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सूक्तियां

तर्क

जो तर्क करने को तैयार न हो वह अंधविश्वासी, जो तर्क न कर सके वह मूर्ख और जिस में तर्क करने का साहस ही न हो वह गुलाम है.

रहस्य

जिस ने इतना भी जाहिर कर दिया कि उस के पास कोई भेद है, तो उस ने आधा भेद तो खोल दिया, बाकी आधा वह कब तक सुरक्षित रख पाएगा?

प्रायश्चित्त

आदमी अपने गलत काम का सब से अच्छा प्रायश्चित्त यह कर सकता है कि दूसरों को वैसा करने से आगाह कर दे.

इंद्रियां

जिस पुरुष की इंद्रियां अपने वश में नहीं वह एक ऐसा मकान है जिस की दीवारें गिर चुकी हैं.

परिश्रम

प्रतिभा किसी बड़े काम को शुरू तो कर लेती है, किंतु कठोर श्रम ही उसे पूरा करता है.

सज्जन

सज्जन वही है जो उन व्यक्तियों का भी सम्मान करता है जो उस के किसी काम नहीं आ सकते.

समय

भूत और भविष्य सब से अच्छा लगता है, वर्तमान सब से बुरा.

निन्यानवे का चक्कर

पतिपत्नी

पहले थे 63,

समय बीतने के साथ

हो गए 36,

क्योंकि सारा चक्कर

99 का था.

    – राजेंद्र श्रीवास्तव

टू फिंगर टैस्ट

सरिता ने अपने अप्रैल (द्वितीय) अंक की कवर स्टोरी ‘टू फिंगर टैस्ट, बलात्कार के बाद फिर बलात्कार’ में कहा था कि टू फिंगर टैस्ट अवैज्ञानिक व अमानवीय है और उसे बलात्कार की शिकार महिला के लिए मैडिकल बलात्कार करार दिया था. यह बात दिल्ली सरकार द्वारा हाल ही में जारी गाइडलाइंस में कही गई है. दिल्ली सरकार के सूत्रों के अनुसार दिल्ली सरकार अपने उस विवादित आदेश को वापस लेगी जिस में बलात्कार पीडि़ता के लिए टू फिंगर टैस्ट की इजाजत देने की बात कही गई थी. दिल्ली सरकार का इस बारे में कहना है कि एक अधिकारी की गलती की वजह से ऐसा आदेश जारी हुआ था, इस के लिए उस के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. दिल्ली सरकार के इस विवादित आदेश का सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा भी लंबे समय से विरोध होता रहा है. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि टू फिंगर टैस्ट पीडि़ता को उतनी ही पीड़ा पहुंचाता है जितना उस के साथ हुआ रेप. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी देते हुए यह भी कहा था कि इस से पीडि़ता का अपमान होता है और यह उस के अधिकारों का हनन भी है.

टू फिंगर टैस्ट अमानवीय व अवैज्ञानिक है क्योंकि बलात्कार जैसा दंश झेल रही पीडि़ता को जब टू फिंगर टैस्ट से गुजरना पड़ता है तो उस के जख्म नए सिरे से रिसने लगते हैं. इस टैस्ट से औरत के स्वाभिमान, उस की इज्जत को ठेस पहुंचती है. उक्त महिला हो सकता है हस्तमैथुन करती हो, एंजौयमैंट के लिए सैक्स टौयज यूज करती हो. ऐसे में टीएफटी के आधार पर किसी महिला को बदचलन करार दिया जाना सरासर गलत है और रेप के बाद टीएफटी टैस्ट दोबारा रेप करने जैसा है.

दिल्ली सरकार द्वारा जारी नए दिशानिर्देश के अनुसार :

1.            बलात्कार के हर मामले में टू फिंगर टैस्ट जरूरी नहीं होगा.

2.            पीडि़ता सहमत होगी तभी टू फिंगर टैस्ट किया जाएगा.

3.            अगर पीडि़ता नाबालिग हो तो उस के मातापिता की सहमति के बाद ही टू फिंगर टैस्ट किया जाएगा.

4.            पीडि़ता के चरित्र पर प्रश्न नहीं खड़े किए जाएंगे.

5.            टू फिंगर टैस्ट से यह नहीं समझा जाएगा कि पीडि़ता पहले भी यौन संबंध बना चुकी है. टू फिंगर टैस्ट कोई चरित्र प्रमाणपत्र नहीं होगा.

6.            टैस्ट के बहाने निजता का हनन नहीं किया जाएगा.

7.            टैस्ट के दौरान रिकौर्ड में महिला पुलिस कौंस्टेबल के हस्ताक्षर अनिवार्य होंगे.

8.            अस्पताल प्रशासन यह चैक करेगा कि डाक्टर दिशानिर्देशों का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं.

दिल्ली सरकार द्वारा बनी टीम, जिस में 2 स्त्री रोग विशेषज्ञ व एक फोरैंसिक विशेषज्ञ शामिल हैं, ने 14 पन्नों के दिशानिर्देश जारी किए हैं. ये सभी दिशानिर्देश वही हैं जो सरिता की एक्सपर्ट पैनल टीम ने दिए थे. उम्मीद जताई जा सकती है कि इस नई गाइडलाइंस से टीएफटी जैसे उस भयावह मैडिकल प्रोसैस पर रोक लगेगी जिस से पीडि़ता को यौन उत्पीड़न के बाद गुजरना पड़ता है और अन्य राज्य भी इसे अपनाएंगे.

सर्वशिक्षा अभियान

केंद्रीय सरकार से ले कर देश के सभी राज्यों की सरकारें शिक्षा में गुणवत्ता लाने के ढोल अकसर पीटती रहती हैं परंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है. जबजब नई शिक्षा नीति लागू करने की सिफारिशें आईं तो राज्य सरकारों ने उन्हें लागू किया परंतु उतने सुखद परिणाम नहीं आए जितनी उम्मीदें की गई थीं. शिक्षा का सब से ज्यादा बेड़ा गर्क किया है तो उस महत्त्वाकांक्षी प्रोजैक्ट ने जिसे ‘सर्वशिक्षा अभियान’ के नाम से जाना जाता है. दूसरे शब्दों में, यदि इसे सर्वसत्यानाश अभियान कहा जाए तो शायद आश्चर्य न होगा. हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर के सदर खंड के तहत आने वाले माकड़ी, सीहड़ा प्राथमिक पाठशालाओं में बच्चों की संख्या बहुत कम है. माकड़ी प्राइमरी स्कूल में कुल 14 छात्र पढ़ते हैं जबकि 2 शिक्षिकाओं, एक जलवाहक व एक कुक व हैल्पर के वेतन पर लगभग हर माह 88 हजार रुपए का खर्च होता है. यानी एक छात्र पर लगभग 6,285 रुपए सरकार हर माह व्यय कर रही है. सीहड़ा प्राइमरी स्कूल में कुल 24 छात्र पढ़ रहे हैं जिन पर लगभग 89 हजार रुपए शिक्षकों व स्कूल के अन्य स्टाफ पर हर माह खर्च किए जा रहे हैं. घुमारवीं शिक्षा खंड (द्वितीय) के अंतर्गत आने वाले स्कूल कल्लर में शिक्षा सत्र 2014-15 में कुल 9 छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, जिन पर सरकार 2 शिक्षकों, एक जलवाहक व दोपहर का भोजन छात्रों को मुहैया करवाने के लिए एक कुक व हैल्पर के वेतन समेत लगभग 76 हजार रुपए प्रति माह लुटा रही है. औसतन 8,500 रुपए एक बच्चे को शिक्षित करने के लिए खर्च किया जा रहा है. सरकारी स्कूलोें में शिक्षा सस्ती है परंतु शिक्षक महंगे, जबकि निजी स्कूलों में शिक्षा महंगी है और शिक्षक अर्धकुशल.

सरकारी स्कूलों में इन्फ्रास्ट्रक्चर  बढि़या है, जो यहां के निजी स्कूलों में नहीं है. सरकारी प्राथमिक स्कूलों में छात्रों को मुफ्त वर्दी, मुफ्त मिड डे मील, मुफ्त पाठ्यपुस्तकें व निशुल्क शिक्षा सहित आईआरडीपी जैसी योजनाओं से छात्रों को प्रति वर्ष 200 रुपए दिए जाते हैं. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि सरकारी स्कूलों में ट्रेंड टीचर्स होने के बावजूद छात्रों का शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है. कुछ तो राजनीतिक हस्तक्षेप, कुछ शिक्षकों की लापरवाही और सब से अधिक शिक्षा की नैया को सर्व शिक्षा अभियान ने डुबोया है. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के 99 प्रतिशत अध्यापक अपने बच्चे की शिक्षा के प्रति सजग नहीं होते हैं. जबकि निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के अभिभावक न केवल अपने बच्चों के स्कूल प्रशासन से सीधा संवाद करते हैं बल्कि वे अपने बच्चों के होमवर्क से ले कर बच्चे की अन्य गतिविधियों में उस की मदद करते हैं. शहर के निजी गलोरी स्कूल में अनिल भारद्वाज का 8 वर्षीय बेटा, आयुष तीसरी कक्षा में पढ़ता है. अनिल का कहना है कि वे प्रति वर्ष अपने बेटे की शिक्षा पर 40 हजार रुपए व्यय करते हैं. अनिल स्वयं एक सरकारी मुलाजिम हैं, जबकि उन की पत्नी एक कुशल गृहिणी हैं. दोनों ही मिल कर आयुष के होमवर्क से ले कर उस की ड्रैस व साफसफाई पर ध्यान देते हैं. अनिल भारद्वाज कहते हैं कि जब वे इतना खर्च करते हैं तो बच्चे का ध्यान भी तो रखना पड़ेगा. संदीप एक बिजनैसमैन हैं जबकि उन की धर्मपत्नी सरकारी नौकरी करती हैं. उन की बेटी आरुषि 7वीं कक्षा की छात्रा है, जो यहां चंगर सैक्टर में स्थित डीएवी स्कूल में पढ़ती है. संदीप का कहना है कि वे अपनी बेटी की ड्रैस, बस सुविधा, फीस आदि में 25 हजार रुपए व्यय करते हैं. संदीप का कहना है कि बच्ची को स्कूल से जो भी प्रोजैक्ट दिया जाता है उसे पूरा करवाने में वे और उन की पत्नी, बेटी की मदद करते हैं.

बिलासपुर डियारा सैक्टर निवासी सुमित उर्फ किट्टू मेहता का कहना है कि आज सरकारी स्कूलों की इमेज पहले जैसी नहीं है जबकि सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं के साथ अच्छे शिक्षक भी हैं. अब तो जिन के पास साधन है वे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाते हैं. नरेश गुप्ता, डियारा सैक्टर, बिलासपुर, हनुमान मंदिर के समीप रहते हैं. उन का बेटा स्वप्निल माउंट कैलेवरी प्राइवेट स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ता है, जिस की शिक्षा पर वे लगभग 21 हजार रुपए सिर्फ ड्रैस, किताबों व फीस पर खर्च करते हैं. नरेश गुप्ता नौकरीपेशा हैं और उन की पत्नी घरेलू महिला. नरेश गुप्ता का कहना है कि एक तो सरकारी स्कूलों में अकारण राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. जिस शिक्षक का तबादला हो जाता है उस स्कूल में कई महीनों तक शिक्षक का पद रिक्त रहता है. दूसरे, सरकारी स्कूलों में कागजी कार्यवाही पर ज्यादा दबाव बना रहता है. ऐसे में कौन अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना चाहेगा? बिलासपुर जिले के ही सदर खंड के तहत आने वाली पाठशाला दनोह में मात्र 16 छात्र पढ़ रहे हैं. दोपहर के भोजन का खर्च जोड़ कर लगभग 95 हजार रुपए का मासिक खर्च सरकार इस स्कूल पर वहन करती है. इतना करने के बाद भी हालत बहुत पतली है. हाल ही में ऐनुअल स्टेटस औफ एजुकेशन रिपोर्ट 2014 में यह खुलासा हुआ है कि प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के बच्चों को जमा और घटाना भी नहीं आता है. यहां तक कि संख्या को भी बच्चे पहचान नहीं पा रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार, 5 से 16 साल के बच्चों से घरों में जा कर भाग, घटाव और संख्या पहचान के सवाल पूछे गए. कक्षा 3 के 52.3 प्रतिशत बच्चे ही घटाव के सवाल कर पाए, जबकि वर्ष 2013 में यह प्रतिशत 49.9 प्रतिशत था. कक्षा 5 के 46.8 प्रतिशत बच्चे ही भाग के आसान सवाल कर पाए जो पिछले वर्ष की तुलना में कम है. वर्ष 2007 के मुकाबले गणित के स्तर में गिरावट आई है. 2007 में 5वीं के 67 प्रतिशत बच्चे आसान भाग के सवाल कर लेते थे जो अब घट कर 46.8 प्रतिशत रह गए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर तुलना करने पर मणिपुर के बाद हिमाचल का दूसरा स्थान आता है. असर 2014 ने हिमाचल प्रदेश के 12 जिलों के 339 गांवों के 3 से 16 साल के 9,808 बच्चों और 6,877 घरों में जा कर यह सर्वेक्षण किया था. इस के अलावा प्रदेश के 277 स्कूलों में जा कर वहां की आधारभूत सुविधाएं देखीं. हिमाचल प्रदेश के बहुत सारे जिले ऐसे हैं जिन में औसतन 12 या 13 बच्चे ही एक स्कूल में हैं. प्रदेश के जिला सिरमौर का जिक्र करें तो वहां पर 1,017 प्राइमरी स्कूल हैं जिन में से 307 स्कूल ऐसे हैं जिन में औसतन 12 बच्चे हैं जबकि पूरे प्रदेश में 10,484 प्राइमरी स्कूल हैं.

हिमाचल सरकार ने पहली बार प्राइमरी स्कूलों के लिए अंगरेजी मीडियम शिक्षा उपलब्ध करवा दी है. लेकिन 10,353 स्कूलों ने अंगरेजी मीडियम से पढ़ाने से हाथ खींच लिए हैं. मात्र 131 प्राइमरी स्कूल ही अंगरेजी मीडियम से पढ़ाने को तैयार हैं. अन्य स्कूलों ने अंगरेजी सिलेबस को शुरू करने पर हायतौबा मचा दी है. सरकारी स्कूलों में जब हिंदी में करवाए गए कार्य को ही छात्र नहीं कर पा रहे हैं तो अंगरेजी मीडियम में तो बच्चे कितना सीख पाएंगे, यह अंदाजा कोई भी लगा सकता है.

उद्देश्य से भटका अभियान

यह बात दीगर है कि सर्व शिक्षा अभियान से स्कूलों की काया पलटी है और उन में मूलभूत सुविधाओं का अंबार लग गया है. स्कूलों में रैंप, लाइट्स, किचन, लड़कियों के लिए शौचालय, बाउंड्रीवौल व अपंग बच्चों को होम बेस्ड एजुकेशन व छात्रों का फ्री मैडिकल चैकअप व छात्रों को आर्थिक मदद भी इसी अभियान से मिल रही है जिन को जरूरत है. परंतु इस अभियान ने शिक्षा की जड़ें बहुत खोखली कर दी हैं. शिक्षकों को उन के मूल उद्देश्य से भटका कर उन्हें कागजी कार्यवाही में उलझा कर रख दिया है. शिक्षक, शिक्षक न रह कर डाक सूचना मास्टर बन कर रह गया है जिस के चलते छात्रों का बौद्धिक स्तर गिरता जा रहा है. शिक्षक स्कूल की डाक बनाने में मस्त तो छात्र क्लास में हल्ला मचाने में मस्त व्यस्त रहते हैं. जब यह अभियान नहीं चला था तब शिक्षक अपने विषयों में तैयारी कर के कक्षा में जाते थे और वार्षिक परीक्षा से पहले पाठ्यपुस्तकों की 2 या 3 बार दोहराई हो जाती थी. तब न तो इतनी नकल होती थी, न ही नकल करवाने की नौबत आती थी. परंतु पिछले डेढ़ दशक से नकल करने व करवाने की प्रवृत्ति एक कोढ़ बन कर चंहुओर फैलती जा रही है.

स्कूलों में पहले ग्रामीण शिक्षा समिति का गठन किया गया था, फिर स्कूल प्रबंधन समितियों यानी एसएमसी. अब जिस शिक्षक को अपने अध्यापन के प्रति रुचि है वह भी एसएमसी के अध्यक्ष के समक्ष मजबूरी में शीश नवाता है. उसे उसी के अनुरूप चलना पड़ता है. शिक्षा को गर्त की ओर धकेलने में एनजीओज का भी कम हाथ नहीं है. शिक्षक अपनी क्लास का सिलेबस पूरा करवाएं या इन एनजीओज की किताबें पढ़ाएं. सर्व शिक्षा अभियान के तहत करोड़ों रुपयों की ऐसी ऊलजलूल पुस्तकों को छपवा दिया गया है जो स्टोररूमों में धूल फांक रही हैं. इस अभियान में जो नएनए प्रयोग किए जा रहे हैं उन का सकारात्मक असर कहीं नजर नहीं आता है. डाइट द्वारा हर वर्ष शिक्षकों के लिए जो कार्यशालाएं लगाई जाती हैं उन का नाममात्र ही लाभ होता है. अभी भी मौका है कि इस सर्वशिक्षा अभियान को बंद कर दिया जाए. वरना शिक्षा की हालत इतनी बदतर हो जाएगी कि बस में लगे रूटबोर्ड को भी अधिकांश छात्र नहीं पढ़ पाएंगे.

भास्कोर जैसों के लिए एल्डर केयर सर्विस

स्वर्णलता मलिक को इन दिनों अकेलापन या बोरियत महसूस नहीं होती है. न ही उन्हें फिल्म पीकू के भास्कोर (अमिताभ बच्चन) की तरह अब परिवारजनों से शिकायत रहती है कि उन लोगों के पास उन के लिए समय नहीं है. दरअसल, अपनी छोटीछोटी बातें शेयर करने और बेहतर ढंग से वक्त गुजारने के लिए उन्हें साथ मिल गया है. यह साथ उन्हें मिला है महक शर्मा के रूप में जिन्हें स्वर्ण अपना बैस्ट फ्रैंड मानती हैं. 84 वर्षीय स्वर्णलता मलिक अकसर महक के साथ फिल्म, संगीत और किताबों पर चर्चा करती हैं और औनलाइन गेम्स भी खेलती हैं. महक न तो उन की पोती हैं और न ही पड़ोस में रहने वाली कोई लड़की, बल्कि एल्डर केयर स्पैशलिस्ट यानी ईसीएस हैं जो गुड़गांव निवासी स्वर्णलता मलिक के घर उन्हें कंपनी देने जाती हैं. स्वर्ण अपने परिवार के साथ रहती हैं जिस में उन की एक टीनएज पोती भी है लेकिन उन्हें लगता है कि महक के साथ वक्त गुजारना एक अलग ही तरीके का अनुभव है.

गौर कीजिए शायद किसी महक जैसी साथी की कमी के चलते ही भास्कोर ने अपनी उम्रदराजी की भड़ास और छोटी बातों को बतंगड़ बना कर बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) की जिंदगी में तनाव भर दिया था. सारा दिन घर में खाली बैठेबैठे नौकरानी से झकझक करना, कभी बिना वजह बीपी, डायबिटीज का वहम पाल कर रिपोर्टें लेना भास्कोर जैसे बुजुर्ग तभी करते हैं जब उन्हें मनमुताबिक समय गुजारने के लिए कंपनी यानी किसी का साथ नहीं मिलता. गनीमत है स्वर्णलता मलिक भास्कोर जैसी नहीं है.

दोपहर के वक्त मैं जब उन के घर पहुंची तो देखा कि महक के साथ वे ताश खेल रही हैं. लग ही नहीं रहा था कि उन के बीच उम्र का एक बड़ा फासला है. वे कहती हैं, ‘‘मेरा परिवार एक बहुत ही व्यस्त जिंदगी जीता है और परिवार के सदस्यों के लिए हमेशा मेरे साथ उतना समय गुजारना संभव नहीं है जितना कि मैं चाहती हूं. यही नहीं, ईसीएस महक के साथ मेरी बातचीत कुछ अलग ही ढंग की होती है जो मैं अपने परिवार के लोगों के साथ नहीं कर पाती. इस के साथ मैं यात्रा, फिल्मों पर बातचीत करती हूं. जब यह मेरे साथ होती है तो सब से ज्यादा बात मैं ही करती हूं. इसी ने मुझे इंटरनैट सिखाया और फेसबुक से भी पहचान कराई.’’ आईपैड पर उंगलियां चलाती स्वर्ण ने बताया कि उन्हें बहुत खुशी है कि उन्हें इस उम्र में कंप्यूटर की दुनिया को जानने का अवसर मिला. महक जैसे केयरगिवर्स ऐसे बुजुर्गों को साथ देने के लिए और उन के साथ समय बिताने के लिए हफ्ते में कई बार कुछ घंटे उन के साथ रहते हैं. वे उन के साथ पढ़ते हैं, लिखते हैं, स्काइप पर जाते हैं, गेम्स खेलते हैं, उन्हें सैर पर ले जाते हैं, उन के बिलों का भुगतान करते हैं और उन के ट्रैवल प्लान भी बनाते हैं. पैकिंग और मैडिकल चैकअप में भी उन की मदद करते हैं. यहां तक कि उन्हें ग्रौसरी शौप, फैमिली फंक्शन और ब्यूटीपार्लर तक भी ले जाते हैं. ये ईसीएस बहुत धैर्य से बुजुर्गों की बातें सुनते हैं और मित्र की तरह व्यवहार करते हैं.

दिल की बात 

स्वर्णलता एकमात्र ऐसी बुजुर्ग नहीं हैं जो बतौर कंपनी और अपने दिल की बातें करने के लिए ऐसे ईसीएस का सहारा ले रही हैं. मैट्रो शहरों में काफी बड़ी तादाद में बुजुर्ग लोग इन लोगों की सर्विस ले रहे हैं. इस की वजह उन की गिरती सेहत नहीं है, बल्कि किसी के साथ दिल खोल कर अपनी बात कहने की चाह है. अपने अनुभवों और यादों, जिन्हें परिवार वाले सुनना पसंद नहीं करते या बेकार की बातें मानते हैं, को वे ईसीएस को खुल कर सुनाते हैं. ईपोक एल्डर केयर में महक काम करती हैं जिस के फाउंडर हैं कबीर चड्ढा. उन्हें इस की शुरुआत करने का खयाल तब आया था जब उन की दादी को घर पर उस समय मदद नहीं मिली जब उन्हें सब से ज्यादा उस की आवश्यकता थी. वे कहते हैं कि एकल परिवारों के बढ़ते चलन, बदलती जीवनशैली, तनावपूर्ण कार्यशैली और काम की वजह से बंटे हुए परिवारों के कारण अकसर बड़ी उम्र के लोगों की भावनात्मक व शारीरिक आवश्यकताओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है. काम की वजह से घर के वयस्क 12 से 14 घंटे व्यस्त रहते हैं या वे अलगअलग शहरों या देशों में रहते हैं, जिस की वजह से ये बुजुर्ग अकेले रहने को मजबूर होते हैं.

कबीर चड्ढा कहते हैं, ‘‘हम हैल्दी एजिंग के कौन्सैप्ट के प्रति समर्पित हैं और बुजुर्गों को घर पर सुविधा व साथ देते हैं. हम 3 तरह के बुजुर्गों के लिए काम करते हैं – वे जिन्हें इंटैलैक्चुअल कंपैनियनशिप और हैल्थ मौनिटरिंग की जरूरत होती है, जिन्हें अल्जाइमर और डिमैंशिया केयर की जरूरत होती है. कुछ सुविधाएं जो हम प्रदान करते हैं, उन में शामिल हैं फौल रिस्क असैस्मैंट, डाक्टर से अपौइंटमैंट लेना, मैंटल स्टीम्यूलेशन और सोशल सपोर्ट. हालांकि भारत में इस तरह की सेवाओं की अवधारणा नई है लेकिन यह बुजुर्गों में तेजी से लोकप्रिय हो रही है.’’

एल्डर केयर की जरूरत

भारत में बुजुर्ग जो 70-80 वर्ष के बीच में हैं, घर में रहना पसंद करते हैं और चूंकि उन के पास करने को कुछ नहीं होता और परिवार वाले उपयुक्त समय नहीं दे पाते, इसलिए वे अकेलेपन और तनाव का शिकार हो जाते हैं. परिवार या घर में काम करने वाली नौकरानी से उन्हें कुछ खास मदद नहीं मिल पाती और यहीं पर शुरू होती है एल्डर केयर सर्विसेज की भूमिका. कबीर कहते हैं, ‘‘जो बुजुर्ग हमारी सुविधाएं लेते हैं, एल्डर केयर स्पैशलिस्ट उन के घर जाते हैं, रोज उन्हें फोन कर उन का हालचाल पूछते हैं. हर तरह के क्लाइंट के लिए हमारे पास स्पैशलाइज्ड सर्विसेज हैं, जैसे जो क्लाइंट इंटैलैक्चुअल कंपैनियनशिप चाहते हैं उन के साथ ईसीएस आउटिंग व सामाजिक कार्यक्रमों में जाते हैं. वे उन्हें खबरें पढ़ कर सुनाते हैं, किताबें पढ़ कर सुनाते हैं. उन के साथ ताश, स्क्रैबल आदि गेम्स खेलते हैं और कंप्यूटर व फोन की विभिन्न एप्लीकेशंस से भी उन का परिचय कराते हैं. उन के स्वास्थ्य का भी हम ध्यान रखते हैं, जैसे ब्लडप्रैशर, ब्लडशुगर आदि चैक करते हैं. उन की दवा लाने में भी मदद करते हैं.’’

ईसीएस हफ्ते में 3-4 बार 1-2 घंटे के लिए विजिट करते हैं. इस दौरान वे बुजुर्गों की बातों को बहुत धैर्य से तो सुनते ही हैं, साथ ही उन्हें खानपान और दवाओं से जुड़ी सलाह भी देते हैं. देखा जाए तो वे उन की भावनात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं.

मिलता है लक्ष्य

‘वेन एट 60 सोल्यूशन’ एक और ऐसी ही एल्डर केयर कंपनी है. इस के फाउंडर और सीएमडी जोयदीप चक्रवर्ती कहते हैं कि यह वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक होम केयर समाधान है. वे कहते हैं, ‘‘हमारा मानना है कि बुजुर्ग समाज में जो योगदान देते हैं, वह अमूल्य है. फिर भी दुनिया में ये अपनों की ही अवहेलना का शिकार होते हैं. बूढ़े होना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन मानसिक तौर पर तो वे बूढ़े नहीं होते हैं. 2011 के दौरान हमारे देश में करीब 100 करोड़ बुजुर्ग थे और हमें उन के बारे में सोचना ही होगा.

‘‘वेन एट 60 सोल्यूशन में हम उन की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देते हैं ताकि उन के चेहरों पर खोई मुसकराहट लौट आए और वे भी सम्मान की जिंदगी जी सकें. हमारा लक्ष्य ही है बुजुर्गों के जीवन में सुधार करना. उन की जरूरतों के हिसाब से हम उन्हें सुविधाएं देते हैं फिर चाहे वह चिकित्स्कीय हों या कानूनी जानकारी. ‘‘हम उन के साथ तरहतरह के क्रियाकलापों में शामिल होते हैं ताकि वे एंजौय कर सकें. ये वे दिन होते हैं जब वे नई चीजें खोज सकते हैं. अपनी बीती बातों को याद करने के साथसाथ ये लोग छूट गए शौकों को भी पूरा करने को आतुर होते हैं और इस में हम उन की मदद करते हैं. जब बुजुर्गों की मानसिक व भावनात्मक जरूरत पूरी हो जाती है तो वे महसूस कर पाते हैं कि वे समाज के कितने मूल्यवान सदस्य हैं. उन को प्रोत्साहन और समय देने से उन में भी जीवन के इस पड़ाव पर भी कुछ नया करने की चाह जाग्रत होती है और हम उस चाह को जगाने में उन की मदद करते हैं. इस तरह उन्हें फिर से एक नया लक्ष्य मिल जाता है और वे असहाय या बेचारगी के भाव से बाहर निकल आते हैं.’’

केवल केयर ही नहीं, एल्डर केयर सर्विसेस इन बुजुर्गों को आशावादी रहने व तनाव में न आने में भी मदद करती है. ईसीएस न केवल इन्हें साथ देते हैं, वरन इन के शौक को वापस निखारने में भी मदद करते हैं. उन के अनुभवों को रिकौर्ड कर या तो उन्हें किताब का आकार दे दिया जाता है या फिर ब्लौग पर डाल दिया जाता है. इस से इन बुजुर्गों को खुशी तो मिलती ही है, साथ ही जिंदगी में फिर से एक लक्ष्य भी मिल जाता है. यही कारण है कि 70 वर्ष की उम्र के बाद कई बुजुर्गों ने पेंटिंग, संगीत या खाना पकाने की अपनी कला को फिर से जीवंत किया.

विशेष कार्यक्रम

ये सुविधाएं आमतौर पर प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक या समाजसेवी या जेरोनटोलौजिस्ट देते हैं. उन्हें बेसिक लाइफ सपोर्ट प्रदान करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है. एल्डर केयर मैनेजर नेहा सिंह के अनुसार, ‘‘हमारे प्रोग्राम कस्टमाइज्ड होते हैं और बुजुर्गों की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए जाते हैं. सब से पहले ईसीएस उन के साथ एक मजबूत रिश्ता कायम करता है जो होता है दोस्ती का. इस तरह वे भी उन पर विश्वास करने लगते हैं और अपने दिल की बातें बेहिचक बांट पाते हैं. अगर ये बुजुर्ग अत्यधिक पढ़ेलिखे होते हैं तो उन्हें जिस विषय में दिलचस्पी होती है, उस के बारे में हम पहले से काफी पढ़ कर जाते हैं, ताकि उन के साथ बातचीत करने में परेशानी न हो. देखा जाए तो हमें अपने उपभोक्ता या ग्राहक से मिलने से पहले पूरी तरह से होमवर्क करना होता है.’’ मिसेज दयाल को जब हम ने फोन किया तो बहुत उत्सुकता से उन्होंने बताया, ‘‘आज मैं अपनी ईसीएस के साथ पिज्जा खाने जा रही हूं और उस के बाद वह मुझे फिल्म दिखाने भी ले जाएगी. मुझे लग रहा है कि मेरे पुराने दिन फिर से लौट रहे हैं.’’ खुशी और एक उम्मीद, जो उम्र बढ़ने के कारण कहीं खो गई थी, उन की आवाज से छलक रही थी.

यह सच है कि इस तरह की एल्डर केयर कंपनियों की मदद अभी उच्च वर्ग ही ले रहा है क्योंकि ईपोक एल्डर केयर महीने के 11 हजार से ले कर 16 हजार रुपए बतौर फीस लेता है और यह भी सच है कि उस के 100 क्लाइंट्स उच्च वर्ग से हैं. लेकिन इस के बावजूद धीरेधीरे इस तरह की सुविधाओं की मांग बढ़ रही है. 90 प्रतिशत मामलों में घर के लोग ही इन से संपर्क करते हैं. या तो पति ही पत्नी की सेहत से चिंतित हो इन से संपर्क करता है या फिर बच्चे अगर विदेशों में रहते हों तो इन की मदद लेते हैं ताकि उन की मां को साथ मिल सके. इस तरह ये एल्डर केयर सर्विसेज कंपनियां बुजुर्गों को अकेलेपन से बाहर आने और फिर से जीने की आशा दे रही हैं. काश! फिल्म पीकू में दीपिका का किरदार भी अपने पिता के नाजनखरे उठाने और उन की हर गलत बात व ज्यादती को सहने के बजाय भास्कोर को एल्डर केयर सर्विसेज के हवाले कर देता तो पिता की चिड़चिड़ाहट से बचता और उस की खुद की जिंदगी में भी कैरियर, शादी जैसी अहम चीजें संतुलित रहतीं.

दो पीढि़यों के बीच बढ़ती खाई

बुजुर्ग और युवा, ये 2 पीढि़यां एक ऐसा पुल है जो नदी के 2 किनारों को जोड़ता है, प्रेम की एक डोर से. लेकिन इन दोनों के बीच पीढ़ी अंतराल एक पहाड़ बन कर खड़ा है. सवाल उठता है कि पीढ़ी अंतराल आखिर है क्या? छोटा सा जवाब है, 2 पीढि़यों के बीच जो असमानता है, जो खाई है, जो दोनों छोर को निगलने के लिए तत्पर है, वही पीढ़ी अंतराल है. युवा पीढ़ी कहती है कि मातापिता हमारी बात नहीं समझते. कहते हैं, ‘मौम यू कांट अंडरस्टैंड मी’ या फिर ‘डैड, आप नहीं समझ सकते’, ‘इट्स नौट लाइक दैट’. मातापिता कहते हैं, ‘बच्चे बड़े हो गए हैं, अब शायद हम से भी बड़े हो गए हैं’ या ‘जमाना बदल गया है, अब हमारी कौन सुनेगा’. ये तसवीरें एक चिंताजनक दृश्य उभारती हैं. 2 पीढि़यों के विचारों में यह असमानता क्या वाकई सचाई है या बनावटीपन है या फिर समस्याओं को टालने का बहाना है. गौर से देखें तो आज दोनों ही पीढि़यां बदल चुकी हैं. अब वह दौर नहीं रहा जब रिटायर होते ही लोग खुद को बेकार समझने लगते थे और लोगों से कट कर बस अपनी जिंदगी के दिन गिनते थे. आधुनिक जीवनशैली ने उन की सोच को पूरी तरह से बदल दिया है. अब वे अपनी वृद्धावस्था को भी पूरी तरह से एंजौय कर रहे हैं.

आज के बुजुर्ग अब दिमागी झंझटों से दूर हो गए हैं. वे आधुनिक जीवनशैली को अपनाना पसंद करते हैं. फेसबुक, वाट्सऐप पर चैट करते हैं और अपनी जिंदगी को जवानी का दूसरा पड़ाव मानते हैं. बुजुर्ग आज न तो उपेक्षित हैं और न आर्थिक रूप से लाचार. अब वे बच्चों की छत्रछाया में नहीं है बल्कि बच्चे खुद उन की छत्रछाया में हैं. वे किसी पर बोझ नहीं हैं. वे अपने स्वास्थ्य, मनोरंजन, अच्छा जीवनयापन, दोस्तों के साथ मौजमस्ती पर पूरा ध्यान देते हैं. उन की जिंदगी के उद्देश्य इस उम्र में भी पूरी तरह स्पष्ट हैं. यही नहीं, वे अपनी निजता बनाए रखने की भी कोशिश करते हैं. वहीं, युवा पीढ़ी यानी नई पीढ़ी विकासशील होने के साथ अधिक योग्य, समझदार, अधिक विचारशील, उन्नत विचार वाली है. उस की नई मान्यताएं हैं, नई महत्त्वाकांक्षाएं हैं.

युवा पीढ़ी की सोच

युवा परिवर्तन में यकीन रखते हैं और उसी मार्ग पर चलते भी हैं. लेकिन फिर भी जब बात उन के मातापिता की हो तो कुछ बातों को ले कर आधुनिक होते हुए भी वे मुंह बनाते हैं. बुजुर्गों की शादी की बात पर मुंह बनाना : 70 वर्षीय राजकुमार का कहना है कि जीवन के ढलते पड़ाव में जब बच्चे अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं तब अगर जीवनसाथी का साथ छूट जाए तो यह बात उन की जिंदगी को खत्म होने से पहले ही खत्म कर देती है. यह वह उम्र होती है जब अपने साथी की सब से ज्यादा जरूरत होती है. मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ. अब से 15 साल पहले मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई. कुछ साल तो मैं ने ऐसे ही बिताए लेकिन फिर अकेलापन बहुत खलने लगा. बच्चे विदेश में हैं, एक बेटा दूसरे शहर में है. मैं अपने घर में पूरे दिन अकेला रहता. खाने से ले कर हर चीज की परेशानी मुझे होती थी. वैसे तो बच्चे बहुत ध्यान रखते लेकिन जब मैं ने दबी जबान से उन से दूसरी शादी की बात कही तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. सभी ने मेरा विरोध किया और जाने क्याक्या सुनाया, यह उम्र है आप की दूसरी शादी करने की. लेकिन वे मेरे अकेलेपन को नहीं समझ पाए.

आज इस बात को इतने बरस बीत गए और मैं अकेले का अकेला ही हूं. समझ नहीं आता, ऐसा क्यों हुआ, बच्चे मौडर्न हैं, खुले विचारों के हैं लेकिन फिर भी इस बात को ले कर कितने पिछड़े हुए हैं, मुझे उन की इस सोच पर हैरानी होती है. बुजुर्गों के सार्वजनिक रूप से प्रेम दर्शाने पर बुरा लगना : 60 वर्षीय शशि अग्रवाल का कहना है कि वे अपने बच्चों के साथ पार्क में गए. वहां दोनों पतिपत्नी एकदूसरे का हाथ पकड़ कर चलने लगे. इस में एकदूसरे को सहारा देने की भावना भी थी और प्यार भी था. लेकिन यह बात हमारे शादीशुदा बच्चों को नागवार गुजरी. उन्होंने हमें ऐसा न करने की सलाह दी. तब मुझे यह समझ नहीं आया कि वही चीज वे करें हम लोगों के सामने तो ठीक है लेकिन अगर हम ने जरा हाथ पकड़ लिया तो इसे बुढ़ापे का रोमांस कह दिया गया. अगर बूढ़े हैं तो क्या हुआ, हमारे पास भी उन की तरह दिल है. अगर ये काम वे करते हैं तो कोई हर्ज नहीं और अगर हम करेंगे तो उन्हें शर्मिंदगी होगी.’’

अपनी मां को अपने फ्रैंड का दोस्त बनते देखना पसंद नहीं : युवा वैसे तो अपने मातापिता से मित्रवत होने का दावा करते हैं लेकिन जब बात उन के दोस्तों के साथ मां का मित्रवत होना हो तो उन्हें अच्छा नहीं लगता. वे कहते हैं कि आप अपनी मित्रमंडली में रहें. शायद उन्हें यह डर होता होगा कि कहीं दोस्त उन की पोल मां के सामने न खोल दें. मां को अंगरेजी नहीं आने पर शर्मिंदा होना : एक टीवी सीरियल में दिखाया गया कि किस तरह करण को अपनी मां के अंगरेजी न आने पर गुस्सा आया और वह उन्हें अपने कालेज ले जाने को भी तैयार नहीं था क्योंकि ऐसे में उसे लग रहा था कि उसे अपने दोस्तों और टीचर्स के सामने शर्मिंदा होना पड़ेगा. यही मुद्दा श्रीदेवी की फिल्म इंग्लिशविंग्लिश में भी उठाया गया था. यह हर घर की कहानी है जहां बच्चों के द्वारा मां को अंगरेजी न आने के कारण अपमानित होना पड़ता है. उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि अंगरेजी का न आना जैसे उन के लिए कितना बड़ा अभिशाप है और अगर मां सीखना चाहे तो इस उम्र में उन के सीखने को ले कर सवाल खड़े कर देते हैं. ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि उन्हें उन्होंने ही हर चीज सिखाई है जैसे बोलना, चलना, पढ़ना और भी बहुत कुछ. आज वही बच्चे मां को सिखाने के बजाय ताने मारते हैं.

बुजुर्गों की सोच

बुजुर्ग आधुनिक जीवनशैली को अपनाते हैं लेकिन जब बात घरपरिवार की हो तो उन की दकियानूसी सोच सामने आ जाती है. बहू को बेटी तो कहते हैं पर कितना मानते हैं : रजनी का कहना है कि बहू को बेटी कहना आसान है लेकिन मानना उतना ही मुश्किल. ससुराल वाले आधुनिक हैं, पढ़ेलिखे हैं. हर चीज पहननेओढ़ने की आजादी भी देते हैं लेकिन जब बात घर में हो रही छोटीछोटी बातों की हो तो वे बेटे से तो शेयर करते हैं जबकि बहू से बात छिपाई जाती है. अगर ननद के घर में कोई बात हो जाए तो वह भी बहू को नहीं बताई जाती. अगर कोई गलती हो जाए तो बेटी की गलती को नजरअंदाज कर दिया जाता है लेकिन बहू की गलती का बतंगड़ बना दिया जाता है. अगर बेटी समझते तो प्यार से बैठ कर समझाते न कि उस गलती का फायदा उस के पति यानी बेटे को बहकाने में करते. सिर्फ कहने से ही बहू, बेटी नहीं बन जाती, उसे दिल से अपनाना पड़ता है.

प्रेमविवाह के नाम पर मिर्ची लगती है : मातापिता चाहे कितने भी आधुनिक क्यों न हों, उन्हें लगता है कि बच्चे शादी उन की ही मरजी से करें. वरना उन्हें मिर्ची लगती ही है. शायद उन्हें लगता हो कि प्रेमविवाह होगा तो लड़की ने बेटे को पहले से ही पटाया होगा. बेटा उसे ही प्यार करेगा और उस की ही बात मानेगा, हमारी नहीं. इसलिए अपनी इस सोच को वे पीढ़ी का अंतर बताते हैं लेकिन सच तो यह है कि कहीं न कहीं वे डरते हैं कि कहीं अपनी मरजी से की गई शादी में बहू पर कंट्रोल नहीं रहा तो क्या होगा? घर का काम बहू ही करेगी : सास स्वस्थ है, अपनी किटी पार्टीज में पूरी तरह ऐक्टिव है लेकिन जब घर के काम की बात हो तो उन की उम्र सामने आ जाती है. वे अपनी कमरदर्द और घुटने का दर्द आदि का बहाना ले कर बैठ जाती हैं. कोई उन से पूछे कि जब वे 3-3 घंटा बैठ कर ताश खेलती हैं तब कमरदर्द कहां चला जाता है. इस के अलावा जब अपनी सहेलियों के कौल करने पर दौड़ कर पार्क में चली जाती हैं तब घुटने का दर्द कहां चला जाता है. सच तो यह है कि बीमारी तो घर के काम से बचने का बहाना है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब हमारी उम्र नहीं है काम करने की, सारा काम बहू ही करे. भले ही उन के हाथपैर ठीकठाक काम कर रहे हों.

बुजुर्ग मौडर्न हैं पर लड़के वाले ही बने रहते हैं : वैसे तो बुजुर्ग बहुत मौडर्न हैं, दोनों पीढ़ी के बीच अच्छी समझ रखते हैं, साथसाथ घूमनेफिरने जाते हैं. बेटे की शादी में खुल कर दहेज भी नहीं मांगते लेकिन शादी के दौरान मुंह बनाने में भी पीछे नहीं हटते, जैसे कि शादी में खाना ठंडा था, हमें वहां किसी ने पूछा नहीं, हमें ये नहीं दिया वह नहीं दिया, हम तो लड़के वाले हैं. बहू के मायके वाले अगर घर आएं तो वे उन की खातिरदारी में तो कमी नहीं छोड़ते लेकिन उन के जाने के बाद पीठ पीछे चुगली भी करते हैं कि बेटी के घर खाना खा लिया पहले तो पानी भी नहीं पीते थे. इस के अलावा अगर बहू मायके जाए तो चाहते हैं कि वह सब के लिए उपहार लाए, मिठाई लाए. लेकिन अगर बहू अपने भाईबहनों के लिए कुछ ले जाना चाहे तो तुरंत वे लड़के वाले बन जाते हैं कि हमारा तो लेने का बनता है देने का नहीं, क्योंकि हम लड़के वाले हैं.

दोनों पीढि़यों के बीच समानता

युवा और बुजुर्ग मांगते हैं एकदूसरे से सलाह : भारत में छोटे परिवारों का चलन भले ही बढ़ा हो लेकिन युवा पीढ़ी बुजुर्गों की दूरदर्शिता की सराहना करती है और समयसमय पर पारिवारिक मामलों में उन का मार्गदर्शन भी मांगती है. यह बात एक गैर सरकारी संगठन एजवेल फाउंडेशन के एक अध्ययन में सामने आई है. अध्ययन के दौरान 14 राज्यों के 20 से 39 साल तथा 40 से 59 साल के करीब 5 हजार व्यक्तियों से बातचीत की गई. इन 5 हजार व्यक्तियों में करीब 71.2 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि वे बुजुर्गों की दूरदर्शिता की सराहना करते हैं और समयसमय पर पारिवारिक मामलों में उन से विचारविमर्श करते हैं. बुजुर्गों की सलाह को 35.5 फीसदी उत्तरदाताओं ने महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने कहा कि वे अपने बुजुर्ग परिजनों से परामर्श लेते हैं. सर्वे के दौरान, 20 राज्यों के 150 जिलों में रह रहे करीब 15 हजार बुजुर्गों से भी बात की गई थी और उन से उन के अनुभव के बारे में राय मांगी गई. बुजुर्गों का भी कहना था कि वे कोई नई चीज खरीदने से पहले अपने बच्चों से सलाह लेते हैं क्योंकि उन्हें नई टैक्नोलौजी की ज्यादा समझ है.

इस तरह देखा जाए तो युवा भी बुजुर्गों के अनुभव का लाभ लेते हैं और बुजुर्ग युवा पीढ़ी से सलाह ले कर ही फोन, लैपटौप आदि चीजें खरीदते हैं. जब दोनों ही पीढ़ी के बीच इस तरह समानता है, दोनों ही आधुनिक हैं तो फिर सोच के अंतर को ले कर बनावटीपन क्यों है? बनावटीपन का नाटक क्यों? : रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट कमल खुराना का कहना है कि दोनों के बीच समानता तो है पर फिर भी कहीं न कहीं कुछ बातों को ले कर असमानताएं हैं और एकदूसरे के प्रति विरोध है. यहां सोच का अंतर नहीं है बल्कि अहं है, आत्मसम्मान का प्रश्न है और अन्य कई कारण हैं जिन्हें पीढ़ी अंतराल का जामा पहना दिया जाता है जबकि ऐसा होता नहीं है. सच तो यह है कि बुजुर्गों को लगता है कि हम अपनी सत्ता बना कर रखें, कहीं बहूबेटे हम से ऊपर हो कर न चलने लगें. वहीं, बहू को लगता है कि घर तो मेरा है, मैं अपने तरीके से चलाऊंगी इसलिए सोच के अंतर को ले कर बनावटीपन का एक नाटक किया जाता है ताकि दोनों ही एकदूसरे से ऊपर उठे रहें.

बड़ों को लगता है कि बच्चे को छूट दी तो वह कहीं अपनी मरजी से शादी न कर ले और अगर ऐसा हुआ तो बहू या दामाद उन की पसंद के नहीं होंगे. ऐसे में वे अपनी मरजी न चलाने लगें. जैसा कि फिल्म पीकू में भास्कोर और पीकू के किरदार के जरिए दिखाया गया. फिल्म बताती है कि कैसे एक पिता अपनी बेटी की शादी होने के न सिर्फ खिलाफ है बल्कि कई बार वह बेटी की शादी टूटने की वजह बनता है. उसे लगता है कि कहीं पीकू शादी कर के बाहर चली गई तो फिर उस के नाजनखरे कौन उठाएगा. और तो और, अपना अकेलापन दूर करने के लिए वह रातदिन नहीं देखता. कभी औफिस में फोन करता है तो कभी पार्टी में जलील भी करता है. इन सब के पीछे उस का डर यही है कि शादी कर के घर में जुड़ने वाला नया सदस्य उन की अनदेखी न करने लगे. वहीं बच्चों को लगता है कि अगर पिता की दूसरी शादी करा दी तो कहीं नई पत्नी आ कर संपत्ति में अपने और अपने पहले के बच्चों के लिए हिस्सा न मांग ले. इसलिए वे जमाने का नाम ले कर खुद इस शादी को होने से रोकते रहते हैं. यहां बात इस उम्र में शादी करने की नहीं है बल्कि संपत्ति की है.

सच तो यह है कि सोच तो बदल गई पर बहू को देखने का नजरिया नहीं बदला. आज भी वह उस घर की बहू है, इसलिए सारा काम वही करे. चाहें तो वे भी काम में मदद कर सकते हैं लेकिन उन्हें लगता है कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो कहीं यह सिर न चढ़ जाए और सारा काम हमीं पर न लाद दे, इसलिए कई बार कई जगह बुढ़ापे का नाटक किया जाता है. इसी तरह बच्चों को लगता है कि अगर हमारे दोस्त मौम के भी दोस्त बन गए तो हमारा कोई सीके्रट ही नहीं रहेगा. हर बात उन्हें पता होगी. बच्चे मातापिता के कितना भी करीब होने का नाटक करें पर कुछ बातें चाहे वे गर्लफ्रैंड के बारे में हो या कुछ और, वे चाहते हैं कि समय आने पर ही परिवार को पता चले. उसी तरह मां के अंगरेजी न आने पर उन्हें वैसे तो कोई परेशानी नहीं है, उन की पढ़ाईलिखाई में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन के लिए मां ने अच्छे से अच्छा ट्यूशन आदि लगा रखा है और पिता भी मदद करते हैं लेकिन फिर भी उन्हें बुरा लगता है क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं उन के दोस्त उन्हें पिछड़ा हुआ न कह दें. उन का कौलर मां की वजह से दोस्तों के बीच नीचा न हो जाए.

ज्यादा मूल्यवान कौन : युवा या वृद्ध

पीकू फिल्म के क्लाइमैक्स में जब भास्कोर बनर्जी साइकिल ले कर कोलकाता की सड़कों पर घूम रहा होता है तब पीकू का झल्लाना दरअसल एक द्वंद्व और भड़ास की अभिव्यक्ति थी जिस का सार यह था कि एक उद्दंड, अशिष्ट, जिद्दी और सनकी पिता अपने स्वार्थ के लिए बेटी की शादी नहीं होने दे रहा. उस के कैरियर और कारोबार में अड़ंगे डाल मनमानी करता रहता है. उसे अपनी युवा बेटी के भविष्य, इच्छाओं और सुख की चिंता तो दूर की बात है, परवा भी नहीं. इस तरह की तमाम ज्यादतियां सहन करने के बाद भी आज का युवा पीकू की तरह वृद्धों की सेवा करने की अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है. अपनी इच्छाएं, सुख और कैरियर दांव पर लगा रहा है तो यह उस की मजबूरी नहीं, बल्कि खूबी है जिस के पारिवारिक दायित्व के अलावा सामाजिक और राष्ट्रीय माने भी हैं. पीकू हर कहीं है और भास्कोर बनर्जी भी उस के साथ है. उस के फूहड़पन और स्वभाव में थोड़ाबहुत अंतर हो सकता है लेकिन पीकू के समर्पण, सेवा और संस्कारों में खास अंतर नहीं. बीते 15-20 सालों में भारतीय युवाओं ने दुनियाभर में विभिन्न क्षेत्रों, खासकर बैंकिंग व आईटी में अपनी मेहनत, लगन और प्रतिभा की धाक जमाई है. बावजूद इस सच के कि हर घर में उन पर वृद्धों की सेवा का भार दबाव की शक्ल में है यानी धैर्य भी युवाओं में है जो इस आरप को खंडित करता है कि युवा आमतौर पर बेसब्रे होते हैं.

बदलते युवा

दशक दर दशक युवा बदले हैं और अच्छी बात यह है कि उन में आ रहे बदलाव सुखद हैं. आज के युवा की पहली प्राथमकिता कैरियर है जिस के लिए वह कालेज में जिंदगी के 6-8 साल खपाता है. मौजमस्ती और रोमांस वह आज भी कर रहा है लेकिन उच्छृंखल नहीं हो रहा. उस में गंभीरता आई है, समझदारी आई है और जिम्मेदारियां निभाने का जज्बा भी आया है. ये सब बातें उसे परिपक्व बनाती हैं. मुद्दत से युवाओं ने कोई हिंसक आंदोलन नहीं किया है. 70 के दशक में युवाओं की मनमानी आम थी. संजय गांधी उस पीढ़ी के आदर्श थे जिन के बारे में औसत आमराय आज भी अच्छी नहीं. उसी दशक में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की आपातकालीन मनमानी को खत्म करने को युवाओं का आह्वान किया तो देखते ही देखते निजाम बदल गया था. अन्ना हजारे के आंदोलन की जान युवा ही थे लेकिन वे अपेक्षाकृत अनुशासित थे. अपवादों को छोड़ दें तो कहीं कोई कानून तोड़ने जैसी हिमाकत युवाओं ने नहीं की और व्यवस्था को हिला कर और बदल कर भी रख दिया. ऐसा संतुलित और लोकतांत्रिक आक्रोश पहले कभी देखने में नहीं आया. दरअसल, 40 साल में युवाओं में भारी बदलाव आए हैं और ये बदलाव हर स्तर पर आए हैं. वृद्धों और पारिवारिक उत्तरदायित्वों के मामले में ये कैसे हैं, इन्हें पीकू फिल्म से आसानी से समझा जा सकता है. पीकू का समर्पण ऊर्जा, धैर्य और इस के बाद पिता के बेहूदापन पर भड़ास इस की मिसाल है.

युवाओं का यही बदलता स्वभाव उन का मूल्य निर्धारित करता है. एक युवती, जिस की उम्र मौजमस्ती की, रोमांस की और कैरियर पर ध्यान देने की है, का पूरा ध्यान अपने जिद्दी और सनकी पिता पर रहता है. दफ्तर जा कर वह कुरसी भी ढंग से संभाल नहीं पाती कि पिता का फोन आ जाता है. वह अपना कामधाम छोड़ घर की ओर भागती है. यह अकेली पीकू नहीं कर रही, बल्कि अधिकांश युवाओं को इस परीक्षा और चुनौती से गुजरना पड़ रहा है जिन पर खरा उतरने के लिए वे दोहरी मेहनत कर रहे हैं. वे तनाव और दहशत में जीते हुए काम कर रहे हैं, इसलिए उन पर पहले की तरहकोई दोष मढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाता. अफसोस की बात यह है कि कोई उस का आभार तक प्रदर्शित नहीं करता. पीकू सहज सोचने को विवश करती है कि अहमियत आखिर किस की ज्यादा है, युवाओं की या वृद्धों की. युवाओं के अपने सपने होते हैं, उन में जोश होता है. खुद के लिए, परिवार, समाज व देश के लिए कुछ करने का जज्बा होता है. वह परेशानी में उस वक्त तबदील होता है जब घर का ही कोई बुजुर्ग भास्कोर बनर्जी का मुखौटा पहन उन का जीना मुहाल कर देता है.

और वृद्ध…

वृद्ध भी बदले हैं लेकिन बहुत गलत तरीके से बदले हैं. अगर पीकू युवाओं का प्रतिनिधित्व करती मानी जाए तो भास्कोर बनर्जी वृद्धों की अगुआई करता दिखाई देता है. भारतीय समाज में वृद्धों का सम्मान महज उम्र और अनुभव के चलते अहम माना गया है. पीढ़ी अंतराल और पीढ़ी युद्ध हर दौर में होते रहे हैं लेकिन अब वे एकतरफा समझौते में बदलते नजर आ रहे हैं. भास्कोर जैसे वृद्धों की हरकतों से किसी भी नजरिए से सहमत नहीं हुआ जा सकता जो मूलतया उन की शोषक प्रवृत्ति को ही दर्शाती है. चिंतनीय बात यह है कि आज का वृद्ध पजैसिव और एग्रैसिव होता जा रहा है. वह अपनी कमजोरियां न स्वीकार रहा है, न ही उन से कोई समझौता कर रहा है. व्यावहारिक दृष्टिकोण से वह अनुपयोगी है लेकिन फिर भी युवा उस का अपमान नहीं करते. यह घरघर की कहानी है कि बुजुर्ग जो भी करें उस से समझौता कर लो, उसे मान लो सिर्फ इसलिए कि वे वृद्ध हैं और कुछ दिनों के मेहमान हैं. किस के मूल्यों में गिरावट आई है, यह कहने की जरूरत नहीं कि पीकू पर गर्व करने और उसे शाबाशी देने की तमाम वजहें हैं लेकिन भास्कोर में ढूंढ़ने से एक भी खूबी नजर नहीं आती जो किसी मूल्य को स्थापित करती हो या उस का मूल्य बताती हो. दिक्कत तो यह है कि परंपराओं और रूढि़यों में जकड़ा भारतीय समाज यह मानने में ही अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है कि वृद्धों की गैरजरूरी दखलंदाजी पूरे समाज और देश का नुकसान कर रही है. ऐसे में परिवारों के हाल क्या होंगे, सहज समझा जा सकता है. पीपल और बरगद  की छांव की उपमा से नवाजे जाने वाले वृद्धों को कतई नए जमाने और दौर का एहसास नहीं. उन का अनुभव स्वार्थ तले दबा है. वे वाकई सिर्फ पेट की खराबी और कब्ज के इर्दगिर्द केंद्रित हैं, उन्हें आज और समाज से कोई सरोकार नहीं. दोटूक कहा जाए तो वे बेरहम साहूकार की तरह युवाओं से अपने किए यानी उन्हें पैदा करने व उन की परवरिश करने की कीमत सूद समेत वसूल रहे हैं.

अर्थशास्त्र रिश्तों का

युवा ईमानदारी से मूल और सूद दोनों चुकाते नैतिकता का भार ढो रहे हैं, इसलिए वे ज्यादा मूल्यवान हैं. उन्हें मालूम है कि वृद्ध उन के बिना वाकई जिंदा नहीं रह पाएंगे, उन्हें तो अपने सुखचैन गिरवी रख जिंदा रखना पड़ेगा और पीकू की तरह ऐसा कर वे मिसाल ही कायम कर रहे हैं. पीकू में एक उदाहरण भास्कोर बनर्जी के कोलकाता स्थित पैतृक मकान का है. पीकू व्यावहारिक है जो यह चाहती है कि अतीत से मोह न रखते उस मकान को बेच दिया जाए क्योंकि आखिरकार रहना तो दिल्ली में ही है. पर भास्कोर इस बात को नहीं समझता. शायद वह इस गलतफहमी में ही रहना चाहता है कि पीकू उस की सेवा उस मकान के लिए कर रही है, अगर इसे बेच दिया तो वह हाथ से निकल जाएगी.

परिवार और समाज की बनावट और बदलाव का यह वह दौर है जिस में ऐसी संपत्तियों की भरमार है जो पारिवारिक विवादों व फसादों को जन्म देती हैं. गांव से शहर व शहर से बडे़ शहरों और बड़े शहरों से विदेशों में बसते युवा जायदाद को तो छोड़ रहे हैं लेकिन वृद्धों को यहां फेंक कर नहीं जा रहे. दरअसल, युवाओं को अपनेआप पर भरोसा है लेकिन वृद्धों को नहीं है. उलटे, वे इसे युवाओं की खुदगर्जी और लालच समझते हैं व ज्यादा मनमानी करते नजर आ रहे हैं बावजूद यह जानने के कि उन के बाद जायदाद आखिरकार है तो संतान की ही. सौ में से एक युवा ही ऐसा मिलेगा जो पैतृक संपत्ति के भरोसे बैठा निकम्मा और निठल्ला हो रहा हो. तमाम महानगर छोटे शहरों के युवाओं से भरे पड़े हैं जहां वे प्राइवेट कंपनियों में हाड़तोड़ मेहनत कर जीवनयापन कर रहे हैं और अप्रत्यक्ष रूप से देश के निर्माण व विकास में भागीदारी निभा रहे हैं.

मतभेद के मुद्दे

बुजुर्गों और युवाओं के बीच मतभेद एक नहीं, कई मुद्दों पर हैं. बात चाहे सब्जीभाजी खरीदने की हो या नौकर की पगार से पैसा काटने की, वृद्ध उन में दखल देते ही हैं. और अब तो नौबत यहां तक आ पहुंची है कि वे संतान कीशादी ही अपने जीतेजी नहीं होने देना चाहते. मूल्य खोती इस (वृद्ध) पीढ़ी की कभी एक ही इच्छा होती थी कि बेटी के हाथ पीले हो जाएं तो चैन की सांस लूं. घर में बहू आ जाए, नातीपोते खेलने लगें तो जीवन सार्थक हो जाए. फिल्म पीकू बताती है कि यह सार्थकता निरर्थकता में बदल रही है. वृद्धों की तानाशाही एकल होते परिवारों में भी कायम है. बस, उस का तरीका बदल गया है. अब वे कब्ज के हंटर से बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर रहे हैं. भास्कोर बनर्जी की तरह चौबीसों घंटे एक ही बात पर बोल रहे हैं और उसी पर सुनना चाह रहे हैं. वह निराशाजनक कब्ज, ब्लडप्रैशर, शुगर, बवासीर या दूसरी कोई ऐसी ही बीमारी में से कुछ भी हो सकती है जिस से कि संतान अपने बारे में कुछ सोचे ही न. अघोषित शर्त यह है कि युवा अगर जिंदगी शुरू करें तो उन के मरने के बाद करें. यह कौन सी संस्कृति, धर्म या संस्कार है, इस का जवाब किसी के पास नहीं.

ऐसे बदलते हालात में दोटूक कहा जा सकता है कि युवा ज्यादा मूल्यवान हैं, उस के सामने उम्र पड़ी है जो भी निर्माण हो रहे हैं उसी से हो रहे हैं. उस में ऊर्जा है, ताकत है, स्वास्थ्य है और अहम बात एक व्यावहारिक समझ और जिम्मेदारियां निभाने का जज्बा है. उस की उपयोगिता पर कोई सवालिया निशान लगाया ही नहीं जा सकता. संवेदनहीनता हमेशा मूल्यों की गिरावट की वजह होती है और इस पैमाने पर वृद्ध पिछड़ रहे हैं. दिक्कत तो यह है कि एक वक्त के बाद उन में सोचनेसमझने लायक शक्ति और समझ नहीं रह जाती. उन्हें जो जीना था वे जी चुके लेकिन युवाओं को अपनी मरजी से न जीने देने का गुनाह तो वे ही कर रहे हैं. अशक्तता के चलते एक स्वाभाविक असुरक्षा उन में होने की बात अस्वीकार्य नहीं.

इन तमाम पीकूगीरी में गड़बड़ तब होती है जब सच जानतेसमझते लोग पंडों की तरह यह दोहराते नजर आते हैं कि नहीं, वृद्धों का सम्मान करो क्योंकि वे वृद्ध हैं. ऐसे लोगों को पीकू की वह भड़ास याद कर लेनी चाहिए जो उस ने अपने पिता पर निकाली थी. उस से असहमत होने के लिए शायद ही कोई तर्क किसी केपास हो.

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