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शेयर बाजार का रुख पलटा, सूचकांक सुधरा

जून का दूसरा पखवाड़ा शेयर बाजार के लिए उत्साहवर्द्धक रहा. 4 सप्ताह बाद पहली बार 20 जून को समाप्त हुए सप्ताह के सभी सत्रों में बाजार तेजी पर बंद हुआ. इस से पहले लगातार 3 सप्ताह तक बाजार में गिरावट का माहौल रहा जिस से बाजार में जम कर बिकवाली हुई और निवेशकों में जबरदस्त निराशा का माहौल रहा. इस अवधि में बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 26 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक अंक से नीचे उतर आया था. इसी बीच अमेरिका में केंद्रीय बैंक की दरों में बढ़ोत्तरी नहीं करने के फैसले, मानसून के पहले के अनुमान के उलट बेहतर रहने की उम्मीद, न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़ने और औद्योगिक आंकड़े के बेहतर रहने तथा रुपए की सेहत में सुधार की बदौलत बाजार में रौनक लौट आई और लगातार 3 सप्ताह तक गिरावट से रूबरू हो कारोबारियों के चेहरों पर मुसकान लौटी. इस दौरान बाजार पहले 2 सप्ताह और फिर 4 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ. इस अवधि में वैश्विक बाजारों में नकारात्मकता देखने को मिली. रुपया भी अचानक मजबूत स्थिति में लौट आया, मानसून के पहले के अनुमान में बदलाव आ गया और इस से बाजार की स्थिति सुलट गई व सूचकांक एकाएक कुलांचें भरने लगा. जानकारों का मानना है कि बाजार की स्थिति फिलहाल अच्छी है, इसलिए सूचकांक के तेजी पर रहने का अनुमान है.

सुंदरकांड

रामायण में कई कांड हैं. अगर देखा जाए तो रामायण में कांड के अलावा कुछ भी नहीं है. उन कांडों में एक कांड सुंदरकांड है. इस का आयोजन मेरे महल्ले के अवधेश ने किया. अवधेश ने बाकायदा निमंत्रणपत्र छपवा कर कई लोगों के साथ मुझे भी भेजा. निमंत्रणपत्र पढ़ने के बाद मुझे कुछ अजीब लगा, सुंदरकांड? मैं सोचने लगा, भला कांड भी कभी सुंदर हुआ है? आज तक मैं ने जितने भी कांड देखे सब के सब कुरूप ही थे. फिर चाहे कांडा का कांड हो या अन्य कोई कांड या घोटाला. बहरहाल, नियत समय पर मैं अवधेश के घर पहुंच गया. घर के बाहर एक खूबसूरत शामियाना बंधा था. लोगों को बैठने के लिए कुरसीटेबल की अच्छी व्यवस्था थी. ठीक सामने एक ऊंचा सा मंच बना था. शायद यहीं पर सुंदरकांड का आयोजन होगा. एक कोने में भोजन की व्यवस्था थी, जिस की महक चारों ओर फैल रही थी. मैं ने मन ही मन सोचा, सुंदरकांड चाहे जैसा भी हो परंतु अभी तो खुशबू से पता चलता है कि भोजन स्वादिष्ठ ही होगा. तकरीबन सभी मेहमान आ गए थे. मैं ने अवधेश से उत्सुकता से पूछा, ‘‘भाई, पहले यह बताओ, यह सुंदरकांड होता कैसे है? क्या किसी नेतामंत्री को बुलाया है? क्योंकि जहां तक मेरा खयाल है, इन के बिना कोई कांड होता ही नहीं है. ये महानुभाव जहां खड़े हो जाते हैं कांड अपनेआप हो जाता है और अगर नहीं होता है तो ये कर आते हैं.’’

अवधेश मेरी अल्पबुद्धि पर हंसने लगे, ‘‘यार, तुम जिस कांड की बात कर रहे हो वह यह कांड नहीं है. यह रामायण का सुंदरकांड है.’’ मेरी अज्ञानता पर तरस खा वे मुझे विस्तार से समझाने लगे, ‘‘तुम जो समझ रहे हो वह यह कांड नहीं है. यह तो रामचरितमानस का एक कांड है.’’ मैं ने तपाक से कहा, ‘‘हां, याद आया, रामचरितमानस में तो कांड ही कांड हैं, जैसे बाली हत्याकांड, सीता अपहरण कांड, रामरावण युद्ध कांड, लंका कांड, अग्नि कांड…’’

‘‘बीच में मत बोलो,’’ वे झल्लाए.

मैं ने अपने होंठों पर उंगली रख चुप रहने का अभिनय किया तो वे फिर बोले, ‘‘रामचरितमानस के कई नामों से अलगअलग हिस्से हैं. उन में सुंदरकांड नाम का भी एक हिस्सा है, जिस के पाठ का मैं ने आयोजन किया है. सुंदरकांड करने वाली एक मंडली होती है, जिस में 2 समूह बन जाते हैं. वे अपने साजोसामान यानी ढोलकपेटी, झांझमंजीरा, चिमटा आदि बजाते हुए सुंदरकांड का एक दोहा पढ़ते हैं. दूसरा ग्रुप बिना ब्रेक के तुरंत अगला दोहा सवालजवाब की तरह पढ़ता है. इस तरह बिना रुके निरंतर पढ़ते जाते हैं. यह समझो यह अखंड रामायण का एक छोटा सा अभ्यास है.’’ मैं ने उन की पूरी बात समझ कर कहा, ‘‘अच्छी बात है. तुम्हारी यह सुंदरकांड करने वाली मंडली कहां है? और कब शुरू होगा कांड?’’

‘‘बस, आती ही होगी,’’ वे गर्व से बोले, ‘‘हमारे शहर की मशहूर शुक्ला मंडली है. जगहजगह कांड करती रहती है. मंडली के मुखिया शुक्लाजी कांड करने में इतने माहिर हैं कि लोग दूरदूर से उन्हें बुलाते हैं. एक बार वे जिस के यहां कांड कर लेते हैं वह जीवनभर नहीं भूलता है. तीजत्योहारों पर तो उन्हें जरा भी फुरसत नहीं मिलती. कांड पर कांड किए जाते हैं.’’ मैं ने बेसब्री से पूछा, ‘‘भाई, यह तुम्हारी कांडी मंडली कब आएगी? तुम ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी है. मैं कांड देखने के लिए बेचैन हूं.’’ अवधेश ने कलाई घड़ी को देखते हुए कहा, ‘‘अभी तक तो आ जाना था, 8 बजे का समय दिया था, अब तो 9 बज गए हैं.’’ समय बढ़ता जा रहा था पर मंडली का कहीं अतापता नहीं था. अवधेश बेचैन हो शुक्लाजी को फोन पर फोन लगालगा कर परेशान हो रहे थे. दूसरी तरफ घंटी तो बराबर जा रही थी परंतु कोई फोन उठा नहीं रहा था. मैं ने शंका जाहिर की, ‘‘तुम्हारी यह मंडली कांड करतेकरते कहीं फंस तो नहीं गई? अकसर सुना है कांडी आदमी एक दिन बुरी तरह फंस जाता है.’’

‘‘शुभशुभ बोलो यार,’’ अवधेश ने मुझे घुड़का.

मैं सहम गया. यह समय मजाक का नहीं था. लेटलतीफ सभी मेहमान आ गए थे. अब वे सब भी मेरी तरह मंडली का इंतजार करतेकरते ऊबने लगे थे. कुछ ने तो अवधेश से क्षमा मांगते हुए जाने की इजाजत चाही. अवधेश लज्जित हो निवेदन कर रहे थे, ‘‘भाई, थोड़ा और रुक जाओ.’’ तभी उन की भारीभरकम श्रीमतीजी सूर्पणखा की तरह गुस्से में पांव पटकती आईं और नथुने फुला कर बोलीं, ‘‘सुनो जी, मंडली कब आएगी? हम लोगों की नाक कटी जा रही है. कितने शर्म की बात है. मेहमान बिना कांड किए जा रहे हैं. पड़ोस के महल्ले के तिवारीजी का पता करना. सुना है, उन की भी मंडली इधरउधर कांड करती रहती है. उन्हीं को बुला लाओ.’’ अवधेश हिचकिचाते बोले, ‘‘परंतु हम ने शुक्ला मंडली को पूरे 1 हजार रुपए ऐडवांस दिए हैं.’’

‘‘उस की चिंता मत करो. मेरे शूरवीर भाई कब काम आएंगे. शुक्ला से ब्याज सहित वसूल लेंगे. जरा सोचो, जब सभी मेहमान चले जाएंगे तो क्या हम दोनों ही कांड करते रहेंगे?’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो.’’ दुबलेपतले अवधेश मिमियाते हुए जवाब दे कर तिवारी मंडली को बुलाने चल दिए. कुछ देर बाद 8-10 लोगों को उन के साजोसामान के साथ ले आए. तिवारी मंडली ने आते ही फौरन मंच पर कब्जा जमाया, फिर अपना साजोसामान खोल कर सजाया. माइक वगैरह ठीक कर सुंदरकांड की तैयारी करने लगे. तभी हांफतीदौड़ती शुक्ला मंडली आ गई. तिवारी मंडली ने उन्हें देखा और मुंह बिचका कर अपने काम में जुट गई. अवधेश ने आगे बढ़ कर शुक्लाजी को उलाहना दे कर घड़ी दिखाते हुए फटकारा, ‘‘यह कोई समय है आप के आने का. मेरे एकएक कर के कई मेहमान बिना कांड किए चले गए.’’ शुक्लाजी ने नम्रता से जवाब दिया, ‘‘देखो भाई, हम एक सज्जन धर्मप्रेमी व्यक्ति के यहां कांड कर रहे थे. वहां कांड देरी से शुरू हुआ तो समापन में देरी हो गई. इस में हमारा कोई दोष नहीं है. सब प्रभु की मरजी है.’’

‘‘आप ने मेरा फोन भी नहीं उठाया.’’

‘‘कैसे उठाते? झांझमंजीरा, ढोलकपेटी की आवाज में रिंगटोन सुनाई नहीं दी.’’ तभी तिवारीजी वहां आ गए, ‘‘देखो शुक्लाजी, अब आप देर से आए हैं तो अपना साजोसामान मत खोलिए क्योंकि हम मंच पर अपना सामान जमा चुके हैं,’’ तिवारी ने वजनदारी से आगे कहा, ‘‘अब कांड तो हम ही करेंगे.’’ ‘‘हमें देर क्या हुई, तिवारीजी आप ने चुपके से विभीषण वाली हरकत कर दी और हमारी लंका में सेंध लगा दी. अवधेश भाई के यहां कांड करने का हमारा पहला हक है, हम बरसों से यहां कांड करते आ रहे हैं, फिर हम ने कांड करने का ऐडवांस रुपया भी लिया हुआ है.’’ ‘‘हम ने भी बिनाबुलाए हनुमान की तरह घुसपैठ नहीं की है. देखते हैं, कांड करने से कौन रोकता है. हम ने एक से एक दमदार लोगों के यहां कांड किए हैं, लेकिन आज तक किसी ने चूं तक नहीं की है. आप की क्या औकात?’’ ‘‘औकात की बात मत करिए. हम आप की औकात जानते हैं,’’ शुक्लाजी को जोश आ गया. वे तैश में आगे बोले, ‘‘हमारा मुंह मत खुलवाइए. पूरी जिंदगी आप के बापदादा भांडगीरी करते रहे और आप को रामायण की एक चौपाई भी ढंग से पढ़नी नहीं आती, और चले हैं सुंदरकांड करने.’’

तूतू, मैंमैं में दोनों एकदूसरे की बखिया उधेड़ने लगे, फिर देखतेदेखते हाथापाई पर उतर आए. दोनों मंडली के लोग आमनेसामने खड़े हो कर कुरसीटेबल, झांझमंजीरा…जो हाथ में आया एकदूसरे पर फेंकने लगे. ऐसा लग रहा था रामायण का अंतिम कांड यानी रामरावण युद्ध शुरू हो गया. चारों तरफ अफरातफरी मच गई. लोग तितरबितर हो गए, जिसे जहां जगह मिली, छिपने लगे. मैं भी अपनेआप को बचाता हुआ एक कोने में जा दुबका. मेरे पास ही अवधेश भी दुबके हुए थे. युद्ध का सजीव नजारा देख वे मन ही मन दुखी हो रहे थे. मैं ने दोनों मंडलियों की मारपीट की ओर उंगली से इशारा कर अवधेश से पूछा, ‘‘इस सुंदरकांड का समापन कैसे होगा?’’ अवधेश ने हताश हो कर दयनीय दशा में बड़ी सादगी से जवाब दिया, ‘‘जैसा हर कांड का होता है.’’ इतना कह कर उन्होंने अपने मोबाइल फोन से 100 नंबर डायल कर पुलिस को भी बुलावा भेज दिया.

रीतिरिवाजों के भय तले दबा डरासहमा समाज

यह एक सच्ची घटना है जिसे पढ़ कर शायद आप की व्यर्थ की धार्मिक परंपराओं व रीतिरिवाजों के बारे में राय बदल जाए. खूबसूरत व संस्कारी निमिषा की मां का देहांत हो गया था. पिता इस हालत में नहीं थे कि बेटी की देखभाल कर पाते. ऐसे में उस के चाचाजी व चाचीजी ने उसे अपनी सगी बेटी की तरह पालपोस कर बड़ा किया और समय आने पर इंजीनियर के पद पर कार्यरत एक सुदर्शन युवक से उस की सगाई कर दी. सगाई शानदार तरीके से हुई. दहेज और वैवाहिक कार्यक्रमों की बात चली तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘हमें दहेज नहीं चाहिए और हम कोर्ट मैरिज ही करवाएंगे. किसी भी तरह के धार्मिक रीतिरिवाजों को नहीं निभाएंगे.’’ यह बात सुन कर निमिषा के परिवार में सन्नाटा छा गया कि भला बिना रीतिरिवाजों और धार्मिक पूजापाठ के विवाह कैसे संपन्न होगा.

सभी हैरान थे कि आखिर वे पूजापाठ और ईश्वर को क्यों नहीं मानते. परिवार अच्छा होने की वजह से वे रिश्ता भी नहीं तोड़ना चाहते थे, इसलिए चाचीजी ने इस बारे में लड़के की मां से बात करना उचित समझा. उन्होंने लड़के की मां से पूछा, ‘‘आखिर ऐसी क्या बात है कि आप लोग भगवान, रीतिरिवाज व परंपराओं को नहीं मानते हैं?’’ लड़के की मां ने कहा, ‘‘दरअसल, मेरे बेटे की ईश्वर पर कोई आस्था नहीं है. जब मेरे पति यानी इस के पिता बहुत गंभीर रूप से बीमार थे तो इस ने सभी देवीदेवताओं की पूजाअर्चना, धार्मिक कर्मकांड सबकुछ किया लेकिन फिर भी अपने पिता को नहीं बचा पाया. तभी से हम ने पूजापाठ, धार्मिक रीतिरिवाजों पूजाअर्चना का पूरी तरह से त्याग कर दिया है.’’ लड़के की मां के मुंह से यह बात सुन कर निमिषा की चाची हैरान रह गईं और उन की सोच पूरी तरह बदल गई और वे लड़के की मां के कहे अनुसार कोर्ट मैरिज व रिसैप्शन के लिए तैयार हो गईं. आज निमिषा पूरी तरह सुखीसंपन्न है बावजूद इस के उस के विवाह में कोई वैवाहिक रीतिरिवाज, पूजापाठ धार्मिक कर्मकांड नहीं हुआ, जिन के बिना भारतीय समाज किसी भी विवाह को अधूरा व असफल होने की शंका करता है. इस उदाहरण के अलावा ऐसे कितने लोग हैं जो इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों व धर्मकर्म को नहीं मानते.

भारतीय समाज में धार्मिक रीतिरिवाजों, पूजापाठ का पालन दैनिक आधार पर जीवन के सभी छोटेबड़े अवसरों पर किया जाता है और माना जाता है कि ये रीतिरिवाज और परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं, इसलिए अनिवार्य हैं और बाध्य रस्में हैं. ये रस्में दिनचर्या में इस तरह घुलमिल गई हैं कि इन्हें बड़ी शिद्दत के साथ निभाया जाता है. इन रीतिरिवाजों के परे सोच पाना भी, जैसा कि निमिषा के होने वाले पति ने किया, संभव नहीं होता क्योंकि ये रीतिरिवाज बुरी लत की तरह लोगों की नसनस में समा चुके हैं. लेकिन आप जानते हैं कि ये धर्मकर्म, पूजापाठ, रीतिरिवाज एक आम आदमी की सोच, उस की दिनचर्या और पूरी जिंदगी पर क्या प्रभाव डालते हैं?

वहम व डर का साया

यज्ञ, हवन, व्रत, कथा, पाठ ये सभी धार्मिक क्रियाकलाप लोगों को वहम और डर के बंधनों में जकड़ते हैं और इन के बोझ तले जीते लोग खुशहाली के बजाय दुख और डर के साए तले जीते हैं. पूजापाठ, रीतिरिवाजों, धर्मकर्म के बीज हमारे समाज में बच्चों में बचपन से ही रोप दिए जाते हैं. उसे अपनी हर इच्छापूर्ति के लिए धार्मिक कर्मकांडों पर निर्भर बना दिया जाता है. आप उक्त देवीदेवता की पूजा करो, मंत्रजाप करो तो परीक्षा में सफल होगे, इंटरव्यू में सफलता मिलेगी, रोगों से मुक्ति मिलेगी, 16 सोमवार करोगी तो अच्छा घरवर मिलेगा, करवाचौथ का व्रत करोगी तो पति दीर्घायु होगा यानी जीवन के छोटेबड़े सभी उद्देश्य धार्मिक कर्मकांडों के आधार पर व्यवस्थित होते हैं. कुल मिला कर जन्म से ले कर मृत्यु तक धार्मिक पूजापाठ, रीतिरिवाजों में जकड़ा मनुष्य इन से इतना भयभीत रहता है कि इन के बिना एक भी कदम आगे बढ़ाने से डरता है कि अगर उक्त व्रत या अनुष्ठान नहीं किया तो बुरा होगा, असफलता मिलेगी, जीवन असफल हो जाएगा. और वह बिना सोचेसमझे इन धार्मिक कर्मकांडों को अपने जीवन का अटूट हिस्सा बनाता चला जाता है. वहीं, जो रीतिरिवाजों को नहीं मानता उसे नास्तिक या अधर्मी करार दे दिया जाता है.

एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत 32 वर्षीय रीतू का इस बारे में कहना है, ‘‘मैं इस तरह के व्रत, पूजापाठ बिलकुल नहीं करती क्योंकि ये व्यर्थ के आडंबर न सिर्फ डराते हैं बल्कि व्यर्थ का वहम भी पैदा करते हैं और हमारा ध्यान वास्तविक समस्या से हट जाता है. एक स्टूडैंट पढ़ाईलिखाई छोड़ कर पूजापाठ, व्रत, उपवास में लग जाता है, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में मधुरता कायम करने के लिए आपसी सामंजस्य और अपनेपन के बजाय कुंडलियों के मिलान और तंत्रमंत्र, दानधर्म का सहारा लेने लगते हैं. जब वे एक बार इन के जाल में फंस जाते हैं तो इन्हें न करने या छोड़ने से डर लगने लगता है. तब उन के पास इन में फंस कर रहने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. इन सब से परिणाम भी कुछ हाथ नहीं लगता. ऐेसे में इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों में जकड़ कर जिंदगी को डर के साए में जीने से क्या फायदा?’’

टूटता आत्मविश्वास

पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठानों में जकड़ा मनुष्य इस कदर इन के जाल में फंस जाता है कि वह अपने जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपनी कोशिशें छोड़ देता है और पूरी तरह इन पर निर्भर हो जाता है फिर चाहे वह उद्देश्य उच्च शिक्षा प्राप्ति हो, बेहतर स्वास्थ्य हो, विवाह, संतानप्राप्ति या मकान निर्माण हो. वह इन सब के लिए पंडितों, धर्मगुरुओं का सहारा लेता है और पूजापाठ, तंत्रमंत्र जैसे उपाय अपनाने लगता है. और तो और, बीमार व्यक्ति की सेहत में सुधार के लिए भी डाक्टरी इलाज के बजाय झाड़फूंक व दानधर्म में अपनी अमूल्य संपत्ति झोंक देता है. इन सब के बाद भी जब कोई परिणाम उस के हाथ नहीं लगता तो वह पूरी तरह टूट जाता है और उस के पास सिवा पछताने के कुछ नहीं बचता. पाखंडी पंडों और स्वार्थी साधुओं की पेटपूजा के खर्चों में धर्मभीरु लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद हो जाती है. वे जीवनभर के लिए कर्जदार बन जाते हैं. दूसरी तरफ, सुविधाभोगी पाखंडी पंडे भोलेभाले लोगों को रीतिरिवाजों के जाल में उलझा कर अपनी जेबें भरते रहते हैं. आधुनिक समाज में जरूरत है व्यर्थ की धार्मिक कर्मकांडों और रीतिरिवाजों से मुक्ति पाने की ताकि निमिषा और उस के पति की तरह बिना डर और वहम के आत्मविश्वास के साथ जिंदगी को जिया जा सके. इस के लिए सभी को जागरूक किए जाने की जरूरत है.

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

भड़कने के माने

केंद्रीय मंत्री बनने के बाद शांत रहने की कला में माहिर हो गए रामविलास पासवान आखिरकार जीतनराम मांझी पर बरस ही पड़े. और इस तरह बरसे कि मांझी इतना सहम गए कि माफी सी मांग बैठे. बिहार के चुनाव में जातियों के वोट हर कोई गिना रहा है. जातियों के होहल्ले में भाजपा की विकास की आवाज उस के गले में ही घुटी जा रही है क्योंकि कोई अब यह घुट्टी पीने को तैयार नहीं. चारों तरफ से अगड़े, पिछड़े, दलित और महादलित जैसे विशेषणों की बौछार हो रही है. ऐसे में मोदीछाप छाता चल पाएगा ऐसा लग नहीं रहा. रामविलास पासवान की खीझ नरेंद्र मोदी के उतरते जादू को ले कर ज्यादा है. एनडीए की जीत अब गारंटेड नहीं रह गई है. लिहाजा, कोई नई तिकड़म उसे भिड़ानी पड़ेगी. पर मांझी को काबू करने का कोई फार्मूला नहीं निकल रहा. मांझी कोई करिश्मा भले ही न कर पाएं पर दलितों का वर्गीकरण कर सीना तानते वे सीटों की सौदेबाजी में भारी पड़ रहे हैं. पासवान का एक डर यह भी है कि कहीं इस भगदड़ में मांझी की आस्था नीतीश व लालू में फिर से जाग्रत न हो जाए.

आडवाणी का आफतकाल

चूंकि यह मान लिया गया है कि लालकृष्ण आडवाणी जो भी बोलेंगे वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ही होगा, इसलिए आपातकाल वाले उन के बयान के सभी ने स्वच्छंदतापूर्वक मतलब ऐसेऐसे निकाले कि खुद आडवाणी हैरान रह गए. वे यह नहीं समझा पाए कि 39 साल पहले कांग्रेस नेत्री इंदिरा गांधी और उन के तानाशाह बेटे संजय गांधी ने लोगों का उठना, बैठना और बोलना तक मुहाल कर दिया था. एक जमाना यह है कि कोई भी कुछ भी बोल सकता है. खासतौर से सोनिया व राहुल गांधी को बेहिचक मंच से गाली दी जा सकती है. आपातकाल और उस के बाद 2014 तक के अपवाद सालों को छोड़ दें तो नेहरूगांधी परिवार से बदला लेने का यह सुनहरा मौका है. बेचारे आडवाणी अतीत के मोहपाश में बंधे यह सोच रहे थे कि वे भी क्या दिन थे, जेल में बैठे गाने सुनते रहो, बहसें करते रहो और आज कुछ यों ही बोल दो तो हर किसी की जलीकटी सुननी पड़ती है कि लो, खुद पीएम नहीं बन पाए तो यों भड़ास निकाल रहे हैं यानी बोलना आज भी गुनाह है.

एक इश्तिहार, हजार अफसाने

असल गलती उस एजेंसी की है जिस ने इतना प्रभावी विज्ञापन बनाया और उस से भी बड़ी गलती उस मौडल की है जिस ने अधेड़ मध्यवर्गीय गृहिणी के रोल में जान डाल दी. अरविंद केजरीवाल वाले विज्ञापन के प्रसारण पर भाजपा और कांग्रेस भड़की हुई हैं कि यह व्यक्तिपूजा और नारी का अपमान है. इसे बंद किया जाए. बात में दम इस परंपरा के लिहाज से है कि राजनीति के मंदिर में मुख्य प्रतिमा ही पूजनी चाहिए. बाहर रखी खंडित मूर्तियों को यह पात्रता नहीं कि उन्हें दानदक्षिणास्वरूप पैसा चढ़ाया जाए या उन के सामने सिर झुकाया जाए. एक तिलमिलाहट इस बात पर भी है कि अरविंद केजरीवाल अब राजनीति के रंग में ढलने लगे हैं. उन्हें समझ आने लगा है कि होता जाता कुछ नहीं है, इसलिए लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते नाटक सा करते रहो और सलामत रहो.

सिंहस्थ का प्रकोप

उज्जैन में होने वाले सिंहस्थ 2016 की तैयारियों में जुटे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन अफवाहों से चिंता में पड़ गए हैं कि जबजब उज्जैन में सिंहस्थ हुआ तबतब सीएम ने कुरसी गंवाई. शोधकर्ताओं ने पूरी सूची ही सामने ला दी कि कब सिंहस्थ हुआ और इस के बाद मुख्यमंत्री को जाना पड़ा. शिवराज सिंह चौहान भी उच्च कोटि के अंधविश्वासी हैं, इस पसरती अफवाह से उन का अंधविश्वास और बढ़ने लगा है. इधर एक अच्छा काम उन्होंने यह किया कि नरेंद्र्र मोदी से मिल कर महत्त्वाकांक्षी और उन की कुरसी पर नजरें गड़ाए बैठे वरिष्ठ मंत्री कैलाश विजय वर्गीय को राष्ट्रीय महासचिव बनवा डाला. अब कोई बड़ा रोड़ा उन के रास्ते में नहीं लेकिन सिरदर्दी साधुसंतों की धमकियां बढ़ा रही हैं कि सिंहस्थ में अगर इंतजाम अच्छे नहीं हुए तो नतीजे भी अच्छे नहीं निकलेंगे. तथाकथित ईश्वर के इन दूतों से वे कैसे निपटेंगे, देखना दिलचस्प 

ललितायम यज्ञ में राजनेताओं की आहुतियां

महाभारत में ‘सर्प यज्ञ’ की एक कथा है. महाभारत में लिखा है, ‘‘सर्प यज्ञ के लिए मंत्र पढे़ जाने लगे तो सांपों के हृदय हिलाने वाली आहुतियां दी गईं. आह्वान करते ही सब सांप विवश हो कर तरहतरह के शब्द करते हुए आआ कर अग्निकुंड में गिरने लगे. ‘‘तक्षक नाम का एक नाग अग्निकुंड से बचने के लिए भाग कर इंद्र के पास जा कर छिप जाता है. इंद्र उसे शरण देता है. तक्षक डर कर इंद्र के पास गया. इंद्र ने कहा, नागराज, तुम को सर्प यज्ञ से कुछ भी डर नहीं है. मैं ने पहले ही तुम्हारी ओर से विधाता को प्रसन्न कर लिया है. तुम कुछ चिंता न करो. इस प्रकार के आश्वासन पा कर नागराज तक्षक इंद्र के लोक में सुख से रहने लगा.’’ कुछ समय बाद एक अद्भुत घटना हुई. डर से व्याकुल तक्षक को इंद्र ने छोड़ दिया था तो वह अग्नि में नहीं गिरा. आकाश में ही ठहरा रहा. आकाश में ही क्यों रुका रहा? सवाल उठे कि वह बच क्यों गया? क्या मंत्रज्ञ ब्राह्मणों के मंत्र शक्तिहीन हो गए थे? पता चला कि उसे आस्तीक नामक ऋषिकुमार, स्वयं राजा और ब्राह्मणों ने मिल कर बचा लिया.  

महाभारत के ‘सर्प यज्ञ’ का किस्सा और ब्रिटेन में शरण लिए बैठे ललित मोदी की मदद में कई नेताओं के नामों के खुलासे में एक तरह की समानता का दिलचस्प मामला दिखाई देता है. 14 जून को ब्रिटेन के संडे टाइम्स में ज्यों ही भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और ब्रिटिश सांसद कीथ वाज के बीच पत्रव्यवहार व फोन का भंडाफोड़ हुआ तो भारतीय राजनीति में खलबली मच गई. अखबार ने खुलासा किया था कि सुषमा स्वराज ने भारत से भागे हुए आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी को वीजा दस्तावेज दिलाने में मदद की थी. इस खबर के  बाद तहलका मच गया. 2 दिन बाद खबर आई कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने भी ललित मोदी की मदद की थी. साथ ही, सिंधिया के सांसद पुत्र दुष्यंत सिंह से ललित मोदी के अवैध कारोबारी सांठगांठ के राज भी खुलने लगे. इन खुलासों से भारत की राजनीति गरमा गई. पक्षविपक्ष में आरोपप्रत्यारोप का दौर चल पड़ा.  विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस ने एनडीए सरकार को घेर लिया. सुषमा स्वराज और वसुंधरा को अनुचित काम का दोषी बता कर इस्तीफे की मांग की जाने लगी. कांग्रेस ने दिल्ली में सुषमा स्वराज के घर के बाहर प्रदर्शन किया और जयपुर में वसुंधरा के खिलाफ प्रदर्शन किया गया. आरोपी नेताओं के पुतले फूंके गए. इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खामोशी पर भी सवाल उठाए गए. विरोधी दलों के साथसाथ सुषमा की स्वयं की पार्टी के लोग भी उन के खिलाफ बोलने लगे. लेकिन सचाई, नैतिकता, ईमानदारी और उच्च आदर्शों की बात करने वाला संघ सुषमा के समर्थन में आ खड़ा हुआ. दरअसल, आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी का कहना था कि उन की पत्नी को कैंसर था और पुर्तगाल में उन का औपरेशन होना था, इसलिए वे पत्नी के पास जाना चाहते थे ताकि सर्जरी के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर सकें पर विपक्ष का दावा था कि पुर्तगाल में बालिग की सर्जरी के मामले में हस्ताक्षर की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. पर मोदी लिस्बन गए और पत्नी की सर्जरी करा कर तीसरे दिन छुट्टियां मनाने देशाटन पर निकल पड़े. फिर लौट कर लंदन आ गए.

सुषमा का पेंच

इस मामले में सुषमा स्वराज ने ब्रिटिश सांसद कीथ वाज से ललित मोदी की मदद की सिफारिश की थी. कीथ वाज ने 31 जुलाई, 2014 को माइग्रेशन अधिकारी सराह राप्सन से कहा कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज नेललित मोदी के पुर्तगाल जाने के प्रार्थनापत्र को स्वीकार करने को कहा है. इस से भारत को कोई आपत्ति नहीं है. ‘सर्प यज्ञ’ की तर्ज पर इस ‘ललितायम यज्ञ’ में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के अलावा एक के बाद एक और नाम सामने आने लगे. ललितायम यज्ञ के अग्निकुंड की आग में कुछ नेता कम, तो कुछ नेता अधिक झुलसने लगे. आहुतियों के रूप में क्रिकेट से जुड़े नेताओं के नाम सामने आने लगे. मामले में सुषमा स्वराज का पारिवारिक कौशल खूब उजागर हुआ. सुषमा स्वराज के पति एवं मिजोरम के राज्यपाल रहे स्वराज कौशल वर्षों से मोदी के वकील रहे हैं. उन की एडवोकेट बेटी बांसुरी कौशल ने पासपोर्ट मामले में हाई कोर्ट में मोदी की पैरवी की थी. अगस्त 2013 में ललित मोदी ने ब्रिटिश सांसद कीथ वाज से सुषमा स्वराज और उन के पति स्वराज कौशल द्वारा अपने भतीजे के ससेक्स कालेज ब्रिटेन में ऐडमिशन किए जाने की सिफारिश भी की थी. समूची सरकार अग्निकुंड के घेरे में आ खड़ी हुई. ललित मोदी के पासपोर्ट मामले में सरकार की ओर से अदालत में किसी तरह का विरोध नहीं किया गया. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि मोदी के पासपोर्ट मामले में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देना विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी थी.  यज्ञ की आंच में झुलसी सुषमा स्वराज ने भी कहा कि उन्होंने ‘मानवीय आधार’ पर मोदी की मदद की थी.

इधर, वसुंधरा राजे और उन के सांसद पुत्र पर यज्ञ की आंच ललित मोदी से ‘टेक ऐंड गिव’ के कारण आई है. कहने को वसुंधरा मात्र एक दस्तावेज देने की दोषी बताई जा रही हैं पर उन के पुत्र दुष्यंत सिंह के नियंता हेरिटेज होटल्स प्रा. लि. में 1,100 करोड़ रुपए गैर कानूनी तरीके से मोदी के आनंद होटल्स के जरिए पहुंचाए जाने का आरोप है. यह पैसा मौरीशस और सिंगापुर की कंपनियों के ठेके से ललित मोदी के पास पहुंचा था. कहा जाता है कि दुष्यंत सिंह की इस कंपनी के 10 रुपए के बदले 96 हजार रुपए में शेयर खरीदे गए थे. इस कंपनी को पहले बिना किसी सिक्योरिटी के 3.80 करोड़ रुपए का लोन और फिर 9.29 करोड़ रुपए का निवेश दिखाया गया था. यह मामला प्रवर्तन निदेशालय के अधीन है. अप्रैल 2011 को वसुंधरा राजे ने गोपनीयता की शर्त पर मोदी को ब्रिटेन में रहने के लिए समर्थन करने की ब्रिटिश अधिकारियों से सिफारिश की थी. पहले तो सिंधिया ने ऐसे किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर से इनकार किया पर जब विपक्ष ने दस्तावेज दिखाए तो उन्होंने मान लिया. वसुंधरा के पिछले कार्यकाल में ललित मोदी और उन की निकटता तथा सरकार में मोदी के हस्तक्षेप को ले कर काफी विवाद हुए थे. मोदी को राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाने में तब की राजे सरकार ने विशेष दिलचस्पी ली थी.

इस ललितायम यज्ञ में सुषमा और वसुंधरा पर पड़ने वाली आंच से आईपीएल के काले कारोबारियों, बेईमानों, राजनीतिबाजों में खलबली मच गई. ललितायम अग्निकुंड के इर्दगिर्द कई आरोपी आने लगे. इन में क्रिकेट से जुड़े स्वयं ललित मोदी के समय बीसीसीआई के चेयरमैन रहे शरद पवार, कांग्रेसी राजीव शुक्ला, प्रफुल्ल पटेल, शशि थरूर जैसे नेताओं की ओर भी क्रिकेट के नाम पर काला कारोबार करने और सांठगांठ कर एकदूसरे की मदद के आरोपों की समिधा डाली जाने लगीं. मामले में लोग एकदूसरे के बचाव में भी दिखे. बीसीसीआई के अध्यक्ष रहे शरद पवार ने ललित मोदी और सुषमा स्वराज का समर्थन किया. शरद पवार मोदी से लंदन में मिले भी थे. मुंबई के पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया भी ललित मोदी से लंदन में मिले थे. चूंकि आईपीएल के आविष्कारक ललित मोदी ही थे, यह भद्र जनों का कहलाने वाला कोई क्रिकेट नहीं था, यह क्रिकेट के नाम पर वैधअवैध तरीके से पैसा कमाने का जरिया मात्र था, जिस में राजनीतिबाज, फिल्मी स्टार, कौर्पोरेट, नौकरशाह, सट्टेबाज, नशे का धंधा करने वाले और माफिया मिल कर चांदी कूटने लगे. इन लोगों का धंधा चमक उठा. ललित मोदी कभी पी चिदंबरम का तो कभी अरुण जेटली का नाम लेते.

क्यों भागे मोदी

दरअसल, आईपीएल के टैलीविजन प्रसारण का अधिकार वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप और मल्टीस्क्रीन मीडिया को मिले थे. बीसीसीआई ने 468 करोड़ रुपए के इस घोटाले में ललित मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी. बोर्ड ने एक जांच समिति बनाई जिस में अरुण जेटली, ज्योतिरादित्य सिंधिया थे. समिति ने 134 पेज की जांच रिपोर्ट पेश की थी. इस में आर्थिक अपराध के कई गंभीर आरोप सही बताए गए थे. बाद में प्रवर्तन निदेशालय ने पाया कि यह धन या इस का बड़ा हिस्सा वास्तव में ललित मोदी को ही मिला है. लिहाजा, उन के खिलाफ मनी लौंडिं्रग का मामला दर्ज किया गया. जांच में ललित मोदी पर कोच्चि टस्कर्स का आरोप भी सही पाया गया जिस में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की हिस्सेदारी की बात सामने आई थी. मोदी ने ब्रिटेन में कहा था कि मंत्री शशि थरूर को पद से हटना पड़ा था, इसलिए यूपीए सरकार के तब के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और फिर वित्तमंत्री बने पी चिदंबरम ने उन के खिलाफ ईडी की कार्यवाही कराई.

ललित मोदी को बीसीसीआई ने आईपीएल के चेयरमैन पद से हटा दिया था और उन्हें 34 पेज का कारण बताओ नोटिस दिया गया. 4 मई, 2010 को ललित मोदी भारत से ब्रिटेन चले गए. 3 मार्च, 2011 को मुंबई में पासपोर्ट औफिस ने प्रवर्तन निदेशालय के अनुरोध पर ललित मोदी का पासपोर्ट रद्द कर दिया. मामला कोर्ट में गया. चिदंबरम ने ब्रिटिश चांसलर औफ ऐक्सचेंज को पत्र लिखा था कि अगर ब्रिटेन आर्थिक अपराधों के आरोपी ललित मोदी को बने रहने की इजाजत देता है तो इस से दोनों देशों के संबंधों पर विपरीत असर पड़ सकता है. इस पत्र ने ब्रिटेन में बैठे ललित मोदी के लिए मुसीबत पैदा कर दी लेकिन उन के मित्र रास्ता साफ करने के लिए तिकड़म लगाते रहे. ब्रिटेन में सांसद और ताकतवर हाउस कमेटी के मुखिया कीथ वाज से ललित मोदी के घनिष्ठ रिश्ते बताए जाते हैं. मोदी प्रमुख राजनीतिक व फिल्मी हस्तियों के साथ संबंध बना कर रखने में माहिर हैं. मोदी के पासपोर्ट मामले में सुषमा स्वराज की बेटी अदालत में उन की पैरवी करने लगी यज्ञ की वेदी की लपटों में कांग्रेस भी आ गई. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी और दामाद रौबर्ट वाड्रा को भी शामिल कर लिया गया. स्वयं ललित मोदी ने ट्वीट कर कहा कि उन्होंने लंदन में गांधी परिवार से मुलाकात की थी. वे प्रियंका गांधी और रौबर्ट वाड्रा से अलगअलग मिले थे. यह मुलाकात तब की बताई जब गांधी परिवार सत्ता में था.

मोदी ने कांग्रेस केकपिल सिब्बल से भी इस्तांबुल में मिलने का दावा किया. एक शादी समारोह के दौरान वे उन के साथ 3 दिन तक रहे. कांग्रेसी नेताओं से संबंधों का नतीजा माना जा रहा है कि 2011 से 2014 तक संप्रग सरकार ने मोदी को ब्रिटेन से भारत लाने के लिए कुछ नहीं किया. मोदी का दावा है कि आम आदमी पार्टी के राहुल मेहरा ने आईपीएल में फूड एवं ब्रेवरेज के राइट्स मांगे थे. राहुल मेहरा दिल्ली सरकार की लीगल टीम का चेहरा हैं. उन्होंने मोदी को ई मेल लिखने की बात मान ली है. मददगारों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एस बी सिन्हा का नाम भी है. उन्होंने मोदी को कानूनी राय दी थी. सिन्हा ने 35 पेज की राय दी, ऐसा बताया गया है. ईडी का मानना है कि मोदी ने इसी आधार पर जांच एजेंसी के सामने पेश नहीं होने का मन बनाया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की सचिव ओमिता पौल का नाम भी मामले में आया है. ओमिता दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर के के पौल की पत्नी हैं. वास्तव में ललित की लीला अपरंपार है. उन्होंने खुद भी लूटा और अपने लोगों को भी लूटने का ग्राउंड मुहैया कराया. कहा जाता है कि ललित मोदी के मुंबई में फोर सीजंस होटल में उन के दफ्तर में जानीमानी हस्तियों की लाइन लगी रहती थी. इन में नेता, फिल्मी सितारे, कौर्पोरेट जगत के नेता और अन्य प्रभावशाली लोग होते थे.

मोदी ने संबंधों का ऐसा नैटवर्क गूंथ लिया था जो एकदूसरे के हितों की नींव पर खड़ा था, जिस में एकदूसरे को संरक्षण व बढ़ावा देने, रिश्तेदारों का खयाल रखने और चापलूसों को खैरात बांटने की अपेक्षा होती थी.इस तरह ललित  मोदी ने आईपीएल के जरिए पैसा कमाने के लिए राजनीति, नौकरशाही, कौर्पोरेट, फिल्म इंडस्ट्री के लोगों के साथ मिल कर एक गठजोड़ बना लिया. यह गठजोड़ कोईर् नया नहीं है. ललित मोदी ने अपने गठजोड़ में किसी पार्टी के साथ कोई भेद नहीं किया. उन के दरबारियों में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या एनसीपी, सब लोग शामिल थे. इस मामले में कांग्रेस जो इतना शोर कर रही है, ललित मोदी के देश से भाग जाने की वह दोषी है. सांप निकल जाने के बाद ईडी द्वारा नोटिस जारी करने की लकीर पीटी जा रही है. सर्प यज्ञ में सर्प अपनेआप आ कर गिर ही नहीं रहे, उस की ऊष्मा का आनंद लेने लगे हैं. मामले में संदेश यही जा रहा है कि पक्षविपक्ष सब मिल कर केवल गाल बजा रहे हैं. वे ललित मोदी को बचाने में लगे हुए हैं.आर्थिक अपराधियों के साथ यह गठजोड़ का मामला है. दौलत पैदा करने वाले ललित मोदी जैसे लोग हर पार्टी और हर नेता के बैडरूम में हैं. वे उसे पालते हैं, शरण देते हैं, बचाव करते हैं क्योंकि उसी की बदौलत उन की तिजोरियों में दौलत खनखनाती है. राजनीति और काले धनकुबेरों के इस गठजोड़ को खत्म करना क्या किसी के वश में है? ‘टेक ऐंड गिव’ इस गठजोड़ का मूल मंत्र है.

मिलीभगत का खेल

ललितायम यज्ञ से भारतीय राजनीति की वह सड़ांध एक बार फिर सामने आ गई जो सत्ता में बैठे नेताओं और अपराधियों के बीच आपसी स्वार्थों के रूप में दबी रहती है. देश में आर्थिक अपराधों की एक लंबी कड़ी है, जिस में राजनीतिबाज, नौकरशाह, कौर्पोरेट और दलाल मिल कर कानून की आंखों में धूल झोंक कर संसाधन, धन लूटने में लगे हैं. इन लोगों को पता है कि उन का कुछ बिगड़़ना नहीं है. अगर मामला खुला भी तो सब मिल कर एकदूसरे को बचाने में लग जाते हैं. यह हमारे व्यवस्था तंत्र की बुनियादी फितरत है. यही वजह है कि  मामले के सामने आने के बाद खूब बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुंह पर ताला सा पड़ गया है. ब्रिटेन में ललित मोदी ऐशोआराम से रह रहे हैं. मशहूर हस्तियों के साथ घूमफिर रहे हैं. पार्टियों में जा रहे हैं. देश में सत्ता में बैठे लोग ही उन्हें बचाने में लगे हैं. ये बचाने वाले उन के अपने ही हैं.

३ रौबिंसन स्ट्रीट मानसिक बीमार की इंतहा

भारत के मैट्रोपौलिटन शहर कोलकाता के एक पौश इलाके 3 रौबिंसन स्ट्रीट स्थित एक फ्लैट के बैडरूम में पलंग के पास बैंच पर कंबल से ढका हुआ एक नरकंकाल. कंकाल के सिरहाने तरहतरह के अलगअलग साइज के टैडीबीयर कतार में सजे हुए. पलंग के एक ओर 2 कुत्तों के कंकाल. कमरे में पिज्जा, पास्ता, सूखे फल (मेवा नहीं), केक, पेस्ट्री और चौकलेट समेत ढेर सारी खाने की सड़ीगली चीजों का अंबार. बाथरूम में एक अधजली लाश और इन सब के बीच एक जिंदा इंसान, एकदम स्वाभाविक जीवन जीता हुआ. ऐसा लगा जैसे यह हौलीवुड फिल्म निर्माता अलफ्रेड हिचकौक की किसी फिल्म का सैट है. हिचकौक की फिल्म ‘साइको’ का रीमेक. ‘साइको’ में एक होटल के मालिक नौरमैन के हाथों उस की अपनी मां की हत्या हो जाती है. अपराधबोध के कारण वह अपनी मरी हुई मां को कब्र से निकाल कर ले आता है. 10 साल उस ने अपनी मरी मां के साथ गुजारे. इसी क्रम में मां का व्यक्तित्व कब उस ने ओढ़ लिया, पता ही नहीं चला. फिल्म की कहानी अमेरिका के एक सीरियल किलर एडवर्ड के जीवन पर आधारित थी. वह मां जैसी दिखने वाली अधेड़ उम्र की औरतों की हत्या करता और फिर उन की लाश कब्र से निकाल लाता और उन के चमड़े से स्किन सूट बनाता था. उस का मानना था कि इस तरह से एक दिन उस की मां जी उठेगी.

कोलकाता की रौबिंसन स्ट्रीट में हत्या या आत्महत्या का अभी तक सुराग नहीं मिला है. पुलिस के हवाले से बताया गया कि पार्थो डे की सोच थी कि मरने के बाद भी आत्मा घर पर या इस के आसपास होती है. बुलाने पर आती है और फिर एक दिन जी उठती है. रौबिंसन स्ट्रीट के पते का एकमात्र जिंदा इंसान पार्थो डे, कंकाल में तबदील होती गई अपनी दीदी देबजानी डे के साथ ऐसी हालत में 6 महीने से रह रहा था. कल्पनालोक में विचरण करते हुए वह हर रोज दीदी की आत्मा को बुलाता और उस के साथ खाना खाया करता. मामले का खुलासा 10 जून को तब हुआ जब पार्थो डे के घर के बाथरूम से धुआं निकलता हुआ देख सिक्योरिटी गार्ड और स्थानीय लोगों ने दमकल व पुलिस को खबर दी. पिछले 6 महीने से बतौर सिक्योरिटी गार्ड यहां तैनात तपन राय का कहना है कि कहीं कुछ गड़बड़ी है, इस का अंदाज उसे था, लेकिन क्या, इस का पता नहीं चल पाया. वैसे भी घर पर 2 ही लोग थे, लेकिन खानानाश्ता हमेशा 3 लोगों का आता था. घर के जिस हिस्से में ये लोग रहते थे वहां प्रवेश की इजाजत नहीं थी. उन के फ्लैट के बाहर पहुंचने पर एक जोर का भभका जरूर लगता था. इस बारे में सिक्योरिटी गार्ड को यह सोच कर तसल्ली हो जाती कि चूंकि घर पर कोई औरत नहीं है, इसलिए गंदगी के कारण यह गंध आती है.

10 जून की सुबह मकान के मालिक अरविंद डे ने सिक्योरिटी गार्ड को बुला कर कहा था कि आज से पार्थो जो भी करना चाहे, करने देना. जहां जाना चाहे, जाने देना. इस के बाद शाम को फिर से बुला कर अरविंद डे ने उस से 2 बोतल कोल्डडिं्रक्स लाने को कहा. कोल्डड्रिंक्स ला कर देने के बाद सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें नाश्ते के लिए पूछा कि वे क्या खाएंगे. जवाब में उन्होंने कहा कि अब इस की जरूरत नहीं होगी. पार्थो की मां की मृत्यु से पहले सबकुछ ठीकठाक था. अरविंद डे एक ब्रिटिश कंपनी में बेंगलुरु में कार्यरत थे. 1989 में रिटायर होने के बाद पूरा परिवार कोलकाता लौट आया. यहां नियमित रूप से वे एक क्लब में गोल्फ खेला करते थे. आएदिन घर में पार्टियां होती थीं. 2005 में उन की पत्नी आरती डे की कैंसर से मौत के बाद सबकुछ बदल गया. समाज से परिवार कटता चला गया. पार्थो और बहन देबजानी दोनों ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी. पार्थो अमेरिका में कार्यरत था. इंजीनियरिंग करने के बावजूद देबजानी कोलकाता के एक नामी स्कूल में म्यूजिक टीचर थी. मां के जाने के बाद दोनों ने नौकरी छोड़ दी और घर की चारदीवारी में बंद हो गए.

एडवैंचर स्थल बना

इन दिनों 3 रौबिंसन स्ट्रीट, कोलकाता का एक एडवैंचर स्थल बन गया है. इस के चारों ओर पसरे थ्रिल को लोग एंजौय कर रहे हैं. सुबह से ले कर शाम तक लोगों का तांता लगा रहता है. इस घर व इस घर के रहवासियों से जुड़ी रहस्यमयी खबर प्रकाशित होने के अगले दिन से लोगों का हुजूम लगने लगा. यहां आने वालों में तंत्रसाधक से ले कर मातापिता, बच्चों समेत सब हैं. ‘व्योमकेश बक्शी’ के शहर में वैसे भी शौकिया जासूसों की कमी नहीं है. आपस में बतियाते लोग यह कहते सुने गए – ‘हो सकता है पार्थो ने सब की हत्या की हो और खुद के पागल होने का ढोंग कर रहा हो. हो सकता है कंकाल देबजानी का नहीं, किसी और का हो.’

आगंतुक मोबाइल से फटाफट विभिन्न कोणों से तसवीरें लेते हैं. यहां तैनात पुलिस कौंस्टेबल का कहना है कि अब अंदर तो जाने नहीं दिया जा रहा है. फिर भी बाहर से घर की एक झलक देखने के लिए ही बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं. इतना ही नहीं, कुछ लोग तो परिवार समेत पूर्व कोलकाता के गोबरा स्थित पावलव मानसिक अस्पताल में भरती पार्थो डे की एक ‘लाइव’ झलक देखने को पहुंच जाते हैं. एक ने तो कहा कि मकान देख आए, सोचा पार्थो डे की भी एक झलक देख लें. गोया, छुट्टी के दिन वे चिडि़याघर आए हों. पुलिस की जांच में कई सनसनीखेज तथ्यों का खुलासा हुआ है. मसलन, घर के सदस्यों की आपसी बातचीत लगभग नहीं के बराबर थी. घर से बहुत सारी चिट्ठियां और चिट मिली हैं. इन से अनुमान लगाया गया है कि छोटीमोट बातें वे चिट के जरिए करते थे. जबकि ज्यादा व बड़ी बातें चिट्ठियों की मारफत. पिछले साल अगस्त में एक के बाद एक दोनों लैब्राडोर कुत्तों की मौत हुई थी. तब से देबजानी डिप्रैशन में चली गई और उस ने खानापीना छोड़ दिया. इस कारण पिछले साल दिसंबर में देबजानी की मौत हो गई. 6 महीने बाद इस साल मार्च में पिता को बेटी की मृत्यु का पता चल पाया.

मार्च 2015 के बाद से जून के दूसरे हफ्ते तक पिता और पुत्र 3 लाशों के साथ रह रहे थे. इस घर से पुलिस को हजारों की संख्या में बिखरी किताबें, 6 डैस्कटौप, 2 लैपटौप, ब्लू फिल्म की बहुत सारी सीडी, ढेर सारे पैनड्राइव और म्यूजिकल इंस्ट्रूमैंट मिले. पार्थो डे की लिखी बहुत सारी डायरियां भी मिली हैं. लेकिन उस की लिखावट और भाषा पुलिस के लिए एक अलग पहेली है. कहीं कोई आध्यात्मिक वाक्य है तो कहीं पारलौकिक. किसी भूतहा फिल्म की तरह घर के हरेक कमरे, यहां तक कि किचन और बाथरूम तक से एक महिला के गाने की धीमीधीमी आवाज गूंजती थी. जांच से पता चला कि 24×7 साउंड सिस्टम पर गाना बजता रहता था, जो ख्यातिप्राप्त ईसाई धर्मप्रचारक जौयसी मैयेर द्वारा गाया गया ईसाचरित है.

डायरी से चौंकाने वाले खुलासे

मामले की तह में पुलिस जितना गहरे जा रही है, मामला उतना ही उलझता जा रहा है. पुलिस को उम्मीद थी कि पार्थो की डायरी इस मामले को सुलझाने में मददगार होगी. लेकिन हो इस का उलटा रहा है. पार्थो की 2 डायरियां मिली हैं. लेकिन ये सिलसिलेवार तरीके से नहीं लिखी गई हैं. टुकड़ेटुकड़े में अलगअलग जगह, अलगअलग रंग के स्केच पैन से लिखी गई हैं, बहुत ही बेतरतीबी से. अपनी एक डायरी ‘माई स्टोरी, माई लाइफ’ में पार्थो लिखते हैं, ‘‘3 रौबिंसन स्ट्रीट कभी एक खूबसूरत बागीचा हुआ करता था. एक डायन की वजह से यह नरक में तबदील हो चुका है. मेरा परिवार बहुत ही अच्छा है. लेकिन उस डायन की वजह से यह अब किसी काम का नहीं रह गया है.’’ इसी तरह डायरी में एक अन्य जगह पार्थो डे ने एक वाक्य में लिखा है, ‘‘दीदी दिनोंदिन आकर्षक होती चली जा रही हैं.’’ एक जगह उन्होंने यह भी लिखा है, ‘‘मां मुझे यौन संबंध बनाने में अक्षम और नपुंसक समझती रही हैं. इसीलिए वे अकसर मेरे कमरे में कामवाली बाई को भेज दिया करती थीं, ताकि मैं उस के साथ यौन संबंध बना सकूं.’’

फिर एक जगह लिखा है, ‘‘मां दीदी से ईर्ष्या करती हैं. ….दीघा में एक दिन मां दीदी को बाथरूम में नंगा करती हैं….’’ इस के आगे कुछ स्पष्ट नहीं है. लेकिन इतना साफ है कि पार्थो ने दीघा की इस घटना को चोरीछिपे देखा है.

एक चिट्ठी में पार्थो लिखते हैं कि ‘‘…क्या मैं ने ऐसी जिंदगी की कामना की थी? इस तरह जीने के कोई माने नहीं हैं.’’ एक दूसरी चिट्ठी में एक अन्य लिखावट में लिखा गया है, ‘‘भगवान पर भरोसा रखो. सब ठीक हो जाएगा.’’ पुलिस का मानना है कि यह चिट्ठी हो सकता है देबजानी की हो क्योंकि वह धार्मिक और आध्यात्मिक प्रकृति की थी. डायरी में एक और जगह पार्थो ने लिखा है, ‘‘मैं अपनी दीदी को बहुत प्यार करता हूं. वह भी मुझे बहुत मानती है. मेरे बाबा मुझे बहुत प्यार करते हैं. और हम लोग अपने कुत्तों से बेइंतहा प्यार करते हैं. लेकिन इस डायन की वजह से ही अब हम लोग एक नरक में वास कर रहे हैं. इसी डायन ने मेरी मां की हत्या कर दी.’’

डायन शब्द का जिक्र पार्थो डे ने अपनी दादी के लिए किया है. दरअसल, पार्थो डे की मां आरती डे की मृत्यु स्तन कैंसर की वजह से 2005 में हुई थी और इस के ठीक 2 साल बाद यानी 2007 में उस की दादी का देहांत हुआ. लेकिन आरती देवी की मौत के बाद पूरे परिवार ने सामाजिक रूप से अपनेआप को अलगथलग कर लिया. रिश्तेदारी और आसपड़ोस से इन का मिलनाजुलना भी बंद हो गया था. कुछ समय पहले अरविंद डे का अपने भाई अरुण डे से बातचीत, मिलनाजुलना शुरू हुआ था लेकिन इस की वजह पारिवारिक संपत्ति थी. समाजशास्त्री अभिजीत मित्र का कहना है कि डायरी का जितना भी अंश प्रकाश में आया है, उस से लगता है कि भाईबहन और मांबेटे के बीच हो सकता है यौन संबंध हों. उन का यह भी कहना है कि अरविंद डे ने आग लगा कर आत्महत्या की है, इस पर भी एक शक की गुंजाइश है. हो सकता 3 रौबिंसन स्ट्रीट में जो कुछ भी घटा हो वह हत्याओं की एक सीरीज हो. और इन तमाम घटनाओं को इल्यूजन और डिसइल्यूजन के तहत मानसिक मामला ठहराए जाने की पार्थो द्वारा कोशिश की जा रही हो.

गौरतलब है कि पहले ही दिन से पार्थो मदर हाउस में कुछ ‘स्वीकार’ करने की बात कह चुका है. साथ में यह भी कहा, ‘‘मैं ने कुछ ऐसा किया है जो हो सकता है कानून की नजर में क्राइम हो, इसीलिए मुझे मदर हाउस में स्वीकार करना है.’’ समाजशास्त्री अभिजीत मित्र और पावलव मानसिक अस्पताल के डाक्टरों का मानना है कि पार्थो डे में अपराधी मानसिकता है जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा है. इन का मानना है कि वह अपने भीतर प्रेम की भावना को संभाल पाने में अक्षम है. इसीलिए एक के बाद एक हत्याओं के सिलसिले को उस ने अंजाम दिया हो. बंगला जासूसी कथा साहित्य के प्रख्यात लेखक शीर्षंदु मुखोपाध्याय को भी हत्या की साजिश नजर आ रही है. माना जा रहा है कि पिता की भी आग लगा कर हत्या की गई है. हालांकि बाथरूम में कैरोसिन तेल की एक बोतल पाई गई है और बाथरूम का दरवाजा दमकल विभाग के अधिकारियों ने तोड़ा था. फिर भी हत्या का शक जाहिर किया जा रहा है. पार्थो डे चूंकि इंजीनियर है, हो सकता है इस में उस की किसी तरह की करतूत हो. हालांकि पिता अरविंद डे का एक सुसाइड नोट मिला है, लेकिन अभी लिखावट की वैज्ञानिक जांच बाकी है. इस में उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं अपनी मरजी से मौत को गले लगा कर इस दुनिया से विदा ले रहा हूं. मेरी मौत के लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है. पार्थो, तुम अच्छे से रहना. बहुतबहुत प्यार. बाबा.’’ पार्थो अपने पिता का ‘लास्ट नोट’ देखने को बेचैन है.

बहरहाल, 3 रौबिंसन स्ट्रीट के एकमात्र जीवित बाशिंदे पार्थो डे को गिरफ्तारी के बाद पावलव मानसिक अस्पताल में रखा गया. बताया जाता है कि मानसिक तौर पर बीमारों के साथ पार्थो कतई रहने को तैयार नहीं है. एक दिन पावलव मानसिक अस्पताल के पिछले गेट, जहां मानसिक मरीज के लिए शौच व नहाने के लिए बाथरूम हैं, नहाने से पहले काफी देर चहलकदमी करने के बाद गेट के सुराख से झांक कर बाहर खड़े पत्रकारों से पार्थो डे ने कहा कि गैरकानूनी रूप से उसे यहां बंद कर के रखा गया है. साथ में यह भी कि उस के नाम बहुत सारी संपत्ति है, जिसे वह ‘मदर हाउस’ को दान करना चाहता है. पत्रकारों से बात करते हुए उस ने बताया कि दीदी (देबजानी) की मृत्यु कठिन योग साधना के दौरान हुई है. दीदी स्वभाव से बहुत ही धार्मिक प्रकृति की थीं. उन की योग साधना में वह बाधा नहीं देना चाहता था, इसीलिए उपवास के लिए उस ने कभी रोका नहीं. फिलहाल जांच जारी है. लेकिन इतना तय है कि इस वारदात में सनसनीखेज व रोंगटे खड़े कर देने वाले जासूसी उपन्यास व किसी थ्रिल फिल्म का बहुत सारा मसाला है, वास्तविक खुलासा होना अभी बाकी है.

और भी हैं मिसालें

कोलकाता का यह कोई पहला मामला नहीं है. 2014 में अलीपुरदुआर में लंबे समय से बीमार चल रही शिखा राय की मृत्यु के बाद 20 दिनों तक उन के बच्चे इसी उम्मीद में कि वे ठीक हो जाएंगी, मां को एक वैद्य की दवा पिलाते रहे. इसी तरह दिल्ली के साकेत में भी रौबिंसन स्ट्रीट जैसी घटना घट चुकी है. 2010 में साकेत में शालिनी गुप्ता नाम की एक लड़की अपनी मां की लाश के साथ कई महीनों से रह रही थी. 2008 में वियतनाम में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के देहावशेष को एक बहुत बड़ी सी गुडि़या के भीतर ठूंस कर बिस्तर पर लिटा रखा था. इसी बिस्तर पर वह हर रोज मृत पत्नी के देहावशेष के साथ सोया करता था. 2014 में न्यूयार्क के ब्रुकलिन में एक लड़की भी अपनी मृत मां के साथ 3 साल से रह रही थी. वह हर रोज मां को डाइनिंग टेबल पर भी बिठाती. खाना खिला कर बिस्तर में लिटा देती और फिर खुद भी उन के पास सो जाती थी.

ऐसा ही मामला कोलकाता के मालदा में भी सामने आया है. एक मां पर अपनी 4 वर्षीय बच्ची के माथे का मांस खाने का आरोप लगा है. पुलिस के मुताबिक, महिला का देवर जब अपनी भाभी से मिलने गया तो वह वहां के हालात देख कर सहम गया. उस की भाभी प्रमिला मंडल अपनी बेटी का मांस ब्लेड से काट कर खा रही थी. वर्ष 2007 में दिल्ली पुलिस ने पाया कि कालकाजी इलाके में 2 बहनें अपनी सब से छोटी बहन की लाश के साथ रह रही थीं. वे मानसिक रूप से विक्षिप्त थीं.

क्या है सच

रौबिंसन स्ट्रीट की घटना की जांच में पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में पार्थो डे ने बताया कि पिछले साल अगस्त महीने में अरविंद डे और उन के भाई अरुण डे के बीच लंबे समय तक मनमुटाव रहने के बाद सुलह हो गई थी. इस सुलह को पार्थो और देबजानी स्वीकार नहीं कर पाए थे. इस को ले कर 3 सदस्यीय परिवार में दो फाड़ हो गया था. पिता अपने अलग कमरे में सिमट गए और भाईबहन अलग. जांच से पता चला कि इन के बीच आपसी संवाद खत्म हो गया था. इस दौरान एक दिन देबजानी डे का एक कुत्ता टेरी मर गया. अगले कुछ दिनों के बाद दूसरा कुत्ता रिकी भी मर गया. ये कुत्ते देबजानी के लिए उस के बच्चों के समान थे. इसीलिए, वह मरे कुत्तों को अपने से अलग नहीं करना चाहती थी. लेकिन पिता अरविंद डे ने इस का विरोध किया. इस से परिवार में खाई बढ़ती चली गई. उधर, देबजानी धीरेधीरे अवसादग्रस्त होती चली गई. उस ने जोगदा मठ से दीक्षा ली हुई थी. गौरतलब है कि दक्षिणेश्वर स्थित जोगदा मठ सत्संग सोसाइटी हिंदूईसाई मत के परस्पर मिलन की बात करती है. देबजानी ने योगक्रिया के नाम पर अन्नजल का त्याग कर दिया.

अगस्त 2014 से ले कर 6 दिसंबर, 2014 तक क्रियायोग के तहत उपवास के बाद देबजानी ने बिस्तर पकड़ लिया. पार्थो ने पुलिस को बताया कि 24 दिसंबर तक उस के आवाज देने पर वह रिसपौंस दिया करती थी. लेकिन उस के बाद अगले 5 दिनों में उस में किसी तरह की हलचल जब नहीं दिखाई पड़ी, तब वह समझ गया कि उस की दीदी नहीं रहीं. पिता तक को उस ने दीदी के मरने की खबर नहीं दी. पार्थो सिक्योरिटी गार्ड से कभीकभार कुछ सूखा खाना मंगवा लिया करता था. उस ने बताया कि जनवरी 2015 में उस के पास नकद रुपए खत्म हो गए. तब वह धीरेधीरे पिता अरविंद डे से बात करने लगा. लेकिन दीदी की मौत की खबर तब भी उस ने पिता को नहीं दी. इस साल 13 मार्च को देबजानी की मौत का पता अरविंद डे को चल गया. अंतिम संस्कार न कर के लाश को घर पर रखे रहने की बात जान कर अरविंद डे और पार्थो के बीच बहुत कहासुनी हुई पर नतीजा कुछ नहीं निकला.

तहकीकात के बाद पुलिस के हाथों लगे तथ्यों से अनुमान लगाया जा रहा है कि एक तरफ मौत के बाद बेटी की लाश को घर पर रखे रहने की बेटे की जिद थी तो दूसरी तरफ ऐशोआराम के कायल, बढि़या शराब पीने के शौकीन और बातबात में पार्टी देने जैसे उन के रईसी अंदाज के कारण अरविंद की माली हालत बिगड़ती चली गई. बताया जाता है कि फरवरी में कोलकाता की एक प्रख्यात ज्वैलरी की दुकान में उन्होंने लगभग 6 लाख रुपए के जेवर बेचे थे. वे इस पारिवारिक मकान को भी किसी प्रोमोटर को बेचना चाहते थे. पर इस के लिए भाई और बेटे को नहीं मना पाए. पुलिस का अनुमान है कि इन्हीं कारणों से अवसादग्रस्त हो कर अरविंद डे ने आत्महत्या की. जहां तक पार्थो डे का सवाल है, तो अब उस का मानसिक इलाज भवानीपुर स्थित इंस्टिट्यूट औफ साइकिएट्री में चल रहा है.

अंधविश्वास के साए में

कोलकाता के रौबिंसन स्ट्रीट कांड में सिर्फ साइको फैक्टर ही नहीं, बल्कि अंधविश्वास का मकड़जाल भी पसरा दिखता है. पुलिस को घर से मिले म्यूजिक सिस्टम, सीडी, दस्तावेज, धार्मिक ग्रंथ व अन्य सामान पार्थो और उस के पूरे परिवार के अंधविश्वास में फं से होने की ओर इशारा करते हैं. मिले सुराग बताते हैं कि परिवार अंधविश्वासी था. फ्लैट के विभिन्न कमरे व ड्राइंगरूम में फै ली तथाकथित धार्मिक गुरुओं की तसवीरें और कंकाल के पास रखी गुरु की फोटो, म्यूजिक सिस्टम में बजते डरावने मंत्र, बहन व कुत्तों की आत्मा को बुला कर पार्थो डे का उन्हें खाना देना, उन से देर तक बात करना साफ जाहिर करता है कि पूरा परिवार अंधविश्वास के गहरे साए में था. खुद पार्थो डे ने अपनी डायरी में इस बात का जिक्र किया है कि उस की अपनी बहन 2013 में कुछ गुरुओं के संपर्क में आ गई और उन के कहे मुताबिक चलती थी.

संपत्ति का पेंच तो नहीं?

इस प्रकरण में हो रही जांच से इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि कहीं संपत्ति विवाद के चलते तो हत्याएं नहीं हुई हैं? ऐसा अंदाजा इसलिए भी लगाया जा रहा है क्योंकि इस पौश इलाके में डे परिवार की करोड़ों की संपत्ति को ले कर विवाद चल रहा था. पुलिस जांच में यह तथ्य भी उजागर हुए हैं कि पार्थो के पिता अरविंद डे का अपने भाई अरुण डे के साथ इस चारमंजिला मकान को ले कर विवाद चल रहा था. इतना ही नहीं, मामला अदालत तक पहुंचा था. उस वक्त अदालत ने फैसला अरविंद के हक में सुनाते हुए उन्हें मकान से मिलने वाले किराए की राशि रखने का अधिकार दिया था. पता चला है कि डे परिवार को सिर्फ  किराए व अन्य स्रोत से महीने में करीब 2 लाख रुपए मिलते थे, जबकि परिवार महीने में करीब 40 हजार रुपए ही खर्च करता था. इस के अलावा, परिवार में संपत्ति को बेचने के फैसले पर एकमत न होने की कलह होती थी.

असंवेदनशीलता की हद

कोलकाता के 3 रौबिंसन स्ट्रीट में स्थित ‘हौरर हाउस’ के मानसिक रूप से बीमार पार्थो डे में लोगों की दिलचस्पी इस कदर बढ़ रही है कि वे न केवल घर की तसवीरें और सैल्फी लेने के लिए मोबाइल फोन कैमरे के साथ वहां पहुंच रहे हैं, और सोशल मीडिया पर तसवीरों को पोस्ट कर रहे हैं बल्कि कोलकाता के मंजरी ओपेरा ग्रुप को तो इस घर से अपने नए नाटक का विषय भी मिल गया है और वह जल्द ही इस भयावह मामले को अपने प्रोडक्शन का हिस्सा बनाने जा रहा है. हैरानी की बात है पार्थो डे जिसे डाक्टरों ने भी मानसिक रूप से विक्षिप्त साबित किया है और जिन का इलाज किया जाना चाहिए वह पब्लिक डिस्प्ले का माध्यम बन गया है. यह समाज की उस सोच को दर्शाता है जिस में लोग मानवीय त्रासदी में भी कूल सैल्फी लेने का अवसर ढूंढ़ रहे हैं. एक ऐसा पुरुष जो मानसिक रूप से विक्षिप्त है, उस का तमाशा बनाया जा रहा है और ऐसा लग रहा है उस की प्राइवेसी सरेआम नीलाम हो रही है. पार्थो डे के पूर्व सहपाठी ने टैलीग्राफ  अखबार से भी कहा है कि इस में पार्थो का कोई दोष नहीं है, वह मानसिक रूप से विक्षिप्त है, पर ऐसा दर्शाया जा रहा है जैसे सारा दोष उसी का है.

शिक्षा और अंक का गणित

हर साल 12वीं कक्षा की परीक्षाओं के बाद पूरे देश के अखबार 98 से 100 प्रतिशत तक अंक लाने वाले विद्यार्थियों के फोटोग्राफों से भर जाते हैं. एक जमाना था जब 65 प्रतिशत या 70 प्रतिशत अंक मेधावी छात्रों के आते थे पर अब इतने प्रतिशत अंक लाने वाले उच्च पढ़ाई को अलविदा कहने को मजबूर हो सकते हैं. अब उन्हें मात्र पास माना जाता है, कोई भी उन्हें किसी भी कोर्स में दाखिला देने को तैयार नहीं है. मजेदार बात तो यह है कि 98 प्रतिशत अंक हासिल करने वाले को भी मनचाहे कालेज में मनचाहे कोर्स में प्रवेश नहीं मिलता क्योंकि हर स्तर पर इतने छात्र होते हैं कि गिनती 98, 99, 100 से नहीं 98.1, 98.2, 98.3 से शुरू होती है. इस में शक नहीं कि इतने अंक लाने वाले बेहद परिश्रमी व योग्य होते हैं पर क्या 80 प्रतिशत अंक लाने वाले बेवकूफ हैं? यह कैसी शिक्षा व्यवस्था है जो तय नहीं कर पा रही है कि 12वीं के अंक, जो बाद में जीवनभर एक मील का पत्थर बने रहते हैं, गले का बोझ हैं या पैडेस्टल, जिस पर चढ़ कर विजयी घोषित किया जाता है. 98-100 प्रतिशत अंक लाना कठिन है पर उस के बाद भी मुसीबतों का अंत नहीं है. दरअसल, मैडिकल व इंजीनियरिंग ही नहीं बहुत से और विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग परीक्षाएं देनी होती हैं यानी जो मेहनत की थी और जो सफलता पाई, वह आधीअधूरी ही है.

और ज्यादा अफसोस की बात यह है कि किसी भी संस्थान, कालेज, विश्वविद्यालय में चले जाएं वहां की लाइबे्ररी खाली होगी, लैक्चर कक्षाओं में बहस न के बराबर होगी. कालेज फेस्ट में धूम होगी पर वादविवाद प्रतियोगिता में बैंच खाली होंगी. इन होशियार छात्रों को न ज्यादा लिखना आता है, न पढ़ना. किताबें, लेख, कहानियां, कविताएं लिखने में कहीं दूर, ये अतिमेधावी छात्र स्क्रीन के गुलाम हैं या रट्टूपीर. स्वतंत्र सोच इन की पहुंच से बाहर है. देश के विश्वविद्यालय रैगिंग की घटनाओं को तो पैदा करते हैं पर वे राजनीतिक चेतना के केंद्र हैं, ऐसा नहीं लगता. इतने अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों के ज्ञान का स्रोत गूगल का विकीपीडिया है या मटमैले कागज पर वहीं से चोरी कर छापा गया सामान्य ज्ञान जिस में आलोचना, समालोचना, परिवर्तन की चेष्टा, क्रांति, बदलाव, गायब हैं. भारत में हौंगकौंग, ट्यूनीशिया, मिस्र, न्यूयौर्क के युवाओं के आंदोलन जैसे नहीं हुए तो सिर्फ इसलिए कि सारे भारीभरकम विशाल भवनों में बसे संस्थान शिक्षा नहीं, रट्टूपीर पैदा कर रहे हैं जो किसी तरह लाखों रुपयों के पैकेज वाली एक अच्छी नौकरी चाहते हैं. 98-100 प्रतिशत लाने वाले समाज से कट गए हैं. उन्हें अंकों की इतनी फिक्र हो गई है कि भविष्य के लिए वे न विचारों की स्वतंत्रता का खयाल कर रहे हैं न रूढि़वादी समाज को हिलाने का, उन्हें सिर्फ पैकेज की चिंता है. और सुर्खियां यही बनती हैं कि किस विदेशी कंपनी ने किस युवक को कितने का पैकेज दिया. यह शिक्षा, यह सफलता, यह खर्च, यह योग्यता सब आत्मकेंद्रित हो गए हैं. सफल युवा आत्ममुग्ध हो कर अपनी और केवल अपने को देख रहा है. उस का लक्ष्य नए समाज का निर्माण नहीं, समाज सुधार नहीं, इतिहास, विज्ञान नहीं बल्कि केवल अंक है, चाहे प्रमाणपत्र पर या चैक पर.

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