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अमेरिका की बदलती सोच

अमेरिका में समलैंगिक विवाह को सुप्रीम कोर्ट से अनुमति यों ही नहीं मिल गई. उस के पीछे अमेरिका की बदलती सोच है. अमेरिका कहने को तो सदा ही नए विचारों का स्वागत करता रहा है पर वहां पुरातनपंथियों की कमी न थी जो चर्च की महत्ता, अमेरिका की धौंस के अधिकार, गर्भपात पर पाबंदी, समलैंगिकों को सामाजिक नासूर व अपराधी मानना जैसी विचारधाराओं पर विश्वास रखते थे. यह अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम रहा है और अमेरिकी सोचते रहे हैं कि उन के देश की प्रगति पूंजीवाद के कारण हुई है. पिछले 15 सालों से अमेरिका की सोच में फर्क आ रहा है. सामाजिक व आर्थिक मुद्दों पर अमेरिका अब अति पूंजीवादी नीति का समर्थन करने में कतराने लगा है. अमेरिका में गेप्राइड उत्सव, समलैंगिक विवाह, लिव इन रिलेशनशिप, अंतर्रंगीय विवाह, विदेशियों को जगह देने के बारे में कट्टरता कम हो रही है. अति पूंजीवाद के खिलाफ बात हो रही है. औक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसा आंदोलन सफल हो रहा है.

अमेरिका में एक सर्वे के अनुसार, कट्टरपंथियों की गिनती 39 प्रतिशत से घट कर 31 प्रतिशत रह गई है और उदारपंथी वामपंथियों की संख्या पूरी जनता के 21 प्रतिशत से बढ़ कर 32 प्रतिशत हो गई है. यह बदलाव महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अब अमेरिका की नीतियों का बदलाव दिखने लगा है. अमेरिका ने अपनी आर्थिक प्रगति की नींव को एक तरह से इंगलैंड की कट्टरता के विरुद्ध उदार चेहरे के तौर पर पेश किया था. अमेरिका ने व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को संविधान का हिस्सा बनाया. अश्वेतों को गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए उस ने एक गृहयुद्ध लड़ा. अमेरिका ने यूरोप में घृणा से देखे जाने वाले यहूदियों को बराबर की जगह दी. जब मार्क्सवाद ने यूरोप में कदम जमाने शुरू किए और तानाशाही ताकतों ने फिर से शासन संभालना शुरू किया, तब लोकतंत्र को बनाए रखने के साथसाथ अमेरिका कम्युनिस्ट विरोधी होते हुए कट्टरपंथी भी बनने लगा था. जब दुनिया के दूसरे देशों में स्वतंत्रताएं मिलने लगीं तो अमेरिका का संवैधानिक ढांचा, वोट के जरिए शासकों को चुना जाना, न्यायपालिका व प्रैस की स्वतंत्रता के  ज्यादा माने नहीं रहे और कई मामलों में पिछली सदी के अंतिम दशकों में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, रौनाल्ड रीगन, जौर्ज बुश आदि की छत्रछाया में कट्टरपंथी फलेफूले.

वर्ष 2008 के स्टौक मार्केट गुब्बारे के फूटने के बाद अमेरिका को एहसास हुआ कि पूंजीवाद बेलगाम हो रहा है और उदारपंथियों को सक्रिय होना जरूरी है वरना 1 प्रतिशत लोग 99 प्रतिशत पर राज ही नहीं करेंगे, उन्हें लूट भी लेंगे. भारत में कट्टरपंथियों को हमेशा जगह मिलती रही है. इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ और समाजवाद के नारों के बावजूद कट्टरपंथी समाज को यथावत रखने के पक्ष में थीं. बाद में मंडल आयोग के आने के कारण राजनीति में आए नेताओं ने एक कट्टरपंथी सोच को दूसरी कट्टरपंथी सोच से बदला था. मूलभूत सोच अभी वही ही है. दहेज, कन्याभू्रण हत्या, किसानों की जमीन हथियाना, विचारों पर धार्मिक संस्थाओं के अंकुश का समर्थन, औनर किलिंग, बढ़ता जमीन संघर्ष उसी कट्टरपंथी सोच का नतीजा है. पिछड़े, दबेकुचले, गरीबों के मसीहा कम्युनिस्ट, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव एक कट्टर सोच को दूसरी कट्टर सोच से हटाने मात्र का नाटक कर रहे थे और इसीलिए आज अति कट्टरपंथी हावी हो रहे हैं. यह असल में विस्फोटक स्थिति है. देश की प्रगति खुले विचारों की जमीन पर हो सकती है. पथरीली जमीन पर पेड़ नहीं उगते. अमेरिका एक राह दिखा रहा है. दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र क्या सर्वशक्तिमान लोकतंत्र से कुछ सीखेगा?

नवाज शरीफ की बेचारगी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कितने बेचारे हैं, यह उन की और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रूस के उफा में हुई मुलाकात के बाद जारी संयुक्त बयान के बाद उलटबाजी से साफ है. संयुक्त बयान में दोनों ने कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाया था, 26 नवंबर, 2008 के मुंबई में हुए आतंकी हमले की जांच में सहयोग देने की कुछ बात की थी. पर इस्लामाबाद पहुंचते ही नवाज शरीफ को अपने कथन लगभग वापस लेने पड़े. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की जगहंसाई हुई तो नरेंद्र मोदी खिसिया कर रह गए कि बारबार मनाने की कोशिशों के बाद पाकिस्तान पहली सीढ़ी पर लुढ़क जाता है. भारत व पाकिस्तान के संबंध सांपसीढ़ी का खेल जैसे हो गए हैं. पाकिस्तान का वजूद भारत विरोध पर टिका है, इस में शक नहीं. पाकिस्तान के धार्मिक, सरकारी व सैनिक नेता जानते हैं कि अगर उन्होंने भारत बनाम पाकिस्तान आग को जला कर नहीं रखा तो उन के हाथ सुन्न पड़ जाएंगे. पाकिस्तान की जनता अपने कट्टरपंथी मुल्लाओं, रिश्वतखोर अफसरों व नेताओं तथा आतंकवाद को पनाह देने वाली सेना को झेल रही है तो केवल इसलिए कि उसे लगता है कि भारत, पाकिस्तान को हड़प कर लेना चाहता है. यह गलतफहमी हर मसजिद, हर विधानसभा व संसद और हर सैनिक परेड में दोहराई जाती है.

भारत के लिए पाकिस्तान अब निरर्थक बन चुका है. कश्मीर में पाकिस्तान के हमदर्द चाहे कुछ मौजूद हों पर वे भी जानते हैं कि उन के बच्चों का भविष्य भारत में सुरक्षित है. भारतीय जनता पार्टी के कट्टर हिंदू चेहरे के बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार ने पाकिस्तान को मनाने की जिस तरह कोशिश की है उस से वे बौखला रहे हैं. अब हमारे भगविए भी पाकिस्तान के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहे और देश में छिटपुट घटनाओं के अलावा हिंदू-मुसलिम तनाव न के बराबर है. पाकिस्तान का उफा में हुई बातचीत को लगभग नकार जाना हमारे हितों के खिलाफ तो है ही, पाकिस्तान की आम जनता के खिलाफ भी है. पाकिस्तानी अब चैन चाहते हैं. उन्हें दुनियाभर में आतंकवाद का पिट्ठू मान लिया गया है. दुनियाभर में फैले पाकिस्तानी अब अपनेआप को भारतीय मुसलमान कहने को मजबूर होने लगे हैं. वे चाहते हैं कि दोनों देश वैसे ही रहें जैसे अमेरिका और कनाडा रहते हैं. सरकारें अलग पर रहनसहन, खानापीना, व्यापार, व्यवहार सब एक. इस गरीब, गंदे, पिछड़े भूभाग की उन्नति के लिए दोनों देशों में दोस्ती की नहीं, तो युद्धहीन माहौल की तो जरूरत है ही. अफसोस, नरेंद्र मोदी की पहल के बावजूद पाकिस्तान का शासनतंत्र नवाज शरीफ पर हावी हुआ है.

तमन्ना का कैरियर

वैजयंती माला से वहीदा रहमान, हेमामालिनी से श्रीदेवी तक बौलीवुड में दक्षिण भारतीय मूल की अभिनेत्रियों ने अपने अभिनय के जौहर दिखाए हैं. कई दशकों तक भारतीय फिल्मों में, खासकर हिंदी सिनेमा में, साउथ इंडियन फिल्मों से आयातित अभिनेत्रियों का कब्जा रहा है. लेकिन बीते कुछ सालों में बौलीवुड की टौप अभिनेत्रियों में साउथ इंडियन फिल्मों से आई अभिनेत्रियों का नाम नदारद है. बात चाहे श्रेया सरन की हो या चार्मी कौर की या फिर तमन्ना भाटिया की, लगभग सब की बौलीवुड पारी बुरी तरह फ्लौप रही है, खासकर तमन्ना भाटिया की. तमन्ना तमिल, तेलुगू फिल्मों का बड़ा नाम हैं. इस लिहाज से उन्हें हिंदी फिल्मों में बड़ा ब्रेक मिला. साजिद खान की फिल्म ‘हिम्मतवाला’ से अजय देवगन के साथ मिले बड़े ब्रेक का फायदा उन्हें नहीं हुआ, ‘हिम्मतवाला’ मजाक बन कर रह गई. उस के बाद साजिद की ही फिल्म ‘हमशकल्स’ से उन की बचीखुची इमेज भी धुल गई. अक्षय कुमार के साथ उन की फिल्म ‘इंटरटेनमैंट’ जरूर सेमीहिट कही जा सकती है लेकिन उस में तमन्ना का कोई खास योगदान नहीं रहा. कुल मिला कर तमन्ना का हिंदी फिल्म कैरियर लगभग डांवांडोल ही है. शायद इसीलिए उन के खाते में फिलहाल एक भी हिंदी फिल्म नहीं है. हां, तेलुगू फिल्म ‘बाहुबली’ जरूर डब हो कर हिंदी में रिलीज हुई. लेकिन इस मल्टीस्टार फिल्म में तमन्ना को बहुत ज्यादा फुटेज नहीं मिला.

दरअसल, तमन्ना ग्लैमरस तो खूब हैं लेकिन फिल्म ऐक्सपर्ट आज भी उन के अभिनय को ले कर सवाल उठाते हैं. सिर्फ चालू फिल्मों में मिली सफलता उन्हें सशक्त अभिनेत्री के तौर पर स्थापित नहीं कर सकती. 13 वर्ष की उम्र से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाली तमन्ना भाटिया को बचपन से अभिनय का शौक था. मुंबई की तमन्ना जब स्कूल के वार्षिक उत्सव में परफौर्म कर रही थीं तभी उन्हें अभिनय का औफर मिला. वह 1 साल तक पृथ्वी थिएटर से भी जुड़ी रहीं. फिल्मों के अलावा उन्होंने कई एलबम और विज्ञापनों में भी काम किया है. 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने हिंदी फिल्म ‘चांद सा रोशन चेहरा’ में काम किया. हालांकि फिल्म नहीं चली पर उन्हें तेलुगू फिल्म में काम करने का अवसर मिला. तमन्ना के पिता डायमंड मर्चेंट हैं. जब उन्होंने फिल्मों में काम करना शुरू किया था तो उन की मां हमेशा उन के साथ रहती थीं. पहली बार जब उन्होंने अभिनय की बात अपने मातापिता से कही तो सभी चौंक गए. लेकिन तमन्ना जानती थीं कि वे उन्हें सहयोग देंगे. फिल्म ‘बाहुबली’ को ले कर इस प्रतिनिधि ने उन से बात की तो तमन्ना का कहना था, ‘‘‘बाहुबली’ काफी अरसे से बन रही है. इस का सफल होना बेहद जरूरी है. वैसे तो हर फिल्म का मेरे लिए सफल होना आवश्यक होता है. कई बार फिल्म सफल नहीं होती क्योंकि उस में कुछ ऐसी बातें होती हैं जिन से दर्शक अपनेआप को जोड़ नहीं पाते. लेकिन  हर फिल्म में मेरी कोशिश रहती है कि वह सफल हो. जो काम मुझे दिया जाता है उसे मन से करती हूं. इस फिल्म में मैं ने ऐक्शन सीन किए हैं जो तलवार की लड़ाई है. इस से पहले कभी ‘फाइट सीन’ मैं ने नहीं किए. इस फिल्म में 1 साल तक प्री प्रोडक्शन पर काम किया गया है. छोटेछोटे अस्त्रशस्त्र, हैलमेट आदि सब कैसे इस्तेमाल करने हैं, इस बाबत सब को प्रशिक्षित किया गया. भारतीय सिनेमा में इतने बड़े पैमाने पर ऐसा पहली बार हुआ है. मैं ने तलवार चलाने की ट्रेनिंग ली है. मार्शल आर्ट सीखी है.’’

100 करोड़ वाले फिल्म के दौर में किसी भी फिल्म का प्रैशर आप पर कितना होता है, इस सवाल पर तमन्ना ने कहा, ‘‘दबाव तो रहता है पर मैं अधिक ध्यान नहीं देती. अब तक मैं ने कई भाषाओं में फिल्में की हैं. भाषा मेरे लिए कोई माने नहीं रखती. काम मैं ने मेहनत से किया है. दर्शकों को फिल्म अच्छी लगेगी. इस तरह की पीरियोडिकल फिल्में बौलीवुड में अधिकतर बनती हैं. अभी तक की हमारी भूमिकाओं में अलग भूमिका है.’’ आप के काम में परिवार वालों का सहयोग और फिल्मों में संघर्ष को ले कर आप क्या कहती हैं, ‘‘परिवार के सहयोग के बिना अभिनय करना संभव नहीं. मैं ने बहुत कम उम्र से अभिनय शुरू किया था. परिवार वालों का सहयोग हमेशा रहा, आज भी है.’’ यहां तक पहुंचने में काफी संघर्ष करना पड़ा? इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं, ‘‘हिंदी फिल्मों में लोगों के मन को समझने में संघर्ष करना पड़ा. फिर साउथ में अच्छी स्क्रिप्ट मिली तो मैं वहां चली गई. मुंबई से दक्षिण में गई. मेरे लिए भाषा से अधिक महत्त्व काम रखता है. यहां कोई मेरा गौडफादर नहीं है जो मेरे अनुरूप फिल्में लिखे. अच्छी फिल्में करने की इच्छा हमेशा रहती है. मुझे अभिनेत्री अनुष्का शेट्टी का काफी सहयोग मिला. मैं नई आई थी. मेरे पास कौस्ट्यूम डिजाइनर नहीं थी. उन्होंने अपनी डिजाइनर का नंबर दिया. इस के अलावा हिंदी फिल्मों में आने के बाद मुझे फैशन की जानकारी मिली, जो बहुत जरूरी थी.’’

अब तक तमन्ना साउथ की फिल्मों का बड़ा नाम बन चुकी हैं और हिंदी फिल्मों में भी संघर्ष कर रही हैं. ऐसे में वे साउथ और हिंदी फिल्मों में बड़ा अंतर देखती हैं. उन के मुताबिक, दोनों जगहों की ‘स्टोरी टैलिंग’ अलग है लेकिन आजकल वहां की फिल्में यहां और यहां की फिल्में वहां बनती हैं. इस के अलावा वहां फिल्मों की पब्लिसिटी केवल 1 दिन में कर ली जाती है जबकि बौलीवुड में फिल्म प्रमोशन पर अधिक जोर दिया जाता है. हालांकि दक्षिण भारतीय फिल्मों में अपेक्षाकृत कम टैलेंटेड अभिनेत्रियों को सफल होते देखा गया है, यहां तक कि कई बार बौलीवुड से नकारी गई कई अभिनेत्रियां साउथ फिल्म इंडस्ट्री में जम कर सराही गई हैं. उदाहरण के तौर पर तमन्ना हैं ही, साथ में हंसिका मोटवानी, नकुल प्रीत, नम्रता शिरोडकर, राधिका आप्टे, सयाली भगत और कई दूसरे नाम हैं जिन्होंने कैरियर तो बौलीवुड से स्टार्ट किया लेकिन असफलता हाथ लगने पर दक्षिण भारतीय फिल्मों का रुख किया और जबरदस्त कामयाबी हासिल की. तमन्ना को बतौर अभिनेत्री दक्षिण भारत में भले ही धुरंधर अभिनेत्री माना जाता हो लेकिन बौलीवुड में कामयाबी उन के लिए अभी दूर है.

शाहिद की शादी

अभिनेता शाहिद कपूर की शादी को ले कर मीडिया में खूब गौसिप होती रही है. कभी करीना के साथ तो कभी प्रियंका और आलिया के साथ उन की शादी की खबरें उड़ीं. लेकिन शाहिद ने दिल्ली के एक पारिवारिक मित्र के घर से अपने लिए दुलहन देखी और विवाहबंधन में बंध गए. दिल्ली में शादी कर शाहिद ने अपने फिल्मी मित्रों के लिए मुंबई में शानदार रिसैप्शन आयोजित किया जिस में बिग बी से ले कर फिल्म इंडस्ट्री के ढेरों कलाकारों ने शिरकत की. आयोजन की मेजबानी शाहिद कपूर के पिता पंकज कपूर कर रहे थे. जबकि उन की मां नीलिमा अजीज और सुप्रिया पाठक भी मौजूद थीं. अच्छी बात यही रही कि शाहिद ने अन्य बौलीवुड कलाकारों की तरह अपनी शादी को मीडिया की तमाशेबाजी से बचाए रखा. वैसे भी शादी बेहद निजी मामला होता है. उस को ले कर हंगामा क्यों?

नासा में हमारा एक दिन

अमेरिका प्रवास के दौरान हमारे पर्यटन स्थलों की सूची में नासा भी था. मैं व मेरे पति न्यूयार्क से फ्लोरिडा पहुंचे. वहां हमें लैक मेरी में अपने परिचित के घर रुकना था. दूसरे दिन वहां जाने के लिए हम ने बस में सीट बुक करा ली. बस को 8 बजे निकलना था. लगभग आधा घंटा पहले हम उस स्थान पर पहुंच गए जहां से बस को चलना था. वहां ग्रौसरी की अच्छी बड़ी शौप थी, सुबह ही वह खुल भी गई थी. अभी समय था इसलिए हम उस शौप में घुस गए. हम ने वहां से कुछ स्नैक्स के पैकेट यह सोच कर खरीद लिए कि पूरे दिन की घुमक्कड़ी में शायद वे हमारे काम आएं. बाहर आए तो सामने से बस आती दिखाई दी. हम ने नंबर चैक किया तो पाया, यह वही बस थी जिस से हमें जाना है. बस में बैठते ही वह चल पड़ी. यहां से सिर्फ हमें ही चढ़ना था. बीचबीच में कुछ जगहों पर रुक कर कुछ और यात्रियों को लिया. ड्राइवर कम कंडक्टर तथा गाइड हमें बीचबीच में पड़ते स्थानों के बारे में बताते जा रहे थे. लगभग डेढ़ घंटे बाद उस ने बस ‘एस्ट्रोनौट हौल औफ फेम’ के सामने रोकी तथा यात्रियों को घूमने के लिए 1 घंटे का समय दिया.

एस्ट्रोनौट हौल औफ फेम के अंदर प्रवेश करते ही एक बड़ी सी एस्ट्रोनौट अर्थात अंतरिक्षयात्री की मूर्ति दिखाई दी. अंदर एक बड़े हौल में उन के द्वारा समयसमय पर पहने जाने वाले कपड़े, स्पेस शटल के मौडल, पहली बार चंद्रमा पर उतरे मानव द्वारा वहां पहली बार चलाई गई गाड़ी का मौडल डिस्प्ले किया हुआ था. इस के साथ ही स्पेस की मिट्टी तथा अन्य कई तरह की जानकारियां वहां उपलब्ध थीं. हौल बहुत बड़ा नहीं था, इसलिए घूमने में बहुत समय नहीं लगा. वहां एक छोटे से रैस्टोरैंट के अतिरिक्त वाशरूम की भी सुविधा थी. हम तरोताजा हो कर बस में बैठ गए, धीरेधीरे सभी यात्री आ गए. बस चल दी. ड्राइवर ने हमें बताया कि अब हमारा अगला स्टौप कैनेडी स्पेस सैंटर होगा. कैनेडी स्पेस सैंटर जाने के लिए हमें इंडियाना रिवर को क्रौस करना पड़ा. ड्राइवर ने कैनेडी स्पेस सैंटर के पास बने पार्किंग स्थल पर बस पार्क की तथा शाम साढ़े 5 बजे तक लौट कर आने के लिए कहा. लगभग 12 बज रहे थे. हम आगे बढ़े, सामने नासा की भव्य इमारत देख कर रोमांचित हो उठे. जिस का नाम न जाने कितनी बार सुना था उसे आज देखने जा रहे थे. हम अंदर प्रविष्ट हुए तो हमें सूचना केंद्र दिखाई दिया. वहां उपस्थित सज्जन से हम ने बुकलेट लेते हुए पूछा, ‘‘पहले क्या देखें?’’ उस ने हम से आईमैक्स थिएटर देखने के लिए कहा.

शटल लौंच का अनूठा अनुभव

हमारा अगला दर्शनीय स्थल शटल का अनुभव था. हौल में जाने से पहले उन्होंने हम से हमारा बैग और अन्य चीजें रखने के लिए कहा. इस के लिए उन्होंने हमें एक लौकर दिया. उस में सामान रख कर हम अंदर गए. पहले हमें एक हौल में बिठा कर शटल लौंच ऐक्सपीरिएंस के बारे में जानकारी दी गई. इस के बाद हमें एक दूसरे हौल में ले जाया गया. वहां हमें ग्रुप में बांट दिया गया. उस के बाद कुछ निर्देशों के बाद हमें एक कुरसी पर बैठने का निर्देश दिया गया. 4-4 कुरसियों का एक रौकेटनुमा केबिन था. केबिन में घुसते ही दरवाजे लौक हो गए तथा हमें बैल्ट बांधने का आदेश दिया गया. इस में एक इंजीनियर था, एक नेवीगेटर, एक पायलट तथा एक कमांडर. हमें एनाउंसर के निर्देश के आधार पर अपना यान संचालित करना था. हम ने मोटर, सिमुलेटर थ्रिल राइड के द्वारा शटल लौंच का अनुभव किया. इस क्रम में हमारा यान कभी नदीनालों से होता हुआ पहाड़ से टकराता प्रतीत होता तो कभी स्पेस में चांदतारों के बीच घूमता महसूस होता. हमें पता था कि हमारा यान कहीं नहीं टकराएगा. हम स्पेस या अर्थ में वास्तव में नहीं घूम रहे हैं बल्कि एक केबिन में बैठे सिर्फ उस का एहसास कर रहे हैं पर फिर भी लाइट और साउंड इफैक्ट के कारण हमारी हार्टबीट बढ़ गई थी. जब शो समाप्त हुआ तब लगा हम ने बाहर बोर्ड पर लिखी वार्निंग की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया, जिस में लिखा था कि जिन को हार्ट प्रौब्लम हो, या जिन को ब्लडप्रैशर हो या बैक या नैक प्रौब्लम या कोई भी ऐसी बीमारी जो इस प्रकार के अनुभव से बढ़ जाए, वह इस में न बैठे. हम दोनों को ही ब्लडप्रैशर की समस्या थी. कुछ हुआ तो नहीं पर अगर कुछ हो जाता तो इस अनजान जगह में…सोच कर सिहर गए पर फिर लगा, जब घूमने निकले हैं तो डर क्यों?

शटल ऐक्सप्लोरर

हम शटल ऐक्सप्लोरर में गए जहां एक रौकेट का मौडल था. उस में रौकेट के अंदर के भागों को दर्शाया गया. उस के अंदर जाने के बाद ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो हम वास्तविक रौकेट के अंदर के भागों का अवलोकन कर रहे हैं.

स्पेस सैंटर टूर स्टौप

अब हम नासा के अन्य भागों को घूमने के लिए स्पेस सैंटर टूर स्टौप पर गए जहां से नासा के द्वारा चलाई जा रही बस में बैठ कर अन्य स्थानों के अवलोकनार्थ हमें जाना था. लंबी कतार थी, गरमी भी काफी थी. तभी एक हलकी सी बौछार ने हमें गरमी से राहत दी. ऊपर देखा तो पाया जगहजगह पर ऐसे फौआरे लगे हैं जो यात्रियों के ऊपर पानी का हलका सा छिड़काव करते हुए उन को गरमी से राहत पहुंचा रहे हैं. नंबर आने पर हम बस में सवार हुए. उसी समय हम ने देखा कि व्हीलचेयर को बस में चढ़ाने के लिए बस से एक स्लाइडर नीचे आया तथा व्हीलचेयर के चढ़ते ही वह अंदर चला गया. यह देख कर बहुत अच्छा लगा. वृद्ध और विकलांग लोगों के लिए वह बहुत अच्छी व्यवस्था थी. इस के द्वारा बिना किसी परेशानी के वे भी बस में सवार हो गए. सब के अंदर बैठते ही बस चल दी. उस ने हमें रौकेट लौंच कौंप्लैक्स ‘39 औब्जर्वेशन गैंट्री’ में उतारा.

39 औब्जर्वेशन गैंट्री

यहां पहले हमें एक फिल्म के जरिए रौकेट लौंच की जानकारी दी गई, उस के बाद हम लौंच पैड पर चढ़े जहां से हम ने क्राउलर वे तथा व्हीकल एसैंबली बिल्ंिडग देखने का आनंद लिया.

अपोलो सैटर्न फिफ्थ

39 औब्जर्वेशन गैंट्री को देखने के बाद हम ने बस पकड़ी तो उस ने हमें ‘अपोलो सैटर्न फिफ्थ’ पर उतारा. वहां हम ने एक बड़े हौल में प्रवेश किया. उस हौल में मशीनें लगी हुई थीं जिन के द्वारा लौंच किए रौकेट को कंट्रोल किया जाता है. वह फायरिंग रूम थिएटर था जिस के द्वारा अपोलो के लौंच का प्रसारण किया जा रहा था जो पहली बार चंद्रमा पर उतरा था. वैसे तो इस तरह के दृश्य टीवी पर मैं ने कई बार देखे हैं, लगभग हर बार जब भी किसी रौकेट को लौंच किया जाता है पर अपनी आंखों से उन मशीनों को देखना अपनेआप में अद्भुत था.

इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन सैंटर

अब हमारा दूसरा स्टौप ‘इंटरनैशनल स्पेस स्टेशन सैंटर’ था. वहां बड़ीबड़ी मशीनें लगी हुई थीं. दरअसल, वहां रौकेट के विभिन्न भागों के निर्माण का काम चल रहा था. वह एक बड़ा प्रोजैक्ट था जो हमारे टूर प्रोजैक्ट का एक हिस्सा था. उन भागों को हम प्रोजैक्ट के चारों ओर बने पथगामी मार्ग से ही देख सकते थे, अंदर प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी. एक स्टौप से दूसरे स्टौप पर जाते हुए हम ने नासा हैडक्वार्टर भी देखा जिस में लगभग 6 हजार कर्मचारी काम करते हैं. वह काफी बड़ी एवं भव्य इमारत है. इस के साथ ही दूर से बस के द्वारा हम ने वे स्थान भी देखे जहां लौंचिंग पैड बने हुए हैं, जहां से स्पेस शटल को लौंच किया जाता है. पर्यटकों को वहां जाने की सुविधा नहीं थी. यह जगह एटलांटिक ओशन के पास बनी हुई है. अब हम वापस स्पेस सैंटर टूर स्टौप पर आ गए. इस समय तक भूख काफी लग आई थी. हम वहीं बने रैस्टोरैंट में बैठ गए. संतुष्ट मन से खापी कर तथा थोड़ा आराम करने के बाद बाहर आए तो एक जगह एस्ट्रोनौट के कपड़े पहना मौडल बना हुआ था पर सिर वाली जगह खाली थी, कुछ लोगों को फोटो खिंचवाते देखा तो हम ने भी एकदूसरे का फोटो खींच लिया. समय बाकी था. हम वहीं बने रौकेट गार्डन में चले गए. वहां पर एक बहुत बड़े स्पेस में रौकेट के विभिन्न मौडल बने हुए थे. कुछ देर वहां बैठे और घूमघूम कर देखते रहे. साढ़े 5 बज रहे थे. हम ने नासा पर अंतिम बार नजर डाली तथा बाहर निकल कर बस में बैठ गए.

यात्रियों के बैठते ही बस चल पड़ी. जहां हम सुबह एक आस ले कर चले थे उस आस से तृप्त हो जाने की खुशी तथा एक अनोखा एहसास ले कर लौट रहे थे. यद्यपि शरीर थक कर चूर हो गया था जबकि मन सारी यादों, बातों को मन ही मन दोहरा रहा था. बस ड्राइवर जहां सुबह से लगातार जानकारी देता जा रहा था, अब चुप था. अपनी मंजिल आने पर यात्री उतरते तथा अपरिचित बन जाते. हम भी संतुष्ट मन से अपने स्टौप पर उतरे. नई यादों और अनुभवों के साथ हमारा दिन खुशनुमा हो गया था.

यूनान समझौते से शेयर उछला

भारतीय शेयर बाजार ने यूनान समझौते को हाथोंहाथ लिया. चौतरफा खरीदारी से बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक13 जुलाई को 300 अंक चढ़ कर 27,961 पर बंद हुआ. निफ्टी 99 अंकों की बढ़त के साथ 8,460 पर बंद हुआ. इस से पहले पिछले पखवाड़े में मानसून के कमजोर रहने के पूर्वानुमान का बाजार पर बड़ा नकारात्मक असर रहा. सरकार ने भी कमजोर मानसून से निबटने की रणनीति तैयार कर के सभी को डरा दिया था. हालांकि बाद में मानसून अच्छा रहने की खबर आई और बाजार में निवेशकों का उत्साह बढ़ा. जुलाई की शुरुआत के पहले दिन सूचकांक ढाई माह बाद 28 हजार अंक के पार पहुंचा जिस से निवेशकों का भरोसा बढ़ा. इस का असर उस दिन रुपए पर भी पड़ा और रुपया लंबी छलांग लगाते हुए एकदिवसीय कारोबार में 29 पैसे मजबूत हुआ. भारतीय अर्थव्यवस्था के आंकड़े अच्छे रहने और विकास दर बढ़ने के विदेशी एजेंसियों के अनुमान के साथ ही सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को उन की जरूरत के अनुसार निधि उपलब्ध कराने की घोषणा की, जिस का बाजार पर अच्छा असर देखने को मिला. बाजार में तेजी का यह रुख जून के दूसरे पखवाड़े में लौट आया था, जो जुलाई में भी जारी है. हालांकि बीच में सूचकांक में थोड़ी सी गिरावट आई थी.

 

भारत भूमि युगे युगे

सैल्फी विद वाइफ

महिलाओं खासतौर से बेटियों का स्वाभिमान और सम्मान बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाकई नायाब तरीका सुझाया है कि बेटी के  साथ सैल्फी लो, पोस्ट कर दो. इस से साबित हो जाएगा कि भारत में नारी पूजी जाती है पर तरीका इलैक्ट्रौनिक हो गया है. आइडिया बुरा नहीं कहा जा सकता लेकिन सोशल साइट्स पर युवाओं के बराबर से ही अधेड़ और बुजुर्ग सक्रिय हैं जिन का पहला शौक पत्नी के साथ फोटो खींच कर पोस्ट करना और सैल्फी लेना होता है. ये लोग अपनी शादी की वर्षगांठ पर पत्नी संग 20-25 साल पहले या हाल में ही खिंचवाए फोटो डाल कर बच्चों जैसे खुश होते हैं. साथ ही, वे लिखते हैं, इतने साल कब, कैसे, गुजर गए, पता ही नहीं चला. इस पर उन्हें खूब लाइक और कमैंट्स भी मिलते हैं. नरेंद्र मोदी दांपत्य की इस प्रगाढ़ता, रोमांस और रोमांच को नहीं महसूस कर सकते जिन्हें अपनी जिद, कैरियर और उसूलों के चलते खुद उन्होंने ही खोया है.

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खानदानी घोटाला

छत्तीसगढ़ गरीब और पिछड़ा राज्य नहीं रह गया है, यह बताने के लिए वहां की सरकार के मुखिया रमन सिंह ने बजाय इश्तिहारों के, एक कथित घोटाले का सहारा लिया. कांग्रेस का आरोप है कि रमन सिंह ने धान घोटाले में 36 करोड़ रुपए का गालमाल किया है. घोटाले शाश्वत हैं और रहेंगे. हरएक घोटाले की अपनी खूबी होती है. छत्तीसगढ़ घोटाले की खूबी यह है कि इस में रमन सिंह की पत्नी और साली सहित रसोइए का भी नाम आया. गोया कि अब चावल पकाना भी गुनाह हो चला है. सच कुछ भी हो लेकिन दिलचस्प बात यह है कि घोटालों में अब परिवारजनों का नाम आना एक अनिवार्यता सी हो चली है. वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के बाद रमन सिंह तीसरे भाजपाई मुख्यमंत्री हैं जिन का नाम घोटाले में सपरिवार लिया गया.

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क्रूर गर्ल

सड़क हादसे अकसर लापरवाही से होते हैं. सांसद व अभिनेत्री हेमा मालिनी की महंगी कार से दौसा में एक सस्ती कार टकराई तो उसे नतीजा भी मासूम बेटी को खो कर भुगतना पड़ा. हैरत की बात यह है कि कार हेमा मालिनी नहीं चला रही थीं. इस के बाद भी चोट उन्हें ही ज्यादा आई. वे ड्राइवर के पीछे बैठी थीं, इसलिए होना यह चाहिए था कि ड्राइवर को चोट आती. वजह, जोरदार टक्कर आमनेसामने से हुई थी. इस दुखद हादसे पर दुख जता चुकी हेमा मालिनी ने मुंबई पहुंचने के बाद 8 जुलाई को यह कहते पलटी मारी कि गलती उस पिता की थी जो ट्रैफिक नियमों की अनदेखी कर कार चला रहा था. जाहिर है, हेमा बचाव के लिए इतनी क्रूरता दिखा रही हैं. जिस मांबाप ने अपनी मासूम बच्ची खोई है उन का दर्द तो वे महसूस कर सकते हैं. ऐसे में हेमा का यह बयान जले पर नमक छिड़कने जैसा ही है.

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युद्धिष्ठिर का संकट

गजेंद्र चौहान कौन हैं, यह आमतौर पर लोग नहीं जानते. वजह, उन की थोड़ीबहुत पहचान टीवी धारावाहिक महाभारत के युधिष्ठिर की है. ये युधिष्ठिर दिक्कत में है, फिल्म ऐंड टैलीविजन इंस्टिट्यूट औफ इंडिया के नवनियुक्त अध्यक्ष गजेंद्र चौहान का विरोध इस संस्थान के छात्र यह कहते करते रहे कि वे इस पद के लिए नाकाबिल हैं और यह नियुक्ति भाजपा के भगवा एजेंडे का हिस्सा है. छात्रों की दलीलें हैं कि गजेंद्र को अध्यक्ष बनाए जाने से अभिव्यक्ति की आजादी बाधक होगी. इस बाबत छात्र वित्त मंत्री अरुण जेटली से मिले तो उन्होंने इन एकलव्यी चेलों को टरका दिया. इस उपेक्षा से छात्रों का गुस्सा तो और बढ़ा ही लेकिन अभिनेत्री पल्लवी जोशी ने भी गवर्निंग काउंसिल के पद से इस्तीफा यह कहते दे दिया कि वे नहीं चाहतीं कि छात्र आधेअधूरे ज्ञान के साथ फिल्म उद्योग में पहुंचें. यानी यह महाभारत अभी कुछ एपिसोड और खिंचेगा.   

सरकारी तंत्र की सुलझन

50 वर्षों के वैमनस्य के बाद अमेरिकीक्यूबन राजनीतिक संबंधों में सुधार की नई किरण चमकी है. जनवरी 2015 में जन्मी 7.7 पाउंड की नन्ही किरण का नाम है जेमा, जो क्यूबन खुफिया एजेंट जेरार्दो एर्नान्देज और क्यूबन खुफिया एजेंसी के लिए काम करने वाली एड्रियाना पेरे की पुत्री है. जेमा का अस्तित्व आधुनिक विज्ञान और तकनीक का चमत्कार तो है ही, साथ ही उलझी राजनीति के पेंच सुलझाने का अनोखा प्रयास भी है. अमेरिका और क्यूबा के बीच समुद्री फासला 100 मील से कम है. 50 वर्षों के वैमनस्य के दौरान क्यूबावासियों का फ्लोरिडा के तट की ओर पलायन अखबारों की सुर्खियां बनता जा रहा है. क्यूबा के कम्युनिस्ट प्रशासन द्वारा दमन के शिकार होने के दावेदारों को अमेरिका में शरण मिली है. अमेरिका में प्रवासी क्यूबन जनसंख्या अमेरिकी चुनावों के दौरान दमदार वोटबैंक होती है. विश्व के सभी देशों की खुफिया एजेंसियों द्वारा एकदूसरे के गिरेबां में ताकझांक करना अकाट्य सत्य है और विशेषतौर पर विरोधी देशों में आंतरिक स्थिति, शांति व अशांति की खोजखबर रखना कूटनीति का अभिन्न अंग. समयसमय पर जासूसों की पकड़धकड़ भी सामान्य बात है.

छू गया अंतर्मन

क्यूबन नागरिक एड्रियाना पेरे के पति और क्यूबन खुफिया एजेंट 49 वर्षीय जेरार्दो एर्नान्देज अमेरिका में विभिन्न आरोपों के लिए पिछले 16 सालों से आजीवन कारावास की सजा काट रहे थे. एड्रियाना पेरे भी क्यूबन खुफिया एजेंसी में कार्यरत हैं. पति से मिलने अमेरिका आने के लिए एड्रियाना पेरे को वीजा बहुत सालों बाद और बहुत कठिनाई से मिला. पिछले डेढ़ साल में वे अपने पति से केवल 2 बार मिल पाई हैं. 1976 से 2008 तक क्यूबा में फिदेल कास्त्रो के शासन के बाद 2008 में सत्तारूढ़ होने वाले उन के भाई राउल कास्त्रो के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच राजनीतिक संबंधों में परिवर्तन के लक्षण नजर आने लगे. अमेरिकी सेनेटर पैट्रिक लेही 1990 से क्यूबा की यात्रा करते रहे हैं और फरवरी 2013 से अमेरिकीक्यूबन संबंधों में सुधार की उच्च स्तरीय कोशिशों ने जोर पकड़ा. इस दौरान क्यूबा में बंदी अमेरिकी खुफिया एजेंट ऐलन रौस और रोलैंदो सर्राफ की रिहाई की पैरवी करने के लिए सेनेटर लेही और उन की पत्नी मर्सेल पौमर्लोह फिर क्यूबा पधारे. सेनेटर की पत्नी से भेंट कर के एड्रियाना ने निवेदन किया कि पति से लंबी जुदाई के कारण न केवल उन का दांपत्य जीवन सूना है बल्कि मातृत्व के उन के स्वप्न भी उन की बढ़ती आयु के कारण धूमिल हुए जा रहे हैं. लेही दंपती स्वयं बालबच्चों और नातीपोतों वाले हैं. 44 वर्षीय एड्रियाना की समस्या का मानवीय पक्ष उन के अंतर्मन को छू गया. अमेरिकी जेलों में बंदियों को पत्नियों के साथ सहवास की अनुमति नहीं है लेकिन अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने समस्या का समाधान खोज ही लिया.

एड्रियाना को मिला मातृत्व सुख

अमेरिकी कारागार से मुक्त किए गए 2 अन्य क्यूबन नागरिकों सहित जेरार्दो एर्नान्देज 17 दिसंबर, 2014 को जब क्यूबा की राजधानी हवाना पहुंचे तो उन का स्वागत करने वाले जनसमूह में सब से आगे उन की पत्नी एड्रियाना थीं, गर्भावस्था के चरम चरण में. लोगों के बीच कानाफूसी गरम हुई कि 2,245 मील दूर कैलिफोर्निया में पति बंदी और क्यूबा में रह रही एड्रियाना गर्भवती? उन के चरित्र पर संदेह हो, इस से पहले मामले की नजाकत को समझते हुए अमेरिकी अधिकारियों को गोपनीयता का आवरण हटाना पड़ा कि अमेरिकी जेलों में बंदियों को पत्नियों के साथ सहवास की अनुमति न सही, लेकिन कृत्रिम गर्भारोपण के पूर्व एड्रियाना के निवेदन को उदाहरण बना कर लगभग असंभव को संभव बनाया गया. प्रथम प्रयास असफल रहा किंतु दूसरे प्रयास से एड्रियाना ने गर्भ धारण कर लिया और पति के क्यूबा लौटने के बाद हर्षोल्लास सहित पुत्री को जन्म दिया. एड्रियाना को मातृत्व का सुख प्रदान करने के लिए कृत्रिम गर्भारोपण का सारा खर्च क्यूबन सरकार ने वहन किया. क्यूबावासी आनंदित हैं और प्रशासन अमेरिकी सौहार्द्र से प्रभावित है. विश्वभर में दुश्मनी की खबरों से आक्रोश व क्षोभ से तनी भृकुटियां ऐसी खबरों से तनिक तो ढीली होंगी ही.

व्यापमं खून से रंगा घोटाला

सरिता के जून (प्रथम), 2015 के अंक में प्रकाशित लेख ‘फैसले के पहले सजा भुगतते व्यापमं घोटाले के आरोपी’ में व्यापमं घोटाले में लिप्त आरोपियों की परेशानियों का जिक्र किया गया था जिस में मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव के बेटे शैलेष यादव की कथित आत्महत्या का उल्लेख भी प्रमुखता से था कि उस की मौत संदिग्ध है और अगर आत्महत्या है तो गिरफ्तारी का डर और ग्लानि इस की बड़ी वजहें हैं. लेख के आखिर में यह भी कहा गया था कि परेशान और आत्महत्या कर मर रहे लोगों से आम लोगों को कतई सहानुभूति नहीं क्योंकि लोग सोचते हैं कि घोटाला किया है तो अब भुगतो भी. इस लेख की मंशा पर जब लोगों का ध्यान गया तो व्यापमं घोटाले से किसी भी रूप में जुड़े लोगों की मौत पर शक व सवाल उठ खड़े होने लगे कि वे आत्महत्याएं हैं या हत्याएं? वजह, कुछ मौतों का वाकई संदिग्ध होना था. ऐसी ही एक संदिग्ध मौत की पड़ताल करने के लिए 4 जुलाई को एक प्रमुख न्यूज चैनल (आज तक) के संवाददाता अक्षय सिंह मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ के कसबे मेघनगर आए थे. यह संदिग्ध मौत इंदौर मैडिकल कालेज की एक 19 वर्षीय छात्रा नम्रता डामोर की थी जिस पर अक्षय को उस के परिजनों का इंटरव्यू और पक्ष सुनना था. नम्रता का नाम उन आरोपी छात्रों की फेहरिस्त में शुमार था जिन्होंने गलत तरीके से पीएमटी के जरिए एमबीबीएस में दाखिला ले लिया था और पकड़े गए थे.

नम्रता को एमबीबीएस में दाखिला व्यापमं घोटाले के सरगना डा. जगदीश सागर ने दिलाया था जिस के संपर्क में वह दूसरे आरोपी डा. संजीव शिल्पकार के जरिए आई थी. और संजीव शिल्पकार के संपर्क में वह एक दूसरे छात्र गौरव के जरिए आई थी. नम्रता की लाश 7 जुलाई, 2012 को उज्जैन में रेल की पटरियों पर पड़ी मिली थी. हादसे के दिन वह इंदौर से जबलपुर जाने को निकली थी. इस मौत को पुलिस ने पहले खुदकुशी और फिर हादसा बता कर मामले का खात्मा कर दिया था. बहरहाल, अक्षय सिंह नम्रता की मौत के तार व्यापमं घोटाले से जोड़ने के लिए मेघनगर पहुंचे थे. उन्होंने नम्रता के घर वालों से बातचीत की और जैसे ही उस के घर से बाहर निकले वैसे ही उन की भी मौत हो गई.

फिर मचा बवाल तो…

अपने संवाददाता की संदिग्ध मौत पर न्यूज चैनल ने तो जम कर बवाल मचाया ही, देखते ही देखते पूरा मीडिया भी उस के सुर में सुर मिलाने लगा. मुद्दा था अक्षय की मौत की जांच, जिसे सीएम शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत मान लिया. अक्षय को चक्कर आए थे और वे गिर पड़े थे. यह सब अचानक एकाएक ही हुआ था, जिस से उन के साथी हड़बड़ा गए. उन्होंने अक्षय को पानी पिलाने की कोशिश की और तुरंत उन्हें मेघनगर स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए जहां मौजूद डाक्टर ने जांच कर अक्षय को मृत घोषित कर दिया. अक्षय के साथियों को स्वाभाविक है यकीन नहीं हो रहा था कि जो शख्स चंद मिनट पहले अच्छाखासा बैठा नम्रता के परिजनों से बात कर रहा था उस की अचानक मौत कैसे हो सकती है. लिहाजा, वे उन्हें गुजरात के दाहोद ले गए, वहां भी डाक्टरों ने अक्षय की मौत की पुष्टि की. न्यूज चैनल्स का कहना यह था कि अक्षय की मौत संदेहास्पद है क्योंकि वे एक संगीन घोटाले की रिपोर्टिंग करने गए थे. अप्रत्यक्ष तौर पर उन की हत्या की आशंका जताई गई. बिलाशक अक्षय एक प्रतिभावान और होनहार पत्रकार थे, उन में अनंत संभावनाएं मौजूद थीं. उन की असामयिक मौत वाकई दुख और खेद की बात है. अगर यह मौत साजिश थी, जैसा कि चैनल्स ने इशारा किया, तो तय है झाबुआ के मेघनगर आने की खबर और वजह साजिशकर्ताओं को मालूम थी. लेकिन मौत जिस तरीके से हुई उसे देख हत्या वाली थ्योरी से इत्तफाक नहीं रखा जा सकता और रखा जाए तो मानना यह पड़ेगा कि वाकई व्यापमं घोटाले के कर्ताधर्ताओं के हाथ बहुत लंबे हैं और वे बेहद खुराफाती दिमाग वाले हैं. अक्षय की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह हार्टअटैक बताई गई थी पर उन का बिसरा परिजनों की मांग पर जांच के लिए दिल्ली के एम्स भेजा गया था जिस की जांच ये पंक्तियां लिखे जाने तक पूरी नहीं हो पाई थी.

अक्षय की मौत पर देशभर के नेताओं ने अफसोस जताया. इन में राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रमुख थे. पर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने शोक जताने के साथसाथ यह भी कहा कि अक्षय उन से मिले थे और उन्होंने उन्हें सावधान रहने की सलाह दी थी. इधर, मीडिया का आक्रोश शबाब पर था जिस का फायदा उठाते हुए कांग्रेस ने व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की अपनी मांग दोहराई तो मीडिया ने उस के सुर में सुर मिला कर आसमान सिर पर उठा लिया. अब निशाने पर शिवराज सिंह चौहान थे जिन्होंने इस मांग को सिरे से खारिज कर दिया. इस पर बात और बिगड़ी और रहीसही कसर उमा भारती ने इंटरव्यू में यह कहते कर दी कि शिवराज सिंह को कोई रास्ता निकालना चाहिए और सक्षम एजेंसी से इस घोटाले की जांच करानी चाहिए. बकौल उमा, खुद वे अपनी प्रतिष्ठा को ले कर भयभीत हैं और पहले भी इस घोटाले में उन का नाम जुड़ने से काफी आहत हुई थीं. उमा भारती के इस बेहद नपेतुले सहीसधे बयान ने हाहाकार सा मचा दिया यानी आग में घी डालने का काम किया. अब तक देशभर में फिर से व्यापमं घोटाले की चर्चा होने लगी थी. इस चर्चा में यह बात भी प्रमुखता से शामिल हो गई थी कि व्यापमं घोटाले में किसी न किसी रूप में जुड़े 45 लोगों की मौतों की जांच होनी चाहिए. हालांकि सरकारी आंकड़े 34 मौत ही बता रहे हैं.

अपने दम पर प्रहार झेल रहे शिवराज सिंह चौहान अपने राजनीतिक कैरियर में पहली दफा लड़खड़ाते नजर आए. 6 जुलाई को न्यूज चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में उन को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि उन्होंने आपा नहीं खोया, यही काफी है. यह मीडिया की एकजुटता का असर ही था कि आम लोग यह कहने पर मजबूर हो गए कि आखिर क्यों नहीं वे व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की मांग मान लेते. इधर, भाजपा की अंदरूनी हालत भी गड़बड़ हो चली थी. कहने को पूरी पार्टी शिवराज सिंह के साथ खड़ी थी लेकिन यह सच नहीं था. गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सीबीआई जांच को ले कर गोलमोल जवाब दे कर बात को टरका दिया. लेकिन दूसरे ही दिन 7 जुलाई को शिवराज सिंह ने भोपाल में पत्रकारवार्त्ता बुलाई और व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की मांग मान लेने की बात कही. बकौल शिवराज, उन्होंने रातभर जाग कर सोचा और तय किया कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है और जब जनताजनार्दन चाहती है तो वे हाईकोर्ट से सीबीआई जांच की मांग करेंगे. ऐसा उन्होंने किया भी. एक विशेष हवाई जहाज से उन का आग्रहपत्र भोपाल से जबलपुर हाईकोर्ट पहुंचाया गया. शिवराज सिंह चौहान को घुटने टेकते देख कांग्रेसी और भी हमलावर हो उठे और यह मांग करने लगे कि जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए. यह वही कांग्रेस है जो व्यापमं घोटाला उजागर होने के बाद 2 साल में शिवराज को नहीं झुका पाई थी. अभी भी उस ने सीएम को नहीं झुकाया है. झुकाने का श्रेय मीडिया को जाता है जिस ने 72 घंटे में जता दिया कि मीडिया को मीडिया क्यों कहा जाता है.

क्या है व्यापमं घोटाला

व्यापमं घोटाले को अब 2 हिस्सों में बांट कर ही समझा जा सकता है. पहला, प्री मैडिकल टैस्ट (पीएमटी) और दूसरा, भरती घोटाला. इस में अभी तक तकरीबन 2,500 आरोपी बनाए गए हैं जिन में से अधिकांश पीएमटी के हैं. 600 फर्जी डाक्टरों की पहचान हुई है यानी ऐसे लोग जिन्हें बोलचाल की भाषा में मुन्नाभाई कहा जाता है. मैडिकल में दाखिले के लिए पैसे देने वालों की उत्तरपुस्तिका में हेरफेर की गई, उम्मीदवारों की जगह दूसरों ने परीक्षा दी जिन्हें स्कोरर या सौल्वर कहा जाता है या फिर ऐसे उम्मीदवार जिन के ऐडमिशन फौर्म और काउंसलिंग फौर्म पर अलगअलग फोटो थे, उन की तादाद भी कम नहीं. दरअसल, फर्जीवाड़ा इस पद्धति से शुरू हुआ था कि परीक्षा में राम की जगह श्याम बैठा जबकि चुना राम गया. इन में से कई तो विधिवत डाक्टर बन चुके हैं. साल 2006 में महज 2 मुन्नाभाई पकड़े गए थे जिन पर कार्यवाही यानी परीक्षा निरस्त साल 2011 में हुई. यह कानूनी खामी कायम है. एसटीएफ ने जांच के नाम पर 2 साल तक लीपापोती की. मकसद, लोगों को यह बताना भर था कि कुछ हो रहा है. अंदाजा है कि फर्जी डाक्टरों की तादाद 2 हजार के लगभग है जिन्होंने अपने दाखिले के लिए औसतन 10 लाख रुपए की घूस और इतने ही पैसे पढ़ाई पर खर्च किए थे. अभिभावकों को यह सौदा घाटे का नहीं लगा तो वजह डाक्टरों की कमी से उपजी अनापशनाप कमाई है. हालत यह है कि सूबे में सरकार एमबीबीएस डाक्टरों को करार पर नौकरी के लिए 75 हजार रुपए महीने देने को तैयार है पर डाक्टर इस पगार पर भी राजी नहीं हो रहे.

व्यापमं घोटाले का दूसरा हिस्सा भरतियों में घूस का है जो साल 2004 से शुरू हुआ था. शुरू के 4 साल तो नाममात्र की भरती परीक्षाएं हुईं लेकिन 2008 से ले कर 2014 तक कुल 58 भरती परीक्षाएं हुईं. ये सभी तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की थीं. भरतियों में फर्जीवाड़ा, पैसा और सिफारिश तीनों चले. ऐसे लोग कितने होंगे जिन का कोई सटीक आंकड़ा किसी के पास नहीं. लेकिन 15 जनवरी को खुद शिवराज सिंह ने विधानसभा में कहा था कि उन के 7 साल के कार्यकाल में अब तक 1 लाख 27 हजार नियुक्तियां हुई हैं जिन में 1 हजार गलत व फर्जी हैं. वाकई गजब है मध्य प्रदेश, जहां खुलेआम नौकरियां बिकती हैं, मैडिकल की सीटों की बोली लगती है और जब राज खुलने लगते हैं तो कुछ रसूखदार पकड़े जाते हैं और फिर संदिग्ध मौतें होने लगती हैं. रतलाम के पूर्व निर्दलीय विधायक पारस सकलेचा की मानें तो एसटीएफ ने महज 20 फीसदी ही घपला उजागर किया है. अब सीबीआई जांच में असल चेहरे बेनकाब होंगे जो काफी चौंका देने वाले होंगे. व्यापमं घोटाले को ले कर शुरू से ही आक्रामक रहे इस विधायक ने इस घोटाले को ले कर हाईकोर्ट में याचिकाएं भी लगाई थीं.

कठघरे में एसटीएफ

अब व्यापमं घोटाले की जांच सीबीआई करेगी तो कहा जा रहा है कि उस का आधार अभी तक की एसटीएफ यानी स्पैशल टास्क फोर्स की जांच होगी. अगर ऐसा हुआ तो एक संभावना इस बात की भी है कि सीबीआई एसटीएफ को ही कठघरे में खड़ा कर दे. इस की कई वजहें हैं. मसलन, पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को 8 महीने बाद आरोपी बनाया जाना और व्यापमं की पूर्व चेयरपर्सन रंजना चौधरी को बजाय गिरफ्तार करने के, सरकारी गवाह बना देना. रंजना पर 35 लाख रुपए लेने का आरोप है. एसटीएफ पूरी जांच में आईएएस व आईपीएस अधिकारियों का लिहाज करती रही. जिन लगभग 2,500 आरोपियों की चर्चा जोरशोर से हो रही है उन में से 2,480 छात्र, दलाल, स्कोरर या फिर अभिभावक हैं. यानी जांच में चुनचुन कर लोगों को छोड़ा गया है. पंकज त्रिवेदी ने अपने बयान में अहम लोगों के नाम लिए थे पर उन का खुलासा एसटीएफ ने नहीं किया. हैरत की बात है कि अब तक की जांच में उस ने चिकित्सा शिक्षा विभाग को दूर रखा जो व्यापमं से चुन कर आए छात्रों को दाखिला देता है. हालांकि इस विभाग की जिम्मेदारी नहीं है कि वह फर्जियों की पहचान करे लेकिन यह तो उस की जिम्मेदारी बनती है कि अपने स्तर पर मुन्नाभाइयों की जांच करे. वजह, साल 2009 से ही फर्जी परीक्षार्थियों का हल्ला शुरू हो चुका था. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने साल 2009 से 2012 तक यह विभाग अपने पास रखा था.

एसटीएफ के वजूद में आने से आरोपियों को कोई फर्क नहीं पड़ा, इस के वजूद में आने के बाद भी हुआ फर्जीवाड़ा इस की गवाही देता है. एसटीएफ का गठन दरअसल सीबीआई जांच से बचने के लिए किया गया था. शिवराज सिंह की इस मंशा पर पानी फिरा है.

भ्रष्टाचारियों का गठजोड़

1970 तक मध्य प्रदेश के चिकित्सा महाविद्यालयों में दाखिले हायर सैकंडरी बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, बीएससी (जीव विज्ञान) प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के बाद मैरिट के आधार पर दिए जाते थे. यानी जिस के बीएससी फर्स्ट ईयर में अच्छे अंक होते थे वह एमबीबीएस में प्रवेश पा जाता था. इसी साल सरकार ने प्री मैडिकल टैस्ट लेने के लिए एक बोर्ड बनाया जिसे बोलचाल की भाषा में प्री मैडिकल टैस्ट (पीएमटी) कहा गया. सूबे में आयोजित होने वाली यह पहली राज्य स्तरीय प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा थी. 1981 में इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए पीईटी यानी प्री इंजीनियरिंग टैस्ट की परीक्षा भी आयोजित की जाने लगी. इसी साल सरकार ने इन दोनों बोर्ड को मिला कर एक नया नाम दिया जो आज दुनियाभर में चर्चा में है, ‘व्यापमं’ यानी व्यावसायिक परीक्षा मंडल’. धीरेधीरे तमाम व्यावसायिक तकनीकी स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश व्यापमं के जरिए होने लगे. तीसरी परीक्षा के रूप में प्री एग्रीकल्चर टैस्ट (पीएटी) भी इसी के जरिए होने लगी. फिर प्री पौलिटैक्निक, प्री फार्मेसी टैस्ट, जनरल नर्सिंग ट्रेनिंग, बीएससी (नर्सिंग), एमसीए और बीएड (बैचलर औफ एजुकेशन) जैसी महत्त्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं भी व्यापमं आयोजित कराने लगा.

अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में गठित व्यापमं का मूल स्वरूप किसी गोरखधंधे से कम नहीं. वजह, इस में तमाम कर्मचारी व अधिकारी दूसरे विभागों खासतौर से उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा से प्रतिनियुक्ति पर आते थे. शुरुआत में व्यापमं का काम प्रश्नपत्र तैयार करना, उत्तर पुस्तिकाएं जंचवाना और परिणाम घोषित करना भर था. सरकारी भाषा में यह स्ववित्त पोषित स्वायत्व निर्णायक निकाय है. अपने खर्चे निकालने के लिए व्यापमं ने परीक्षा फौर्म बेचने शुरू किए थे तो तब के छात्रों को हैरत हुई थी क्योंकि इस से पहले तक हायर सैकंडरी या बीएससी फर्स्ट ईयर की मार्कशीट से ही काम चल जाता था और दुनियाभर के सर्टिफिकेट भी नहीं लगाने पड़ते थे. महत्त्वपूर्ण और शिक्षा से जुड़े विभागों के प्रमुख सचिव या सचिव को बोर्ड का पदेन सदस्य माना गया और 9 सदस्य भी विभिन्न सरकारी व गैरसरकारी शिक्षण संस्थानों से नामांकित किए जाने लगे. व्यापमं की घोषित संरचना में संचालक का पद किसी इंजीनियरिंग कालेज के सीनियर प्रिंसिपल को दिया गया. नियंत्रक का पद इंजीनियरिंग कालेज से ही सीनियर प्रोफैसर को दिया गया तो एक फाइनैंस औफिसर, नगर उपनियंत्रक, एक सीनियर सिस्टम एनालिस्ट इतने ही सहायक नियंत्रक और एक सिस्टम एनालिस्ट का पद बनाया गया. इस तरह ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज पर व्यापमं चल निकला. शुरुआती दौर में इस में प्रतिनियुक्ति पर जाने से प्राध्यापक वगैरह कतराते थे क्योंकि इस के दफ्तर में बैठना ही बोरियत वाला काम और अपनेआप में सजा थी.

साल 2000 तक व्यापमं में गड़बडि़यों की शिकायत नहीं आई लेकिन इसी साल से शिकायतें आने लगीं तो वजह कंप्यूटर था जिस में इस के जानकार हेरफेर कर सकते थे और पकड़ में नहीं आते थे. 2000 तक कंप्यूटर का चलन आम सा हो गया था, व्यापमं के सारे काम भी कंप्यूटर से होने लगे थे. अब तक परीक्षा प्रणाली भी स्थायी रूप से घोषित हो चुकी थी कि सभी प्रश्नों के उत्तर वैकल्पिक होंगे. 4 में से 1 जवाब सही होगा और जो सब से ज्यादा सही जवाब देगा वह चुन लिया जाएगा. छात्रों को चूंकि खानापूर्ति के अलावा कुछ लिखना नहीं था, इसलिए वे उलटेसीधे निशान भी अंदाजे से लगाने लगे. साथ ही, यह बात भी उन के दिमाग में आने लगी कि कितना अच्छा हो अगर किसी चमत्कार के चलते उन की उत्तर पुस्तिका पर सारे सही निशान लग जाएं ताकि वे चुन लिए जाएं. व्यापमं के घोटालेबाजों ने उन का यह सपना सच कर डाला, लेकिन इस की मुंहमांगी कीमत वसूली.

बहरहाल, छिटपुट मामले 2007 तक सामने आए पर वे तूल नहीं पकड़ पाए. अब तक मैडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिला लेने वालों की तादाद बेतहाशा बढ़ गई थी. कोचिंग सैंटर गलीगली खुलने लगे थे और प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज तो कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगे थे. अकेले भोपाल में ही 100 से भी ज्यादा इंजीनियरिंग कालेज खुले. साल 2004 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नौकरी देने वाली परीक्षाओं की जिम्मेदारी भी व्यापमं को दे दी. असल गड़बड़ यहीं से शुरू हुई. अब तक तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की भरतियां जिला स्तर पर अधिकारी कर लिया करते थे. मिसाल पुलिस विभाग की लें तो कौंस्टेबल की भरती जिले का पुलिस अधीक्षक और कुछ दूसरे अधिकारी मिल कर कर लेते थे. नई व्यवस्था में ये भरतियां राज्य स्तरीय होने लगीं तो राज्य की राजधानी भोपाल देखते ही देखते गुलजार हो उठी.

सरकारी नौकरियों के लिए घूस पहले भी चलती थी और सिफारिशें भी खूब होती थीं लेकिन व्यापमं के जरिए यह काम होने लगा तो नेता व अफसर सब की बन आई. हर कोई घूस खा कर व्यापमं पर दबाव बनाने लगा, सिफारिशें होने लगीं और जल्द ही नौकरियां भी बिकने लगीं. यही व्यापमं घोटाले की वजह बनी जिस ने जिलेजिले में दलाल पैदा कर दिए. सरकारी नौकरी पाने या मैडिकल कालेज में दाखिला लेने की एकमात्र योग्यता जेब में पैसे होना रह गई. जिस ने भी भुगतान किया वह पास हो गया. चूंकि लाखों उम्मीदवार और छात्र कतार में थे, इसलिए कोई भी कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते यह नहीं कह पाता था कि उस के साथ ज्यादती हुई. काबिल छात्रों ने यह सोचते खुद को तसल्ली देनी शुरू कर दी कि जरूर कहीं कोई कमी उन की कोशिशों में रह गई होगी. पीएमटी की धांधली ने कितने लाख छात्रों के डाक्टर बनने के सपने पर पानी फेरा, इस का हिसाबकिताब कोई एसटीएफ या सीबीआई नहीं दे सकती. अब व्यापमं की परिभाषा हो गई थी एक घूसपोषित आमदनी निकाय जिस में दलाल, शिक्षा माफिया, नेता और अधिकारी जम कर चांदी काट रहे थे. यह सिलसिला 1 नहीं, 15 साल चला तो दुनियाभर में इस की चर्चा वाकई एक अजूबे के रूप में गलत नहीं हो रही.

अर्जुन सिंह की मंशा या महत्त्वाकांक्षा व्यापमं को ले कर क्या थी, यह तो वही जानें लेकिन शिवराज सिंह के कार्यकाल में जो हुआ वह शुद्ध भ्रष्टाचार था जिस ने दाखिले और नौकरियों को पैसे वालों की बांदी बना कर रख दिया. अब सीबीआई जांच का नतीजा जो भी निकले, प्रदेश की एक पूरी पीढ़ी शायद ही शिवराज सिंह के कार्यकाल को माफ कर पाए.

छवि हुई दागदार

अपने बचाव में हमेशा की तरह शिवराज सिंह चौहान कांग्रेस को कोसते नजर आए कि उस का तो काम ही मुझे बदनाम करना है, व्यापमं घोटाले की जांच की पहल मैं ने की थी. एक सिस्टम बनाया था जो कांग्रेस के जमाने में था ही नहीं. उस वक्त तो सिगरेट के पैकेटों पर कांग्रेसी लिख देते थे और तबादले व नियुक्तियां हो जाती थीं. हकीकत तो यह है कि अक्षय की मौत के बाद के बवाल में उंगलियां शिवराज सिंह पर ही उठने लगी थीं और देशभर में भाजपा की थूथू हो रही थी. ललित मोदी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा का मामला अभी पूरी तरह ठंडा भी नहीं हो पाया था कि अब शिवराज सिंह चौहान जैसे निष्पक्ष और बेदाग छवि वाले नेता ने पार्टी को दिक्कत में डाल दिया. सीबीआई जांच की मांग मानना इसी नुकसान की भरपाई की कोशिश थी लेकिन यह भी साफतौर पर महसूस किया गया कि शिवराज सिंह चौहान अपनी जिद के चलते खुद की भी छवि धुंधली करवा बैठे हैं. इस की वजह मीडिया का हल्ला और व्यापमं घोटाले से हुए नुकसान ज्यादा हैं. भाजपा और शिवराज सिंह की बिगड़ी छवि पर पीएम नरेंद्र मोदी ने भी नाखुशी जाहिर की और शिवराज सिंह विरोधी लौबी भी सक्रिय हो उठी पर यह ललित मोदी गेट का ही असर था कि यह ?उन का बिगाड़ कुछ नहीं पाई. ऐसा लग रहा है कि भाजपा के भीतर शिवराज सिंह विरोधियों ने ठान ली है कि अब लड़ाई आरपार की लड़ी जाए.

सियासी तौर पर अहम सवाल अब यह भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भी भाजपा शिवराज सिंह के सहारे चलेगी या मध्य प्रदेश में उन का विकल्प तलाशेगी. मध्य प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने दोटूक कहा कि व्यापमं मामले को ले कर उन्हें कोई जानकारी नहीं दी जाती, मामला अदालत में है, कह कर चुप करा दिया जाता है और विधानसभा में जो जवाब देने होते हैं वे लिख कर दे दिए जाते हैं. उमा भारती की तरह गौर भी शिवराज सिंह का लिहाज नहीं करते और कोई उन्हें इस बाबत मजबूर भी नहीं कर सकता. शिवराज रास्ता ढूंढें़, किसी सक्षम एजेंसी से जांच कराएं और व्यापमं घोटाले से हजारों नौजवानों का भविष्य बरबाद हुआ है, जैसे जुमले बोल कर इस बार हाट उमा भारती लूट ले गईं और इस तरह ले गईं कि उन से कोई कुछ कह और पूछ भी नहीं पा रहा. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की तो समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर यह हो क्या रहा है. दरअसल, हो यह रहा है कि बिहार विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, प्रचार शुरू हो चुका है. ऐसे में लालू, नीतीश और कांग्रेस ललित मोदी व व्यापमं जैसे मुद्दों को उठा कर भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगे, यह साफ दिख रहा है. विरोधी अभी से व्यापमं पर नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने लगे हैं. राहुल गांधी ने यह कहते मोदी पर कटाक्ष किया कि ‘न खाएंगे न खाने देंगे’ वाला चुनावी नारा कहां गया तो जाहिर है ऐसे सवालों के जवाब जनता अब सीधे नरेंद्र मोदी से सुनना चाहेगी. जांचों का बहाना अगर वे बनाएंगे तो इसे झुनझुना ही समझा जाएगा. यह वाकई नरेंद्र मोदी के लिए मुश्किल दौर है कि एक साल ही में भाजपा शासित सूबों के बाबत उन्हें गुनाहगार ठहराया जाने लगा है. कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कोसते रहे मोदी कैसे इस हालत से निबटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा.

धर्म प्रचारकों का शब्दजाल

लच्छेदार भाषा का प्रयोग करना हिंदू धर्म के प्रचारकों का विशेष गुण है और उन के सारे प्रवचनों का अंत दानदक्षिणा पर होता है. भोपाल के एक वाचक सुरेंद्र बिहारी गोस्वामी ने औरतों की एक भीड़ में ज्ञान दिया कि व्यक्तित्व में निखार तब आता है जब भक्ति की लहरें हिलोरे लेने लगें वरना व्यक्तित्व का सागर थमा रहता है. यह कैसा तर्क है? हमारा व्यक्तित्व हमारी बोलचाल, हमारी बुद्धि, हमारे व्यवहार, हमारे गुणों पर निर्भर है. भक्ति और वह भी राधा व उस की सहेलियों जैसी, जो कृष्ण की बांसुरी की तान सुन कर सब काम छोड़ कर उसे निहारने के लिए दौड़ पड़ें, किस काम की? भक्ति का प्रपंच तो तथाकथित भगवान के बिचौलियों को खुश करने के लिए रचा जाता है, इसीलिए कथावाचक भक्ति को परमात्मा से और गुरु को परमात्मा का रूप सिद्ध करने में लगे रहते हैं.

शब्दजाल का कमाल देखिए कि कथावाचक चेतन और जड़ता का अंतर ही समाप्त कर देते हैं. चेतन का अर्थ है जो चेता हुआ है और जब वह चेता हुआ है तो जड़ कैसे हुआ? जड़ कोई कैसे हो सकता है? जड़ होगा तो कथावाचक की कथा सुनने के लिए कैसे आएगा? कथा में जो लोग मौजूद होते हैं, उन में संभ्रांत व पैसे वाले भी होते हैं. वे जड़ कैसे हो सकते हैं कि भक्ति का रस उन्हें चेतन अवस्था में ले आए. आत्मा और परमात्मा का नाम इस तरह की कथाओं में खूब उछाला जाता है. बड़े विश्वास से कह दिया जाता है कि भक्ति से आत्मा, परमात्मा से मिल जाती है. अगर उन कथावाचकों के अनुसार परमात्मा कणकण में मौजूद है तो किस की आत्मा में वह नहीं है कि वह कथा सुन कर परमात्मा के निकट आए? यह शब्दजाल भ्रम फैलाने के लिए है. इस का उद्देश्य है कि परमात्मा के एजेंट गुरु को परमात्मा मानो, उसे दान दो, उस की तनमनधन से सेवा करो. मजेदार बात यह है कि मंदिरों, जहां इस प्रकार के ज्ञान का प्रवाह होता है, जहां परमात्मा विराजे रहते हैं, जहां सद्ज्ञान बंटता है, जहां सदाचार का पाठ पढ़ाया जाता है, उन के विवाद उन अदालतों से निबटवाए जाते हैं जहां चोर, डाकू, रिश्वतखोर, बलात्कारी, हत्यारे, बेईमान, ठग आते हैं. मध्य प्रदेश के मुलताई के जगदीश मंदिर का एक विवाद 2007 से चल रहा है. वहां मूर्तियों के आगे पेशियां नहीं होतीं, अदालत में होती हैं. विवाद मंदिर की जमीन को ले कर है पर ज्ञान से सराबोर गुरु और उन के समकक्ष परमात्मा फैसला नहीं कर पा रहे, आम आदमी से जज बने न्यायाधीश कर रहे हैं. क्या यही शक्ति है भक्ति की?

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