हमारे दफ्तर में एक अधिकारी की नईनई पोस्ंटग हुई थी. पदोन्नति पा कर उन्होंने सीधे हमारे दफ्तर में जौइन किया था. उन में जोश कुछ ज्यादा था. कुरसी पर बैठते ही अपने चपरासी को फरमान सुना दिया कि मैं हर शनिवार को काली गाय को गुड़ और दाल (चने की दाल) खिला कर ही अपनी कुरसी पर बैठता हूं. मैं जब तक काली गाय को गुड़ और दाल खिला कर उस के पैर नहीं छू लेता तब तक कलम नहीं खोलता हूं. सो, तुम्हें हर शनिवार को काली गाय का इंतजाम करना पड़ेगा. काली गाय का इंतजाम करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था. वहां तो तमाम गायें ऐसे ही घूमती रहती थीं. एक शनिवार काली गाय नहीं मिली. एक ऐसी गाय मिली जो पूरी काली तो थी लेकिन कहींकहीं उस की पीठ पर सफेद छींटे थे. अधिकारी ने देखते ही कहा कि यह तो पूरी काली नहीं है. हम लोगों ने समझाया कि साहब, 95 प्रतिशत यह काली है, सफेद छींटे का कोई खास मतलब नहीं है. हम लोगों के समझाने पर अधिकारी ने गाय को गुड़ और दाल खिलाई. अब गाय के पैर छूने की बारी थी, सो आगे के पैर तो उन्होंने आसानी से छू लिए लेकिन जैसे ही पिछले पैर छूने को बढ़े, गाय ने पीछे से लात मार दी. लात अधिकारी के सिर में लगी. खून बहने लगा. उन्हें हम लोगों ने अस्पताल में भरती करा दिया. कई दिन बाद जब वे दफ्तर आए तो उन्होंने हम लोगों से कहा कि तुम लोगों ने मेरे साथ धोखा किया. हम ने पूछा, ‘‘क्या?’’ वे बोले, ‘गाय पूरी काली नहीं थी, इसलिए उस ने मुझे लात मार दी.’

एस पी सिंह, लखनऊ (उ.प्र.)

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मैं झारखंड राज्य के वैद्यनाथधाम देवघर नामक क्षेत्र में रहती हूं. यहां परंपरा है कि जब कोई मर जाएगा तब उसे मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति 12 दिनों तक लगातार सुबह की बेला में श्मशानघाट पर जाएगा और नदी में स्नान कर के एक लोटा पानी मृतक के अस्थिकलश पर अर्पित करेगा. पिछले वर्ष 19 अक्तूबर को हमारे पड़ोस में रहने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति गुजर गया जिसे मुखाग्नि उस के 18 साल के बेटे ने दी. यह लड़का शरीर से थोड़ा रुग्ण है, फिर भी लोगों ने उस के लिए भी निर्धारित नियम लागू कर दिया. किंतु इस का परिणाम भयंकर साबित हुआ. लड़के को बुखार आ गया, सांस लेने में तकलीफ हुई. उसे अस्पताल में भरती कराया गया. हैरानी यह है कि स्थानीय लोग परंपरा बदलने के लिए अब भी तैयार नहीं हैं. 

प्रेमशीला गुप्ता, देवघर (झारखंड)

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