जीवन में संतुलन का बड़ा महत्त्व है. खानेपीने, सांस लेने जैसा यह भी जरूरी है ताकि जीवन चैन से जिया जा सके. संतुलन का मतलब हर चीज में उचित तालमेल बिठा कर चलना होता है. जहां सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. दुर्घटना घटती ही तब है जब हम अपना रास्ता छोड़ कर किसी और रास्ते पर चल पड़ते हैं. उत्तराखंड में भयावह तूफान ने 10 हजार से ज्यादा लोग लील लिए. हजारों घर उजड़ गए जिन्हें आजीवन इस पीड़ा के साथ जीना पड़ेगा मगर यह कड़वा सत्य है कि वहां जो हुआ वह इसलिए कि मनुष्य ने प्रकृति का रास्ता रोक रखा था. इतने वर्ष अगर नदी ने उधर का रुख नहीं किया तो मनुष्य ने उसी रास्ते को व्यापार का स्थान बना लिया. नदी के रास्ते में यदि मनुष्य न आया होता तो ऐसा होता ही नहीं.
24 छात्र व्यास नदी में बह गए. 24 घर उजड़ गए. मांबाप का जीवन अंधेरे में डूब गया. जो हुआ दुखद हुआ. इसे ले कर दोषारोपण भी हुए. कुछ अधिकारियों को निलंबित भी कर दिया गया. नतीजा क्या होगा? जो गए सो वापस नहीं आएंगे. सवाल यह है, बच्चे नदी के रास्ते में गए ही क्यों? जिस तरह ट्रेन की पटरी पर चलने का रास्ता सिर्फ ट्रेन के लिए है, उसी का पहला अधिकार है उस पर, उसी तरह मनुष्य को अपने रास्ते का पूरी गंभीरता से पता होना चाहिए. समाज का ढांचा इसी तर्ज पर चलता है कि हर जीने वाला अपनाअपना दायित्व ईमानदारी से निभाए. नेता ईमानदार हो तो देश की समूल पीड़ा ही समाप्त हो जाए. जनता वोट देने की अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाए. बेईमानी और लापरवाही का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं है. हादसा तभी होता है जब कार या बस ट्रेन के रास्ते पर आ जाती है. हवाई रास्ता हवाई जहाज के लिए है और सड़क मार्ग बसों, कारों और पैदल चलने वालों के लिए. इसी तरह सब का अपनाअपना रास्ता है. प्रकृति ने सब को सब का रास्ता दे रखा है. फर्क सिर्फ इतना सा है कि हम अपना रास्ता देखनासमझना ही नहीं चाहते, अनदेखा कर जाते हैं, जानबूझ कर उसे नकारते हैं.
नतीजा हमारे सामने है-कश्मीर में बाढ़ की जो इतनी बड़ी त्रासदी हुई उस में किस का दोष है? क्या हमारा ही नहीं? झीलों के शहर को हम ने ईंटपत्थरों का घर बना दिया. पहाड़ों से आने वाला पानी जो झेलम नदी में नहीं समा पाता था, वह झीलों में भर जाता था. और वही तो हुआ. बेचारा पानी, अपनी झीलों में ही तो आया. उसे क्या पता था उस के घर में किसी और ने डेरा लगा रखा है. घुसपैठ किस ने की है? क्या पानी ने? नहीं तो, वह तो अपने ही घर आया था न. अनचाहे मेहमान तो हम लोग थे जिन्हें सेना की कृपा से बचाया गया. बचाया गया या कहिए पानी को सहज घर से बाहर खदेड़ा गया. खदेड़ा गया शब्द अप्रिय लग रहा है, लिखने में भी और पढ़ने में भी. शायद सुनने में भी खदेड़ना का अर्थ है छड़ी की नोंक पर किसी को बाहर निकालना. क्या हम लोग आंखें होते हुए भी अंधों सा व्यवहार नहीं कर रहे? कबूतर की तरह आंख बंद कर के जीते हैं कि बिल्ली कहीं नहीं है. जबकि आसपास ही विचरती बिल्ली कब उसे ग्रास बना लेती है, पता ही नहीं चलता. जिस शाख पर घरौंदा है उसी शाख को धीरेधीरे काटने का हुनर भला हम से अच्छा किसे आता होगा.
प्रकृति तो बेचारी लगातार संकेत देती रहती है मगर हम ही आंख के अंधे जो कुछ भी देखना, सुनना और समझना पसंद नहीं करते हैं और न ही हर पल अपने ही जीवन को पलपल मौत की तरफ बढ़ते देखनासमझना चाहते हैं. अपनी दुर्दशा का सारा का सारा इल्जाम हम बेचारी कुदरत पर लगा कर आंख मूंद लेते हैं मगर सत्य यही है कि बेचारी, प्रकृति नहीं बेचारे तो हम हैं. हम ही हैं जिन्हें अपना काले अंधकार से भरा भविष्य नजर नहीं आ रहा. आने वाली पीढ़ी को हम क्या सौंप कर जाने वाले हैं, उस का अंदाजा हमें आज ही हो जाना चाहिए. भावना से शून्य तो हम हो ही चुके हैं. किसी के कंधे पर पैर रख कर ऊपर जाने का हुनर तो हमें आ ही चुका है. अब लाशों के ढेर पर खड़े हो कर विजय उत्सव मनाना ही रह गया था जो पाकिस्तान के पेशावर में हो भी गया. वे लाशें किसी दुश्मन की नहीं थीं, मासूम बच्चों की थीं जिन्हें न सत्ता से कुछ लेना था न राजनीति या धनसंपदा से. हमें कल नजर ही नहीं आ रहा. आज का सत्यानाश करने वाले हम यही समझ नहीं पा रहे भविष्य समाप्त करने वालों का जनाजा किस के कंधे पर जाएगा. जो बच्चे जवान हो कर हमारे बुढ़ापे को श्मशान तक पहुंचाने वाले हैं, उन्हें ही समाप्त कर क्या हम ने अपना बुढ़ापा लावारिस नहीं बना लिया?
यहां भी रास्ता ही भटक गए हैं हम. बच्चों का बचपन और जवानों की जवानी निगल जाने वाले हम समझ क्यों नहीं पा रहे कि कल हमारा दाहसंस्कार कैसे होगा, कौन हमें सुपुर्देखाक करेगा. यह तो प्रकृति का नियम है जो आया है उसे जाना भी है. सही यही है जो पहले आया वह पहले जाए. दादा की अरथी पोते के कंधे पर खूब सजती है. जाने वाले की वेदना तो होती है मगर शवयात्रा में साथ चलने वाले कहते हैं, ‘मरने वाला अच्छा इंसान था, नातीपोतों का सुख भोग कर जा रहा है.’ क्या हमें वह सुख मिलेगा, जरा सोचिए. प्रकृति के हर काम में तो हमारा दखल होता जा रहा है, जिसे 60-70 साल में जाना है उसे हम पहले ही भेजते जा रहे हैं. अधूरी इच्छाएं दमित हो कर कैसा बवंडर खड़ा करती हैं, इस का सहज नतीजा हमारे सामने है, जो मिले उसे सहज स्वीकार कर लेना हमें अब याद ही नहीं रहा. हमारा असंतोष घर की दीवारों को तोड़ कहांकहां फैल गया है. शरारतें, जिसे बच्चों की शरारत समझा जाता था, अब बचपने की परिधि से बहुत दूर चली आई हैं. मरना या मार देना एक नया ही खेल बन गया है जिसे भीगी आंखों से, बेबसी के साथ देखा जा रहा है, सहा जा रहा है मगर रोका नहीं जा रहा.
अब नहीं तो कब
हर बिगड़ी व्यवस्था का बीज कहीं हम ने ही तो नहीं डाला था, यह सोचने का विषय है. हमारे ही रोपे संस्कार आज हमें शर्मसार कर रहे हैं, यह स्वीकार करने का समय है. आतंकवादी और बलात्कारी भी तो किसी मां की ही गोद से निकले हैं. प्रकृति से भी कहीं आगे निकल जाना, हमें किसी अन्य लोक में समय से पहले भेज रहा है. जहां 70-80-90 की उम्र में जाना था वहां 12-14-20 साल में ही भेज देना क्या प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं है? यहां भी प्रकृति के काम में दखल. कब हम एक नैसर्गिक संतुलन बनाना सीखेंगे? किसी की सीमा में हमारा हस्तक्षेप आखिर कब बंद होगा? कब आएगा वह दिन जब हम अपनी और दूसरे की मर्यादा का सम्मान करना सीखेंगे? कब हम संतुलन बनाना सीखेंगे? अब नहीं तो आखिर कब?