नरेंद्र मोदी की सरकार ने बड़े तामझाम से करोड़ों रुपए खर्च करवा कर 21 जून को देश में ही नहीं, दुनियाभर में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनवा लिया, मानो दुनिया की सेहत के अच्छे होने की शुरुआत हो गई. इस पर जो भारीभरकम प्रचार किया गया वह थोड़ा आश्चर्य वाला है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय पोलियो दिवस, एड्स दिवस जैसों पर सिवा छोटे विज्ञापनों के कोई शोर नहीं सुनने में आता. योग व्यायाम है या धर्म, इस पर जो बहस छिड़ी है, वह लाजिमी ही है क्योंकि जिस तरह से उसे परोसा गया उस से लगता था कि कोई मूवमैंट चलाने की कोशिश की जा रही है और जिस का सेहत से कम, लोगों को एक बैनर तले ला कर खड़ा करना ज्यादा है. जिन लोगों ने इस दिन सरकारी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया उन पर उसी तरह तोहमतें लगाई जा रही हैं जैसे धर्म वाले अपने अनुयायियों या गैर अनुयायियों पर लगाते हैं. यह दर्शाने की कोशिश की जा रही है कि इस का विरोध करने वाले देशद्रोही हैं.

योग में कितने भी गुण हों, यह जरूरी नहीं कि इसे सब के सामने चटाई बिछा कर किया जाए. यह नितांत व्यक्तिगत मामला है. इस की चिकित्सकीय उपयोगिता चाहे जितनी हो, इसे सरकारी त्योहार की तरह मनाना गलत है. योग का हिंदू धर्म से ही जुड़ाव रहा है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. और यह उपयोगी है या नहीं, इसे गुप्त ज्ञान कह कर सदियों तक इस को एक वर्ग ने अपनेआप तक रखा था. इस में जो लोग माहिर हो गए वे अपने नाम के आगे योगाचार्य लगाने से नहीं चूकते रहे. अगर योग जीवन के लिए उपयोगी ही था तो उसे सदियों तक क्यों छिपा कर रखा गया? हर भारतवासी इसे जन्म से क्यों नहीं सीखता था? अगर इस की उपयोगिता सुविचारों को लाने में रही है तो उस का लाभ हजारों वर्षों से क्यों नहीं उठाया गया और देश दरिंदों, अनपढ़ों, असभ्यों के हाथों क्यों गुलाम रहा?

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