क्या आप का बेबी बंप तरबूज की तरह फूला है?

आप को खट्टे से ज्यादा मीठा खाने का मन है?

आप का वजन तेजी से बढ़ रहा है पर पेट का आकार ज्यादा नहीं बढ़ा है?

आप का बेबी बंप ऊंचाई पर है?

नाभि का मुंह बंद होने के कगार पर है?

नाभि के निचले हिस्से व ऊपरी ब्रा लाइन तक डार्क बालों की धारी बन गई है?

ये सब लक्षण अगर आप के शरीर में दिखाई दे रहे हैं तो शर्तिया आप के लड़की होगी. कुछ ऐसे ही टोटके शीना को उस की सास ने बताए थे. शीना बहुत खुश थी क्योंकि कुछ ऐसे ही लक्षण उस के शरीर में भी दिखाई दे रहे थे. घर में खुशियों का माहौल था क्योंकि एक बेटे के बाद बेटी ही चाहिए थी. इस घर में परिवार तभी पूरा होता है जब लड़का और लड़की दोनों हों. परिवार की खुशी इन टोटकों को सुन डबल हो गई थी. युहान की भी खुशी का ठिकाना न था क्योंकि उसे अपनी पत्नी शीना जैसी क्यूट बेबीगर्ल चाहिए थी. शीना की डिलीवरी का वक्त नजदीक आ पहुंचा. डिलीवरी तो हुई पर यह क्या… लड़की नहीं, वह नवजात तो लड़का था. यह देख परिवार को हलका धक्का पहुंचा. इस परिवार में पिछली 2 पीढि़यों से कोई लड़की नहीं जन्मी थी. लड़का देख एकबारगी सब का मुंह उतर गया. केवल अनुमान के आधार पर ही उन्होंने मान लिया था कि लड़की होगी. वैसे भी उन के पास अनुमान लगाने के अलावा दूसरा रास्ता न था क्योंकि सरकार भू्रण का लिंग परीक्षण कराने नहीं देती. अपने परिवार को पूरा करना चाह रहे शीना और युहान को निराशा हाथ लगी थी.

आज की तारीख में कोई भी प्रोडक्ट लेने से पहले हम उस की सारी रिसर्च कर लेते हैं. उस की खासीयत से ले कर कमी तक की सारी चीजों पर सोचविचार कर उसे लेने या न लेने का फैसला करते हैं. ऐसा इसलिए कि हम उस समय (काल) में आ चुके हैं कि बिना सोचेसमझे कुछ लेना बेवकूफी समझते हैं. लेकिन बच्चे के मामले में पिक ऐंड चूज का कोई सवाल ही नहीं उठता. आप को ऐडजस्ट करना पड़ेगा. क्योंकि देश का कानून आप को कभी भी मां के गर्भ में बढ़ रहे भ्रूण की लिंग जानकारी हासिल नहीं करने देगा. हम अपने देश को विकसित देशों की श्रेणी में रखते हैं पर आज भी बच्चा लड़का हो या लड़की हो, यानी उस के लिंग का फैसला परिवार के लोग नहीं, बल्कि सरकार करती है क्योंकि आप को अपने बच्चे का लिंगनिर्धारण करने की अनुमति नहीं है. हमारे देश की महिलाएं भले ही विकसित देशों की महिलाओं से कदमताल कर रही हों लेकिन उन्हें अपनी कोख पर हक हासिल नहीं है. यह हक उन्हें चिकित्सा विज्ञान दे रहा है लेकिन सरकार और समाज ने उन से इसे छीन रखा है. महिलाओं की कोख में सरकार का दखल बना हुआ है. महिलाओं को आखिरी समय तक यह पता नहीं रहता कि उन के घर में आने वाला मेहमान कौन है? वे किस के स्वागत की तैयारी करें, बेटे की या बेटी की? हम शायद खुद को सभ्य कहलाना पसंद करते हैं, पर अब भी कानून हमें हर वक्त यह याद दिलाते हैं कि हमें डंडे से हांका जा रहा है और हांके जाने की जरूरत भी है.

क्या है कानून

भारत की संसद द्वारा 1996 में पारित किया गया पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक यानी पीसीपीएनडीटी कानून देश में बालिकाभू्रण हत्या रोकने के लिए गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध लगा कर लिंग अनुपात में अंतर को समाप्त करने के लिए लागू किया गया था. प्री कंसैप्शन ऐंड प्री नेटल डायग्नौस्टिक टैक्निक्स यानी पीसीपीएनडीटी ऐक्ट के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जांच पर पाबंदी है. ऐसे में अल्ट्रासाउंड या अल्ट्रासोनोग्राफी करवाने वाले जोड़े या करने वाले डाक्टर, लैबकर्मी को 3 से 5 साल तक की कैद और 10 से 50 हजार रुपए जुर्माने की सजा का प्रावधान है. आज लोगों को सूचना का अधिकार व जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है और सभी इन अधिकारों को जोरशोर से बढ़ावा भी दे रहे हैं. इसी के साथ हमें अपने देश, समाज, परिवार, अपने व अपने शरीर के बारे में भी जानने का अधिकार मिलना चाहिए. जब हमें ये सभी अधिकार मिलने चाहिए तो गर्भवती स्त्री को अपने गर्भ में बढ़ रहे अपने भू्रण की लिंग जानकारी हासिल करने का अधिकार क्यों नहीं है?

भू्रण हत्या के डर से महिला को इस अधिकार से वंचित किया गया है जो उचित नहीं है. भू्रण हत्या को रोकना, भू्रण हत्या में लिप्त लोगों को कठोर सजा देना सरकार का काम है, जो सही है पर आज के समय में महिलाओं को उस की कोख में पलबढ़ रहे भू्रण के लिंग जानने के अधिकार से वंचित करना गलत है. भारत और पूर्व व दक्षिणपूर्व यूरोप में परिवारों के रूढि़वादी तबके की सोच है कि लड़के खानदान का नाम आगे बढ़ाते हैं जबकि लड़कियां शादी कर पराए घर चली जाती हैं. 

स्त्री का अधिकार पर कानून : मौजूदा कानून की नजर में गर्भपात कराना अपराध की श्रेणी में आता है. गर्भ की वजह से यदि किसी महिला के स्वास्थ्य को खतरा हो तो वह गर्भपात करा सकती है, ऐसी स्थिति में उस का गर्भपात वैध माना जाएगा. कोई व्यक्ति महिला की सहमति के बिना उसे गर्भपात कराने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. यदि पुरुष ऐसा करता है तो महिला को अधिकार है कि वह कानून का दरवाजा खटखटा सकती है. दोषी पाए जाने पर पुरुष को उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.

लोग समझदार, डंडे से न चलाए सरकार

भारत में सरकार लोगों के घरों तक कानून के जरिए दस्तक दे कर उन्हें अपने होने वाले बच्चे का पता लगाने से रोकना चाहती है. आज, भले ही हम विदेशों में पढ़ लें, वहां नौकरी कर लें या अपने देश में विदेशी कंपनी के मुलाजिम हों, पर घर में अगर नया मेहमान आएगा तो उस का फैसला या तो प्रकृति पर निर्भर है या फिर कानून पर. इंसान ने इतनी तरक्की कर ली है कि वह चांद पर घर बनाने की सोच रहा है लेकिन आज भी नए मेहमान के घर में आने तक उस के बारे में वह जान नहीं सकता क्योंकि सरकार का डंडा उस के सिर पर तैनात है. वह इस बारे में सिर्फ कयास ही लगा सकता है. आज की पीढ़ी को देखें तो नया मेहमान आने से पहले ही परिवार में सारी तैयारियां कर ली जाती हैं. बच्चे के जन्म से ले कर, उस की पढ़ाई, उस के बडे़ होने और उस की हायर एजुकेशन तक की तैयारियां कर ली जाती हैं. इस के अलावा परिवार में कितने बच्चे चाहिए, इस की भी काफी सोचसमझ कर प्लानिंग की जाती है. ऐसे में जब कोई पेरैंट्स नई पीढ़ी के लिए हर कदम सोचसमझ कर उठा रहे हैं, तो उन्हें कम से कम यह तय करने का हक तो होना चाहिए कि वे किस के लिए ये तैयारियां कर रहे हैं या फिर उन्हें अपने घर में कौन सा मेहमान चाहिए?

कोख पर अधिकार मां का…

किसी बच्चे को 9 महीने तक अपने अंदर जगह देने वाली संतान पर पहला हक किस का होता है? जवाब बहुत आसान है – मां का. पर असल में ऐसा होता नहीं है. जब हम कोख पर अधिकार की बात करते हैं तो उस में यह भी शामिल होता है कि उस की कोख में कौन आए, या वह अपनी कोख में किसे जगह दे या वह कितनी संतानें पैदा करे? लेकिन भारत में हमें ऐसा देखने को नहीं मिलता. औरत की कोख हो या उस का शरीर, उस का खुद का इन पर हक नहीं है. कहीं समाज के ठेकेदार तो कहीं कानून के ठेकेदार उसे कठपुतली की तरह नचाते रहते हैं. औरत क्या पहने, कैसे रहे, कहां जाए, क्या खाए, किसे पैदा करे, इन सब के लिए लिखित या अलिखित नियम या कानून पहले से ही तय हो गए हैं. कई दशकों बाद भी इन में कोई बदलाव नहीं आया है और न ही पुरुषप्रधान समाज को इस में बदलाव की कोई जरूरत महसूस होती है. अपनी संतान के रूप में औरत की पहली पसंद भी कोई माने नहीं रखती. कभी उसे पति की सुननी पड़ती है, कभी ससुराल वालों की तो कभी अपनी कोख के भीतर बच्चे का लिंग तय करने वाली सरकार के कानूनों की.

इन्हीं कानूनों से हमें देखने को मिलता है कि कईर्बार स्कूली बच्चियों के गर्भवती हो जाने पर उन्हें अपना अबौर्शन करवाने की इजाजत नहीं मिल पाती. ऐसे में 10वीं और 12वीं में पढ़ने वाली बच्चियों के मां बनने की खबरें आती रहती हैं. मार्च 2015 में मध्य प्रदेश की एक छात्रा मां बन गई थी, 13 साल में मां. ऐसे में वह अपनी पढ़ाई जारी रखे या बचपन में ही बच्चा पालने लग जाए. इस कानून में जरूरी बदलाव का समय आ गया है.

कानून व तकनीक का कैसा तालमेल?

किसी महिला के प्रैग्नैंट होने पर पहले महीने से ही उस की कई जांचें और इलाज शुरू कर दिया जाता है. इस में गर्भ में पल रहे बच्चे के एचआईवी पौजिटिव होने से ले कर उस के कौंप्लिकेशन, उस की पोजीशन, उस के बढ़ने और हिलनेडुलने तक की जांचें की जाती हैं. इस के लिए उसे अल्ट्रासाउंड से ले कर सोनोग्राफी जैसी जांचों से गुजरना पड़ता है. ऐसे में लिंग का पता तो प्रैग्नैंसी की शुरुआती स्टेज में ही चल जाता है. लेकिन कानून यह है कि डाक्टर अपने मरीजों को उन के बच्चे के लिंग के बारे में नहीं बता सकते. आज मशीनें इतनी आधुनिक हैं कि बच्चे के लिंग धारण करने के समय से ही वे उस का पता लगा लेती हैं. ऐसे में इस बात को छिपा कर रखना वैसे भी संभव नहीं है. कई बार तो ऐसी कोशिश विकास की टांग खींचने जैसी लगती है. लेकिन कानून के जरिए उसे रोकना किस हद तक संभव है, यह डाक्टर और पेशेंट के बीच की अंडरस्टैंडिंग होती है कि कई बार डाक्टर उन्हें उन के बच्चे के बारे में बता देते हैं. कई बार बच्चे में कौंप्लिकेशन होने पर भी उस के लिंग का राज खोलना पड़ता है. ऐसे में अकसर यह कानून धरा का धरा रह जाता है.

कानून सिर्फ गरीबों के लिए

हमारे देश में हर कानून की तरह गर्भ में लिंग की जांच पर रोक लगाने वाला कानून भी सिर्फ गरीबों के लिए है. अमीर अपने पैसों के दम पर इस कानून का तोड़ निकालने में सफल रहते हैं. गरीबों पर 400-500 रुपए में अल्ट्रासाउंड के जरिए अपने घर में आने वाले बच्चे का पता लगाने पर रोक है लेकिन यही काम आईवीएफ तकनीक के जरिए अमीर आसानी से कर सकते हैं. उन्हें ऐसा करने से देश का कानून भी नहीं रोकता. मैडिकल टूरिज्म का गढ़ बन चुके भारत में विदेशों से भी कपल्स अपने भावी बच्चे का लिंग पता करने और अपनी इच्छानुसार बच्चे पैदा करने यहां आते रहते हैं. नामी अस्पतालों में 1 से 2 लाख रुपए दे कर ये कपल्स अपने भावी बच्चे के लिंग का निर्धारण अपनी सहूलियत से गर्भ में फर्टिलाइज्ड एग को प्रतिरोपित करने से पहले करते हैं और यह काम गैरकानूनी भी नहीं कहलाता है. इस से तो यही लगता है कि सरकार पैसे देने वालों को अपने हिसाब से बच्चे चुनने का हक देती है. वैसे भी, लिंग जांच कानून आईवीएफ को अपने दायरे से बाहर छोड़ देता है. इस तरह एक ही देश के अलगअलग स्तर के लोगों के लिए अलगअलग कानूनी प्रावधान बन गए हैं.

बौलीवुड स्टार शाहरुख खान का मामला ही देख लें. उन्होंने सैरोगेसी के जरिए हुई अपनी तीसरी संतान का लिंग पहले ही जान लिया था. इस मामले में उन के खिलाफ शिकायत भी की गई थी. इस से फिर साबित हो गया कि पैसे के दम पर उच्च परीक्षण और तकनीक के नाम पर अमीरों को अपने भावी बच्चों के लिंग की जांच की छूट दी गई है.

गलत रिवाजों की सजा क्यों झेले सभ्य समाज

पुराने समय में बेटी को बोझ मानने की सोच को आज के जमाने के लोग क्यों झेलें. अब बेटियां जिंदगी के कई मोरचों पर खुद को बेहतर साबित कर रही हैं. पुरानी सोच के मुताबिक बेटियों को पराया धन माना जाता था और उन की परवरिश में कमी भी की जाती थी. यही नहीं, उन के पैदा होते ही उन की शादी में होने वाले खर्च या दहेज के बारे में चिंता की जाने लगती थी. तब बेटियों का पैदा होना, घरपरिवार को दुख से भर देता था. आज स्थिति पहले से अलग है. दुनिया बदली है, तो भारत में भी लोगों ने अपनी सोच बदली है. बेटियां खुद के पैरों पर खड़़़़ी हैं और ‘दुलहन ही दहेज है’ को सही साबित कर रही हैं. ऐसे में कुछ लोगों की नासमझी को पूरे समाज की गलती क्यों मान लिया जाए? आज कई लोग ऐसे भी हैं जो बेटी को बेटे पर वरीयता देते हैं. मान लीजिए, किसी कपल को बेटी चाहिए पर उसे बेटा हो जाए और वह खुद को दूसरी संतान की जिम्मेदारी उठाने लायक न समझता हो तो ऐसे में उसे जिंदगीभर मन मसोस कर नहीं रहना होगा? दरअसल, आजकल बेटा हो या बेटी, दोनों ही कमाऊपूत साबित हो रहे हैं, दोनों किसी पर निर्भर नहीं होते.

मेरा परिवार, मेरा फैसला

परिवार चलाने वाली मां को उस के गर्भ में पलबढ़ रहे बच्चे का लिंग जानने/निर्धारित करने का अधिकार देने की मांग कुछ नारीवादी संगठन पहले भी करते रहे हैं. यह मांग ठोस तौर पर कभी साकार रूप नहीं ले सकी और न ही इस पर नीति नियंताओं का ध्यान गया. एक महिला को अपने परिवार में कौन सी संतान पहले चाहिए, इस का हक उसे होना चाहिए. इस के साथ ही, महिलाओं को सामाजिक बुराइयों के प्रति जागरूक करने की जरूरत भी है. वैसे तो समाज में लैंगिक भेदभाव से सब से ज्यादा महिलाएं ही जूझती हैं. जो महिलाएं इस भेदभाव को झेल कर भी जिंदा रह जाती हैं वे इस का दर्द समझती हैं और अपनी बिरादरी के प्रति हमदर्द भी होती हैं. हमारे समाज में ज्यादातर बुराइयां तो पुरुषप्रधान होने के नाते हैं. कानून को महिलाओं की कोख तय करने का अधिकार देने के बजाय महिलाओं को ही यह अधिकार मिले तो इस के ज्यादा यथार्थ होने की संभावना रहेगी. लेकिन इस के लिए महिलाओं को जागरूक, शिक्षित और सशक्त करना होगा.

समाज की सोच बदलने की जरूरत

भारतीय समाज में दहेजप्रथा जैसे रिवाजों के होने के चलते यहां के पुरुष सत्तात्मक रवैए और पुरुषों की सोच को बदलने की जरूरत है. पुरुषप्रधान समाज की पुरुष सत्तात्मक सोच के चलते ही लड़कियों को गर्भ में मारा जाने लगा. इस के चलते ही ऐसा कानून लाया गया कि जिस से महिलाओं के पास अपनी कोख को तय करने का अधिकार नहीं रह गया. पूरा घर चलाने के अलावा घर के बाहर के मामलों में भी महिलाओं की पुरुषों से ज्यादा समझ होती है. ऐसे में अगर महिलाओं को कोख का फैसला करने को मिलता तो वे ज्यादा तार्किक तरीके से इस बारे में फैसला ले सकती थीं. होना तो यह चाहिए था कि समाज की सोच बदली जाती और अपनी कोख में किसे जगह दी जानी है, इस बारे में महिला का ही फैसला अंतिम माना जाता. समाज को इस बारे में शिक्षित और जागरूक करने के बजाय सरकार ने कानून के डंडे के बल से लोगों को हांकने का आसान और कामचलाऊ तरीका निकाला. महिलाओं से हक छीन लिए गए. दरअसल, समाज को भू्रण हत्या के खतरों के प्रति आगाह करना और भविष्य की तसवीर दिखाने की दीर्घजीवी मगर टिकाऊ प्रक्रिया हो सकती थी, पर इस से कन्नी काट ली गई. लोगों पर खासतौर से महिलाओं पर कानूनरूपी तलवार चला दी गई.

वे करें, हम क्यों नहीं?

अमेरिका में लिंग की जन्मपूर्व जांच में कोई रोकटोक नहीं है. इस के बावजूद वहां पर सैक्स रेशियो भारत से कहीं बेहतर है. भारत में 1 महिला के मुकाबले 1.12 पुरुष हैं तो वहीं अमेरिका में 1 महिला के मुकाबले 1.05 पुरुष हैं. इस से यह तर्क तो गलत साबित होता है कि सैक्स रेशियो और भू्रण के लिंग की जांच का आपस में संबंध है. मान लीजिए, अगर भारतीय संदर्भ में इन का आपस में संबंध है भी, तो उसे दूर करने की कोशिश की जानी चाहिए थी. यह तो बांध बना कर बरसात में नदी के प्रवाह को रोकने जैसी कोशिश हो गई. ऐसे में बांध टूटने पर ज्यादा तबाही का खतरा होगा. बेहतर तो यह होता कि बारिश से पहले नदी और बारिश के पानी के प्रबंधन की योजना बनाई जाती, जिस से नदी और बारिश दोनों के पानी का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. यह भले ही समय लेने वाली प्रक्रिया होती, लेकिन समाज को लंबे समय तक फायदा देती.

बेटियों को प्रोत्साहन दे सरकार

लिंग निर्धारण पर सख्त कानून बनाने के बजाय सरकार को समाज को जागरूक करने पर ध्यान देना चाहिए. सरकारें इस मसले पर अगर वाकई गंभीर रहतीं तो वे बेटियों को प्रोत्साहित करने की जमीनी कार्यवाही करतीं. देशभर में सैक्स रेशियो सुधारने के लिए बेटियों की पालने, पढ़ाने, हायर और प्रोफैशनल एजुकेशन देने व बीमारी में मुफ्त इलाज और सरकारी के साथ ही प्राइवेट नौकरियों में प्राथमिकता देने व उन्हें उचित सुरक्षा देने की व्यवस्था की जानी चाहिए थी. ये सब सुविधाएं समाज में जमीनी स्तर पर बदलाव लाने का काम करतीं  बेटियों को बोझ या मनहूस माने जाने वाले भारत जैसे समाज में ऐसे कदम निश्चित तौर पर बेटियों के जन्म को प्रोत्साहित करते. इस के बाद यह कपल्स पर निर्भर करता कि वे बेटा चाहते हैं या बेटी. जिन देशों में सामाजिक सुरक्षा के बेहतर इंतजाम हैं, वहां के समाज को लिंगानुपात में बड़े अंतर जैसी गंभीर समस्या से दोचार नहीं होना पड़ता है. ऐसे में भारत को कम से कम उन देशों से ही यह सीख ले लेनी चाहिए थी.

अबौर्शन टूरिज्म

भारत और दक्षिणपूर्व यूरोपीय देशों में कन्याभू्रण हत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं. अल्ट्रासाउंड की मदद से डाक्टर गर्भावस्था के 14वें हफ्ते से भू्रण के लिंग का पता लगा सकते हैं. भारत की ही तरह यूरोप के कई देशों में भू्रण के लिंग की जांच करना व कराना अवैध है. कई देशों में तो गर्भपात की ही मनाही है, हालांकि ऐसा धार्मिक कारणों से भी है. जरमनी में पहले 3 महीनों तक गर्भपात की अनुमति है. इस के बाद आप चाहें तो भ्रूण के लिंग की जांच करा सकते हैं लेकिन इस के बाद गर्भपात नहीं कराया जा सकता, जबकि अमेरिका में ऐसा किया जा सकता है. अल्बानिया और मैसेडोनिया की जन्मदर पर ध्यान दें तो वहां भी कानून का उल्लंघन किया जा रहा है. वहां अवैध रूप से कन्याभू्रण हत्या की जा रही है. वहीं, स्वीडन का नाम ‘अबौर्शन टूरिज्म’ से जुड़ गया है. स्वीडन में 18वें हफ्ते तक गर्भपात कराया जा सकता है. यूरोपीय संघ के अलगअलग देशों में अलगअलग कानून होने से भी लोग उन का फायदा उठा रहे हैं. एक देश में लिंग जांच कराने के बाद वे दूसरे देश में जा कर गर्भपात करा लेते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि नौर्वे और ब्रिटेन में रह रहे एशियाई मूल के लोगों के लिंग अनुपात की अगर दूसरे लोगों से तुलना की जाए तो भारी फर्क देखने को मिलेगा. आईवीएफ जैसी तकनीक में भी भू्रण का लिंग निर्धारित किया जा सकता है. इसे प्रीइम्प्लांटेशन जैनेटिक डायग्नोसिस या पीजीडी कहा जाता है.

सिर्फ दिखावे की राजनीति

भारत में महिलाओं की कोख में बेटा हो या बेटी, यह जिम्मेदारी सरकार के बनाए कानून से निर्धारित होती है. सरकारें सैक्स रेशियो के बिगड़ने का तर्क दे कर कोख में पलबढ़ रहे भ्रूण के लिंग की पहचान जानने पर रोक लगाती हैं. यही सरकारें महिलाओं को ले कर कितनी संवेदनशील हैं, इस का पता इस बात से चल जाता है कि लगभग सभी दल सत्ता में किसी न किसी तरह रह चुके हैं, लेकिन उन्होंने आज तक महिलाओं को संसद में 33 फीसदी आरक्षण देने वाला विधेयक पारित नहीं कराया है. भारतीय राजनेता या पुरुष राजनेता किसी भी मुद्दे पर सिर्फ दिखावे की राजनीति करते हैं. इन की राजनीति गंभीर होती तो ये सब से पहले अपने बीच में महिलाओं के लिए बराबरी की जगह बनाते. उन्हें उन का 50 फीसदी संख्या में निर्वाचित होने का हक देते, थोड़ा सहिष्णु होते. दरअसल, वे 33 फीसदी महिलाओं को झेलने लायक संयम तक अपने भीतर नहीं ला सके हैं. इस के अलावा, इन नेताओं के बनाए गए कानूनों से स्त्रीपुरुष के अनुपात को बराबरी पर लाने की कोशिशों के परिणाम किस हद तक सफल रहे हैं, यह भी सब के सामने है.

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