बेटे बबलू को ले कर ससुराल से आई थी. बबलू बहुत प्यारा था. मैं रोज उसे शाम को घर के आसपास घुमाती थी. हमारे घर के सामने एक प्रोफैसर साहब रहते थे. अपनी खिड़की से ही देखते रहते थे. एक दिन उन्होंने बबलू को अपने पास बुला कर उस से बातें कीं और चौकलेट दी. फिर तो वे अकसर बबलू के साथ खेलते व उसे अपने घर ले जाते. बबलू तो थोड़े दिनों बाद अपनी मां के साथ चला गया पर प्रोफैसर व मेरी घनिष्टता बढ़ती गई. परिणाम यह हुआ कि आज वे बबलू के मौसा हैं. प्रोफैसर साहब ने बतलाया, ‘‘बबलू के साथसाथ आप भी हमें अच्छी लगती थीं. कारण यह नहीं था कि आप सुंदर थीं, जिस प्यार तथा ममता से आप बबलू को खिलाती थीं उस ने हमें आकर्षित किया. मां तो हमारी बचपन में ही चल बसी थीं. पिता ने दूसरी शादी की और सौतेली मां ने पूरा सौतेलापन दिखाया. प्यारममता को तरस गए थे. वह आप में दिखा.’’ यह कहतेकहते उन की आंखें नम हो गईं. 

आशा भटनागर, कल्याण (महा.)

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें