Download App

विनय ने मुंडवाया सिर

कई साल पहले दीपा मेहता की विवादास्पद फिल्म ‘वाटर’ के लिए शबाना आजमी और नंदिता दास ने सिर मुंडवाया था. अभिनेता विनय पाठक ने भी ऐसा किया है. फिल्म ‘गौर हरी दास’ में लीड रोल कर रहे विनय ने खुद को भूमिका में ढालने के लिए अपना सिर मुंडवा डाला. विनय के मुताबिक, ‘‘मैं ने इस किरदार की तैयारी वजन कम करने के साथ शुरू की. मैं अपने शरीर को बिलकुल दास के शरीर की तरह दिखने वाला बनाना चाहता था. बालों के गिरने से ले कर पूरी गंजी खोपड़ी होने तक के सभी सीन्स को शूट करना वास्तव में आसान नहीं था.’खैर, विनय की मेहनत रंग लाई और उन की यह फिल्म अब तक कई फिल्म समारोहों में पुरस्कृत हो चुकी है.

बुरे फंसे महमूद

सालों पहले मीडिया और राजनीति की व्यंग्यात्मक लहजे में खिंचाई करने वाले फिल्म पीपली लाइव के सह निर्देशक महमूद फारूकी रेप के एक आरोप में पुलिस के हत्थे चढ़ गए. दरअसल, उन पर कोलंबिया विश्वविद्यालय से शोध कर रही 30 वर्षीया छात्रा ने नई दिल्ली के न्यू डिफैंस कालोनी पुलिस थाने में इस साल मार्च में उस का बलात्कार करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई है. लिहाजा, महमूद को गिरफ्तार कर लिया गया और मामले की जांच चल रही है. बता दें कि आरोपी महमूद पीपली लाइव निर्देशक अनुषा रिजवी के पति हैं. बौलीवुड में कास्ंिटग काउच के मामले बेहद आम हो चले हैं. इस से पहले मधुर भंडारकर, अंकित तिवारी, इंद्र कुमार, शाइनी आहूजा और आदित्य पंचोली इन मामलों में फंस चुके हैं.

विवादों में मोहल्ला अस्सी

सालों से रिलीज की राह देख रही सनी देओल अभिनीत फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ इन दिनों अपने लीक हुए ट्रेलर की वजह से चर्चा में है. दरअसल, पिछले दिनों बिना निर्माता व निर्देशक की जानकारी के इस फिल्म का धार्मिक विवाद पैदा करने वाला ट्रेलर सोशल मीडिया में फैल गया. ट्रेलर में कथित तौर पर शिव का भेष धरे एक व्यक्ति को गाली देते दिखाया गया है. ऐसे में एक संगठन की याचिका पर सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने फिल्म की झलकियों को ले कर सैंसर बोर्ड को नोटिस जारी किया है. फिल्म हिंदी उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित है. धर्म के नाम पर विवाद फैलाने वालों को जब अपनी दुकानदारी पर खतरा मंडराता दिखता है, वे कोर्टकचहरी या फिर हंगामाप्रदर्शन करने लग जाते हैं. सैंसर बोर्ड ने कहा है कि ट्रेलर उस ने पास नहीं किया. फिलहाल फिल्म की रिलीज पर बैन है.

जरा हटके अली फजल

अभिनेता अली फजल पिछले दिनों हौलीवुड फिल्म ‘फास्ट ऐंड फ्यूरियस 7’ में काम करने को ले कर चर्चा में आए थे. किसी भारतीय कलाकार की तरह उन की भूमिका भले ही छोटी थी लेकिन अनुभव गजब का रहा. फिलहाल अगली फिल्म में एक नकारात्मक भूमिका के लिए अली जबरदस्त प्रयोग कर रहे हैं. इस फिल्म में उन के साथ ऋचा चड्ढा भी अहम भूमिका में नजर आएंगी. अपनी भूमिका के साथ प्रयोग करने के लिए अली एक खास तकनीक अपना रहे हैं. किरदार की मांग को पूरा करने के लिए वे तेज संगीत के कंसर्ट्स में जाएंगे. पहले वे मैटल म्यूजिक फैस्टिवल में हिस्सा लेंगे, उस के बाद जरमनी में होने वाले वेकन फैस्टिवल का हिस्सा होंगे. बहरहाल, किसी अभिनेता को किरदार के प्रति इतना गंभीर होते देखना अच्छा है.

गपोडि़यों से यारी कैरियर पर भारी

माधवी एक बडे़ संस्थान में कार्यरत थी. उस का काम अच्छा था. उसे बटरिंग करनी नहीं आती थी. एक दिन माधवी औफिस में काफी परेशान दिखी. कारण था उस का अप्रेजल. उसे उम्मीद थी कि उस का इंक्रीमैंट अच्छा होगा पर ऐसा नहीं हुआ. इंक्रीमैंट तो हुआ पर इतना कम कि वह किसी से यह बात शेयर नहीं कर सकती थी. माधवी को अपना दुख तो था ही, उस से भी ज्यादा उसे गम था अपनी सहेली के अप्रेजल का. सहेली की पोस्ट के साथ सैलरी भी खूब बढ़ी, जबकि वह माधवी से कम काम किया करती थी पर हां, बटरिंग करती थी. दरअसल, औफिस में काम करते हुए हमें कुलीग्स ऐसे मिलते हैं जो बेहद कामचोर होते हैं, गप व बटरिंग में डूबे रहते हैं. उन का दिमाग काम में कम, बातों में ज्यादा लगता है. ऐसे लोग अपने प्रमोशन में तो बाधा बनते ही हैं, दूसरों को भी बहुत डिस्टर्ब करते हैं. एक दूसरा उदाहरण देखते हैं. नीना रोजाना रिलैक्सेशन टाइम का फायदा उठाती यानी 10 बजे तक ही औफिस आती. जबकि औफिस टाइमिंग 9.30 बजे होता था और आधे घंटे का रिलैक्सेशन टाइम होता था. आते ही थोड़ा बाल कंघी कर, मेकअप चढ़ा कर किसी से बात करने के लिए रेडी होती या कहें कि बनठन कर कंप्यूटर औन करती और थोड़ा उस दिन के काम के बारे में विचार करती.

थोड़ी देर में ही फोन पर दूसरे विभागों से कौल आती कि अरे, आज तू कितने बजे आई है – अच्छा, मैं भी इतने बजे आई, शाम को साथ ही चलेंगे. अब दिनभर नीना के पास उस की सहेलियां बारीबारी से आती रहतीं और चर्चाएं करतीं कि यार, रात में देर से सोई, यार, मैं कल शौपिंग गई थी, वहां फलां चीजें बड़ी सस्ती हैं आदिआदि. सहेलियों के जाने के बाद थोड़ी पेटपूजा भी जरूरी थी. तो नीना अब बे्रकफास्ट के लिए बैठती यानी बे्रकफास्ट के बाद उस का कार्यालयी काम शुरू होता 11.30 और 12 बजे के बीच. वह हाफटाइम बिना काम के निकालने के लिए माहिर थी. नीना जैसी कई महिलाएं हैं जो औफिस में पिकनिक मनाने आती हैं. ऐसी महिलाएं खुद ऐसा कर के अपना नुकसान कर रही हैं. उन्हें लगता है कि उन की इस तरह की इमेज को नहीं पकड़ा जाएगा. जबकि ऐसी इमेज से उन का प्रमोशन तो रुकेगा ही, आसपास के कुलीग्स भी उन से बात करने से कतराएंगे.

धूम्रपान और चाय की लत

ज्यादातर लोगों में औफिस से बाहर बारबार चक्कर काटने की आदत भी होती है. वे चाय पीने या फिर सिगरेट पीने की तलब के चलते बाहर आतेजाते रहते हैं. ऐसे लोगों का औफिस में कम और बाहर ज्यादा समय बीतता है. इसलिए इन लोगों की औफिस में उपस्थिति 8-9 घंटे के औफिस में 5-6 घंटे की होती है. सुबह 9 से 10 के बीच ज्यादातर औफिस शुरू हो जाते हैं पर ये लोग अपने काम की शुरुआत 11.30 से 12.00 के बीच करते हैं.

डिस्टर्बेंस क्रिएट करना

कई लोगों की आदत होती है कि वे काम कर रहे अन्य लोगों को डिस्टर्ब करते हैं. गप मारने वालों या गौसिप करने वालों की सीट अगर काम करने वालों के पास होती है तो काम रुकता है. ऐसे लोग न तो खुद काम करते हैं और न ही दूसरों को करने देते हैं.

समय से काम न करना

गौसिप करने वालों का काम समय से पूरा नहीं हो पाता. वे दूसरों के काम को भी प्रभावित करते हैं. इस से उन की इमेज तो खराब होती ही है पर जिन का काम प्रभावित होता है उन की भी इमेज खराब हो सकती है.

सीट पर कम रहना

गप मारने वाले या कहें कि गौसिप करने वाले अपनी सीट पर कम ही बैठते हैं. उन्हें इधरउधर ही देखा जाता है. औफिस में सभी को पता रहता है कि वे लोग सीट पर नहीं हैं तो उन का अड्डा कहां होगा. अब इसी से समझ लीजिए कि आप की इमेज क्या बनेगी.

मोबाइल रिंगटोन तेज रखना

औफिस में मोबाइल फोन की घंटी बजती रहती है, वह भी तेज आवाज में. लाउड सौंग्स की रिंगटोन से दूसरों का काम डिस्टर्ब होता है. ऐसे लोग फोन को सीट पर छोड़ कर गप मारने चले जाते हैं, इस से न सिर्फ आसपास बैठे कुलीग्स डिस्टर्ब होते हैं बल्कि दूरदूर तक बैठे अन्य विभागों के लोग भी तेज आवाज सुन कर ऊपरनीचे, इधरउधर या एक बार उठ कर तो जरूर देखते हैं.

मोबाइल पर घंटों बातें करना

गप मारने वालों के लिए औफिस में गौसिप कैसे भी, होनी ही चाहिए. फिर चाहे वह फोन से हो या खुद बातें कर के. आप को औफिस में ज्यादातर लोग गैलरी, वाशरूम, रिसैप्शन, फोन, लिफ्ट, स्टेयर्स आदि पर चिपके मिलेंगे. ये लोग औफिस डैकोरम मेंटेन नहीं करते और जोरजोर से बातें करते हैं. ये कार्यालय समय के कुछ घंटे फोन में जरूर बरबाद करते हैं.

बाहर की हवा खाना

औफिस में कई लोगों का यहां तक भी कहना होता है कि चलो यार, थोड़ी बाहर की हवा खाने चलते हैं. कई लोग सुबह आ कर फैशन परेड में शामिल होते हैं. अगर गलती से कोई महिला या युवती शौपिंग पर गई हो तो बस अगले दिन का टौपिक यही रहता है. इतना ही नहीं, यह सुन कर भी कई महिलाएं औफिस के समय में ही घूमने निकल जाती हैं. पुरुषों को अगर देखें तो वे पान, गुटखा, तंबाकू, सिगरेट, पानी आदि पीने के बहाने बाहर की हवा या एक चक्कर काट कर जरूर आते हैं.

कैसे बचें

काम की बात करें : अगर आप को गौसिप करने से बचना है और अपनी इमेज सही बनानी है तो आप ऐसा करने वालों से बचें. आप सिर्फ उन से काम की बात ही करें. कभी भी अपनी पर्सनल लाइफ पर चर्चा न करें वरना आप की पर्सनल लाइफ का ढिंढोरा पिट जाएगा. आप तो अपना समझ कर एक को बताएंगे पर वह आप की बात पूरे औफिस में अपनी बुरी आदतों के चलते बता देगा. गौसिप करने वाले आप को कई बातें बता कर आप की प्रतिक्रियाएं जानना चाहेंगे. इतना ही नहीं, वे आप को बारबार प्रोवोक भी करेंगे. आप इस चर्चा में पड़ें नहीं बल्कि उन की बातों को घुमा कर अलग टौपिक छेड़ दें या फिर अपने को व्यस्त बता कर चले जाएं या उन्हें जाने के लिए कहें.

सोचसमझ कर बोलें

गौसिप करने वालों से हमेशा सोचसमझ कर ही बोलें. वे अगर किसी की बुराई या गलत बात कर रहे हैं तो आप उस पर अपनी राय कतई न दें, और अगर बोलें तो शब्दों को तोल कर ही, क्योंकि कहीं आप की कही बात को उस सदस्य से बोल दिया गया तो ऐसी स्थिति में वे तो बच कर निकल जाएंगे पर आप फंस जाएंगे. गलत बात के खिलाफ हमेशा आवाज उठाएं. अगर कोई गलती कर रहा हो तो उसे समझाएं. यह कतई न सोचें कि इस के चक्कर में पड़ कर मेरी नौकरी पर गाज गिरेगी. आप हमेशा जो सच हो उसे सामने रखें.

ग्रुपिंग का हिस्सा न बनें

हमेशा ग्रुप में रहने से बचें. हालांकि ग्रुप में रह कर आप अपनी तमाम बातें व काम को डिसकस कर सकते हैं लेकिन सभी के स्वभाव में अंतर होने की वजह से कब कोई आप की काट कर दे, यह आप को भी पता नहीं चलेगा. फिर बाद में आप यह सोचते रहेंगे कि काश, मैं अकेला या अकेली होती.

एकजैसा व्यवहार रखें

औफिस में सभी को एकसमान ही आंकें. वरिष्ठता झाड़ेंगे तो आप हंसी के पात्र ही होंगे क्योंकि हर औफिस में नए लोग आते हैं. ऐसे में उन से यह कहना कि हम तो यहां 15-20 सालों से हैं, गलत होगा क्योंकि जूनियर भी आप के काम पर सवाल कर सकते हैं और फिर, यह भी मत भूलिए, आप भी कभी जूनियर थे.

गौसिपिंग के अड्डे

गैलरी एरिया : औफिस में अकसर मीना फोन ले कर गैलरी में बात किया करती. वह जोरजोर से ठहाके और कभीकभी फोन में खुसुरफुसुर किया करती. अगर वह सीट पर नहीं होती और कोई उस को पूछता तो आसपास बैठे कुलीग्स कहते कि गैलरी में होगी.

साइड कौर्नर्स गैलरी : औफिस की गैलरी में ज्यादातर लोग बातें करते मिलेंगे या फिर कोई अपने फोन से चिपका मिलेगा. यहां कुछ लोग समझते हैं कि हम नजरों में नहीं आएंगे पर सच तो यह है कि ऐसे लोग ज्यादा नजरों में आते हैं.

स्टेयर्स एरिया : सीढि़यों पर बातचीत करने की भी बहुतों की आदत होती है. ऐसे लोग बातचीत करने के लिए सारे कोने इस्तेमाल कर चुके होते हैं.

रूफ एरिया : अगर औफिस बिल्ंिडग की छत हो तो क्या कहने. वहां तो लंचटाइम और टीटाइम के वक्त लोगों की बहुत जमती है. यहां भी एक अड्डा फिक्स रहता है.

पार्किंग एरिया : औफिस की पार्किंग हो या फिर औफिस की बाहरी जगह, वहां भी लोग आप को गपशप करते मिलेंगे. यह गपशप रोजाना ही होती है.

वाशरूम एरिया : अकसर औफिस में भी कई लोग वाशरूम में बातें करने से भी नहीं चूकते. सब से ज्यादा बातें यहीं की जाती हैं क्योंकि इस जगह कई लोग टकरा जाते हैं. लोगों को यहां वक्त का भी पता नहीं चलता.

जलन महसूस करना ठीक नहीं

फोर्टिस हौस्पिटल के मनोवैज्ञानिक डा. समीर पारेख बताते हैं कि ज्यादातर लोग आगे बढ़ने के चक्कर में दूसरों को ठोकर मार कर चलते हैं, जोकि गलत है. हार या जीत तो सब की लाइफ का हिस्सा है पर सक्सैस पाने वाले से जलन महसूस करना भी ठीक नहीं है. ऐसे लोग हार कर अपनेआप को खुद ही दुख पहुंचाते हैं. इस से बचने के लिए आप एक लक्ष्य निर्धारित करें और इस से भटकें नहीं. 

फिल्म समीक्षा

हमारी अधूरी कहानी

सभी धर्मों में औरत को निकृष्ट माना गया है. हिंदू धर्म में तो औरत को पाप की गठरी, नरक का द्वार तक कहा गया है. गोस्वामी तुलसीदास ने औरतों को गंवार, पशुतुल्य बताया है यथा ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी.’ अर्थात औरतों की पशुओं के समान पिटाई की जानी चाहिए. यह परंपरा अनादिकाल से चलती आई है. तथाकथित भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता को दासी से कम नहीं समझा और उसे अपनी प्रौपर्टी की तरह माना. रावण के यहां रहने पर राम ने सीता को घर से निकाल दिया, बाद में उस की अग्निपरीक्षा ली. आज भी स्त्रियों की दशा वैसी ही है जैसी पुरातनकाल में थी. लड़कियों को शादी करने के लिए दहेज देना पड़ता है. वे मरते दम तक पुरुषों की सेवा करती रहती हैं, मानो वे दासी हों, गुलाम हों. पुरुष स्त्रियों पर अपना हक जताते हैं. वे उन्हें अपनी प्रौपर्टी, जागीर समझते हैं. यहां तक कि कई समुदायों में पुरुष अपना नाम पत्नी के हाथ पर गुदवाते हैं. एक औरत के पास अपने नाम का क्या होता है? यहां तक कि उसे शादी के बाद अपने नाम के आगे पति का नाम जोड़ना होता है. मांग में पति के नाम का सिंदूर भरना होता है. गले में पति के नाम का मंगलसूत्र पहनना उस के लिए जरूरी हो जाता है. जब वह प्रैग्नैंट हो जाती है तो उस की कोख में जो बच्चा होता है उस पर उस के पति का ठप्पा लग जाता है. पति चाहे पत्नी को कितना भी मारेपीटे, फिर भी वह उस की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ का व्रत रखती है. पूरी उम्र स्त्रियां इन मुर्दा परंपराओं और रीतिरिवाजों में जीती रहती हैं. मरते दम तक उन के जिस्म पर मर्दों का राज चलता रहता है.

निर्देशक मोहित सूरी ने अपनी फिल्म ‘हमारी अधूरी कहानी’ के क्लाइमैक्स में एक पत्नी को उस पति के नाम का मंगलसूत्र पहने उस की जिंदगी की भीख मांगते दिखाया है जो उसे मारतापीटता था, उसे अपनी प्रौपर्टी समझता था. निर्देशक ने अपनी इस फिल्म में औरत की अस्मिता पर कई सवाल उठाए हैं लेकिन आखिर में वह भी लकीर का फकीर बन कर प्रेम के त्रिकोण में उलझ कर रह गया है और अपनी इस अधूरी कहानी को पूरी नहीं कर सका है. फिल्म की कहानी शुरू होती है नायिका विद्या बालन की अस्थियों से. उस का बेटा अपने अर्धविक्षिप्त पिता हरि (राजकुमार राव) को कहीं से ढूंढ़ कर लाता है. परंतु रात में वह अपनी पत्नी की अस्थियां ले कर भाग जाता है और बेटे के हाथ लगती है एक डायरी. यहीं से कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है.

हरि की शादी वसुधा (विद्या बालन) से होती है. उन का एक बेटा होता है. अचानक हरि कहीं चला जाता है. वसुधा एक होटल में काम करने लगती है. एक दिन वसुधा को पुलिस से पता चलता है कि उस का पति आतंकवादी है. उसे घर से गए कई साल बीत चुके हैं. वसुधा उस की आस छोड़ चुकी है. एक दिन होटल का मालिक आरव (इमरान हाशमी) उसे दुबई के एक होटल में नौकरी औफर करता है. वसुधा दुबई चली जाती है. आरव वसुधा से प्यार करने लगता है और उसे शादी के लिए प्रपोज करता है. तभी अचानक हरि वापस लौट आता है. 5 साल बाद पति को वापस आया देख वसुधा खुद को संभाल नहीं पाती. हरि वसुधा को बताता है कि वह बेकुसूर है. वसुधा हरि को अपने और आरव के प्यार के बारे में सच बता देती है. हरि यह सच बरदाश्त नहीं कर पाता और खुद को पुलिस के हवाले कर अपना जुर्म कुबूल कर लेता है. लेकिन वसुधा आरव से अपने पति की जान की भीख मांगती है और उसे छुड़ाने की रिक्वैस्ट करती है. आरव मुकदमा लड़ कर हरि को बचा लेता है. इस चक्कर में उस की जान चली जाती है. आरव को ढूंढ़ते हुए आई वसुधा की भी उसी जगह पर मौत हो जाती है. हरि मानसिक रूप से पागल हो जाता है.

फिल्म की यह कहानी बहुत धीमी है. कहानी में कोई नई बात नजर नहीं आती. फिल्म का निर्देशन भी औसत ही है. विद्या बालन ने अपने दर्द को दिखाने की काफी कोशिश की है लेकिन वह अपने रोल में सही ढंग से उतर नहीं पाई है. दर्शक भी उस से जुड़ नहीं पाए हैं. जब दर्शक उस से और इमरान हाशमी से जुड़ने की कोशिश करते हैं तो अचानक से राजकुमार राव की एंट्री हो जाती है. इमरान हाशमी कई जगह जमा है. राजकुमार राव का काम पहले जैसा ही है. वैसे उसे परदे पर देखने में मजा आता है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. दुबई की लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं, खासकर दुबई के एक बगीचे की सुंदरता मन को मोह लेने वाली है. फिल्म का गीतसंगीत औसत ही है.

*

एबीसीडी-2

पिछले काफी अरसे से टीवी पर डांस रिऐलिटी शोज प्रसारित हो रहे हैं. इन शोज में कुछ में तो खुद रैमो डिसूजा जज बने हैं. यह फिल्म भी डांस रिऐलिटी शो जैसी है. पूरी फिल्म में डांस ही डांस है. डांस इतने ज्यादा हैं और फिल्म की लंबाई इतनी ज्यादा है कि क्लाइमैक्स आतेआते बोरियत होने लगती है. फिल्म के निर्देशक रैमो डिसूजा को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए थी कि फिल्म ऐसी होनी चाहिए जिस में कुछ कहानी हो, इमोशंस हों और दर्शक फिल्म से खुद को जोड़ सकें. लेकिन वे इस मामले में चूक गए हैं.

‘एबीसीडी-2’ (एनीबडी कैन डांस-2) रैमो डिसूजा द्वारा निर्देशित पिछली फिल्म ‘एबीसीडी’ की सीक्वल है. निर्देशक ने इस फिल्म को काफी चमकधमक वाला बनाया है. फिल्म में पिछली फिल्म के मुकाबले पैसा भी खूब बहाया गया है. इतने सारे कलाकारों को लास वेगास ले जा कर फिल्म को 3डी इफैक्ट में शूट किया गया है, फिर भी फिल्म सब के मतलब की नहीं बन सकी है. युवाओं, खासकर डांस पसंद करने वालों को यह फिल्म भा सकती है. फिल्म की कहानी खुद रैमो डिसूजा ने लिखी है. कहानी मुंबई के उपनगर नालासोपरा के युवकों पर आधारित सच्ची घटना पर है. गरीब घर के कुछ युवक अपनी लगन व मेहनत के बल पर अमेरिका तक कैसे पहुंचे, कहानी में यही दिखाया गया है.

मुंबई के एक कसबे में सुरेश (वरुण धवन) और उस के कुछ दोस्तों का डांस ग्रुप है. उस ग्रुप में विनी (श्रद्धा कपूर) भी है. यह ग्रुप एक डांस प्रतियोगिता ‘हम किसी से कम नहीं’ में हिस्सा लेता है. प्रतियोगिता में खुद रैमो डिसूजा जज हैं. जजमैंट के वक्त सुरेश और उस के ग्रुप पर डांस स्टेप्स चोरी कर परफौर्म करने का आरोप लगता है. इस से ग्रुप के सभी सदस्यों की काफी बदनामी होती है. बदनामी के इस दाग को मिटाने के लिए सुरेश और उस के साथी वर्ल्ड हिपहौप डांस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए लास वेगास जाने का प्लान बनाते हैं. एक दिन विष्णु की नजर डांस गुरु विष्णु (प्रभुदेवा) पर पड़ती है. वह विष्णु से अपना नया डांस ग्रुप बनाने में मदद मांगता है. विष्णु राजी हो जाता है. अब सुरेश और उस के साथियों को लास वेगास में होने वाली प्रतियोगिता में एंट्री मिल जाती है. मुकाबला शुरू होने से पहले विनी के पैर में चोट लग जाती है जिस से निराश हो कर विष्णु चुपचाप इंडिया लौट जाता है. लेकिन यहां आ कर उसे अपनी गलती महसूस होती है और वह वापस लास वेगास पहुंच कर टीम की हौसलाअफजाई करता है. टीम मुकाबला जीत तो नहीं पाती परंतु टीम के सदस्यों की वाहवाही सब जगह होती है. फिल्म की इस कहानी में डांस सीखने में लगने वाली जीतोड़ मेहनत और संघर्ष को उतने प्रभावशाली ढंग से नहीं दिखाया गया है जितने की जरूरत थी. किरदारों को देख कर नहीं लगता कि उन में मैच्योरिटी है. किरदार कालेज के स्टूडैंट जैसे लगते हैं जो किसी इंटरनैशनल प्रतियोगिता में नहीं, कालेज के स्टेज पर परफौर्म करते से नजर आते हैं.

निर्देशक ने कहानी को बेवजह लंबा खींचा है. उस ने कहानी में लव एंगल को नहीं रखा है. मध्यांतर के बाद फिल्म उबाऊ सी हो गई है. प्रभुदेवा क एंट्री जोरदार ढंग से की गई है. श्रद्धा कपूर के डांस भी अच्छे बन पड़े हैं. वरुण धवन की ऐक्ंिटग खास नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत पहले जैसा नहीं है. फिल्म का क्लाइमैक्स भव्य तो है परंतु दर्शकों में उत्तेजना नहीं भर पाता. फिल्म का छायांकन अच्छा है. लास वेगास की लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं.

*

वाद्य

हालांकि यह फिल्म स्कूली बच्चों की जिंदगी पर है और निर्देशक ने दिखाने की कोशिश की है कि स्कूली बच्चे भले ही उद्दंड हों परंतु सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक हो रहे हैं, फिर भी यह फिल्म अपना असर नहीं छोड़ पाती. फिल्म में दिया गया संदेश दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता. फिल्म की कहानी 5 शरारती युवाओं की है. गांव के चौधरी साहब (ओम पुरी) इन्हें एक नामी स्कूल में दाखिला दिला देते हैं. एक दिन ये पांचों अपनी एक दोस्त के घर में रुक जाते हैं. रात को 3 दोस्त घूमने के लिए बाहर निकलते हैं तो देखते हैं एक कार से कुछ लोग एक लड़की को फेंक कर भाग गए हैं. वे उस घायल लड़की को अस्पताल पहुंचाते हैं. उस लड़की के साथ बलात्कार हुआ था. एसीपी तेजवीर सिंह (जिमी शेरगिल) तहकीकात करता है. अदालत में मुकदमा शुरू होता है. सरकारी वकील बलात्कार के तीनों मुजरिमों को निर्दोष बता कर उलटे उन 3 लड़कों को बलात्कार के जुर्म में फंसा देता है जिन्होंने लड़की को बचाया था. अदालत असली अपराधियों के साथसाथ उन 3 लड़कों को भी पुलिस कस्टडी में जेल भेज देती है. एसीपी तेजवीर सिंह असली अपराधियों को ऐसी सजा देता है जिसे सुन कर जज साहब भी हैरान हो जाते हैं और एसीपी से सहमत होते हैं.

मध्यांतर से पहले यह फिल्म सिर्फ स्कूली शरारतों से भरी पड़ी है. स्कूल में पांचों छात्र लड़कियों को छेड़ते रहते हैं, उन से इश्क फरमाते हैं. और तो और, स्कूल में टीचर भी अपनी सहयोगियों से इश्क फरमाते रहते हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म पलटी मारती है और गैंगरेप की बात करती है. इस भाग में इन पांचों लड़कों को बेहद गंभीर और जिम्मेदार दिखाया गया है. दरअसल, फिल्म की पटकथा काफी कमजोर है. निर्देशक अपनी बात सही ढंग से कह नहीं पाया है. सिर्फ जिमी शेरगिल का काम अच्छा है. संग्राम सिंह निराश करता है. पांचों युवाओं ने ऊटपटांग तरीके से अभिनय किया है. अच्छा होता निर्देशक पहले उन्हें अभिनय की एबीसीडी सिखाता. फिल्म का निर्देशन कमजोर है. संगीत में भी दम नहीं है. हां, क्लाइमैक्स में गैंगरेप के अपराधियों को सजा देने का जो तरीका अपनाया गया है, वह एकदम अलग है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

बप्पी का डिस्को संगीत

हिंदी फिल्मों में संगीत की मौजूदगी कितनी जरूरी है, यह बताने की जरूरत नहीं है. एक औसत फिल्म की लगभग एकचौथाई रील गानों व बैकग्राउंड म्यूजिक पर गुजर जाती है. बीते अरसों में तकनीक के आगमन ने संगीत को बड़ा सस्ता व हलका बना दिया है. कंप्यूटर पर गाने मिक्स हो जाते हैं, कोई भी बेसुरा अब गा लेता है. साउंड मिक्ंिसग से आवाज का स्तर ठीक हो जाता है. इस तरह संगीतकारों की जगह बौलीवुड में नए लोग ऐसे भी आ गए हैं जो खुद गाते हैं और कंपोज भी करते हैं. कुछ ऐसा ही ट्रैंड आज से लगभग 4 दशक पूर्व संगीतकार व गायक बप्पी लाहिड़ी ने भी शुरू किया था. हाल में उन्हें फ्रांस के ग्लोबल मूवी फैस्ट में लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड मिलने की खबर है. 80 के दशक के डिस्को किंग के नाम से मशहूर संगीतकार और गायक बप्पी लाहिड़ी के बड़ेबड़े चश्मों के साथ गले में सोने के ढेरों जेवर ट्रैक सूट या कुरतापायजामा उन की शख्सीयत को अलग करते हैं. हालांकि उन पर कई बार विदेशी धुन चुराने का आरोप लगा है और कई दफा उन्होंने स्वीकार भी किया है. उन्होंने किशोर कुमार, आशा भोंसले, अलिशा चिनौय और उषा उत्थुप की आवाज को बखूबी इस्तेमाल किया. हंसमुख और नम्र स्वभाव के बप्पी लाहिड़ी इन दिनों फिल्मों से ज्यादा टीवी पर बिजी हैं.

बौलीवुड में डिस्को गीतों की परंपरा को लाने वाले बप्पी कहते हैं कि वर्ष 1979 में मैं ने पहली बार अमेरिका का सफर किया. तब वहां जौन ट्रावोल्टा का सैटरडे नाइट फीवर काफी पौपुलर था. क्वीन्सी जोन का थ्रिलर भी लोकप्रिय था. उन के गानों पर लोग झूम उठते थे. उन्हें देख कर मुझे ऐसा लगा कि क्यों न मैं भी भारत में ऐसी धुन बनाऊं जिसे सुनते ही पब्लिक डांस करना शुरू कर दे. उन दिनों निर्देशक रविकांत नागैच एक फिल्म बना रहे थे. उन्होंने कहा कि फिल्म के हीरो मिथुन चक्रवर्ती हैं. फिल्म थी ‘सुरक्षा’. मैं ने उन से कहा कि इस फिल्म की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ दो. मिथुन एक अच्छे डांसर हैं, मैं ने गाने बनाए और बोल थे, ‘मौसम है गाने का…’,

‘तुम जो भी हो दिल आज दो…’ ये गाने हिट हो गए. मिथुन ने कमाल का डांस किया. ‘सुरक्षा’ फिल्म शुरुआत थी और ‘डिस्को डांसर’ फिल्म इतिहास बनी. ‘नमक हलाल’, ‘शराबी’, ‘साहब’, ‘कसम पैदा करने वाले की’, ‘कमांडो’ आदि फिल्मों के सभी गाने एक के बाद एक हिट होते गए. यह भी सच है कि बप्पी मुख्यधारा की फिल्मों या ए गे्रड फिल्म निर्माताओं की पहली पसंद कभी नहीं बन पाए. छोटे बजट की फिल्मों में ही उन को संगीत देने का मौका मिला. और तो और, उन के ज्यादातर हिट गानों पर मिथुन चक्रवर्ती थिरकते नजर आते हैं. इस बाबत बप्पी बताते हैं कि केवल डिस्को गाने ही नहीं, मेलोडियस गानों में भी हम दोनों की जोड़ी सब को पसंद थी. अभी भी हम दोनों का रिश्ता घरेलू है. डिस्को संगीत के साथसाथ शास्त्रीय संगीत से भी लगाव रखने वाले बप्पी भी एक स्टार किड की तरह इस क्षेत्र में आए. उन के पिता भी इसी क्षेत्र में थे, लिहाजा, जानपहचान के दम पर वे बौलीवुड में जम गए. उन के मुताबिक, ‘‘मैं ने संगीत विरासत में पाया है. मेरी मां बनसरी लाहिड़ी बहुत बड़ी सिंगर थीं. मेरे पिता अपरेश लाहिड़ी भी संगीतज्ञ थे. संगीत के माहौल में पैदा हुआ. मेरा डिस्को संगीत और गजल गायिकी हर जगह चलती रही. शास्त्रीय संगीत के बिना मैं अधूरा था. इसलिए उस का भी प्रयोग करता रहा.’’ अंगरेजी लोकप्रिय धुनों को चोरी कर कई साल तक बप्पी का संगीत सुपरहिट रहा. इस बीच, उन्हीं की तरह यहांवहां की धुनों को उठा कर संगीत बनाने वाले अनु मलिकनुमा कई नए लोग आ गए. इस का नुकसान कुछ यों हुआ कि बप्पी को काम मिलना बंद हो गया. कई सालों तक फिल्मों से दूर रहे बप्पी फिलहाल इक्कादुक्का फिल्मों में आइटम सौंग सरीखा गाना करते नजर आते रहे. इतने सालों की गुमनामी के पीछे की वजह का खुलासा करते हुए बप्पी कहते हैं, ‘‘मैं खाली वक्त में पब्लिक शो करता हूं. विदेशों में अभी भी मेरे गाने सुन कर पब्लिक झूम उठती है. पर मैं हमेशा समय के साथ चलता हूं.

‘‘फिल्म ‘द डर्टी पिक्चर’ का गाना ‘ऊलाला ऊलाला…’, फिल्म ‘गुंडे’ का गाना ‘तू ने मारी एंट्री…’ आदि हिट रहे. ऐसे गाने मैं हमेशा बनाता हूं जिस से सुनने वाले को मजा आए. अब मैं संगीत में चूजी हो चुका हूं. आजकल एक फिल्म में कई संगीत निर्देशक होते हैं. ऐसे में मैं उन में गीत देना ठीक नहीं समझता. पूरी फिल्म में संगीत देने का मजा कुछ और होता है. पहले एक संगीत निर्देशक पूरी फिल्म के गाने और बैक ग्राउंड संगीत देता था, जिस से उस का ब्रैंड स्थापित होता था. कंप्यूटराइज्ड संगीत की देन भी मेरी ही है. ‘थानेदार’ फिल्म का ‘तम्मातम्मा लोगे…’ ऐसा ही कंप्यूटराइज्ड गाना था जिसे बहुत पसंद किया गया. कई बार मैं संगीत न दे कर गा भी लेता हूं.’’ फिलहाल बप्पी कई फिल्मों में गाने दे रहे हैं. उन का बेटा बाप्पा भी उन की कई फिल्मों का संगीत बना रहा है. इस के अलावा अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को ले कर उन्होंने एक एलबम बनाया है.

बप्पी लाहिड़ी को ले कर हमेशा एक बात अखरती है कि वे हमेशा सोना पहनने के पीछे सफलता व उन्नति के लिए तथाकथित भगवान आदि को श्रेय दे कर मेहनतकश व संघर्षशील लोगों के बीच अंधविश्वास फैलाने का काम करते हैं. उन की मानें तो गले में ढेर सारा सोना लादने से सफलता मिलती है. अगर ऐसे ही सफलता मिलती तो सारे कलाकार आलाप या रियाज के बजाय सुनारों की दुकानों में कतारें लगाए खड़े होते. चर्चित हस्ती होने के नाते नामी कलाकारों को इस तरह की दकियानूसी बातों से बचना चाहिए

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें