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पैक्ड फूड : सेहत के लिए खतरे की निशानी

व्यस्तताओं के बीच हमें खाने का भी वक्त नहीं मिलता. ऐसे में खाना पकाने के लिए वक्त निकाल पाना दूर की बात है. ऐसे में अकसर लोग बाजार में बिकने वाले रेडी टू ईट यानी खाने की तैयार चीजों पर निर्भर हो जाते हैं और अपनी भूख को तुरंत शांत करने के लिए इन के उत्पादकों के बेहद शुक्रगुजार भी होते हैं. औफिस जाने वालों के लिए तो ऐसी चीजें जीवनदायी साबित होती हैं, क्योंकि उन के पास खाना बनाने का वक्त नहीं होता है. आजकल ऐसे लोगों की आबादी बेहद तेजी से बढ़ रही है, खासतौर से महानगरों और बड़े शहरों में, जहां काम का दबाव ज्यादा होने के साथसाथ काम के लिए रोज लंबी दूरी भी तय करनी पड़ती है. वहीं, ऐसे परिवारों की संख्या भी कम नहीं है जो पूरी तरह से पैक्ड फूड या रेडी टू ईट फूड पर निर्भर हो चुके हैं. उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि ऐसा कर के वे अपनी सेहत के साथ किस कदर समझौता कर रहे हैं.

जीवन को सिर्फ आसान बनाने वाली चीजों की तलाश करना काफी नहीं है बल्कि जीवन को स्वस्थ बनाने वाली चीजों को प्राथमिकता देना भी जरूरी है. पैक्ड फूड का कभीकभी इस्तेमाल कर लेना खराब नहीं है, लेकिन अकसर इस पर निर्भर रहना गलत है. आप शायद इन के लेबल पढ़ कर खुद को संतुष्ट कर लेते होंगे जहां लिखा होता है कि इस में ट्रांसफैट, प्रिजर्वेटिव या मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी नहीं मिलाया गया है. लेकिन इन में ऐसे कई छिपे तत्त्व भी होते हैं जिन के चलते प्रोसैस्ड और रेडी टू ईट फूड के लंबे समय तक इस्तेमाल से डायबिटीज, मोटापा और यहां तक कि कैंसर भी हो सकता है.

पैक्ड फूड की असलियत

पैकट वाले खाने की चीजों की प्रोसैसिंग इस तरीके से की जाती है कि उन्हें लंबे समय तक स्टोर किया जा सके और वे खाने के लिए सुरक्षित व स्वादिष्ठ रहें. इस प्रक्रिया के दौरान इन बातों का ध्यान रख पाना संभव नहीं होता कि इन में पोषण भी बरकरार रहे. बड़े ब्रैंड अपने उत्पादों में चीनी, नमक, फैट जैसी चीजें अच्छी क्वालिटी की इस्तेमाल करते हैं, जबकि सस्ते ब्रैंड के मामले में इन चीजों की गुणवत्ता की गारंटी नहीं होती है. ये उत्पाद बनाने वाली कंपनियां उत्पादों को लंबे समय तक ताजा बनाए रखने, उन का फ्लेवर बढ़ाने और टैक्चर व रंग अच्छा दिखाने के लिए कृत्रिम शुगर, नमक, फैट इस्तेमाल करती हैं.

हानिकारक तत्त्व

कृत्रिम शुगर : ग्राहक अकसर खाने की चीजों के पैकेट पर शुगर फ्री का लेबल देख कर खुश हो जाते हैं, लेकिन वे यह नहीं सोचते हैं कि इस में कृत्रिम शुगर मिलाई गई है. डायबिटीज पीडि़त लोग तो इसे अपने लिए वरदान मान लेते हैं. मगर वे इस बात को ले कर जागरूक नहीं होते हैं कि सैक्रीन, ऐस्पारटेम और फ्रूक्टोस जैसी कृत्रिम शुगर उत्पादकों के लिए आसानी से और कम कीमत पर उपलब्ध होती हैं. यही वजह है कि वे तकरीबन सभी पैकेट वाली चीजों में इन का इस्तेमाल करते हैं. अध्ययन बताते हैं कि इन के लंबे समय तक इस्तेमाल से कैंसर हो सकता है.

मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी : यह तत्त्व कृत्रिम या प्राकृतिक दोनों रूपों में उपलब्ध है. मोनोसोडियम ग्लूटामेट खाने की प्राकृतिक चीजों का फ्लेवर बढ़ाता है. लेकिन इस के साथ समस्या यह है कि यह उत्पाद ब्लडब्रेन बैरियर को पार कर सकता है, जिस से कुछ लोगों को माइग्रेन की समस्या हो सकती है. 

सोडियम नाइट्रेट : पैक्ड फूड व रेडी टू ईट खाने की चीजों, खासतौर से मीट वाले उत्पाद की लाइफ बढ़ाने के लिए इस में सोडियम नाइट्रेट मिलाया जाता है. सोडियम नाइट्रेट वाली चीजें खाने से बालों के झड़ने, त्वचा में एलर्जी, सिरदर्द और पेट की समस्याएं हो सकती हैं. जब तक जरूरी न हो, पैक्ड जूस न पिएं. इन में शुगर काफी ज्यादा होती है और प्रिजर्वेटिव भी खूब होते हैं, जो आप को फ्रैश जूस की तरह ताजगी व तंदरुस्ती दे पाने में नाकाम हैं. शोधकर्ताओं ने पाया है कि पैक्ड सलाद खाना हानिकारक हो सकता है. वे मानते हैं कि सलाद  की हरी पत्तेदार सामग्री में अकसर बैक्टीरिया पनप जाते हैं और वे फूड पौइजनिंग का कारण बन सकते हैं. आप को आश्चर्य होगा कि उत्पादकों के लेबल पर प्राकृतिक शब्द के इस्तेमाल के लिए एफडीए के तय मानदंड या दिशानिर्देश नहीं हैं. इस शब्द का इस्तेमाल करना कंपनियों का ऐसा हथकंडा है जिस से आमतौर पर लोग चक्कर खा जाते हैं. फूड पैकेजिंग ऐक्ट के अनुसार प्रत्येक पैक्ड खाद्य पदार्थ की पैकिंग पर बैच नंबर, निर्माण की तिथि तथा उचित उपयोग की अवधि लिखना अनिवार्य है. लेकिन कुछ उत्पादकों द्वारा इस का पालन नहीं किया जाता है. लब्बोलुआब यह है कि प्रोसैस्ड और रेडी टू ईट खाने की चीजों के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से बचें.

जब भी डब्बाबंद या पैकेट वाली खाने की चीजें खरीदें तब अपने दिमाग में यह बात जरूर रखें कि यह आप की सेहत के लिए खतरनाक है. अगर आप लगातार इस का इस्तेमाल कर रहे हैं तो इस के लाजवाब स्वाद और फ्लेवर की आप को आदत लग सकती है. ऐसे में अपनी सेहत की खातिर ऐसी चीजों के लगातार इस्तेमाल व इस की लत में पड़ने से बचें. स्वास्थ्य की दृष्टि से घर में पके खाने का कोई जवाब नहीं होता. वहीं, कृत्रिम चीजें तो हमेशा कृत्रिम ही रहेंगी. अगर आप अकसर पैक्ड व रेडी टू ईट फूड का इस्तेमाल करते हैं तो इसे तुरंत बंद कर दें.     

 – कनिका मलहोत्रा

(लेखिका हैल्थकेयर ऐट होम में सीनियर क्लीनिकल न्यूट्रीशनिस्ट हैं)

नेपाल की प्रथम महिला राष्ट्रपति विद्या देवी

19 जून, 1960 को नेपाल के भोजपुर इलाके में जन्मी विद्या जब स्कूल में पढ़ती थीं तो नेपाल की लड़कियों और औरतों की हालत को ले कर दुखी होती थीं. उन के पिता रामबहादुर पांडे भारतीय मूल के नेपाली नागरिक थे. उन्होेंने ही विद्या के कोमल दिलोदिमाग में यह बैठा दिया था कि पढ़ाई के जरिए ही महिलाओं, समाज और समूचे देश की तरक्की हो सकती है. उन के घर की माली हालत ठीक नहीं थी, इस के बावजूद उन की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी गई. 15 साल की उम्र में छात्र राजनीति से जुड़ने वाली विद्या ने स्कूल और कालेज की पढ़ाई के दौरान ही मुखर वक्ता के तौर पर अपनी पहचान बना ली थी. उन्होंने महिला समस्याओं को उठाया और तमाम परेशानियों के बाद भी महिलाओं के लिए लगातार लंबी लड़ाई लड़ती रहीं.

वही विद्या 28 अक्तूबर को नेपाल की पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गई हैं. नेपाल के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सब से ऊंचे सरकारी पद पर बैठने का गौरव हासिल हुआ है. नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की उपाध्यक्ष विद्या देवी भंडारी ने नेपाल कांग्रेस के अपने नजदीकी प्रतिद्वंद्वी कुल बहादुर गुरुंग को 113 वोट से शिकस्त ही नहीं दी बल्कि 4 दूसरी पार्टियों का समर्थन पाने में भी कामयाब रहीं. नेपाल में राजशाही खत्म होने के बाद विद्या दूसरी निर्वाचित राष्ट्रपति हैं, जबकि नया संविधान बनने के बाद वे पहली राष्ट्रपति बनी हैं. उन्होंने रामबरन यादव की जगह ली.

पढ़ाई के दौरान ही साल 1978 में विद्या कम्युनिस्ट पार्टी औफ नेपाल (एमएल) की यूथ विंग से जुड़ गईं. पार्टी की युवा नेता के तौर पर सभाओं में वे जम कर बोलतीं और महिलाओं को अपने मसलों के लिए आवाज उठाने को ललकारती थीं. देश में महिलाओं की कमजोर हालत के साथसाथ विद्या को नेपाल की पंचायतीराज व्यवस्था में राजशाही का दखल काफी कचोटता था. उन का मानना है कि कहने को तो जनता को अपना लोकल नेता चुनने का अधिकार मिला हुआ था लेकिन नेता जनता के बजाय राजा के प्रति जवाबदेह थी. उन्होंने इस माहौल को बदलने की ठान ली. उन्होंने जनता के बीच इस मसले को जोरदार तरीके से उठाया और आखिर, राजशाही का खात्मा हो गया.

आंदोलन के दिनों में ही उन की मुलाकात पार्टी के सीनियर लीडर मदन भंडारी से हुई और देखते ही देखते दोनों की दोस्ती मुहब्बत में बदल गई. उस के बाद 1982 में दोनों विवाह के बंधन में बंध गए. विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों व झंझटों के बढ़ जाने से वे राजनीति से काफी हद तक कट गईं. 2 बेटियों की मां बनने के बाद उन्होंने पूरी तरह से परिवार का बोझ अपने कंधे पर उठा लिया और राजनीतिक गतिविधियां कम कर दीं. साल 1993 में पति की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के बाद विद्या को गहरा झटका लगा. उसी समय पार्टी ने उन्हें बड़ी जिम्मेदारी उठाने का आग्रह किया, जिसे वे टाल न सकीं.

पार्टी और परिवार के काम के बीच तालमेल बिठाते हुए वे दोनों ही दायित्वों को बेहतर तरीके से पूरा करने में लगी रहीं. 1994 के आम चुनाव में उन्होंने नेपाल के तब के प्रधानमंत्री कृष्ण प्रसाद भट्टाराई को काठमांडू सीट से हरा कर चुनाव जीता. 1999 में उन्होंने दोबारा उस सीट पर जीत हासिल की. उस के बाद माधव कुमार नेपाल की सरकार में उन्हें रक्षा मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई. 25 मई, 2009 से 6 फरवरी, 2011 तक वे रक्षा मंत्री रहीं. 2008 में काठमांडू-4 सीट से वे चुनाव हार गई थीं लेकिन 2013 में हुए संविधान सभा के चुनाव में वे फिर से पूरी ताकत के साथ वापस लौटीं.

साल 2006 में जब नेपाल में राजशाही को खत्म करने का आंदोलन तेज हुआ तो उन्होंने राजा ज्ञानेंद्र के खिलाफ लड़ाई की अगुआई की. उसी साल राजा ने गद्दी छोड़ने का ऐलान किया तो देश में लोकतंत्र कायम होने का रास्ता साफ हो गया. उसी समय उन की तबीयत खराब हुई और जांच के बाद कैंसर होने का पता चला, इस के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने ही पहली बार सरकार में महिलाओं को एकतिहाई आरक्षण देने की मांग उठाई. गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन से जूझते नेपाल के लिए विद्या का राष्ट्रपति बनना देश के लिए नई उम्मीद जगाने के साथ ही महिलाओं को कमजोर मानने वाले देश में महिला के ताकतवर होने का रास्ता भी खोलता है. नेपाल में ज्यादातर महिलाएं घरपरिवार चलाने या छोटामोटा रोजगार करने में ही मसरूफ रही हैं. नई राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ऐसा नेपाल चाहती हैं जिस में महिलाओं को बराबरी का हक मिले. उन का सपना है कि हर नेपाली लड़की स्कूल जाए और उसे मनचाहा कैरियर चुनने का मौका व हक मिले. विद्या के सामने सब से बड़ी चुनौती भूकंप की मार, सियासी उठापटक और माओवादियों के 10 साल तक चले गृहयुद्ध से पूरी तरह से टूट चुके नेपाल को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने की है. नेपाल की संविधान सभा में कुल 173 महिलाएं सांसद बनी हैं लेकिन 18 सदस्यीय मंत्रिमंडल में केवल रेखा शर्मा को ही जगह मिल सकी है. महिला सांसद मंत्रिमंडल में 33 फीसदी महिलाओं को जगह देने की आवाज उठा रही हैं.

भारत-नेपाल मैत्री संघ के सदस्य अनिल कुमार सिन्हा कहते हैं कि भारत के साथ संबंध सुधारना और मधेशी आंदोलन को ठंडा करना नई राष्ट्रपति के लिए बहुत बड़ी चुनौती है. देश के 7 राज्य मधेशी आंदोलन की चपेट में हैं, जिस से समूचा नेपाल अस्तव्यस्त हो चुका है. इस के साथ ही, नेपाली लड़कियों की तस्करी पर रोक लगाने, नशे पर पाबंदी लगाने, बाल विवाह को रोकने, पढ़ाईलिखाई को दुरुस्त करने, रोजगार पैदा करने, तराई इलाकों का विकास करने समेत ढेरों चुनौतियों से निबटते हुए उन्हें नेपाल को पटरी पर लाना है.     –

बिहार चुनाव नतीजा काम न आई भाजपा की विकास कल्पना

धार्मिक राज की स्थापना के लिए दौड़ाए गए अश्वमेध के घोड़े को बिहार में रोक दिया गया. राज्य में भाजपा ने विकास के मुलम्मे में जो धर्म इस्तेमाल किया था, जनता ने उसे ठुकरा दिया. मतदाताओं को भरमाने, बरगलाने की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हुईं. गो, पाकिस्तान, आरक्षण की समीक्षा जैसे धार्मिक मुद्दों को नकार दिया गया. 243 विधानसभाई सीटों वाले इस प्रदेश में 178 सीटें जीत कर नीतीश-लालू की अगुआई वाले महागठबंधन ने हिंदुत्व राष्ट्रवादी ताकतों को परास्त कर दिया. महीनों पहले ही दो घोर विरोधी नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने हाथ मिला लिया था. 2014 के लोकसभा  चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी से आशंकित इन नेताओं ने महागठबंधन बनाया, हालांकि बारबार टूटने के लिए बदनाम इस गठबंधन को समाजवादी पार्टी छोड़ गई लेकिन राजद, जदयू और कांग्रेस ने मिल कर पूरी गंभीरता से चुनाव लड़ा. उधर, रामायणमहाभारत सरीखे विभीषणों को ढूंढ़ने और फायदा उठाने की चालों में माहिर भारतीय जनता पार्टी ने जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा को साथ ले लिया. बिहार में दलित वोटों में पैठ रखने वाले रामविलास  पासवान को उस ने पहले से ही केंद्र की सत्ता में भागीदार बना रखा है.

चुनावों में प्रदेश की जनता के सामने आज भी शिक्षा, रोजगार, बिजली, पानी, सड़कों जैसे अहम बुनियादी सवाल खड़े थे पर दोनों ही गठबंधनों के पास इन सवालों के ठोस जवाब नहीं थे, न ही कोई रूपरेखा. ऐसे मुद्दे उठाए गए जिन का प्रदेश और प्रदेशवासियों की तरक्की से किसी तरह का वास्ता नहीं था. लालू यादव को प्रदेश में सब से बड़ी कामयाबी मिली. यह सफलता भाजपा की गलत नीतियों की वजह से मिली है. भाजपा के चुनाव प्रचार में धर्म की संकीर्णता की जहरीली हवा बही. पार्टी और संघ के नेता जो भाषण दे रहे थे वे उस जातीय, धार्मिक नफरत की वारदातों से प्रभावित थे जो देश के दूसरे हिस्सों में हो रही थीं. बिहार में बहुसंख्यक दलितों और पिछड़ों को गुजरात के हार्दिक पटेल के आंदोलन का पता लगने लगा था और ऊपर से संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा करने की बात का भी. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भाषण की इस बात से कि अगर नीतीश, लालू का महागठबंधन जीता तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे, लोगों ने भाजपा की संकुचित नजर को स्पष्ट तौर पर भांप लिया. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 रैलियों से लोगों को आकर्षित नहीं कर पाए. प्रधानमंत्री के भाषणों में भीड़ तो जुटी पर वे उस भीड़ को भरोसा नहीं दिला पाए कि भाजपा की तरक्की का रास्ता दिखेगा.

लालू यादव भाजपा के नकारात्मक चुनाव प्रचार और देशभर में फैले उस के कट्टरवादी माहौल का पूरा फायदा उठाते हुए लोगों को समझाने में कामयाब रहे कि अगर भाजपा का राज आया तो फिर से  पौराणिक व्यवस्था लागू हो जाएगी. लालू ने धर्म की वर्णव्यवस्था से सताई जातियों को और कुछ दिया या न दिया हो, उन्हें पिछले साढ़े 3 दशक से सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जरूर जाग्रत कर दिया, उन में इस बात की चेतना जगा दी कि धार्मिक व्यवस्था की वजह से वे गरीब, पिछड़े और नीची जातियों में हैं. यह किसी पूर्वजन्म के कर्मों का फल नहीं, स्वार्थी चालों की वजह से है. लालू अरसे से ब्राह्मणवाद को कोसते रहे हैं. लोहिया, जयप्रकाश नारायण की क्रांति के दौर में निकले लालू, शरद यादव जैसे पिछड़े नेताओं ने सदियों से चली आ रही धर्म की भेदभाव वाली व्यवस्था की पोल खोली और लोगों को सचेत किया. प्रदेश की अधिकांश निचली, पिछड़ी जातियां जानती हैं कि भाजपा फिर से वही व्यवस्था थोपना चाहती है जो उन की गरीबी, बदहाली का कारण रही है. दरअसल, 2014 में भाजपा को लोकसभा चुनाव में जो जनादेश मिला था, भाजपा ने उसे हिंदू राष्ट्रवाद पर मोहर समझ लिया पर वह कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग के भ्रष्ट, निकम्मेपन के खिलाफ विकल्प के अभाव में आक्रोश का नतीजा था. ऐसा नहीं है कि  कांग्रेस हिंदूवादी नहीं है. कांग्रेस भी उतनी ही पाखंडी है जितनी भाजपा.

कांग्रेस में भी शुरू से ही ब्राह्मणवादी सोच हावी रही. यह सोच उस की पार्टी और शासन की नीतियों में उजागर होती रही. महात्मा गांधी स्वयं तो वर्णव्यवस्था के पैरोकार थे, मदनमोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक और प्रगतिशील माने गए जवाहरलाल नेहरू ने भी हिंदुत्व विचारों का पोषण किया. कांग्रेस द्वारा जातियों में ऊंचनीच बनाए रखने की नीति का खुलासा करते हुए ‘मुक्ति के अग्रदूत बाबू जगजीवनराम’ नामक पुस्तक में जगजीवनराम ने लिखा है, ‘‘पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक कमेटी बनाई थी, ‘आर आर दिवाकर कमेटी’, जिस का काम यह देखना था कि लोग सरकारी कागजातों में अपनी जाति का नाम नहीं लिखें. कमेटी की सिफारिश आ गई. इस पर विचार हुआ. मैं ने पंडितजी से कहा कि दिवाकर कमेटी की सिफारिशें तो हमें ठगने के लिए हैं. मैं ने कहा कि मेरे नाम से पता नहीं चलता कि मैं कौन हूं. बाह्मण हूं कि राजपूत हूं, वैश्य हूं कि शूद्र हूं. जगजीवनराम बाह्मण भी हो सकता है, क्षत्रिय भी हो सकता है, लाला भी हो सकता है, शूद्र भी हो सकता है, अछूत भी हो सकता है. लेकिन पंतजी को जाति बताने की क्या जरूरत है? गोविंद वल्लभ पंत ब्राह्मण के अलावा दूसरा कोई हो ही नहीं सकता. मेरी जाति तो लिखना ही बंद करा दें, ब्राह्मणों व कुछ दूसरों की जाति लिखना चालू रहे, इस से बढ़ कर धोखा क्या हो सकता है. नेहरू कहने लगे कि बात तो ठीक कहते हो पर किया क्या जाए? मैं ने कहा कि बहुत सरल तरीका है कि किसी के नाम के आगे या पीछे कोई जाति सूचक विशेषण या उपाधि लगाई ही न जाए.

‘‘वे कहने लगे, बड़ी गड़बड़ी होगी. मैं ने कहा, हां, एक पीढ़ी में कठिनाइयां आएंगी, दूसरी पीढ़ी में ठीक हो जाएंगी. आज जाति सूचक उपाधि लगाने की बीमारी तेजी से बढ़ रही है, हम जाति मिटाने का नारा लगाते रहे. अपनी जाति का विज्ञापन करने पर क्यों तुले हैं. अपनी जाति को अपने नाम के साथ ले कर सारी दुनिया को क्यों बताने लगे कि हम इस जाति के हैं?’’ जाहिर है नेहरू ने कोई कारगर निर्णय नहीं लिया. गांधी ने भी ‘हरिजन’ नाम दे कर दलितों की अलग पहचान कायम रखी. कांग्रेस कम पाखंडी नहीं थी. गरीबी, जाति, गुलामी मिटाने के लिए उस ने कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया. बिहार सब से अधिक नक्सलवाद प्रभावित राज्य है. नक्सलवाद कांग्रेस और भाजपा की इसी धार्मिक भेदभाव वाली नीति की देन है. नक्सली धर्म जाति के सताए दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं जिन से उन की रोजीरोटी, जमीन छीनी जा रही है. धर्म के रास्ते पर चलने वाली भाजपा की सोच धर्मग्रंथों में वर्णित उन्हीं बातों जैसी है, जिन में शूद्रों को संपत्ति रखने का कोई अधिकार नहीं है और अगर किसी के पास कोई संपत्ति है तो उसे ब्राह्मण को छीन लेनी चाहिए.

संघ ने जोर लगाया कि दलितों, पिछड़ों को मंदिरों से जोड़ा जाए. वे सफल हुए. उन्हें 2 नंबर के देवता पकड़ा दिए गए. एक सेना तैयार कर ली गई. इन वर्गों को भाजपा धर्म के जंजाल में उलझा रही है. ऊंचे देवता, अवतार उन के  खुद के लिए और उन के सेवकों को शूद्रों, दलितों को पकड़ा दिया गया. आज बड़ी तादाद में ये वर्ग शिव, हनुमान, शनिदेव, साईं बाबा जैसों को अपना भगवान मान कृतज्ञ हो रहे हैं. भाजपा और संघ बिहार में विकास का नहीं पाखंड का एजेंडा ले कर आए. प्रधानमंत्री खुद को योग के विश्व ब्रैंड प्रचारक साबित करते सुने गए. मोहन भागवत जगतगुरु की भूमिका में नजर आए. प्रदेश की 85 प्रतिशत आरक्षण की पक्षधर जनता के सामने आरक्षण की समीक्षा की बात कह कर फंस गए. भले ही इतनी तादाद में पिछड़ों/दलितों का आरक्षण कोटा ऊंट के मुंह में जीरा हो पर इन वर्गों के लिए दिखाने के लिए आरक्षण बड़ा सहारा है. भागवत की एक तरह से यह धमकी थी कि भाजपा को वोट नहीं दिया तो आरक्षण बंद करा देंगे. संघ के हिंदुत्व एजेंडे ने बंटाधार कर दिया. उस ने खुद ही महागठबंधन के लिए जीत की बिसात तैयार कर दी. ‘सब का साथ सब का विकास’ का नारा देने वाले मोदी स्वयं बिहार में अपनी ही बात से भटक गए. उन के भाषणों में विकास की जगह योग, आयुर्वेद, गो, पाकिस्तान जैसे मुद्दे हावी हो गए.

बिहार चुनाव के दौरान देशभर में भाजपा नेताओं के धार्मिक संकीर्णता भरे बयान आते रहे. अरुण जेटली ने कहा था, ‘‘बलात्कार छोटी घटनाएं हैं,’’ फिर बोले, ‘‘मध्यवर्ग अपना खयाल खुद रखे.’’ शुक्र है यह नहीं कहा कि महंगाई, अपराध, असुरक्षा उन के पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है. मोदी ने कहा था, ‘‘लड़की अगर अचार बेचे तो ज्यादा बिकेगा.’’ मनोहर लाल खट्टर ने कहा, ‘‘बलात्कार के लिए लड़कियां जिम्मेदार हैं.’’ फिर कहा, ‘‘गोमांस खाने वाले पाकिस्तान चले जाएं.’’ साक्षी महाराज ने फरमाया था, ‘‘महिलाएं 4-5 बच्चे पैदा करें.’’ भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय के वचन थे, ‘‘लड़कियों को मर्यादा में रहना होगा, तब बलात्कार नहीं होगा.’’ अमित शाह ने कहा था, ‘‘राममंदिर के लिए 320 सीटें चाहिए.’’ बिहार से आने वाले सांसद एवं कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने कहा कि किसान आत्महत्या प्रे्रम संबंधों और नपुंसकता की वजह से कर रहे हैं. कैलाश विजयवर्गीय फिर बोले, ‘‘भ्रष्टाचार ऐसे करो कि किसी को पता न चले.’’ हेमा मालिनी के बोल थे, ‘‘ज्यादातर बंगाल और बिहार की विधवा महिलाएं मथुरा में भीख मांगती हैं.’’ ये विधवाएं हिंदू धर्म की ही देन हैं, उन्होंने यह नहीं बताया.

दुनिया को बताने के लिए एक बार मोदी ने यह भी कहा था कि गुजरात की लड़कियां कुपोषण की शिकार नहीं हैं बल्कि वे तो अपना शरीर बनाने के चक्कर में कुपोषण जैसी हो रही हैं. एक और नेता पुरुषोत्तम रूपाला ने कहा था, ‘‘दलित और महिलाओं को मार मारने से ही वे सीधे चलते हैं.’’ देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो गालियों को ही वेद वाक्य बता दिया. रक्षा मंत्री वी के सिंह ने दलित की बराबरी कुत्ते से कर दी. इन के अलावा केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा, सांसद महंत आदित्य नाथ, साध्वी निरंजना जैसे कई नेताओं की शास्त्रसम्मत बातें जनता के सामने आईं.

मोदी दुनियाभर में दौरे करने में जुटे हैं पर मोदी को विदेशों में जो भाव मिल रहे हैं वह भारत से गए हुए उन संपन्न व सफल हिंदुओं की तरफ से ही हैं जो अलगअलग देशों में हिंदुत्व का झंडा उठाए वहां की सरकारों पर दबाव की कूवत रखते हैं. वे यहां से धर्म की पोटली लाद कर विदेशों में गए एनआरआई हैं जो भारत में धर्म के पाखंडों के बढ़ावे के लिए तो पैसा भेजते हैं पर शिक्षा और तार्किक सोच के प्रचारप्रसार में उन की उतनी रुचि नहीं है. ये लोग आईपीएल मैचों में भारत का झंडा लहराते दिखते हैं. पर जिन देशों में रहते हैं, सुविधाएं पाते हैं, उन के प्रति वे वफादारी कहां दिखाते हैं चाहे वे वहां के नागरिक बन गए हों. उन के दोहरेपन को कोसना जरूरी नहीं है क्या? वे रहते अमेरिका, फ्रांस में हैं, गुणगान भारत के नरेंद्र मोदी का करते हैं. संघ का एजेंडा भाजपा के सत्ता में आने के बाद तेज हुआ है. कांग्रेस तो पाखंडी थी. मगर वह धर्म को बेच नहीं रही थी. लेकिन भाजपा धर्म को विदेशों तक में बेचने का बाजार तैयार करने में जुटी है. भला किसी देश के प्रधानमंत्री को दुनियाभर में योग, आयुर्वेद, संस्कृति के प्रचार की क्या जरूरत है?

महागठबंधन की जीत भाजपा के पाखंडपूर्ण धार्मिक धु्रवीकरण के खिलाफ है. इस विजय का संदेश जमीनी हकीकत का जनादेश है. नीतीश कुमार ने अपने कार्यकाल में बिहार की जातियों के एकजुट रखने के साथसाथ बड़े इलाकोंमें पानी, बिजली और सड़क उपलब्ध कराई. इस के साथ ही वे लड़कियों की शिक्षा के लिए भी कार्यक्रम ले कर आए. ये काम सुर्खियां नहीं बनते, पिंक पन्नों पर छपे अखबारों में नहीं आते. इन से धन्ना सेठों को लाभ नहीं. भाजपा के पास विकास का कोई ब्लूप्रिंट अभी भी नहीं है. जो कुछ प्रचारित किया गया, वह विदेशी पूंजी को भारत में लाने तक सीमित है. बिहार ने देश को भी एक दिशा दी है. वोट के जरिए पाखंड की बर्बर सोच पर रोक लगा कर भाजपा ऐंड कंपनी द्वारा प्रदेश को जिस गलत दिशा की ओर ले जाने की तैयारी की गई थी, जनता ने वोट की चोट से उसे रोकने का काम किया है.

हिंदू कट्टरवाद से हारी भाजपा

क्या बिहार में मिली करारी हार के बाद कट्टरवाद को छोड़ कर मोदी विकास के एजेंडे पर वापस लौटेंगे? अगर कोई ऐसा एजेंडा है तो लोकसभा चुनाव में ‘सब का साथ, सब का विकास’ नारे के बूते बहुमत के साथ जीत हासिल करने वाले मोदी यह भूल गए कि आम आदमी ने उन्हें विकास के नाम पर वोट दिया था. जीत के बाद कट्टरवाद के रास्ते पर चल पड़ना भाजपा के लिए खतरनाक साबित हुआ है. एक भाजपा नेता कहते हैं कि बिहार में मोदी को हारना जरूरी था वरना उन की तानाशाही और कट्टरवाद की राजनीति ज्यादा धारदार हो जाती. मोदी से पहले भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी सांप्रदायिक और कट्टरवाद की राजनीति को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते थे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी एक ऊंट की तरह आडवाणी के कट्टरवाद के हाथी को काबू में रखा करते थे. आज भाजपा में मोदी और अमित शाह दोनों ही ताकतवर नेता हैं और दोनों ही कट्टरवाद व धर्म की राजनीति की उपज रहे हैं. मोदी लाख कोशिश कर लें, लेकिन क्या वे गुजरात दंगों के कलंक से उबर सकते हैं?

लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने विकास पुरुष का चोला पहना और चुनाव में उतरे, जनता ने उन पर पूरा भरोसा किया, लेकिन अफसोस की बात है कि मोदी जनता के भरोसे को ज्यादा समय तक कायम नहीं रख सके. इसी का नतीजा है कि बिहार के चुनाव में उन्हें जनता ने सबक सिखा दिया है. अगर मोदी और शाह की जोड़ी अभी भी नहीं संभलती है तो अगले साल पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा का डब्बा गोल होना तय है. भाजपा सांसद आर के सिंह पार्टी आलाकमान पर निशाना साधते हुए कहते हैं कि भाजपा को गहराई में जा कर हार का आकलन करने की जरूरत है. पार्टी को मिली हार से साफ है कि प्रदेश भाजपा में जनता का भरोसा नहीं है और इस में जल्द से जल्द बदलाव की जरूरत है.

बिहार के चुनावी नतीजों ने कट्टरवाद के मसले पर आरएसएस और भाजपा को ठंडे दिमाग से मंथन करने का संदेश दिया है. उन्हें यह समझना होगा कि कट्टरवाद की राजनीति भारत के डीएनए में नहीं है. इस मसले पर भाजपा में भी विरोध की आवाजें उठने लगी हैं. भाजपा सांसद हुकुमदेव नारायण यादव मानते हैं कि ऐन चुनाव के मौके पर मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कह कर पिछली और दलित जातियों को नाराज कर दिया और वे महागठबंधन के पक्ष में गोलबंद हो गए. वहीं अमित शाह ने पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात कह कर हिंदू धु्रवीकरण की कोशिश की, जिसे जनता ने खारिज कर दिया.

भाजपा की सहयोगी पार्टी हिंदुस्तान आवाम मोरचा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी भी कहते हैं कि भागवत के आरक्षण वाले बयान ने राजग की लुटिया डुबो दी. वे इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि भागवत के असमय आए उस बयान को लालू समेत महागठबंधन के नेताओं ने कैश करा लिया. मांझी यह भी मानते हैं कि भागवत ने कुछ गलत नहीं कहा. आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए, लेकिन चुनाव के समय इस तरह की बातें नहीं उठनी चाहिए थीं. नीतीश और लालू अपने वोटरों को यह समझाने में कामयाब हो गए कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाहती है. चुनावी नतीजों ने राज्य में भाजपा विरोध का नया माहौल पैदा कर दिया है. इस माहौल को पैदा करने के जिम्मेदार उस के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में जब भाजपा नीतीश के साथ विकास के नारे के साथ चुनाव में उतरी थी तो उसे 102 में से 91 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. गौरतलब है कि उस समय भाजपा की लाख कोशिशों के बाद भी नीतीश ने नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए बिहार नहीं आने दिया था. नीतीश को हमेशा इस बात का डर रहता था कि मोदी के साथ मंच शेयर करने से उन का वोटबैंक गड़बड़ हो सकता है. इसी वजह से नीतीश ने भाजपा के साथ रहते हुए भी मोदी से एक खास दूरी हमेशा बनाए रखी.

जबजब भाजपा विरोधी ताकतें एकजुट हो जाती हैं तो भाजपा को शिकस्त का मुंह देखना पड़ता है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसा ही माहौल पैदा किया गया था. भाजपा विरोधी वोट के बंटने से ही भाजपा को राजनीतिक फायदा होता रहा है. बिहार विधानसभा के ताजा चुनाव में राजद, जदयू और कांगे्रस के एकसाथ आ जाने से भाजपा के लिए जीत दूर की कौड़ी हो गई. दरअसल, बिहार के चुनाव को नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने व्यक्तिवादी चुनाव बना दिया. भाजपा की बिहार शाखा के नेताओं को परदे के पीछे कर दिया गया और केवल नरेंद्र मोदी व शाह ही हर मंच पर नजर आए. भाजपा की हर चुनावी रैली को भाजपा की रैली कहने के बजाय मोदी की रैली कहा जाता रहा. इसी तरह लोकसभा चुनाव के समय भी पार्टी को गौण कर ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’, ‘अब की बार मोदी सरकार’ जैसे व्यक्ति केंद्रित नारे लगाए गए, बिहार में भाजपा के हर पोस्टर, बैनर, स्टीकर पर मोदी ही मोदी छाए रहे.

नरेंद्र मोदी ने नीतीश कुमार के डीएनए को खराब बता कर नीतीश कुमार पर सीधा और बड़ा ही तीखा हमला बोला था और उन्हें सीधी लड़ाई की चुनौती दी थी. इस लड़ाई में एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को करारी शिकस्त दी है. मोदी ने जब नीतीश के डीएनए को खराब बताया तो नीतीश उस मामले को सीधे जनता के बीच ले गए. जदयू और राजद के कार्यकर्ताओं ने अपने सिर के बाल और नाखून काट कर डीएनए टैस्ट के लिए मोदी को भेज कर बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया था. यह चुनाव नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के लिए करो या मरो वाली हालत थी. नीतीश यह साबित करना चाहते थे कि साल 2005 और 2010 का विधानसभा चुनाव वे भाजपा के भरोसे नहीं जीते थे. बिहार की जनता में उन की गहरी पैठ है. दलित पिछड़े तो उन्हें पसंद करते ही हैं, साथ ही शहरी और अगड़ी जातियों के ज्यादातर लोग भी उन के तरक्की के नारे में यकीन करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों करारी हार मिलने के बाद नीतीश जीत के लिए किसी भी तरह का दांवपेंच छोड़ना नहीं चाहते थे. गौरतलब है पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी जदयू को केवल 2 सीटें ही मिलीं, जबकि 2009 के आम चुनाव में उन्होंने 20 सीटों पर कब्जा जमाया था. यही वजह है कि नीतीश अपने धुर विरोधी नरेंद्र मोदी को उन के ही दांव से उन्हें मात देने की कवायद में लगे हुए थे और जिस में उन्हें भारी कामयाबी मिली.

महागठबंधन के दलों के लिए सब से बड़ी ताकत यह रही कि सभी दल अपनेअपने वोट को सहयोगी दलों के खाते में ट्रांसफर कराने में कामयाब रहे, जिस को ले कर तीनों दलों के नेताओं में काफी आशंका थी. वोट ट्रांसफर को ले कर नीतीश और लालू बारबार अपने कार्यकर्ताओं के बीच गए और सारे कन्फ्यूजन दूर करने में सफल रहे. लालू यादव कहते हैं कि प्रमंडल स्तर पर कार्यकर्ताओं से रायविचार करने के बाद ही गठबंधन हुआ था. कहीं कोई भी विवाद या खींचतान के हालात नहीं थे. गठबंधन की सभी पार्टियों के नेताओं ने अपनेअपने कार्यकर्ताओं से मशविरा करने के बाद ही सीटों को ले कर तालमेल पर फैसला लिया था. जिन सीटों पर राजद के उम्मीदवार थे वहां 74 फीसदी यादव वोट मिले और जिन सीटों पर जदयू के उम्मीदवार थे वहां 60 फीसदी यादव वोट मिले. इसी तरह राज को 69 फीसदी कुर्मी और जदयू को 67 फीसदी कुर्मी वोट हासिल हो सके. ओबीसी का 33 फीसदी वोट जदयू को और 38 फीसदी राजद के खाते में पड़े. महादलितों के 23 फीसदी वोट जदयू को और 32 फीसदी राजद के हिस्से में पड़े. मुसलिमों के 78 फीसदी वोट जदयू को और 59 फीसदी राजद की झोली में गिरे.

भाजपा की संसदीय बोर्ड की बैठक में हार की समीक्षा की गई और शुतुर्मुर्गी फैसले किए गए. पार्टी नेताओं ने इस बात को खारिज कर दिया कि मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा करने वाले बयान से भाजपा की हार हुई है. वहीं सहयोगी दलों को भी क्लीनचिट दे दी गई. जबकि सच यह है कि उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी जैसे नेताओं का कोई खास जनाधार नहीं रहा है. दोनों ही नेता नीतीश का विरोध कर उन से अलग हुए थे और उन्हें भाजपा ने लपक लिया. भाजपा ने दोनों नेताओं को ओवरएस्टीमेट करते हुए उन्हें 61 सीटों पर चुनाव लड़ने की सहमति दे थी. मांझी की पार्टी ‘हम’ से मांझी के अलावा कोई जीत नहीं सका, वहीं उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा के 40 में से 2 उम्मीदवार ही जीत पाए.

– साथ में बीरेंद्र बरियार

फ्रांस पर हमला

फ्रांस में निहत्थे, निर्दोष, युवा, बुजुर्ग, बच्चे एक बार फिर गोलियों के निशाना बने जो धर्म की बंदूकों से निकली थीं और शुक्रवार की एक रंगीन शाम खूनी रात में बदल गई. धर्म के नशे में चूर इसलामिक स्टेट के आत्मघाती दस्ते के 8 या 9 आतंकियों ने पेरिस के 6 ठिकानों पर धुआंधार गोलियां बरसा कर व बम विस्फोट कर 150 लोगों को मार डाला. और आतंकियों के सरगनों ने धमकी दी है कि वाशिंगटन, लंदन, बर्लिन आदि भी निशाने पर हैं. इराक के विद्रोह से जन्मे इसलामिक स्टेट औफ इराक ऐंड सीरिया यानी आईएसआईएस के पास आज पश्चिमी एशिया का बहुत बड़ा इलाका है और उस के लड़ाके बेरहमी की सीमाएं लांघ कर बेदर्दी से हत्याएं कर खौफ पैदा कर रहे हैं. यह क्रूर संगठन दुनियाभर में अपने तथाकथित इसलामी राज को स्थापित करने का सपना देख रहा है.

धर्म के नाम पर हत्याएं सदियों से हो रही हैं. जर, जमीन और जोरू से ज्यादा धर्म अप्राकृतिक मौतों का जिम्मेदार है क्योंकि धर्म की आड़ में मारने वाले के दिमाग में बैठा दिया जाता है कि हत्याएं वह अपने हित के लिए नहीं कर रहा, ऊपर वाले के आदेशों को लागू करने के लिए कर रहा है और यह पुण्य का काम है जिस में जान चली भी जाए तो भी हर्ज नहीं क्योंकि स्वर्ग में सीट पक्की है.

यह अफसोस है कि धर्म के नाम पर शांति, शराफत और बराबरी का मुखौटा पहने लोगों के चेहरे खूंखार हैं और हाथ अत्याचारों व खून से भरे हैं. आज दुनिया में जितने विवाद हैं उन में से 90 प्रतिशत धर्म के कारण हैं और हर जगह आम आदमी मारे जा रहे हैं. मुंबई में ताजमहल होटल में और पेरिस के बताक्लां कंसर्ट हौल में हो रहे म्यूजिक प्रोग्राम के दौरान हत्याएं धर्म के नाम पर की गईं. मरने वाले उस समय किसी धर्म का प्रचार नहीं कर रहे थे. जमीन और सत्ता के लिए युद्ध लड़े जाएं, यह समझा जा सकता है पर धर्मयुद्धों में हमेशा आम निहत्थों को मारा जाता है क्योंकि दूसरी तरफ अपने धर्म की रक्षा के लिए हथियारबंद सिपाही पर आक्रमणों से ज्यादा आम लोगों की हत्याएं की जाती हैं जो दूसरे धर्म के होते हैं. मानवता को धर्म के नाम पर जितना छला व लूटा गया है उतना लुटेरों और डाकुओं ने नहीं लूटा. आराम से अपने काम में लगे लोगों को पहले धर्म की अफीम पिला दी जाती है और फिर या तो उन्हें हत्यारा बना डाला जाता है या हत्यारों का निशाना.

अफसोस यह है कि पिछले 20 वर्षों में धार्मिक हत्याओं के बढ़ने के बावजूद उस के मूल कारण धर्म के व्यापार पर कोई विशेष रोकटोक नहीं लगी है. इस आतंक से पूरी तरह छुटकारा पाना है तो अफगानिस्तान की गुफाओं या इराक व सीरिया के कैंपों पर हमले ही नहीं, बल्कि धर्म की हर तरह की शिक्षा को मानवता के खिलाफ जहर मान कर नष्ट करना होगा. यह प्लेग, मलेरिया, इबोला की तरह का कहर है जिसे नष्ट करने के लिए मरीज का इलाज ही काफी नहीं है, जहां उस के विषाणु पलते हैं, वहां भी आक्रमण जरूरी है.

भारत भूमि युगे युगे

सोने नहीं दूंगा

दिल्ली के मुख्यमंत्री ने ऐलान कर दिया है कि वे शीला दीक्षित नहीं हैं, अरविंद केजरीवाल हैं. इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैन से सोने नहीं देंगे. दिल्ली में फिर से बच्चियों के साथ हुए दुष्कर्म के बाद अरविंद केजरीवाल उपराज्यपाल, नजीब जंग से मुलाकात कर बाहर आए तो बेहद तिलमिलाए हुए थे. जाहिर है भीतर वे ही चैन से बैठ नहीं पाए थे. एक सांस में कई बातें कर गए अरविंद केजरीवाल को शायद मालूम नहीं कि वैसे ही नरेंद्र मोदी बमुश्किल 4 घंटे सो पाते हैं और अपनी यह पीड़ा वे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक से साझा कर चुके हैं, ऐसे में उन की नींद और हराम करना कोई तुक की बात नहीं. खानापीना मुश्किल करें तो बात एकदफा बन सकती है. बेहतर तो यह होगा कि वे दिल्ली के लोगों के लिए बेफिक्री से सोने की व्यवस्था करें.

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स्वीट सिक्सटी

जयराम रमेश की गिनती कांग्रेस के बुद्धिजीवी और होनहार नेताओं में होती है, शायद यही साबित करने के लिए वे बीते दिनों कह बैठे कि अब कांग्रेस से 60 की उम्र के नेता चलता कर दिए जाएंगे, वे अब सलाहकार की भूमिका निभाएंगे. इस सनातनी बात के इतने ही माने निकालने वालों ने निकाले कि अगर ऐसा किया तो कांग्रेस में राहुल और उन के 10 सदस्यीय फ्रैंड्स क्लब के अलावा कौन बचेगा. दूसरे, अब कांग्रेस कहां है और कितनी बची है और तीसरे, खुद जयराम रमेश और सोनिया गांधी क्या करेंगे. सलाहकार बन जाएं, हर्ज की बात नहीं. पर सलाह देंगे किसे?

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उपले औनलाइन

उपलों या कंडों की इकलौती खूबी यह है कि ये गाय के गोबर से ही बनाए जा सकते हैं क्योंकि किसी और जानवर के गोबर की संरचना ऐसी नहीं होती कि उस के उपले बनाए जा सकें. इधर, देशभर में गाय और उस के मांस पर कोहराम मचा रहा और उधर उपले औनलाइन बिक गए, वह भी 20 रुपए का एक. ऐसे में कई न्यूज चैनल वाले उपला निर्माताओं के पास यानी तबेलों में गए और उन के इंटरव्यू ले डाले. हिंदू धर्म के हर कर्मकांड में उपले अनिवार्य हैं. बगैर इन के धुएं के हर्ष और शोक नहीं मनाए जा सकते. अब हालत यह है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते लोग उपला दर्शन को तरस जाते हैं. नई पीढ़ी के बच्चों ने तो दुर्लभ होते इस आइटम को देखा भी नहीं है. वह धर्म ही है जो घासफूस और उपलों तक को भी औनलाइन बिकवा रहा है, इसलिए धन्य भी है.

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एक रात का साथ

महाराष्ट्र में कुछ भी ठीकठाक नहीं है. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे कभी भाजपा को हड़का देते हैं तो कभी पीएम नरेंद्र मोदी की खिंचाई करते हैं. जवाब में भाजपा ने आखिरकार इशारा कर ही दिया कि वह भी कुछ भी कर सकती है. दिन तो पूरा साथ गुजारा ही, बीती 17 अक्तूबर की रात वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बारामती में राकांपा सुप्रीमो शरद पवार के घर में बिताई. यह बात हैरान कर देने वाली थी. वजह, मंत्री अव्वल आजकल रात बेवजह कहीं और बिताते नहीं,  मजबूरी हो तो रैस्ट हाउस या सर्किट हाउस या किसी पांचसितारा होटल में चले जाते हैं. हालांकि पवार का घर भी किसी राजमहल से कम नहीं लेकिन वह कृत्य जानबूझ कर किया गया था ताकि उद्धव ठाकरे संभल जाएं. और अगर वे न संभले तो भाजपा संभलने के लिए पवार का पल्ला थाम सकती है.

दनकौर दलित कांड

जब पुलिस और प्रशासन पीडि़त पक्ष की बात नहीं सुनते तो पीडि़त किसी भी हद तक जाने की कोशिश करता है. कोई पानी की टंकी पर चढ़ जाता है, कोई पेड़ पर चढ़ कर फांसी लगाने की धमकी देता है, कुछ धरनाप्रदर्शन, तोड़फोड़ करते हैं. बस्ती जिले में एक सपेरे ने परेशान हो कर तहसील में सांप छोड़ दिया था. दनकौर में महिलाओं सहित पूरा परिवार कपड़े उतार कर प्रदर्शन करने लगा, जिस ने समाज के सभ्य चेहरे का मुखौटा उतार दिया. दनकौर की घटना ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए. इस से पता चलता है कि आज भी दलितों की बात सुनी नहीं जाती है. शर्मनाक घटना से सबक न लेते हुए पुलिस ने पूरे परिवार पर आधा दर्जन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर महिलाओं व बच्चों सहित सब को जेल भेज दिया. उत्तर प्रदेश का गौतमबुद्ध नगर, महात्मा गौतम बुद्ध के नाम पर बसा है. यहीं दनकौर नामक जगह है. कहते हैं दनकौर को गुरु द्रोणाचार्य ने बसाया था. दनकौर थाने के अंतर्गत आने वाले गांव अट्टा गुजरान में सुनील गौतम का परिवार रहता है. सुनील के परिवार में उस का बड़ा भाई सोहनलाल आटो चलाने का काम करता है. सुनील गांव की जमीन पर खेती करता है. उस का छोटा भाई सुदेश सब्जी बेचने का काम करता है.

सोहनलाल की पत्नी का नाम रामकली है. सुनील के परिवार के नाम 8 बीघा जमीन का पट्टा मिला था. यह जमीन ग्रामसमाज की थी. जब यहां पास से यमुना ऐक्सप्रैसवे निकला तो जमीन की कीमत बढ़ गई. उस समय 1 बीघा जमीन पर गांव के दबंगों ने कब्जा कर लिया. इस बात को ले कर सुनील और उस के परिवार ने तहसील व थाने में शिकायत दर्ज कराई. 5 अक्तूबर को गांव के एक आदमी के साथ सुनील की लड़ाई हुई. सुनील इस बात की शिकायत ले कर दनकौर थाने गया. वहां पुलिस ने शिकायत तो दर्ज की पर आरोपी की गिरफ्तारी नहीं की. इस बात को ले कर सुनील ने थाने जा कर संपर्क किया तो पुलिस ने कहा कि यह शिकायत फर्जी है. सुनील इस बात से दुखी और परेशान था.

उसे लग रहा था कि पुलिस सही से मामले की जांच नहीं कर रही है. इस के विरोधस्वरूप वह थाने के पास ही बीएल चौक पर परिवार सहित धरना देने चला गया. पुलिस ने इन लोगों को संदेश भेज कर धरना खत्म करने को कहा. धरना खत्म न करने की दशा में अंजाम भुगतने की चेतावनी भी दी. इस बात पर गुस्से में आए परिवार ने नग्न अवस्था में प्रदर्शन करने का ऐलान कर दिया. परिवार के पुरुष सदस्य कपड़े उतार कर प्रदर्शन करने लगे. इस बीच पुलिस आई और वह इन लोगों को बर्बरतापूर्वक पकड़ कर जीप में डालने लगी. परेशान हालत में फंसे सुनील गौतम और उस के परिवार के लोगों को कुछ समझ नहीं आया तो परिवार की महिला सदस्य भी कपड़े उतार कर विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गईं. पुलिस ने इन की मदद करने के बजाय पूरे परिवार को अश्लीलता फैलाने के जुर्म में जेल भेज दिया. पुलिस ने सुनील के परिवार के लोगों को धारा 307, 232, 323, 147, 148, 353, 294, 394 और 7 क्रिमिनल ऐक्ट के तहत जेल भेज दिया. महिलाओं के साथ 3 छोटेछोटे बच्चों को भी जेल जाना पड़ा. इन में ढाई साल का दुष्यंत, 2 साल का गुंजन और 3 साल की अवनी शामिल हैं.

वायरल हुए फोटो और वीडियो

दनकौर थाने की यह घटना पूरे देश में अपनी तरह की अलग घटना थी. भारत में नग्न हो कर प्रदर्शन करना साधारण बात नहीं थी. युके्रन का फेमिनन ग्रुप नग्नावस्था में प्रदर्शन करने के लिए विख्यात है. विदेशों में ऐसे प्रदर्शन आम बात हैं. भारत में इस तरह का प्रदर्शन पूरे समाज पर सवाल खड़े कर रहा था. स्थानीय मीडिया ने इस घटना को ज्यादा तूल नहीं दिया. वाट्सऐप पर इस घटना के फोटो और वीडियो वायरल होने से पूरा जिला प्रशासन कठघरे में आ गया. सब से पहले इस बात का प्रचार किया गया कि पुलिस ने दलित परिवार को पीटा जिस से परिवार के सदस्य कपड़े उतारने के लिए मजबूर हो गए. बाद में यह पक्ष भी सामने आया कि पीडि़त परिवार ने खुद ही कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया. दनकौर थाने के प्रभारी प्रवीण यादव ने पीडि़त परिवार पर संयम न बरतने, पुलिस के साथ मारपीट करने और रिवौल्वर छीनने के आरोप लगाए.

जिला पुलिस पीडि़त परिवार पर रासुका यानी गैंगस्टर ऐक्ट लगाने की तैयारी कर रही थी. इसी बीच दलित मुद्दों को ले कर काम करने वाले समाजसेवियों ने दनकौर प्रकरण पर अपना विरोध शुरू कर दिया जिस से उत्तर प्रदेश सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा. दलित समाज के लोग पूरे प्रकरण की उच्चस्तर की जांच की मांग कर रहे हैं. उन का कहना है कि जब बिना जांच के दनकौर पुलिस ने सुनील गौतम के मुकदमे को फर्जी करार दे दिया तो उस के सामने दूसरा रास्ता क्या था? सुनील और उस के परिवार ने जो किया वह गलत भले हो पर इस से तहसील व थाने को क्लीन चिट कैसे दी जा सकती है? अगर जमीन कब्जा प्रकरण पर तहसील और थाने द्वारा सही कदम उठाए गए होते तो यह नौबत ही नहीं आती. नोएडा के एसडीएम सुभाष यादव ने कहा कि सुनील जिस जमीन पर कब्जे की बात कर रहा है वह ग्रामसमाज की है. उसे सरकार ने यमुना ऐक्सप्रैसवे के लिए अधिगृहीत कर रखा है. इन का गांव के एक आदमी से झगड़ा था जिस के खिलाफ मुकदमा लिखाया.

पुलिस पर उठे सवाल

औल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व डीआईजी एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘कोई आदमी अपने परिवार के सामने खुद भी कपड़े उतार रहा हो और अपनी पत्नी, भाभी सब के साथ मिल कर प्रदर्शन कर रहा हो, यह हलके में लेने वाली बात नहीं है. बड़ी परेशानी में ही कोई ऐसा कदम उठाता है. पुलिस को पूरे मसले में जिस शालीनता के साथ काम करना चाहिए था, वह नहीं किया. अगर पुलिस मामले को जमीन के झगड़े से जोड़ कर देख रही है तो थाना और तहसील की जिम्मेदारी थी कि इस बात को पहले क्यों नहीं सुलझाया. पुलिस ने जिस तरह से परिवार की औरतों और बच्चों को जेल भेजा है उस से यह पता चलता है कि पुलिस जनता के हित में काम नहीं कर रही है.’’

दनकौर में दलित उत्पीड़न की घटना का विरोध बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भी किया. मायावती ने कहा कि समाजवादी पार्टी के राज में दलितों का उत्पीड़न बढ़ जाता है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में गांधी प्रतिमा पर दलित और महिला संगठनों ने धरना दे कर पुलिस की निंदा की. जनवादी महिला संगठन की सीमा राना ने कहा कि पुलिस वालों को पता था कि महिलाएं धरना दे रही हैं. इस जानकारी के बाद भी वे बिना महिला पुलिस के उन लोगों की गिरफ्तारी के लिए क्यों गए? पुलिस ने धरना दे रहे परिवार के खिलाफ जो सुलूक किया है वह किसी भी तरह से मानवीय नहीं है. उत्तर प्रदेश पुलिस पर इस बात के तमाम आरोप लग रहे हैं जिन में वह पक्षपातपूर्वक व्यवहार करती रही है.

पुरस्कार सम्मान वापसी : साहस है सियासत नहीं

14 अक्तूबर को अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने ‘2014 अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट’ प्रकाशित की, जिसे अमेरिकी विदेशी मंत्री जौन कैरी ने जारी किया. रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय प्रशासन अब भी ‘धार्मिक भावनाओं’ की रक्षा के लिए बनाए गए कानून को लागू कर रहा है. इस कानून का मकसद धर्म के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना है. भारत के 29 में से 6 राज्यों में धर्मांतरण कानून लागू है, वहां धर्म के आधार पर हत्या, गिरफ्तारी, जबरिया धर्मांतरण और सांप्रदायिक दंगे होते हैं, साथ ही, धर्म परिवर्तन करने में बाधा पैदा की जाती है.

सीधेसीधे देखा जाए तो रिपोर्ट का सार यह है कि भारत में धर्म के आधार पर भेदभाव, हत्याएं और गिरफ्तारियां होती हैं एनडीए के मौजूदा शासनकाल में मई 2014 से ले कर दिसंबर 2014 तक धर्म से प्रेरित हमलों की 800 से भी ज्यादा वारदातें हुईं. रिपोर्ट जारी होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता मामलों के अमेरिकी राजदूत डेविड सेपरस्टीन ने भारत को पुचकारते हुए नसीहत दी कि उसे सहिष्णुता और सभ्यता के आदर्शों को अमल में लाना चाहिए इस बाबत नरेंद्र मोदी सरकार को प्रोत्साहित किया जाएगा जिन्होंने काफी देर में दादरी के बिसाहड़ा कांड को ले कर लोगों से सांप्रदायिक सद्भाव की अपील की. रिपोर्ट की अहमियत या माने इसी बात से समझे जा सकते हैं कि किसी मंत्री, नेता, धर्मगुरु या साहित्यकार ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की. किसी ने इसे गलत ठहराते हुए एतराज नहीं जताया लेकिन ठीक इसी दौरान साहित्यकारों द्वारा लौटाए जा रहे सम्मानों व पुरस्कार वापसी को ले कर हाहाकार मचा हुआ था. साहित्यकार थोक में सम्मान लौटा रहे थे, खासतौर से वे जिन्हें साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया था. इन सभी के तेवर सरकार विरोधी थे. सभी ने एक सुर से दोहराया कि कन्नड़ लेखक एम एम कुलबर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी की चुप्पी नाकाबिले बरदाश्त है और दादरी कांड शर्मनाक है, इसलिए हम विरोधस्वरूप सम्मान पुरस्कार और राशि लौटा रहे हैं.

इस अभियान, जो जल्द ही साहित्यिक अनुष्ठान में बदल गया, की शुरुआत अंगरेजी की लेखिका नयनतारा सहगल ने की थी जो जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं. नयनतारा सहगल कोई बहुत जानापहचाना नाम नहीं है पर जो लोग उन्हें जानते हैं वे उन के लेखन के साथ उन की व्यक्तिगत जिंदगी से भी प्रभावित हैं. बेहद खूबसूरत नयनतारा 88 साल की हैं. नयनतारा सहगल ने सम्मान लौटाते वक्त जो बातें कहीं वे दरअसल उन के बाद सम्मान लौटाने वालों का संविधान सा बन गईं. हालांकि उन के पहले एक अन्य लेखक उदय प्रकाश भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके थे. लेकिन चूंकि नयनतारा जवाहरलाल नेहरू की भांजी और इंदिरा गांधी की कजिन थीं, इसलिए यह प्रचार भी जल्द हो गया कि ये सब कांग्रेस के इशारे पर हो रहा है. लेकिन नयनतारा की दलीलों को कोई नजरअंदाज नहीं कर पाया. बकौल नयनतारा, अंधविश्वासों पर सवाल उठाने वाले तर्कवादियो, हिंदू धर्म की बदसूरत और खतरनाक विकृति हिंदुत्व के किसी पहलू पर सवाल उठाने वालों के अधिकार छीने जा रहे हैं, हत्याएं तक हो रही हैं फिर चाहे उन के सवाल बौद्धिकता या कलात्मकता के क्षेत्र में हों या खानपान की आदतों व जीवनशैली पर. साहित्य अकादमी विजेता कन्नड़ लेखक और समाजसेवक एम एम कुलबर्गी सहित नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याओं का जिक्र करते हुए नयनतारा ने कहा कि इन सभी को बंदूकधारी मोटरसाइकिल सवारों ने मार डाला. दूसरों को भी चेतावनी दी गई. दादरी (उत्तर प्रदेश) के पास बिसाहड़ा गांव में ग्रामीण लोहार मोहम्मद इखलाख को घर से बाहर खींच कर पीटपीट कर मार डाला गया वह भी मात्र इस शक के चलते कि उस ने अपने घर में गोमांस पकाया था.

नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलते हुए नयनतारा ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री आतंक की इस हुकूमत पर चुप हैं, इस से लगता है कि वे अपनी विचारधारा को समर्थन देने वाले शरारती तत्त्वों को बाहर करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. इस संबंध में साहित्य अकादमी की चुप्पी भी दुखद है. जिन भारतीयों की हत्या कर दी गई उन की याद में विरोध जताने के अधिकार पर भरोसा करने वाले सभी भारतीयों के पक्ष में और डर व अनिश्चितता में जी रहे सभी अन्य विरोधियों के लिए मैं अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रही हूं.’’

संभले या लड़खड़ाए

भाजपा संगठन और सरकार ने नयनतारा के बयान को हलके में लेने में ही भलाई समझी और बात या विवाद को इस मुकाम पर खत्म करने की असफल कोशिश की कि चूंकि वे नेहरू खानदान से हैं, इसलिए ऐसा करेंगी ही. 84 के दंगों के वक्त उन्होंने यह सम्मान क्यों नहीं लौटा दिया था. जाहिर है यह बयान नयनतारा सहगल द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब नहीं था बल्कि सवाल पर किया गया सवाल था. नरेंद्र मोदी पर लगाए गए आरोपों का खंडन किसी ने नहीं किया. उलटे, नयनतारा सहित दूसरे साहित्यकारों और कलाकारों पर ही आरोप मढ़ने शुरू कर दिए गए कि चूंकि वे कांग्रेसी और वामपंथी विचारधारा के हैं, इसलिए सम्मान लौटा रहे हैं. नयनतारा सहगल के बाद दूसरे दिन 7 अक्तूबर को मशहूर साहित्यकार अशोक बाजपेयी ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. वजह और शब्द वही थे जो नयनतारा सहगल के थे. इस के बाद तो मानो सम्मान लौटाने की होड़ सी लग गई. सरकार को इस झटके का एहसास 12 अक्तूबर को हुआ जब कश्मीरी लेखक गुलाम नबी खयाल, उर्दू साहित्यकार रहमान अब्बास, हिंदी लेखक मंगलेश डबराल, कन्नड़ लेखक व अनुवादक श्रीनाथ डी एन, पंजाबी लेखक वरयाम संधू और सुरजीत पाटर, हिंदी के राजेश जोशी, पंजाबी के बलदेव सिंह सदाकनाया, जसविंदर, दर्शन बुट्टर व कन्नड़ अनुवादक जीएन रंगनाथ राव ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए. इस के बाद जिन लोगों ने पुरस्कार लौटाए उन में गुरुचरन सिंह भुल्लर, अजमेर सिंह, चमनलाल (सभी पंजाबी), के वरिभद्रप्पा, रहमत तारीकेही, काशीनाथ अंबारूणी, के नीला (सभी कन्नड़) के अलावा अंगरेजी के के एन दारूवाला, असमिया के होमेन बोरगोहेन, राजस्थानी के नंद भारद्वाज, गुजराती की गणेश देवी, बंगला के मंदाक्रांत सेन शामिल हैं.

इधर, बुकर पुरस्कार विजेता सलमान रुशदी भी खुल कर इन साहित्यकारों के पक्ष में आ गए. रुशदी का कहना था कि नयनतारा सहगल और दूसरे कई लेखकों के साहित्य अकादमी  के प्रति विरोध का मैं समर्थन करता हूं. भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह खतरे का वक्त है. साहित्यकारों की इस एकजुटता से सरकार को खतरा महसूस होने लगा था. लिहाजा, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को यह सफाई देने को मजबूर होना पड़ा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कोई खतरा नहीं है. लेखकों को इस तरह अकादमी से इस्तीफा नहीं देना चाहिए. (अभिप्राय यह था कि पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए). राजनीतिक भाषा के इस्तेमाल के आदी इन मंत्रीजी ने इस गंभीर मसले पर भी राजनीतिक भाषा का इस्तेमाल यह कहते हुए किया कि अगर किसी लेखक को समस्या है तो वह प्रधानमंत्री को पत्र लिखे पर इस्तीफा देना विरोध को प्रकट करने का तरीका नहीं है. बात को संभालने के चक्कर में महेश शर्मा का यह कहना एक तरह से लड़खड़ाना ही था कि हम लेखकों की हत्या की कड़ी निंदा करते हैं पर कानून व्यवस्था राज्य का विषय नहीं है.

इस बात के पीछे की मंशा 2 संवेदनशील वारदातों के बारे में यह जताना थी कि जिन राज्यों में ये वारदातें हुईं वे भाजपा शासित नहीं थे. इस से ज्यादातर हास्यास्पद बात कोई और हो ही नहीं सकती कि साहित्यकार बात कर रहे थे नरेंद्र मोदी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बाधित होने की, बढ़ते धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता की और इन से भी ज्यादा अहम इन मुद्दों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी की तो उन्हें नसीहत दी जा रही है कि विरोध करना है तो उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सरकार का करो. बात या बातें यहीं खत्म नहीं हुईं बल्कि शुरू यहीं से हुईं. केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली और संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते इन साहित्यकारों पर पलटवार करने की कोशिश की कि आपातकाल और मुजफ्फरनगर दंगों के वक्त क्यों पुरस्कार व सम्मान लौटाने की बात याद नहीं आई.बात कहनेसुनने में अच्छी थी लेकिन शायद इन मंत्रियों का अभिप्राय यह जताना था कि प्रैस की स्वतंत्रता का जितना हनन आपातकाल में हुआ उतना इस वक्त नहीं हो रहा और धार्मिक सांप्रदायिक उन्माद का पैमाना बजाय दादरी के मुजफ्फरनगर को माना जाना चाहिए. शायद ही ये मंत्री बता पाएं, जो जानबूझ कर मुद्दे की बात से कन्नी काट रहे हैं कि पुरस्कार लौटाने वाले ये साहित्यकार राजनेता नहीं हैं. वे देश के बिगड़ते माहौल की बात कर रहे हैं. धर्मांध और तर्क करने वाले लेखकों की हत्या पर अनदेखी की बात कर रहे हैं. ऐसे में आपातकाल की याद दिला कर वे साबित क्या करना चाह रहे हैं, बात समझ से परे नहीं कि यह शुद्ध धौंस है.

शायद यह भी इन्हें मालूम नहीं कि अपने जमाने के मशहूर लेखक, पत्रकार और स्तंभकार खुशवंत सिंह ने पद्मश्री पुरस्कार स्वर्ण मंदिर में सेना के कब्जे को ले कर लौटा दिया था.यह भी तय है कि यह इन्हें नहीं मालूम कि अपने जमाने के मशहूर  साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में पद्मश्री लौटा दिया था और वे सड़क पर उतरे, जनता की आवाज बुलंद करते हुए जेल भी गए थे. साहित्यप्रेमी आज भी उन की कृति ‘मैला आंचल’ चाव से पढ़ते हैं.इस का यह मतलब कतई नहीं कि रेणु कोई भगवा या कट्टर हिंदू किस्म के साहित्यकार थे बल्कि जिस उपन्यास (मैला आंचल) के लिए उन्हें पद्मश्री मिला वह प्रेम पर आधारित था. फिर क्यों इन साहित्यकारों को कांगे्रसी या वामपंथी करार देते हुए लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है? साहित्यकारों को राजनीतिक विचारधाराओं और दलील आधार पर बांट कर देखने की बेवजह की यह कोशिश बचकानी नहीं तो क्या है?प्रसंगवश यहां रवींद्रनाथ टैगोर का उल्लेख जरूरी है जिन्होंने जालियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में नाइटहुड की उपाधि अंगरेजों को वापस लौटाते हुए विरोध जताया था जबकि टैगोर पर आज तक अंगरेजी हुकूमत के चाटुकार होने का आरोप लगता है. पिछले साल ही अभिनेता गिरीश कर्नाड ने इस आशय का बयान दिया था.

इन साहित्यकारों द्वारा सम्मान और पुरस्कार वापसी का सिलसिला थमा नहीं. हिंदी के ही नामी साहित्यकार काशीनाथ सिंह के 16 अक्तूबर को साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की खबर से हलचल और बढ़ी. वजह, काशीनाथ सिंह अपने ठेठ बनारसी अंदाज व तेवरों के लिए जाने जाते हैं. किसी विचारधारा के अनुयायी होने का ठप्पा उन पर नहीं लगा है. तो फिर उन्होंने भी इस जमात में शामिल होना पसंद क्यों किया? इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लेखक देश के वर्तमान माहौल, सरकार खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोहरी मानसिकता और साहित्य अकादमी की उदासीनता से न तो संतुष्ट हैं और न ही सहमत हैं.इसी कड़ी में 18 अक्तूबर को मौजूदा दौर के मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने भी ड्रामाई अंदाज में यह पुरस्कार वापस लौटाया तो उन पर सोनिया गांधी के हिमायती होने का इलजाम लग गया. राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया की मनोदशा पर मुनव्वर राणा ने उन की व्यथा और द्वंद्व पर एक नज्म लिखी थी जो काफी लोकप्रिय हुई थी.

बिगड़ी सरकार की इमेज

इस में शक नहीं कि साहित्य इन दिनों संधि और संक्रमण काल से गुजर रहा है. नई पीढ़ी के सामने एक चौराहा है. कहां जाना है, यह नए साहित्यकारों को नहीं मालूम. उन के पास आक्रामक शब्द तो हैं पर स्पष्ट विचार नहीं हैं. जिन्होंने पुरस्कार लौटाने का सराहनीय काम किया उन की भी एक चिंता यह है कि आखिर देश जा कहां रहा है और हम भी क्यों खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं. जब बात बरदाश्त के बाहर हो गई तो इन के पास जो कारगर तरीका था वह अपनाते हुए उन्होंने सरकार का विरोध किया. इस बौद्धिक विरोध से सरकार की छवि बिगड़ी. वजह, एक बात साहित्य से दिलचस्पी न रखने वाला भी जानता है कि जैसा भी हो, आखिरकार साहित्यकार बेहद संवेदनशील होता है. वह सामाजिक बदलावों पर गहरी नजर रखता है. एक साहित्यकार ही है जो किसी भी गलत और सही बात पर प्रतिक्रिया जरूर देता है. पुरस्कार लौटाने वालों ने दरअसल सरकार की खामियों, भेदभाव व कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा दिए हैं.

इन निशानों को मिटाने छुटभैए नवोदित साहित्यकारों में बड़ा जोश देखा गया जो खासतौर से सोशल मीडिया पर साहित्यिक भाषा में ही यह कहते नजर आए कि विरोध जताने का यह कौन सा तरीका है. बहुमत से चुनी गई सरकार और प्रधानमंत्री का विरोध करना है तो लिख कर कीजिए, किस ने हाथ पकड़ा है आप का. यों पुरस्कार लौटा कर आप सरकार का विरोध नहीं बल्कि साहित्य अकादमी का विरोध कर रहे हैं जो लेखकों की एक स्वायत्त संस्था है. यह जनता की भी बेइज्जती है क्योंकि उसी के पैसे आप को इनाम में मिले थे. अपना एक अलग महत्त्व रखने वाले पर सीमित दायरे में जीने व सोचने वाले इन कसबाई साहित्यकारों पर तरस ही खाया जा सकता है जो बहुमत की दुहाई दे रहे हैं. यानी वे नेताओं की जबान बोल रहे हैं. इन्हें शायद नहीं मालूम कि दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी किस शैली के लेखक थे और उन की हत्या कर क्या हत्यारों ने संदेश दिया. बात सच है कि लिखने में कोई किसी का हाथ नहीं पकड़ रहा है, सीधे गरदन दबोची जा रही है.

पाकिस्तानी गजलकार गुलाम अली को महाराष्ट्र में गाने नहीं दिया गया और भजन गायक अनूप जलोटा को प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य बना दिया जाता है जो हरिगुण गाते रहते हैं. यह समूचे साहित्य, कला और संस्कृति को अपने हाथ में ले कर मुट्ठी में दबोचने की शुरुआत नहीं तो क्या है? एफटीआईआई पुणे के छात्र 5 महीने से हड़ताल पर हैं पर उन की बात नहीं सुनी जा रही जो नवनियुक्त चेयरमैन गजेंद्र चौहान को हटाने की मांग पर अड़े हैं. जाहिर है सबकुछ ठीक नहीं है. षड्यंत्र साहित्यकार रच रहे हैं या सरकार, यह आम आदमी तय करेगा. विरोध तो हर एक का हक है जिसे कोई सड़क पर प्रदर्शन कर जताता है, कोई सिर मुंडा कर तो कोई अधनंगे और नंगे हो कर जताता है. यह बुद्धि और स्तर की बात है. इस पर किसी तरह की हंसीठिठोली या ताने को लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला ही कहा जाएगा. साहित्य समाज का दर्पण अब रह गया है या नहीं, इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं पर साहित्यकारों को एक बौद्धिक संपदा न कहना जरूर उन के साथ ज्यादती होगी. कट्टरपंथियों के निशाने पर हमेशा रहीं बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन बेवजह नहीं कहतीं कि दादरी हादसे को देख डर लगने लगा है.

सोचना बेमानी है और अव्यावहारिक कि ये सब जानबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से नरेंद्र मोदी को कमजोर करने के लिए किया गया. अगर साहित्यकारों के समर्थन या विरोध से सत्ता मिलती और छिनती होती तो यह भी तय है कि नेता गलीगली घरघर जा कर वोटों के लिए झोली नहीं फैलाते. इन साहित्यकारों को ही पालपोस कर रखते. लेकिन लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने माने होते हैं जिसे अभी तक कोई नकार नहीं पाया. जाने क्यों इस अहम बात की सिरे से अनदेखी की जा रही है कि साहित्यकार सिर्फ विरोध जता रहे हैं पर उन का तरीका जरूर वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्यों को प्रभावित करने वाला है तो इस में उन का क्या कुसूर. यह तो आने वाला वक्त तय करेगा कि उन का यह कदम सम्मान का अपमान था या उस की सार्थकता थी. यह डर एक या अनेक लेखक- लेखिकाओं का नहीं, बल्कि आम नागरिकों का भी हो सकता है जिन के प्रति उत्तरदायी लेखक विरोधस्वरूप यथासंभव जो कर रहे हैं उस पर तिलमिलाहट क्यों?

राज व्यवस्था

1947 में हमें स्वतंत्रता मिली थी पर अंगरेजों से उपहार में. हम ने किया बहुत कम था पर बातें बड़ी बनाई थीं और गांधीनेहरू का राज उस समय कट्टर हिंदू राज से कहीं कम न था, जहां चलती चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल और खुद गांधी जैसे धर्मभक्तों की थी. नतीजा जो हुआ, सामने है. भारत गरीबी की गोद में समाया रहा. एक तो विभाजन का दंश झेला, ऊपर से अर्थव्यवस्था का घोर सरकारीकरण जो एक तरह से ब्राह्मीकरण था. जो आजादी अंगरेजों के गुलाम भारत में थी वह बहुत कम हो गई क्योंकि राज, कानून का नहीं, अफसरों का हो गया जो शिक्षित और सक्षम ऊंची जमातों के थे. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद देश के मेहनतकश गरीबों को सरकारी नौकरियों में घुसने की आस हुई. अतिरिक्त आरक्षण के लालच में उन्होंने जो शिक्षा लेनी शुरू की उस का परिणाम 1991 से 2008 तक दिख गया. भारत निरंतर आर्थिक प्रगति करता रहा और राममंदिर के भूकंप को भी सह गया.

भारतीय जनता पार्टी के प्रथम शासन के दौरान देश हिंदू राष्ट्र की दलदल में फंसने लगा. देश की बड़ी जनसंख्या को इस का एहसास भी हो गया और उस ने 2004 में विदेशी मूल की सोनिया गांधी के मुकाबले विशुद्ध भारतीय उच्च जाति के अटल बिहारी वाजपेयी को अस्वीकार कर दिया. यही नहीं, 2009 में भी जब यह डर सामने था कि कांगे्रस हारेगी, कांग्रेस जीत गई. पर 2014 में कट्टरवादियों ने दूसरी रणनीति अपनाई. उन्होंने कांगे्रस सरकार में विभीषणों की फौज तैयार की और साथ ही साथ धर्मप्रचारकों को देशभर में राजनीतिक प्रचार में लगा दिया. नतीजा यह हुआ कि गुजरात के 2002 के दंगों के धब्बों के बावजूद नरेंद्र मोदी को चुन लिया गया. लेकिन यह कोई विजय नहीं साबित हो रही. आम हिंदू राजाओं की तरह नरेंद्र मोदी चक्रवर्ती राजा बनने का सपना देखते हुए अपना अवश्वमेध यज्ञ का घोड़ा दुनियाभर में घुमा तो रहे हैं पर उन के राज में आम जनता त्राहित्राहि कर रही है.

रामायण की शंबूक कथा को राम के राज में अकाल मौतों का एक उदाहरण मानें तो उस के दोष का ठीकरा भी भारतीय जनता पार्टी गोमांस खाने वालों, पाकिस्तानियों, मुसलमानों, जाति के नाम पर अन्याय सह रहे दलितों, पिछड़ों पर थोपने की कोशिश कर रही है. हमारे हिंदू राजा भव्य यज्ञ करने में तो सदा आगे रहे हैं पर ठोस काम करने में फिसड्डी रहे हैं. उन्होंने कभी अपने राज में कानून व्यवस्था लागू नहीं की. अभिज्ञान शाकुंतलम् की शकुंतला की तरह ही युवतियां, चाहे वे मुनियों के आश्रमों में रहती हों, राजाओं के व्यभिचार से मुक्त नहीं रहीं. चाणक्य का अर्थशास्त्र शराब पिलाने, महाभारत का जुआ खेलने वालों, रामायण का शक में पत्नी को निकालने व भाई के आत्महत्या करने की बातें खुलेआम करते हैं. ऐसा हिंदू राज पश्चिमी एशिया के इसलामिक स्टेट की तरह का होगा, इस में शक नहीं. देश को हिंदू राज नहीं, अपना राज चाहिए ताकि आम आदमी के पास वोटों के माध्यम से जो थोड़ाबहुत अधिकार आया है वह छिन न जाए.

फितूर में फंसी कैटरीना

कैटरीना कैफ ने अपने शुरुआती कैरियर के दौर में भले ही हर तरह की फिल्में की हों लेकिन अब वे अपने कैरियर के लिए बेहद चूजी हो गई हैं. यही वजह है उन की भी आमिर खान की तरह साल में इक्कादुक्का फिल्में ही रिलीज होती हैं. फिलहाल कैटरीना फिल्म ‘फितूर’ को ले कर बड़ी जनूनी हो रही हैं. उन के मुताबिक, फितूर ने कलाकार के तौर पर उन के जनून को फिर से जिंदा कर दिया, ‘‘जब यह फिल्म शुरू हुई तो हम लोग सुस्त हो गए थे लेकिन बाद में मैं ने समझना शुरू किया और इस फिल्म से बहुतकुछ सीखा.’’ हालांकि एक सच यह भी है इस फिल्म में देरी रेखा की वजह से हो रही है. पहले वे लीड रोल में थीं और बाद में किन्हीं कारणों से फिल्म छोड़ दी और उन्हें तब्बू ने रिप्लेस किया और फिल्म को दोबारा शूट करना पड़ा. इस के चलते फिल्म लटक गई.

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