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पाठकों की समस्याएं

मैं 16 वर्षीय 10वीं कक्षा की छात्रा हूं. कुछ दिन पहले फेसबुक पर एक लड़के, जो मुझ से 7 साल बड़ा है, की फ्रैंड रिक्वैस्ट आई जिसे मैं ने स्वीकार कर लिया. फिर हमारी मैसेंजर पर चैटिंग होने लगी. इस के बाद हम दोनों ने वाट्सऐप पर एकदूसरे से नंबर शेयर किए और वहां भी हम एकदूसरे से जुड़ गए. बातचीत के दौरान वह हमेशा मेरी खूबसूरती की तारीफ करता रहता है और आमनेसामने मिलने पर जोर देता है. मैं हर बार कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाती हूं. कुछ दिनों पहले जब उस ने मिलने के लिए ज्यादा जोर दिया तो मैं अपने एक दोस्त के साथ उस से मिलने गई. वहां हमारी बिलकुल भी बात नहीं हुई लेकिन उसी रात उस ने मुझ से फिर से मिलने के बारे में कहा तो मैं ने उसे कोई जवाब नहीं दिया. समस्या यह है कि वह मुझ से हमेशा किसी शांत जगह पर, जहां कोई मेरे साथ न हो, मिलने की बात करता है. मैं बहुत परेशान हूं, मुझे समझ नहीं आता कि उस की मंशा क्या है और इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, कृपया सलाह दें.

सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर दोस्ती करने का सिलसिला आज का नया फैशन है जहां हर उम्र के युवकयुवती एकदूसरे से मिलते हैं और क्षणिक आकर्षण के चलते इसे दोस्ती का नाम देते हैं. शुरूशुरू में बातचीत का यह सिलसिला अच्छा लगता है लेकिन यह सिलसिला कब खतरनाक अपराध का रूप इख्तियार कर ले, कोई नहीं कह सकता. जहां तक आप की समस्या की बात है वह लड़का आप से अकेले में ही मिलने पर जोर दे रहा है, इस का अर्थ है कि उस के इरादे नेक नहीं हैं. उस के दिमाग में कोई खुराफात चल रही है. आप उस से अकेले में हरगिज न मिलें. किसी को भी बिना जांचेपरखे उस से दोस्ती करना व मिलनाजुलना आप को मुसीबत में डाल सकता है. यह उम्र आप की पढ़लिख कर कैरियर पर ध्यान देने की है. सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर दोस्ती व चैटिंग का यह सिलसिला आप को मुसीबत में डाल सकता है, इसलिए जितना हो सके, इस से बचें.

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मैं 17 वर्षीय युवक हूं. समस्या यह है कि मैं क्रौस ड्रैसिंग करता हूं और जितनी भी कोशिश करूं, इस समस्या से उबर नहीं पाता हूं. मैं जानता हूं, यह सामान्य है पर लोगों की प्रतिक्रिया देख कर अच्छा नहीं लगता. मेरी मदद कीजिए.

माना यह जाता है कि जिस तरह अपोजिट सैक्स एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, ठीक उसी तरह दोनों सैक्स एकदूसरे के परिधानों के प्रति भी आकर्षित होते हैं. कभीकभी यह आकर्षण इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यक्ति अपोजिट सैक्स के परिधानों को ही अंतिम रूप से चुन लेता है. ऐसा करने वाले कुछ लोग अमूमन हार्मोनल असंतुलन के कारण लड़कियों के परिधानों की ओर आकर्षित होते हैं तो कुछ सिर्फ स्टाइलिंग या खुद को औरों से अलग दिखाने के लिए ऐसा करते हैं. दूसरे प्रकार के लोग किसी भी तरह स्त्रियोचित नहीं होते. इन के साथ कोई हार्मोनल समस्या नहीं होती. वे ऐसा सिर्फ अपोजिट सैक्स के प्रति आकर्षण के कारण ही करते हैं. जबकि कुछ लोगों में जैंडर डिस्फोरिया की समस्या होती है यानी स्त्री देह में पुरुष मन या पुरुष देह में स्त्री मन. यह जैविक, प्राकृतिक त्रुटि के अलावा हार्मोनल बदलाव का नतीजा होता है. आप किस कारण क्रौसड्रैसिंग करते हैं, इस का निर्धारण एक मनोचिकित्सक और सैक्सोलौजिस्ट ही बता सकता है. आप लोगों की प्रतिक्रिया पर ध्यान न दें और शीघ्र किसी मनोचिकित्सक या सैक्सोलौजिस्ट से संपर्क करें.

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मेरा 26 वर्षीय पुत्र मिरगी रोग से पीडि़त है. कुछ दिनों पहले उस का विवाह हुआ है और उस की पत्नी भी मिरगी रोग से पीडि़त है. मैं यह जानना चाहता हूं कि भविष्य में मेरे बेटेबहू की जो संतान होगी, क्या वह भी मिरगी रोग से पीडि़त होगी? अगर हां, तो क्या इस से बचने का उपाय है? उचित सलाह दें.

अगर मातापिता दोनों ऐपिलेप्सी यानी मिरगी रोग से पीडि़त हों तो बच्चे में इस के होने की संभावना होती है लेकिन यह जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही. अगर मातापिता में इस रोग का कारण जन्मजात हो तो इस की संभावना अधिक होती है जबकि यदि उन में रोग का कारण एक्वायर्ड या स्ट्रक्चरल हो तो यह संभावना कम होती है. ऐपिलेप्सी रोग से पीडि़त दंपती जब भी मातापिता बनने का निर्णय लें, ध्यान रखें कि वे समयसमय पर डाक्टर से संपर्क करते रहें और अपनी दवाएं नियमित रूप से लें क्योंकि गर्भावस्था में मिरगी के दौरे पड़ने की संभावना अधिक हो जाती है और इस का दुष्प्रभाव होने वाले बच्चे पर हो सकता है.

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मैं 45 वर्षीय महिला हूं. पति के साथ सैक्स संबंध सामान्य हैं लेकिन मेरी समस्या यह है कि सैक्स करते समय वैजाइना ड्राई रहती है जिस से मैं सैक्स संबंधों को पूरी तरह एंजौय नहीं कर पाती. मूड स्ंिवग होता है, कभी चिड़चिड़ापन तो कभी रोने का मन करता है. कहीं ये मेनोपोज या प्रीमेनोपोज के लक्षण तो नहीं? मैं बहुत परेशान रहती हूं, क्या करूं?

आप की बातों से लग रहा है कि आप प्रीमेनोपोजल स्टेज में हैं जहां ये लक्षण सामान्य हैं. प्रीमेनोपोज में इन लक्षणों से उबरने के लिए आप किसी गाइनीकोलौजिस्ट से मिलें, अपनी वर्तमान अवस्था को ले कर मन में किसी प्रकार का अपराधभाव न पालें.

नंदिनी ने साबित किया सफलता में अभाव रोड़ा नहीं

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पौश इलाके शिवाजी नगर की झुग्गीझोंपड़ी वाला महल्ला है अर्जुननगर, जिस में दाखिल होते ही एहसास होता है कि जिंदगी सभी के लिए आसान नहीं होती. अर्जुननगर में सैकड़ों अधकच्चे मकान बेतरतीब से बने हैं, गलियां इतनी तंग हैं कि 2 साइकिल सवार एकसाथ न गुजर पाएं. यह इलाका बुनियादी सहूलियतों व जरूरतों से इतना वंचित है कि लोगों को शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है. यहां के अधिकांश लोग पेशे से मजदूर और रोज कमानेखाने वाले हैं, जिन के पास कल के भोजन की किसी तरह की कोई गारंटी नहीं होती. ऐसे ही एक छोटे से मकान में रहती  है 16 वर्षीय नंदिनी चौहान, जिस के पिता रामाचल मजदूरी करते हैं और दिनभर मेहनत करने के बाद औसतन 300 रुपए कमाते हैं. 3 सदस्यों वाले परिवार का इतने कम पैसे में कितनी मुश्किल से गुजारा होता होगा, इस का अंदाजा हर कोई लगा सकता है. झुग्गियों से गुजरते नाकभौं सिकोड़ने वाले लोग बीती 14 मई को हैरान रह गए जब उन्होंने अखबारों में यह खबर पढ़ी कि अर्जुननगर की 10वीं की एक छात्रा नंदिनी मैरिट में चौथे नंबर पर आई है. मैरिट में आए छात्रों को इस दिन मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल ने एक समारोह में सम्मानित किया तब नंदिनी अपने नानानानी के घर गोरखपुर गई हुई थी. लिहाजा, यह सम्मान उस के पिता रामाचल चौहान को दिया गया.

रामाचल को जब शिक्षा मंत्री पारस जैन ने मैडल पहनाते हुए बधाई दी तो वे सकुचा उठे. वजह, इतने तामझाम वाले किसी समारोह में पहले कभी वे शामिल नहीं हुए थे. फिर यहां तो मंच पर बुला कर उन्हें मैडल पहनाया जा रहा था. जान कर हैरानी होती है कि रामाचल को नहीं मालूम कि मैरिट और टौप टैन क्या होते हैं पर उन्हें यह एहसास जरूर था कि उन की बेटी ने नाम ऊंचा करने वाला कोई कारनामा कर दिखाया है. इधर, जैसे ही नंदिनी के मैरिट में आने की खबर अर्जुननगर में आम हुई तो झुग्गीझोंपड़ी वाले भी झूम उठे और उन्होंने अपने स्तर पर जश्न मनाया. चारों तरफ नंदिनी की उपलब्धि की चर्चा थी.

शिवाजी नगर के सरस्वती शिशु मंदिर की छात्रा नंदिनी ने बोर्ड की कठिन प्रतिस्पर्धा वाली 10वीं की परीक्षा में 97 फीसदी अंक हासिल किए हैं. उसे सभी विषयों में विशेष योग्यता मिली है. गणित में तो उस के नंबर सौ फीसदी हैं. जब यह संवाददाता नंदिनी से मिलने अर्जुननगर पहुंचा तो नंदिनी के घर का रास्ता दिखाने वालों ने उत्साहित होते हुए बताया कि आजकल कई नेता, मंत्री और अफसर नंदिनी को बधाई देने आ रहे हैं, उस ने तो पूरी बस्ती का नाम रोशन कर दिया है. नंदिनी ने पूरे आत्मविश्वास से बातचीत में बताया, ‘‘मैं ने ठान लिया था कि 10वीं की मैरिट लिस्ट में आना है और इस के लिए मैं ने वक्त रहते तैयारी शुरू कर दी थी.’ नंदिनी के एक कमरे के घर या घर के एक कमरे में ही ड्राइंगरूम, किचन, बैडरूम और स्टडीरूम हैं. इस बाबत उसे कोई संकोच नहीं होता यानी वह व्यावहारिक भी है और समझदार भी. बातचीत में नंदिनी ने बताया कि उस ने बचपन से ही अभाव देखे हैं. पापा कैसे मेहनत कर पैसा कमाते हैं, इस का एहसास उसे है लेकिन कभी कोई शिकायत उसे जिंदगी या जमाने से नहीं रही, बल्कि यह समझ आया कि अगर जिंदगी में कुछ हासिल करना है तो बजाय हालात को रोनेझींकने के, उन्हें सुधार कर अपने मनमाफिक बनाना जरूरी है और यह रास्ता पढ़ाई से हो कर जाता है.

लिहाजा, वह पूरी लगन से पढ़ाई में जुट गई. जो लोग अपना लक्ष्य तय कर लेते हैं उन की मुश्किलें भी दूर होने लगती हैं. यही नंदिनी के साथ हुआ. उस की लगन देख स्कूल के शिक्षकों ने उस पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया. रहीसही कसर उस के ट्यूटर सतीश राय ने पूरी कर दी. नंदिनी ने बताया, ‘‘सतीश सर ने हालात देखते मुझे सिर्फ निशुल्क कोचिंग ही नहीं दी, बल्कि समयसमय पर मुझे निर्देशन भी दिया और दूसरी किताबें ला कर भी दीं. इस से ज्यादा अहम काम उन्होंने यह किया कि वे हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते रहे जिस से मैरिट में आने की मेरी उम्मीद कायम रही.’’ क्या अभाव कभी आड़े नहीं आए, इस सवाल पर नंदिनी ने बेहद समझदारी भरा और दार्शनिकों का सा जवाब दिया, ‘‘नहीं, अभाव कभी आड़े नहीं आए. पढ़ाई के लिए जरूरी यह है कि समय का सदुपयोग किया जाए, जिस की कोई कमी नहीं. यह ठीक है कि दूसरे छात्रों की तरह मेरे पास सहूलियतें व साधन नहीं, लेकिन मेरी मेहनत व लगन देख स्कूल वालों ने भी पूरी मदद की और पापा भी मुझे हिम्मत बंधाते रहे कि तू किसी तरह की फिक्र मत कर, बस, अपनी पढ़ाई करती रह.’’

माहौल पर भारी हौसले

नंदिनी आगे बताती है, ‘‘मैं ने सभी विषयों पर फोकस किया और जो सवाल या अध्याय समझ नहीं आया, उसे बारबार पढ़ा, समझा और अध्यापकों से चर्चा की. लेकिन किसी कठिनाई से जी नहीं चुराया, न यह सोचा कि अगर समझ नहीं आ रहा तो इस को छोड़ दिया जाए.’’ नंदिनी के हौसले बुलंद और इरादे मजबूत हैं. वह आईएएस अधिकारी बनना चाहती है और पूरे आत्मविश्वास से कहती है कि उसे पता है यह आसान काम नहीं है, इसलिए वह जरूर इसे कर डालेगी. 12वीं के बाद गणित से बीएससी करूंगी, फिर आईएएस की तैयारी करूंगी. वह बताती है, ‘‘मैरिट में आने पर जिस तरह लोगों ने मेरी हिम्मत बढ़ाई है, तारीफ की है, उसे मैं कायम रखूंगी.’’ नंदिनी स्वीकारती है कि झुग्गीझोंपडि़यों में पढ़ाई का माहौल न के बराबर होता है. यहां के बच्चे सुविधाओं, सही निर्देशन और पैसों के अभाव में पढ़ाई छोड़ देते हैं. लेकिन मेरे मैरिट में आने से तबदीली यह आई है कि अर्जुननगर के सभी बच्चे कहने लगे हैं कि हम भी नंदिनी की तरह मेहनत कर पढ़ाई करेंगे. इस बदलते माहौल पर जरूर मुझे गर्व है. बात अकेले अर्जुननगर की या भोपाल की नहीं, बल्कि देशभर की है कि गरीब बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, वे सपने तो बड़ेबड़े देखते हैं पर उन्हें पूरा नहीं कर पाते.

नंदिनी की मां इंद्रावती चौहान आगंतुकों के आने पर तख्त पर नहीं, जमीन पर बैठती हैं. उन्हें अपनी इकलौती बेटी पर नाज है. पर यह चिंता भी है कि ऊंची कक्षाओं की महंगी पढ़ाई का खर्च वे कैसे उठाएंगी. यही चिंता नंदिनी के पिता रामाचल चौहान की भी है. इस छोटी सी होनहार लड़की से सीखने के लिए काफी कुछ बातें हैं. वह देशदुनिया पर भी नजर रखती है, सामान्य ज्ञान बढ़ाने को पत्रपत्रिकाएं पढ़ती है. वह स्कूल की सांस्कृतिक और खेलकूद की गतिविधियों में भी बराबरी से हिस्सा लेती है. लाख टके की बात यह है कि उसे अपने घर की आर्थिक स्थिति का एहसास है, जिसे कुछ बन कर, दूर करने की उस ने ठान ली है. ऐसे में कोई वजह समझ नहीं आती कि उस के रास्ते में कोई रुकावट पेश आएगी. इस साल बोर्ड और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं में कई ऐसे छात्रों ने कामयाबी हासिल की है जो अभावों से जूझ रहे थे, जिन के पास नंदिनी की तरह स्मार्ट फोन, कंप्यूटर, इंटरनैट और ढेर सारी किताबें नहीं थे लेकिन उन्होंने मैरिट में जगह बनाई तो सहज लगा, उपलब्धियों पर लगनशील और मेहनत करने वालों का अधिकार ज्यादा होता है.

विज्ञान कोना

जैनेरिक दवा की जरूरत

जैनेरिक दवाओं ने दुनियाभर में लोगों के लिए सस्ती दवाओं को सुलभ बनाने में अहम भूमिका निभाई है. कारण यह है कि ब्रैंडेड दवाएं काफी महंगी मिलती हैं. जैनेरिक दवा में वही तत्त्व होते हैं जो ब्रैंडेड दवा में होते हैं. भारत में भी जो दवा मानकों पर खरी नहीं उतरतीं उसे बेचने की मंजूरी नहीं मिलती है. ब्रैंडेड और जैनेरिक दवाओं की कीमतों में अंतर गुणवत्ता से नहीं, बल्कि सिर्फ मार्केटिंग की वजह से होता है. ब्रैंडेड दवाओं के विज्ञापन और पेटैंट के चलते वे महंगी बिकती हैं. जबकि जैनेरिक दवाओं को बिना विज्ञापन के सीधे बेचने वाले को ज्यादा फायदा मिलता है, इसलिए वे सस्ती होती हैं. ब्रैंडेड दवाओं को डाक्टर परचे पर लिखते हैं जबकि जैनेरिक दवाएं मैडिकल स्टोर वाले बेचते हैं. सस्ती होने की वजह से सरकारी अस्पतालों में भी जैनेरिक दवाओं के और्डर दिए जाते हैं. ब्रैंडेड जैनेरिक दवाओं के फायदे में एक और बात आती है कि मरीजों को जानकारी न होने की वजह से भी वे डाक्टरों के कहने पर उन्हें ही लेते हैं. भारत में कई समितियां सिफारिश कर चुकी हैं कि धीरेधीरे जैनेरिक दवाओं को ब्रैंडविहीन कर देना चाहिए. हाल यह है कि भारत में 41 फीसदी बाजार 10 कंपनियों के हाथ में है और 100 कंपनियां मिल कर 95 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमाए बैठी हैं. दवा के नुसखों का भी ऐसा ही हाल है. आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले 2,583 में से 86 फीसदी यानी 2,230 नुसखे कुछ ही हाथों में हैं.

बहरहाल, अच्छी बात यह है कि हाल ही में इंडियन मैडिकल एसोसिएशन ने नई दिल्ली के आईपी एस्टेट में स्थित आईएमए मुख्यालय परिसर में जन औषधि मैडिकल स्टोर खोला है. इस स्टोर में आमतौर पर प्रयोग की जाने वाली 118 दवाएं अपने जैनेरिक फौर्म में बाजार दरों के मुकाबले 80 से 90 प्रतिशत कम कीमत पर मुहैया होंगी. इस स्टोर पर उपलब्ध सभी दवाएं भारत सरकार के जन औषधि विभाग से प्रमाणित होंगी और जिन की गुणवत्ता भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की ईकाई ब्यूरो औफ फार्मा द्वारा सत्यापित होगी.

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मिथक विज्ञान और समाज

पीएम नरेंद्र मोदी के भारत के मिथकों और पौराणिक चरित्रों को भारत की पुरानी ज्ञानविज्ञान की उपलब्धियों से जोड़ने पर फिर से बहस हो रही है कि आज के वैज्ञानिक चमत्कार आज से 5 हजार साल पहले अस्तित्व में थे या नहीं. भारत की दंतकथाओं में शामिल चरित्रों के साथ होने वाले चमत्कार को लोग प्राचीन विज्ञान का नमूना कहते हैं, जिस में हवा में उड़ते रथ, 10 सिर, घातक अस्त्र, मानव के शरीर पर हाथी का शरीर, मछली मानव, सिंह मानव शामिल हैं. ऐसी दंतकथाएं हर समाज में मौजूद हैं लेकिन इन को विज्ञान से जोड़ने का काम हर जगह नहीं होता. बेशक, कल्पनाएं वैज्ञानिक आविष्कारों के लिए एक जबरदस्त सृजनात्मक ताकत रही हैं और अगर हम अंगरेजी साइफाइ साहित्य को पढ़ें तो अंतरिक्ष की सैर के युग में पहुंच जाते हैं. हालांकि इन के अंतरिक्ष बिलकुल अलग होते हैं. रोबोट और कंप्यूटर भी असल जिंदगी से पहले किताबोंकहानियों में ही आए. कभीकभार ऐसी कल्पनाएं भविष्यदृष्टा शामिल हुई हैं. लेकिन हमारे सामने सवाल यह है कि भारत में जो दावा किया जा रहा है कि हम इसे अतीत से जोड़ें या भविष्य से? मिस्र, भारत, यूनान, चीन के मिथक रचयिताओं ने ऐसे कई पारलौकिक किरदार गढ़े हैं. समझदारी यह होगी कि इसे इतिहास और विज्ञान से न जोड़ा जाए. दंतकथाएं मिथक होती हैं जबकि इतिहास वास्तव में हुई घटनाओं का लेखाजोखा और विज्ञान उसी का एक हिस्सा होता है. इन की जगह पर माइथोलौजी को रखना गलत है.

आविष्कार कई चरणों और परीक्षणों से हो कर गुजरते हैं. तभी वायुयान जैसे नतीजे सामने आते हैं. किसी भी मिथक के चमत्कार में इन परीक्षणों का कोई परिणाम नहीं है. यह कहना किवैज्ञानिक आविष्कार तब भी थे जब उन के लिए न तो जरूरी ज्ञान का आधार तैयार था, न ही ऐसा ज्ञान मौजूद था, विज्ञान के साथ खिलवाड़ है. मिथक और धर्म आसानी से घुलमिल जाते हैं और जब राजनीति और धर्म मिल जाते हैं तो यह कौकटेल काफी खतरनाक होता है.

जाति पूछ कर पानी पिलाने का खत्म होता दौर

व्यापार, मुनाफा और स्वार्थ के इस दौर में अनेक ऐसे लोग हैं जो समाजसेवा की सनक में भी अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं. मुफ्त दवा, किताबें, कापियां वितरण, अपंगों के लिए व्हीकल जैसी वस्तुएं समाजसेवा के नाम पर जरूरतमंदों को दी जाती हैं. यह एक सामाजिक सेवा का कार्य माना गया है. आजकल भीषण गरमी में एक ऐसा ही कार्य जलसेवा का है. आगरा, मथुरा, वृंदावन, नाथद्वारा, उदयपुर जैसे कई शहरों, कसबों में रेलवे स्टेशनों, बाजारों, बस स्टैंडों पर ‘जलसेवा’ नाम से ठंडे पानी के प्याऊ संचालित किए जा रहे हैं. यह एक शख्स बांकेलाल माहेश्वरी के समाजसेवा के जनून का नतीजा है. श्रीनाथजी जलसेवा नाम से कई शहरों में जलसेवा प्याऊ चलाए जाते हैं. आगरा में जगहजगह पर जलसेवा प्याऊ लगाए गए हैं. आज बोतलबंद पानी के युग में आम लोग ठंडा व स्वच्छ पानी पीने से वंचित हैं. टे्रन जब किसी स्टेशन पर आ कर ठहरती है तो प्यास से बेहाल यात्री इधरउधर पानी की तलाश करते देखे जा सकते हैं. ऐसे में प्यासे के पास कोई मुफ्त में ठंडा पानी लिए आ जाए तो मन खुश हो जाता है. आगरा में 100 से अधिक चलअचल प्याऊ संचालित किए जा रहे हैं. इन प्याउओं के जरिए बड़ी उम्र के 100 से अधिक स्त्री व पुरुषों को रोजगार मिला हुआ है.

निशुल्क जलसेवा

करीब 32 सालों से जलसेवा में लगे बांकेलाल माहेश्वरी कहते हैं कि भारत की पहचान रही है कि यहां पानी का कोई मूल्य नहीं होता. इसी परंपरा को वे जीवंत रखना चाहते हैं और निशुल्क जलसेवा करते हैं. यह काम निस्वार्थ, निशुल्क मानवता की सेवाभावना के लिए किया जाता है. एक बार वे नाथद्वारा गए थे तो एक स्टेशन पर देखा कि कुछ लोग बड़ी लगन व तत्परता से मुसाफिरों को शीतल जल व चाय पिला रहे हैं. यह देख कर उन्हें बहुत अच्छा लगा और उन लोगों की सेवाभावना ने उन्हें झकझोर दिया. लगभग उन्हीं दिनों 1986 में आगरा के राजामंडी स्टेशन पर रेल दुर्घटना हुई. उन का घर उस समय स्टेशन के नजदीक ही था. दुर्घटना की खबर सुन कर वे व अन्य लोग पानी की बाल्टी व मग ले कर दौड़ पड़े. कराहते हुए यात्रियों की जलसेवा की. उन्होंने पीडि़त यात्रियों की प्यास की परेशानी को देखा, उसी समय जलसेवा करने की भावना उन के भीतर जागी. तभी उन्होंने भविष्य के लिए संकल्प लिया कि वे रेलवे स्टेशनों पर लगातार जलसेवा व्यवस्था को शुरू करेंगे.

माहेश्वरी बताते हैं, ‘‘उस दुर्घटना के कुछ समय बाद ही मैं ने राजामंडी स्टेशन पर प्याऊ स्थापित किया और प्रण किया कि आजीवन जलसेवा करूंगा. प्रारंभ में जलसेवा का कार्य छोटे स्तर पर किया गया.  राजामंडी के अलावा आगरा फोर्ट, ईदगाह स्टेशन और बाद में धीरेधीरे दूसरे शहरों में भी प्याऊ शुरू किए गए. लोगों का सहयोग और प्रोत्साहन मिला और मेन हौस्पिटल, बस स्टैंड, भीड़ भरे बाजार, चौराहे, बाजार के मुख्य मार्गों पर जलसेवा शुरू हो गई.’’ प्याऊ में केवड़ायुक्त ठंडा पानी आम जनमानस के लिए उपलब्ध रहता है. इस सेवा की वजह से उन्हें ‘जल पुरुष’ कहा जाने लगा. अनेक संस्थाओं से सम्मानित माहेश्वरी सर्दी में रैनबसेरा, निशुल्क दवाखाने की व्यवस्था, असहाय लोगों को रोजगार और लावारिस शवों को श्मशान तक पहुंचाने का जिम्मा भी लगन से उठाते हैं. माहेश्वरी कहते हैं कि श्रीनाथ जलसेवा हर नीची, ऊंची जाति वालों के लिए है. रिकशे वाले, साइकिल वाले, पैदल आनेजाने वाले, मजदूर और अन्य राहगीर यहां होते हैं. अमीरगरीब सब यहां पानी पीते हैं. जलसेवा हर जरूरतमंद व्यक्ति के लिए है. इस के लिए जाति नहीं पूछी जाती. वे कहते हैं कि रैनबसेरों में रहने के लिए आने वालों की भी वे जाति नहीं पूछते. हर मानव एक बराबर है.

एक जमाना था जब कसबों, शहरों में जगहजगह पानी के प्याऊ होते थे. कुछ प्याऊ बारहों महीने चलते थे, कुछ केवल गरमी में. इन प्याउओं पर बैठे पानी पिलाने वाले पीने वाले से उस की जाति जरूर पूछते थे. जाति पूछ कर व्यवहार करते थे. ब्राह्मणों को पानी का लोटा पकड़ा दिया जाता था, निचली जाति वाले को ऊपर से इस तरह पानी पिलाते थे कि उस के कपड़े तक भीग जाते थे. कहींकहीं निचली जाति के लोगों को इन प्याउओं पर पानी पिलाने से इनकार भी कर दिया जाता था.

एक व्यावहारिक सोच

असल में प्याऊ की शुरुआत ही ब्राह्मणों को पानी पिलाने के लिए की गई थी. लंबी दूरी तय कर पैदल आने वाले ब्राह्मण को प्यास लगती थी, इसलिए उस ने अपने लिए प्याऊ के रूप में ठंडे पानी का इंतजाम करा लिया. इसे पुण्य से जोड़ दिया गया कि जो प्यासे मेहमान को पानी से तृप्त करेगा उसे पुण्य प्राप्त होगा. आजादी से पहले और 60-70 के दशक तक प्याउओं पर जाति व्यवस्था पूरी तरह हावी रही. सरकार ने यह छुआछूत खत्म करने के लिए रेलवे स्टेशनों पर अपने प्याउओं पर जानबूझ कर दलितों को नियुक्त किया. अनेक लोग तो स्टेशनों पर बने प्याऊ पर पानी पीते ही नहीं थे. अब समय बदला है. जातिपांति का भेद खत्म हो रहा है. पानी पीने और पिलाने वाला दोनों अब एकदूसरे की जात की तहकीकात नहीं करते. पानी का प्याऊ ही नहीं, माहेश्वरी सर्दियों में रैनबसेरे भी चलाते हैं जिन में कंबल, आग और खाने की व्यवस्था भी होती है. यह सभी लोगों के लिए है, बिना किसी भेदभाव के.

असल में पानी का प्याऊ एक व्यावहारिक सोच है. यह सामाजिक कार्य मानवता की मिसाल है. हर व्यक्ति में ऐसे काम करने की भावना होनी चाहिए जो आम जनजीवन की परेशानियों, अड़चनों को दूर करे. प्याऊ से ही नहीं, दिनप्रतिदिन की जिंदगी में अनेक दूसरे काम किए जा सकते हैं जिन का लाभ औरों के साथसाथ आप को भी मिल सकता है. अगर कोई व्यक्ति अपने घर के आगे रोशनी के लिए बल्ब लगा ले तो आप को तो प्रकाश मिलेगा ही, दूसरे आनेजाने वालों को भी फायदा होगा. यही लाभ आप को दूसरे इलाकों में जाने पर मिलेगा. आप ने अंधेरा दूर किया तो दूसरे आप का भी अंधेरा दूर करेंगे. इसी तरह अगर किसी दुर्घटना में आप औरों की मदद करते हैं तो आप को भी ऐसी ही सहायता मिल सकती है. लोग ऐसे कार्य, व्यवहार द्वारा अपनी समस्या के साथसाथ दूसरों की समस्याएं दूर कर सकते हैं.

मेरे पापा

जीवन का मेरा हर वह पल सुनहरा हो जाता है जिस में पापा मेरे साथ होते हैं. मध्यवर्गीय परिवार से होते हुए भी उन्होंने मेरी हर मांग को पूरा किया. 15 वर्ष की छोटी सी उम्र में मुझे किडनी की बीमारी हो गई जिस कारण मैं शारीरिक रूप से कमजोर हो गया और मेरी पढ़ाई रुक गई. मैं बुरी तरह से मानसिक अवसाद से घिर गया. तब पापा ने ही मुझे अवसाद से बाहर निकाला और अपनी बीमारी से लड़ने के लिए व फिर से पढ़ाई शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया. उन के इन शब्दों ‘बेटा, हर इंसान के जीवन में संघर्ष होता है. शायद तुम्हारे जीवन में कुछ ज्यादा ही संघर्ष हो पर उस से घबराना नहीं बल्कि डट कर मुकाबला करना. तुम्हें अपनेआप को साबित करना है’ ने मेरा मनोबल बढ़ाया. उन्हीं के कारण मैं ने अपनी बीमारी को सकारात्मक रूप में लेते हुए अपनी पढ़ाई शुरू की. हाईस्कूल, इंटर और फिर गे्रजुएशन कंप्लीट किया. पर गे्रजुएशन के बाद मेरी हालत और बिगड़ी व आगे जीवित रहने के लिए डाक्टर ने ‘किडनी प्रत्यारोपण’ की सलाह दी. तब पापा ने ही 57 वर्ष की उम्र व उच्च रक्तचाप होते हुए भी अपनी एक किडनी दे कर मुझे फिर एक नया जीवनदान दिया.

औपरेशन के ठीक 1 माह बाद जब मैं पापा से मिला व हमारी नजरें एकदूसरे से मिलीं तब उमड़ते भावों, छलकते आंसू, असीम सुख की अनुभूति, सच्चे आनंद का जो एहसास हुआ उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. तब पापा ने मुझे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की सलाह दी ताकि मैं किसी पर बोझ न बनूं. मैं कैरियर संवारने में लग गया और पापा मेरा आत्मविश्वास बढ़ाते रहते. आज मैं पापा के प्यार, उन की सलाह, नसीहतों के साथ जीवन की नई चुनौतियों को पार करने व कैरियर बनाने में जुटा हूं.

सौरभ श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

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मेरे पिताजी, जिन को हम अब्बा कहा करते थे, का सब काम अनुशासित था. वे समय के पाबंद थे. सब काम समय पर करो, यही उन का कहना रहता था. हम सब भाईबहन उन के ऋणी हैं कि उन्होंने हम सब को आत्मनिर्भर बनाया. उन की सीख थी कि स्वयं किसी को भी दुखपीड़ा न पहुंचाओ. हमेशा सच बोलो, अपनी गलती स्वीकार करो, बड़ों का आदर करो, दूसरों की यथासंभव मदद करो, झूठ का सहारा मत लो. हमें अपने पापा की सीख पर गर्व है. आज हम सब उन्हीं की प्रेरणा से आत्मनिर्भर हैं. अब हमारे बीच पापा नहीं हैं, फिर भी कोई दिन, कोई पल ऐसा नहीं जाता कि उन की याद न सताए.

कुसुम देव, सागर (म.प्र.)

मिसाल हैं कुणाल

कामयाब आदमी को भीड़ में जगह बनाने के लिए कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं करनी पड़ती क्योंकि खुद भीड़ ही उसे अपने से अलग कर ऐसी जगह खड़ा कर देती है जहां से सब उसे और वह सभी को आसानी से देख सके.  ऐसा ही कुछ 20 मई को कुणाल बहल के साथ हुआ जब उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मुख्यमंत्री निवास में आयोजित युवा उद्यमी पंचायत में शिरकत की. इस कार्यक्रम में देशप्रदेश से आए हजारों युवा उद्यमियों को पता चला कि छोटे चैक की शर्ट वाला युवा स्नैपडील का सीईओ कुणाल बहल है तो तमाम आंखें उन की तरफ मुड़ उठीं और हर कोई कुणाल से मिलने को लालायित हो उठा. आकर्षण का केंद्र बन गए कुणाल को किसी सैलिब्रिटी सरीखा ट्रीटमैंट मिला तो तय है उन्हें यह भी समझ आया होगा कि उन की कंपनी अपनेआप में एक बड़ा ब्रैंड बन चुकी है और हर कोई सिर्फ यह जानने के लिए उन पर नजरें गड़ाए बैठा है कि स्नैपडील देखते ही देखते कैसे शीर्ष पर पहुंच गई. अपनी और अपनी कंपनी की कामयाबी की कहानी कुणाल ने साझा की तो कई दिलचस्प और सीखने लायक बातें सामने आईं. मसलन, स्नैपडील आज देश की दूसरी बड़ी ई-कौमर्स कंपनी है. इस का सालाना टर्नओवर 32 हजार करोड़ रुपए है. स्नैपडील में 7 हजार कर्मचारी काम कर रहे हैं और देशभर के 500 शहरों में इस के 4 करोड़ ग्राहक हैं.  स्नैपडील तकरीबन 1 करोड़ 40 लाख प्रोडक्ट बेचती है.

कामयाबी के झंडे फहराते इन आंकड़ों के पीछे राज क्या है, इस सवाल पर कुणाल ने बेहद गंभीरता से लेकिन सिलसिलेवार बताया कि इस के पहले मैं 5 बिजनैस कर चुका हूं और पांचों में असफल रहा. मैं ने बिजनैस की शुरुआत दिल्ली के कीर्तिनगर फर्नीचर मार्केट से की थी जहां अपने पार्टनर के साथ 14 हजार रुपए महीने के किराए के दफ्तर में बैठता था. छठी बार 2010 में जब स्नैपडील की नींव डाली तब मेरी उम्र केवल 23 साल थी. मेरे पार्टनर रोहित बंसल और मैं बड़ा सोचते थे और कड़ी मेहनत करते थे.  आज भी मैं 16 से ले कर 18 घंटे तक काम करता हूं. कुणाल गर्व से बताते हैं कि जब स्नैपडील डाली थी तब हमारे पास कुल 10 विक्रेता और महज 5 हजार उत्पाद थे.  पहले साल सिर्फ 10 लाख रुपए की बिक्री हुई थी. तब मेरी मम्मी बड़ी चिंतित रहती थीं और कहती थीं, ‘तनख्वाह तो तुझे मिलती नहीं, तू करता क्या है और तुझ से कौन लड़की शादी करेगी.’

आज हालत यह है कि हर कोई स्नैपडील के जरिए अपना प्रोडक्ट बेचना चाहता है. भोपाल आए कुणाल ने अच्छे कारोबारी की तरह मध्य प्रदेश लघु उद्योग निगम से भी एक करार कर डाला जिस के तहत अब मध्य प्रदेश के बुनकरों और शिल्पकारों के बनाए मृगनयनी ब्रैंड उत्पाद स्नैपडील के जरिए बिकेंगे. जाहिर है इस से घाटा झेल रहे लघु उद्योग निगम को बेहद फायदा होगा. बकौल कुणाल, भोपाल आने के 2 हफ्ते पहले मुझे फोन आया था कि मध्य प्रदेश की उद्योगमंत्री यशोधरा राजे सिंधिया मुझ से मिलना चाहती हैं. मैं उन से मिला, तकरीबन 1 घंटे मीटिंग हुई और तय हुआ कि स्नैपडील मध्य प्रदेश के प्रोडक्ट खरीदेगी. यह जान कर और हैरानी होती है कि स्नैपडील के ग्राहक ही लगातार नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि इस में निवेश करने वालों की भी लाइन लंबी है. स्नैपडील में अजीम प्रेमजी और रतन टाटा जैसे नामी उद्योगपतियों ने निवेश किया हुआ है और जापानी सौफ्टबैंक ब्लैक हौक व अमेरिका ई-वे जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों ने भी स्नैपडील में पैसा लगाया हुआ है.

उद्योगपतियों के लिए रोल मौडल

युवा उद्योगपतियों के रोल मौडल बनते जा रहे कुणाल में सीखने के लिए काफी कुछ है. उन्होंने बताया कि सफलता के लिए लगातार अथक परिश्रम के सिवा और कोई रास्ता नहीं है. युवा अपने अंदर की कुछ कर गुजरने की आवाज सुनें और फिर उसे जरूर करें. तरक्की तभी समझी जाएगी जब आज का दिन बीते कल से बेहतर हो. विनम्र और सधी बातचीत करने वाले इस युवा उद्योगपति का कहना है कि युवा बड़ा सोचें और बड़ा करें तो कोई वजह नहीं कि सफलता न मिले. इसी आत्मविश्वासी सोच का नतीजा इसे कहा जाएगा कि हर किसी के लिए विज्ञापन न करने वाले अभिनेता आमिर खान स्नैपडील को न नहीं कह पाए. देश में युवा उद्योगपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है और वे बजाय नौकरी करने के कंपनियां खोल कर कारोबार भी कर रहे हैं. पढ़लिख कर खासतौर से एमबीए करने के बाद युवा खुद का उद्योग लगाना चाहते हैं. यह बात भारी बदलाव का इशारा है. युवाओं की कंपनियों के बारे में पूछने पर कुणाल ने कहा, ‘‘उद्योग चलाते वक्त घबराना नहीं चाहिए. जब आप हताश हो जाएं तो तय मानिए एक जोर के धक्के की जरूरत है और फिर आप की कंपनी चल निकलेगी. लेकिन यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि कंपनी में कैसे लोग हैं, उसी हिसाब से कंपनी मोटीवेट होगी.’’

साफ है, कुणाल कड़ी मेहनत के अलावा प्रतिष्ठा और ईमानदारी पर जोर देते हैं. वे जल्द ही स्नैपडील का और भी विस्तार करने जा रहे हैं. अपनी तकनीकी टीम में वे इस साल 1 हजार और भर्तियां करने जा रहे हैं. रातोंरात तो नहीं, लेकिन 5 साल में आइकन कैसे बना जा सकता है, यह कुणाल बहल की सफलता से सीखा जा सकता है जिन की डिक्शनरी में हताशा शब्द के लिए कोई जगह नहीं और कामयाब न होने या पसंद न आने पर बिजनैस मौडल बदलने से परहेज करना जरूरी नहीं.

अखिलेश यादव : पहचान का संकट

समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में वे पार्टी को भारी बहुमत से जिता कर सत्ता में लाए थे. अखिलेश यादव के नेतृत्व में पहली बार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को बहुमत से सरकार बनाने का मौका मिला. वे प्रदेश के सब से युवा मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री बनने से पहले वे लोकसभा सदस्य भी रह चुके थे. उत्तर प्रदेश आबादी के लिहाज से देश का सब से बड़ा प्रदेश है. किसी प्रदेश का युवा मुख्यमंत्री पहचान के संकट से गुजर रहा हो तो सोचने वाली बात है. अखिलेश ने यह खुद माना कि दूरदराज के गांव में लोग उन को नहीं पहचानते. मुख्यमंत्री के तौर पर अखिलेश यादव ने जब से कामकाज शुरू किया है तब से उन का यह संकट बना हुआ है. समाजवादी पार्टी के विरोधी कहते थे कि प्रदेश को 5 मुख्यमंत्री मिल कर चला रहे हैं. तब सपा इसे विरोधियों की साजिश बताती थी. 3 साल बाद जब अखिलेश खुद मानते हैं कि लोग उन को नहीं पहचानते तो लगता है कि मुख्यमंत्री पहचान के संकट से गुजर रहे हैं. किस्सा कुछ इस तरह है–अखिलेश यादव राजधानी लखनऊ से दूर गांव में लोगों को राहत चैक बांटने गए थे. चैक बांटते समय उन्होंने पूछा कि यह पैसा कौन दे रहा है? उस महिला ने कहा – सरकार दे रही है. इस के बाद उन्होंने पूछा, प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन है तो वह महिला कोई जवाब नहीं दे पाई. अपनी सरकार की पहचान पर कुछ और सवाल भी हुए जिन के जवाब सुन कर अखिलेश यादव खुश नहीं हुए. वे वापस राजधानी लखनऊ आए तो मीडिया को इस का जिम्मेदार माना और कहा कि उन के सरकार के कामकाज को सही तरह से जनता के बीच नहीं पहुंचाया जा रहा है.

संभव है कि अखिलेश यादव की शिकायत जायज हो. सोचने वाली बात यह है कि किसी नेता की छवि कैसे बनती है. उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में खड़े हो जाइए और मुलायम सिंह यादव का नाम ले लीजिए तो हर गांव उन को पहचान लेगा. मुलायम सिंह यादव जब राजनीति में आए थे तो प्रचार के इतने साधन नहीं थे. इस के बाद भी गांवगांव के लोग उन को पहचानते हैं. खुद अखिलेश यादव ने साल 2010 से 2012 तक क्रांतिरथ के जरिए प्रदेशभर में दौरा किया था. इस के फलस्वरूप ही समाजवादी पार्टी ने बड़ी जीत हासिल कर प्रदेश में सरकार बनाई. मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव पर यह आरोप लगा कि वे पार्टी के बड़े नेताओं और अपने परिवार के सदस्यों के दबाव में काम करते हैं. विरोधी दलों ने साफतौर पर आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश में 5 मुख्यमंत्री फैसले करते हैं. इस के जवाब में पार्टी ने कहा कि यह विरोधी दलों की साजिश है. मुख्यमंत्री बनने के 3 साल के बाद अखिलेश जब प्रदेश के अलगअलग जिलों में गए तो वहां अपने बारे में पूछा तो लोगों ने उन को पहचानने से इनकार कर दिया. इस में स्कूली बच्चों से ले कर गांव की महिलाएं तक हर तरह के लोग शामिल थे.

छवि बनाने में चूके

2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की छवि साफसुथरी और मिलनसार नेता की थी. जनता को पक्का यकीन था कि वे जातिधर्म की राजनीति नहीं करेंगे. उन्होंने अपने शुरुआती कामकाज से इस बात का पक्का यकीन भी जनता को दिलाया. उन्होंने जनता दरबार शुरू किया, जिस में वे एक तय दिन में लोगों से मिलते थे. उन की परेशानियों को दूर करते थे. सभी स्कूली छात्रों को लैपटौप दिए. एक साल बीतते ही सबकुछ बदलने लगा. मुख्यमंत्री का जनता दरबार बंद हो गया. स्कूली बच्चों को लैपटौप मिलने बंद हो गए. बेरोजगारी भत्ता देने में इतनी शर्तें लगाई गईं कि लोग इस योजना से दूर हो गए. हाईस्कूल पास करने वाले बच्चों को टैबलेट देने की योजना को भी दरकिनार कर दिया गया. स्कूली छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति देने में बजट आवंटन की परेशानी आने लगी. मुख्यमंत्री बनने के पहले तक जिस तरह से अखिलेश यादव जनता के बीच में पहुंच कर मिलतेजुलते थे, वह बंद हो गया. केवल वे लोग ही अखिलेश यादव तक पहुंच पाते हैं जो खास हैसियत वाले होते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल में सब से अधिक 50 विभाग खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास हैं. मुख्यमंत्री के कामकाज के प्रचारप्रसार के लिए बना सूचना विभाग भी खुद मुख्यमंत्री के पास है. सूचना विभाग का अरबों रुपए का बजट होता है, जिस को मुख्यमंत्री की पहचान बनाने में खर्च किया जाता है. सूचना विभाग के अलावा मुख्यमंत्री सचिवालय में 2 प्रमुख सचिव, 5 विशेष सचिव और 3 सचिव काम करते हैं. 6 लोग विशेष कार्याधिकारी के रूप में काम करते हैं. इस के अलावा सूचना सलाहकार, मुख्यमंत्री सूचना परिसर और 4 मीडिया सैंटर खोले गए हैं. सूचना विभाग में सूचना निदेशक सहित 30 से अधिक अफसर काम करते हैं. सरकार से अलग समाजवादी पार्टी का अपना मीडिया तंत्र है. इस में भी पार्टी प्रवक्ता और दूसरे प्रभावशाली लोग हैं जो मुख्यमंत्री तक सीधी पहुंच रखते हैं. इन सभी का काम मुख्यमंत्री की छवि को चमकाने का होता है. निश्चित तौर पर अखिलेश यादव साफसुथरी छवि के नेता हैं पर जो अवसर उन को मिला था उस में वे अपनी छवि बनाने में चूक गए हैं.

काम न आई सोशल मीडिया

2014 के लोकसभा चुनाव के समय भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी रहे नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने पक्ष में किया उस ने देश के बाकी नेताओं को भी सोशल मीडिया से जुड़ने को मजबूर किया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित दूसरे तमाम नेता सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गए. फेसबुक और ट्विटर के अकाउंट खुल गए. सोशल मीडिया पर ज्यादातर नेता एकतरफा सक्रिय होते हैं. वे अपनी बात तो कहते हैं पर उस पर आई शिकायतों या सवालों का जवाब नहीं देते. लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई. समाजवादी पार्टी अखिलेश सरकार के पहले के कामों को छोड़ कर नए काम करने लगी. अखिलेश सरकार ने हाईस्कूल पास छात्रों को टैबलेट तो दिया नहीं, इंटर पास छात्रों को लैपटौप देना भी बंद कर दिया. केवल दिखावेभर के लिए मैरिट वाले छात्रों को लैपटौप दिए जा रहे हैं. छात्रों को छात्रवृत्ति देने की योजना भी बजट के भंवर में फंस गई. युवा वर्ग का जो बड़ा साथ अखिलेश यादव के साथ था, उस का भरोसा टूट गया.

सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रशंसाभर होती है. प्रशंसा करते समय जरूरत को ध्यान नहीं दिया जाता. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब विदेशी दौरे करने शुरू किए तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी विदेशी दौरे शुरू किए. अखिलेश ने विदेशी दौरों से क्या हासिल किया, इस को बताने के बजाय सोशल मीडिया पर यह बताया जाने लगा कि नरेंद्र मोदी विदेशों में सूटबूट पहन कर जाते हैं जबकि अखिलेश यादव कुरतापाजामा पहनते हैं. सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री का ऐसा प्रचार खुद उन का प्रचार करने वालों ने शुरू किया. अगर सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री खुद रूबरू होते और वहां आई शिकायतों व सुझावों का संज्ञान लेते तो ज्यादा बेहतर होता. अगर मुख्यमंत्री को यह लगता है कि उन के कामकाज और सरकार के प्रदर्शन को सही तरह से जनता के बीच पहुंचाने का काम नहीं हो रहा है तो इस में खुद उन की प्रचार व्यवस्था का दोष है. आज पहले से ज्यादा प्रचारतंत्र मजबूत है. जब आप कुरसी पर बैठे हों तो आप का प्रचार नहीं आप का काम बोलना चाहिए. मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे तब बेरोजगारी भत्ता मिलता था. वह ठीक उन शर्तों पर दिया जाता था जिन शर्तों पर देने को कहा गया था. अखिलेश यादव सरकार ने अपने चुनावी वादों को उस तरह से पूरा नहीं किया जिस तरह से पूरा करने का वादा किया था. जनता तो सरकार और कारोबारी में अंतर मानती है. अखिलेश सरकार जिस तरह से शर्तों के साथ अपने चुनावी वादों को पूरा करने का राग अलाप रही है उस की सचाई जनता के गले के नीचे नहीं उतर रही. सरकार की छवि चमकाने के लिए जो होर्डिंग और विज्ञापन जारी किए गए उन में शहरी चमकदमक तो दिखती है पर गांव की चर्चा नहीं है. यही वजह है कि आज प्रदेश की जनता अखिलेश यादव को पहचानने से इनकार कर रही है. अखिलेश यादव के पास अभी 2 साल का मौका है.

कचरे की राजनीति

स्वर्ण मंदिर यानी गोल्डन टैंपल और वाघा बौर्डर अमृतसर आने वाले पर्यटकों के लिए आकर्षण के 2 मुख्य केंद्र हैं. आकर्षण के इन दोनों केंद्रों में से पर्यटक, स्वर्ण मंदिर को प्राथमिकता देते हैं. यह सिखों का प्रमुख धार्मिक स्थल है. हर रोज यहां हजारों की तादाद में देशीविदेशी पर्यटक आते हैं. स्वर्ण मंदिर बेहतर साफसफाई के लिए भी जाना जाता है. पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए अमृतसर नगर निगम इस मंदिर की तरफ जाने वाले मार्ग की साफसफाई का खासतौर पर ध्यान रखता है. उस की कोशिश रहती है कि स्टेशन से ले कर स्वर्ण मंदिर तक जाने वाले मार्ग में कहीं गंदगी व कचरा न आए. निगम की यह सारी कवायद इसलिए होती है कि स्वर्ण मंदिर के दीदार को आने वाले पर्यटक केवल स्वर्ण मंदिर ही नहीं, अमृतसर शहर के बारे में भी अच्छी तसवीर दिमाग में ले कर वापस जाएं. पिछले कुछ महीनों के दौरान जो कुछ भी हुआ उस से पर्यटकों के दिमाग में अमृतसर की एक ऐसी तसवीर बनी जोकि शर्मिंदा करने वाली थी. यह तसवीर एक ऐसे शहर की थी जहां जगहजगह कचरे के ढेर थे और हवा दमघोंटू, बदबू से भरी हुई थी. स्टेशन से स्वर्ण मंदिर जाने वाले साफसुथरे मार्ग पर इतना कचरा था कि गुजरना मुश्किल था. ऐसी नौबत कचरे की लिफ्टिंग नहीं होने की वजह से आई थी. ऐसा लगता है कि मुद्दों के लिहाज से राजनीतिक पार्टियां एकदम दिवालिया हो चुकी हैं, शायद इसीलिए तो कचरे जैसी चीज को ले कर भी पिछले कुछ महीने से अमृतसर जैसे व्यावसायिक शहर में खूब जोरशोर से राजनीति की गई. शहर में जगहजगह कचरे के ऊंचेऊंचे अंबार लग गए. पूरे शहर का वातावरण ऐसी तीखी और दमघोंटू बदबू से भर गया जैसे शहर कचरे के ढेर पर ही खड़ा हो. नगर निगम के कर्मचारी शहर से कचरे की लिफ्टिंग नहीं कर रहे क्योंकि जहां कचरा फेंका जाना है, वे डंप राजनीतिक लड़ाई के मैदान से बन गए.

अमृतसर के 2 मुख्य डंप हैं जहां सारे शहर का कचरा फेंका जाता है. एक डंप शहर के भगतांवाला इलाके में है जोकि भगतांवाला डंप कहलाता है और दूसरा जब्बाल रोड पर सड़क के किनारे पर बना है जोकि फताहपुर डंप के नाम से जाना जाता है. दोनों ही डंप विभाजन से पहले के हैं और कभी भी इन को ले कर लोगों ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं करवाई. 67 वर्ष के बाद कुछ महीने पहले अचानक ही आश्चर्यजनक ढंग से डंपों की मौजूदगी को ले कर लोगों में विरोध के स्वर उठने लगे. डंपों के आसपास के इलाकों में रहने वाले लोग दोनों ही डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटाने की मांग करने लगे. विरोध करने वाले लोगों का मानना था कि कचरे के डंपों से पैदा होने वाले प्रदूषण की वजह से उन के बच्चे कई किस्म की खतरनाक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. विद्रोह के स्वर इसलिए उठे क्योंकि खाली बैठे छुटभैये किस्म के नेता अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए इस मामले में कूद पड़े. डंपों के विरोध में धरने और प्रदर्शन होने लगे. डंपों की तरफ जाने वाले रास्तों में रुकावटें खड़ी कर के कचरा ढोने वाली गाडि़यों को डंपों तक पहुंचने से रोक दिया गया. नतीजतन, शहर से कचरे की लिफ्ंिटग रुक गई. कईकई दिन तक लिफ्ंिटग नहीं होने से शहर की गलियों और चौराहों में कचरे के ऊंचे ढेर लग गए. वातावरण बदबू से भर गया. बदबू से भी नेताओं को अपना वोटबैंक मजबूत करने का मौका मिला. लोगों की मुश्किलों की किसी को कोई फिक्र नहीं थी.

निगम ने जब कचरा फेंकने के लिए वैकल्पिक जगहों की तलाश की तो नेताओं की शह पर वहां भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. कचरे की लिफ्ंिटग कई बार चली और रुकी. इस बीच, भगतांवाला डंप की तरफ जाने वाले रास्ते के बीच में लोगों ने दीवारें खड़ी कर दीं और गड्ढे खोद डाले. वहीं जब्बाल रोड वाले फताहपुर डंप पर लोगों ने कोर्ट से स्टे ले लिया. समस्या और भी जटिल हो गई. कचरे की समस्या से नजात दिलाने वाला सौलिड वेस्ट प्लांट पहले ही राजनीति की भेंट चढ़ चुका था वरना कचरे की समस्या इतनी विकराल नहीं होती. जनता के भारी आक्रोश व दबाव के चलते आखिर निगम थोड़ा सख्त हुआ. उस ने शहर के कचरे को भगतांवाला डंप में ही फेंकने के लिए कमर कस ली. पुलिस फोर्स की सहायता ली गई. इस के बाद कचरे की लिफ्ंिटग एक बार फिर से शुरू हुई. 10 अप्रैल को  पुलिस के एक एडीसीपी और 6 थाना प्रभारियों के नेतृत्व में पुलिस के लगभग 200 जवानों के संरक्षण में कचरे से भरी गाडि़यां डंप की तरफ बढ़ रही थीं. पुलिस की मदद से ही निगम के कर्मचारियों ने डंप की राह में खड़ी की गई दीवारों को गिराया और गड्ढों को भरा. इतना ही नहीं, पुलिस ने कचरे को डंप में फेंकने का विरोध कर रहे लोगों पर बल प्रयोग करते हुए उन्हें खदेड़ भी दिया.

10 दिन के बाद भगतांवाला डंप में कचरा फेंकने में कामयाब होना निगम के लिए किसी जंग को जीतने से कम नहीं था. इस के लिए उसे उन जमीनमालिकों से भी समझौता करना पड़ा था जिन की जमीन पर से कचरे की गाडि़यों को गुजरना था. समझौते के अंतर्गत निगम उन जमीनमालिकों को हर महीने 25 हजार रुपए देगा जिन की जमीन पर से डंप को जाने वाली कचरे से भरी गाडि़यां गुजरेंगी. यह व्यवस्था बहरहाल 3 महीने के लिए ही है. इस के बाद क्या होगा, कहना मुश्किल है. वैसे प्रबल संभावना यह है कि कचरे की यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी.

वजहें और भी हैं, अमृतसर में जहां हर जगह जमीनों के भाव आसमान को छू रहे हैं वहीं डंप के आसपास की जमीनों की कीमत उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं. अगर कचरा फेंकने वाले डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटा दिया जाए तो उन की कीमतों में भारी उछाल आना निश्चित है. बिल्डरों और राजनेताओं को शायद इसी का इंतजार है. ऐसे में कचरे का खेल खत्म कैसे होगा, कचरे पर राजनीति जारी ही रहेगी, ऐसी आशंका है. सवाल यह भी उठता है कि अगर डंपों की बदबू से वास्तव में ही इतनी परेशानी थी तो फताहपुर वाले डंप के पास ही एक नर्सिंग कालेज का निर्माण क्यों किया गया? डंपों के विरुद्ध आंदोलन के पीछे का सारा खेल ही बहुत गहरा है. केवल 5-6 साल पहले जिन डंपों के आसपास की जमीन कुछ सौ रुपए गज थी, आज उसी जमीन की कीमत आसमान छूते हुए 7-8 हजार रुपए प्रति गज तक पहुंच गई है. भारतपाक विभाजन के बाद कुछ वर्ष बाद तक अमृतसर शहर का फैलाव किसी हद तक बेतरतीब था. ऐसा होना स्वाभाविक ही था. विभाजन की वजह से विस्थापित हो आए हजारों शरणार्थियों को सिर छिपाने के लिए आशियाने की जरूरत थी. ऐसे में जहां जिस को, कहीं उजाड़ में भी जमीन दिखी उस ने किसी तरह भी सिर छिपाने के लिए कच्चेपक्के घर का निर्माण कर लिया. डंपों के आसपास की खाली जमीन पर बस्ती बनने की बुनियाद भी शायद उसी दौर में पड़ी थी. ऐसा देश के हर शहर के साथ हो रहा है. दरअसल, शहर के बाहर वाले इलाकों में जमीन सस्ती होने के कारण लोगों ने वहां जमीनें ले कर मकान बना लिए. वहां शहर का कचरा फेंका जाता था. अब शहर फैल रहे हैं. बस्तियां बसती जा रही हैं. आबादी बढ़ती जा रही है. तो अब लोग डंपों का विरोध कर रहे हैं. देश को साफ न कर पाने का कारण यही है कि कचरे का नियमन आखिरकार कैसे हो, इस की सोच में कोई अपना दिमाग नहीं लगाना चाहता, सभी वोटबैंक की राजनीति करने में ही वक्त जाया करते रहते हैं.

महागठबंधन बड़े फोके हैं इस राह में

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मुलायम, लालू, नीतीश और कांगे्रस ने मिल कर कमर तो कस ली है और एक नया चुनावी तानाबाना तैयार हो गया है पर सियासत के ये धुरंधर अब तक यह साफ नहीं कर सके हैं कि वे जनता से किस नाम पर वोट मांगेंगे? भाजपा विरोध के तोतारटंत नारे के अलावा उन की झोली में कुछ भी नहीं है. बिहार के पिछड़ेपन की दुहाई देने वाले इन नेताओं को याद नहीं है कि बिहार की बदहाली का पूरा का पूरा कलंक उन्हीं के सिर पर आ पड़ा है. पिछले 10 साल तक नीतीश ने राज किया. उस के पहले के 15 साल तक बिहार लालू के हाथों में रहा और उस के पहले के 42 साल तक कांग्रेस का शासन रहा था. ऐसे में तो बिहार की दुर्गति का ठीकरा लालू, नीतीश और कांगे्रस के ही सिर पर फूट रहा है. ऐसी हालत में गठबंधन के तरक्की के दावे और वादे को हजम कर पाना जनता के लिए मुश्किल ही होगा. बिहार को कई साल पीछे ढकेलने वाले ही अब ‘बढ़ता रहेगा बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ का ढोल पीट रहे हैं. इस के अलावा नेताओं ने तो ऊपरऊपर गठबंधन कर लिया है पर उन की पार्टी के कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वे अपने इलाके में किस का और कैसे प्रचार करें? जदयू के नेता और कार्यकर्ता वोटरों को क्या जवाब देंगे कि ‘जंगलराज’ वाले अब उन के दोस्त कैसे बन गए?

इस गठबंधन से दलितों, पिछड़ों और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों का वोट तो इंटैक्ट हो सकता है. वोट का विभाजन कम होने से छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को काफी नुकसान हो सकता है. बिहार में 11 फीसदी यादव, 12.5 फीसदी मुसलिम, 3.6 फीसदी कुर्मी, 14.1 फीसदी अनुसूचित जाति और 9.1 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है. गठबंधन के नेताओं को पूरा भरोसा है कि इन का वोट उन्हें ही मिलेगा. गठबंधन के बनने के बाद अब बिहार में उस की सीधी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग से होनी है. इस से कांटे की लड़ाई के साथ खेल दिलचस्प भी हो गया है. वोटबैंक को मजबूत करने के साथ ही गठबंधन को नए नारे और नीति की दरकार है. गठबंधन के पास बिहार को बचाने से ज्यादा भाजपा से बचने की छटपटाहट है. लालू और नीतीश के हाथ मिलाने से भाजपा के लिए चुनौतियां कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादियों और सामाजिक न्याय के वोट का बिखराव होने का फायदा भाजपा को आसानी से मिल गया था. लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद 10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में राजद-जदयू के मिलने से काफी फायदा हो गया था. 10 में 6 सीटें गठबंधन ने जीती थीं और 2 सीटों पर भाजपा को कड़ी टक्कर भी दी थी. भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं और पिछले 20 सालों से वे एकदूसरे की विरोध की राजनीति करते रहे हैं. आज दोनों जिस किसी भी सियासी मजबूरियों की वजह से फिर से साथ मिले हैं, उन का मिलन उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद जगाता है. इन के गठबंधन को एक झटके में बेअसर करार देना किसी भी माने में समझदारी नहीं कही जाएगी क्योंकि इस गठजोड़ के पास वोट हैं. आज की हालत में भले ही उन का वोट बिखरा और छिटका हुआ हो पर उन में इतनी कूवत है कि विधानसभा चुनाव तक अपने वोटबैंक को काफी हद तक एकजुट कर कामयाब हो कते हैं. दोनों धुरंधरों को कामयाबी महज गठबंधन बना लेने से नहीं, बल्कि अपनी गलतियों को सुधार कर और अहंकार को दरकिनार कर नया एजेंडा बनाने से ही मिलेगी. दोनों बिहार के जमीन से जुड़े नेता रहे हैं, सामाजिक न्याय के मसीहा माने जाते हैं और पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के वोट पर खासी पकड़ रखते हैं.

महागठबंधन के दलों के लिए सब से बड़ी दिक्कत अपनेअपने वोट को सहयोगी दलों के खाते में ट्रांसफर कराना है. राजद और जदयू के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह बड़ा ही कठिन टास्क है. नीतीश और लालू सफाई दे रहे हैं कि नेताओं और पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच कहीं कोई कन्फ्यूजन नहीं है. प्रमंडल स्तर पर कार्यकर्ताओं से रायविचार करने के बाद ही गठबंधन हुआ है. कहीं कोई भी विवाद या खींचतान के हालात नहीं हैं. गठबंधन की सभी पार्टियों के नेता अपनेअपने कार्यकर्ताओं से मशविरा करने के बाद ही सीटों को ले कर तालमेल पर फैसला लेंगे. गठबंधन की सब से बड़ी खासीयत यह है कि लालू यादव ने पहली बार परिवार के दायरे से बाहर कदम रखा है और अपनी बीवी, बेटी, बेटा या परिवार के किसी और सदस्य को तरजीह नहीं दी है. हो सकता है कि लालू ने ऐसा कदम सियासी मजबूरी या दबाव की वजह से उठाया हो, लेकिन इस के बाद भी उन की यह पहल तारीफ के काबिल है. ऐसा कर वह परिवारवाद के आरोप से नजात पा चुके हैं और सामाजिक न्याय के झंडे को फिर से थाम चुके हैं. सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने और भाजपा को हराने के लिए उन्होंने नीतीश कुमार को गठबंधन का नेता होना भी कुबूल कर लिया है. लालू की यह खामोशी किसी बड़े तूफान की ओर इशारा भी कर देती है. सवाल यह है कि अगर चुनाव के बाद लालू की पार्टी राजद को नीतीश की पार्टी जदयू से ज्यादा सीटें मिल जाती हैं तो क्या लालू तब भी चुप रहेंगे और नीतीश को मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार कर लेंगे? 1974 की संपूर्ण क्रांति के समय से ही नीतीश और लालू का याराना रहा है लेकिन पिछले 17 सालों के दौरान उन की सियासी दुश्मनी के कई रूप जनता ने देखे हैं. राजद के 15 साल के जंगलराज को खत्म करने के बाद नीतीश के नए दोस्त की तलाश की मुहिम आखिर लालू यादव पर ही जा कर खत्म हुई. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने जब कांग्रेस समेत सारे इलाकाई दलों के तंबू उखाड़ दिए तो सारे उजड़े दल अपना वजूद बचाने के लिए एक छत के नीचे आ गए हैं.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि राजद और जदयू का गठबंधन तेल और पानी को मिलाने की तरह है. लाख कोशिशों के बाद भी तेल और पानी एक नहीं हो सकते हैं. गठबंधन ने लालू को फिर से उठने का मौका दे दिया है जबकि नीतीश के लिए यह सियासी ताबूत की आखिरी कील साबित होगी. भाजपा के लिए यही अच्छी बात है कि गठबंधन के बहाने जनता ने लालू और नीतीश का असली चेहरा देख लिया है. मोदी कुछ भी कहें लेकिन मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम ऐलान करना भाजपा के लिए काफी फजीहत का काम हो सकता है. सुशील मोदी, शत्रुघ्न सिन्हा, शाहनवाज हुसैन, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, प्रेम कुमार समेत कई नेता मुख्यमंत्री की कुरसी पर गिद्ध जैसी नजर टिकाए हुए हैं. दिलचस्प बात यह है कि इन में से ज्यादातर नेता मौकेबेमौके यह सफाई देते रहते हैं कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं.

महागठबंधन को कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो चुनाव के बाद ही साफ हो सकेगा लेकिन इस ने भाजपा के खेमे में बेचैनी को तो बढ़ा ही दिया है. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में कुल 243 सीटों में से 87 सीटों पर जदयू और राजद आमनेसामने थे. इस में से 71 सीटों पर जदयू को जीत मिली और राजद के खाते में 16 सीटें गई थीं. इन 87 सीटों पर दोनों दलों के उम्मीदवारों को मिले वोट को जोड़ देने से उन के सामने कोई दल टिक नहीं पाता है. भाजपा ने इन सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे. इस साल के चुनाव में भाजपा इन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी तो उसे महागठबंधन से कड़ा मुकाबला करना होगा. 100 ऐसी सीटें हैं जिन पर पिछले 2 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और इन सीटों पर राजद व जदयू के उम्मीदवार जीतते रहे हैं या दूसरे नंबर पर रहे हैं. भाजपा के बिहार अध्यक्ष मंगल पांडे कहते हैं कि नरेंद्र मोदी और सूबे की तरक्की के नाम पर बिहार की जनता भाजपा को वोट देगी और बहुमत से जिताएगी. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 91 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि उस ने केवल 101 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे. सीट के लिहाज से भाजपा को बाकी दलों से ज्यादा बड़ी कामयाबी मिली थी. वे कहते हैं कि भाजपा और उस के सहयोगी दल सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे और महागठबंधन की हवा निकल जाएगी.

भाजपा की छवि पर लमो हावी

इधर भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग के जरिए दुनिया को स्वस्थ व तनावमुक्त करने का बीड़ा उठाए घूमते रहे हों लेकिन ललित मोदी वीजा विवाद में घिरी केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज का मामला उन की सरकार के अस्वस्थ व तनावयुक्त होने का कारण बन गया है. भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरे आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी को कुछ अहम ट्रैवल डौक्यूमैंट्स दिलाने में मदद के आरोप में फंसी सुषमा अब खुद भी नहीं बल्कि पार्टी की बिगड़ती छवि को भी बचाने में लाचार हैं. ललित मोदी प्रकरण भाजपा की छवि पर इस कदर हावी हो गया है कि विपक्षी अब सुषमा के साथ नरेंद्र मोदी को भी आड़े हाथोें ले रहे हैं. राहुल गांधी ने तो यहां तक कह दिया कि एक मोदी दूसरे मोदी को बचा रहा है. उधर भाजपा सुषमा के बचाव में कमर कसे हुए है. देखते हैं कि भ्रष्टाचार का यह मुद्दा भाजपा की छवि को अभी कितना और तारतार करेगा.

भाजपा की नाव में मांझी

लालू, नीतीश, मुलायम और कांगे्रस के गठबंधन को भाजपा ने उन के ही हथियार से मात देने की जुगत लगाई है. सूबे के महादलित नेता जीतनराम मांझी को भाजपा ने अपनी नाव पर बिठा लिया है. मांझी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने उन को मुख्यमंत्री की कुरसी से जलील कर जबरन उतार कर समूचे महादलितों का अपमान किया है. विधानसभा चुनाव में महादलित और गरीब नीतीश को सबक सिखा देंगे. बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और 6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी अति पिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलमान, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं. बिहार राज्य अति पिछड़ा महासंघ के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि साल 2014 के मई महीने में हुए लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों ने गेमचेंजर की भूमिका अदा की थी. पिछड़ों और दलितों को महज वोटबैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है. आजादी के बाद से ले कर आज तक दलितों ने देख लिया है कि हर राजनीतिक दल केवल उन की तरक्की की बात करता है, पर आज तक उन की तरक्की के लिए एक भी ठोस योजना नहीं बनी, हर सरकारी योजना दलितों को भिखारी बनाने की है. मुफ्त में खैरात बांटबांट कर दलितों को पंगु, दूसरों का मुहताज बना दिया गया है. 

योग और अयोग

नरेंद्र मोदी की सरकार ने बड़े तामझाम से करोड़ों रुपए खर्च करवा कर 21 जून को देश में ही नहीं, दुनियाभर में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनवा लिया, मानो दुनिया की सेहत के अच्छे होने की शुरुआत हो गई. इस पर जो भारीभरकम प्रचार किया गया वह थोड़ा आश्चर्य वाला है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय पोलियो दिवस, एड्स दिवस जैसों पर सिवा छोटे विज्ञापनों के कोई शोर नहीं सुनने में आता. योग व्यायाम है या धर्म, इस पर जो बहस छिड़ी है, वह लाजिमी ही है क्योंकि जिस तरह से उसे परोसा गया उस से लगता था कि कोई मूवमैंट चलाने की कोशिश की जा रही है और जिस का सेहत से कम, लोगों को एक बैनर तले ला कर खड़ा करना ज्यादा है. जिन लोगों ने इस दिन सरकारी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया उन पर उसी तरह तोहमतें लगाई जा रही हैं जैसे धर्म वाले अपने अनुयायियों या गैर अनुयायियों पर लगाते हैं. यह दर्शाने की कोशिश की जा रही है कि इस का विरोध करने वाले देशद्रोही हैं.

योग में कितने भी गुण हों, यह जरूरी नहीं कि इसे सब के सामने चटाई बिछा कर किया जाए. यह नितांत व्यक्तिगत मामला है. इस की चिकित्सकीय उपयोगिता चाहे जितनी हो, इसे सरकारी त्योहार की तरह मनाना गलत है. योग का हिंदू धर्म से ही जुड़ाव रहा है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. और यह उपयोगी है या नहीं, इसे गुप्त ज्ञान कह कर सदियों तक इस को एक वर्ग ने अपनेआप तक रखा था. इस में जो लोग माहिर हो गए वे अपने नाम के आगे योगाचार्य लगाने से नहीं चूकते रहे. अगर योग जीवन के लिए उपयोगी ही था तो उसे सदियों तक क्यों छिपा कर रखा गया? हर भारतवासी इसे जन्म से क्यों नहीं सीखता था? अगर इस की उपयोगिता सुविचारों को लाने में रही है तो उस का लाभ हजारों वर्षों से क्यों नहीं उठाया गया और देश दरिंदों, अनपढ़ों, असभ्यों के हाथों क्यों गुलाम रहा?

यही नहीं, योग  का ज्ञान होने के बावजूद हमारे देवीदेवता आपस में क्यों लड़तेझगड़ते रहे? हमारे महापुराण, पुराण, स्मृतियां, काव्य, नाटक, आदि सभी विवादों, हत्याओं, अन्यायों की ही गाथाएं हैं. योग के जन्मदाता देश ने अपने समाज को हजारों सालों से यह दृढ़ता क्यों न दी कि वह हमेशा सिर उठा कर चलता और गुलामी ही नहीं, गरीबी और गंदगी का शिकार न रहता? योग की महत्ता चाहे कुछ भी हो, यह नितांत व्यक्तिगत मामला ही है. इस का प्रचार योग शिक्षक करना चाहें तो करें पर सरकार उन का एजेंट बने, यह तार्किक नहीं है.

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