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खेतों और किसानों का दोस्त सबमर्सीबल पंप

सबमर्सीबल पंप घरेलू, औद्योगिक, व्यावसायिक और कृषि के कामों के लिए काफी उपयोगी है. साधारण सिंचाई पंप या जेट पंप की तुलना में यह काफी ज्यादा पानी फेंकता है और इस की सब से खास बात यह है कि यह जरा भी आवाज नहीं करता?है. इस के रखरखाव पर काफी कम खर्च आता है और आम पंपों की तरह इस में एयर लेने और पानी छोड़ देने की समस्या को नहीं झेलना पड़ता है. इस पंप को बोरिंग पाइप में ही अंदर डाल दिया जाता है.

‘विशाल पंप एंड हार्डवेयर’ के डायरेक्टर अजय कुमार बताते?हैं कि सिंचाई के पंपों और जेट पंपों की तुलना में सबमर्सीबल पंप की तकनीक और कूवत काफी ज्यादा होती?है. इस के साथ ही बाकी पंपों के मुकाबले सबमर्सीबल पंप में बिजली की खपत भी कम होती है. जेट पंप जहां अधिकतम 25-30 फुट गहराई से पानी उठाता है, वहीं सबमर्सीबल पंप उस से कई गुना ज्यादा गहराई से पानी उठाने की कूवत रखता है. जेट पंप की तुलना में सबमर्सीबल पंप से निकलने वाले पानी का दबाव 30 फीसदी ज्यादा होता?है, जिस से पानी ज्यादा ऊपर या दूर तक पहुंच सकता?है. खेती के कामों के लिए सबमर्सीबल पंप किसानों को कम समय में ज्यादा पानी देता है. ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई के लिए यह पंप काफी मुफीद है.

ड्रिप सिंचाई की एक उन्नत तकनीक है, जिस में पानी और उर्वरकों को साथसाथ पौधों की जड़ों के पास तरल के रूप में पहुंचाया जाता है. सबमर्सीबल पंप इस सिंचाई तकनीक के लिए काफी कारगर है. सिंचाई की इस तकनीक के जरीए पानी का करीब 95 फीसदी तक इस्तेमाल हो जाता?है, जिस से पानी की बरबादी न के बराबर होती?है. ड्रिप सिंचाई से पौधों की जड़ों में पानी, उर्वरक और हवा सही मात्रा में पहुंचते हैं. इस तकनीक में ड्रिपर के जरीए बूंदबूंद पानी को सीधे पौधों की जड़ों में डाला जाता है. सबमर्सीबल पंप स्प्रिंकलर सिंचाई के लिए काफी मुफीद?है. रेतीले इलाकों और बलुई मिट्टी में सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर तकनीक फायदेमंद है. इस के जरीए बारिश के पानी की तरह खेतों में पानी का छिड़काव किया जाता?है, जिस से पानी की बरबादी बहुत ही कम होती है. गेहूं, चना, कपास, सोयाबीन, चाय, कौफी, चारा फसलों और सब्जियों की सिंचाई इस तकनीक के जरीए बेहतरीन तरीके से की जा सकती?है.

खेतों की सिंचाई के अलावा सबमर्सीबल पंप का इस्तेमाल बड़े मकानों, अपार्टमेंटों, होटलों, अस्पतालों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, मौलों व कारखानों वगैरह में भी किया जा रहा है. सबमर्सीबल पंप का इस्तेमाल तेल के कुंओं से तेल निकालने के लिए भी किया जाता है. बाजार में सबमर्सीबल पंप की कीमत 30 हजार रुपए से ले कर 80 हजार रुपए तक है. 3 हार्स पावर और 100 एमएम व्यास वाले पंप की कीमत 30 से 45 हजार रुपए तक होती है. वहीं 7.5 हौर्स पावर और 100 एमएम व्यास वाले पंप की कीमत 70 से 80 हजार रुपए होती है. अलगअलग कंपनियों के सबमर्सीबल पंपों की खासीयतों के हिसाब से कीमत कम और ज्यादा भी हो सकती है. क्राम्पटन, जीई, सीआरआई, फाल्कन, जास्को व श्री शिवशक्ति वगैरह कंपनियों के सिंगल फेज और थ्री फेज के सबमर्सीबल पंप बाजार में मिलते हैं

खेतीकिसानी के तहत होने वाले दिसंबर महीने के अहम काम

साल के आखिरी लमहों की याद दिलाने वाले दिसंबर महीने में जहां एक ओर साल खत्म होने की कसक छिपी होती है, तो दूसरी ओर नएनवेले साल के आगमन का जोश भी छिपा होता है. फिर आनाजाना तो कुदरत का नियम है, लिहाजा कर्मयोगियों को अपने काम से ही मतलब होता है. जज्बातों से जुड़े बेहद ठंडे महीने दिसंबर में भी खेतीकिसानी की दुनिया का खजाना छिपा है. जागरूक किस्म के किसानों के लिए दिसंबर की अहमियत भी बहुत ज्यादा है. दिसंबर की कड़ाके की हाड़ कंपा देने वाली सर्दी से जिम्मेदार किस्म के किसानों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वे तो अपना गमछा व कंबल ओढ़े लगातार खेतों की खैरखबर लेते रहते हैं, उन्हें सींचते हैं और सफाई वगैरह का खयाल रखते हैं.

आइए डालते हैं एक पैनी नजर दिसंबर में होने वाली खेतीकिसानी संबंधी तमाम गतिविधियों पर :

* पिछले यानी नवंबर महीने की खास मुहिम थी गेहूं की बोआई, तो अब नंबर आता है गेहूं के खेतों की देखभाल का. अगर गेहूं की बोआई को 3 हफ्ते हो चुके हों तो फौरन खेतों की पहली सिंचाई का काम निबटा दें.

* सिंचाई के अलावा इस दौरान उग आए खरपतवारों को भी निराईगुड़ाई कर के निकाल दें. गेहूंसा नाम के खरपतवार के खात्मे के लिए आइसोप्रोट्यूरान दवा का इस्तेमाल करें. अगर चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का असर नजर आए तो 2-4 डी सोडियम साल्ट का इस्तेमाल करें. इन कैमिकल दवाओं का इस्तेमाल बोआई के 4 हफ्ते बाद करना ही ठीक रहता है, इस से पहले खुरपी की मदद से ही खरपतवार निकालें.

* आमतौर पर ज्यादातर किसान नवंबर में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई बाकी रह गई हो, तो उसे पक्के तौर पर दिसंबर के दूसरे हफ्ते तक यानी 15 दिसंबर के आसपास तक जरूर कर दें.

* दिसंबर में गेहूं की पछेती किस्मों की बोआई ही की जाती है. इस बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 125 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करें. बोआई के दौरान कूंड़ों के बीच 15 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए.

* दिसंबर महीने का अहम काम गन्ने की फसल की कटाई का होता है. इस दौरान गन्ने की तमाम किस्में कटाई के लिए पूरी तरह तैयार हो जाती हैं. किसान भाई जरूरत व सुविधा के मुताबिक गन्ने की कटाई का काम निबटा सकते हैं.

* शरदकालीन गन्ने के खेतों में अगर नमी कम महसूस हो, तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करना न भूलें.

* गन्ने के साथ अगर तोरिया या राई वगैरह फसलें भी लगी हों, तो जरूरत के मुताबिक उन की निराईगुड़ाई करें. इस से गन्ने की फसल को भी फायदा होगा.

* दिसंबर के दौरान मटर की फसल में फूल आने का वक्त होता है, इसलिए फूल आने से पहले मटर के खेतों की सिंचाई ध्यान से कर दें. ऐसा करने से फूल व फलियां बेहतर तरीके से आती हैं.

* मटर की फसल को इस मौसम में तनाछेदक व फलीछेदक कीटों का खतरा रहता है, लिहाजा उन के प्रति जागरूक रहना जरूरी है.

* मटर की फसल में तनाछेदक कीट की रोकथाम के लिए डाइमिथोएट 30 ईसी दवा की 1 लीटर मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. फलीछेदक कीट की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 1 लीटर मात्रा या मोनोक्रोटोफास 36 ईसी दवा की 750 मिलीलीटर मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

* मटर की फसल को रतुआ बीमारी से बचाने के लिए मैंकोजेब दवा की 2 किलोग्राम मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

* आमतौर पर जौ की बोआई नवंबर महीने में निबटा दी जाती है, फिर भी अगर अब तक यह काम न हुआ हो तो दिसंबर के शुरू में ही निबटा लें. जौ बोने के लिए 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* पिछले महीने बोई गई जौ की बोआई को अगर 1 महीना हो चुका हो, तो खेतों की सिंचाई करें और निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकाल दें.

* सरसों के खेत में अगर पौधे ज्यादा घने लगे हों तो बीचबीच से फालतू पौधे उखाड़ कर अपने मवेशियों को चारे के तौर पर खिला दें. सरसों के फालतू पौधों के साथसाथ खेत से तमाम खरपतवार भी निकाल दें.

* दिसंबर में वसंतकालीन गन्ने की बोआई की तैयारियां शुरू कर देनी चाहिए. जिस खेत में गन्ना बोना हो उस की कई बार अच्छी तरह जुताई करें. जुताई के बाद खेत में कंपोस्ट खाद, सड़ी हुई गोबर की खाद व केंचुआ खाद मिलाएं. खेत में दीमक के घर नजर आएं तो उन्हें चुनचुन कर नष्ट करें. ज्यादा दीमक हो तो असरदार दवा का इस्तेमाल करें.

* अमूमन मशहूर दाल मसूर की बोआई का काम भी नवंबर में कर लिया जाता है. फिर भी चाह होते हुए भी अभी तक मसूर की बोआई न हो पाई हो, तो उसे फौरन करें. बोआई के लिए 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. बीज की उन्नतशील किस्म का ही चुनाव करें और बोने से पहले बीजों को उपचारित करना न भूलें.

* कड़ाके की ठंड वाले दिसंबर महीने में आलू के खेतों का पूरा ध्यान रखना चाहिए. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें और पौधों में बाकायदा मिट्टी चढ़ा दें. निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवारों का सफाया करें.

* अपने मवेशियों के लिए अगर बरसीम चारा लगाया है, तो उस की समयसमय पर कटाई करते रहें. कटाई हमेशा 6-7 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर ही करें. कटाई के बाद हर बार सिंचाई करना न भूलें, इस से बरसीम पाले से बची रहेगी.

* प्याज की नर्सरी का खयाल रखें और रोपाई का इंतजाम करें. तैयार पौधों की रोपाई इस महीने के आखिर तक कर दें.

* लहसुन के खेतों में अगर नमी कम नजर आए तो हलकी सिंचाई कर दें. खेत की निराईगुड़ाई करें ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* अपनी शलजम, गाजर व मूली की क्यारियों में जरूरत के मुताबिक हलकी सिंचाई करें. सिंचाई के साथसाथ नाइट्रोजन वाली खाद भी डालें, इस से फसल बेहतर होती है. क्यारियों की निराईगुड़ाई करें ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* धनिया की फसल का मुआयना करें. उस में इस दौरान चूर्णिल आसिता बीमारी का खतरा रहता?है. यह बीमारी होने पर इलाज के लिए 0.20 फीसदी सल्फेक्स दवा का छिड़काव करें.

* अपनी मिर्च की फसल का मुआयना करें, क्योंकि इस दौरान डाईबैक बीमारी का खतरा रहता है. ऐसा होने पर रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 या डाइकोफाल 18 ईसी दवा के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* ज्यादा सर्दी की वजह से दिसंबर में अकसर लीची के छोटे पेड़ पाले की गिरफ्त में आ जाते हैं. बचाव के लिए इन पेड़ों को 3 तरफ से छप्पर से कवर कर दें. सिर्फ पूर्वीदक्षिणी सिरा देखभाल के लिए खुला रखें. 

* लीची के फल वाले बड़े पेड़ों में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पेड़ की दर से डालें. सभी पेड़ों में 600 ग्राम फास्फोरस भी डालें. रोगी और खराब शाखाओं को पेड़ों से तोड़ कर बाग से दूर ले जा कर जला दें.

* बेशक अभी आम का मौसम नहीं है, मगर आम के बागों की सफाई जरूर करें. आम के 10 साल या उस से पुराने पेड़ों में 1 किलोग्राम पोटाश और 750 ग्राम फास्फोरस प्रति पेड़ की दर से डालें. ये चीजें तनों से 1 मीटर फासला छोड़ कर थालों में डालें.

* मिली बग कीटों से आम के पेड़ों को महफूज रखने के लिए तनों के चारों ओर 2 फुट की ऊंचाई पर 400 गेज वाली 30 सेंटीमीटर पौलीथीन शीट की पट्टी बांधें. पट्टी के निचले किनारे पर अच्छी तरह ग्रीस लगा दें.

* मिली बग कीट अगर तनों पर दिखाई दें, तो 250 ग्राम क्लोरोपाइरीफास पाउडर प्रति पेड़ की दर से तने व उस के आसपास छिड़कें. थाले में छिड़के पाउडर को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें.

* नए बागों में लगे आम के छोटे पौधों को दिसंबर में पड़ने वाले पाले से बचाना जरूरी है. इस के लिए फूस के छप्पर का इस्तेमाल करें. बीचबीच में सिंचाई करते रहें.

* अपने मुरगेमुरगियों को दिसंबर की जबरदस्त ठंड से बचाने का पूरा इंतजाम करें.

* अगर मुरगीपालन का ज्यादा तजरबा न हो, तो कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक से सलाह ले कर मुरगेमुरगियों की हिफाजत का बंदोबस्त करें.

* इस अंतिम महीने की भयंकर सर्दी मवेशियों के लिए भी बेहद खतरनाक होती है, लिहाजा सजग रहें. रात के वक्त गायभैंसों को बंद कमरों में रखें व लाइट लगातार जलने दें. रोशनी के लिए पीली लाइट इस्तेमाल करें, क्योंकि वह दूधिया लाइट के मुकाबले ज्यादा गरम होती है.

* अगर पशुओं को बरामदे में बांधते हों तो रात के वक्त मोटेमोटे परदे जरूर लगाएं.

* सुबहशाम कंडे की आंच जला कर पशुओं को गरमी दें. धुएं से मच्छर भी भाग जाते हैं.

* दिन के वक्त पशुओं को धूप में जरूर बांधें. यह सेहत के लिहाज से जरूरी है.

* जानवरों को सर्दीबुखार वगैरह होने पर डाक्टर को बुलाना न भूलें.

कैसे शुरू करें अपना डेरी फार्म

आजकल डेरी फार्म का कारोबार शुरू कर के कोई बेरोजगार या किसान खासी कमाई कर सकता है. पारंपरिक खेती से ऊब चुके या घाटा उठा चुके किसानों के लिए डेरी फार्म सौगात की तरह है. सब से खास बात यह है कि सरकार और कई संस्थाएं इस कारोबार को चालू करने के लिए कई तरह की सुविधाएं मुहैया करा रही हैं, जिस का फायदा उठा कर खुद की माली हालत को सुधारा जा सकता है और कुछ जरूरतमंदों को रोजगार भी दिया जा सकता है. इस कारोबार की खास बात यह है कि कम से कम 2 गायों से भी डेरी फार्म की शुरुआत की जा सकती है.

व्यावसायिक डेरी फार्म : इस दर्जे का डेरी फार्म शुरू करने में करीब 15 लाख रुपए की लागत आएगी. इस के लिए कम से कम उन्नत नस्ल की 20 गायों की जरूरत पड़ती है. इस के लिए लागत का 75 फीसदी यानी साढ़े 10 लाख रुपए बैंक कर्ज और 15 फीसदी यानी करीब 2 लाख रुपए विभागीय अनुदान के रूप में हासिल किए जा सकते हैं. हर साल गायों को खिलाने, इलाज कराने, बीमा और मजदूरी वगैरह पर साढ़े 7 लाख रुपए और बैंक का लोन चुकाने पर 2 लाख 70 हजार रुपए खर्च हो जाएंगे. दूध व बछियाबछड़े बेच कर 12 लाख 75 हजार रुपए फार्म मालिक के हाथ में आएंगे और सारा खर्च काट कर 1 साल में 2 लाख 70 हजार रुपए की शुद्ध कमाई होगी.

मिडी डेरी फार्म : उन्नत नस्ल की 10 गायों से मिडी डेरी फार्म खोला जा सकता है. इसे खोलने पर कुल 5 लाख 50 हजार रुपए का खर्च बैठता है. जिस में 70 फीसदी यानी 3 लाख 85 हजार रुपए बैंक से कर्ज मिल सकता है. और लागत का 20 फीसदी यानी 1 लाख 10 हजार रुपए गव्य विकास निदेशालय की ओर से मुहैया कराए जाते हैं. फार्म शुरू करने वालों को अपनी जेब से करीब 55 हजार रुपए लगाने पड़ते हैं. चारा, दाना, मजदूरी, पशु बीमा और इलाज पर हर साल करीब 3 लाख 67 हजार रुपए खर्च होते हैं और बैंक कर्ज चुकाने में हर साल 1 लाख 8 हजार रुपए खर्च हो जाएंगे. दूध व बछियाबछड़े बेच कर 6 लाख 37 हजार रुपए तक की कमाई हो सकती है. इस में चारा और लोन चुकाने का खर्च घटा दिया जाए तो सालाना 1 लाख 62 हजार रुपए का शुद्ध मुनाफा हो जाएगा.

मिनी डेरी फार्म : उन्नत किस्म की 5 गायों से मिनी डेरी फार्म लगाया जा सकता है. इस में करीब 2 लाख 70 हजार रुपए की लागत आती है, जिस में 65 फीसदी यानी 1 लाख 75 हजार रुपए बैंक से कर्ज और 25 फीसदी यानी 67 हजार रुपए विभाग से अनुदान के रूप में आसानी से हासिल किए जा सकते हैं. डेरी फार्म लगाने वाले को कुल लागत का 10 फीसदी यानी करीब 27 हजार रुपए का जुगाड़ करना पड़ेगा. मिनी डेरी फार्म से हर साल करीब 90 हजार रुपए की शुद्ध कमाई की जा सकती है. गायों को खिलाने, इलाज और बीमा वगैरह पर सालाना 1 लाख 90 हजार रुपए और बैंक का कर्ज चुकाने में करीब 46 हजार रुपए खर्च हो जाएंगे.

लघु डेरी फार्म : उन्नत नस्ल की 2 गायों के साथ लघु डेरी फार्म शुरू किया जा सकता है. इस पर कुल खर्च 1 लाख 10 हजार रुपए होता है, जिस में 65 फीसदी यानी 70 हजार 850 रुपए बैंक से कर्ज मिल सकता है और लागत का 25 फीसदी यानी 27 हजार 250 रुपए गव्य विकास निदेशालय की ओर से मुहैया कराए जाते हैं. फार्म शुरू करने वाले को अपनी जेब से करीब 11 हजार रुपए लगाने होंगे. चारा, दाना, पशु बीमा और इलाज पर हर साल करीब 65 हजार रुपए खर्च होते हैं और बैंक कर्ज चुकाने में हर साल 20 हजार रुपए खर्च होंगे. दूध और बछियाबछड़े बेच कर सवा लाख रुपए तक की कमाई हो सकती है. इस में चारा और लोन चुकाने का खर्च घटा दिया जाए तो सालाना 42 हजार रुपए का शुद्ध मुनाफा हो जाता है.

बेसन की बरफी

चना सेहत के लिहाज से सब से उम्दा अनाज है. यही कारण है कि मिठाइयों में चने के बेसन का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. लड्डू और बरफी के अलावा और भी कई मिठाइयां इस से तैयार की जाती हैं. अब बेसन व चीनी के साथ कुछ मेवे मिला कर बेसनमेवा बरफी भी तैयार होने लगी है. बेसनमेवा बरफी की कीमत ज्यादा होती है, जबकि बेसन और चीनी से बनने वाली मिठाइयों की कीमत कम होती है. बेसन का मिठाइयों में सब से ज्यादा इस्तेमाल इसलिए होता है, क्योंकि इस से बनने वाली मिठाइयां ज्यादा दिनों तक चलती हैं. बेसन, चीनी और घी से तैयार होने वाली मिठाइयों में सब से अधिक स्वाद आता है. गणेश मिष्ठान के मोहित गुप्ता कहते हैं, ‘पहले बेसन से तैयार मिठाइयों को सस्ती मिठाई माना जाता था. अब मेवा मिलने के बाद बेसन की मिठाइयां भी महंगी हो गई हैं. ये भी खास मिठाइयों में गिनी जाने लगी हैं.’

गांवों के बाजारों में बेसन से बनने वाली मिठाइयां खूब मिलती हैं. मोहित गुप्ता कहते हैं, ‘खोए से तैयार होने वाली मिठाइयों में मिलावट का अंदेशा बना रहता है. कई बार खोया ही मिलावटी होता है. ऐसे में बेसन से तैयार मिठाई शुद्ध होती है. इस में खराब होने वाली चीजें नहीं मिली होती हैं. लिहाजा यह स्वास्थ्य के लिए भी अच्छी मानी जाती है.’ लड्डू के बाद बेसन की बरफी काफी चलन में है. इसे बनाना बेहद आसान होता है, लिहाजा लोग बेसन की बरफी बनाने का कारोबार भी कर सकते हैं. शहरों से ले कर गांवों तक यह खूब चलन में है. बेसन की बरफी चौकोर, तिकोनी व अलगअलग आकारों की बनती है.

बनाने का तरीका

बेसन की बरफी बनाने के लिए 250 ग्राम बेसन, 250 ग्राम चीनी, 200 ग्राम घी, 2 बड़े चम्मच दूध, 2 बड़े चम्मच काजू (पिसे हुए), 1 चम्मच पिस्ता और 4 छोटी इलायची (दाने निकाल लें) सामग्री के रूप में लें. बरफी बनाने के लिए बेसन को प्लेट में रखें. दूध डाल कर मिश्रण तैयार करें. मिश्रण को ठीक तरह से छानें. बेसन का दाना तैयार हो जाएगा. काजू, पिस्ता और इलायची को तैयार रखें. कड़ाही में घी डाल कर गरम करें. घी में बेसन के तैयार दाने डालें. धीरेधीरे भूनें. जब बेसन से घी अलग होने लगे तो भूनना बंद कर के बेसन को किसी प्लेट में निकाल लें. अब कड़ाही में चीनी और आधा कप पानी डाल कर 2 तार की चाशनी पकाएं. चाशनी बनने के बाद भुना बेसन डाल कर मिलाएं. अब काजू और इलायची के दाने डाल कर मिलाएं.

किसी प्लेट में घी लगा कर चिकना करें और बरफी का तैयार मिश्रण उस में डाल कर ठीक से फैला दें. मिश्रण के ऊपर कटे पिस्ते लगा कर चम्मच से दबा दें. कुछ देर में बरफी जम जाएगी. जमी हुई बरफी को मनपसंद आकार में काटें. बरफी को हमेशा एयरटाइट डब्बे में रखें. इस से वह लंबे समय तक खराब नहीं होगी. मिठाइयों की शौकीन अनामिका मित्रा कहती हैं, ‘बेसन की बरफी बना कर घर में आने वाले मेहमानों को खिलाई जा सकती है. इस से शुद्ध मिठाई बाजार में नहीं मिलेगी. इसे बनाना भी सरल होता है. इसे सभी लोग पसंद करते हैं.’

अरंडी की फसल में रोगों का इलाज

अरंडी औद्योगिक तेल देने वाली खास तिलहनी फसल है. इस के बीजों में 45 से 55 फीसदी तेल और 12 से 16 फीसदी प्रोटीन की मात्रा होती है. इस के तेल में 93 फीसदी रिसिनीलिक नामक वसा अम्ल पाया जाता है, जिस के कारण इस का बहुत औद्योगिक महत्त्व है. भारत के कुल अरंडी उत्पादन का एक बड़ा भाग हर साल विदेशों को निर्यात किया जाता है. इस की खेती आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पंजाब व हरियाणा सूबों के सूखे भागों में बहुतायत से की जाती?है. अरंडी की फसल में भी कई रोग लग जाते?हैं, जिस से पैदावार पर भारी असर पड़ता है. पेश?है अरंडी में लगने वाले खास रोग व उन के इलाज की जानकारी.

उकठा रोग (विल्ट)

यह रोग ‘फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम’ नामक कवक से होता?है, जो करीब 43 साल पहले राजस्थान के सिरोही जिले में सब से पहले पाया गया था. आजकल अरंडी उगाए जाने वाले तमाम राज्यों में यह रोग पाया जाता है.

लक्षण : शुरू में रोगी पौधों की पत्तियां मुरझा कर पीली पड़ जाती?हैं. इस के बाद नीचे वाली पत्तियां गिर जाती हैं. सिर्फ सिरे पर कुछ पत्तियां बाकी रहती हैं. पौधों में पानी ले जाने वाली नलियों में फफूंद जमा हो जाती?है और पौधे सूख कर नष्ट हो जाते हैं. यह रोग बीज व भूमि जनित होता है.

इलाज

* रोग ग्रस्त खेतों में 2-3 सालों तक अरंडी की फसल न बो कर रोग के असर व फैलाव को कम किया जा सकता?है.

* बीजों को कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम या थीरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की बीज दर से उपचारित कर के बोआई करें.

* मित्र फफूंद ट्राइकोडर्मा निरिडि से 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजों को उपचारित करें. इसी फफूंद की 2.5 किलोग्राम मात्रा एफवाईएम के साथ मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले भूमि का उपचार करें.

* रोगरोधी किस्मों की बोआई करें. सरदार कृषि नगर गुजरात में गीता, एसकेपी 16, एसकेपी 23, एसकेपी 106, एसकेपी 108, एसकेआई 80, एसकेआई 225 व जेआई 258 वगैरह किस्में रोगरोधी पाई गई हैं.

जड़गलन (रूट रोट)

लक्षण : यह रोग ‘मैक्रोफोमिना फेजियोलिना’ नामक कवक से होता?है. सभी उम्र के पौधों में यह रोग लग सकता है. रोगी पौधे आसानी से भूमि से निकाले जा सकते हैं. रोगी पौधों की जड़ें सड़ी हुई काली नजर आती हैं. रोगी पौधे मर जाते?हैं, लिहाजा उपज में भारी कमी होती है.

इलाज

* रोगग्रस्त खेतों में अरंडी की फसल न लें. जिस खेत में जड़गलन का प्रकोप हुआ हो, उस में अगले साल अरंडी न लगाएं.

* बोआई से पहले बीजों को कार्बंडाजिम या थीरम से उपचारित करें.

* अरंडी की किस्में जीसीएच 4, जीसीएच 5, जीसीएच 6 व जेआई 102 की बोआई करें. इन में यह रोग कम लगता?है.

फाइटोफ्थोरा अंगमारी

(सीडलिंग ब्लाइट)

यह बहुत ही विनाशकारी रोग?है. इस रोग से नीचे वाले खेतों और पानी की निकासी न होने वाले खेतों में बहुत नुकसान होता?है. इस से 30 से 40 फीसदी फसल नष्ट हो जाती?है.

लक्षण : जब अरंडी के पौधे की लंबाई 6-7 इंच होती है, तो इस रोग का पहला लक्षण बीजपत्र की दोनों सतहों पर गोल व धुंधले हरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देता है.

बीजपत्र अपने शीर्ष बिंदु से नीचे की ओर लटक जाता?है. यह रोग पत्तियों व तनों तक फैल कर पौधों के बढ़ने वाले भागों को खराब कर देता?है, जिस से पौधों की मृत्यु हो जाती?है. पुराने पौधों में रोग के लक्षण धब्बों के रूप में पत्तियों पर दिखाई देते हैं. ज्यादा संक्रमित पत्तियां मर जाती?हैं और फसल पकने से पहले ही झड़ जाती हैं.

इलाज

* इस रोग की रोकथाम के लिए अच्छी जलनिकासी वाले खेतों का चुनाव करना चाहिए.

* रोग्रसत पौधों के अवशेषों व मलबे को खेत से निकाल कर जला देना चाहिए. खेत की सफाई रखनी चाहिए.

* रोग के लक्षण बीजपत्र व पत्तियों पर दिखाई देते ही मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. जरूरत पड़े तो 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराना चाहिए.

* रोगरोधी किस्में उगाएं. टीएमबी 3, टाइप 9, झांसी सलेक्शन, एचसी 6 और पंजाब नंबर 1 किस्में रोगरोधी होती हैं.

आल्टरनेरिया अंगमारी व पत्तीधब्बा रोग

यह रोग ‘आल्टरनेरिया रिसीनाई’ नामक कवक से होता है. फसल में फूल आने के समय कलियां मर जाती हैं और फूलों के गुच्छे काले पड़ जाते?हैं.

लक्षण : इस रोग के लक्षण अरंडी के पौधे के सभी अंगों में देखे जा सकते?हैं. उगते हुए पौधों के बीजपत्रों पर यह रोग छोटेछोटे भूरे व गोल धब्बों से शुरू होता है और फैल कर पौधों को दबा देता?है.

बारिश के मौसम में पत्तियों पर धब्बे ज्यादा फैले व घने होते हैं. रोग ज्यादा फैलने पर काफी धब्बे आपस में मिल जाते हैं और बड़े हो जाते हैं, जिस से पत्तियां सूख कर झड़ जाती हैं. रोग के असर से बीज सिकुड़ जाते हैं और तेल की मात्रा भी कम हो जाती है. रोग की फफूंद बीजों व पौधों के अवशेषों पर जीवित रहती है.

इलाज

*  पौधों के रोगी अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए.

* रोगरहित बीजों का इस्तेमाल करें. बीजों को थीरम की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित कर के बोएं.

* रोग के लक्षण दिखाई देते ही मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* खेतों के आसपास अरंडी की जंगली प्रजातियां न पनपने दें.

छाछिया रोग

(पाउडरी मिल्ड्यू)

यह रोग ‘ऐरिसाइफी सिकोरेसिएरम’ और ‘लेवीलूला टोरिका’ नामक फफूंदों से होता है.

लक्षण  : पहला लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर सफेद धुंधले धब्बों के रूप में दिखता है. धीरेधीरे पत्तियां सफेद चूर्ण युक्त हो जाती हैं. रोगी पौधे जल्दी पक जाते?हैं, जिस से बीज छोटे बनते?हैं.

इलाज

* अरंडी में छाछिया रोग की रोकथाम के लिए सल्फेक्स 0.3 फीसदी या केराथेन 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देते ही करना चाहिए.

जीवाणु पर्णदाग या अंगमारी

(बैक्टीरियल ब्लाइट)

यह रोग ‘जेंथोमोनास रिसीनीकोला’ नामक जीवाणु से होता है.

लक्षण : यह रोग सब से पहले बीजपत्रों पर गीले धब्बों के रूप में दिखाई देता?है, जो कि बाद में काले पड़ जाते?हैं. नई पत्तियों पर छोटेछोटे गोल व गीले धब्बे बनते?हैं, जो कई बार कोणीय आकार के होते?हैं. कई धब्बे आपस में मिल कर बड़ेबड़े चकत्ते बना देते?हैं. पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं और बाद में गिर जाती हैं. अधिक संक्रमित पौधों की सारी पत्तियां झड़ जाती हैं. रोग के काले दाग तनों व टहनियों वगैरह पर भी देखे जा सकते?हैं. फूल वाले अंग गिर जाते?हैं और डोडे नहीं बन पाते हैं. पौधों के तनों में संक्रमण से दरारें पड़ जाती?हैं.

इलाज

* रोगरहित बीजों का इस्तेमाल करें. खेत में पड़े संक्रमित पौधों के रोगी अवशेषों को नष्ट कर दें.

* रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लीन की 1 ग्राम मात्रा को 18 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें या पौसामाइसीन 0.025 फीसदी और कापर आक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

टहनी अंगमारी (टिवेग ब्लाइट)

यह रोग ‘कोलेरोट्राइकम ग्लोइस्पोरी आइडीज’ नामक कवक से होता?है.

लक्षण : इस रोग के लक्षण मुख्य रूप से तनों, टहनियों व पत्तियों की डंठलों पर दिखाई देते?हैं. शुरू में ये लक्षण गोल धब्बे के रूप में दिखाई पड़ते हैं, जिन के किनारे गहरे भूरे रंग के होते?हैं.

ज्यादा संक्रमण होने पर धब्बे पूरे तनों, टहनियों व पत्तियों को?घेर लेते हैं. रोगी भागों पर काली धारियां भी दिखाई पड़ती हैं.

इलाज

* टहनी अंगमारी की रोकथाम के लिए ऊपर बताए फाइटोफ्थोरा अंगमारी रोग की तरह ही इलाज करें.

बोट्राइटिस ग्रे रोट 

 यह रोग ‘बोट्राइटिस’ नामक कवक से होता?है. ज्यादा नमी या बारिश वाले इलाकों में फूलों पर रोग के लक्षण दिखते?हैं. रोग से प्रभावित फूल सड़ जाते?हैं.

इलाज

* रोगी पौधों के फूलों को नष्ट कर देना चाहिए. फसल पर कार्बंडाजिम 0.1 फीसदी या थायोफिनेट 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव बारिश से पहले ही कर देना चाहिए.

ऊपर बताए गए रोगों के अलावा अरंडी की फसल में रोली (मेलैंपसोरा रीसीनाई), सरकोस्पोरा पतीधब्बा (सरकोस्पोरा रिसीनेला) व माचरोथिसियम पत्तीधब्बा (मायरोथिसियम रोरीडम) रोग भी कहींकहीं पाए जाते हैं

उन्नत उत्पादकता के लिए उन्नत खेती

भारत में अभी भी दोतिहाई जनसंख्या अपने रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर है. खाद्य सुरक्षा और कृषि उत्पाद निर्यात जैसी तमाम योजनाएं किसानों के बल पर ही चलती हैं. इस के बावजूद किसानों की हालत साल दर साल और खराब होती जा रही है. किसानों की हालत इस हद तक खराब हो चुकी है, कि वे अब खुदकुशी करने पर मजबूर हो रहे हैं. ये हमारे देश की नाकामयाबी ही है. मौजूदा हालात में नाकामयाबी पर रोने के बजाय अगर भरपूर कोशिश की जाए, तो किसानों की हालत बेहतर हो सकती है. यह कोशिश सफलता को ध्यान में रख कर वैज्ञानिक तरीके से की जानी चाहिए. धानगेहूं फसल तकनीक 1960 के दशक की हरित क्रांति के समय की सफलतम कृषि तकनीक थी, जो अब धीरेधीरे अपनी चमक खो रही है. इस तकनीक से पैदावार तो काफी हुई, लेकिन उर्वरकों और रासायनिक दवाओं के बेतहाशा इस्तेमाल ने इस की रफ्तार धीमी कर दी है. जहां पर धानगेहूं तकनीक सफल है, वहां इसे और भी उन्नत बनाया जा सकता है. इस के अलावा खेती की और भी उन्नत तकनीकें हैं, जिन्हें किसानों को अपनाना चाहिए. खेती की ऐसी ही कुछ तकनीकें इस प्रकार हैं:

फसल विविधीकरण

लगातार एक ही किस्म की फसलें उगाने व एक ही तरह के साधनों का प्रयोग करने से न केवल फसलों की पैदावार में कमी आती है, बल्कि उत्पाद की क्वालिटी व खेत की उर्वरता में भी गिरावट आती है. लिहाजा खेतों में मुख्य फसल के साथ कोई दूसरी फसल भी लगानी चाहिए जैसे गेहूंचावल वगैरह के साथ दलहनी फसलें लगाई जा सकती हैं. इस के अलावा पशुपालन, मछलीपालन या मधुमक्खीपालन को भी अपनाया जा सकता है. अगर किसी साल मुख्य फसल खराब भी हो जाए, तो दूसरे साधन किसानों की आमदनी का जरीया बन सकते हैं. कई फसलों के फसलचक्र में धान्य, दलहनी, तिलहनी व चारे वाली फसलें लेनी चाहिए.

फर्टीगेशन

यह शब्द उर्वरक यानी फर्टीलाइजर और सिंचाई यानी इरीगेशन शब्दों से मिल कर बना है. ड्रिप सिंचाई तकनीक में पानी के साथसाथ उर्वरकों को भी पौधों तक पहुंचाना फर्टिगेशन कहलाता है. फर्टिगेशन द्वारा उर्वरकों को कम मात्रा में और कम अंतराल पर सिंचाई के साथ दिया जाता है. इस विधि से जल और उर्वरक सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचते हैं, इसलिए फसल में खरपतवार भी बहुत कम पनपते हैं.

श्री विधि

श्री यानी सिस्टम आफ राइस इंटेंसीफिकेशन तकनीक का विकास चावल की खेती में लागत को कम करने के मकसद से किया गया है. यह विधि इस खोज पर आधारित है कि धान पानी में जिंदा जरूर रहता है, पर यह जलीय फसल नहीं है और न ही आक्सीजन की कमी में उगता है. मैडागास्कर के हेनरी डे लेनोनी द्वारा विकसित यह विधि आज भारत के चावल उत्पादन में काफी योगदान दे रही है. इस से किसानों के बीच एक नई सोच व शक्ति पैदा हो रही है. श्री विधि की सफलता का राज यह है कि इस में धान को पानी में डूबना नहीं पड़ता है और खराब हालात के दौरान भी मिट्टी नम बनी रहती है. इस तकनीक में साधारण विधि की तुलना में आधे पानी की जरूरत होती है. श्री विधि की सफलता को देखते हुए दुनिया भर में करीब 1 लाख किसान इस से लाभ उठा रहे हैं. छोटे और सीमांत किसानों के लिए यह विधि बहुत कारगर है.

श्री विधि से धान की खेती में 2 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से बीज लगाया जाता है, जबकि सामान्य विधि से खेती करने में प्रति एकड़ 20 किलोग्राम की दर से बीज की जरूरत होती है. श्री तकनीक में उर्वरक और दूसरे रसायनों की बहुत कम मात्रा खर्च होती है. श्री तकनीक से धान के पौधे की अच्छे तरीके से बढ़वार होती है और इस की जड़ें भी मजबूती से बढ़ती हैं.

श्री तकनीक से फायदे

*      अनाज और चारे की भरपूर उपज होती है.

*      अधिक उम्दा चावल की पैदावार होती है.

*      सामान्य विधि के मुकाबले फसल तैयार होने में कम वक्त लगता है.

*      कम पानी की जरूरत पड़ती है.

*      इस विधि में कम रासायनिक खाद का इस्तेमाल होता है.

*      अनाज के आकार में बदलाव हुए बिना अनाज के वजन में इजाफा होता है.

फर्ब्स तकनीक

यह तकनीक गेहूं की खेती में अपनाई जाती है. इस में 8 फुट लंबी, 4 फुट चौड़ी व 10 इंच ऊंची क्यारियां बनाई जाती हैं. 2 क्यारियों के बीच सिंचाई के लिए 10-12 इंच चौड़ी नालियां बनाई जाती हैं. इस तरीके से 30-40 फीसदी सिंचाई के पानी की बचत होती है और गेहूं की उपज में 15-20 फीसदी इजाफा होता है. भारत में जहां सिंचाई की दिक्कत होती है, वहां यह तकनीक अपनाई जाती है.

सिंचाई की नई तकनीक

ड्रिप : इसे टपक बूंद या बूंदबूंद सिंचाई भी कहते हैं. गन्ने की खेती में यह काफी कारगर है. इस में पानी की काफी बचत होती है

जौ का कीड़ों व रोगों से बचाव

भारत के मैदानी भागों की रबी की फसल जौ के गुणों की वजह से इसे खास भोजन माना जाता है. भोजन में जौ के लगातार इस्तेमाल से खून में कोलेस्ट्राल की मात्रा कम होती है, जिस से दिल का दौरा मानसिक तनाव, हृदय रोग और मधुमेह में काफी हद तक फायदा होता है. जौ का महत्त्व इस में मौजूद घुलनशील रेशों की वजह से है, जोकि इन बीमारियों को रोकने में खास योगदान देते हैं. जौ की फसल बोआई से कटाई तक तमाम कीटों व रोगों का शिकार होती रहती है, जिस से फसल की पैदावार में कमी आ जाती है.

हानि पहुंचाने वाले कीट

कर्तन कीट (एग्राटिस एप्सिलान) : इस कीट के प्रौढ़ गहरेभूरे रंग के 25 मिलीमीटर आकार के होते हैं. मादा कीट अपने अंडे जमीन में देती है. अंडों से गिडारें निकल कर जमीन पर पड़ी पत्तियों पर रहती हैं. ये गिडारें पौधों की जड़ों को जमीन की सतह से काट देती हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. दिन के समय में गिडारें जमीन की दरारों व पत्तियों में छिप जाती हैं और रात में दरारों से निकल कर फसल को हानि पहुंचाती हैं.

रोकथाम

* खेतों के पास प्रकाशप्रपंच 20 फेरोमान ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है.

* शाम के समय खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने के लिए निकलती हैं, तो बाद में इन्हीं में छिपती हैं, जिन्हें घास हटा कर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* प्रकोप बढ़ने पर इंडोसल्फान 35 ईसी (1.50-2.00 मिलीलीटर प्रति लीटर) या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़कें.

गुजिया कीट : इस कीट के प्रौढ़ भूरे रंग के होते हैं, जिन की लंबाई 4 से 5 मिलीमीटर और चौड़ाई 2 मिलीमीटर होती है. मादा कीट जमीन में अंडे देती है. गिडार व प्यूपा अवस्थाएं जमीन में ही बीतती हैं. गुजिया कीट का हमला असिंचित इलाकों में ज्यादा होता है. इस कीट के प्रौढ़ व सूड़ी छोटे पौधों को जमीन की सतह से काट कर नष्ट करते हैं, जिस से पौधे सूख जाते हैं. 3-4 हफ्ते के बाद पौधे इस कीट से क्षतिग्रस्त नहीं होते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कभीकभी फसल की दोबारा बोआई भी करनी पड़ती है.

रोकथाम

* खेतों के पास प्रकाशप्रपंच 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगा कर प्रौढ़ कीटों को आकर्षित कर के नष्ट किया जा सकता है.

* खेतों के बीचबीच में घासफूस के छोटेछोटे ढेर शाम के समय लगा देने चाहिए. रात में जब सूंडि़यां खाने के चक्कर में निकलेंगी, तो बाद में इन्हीं में छिपेंगी. इस सूंडि़यों को घास हटा कर आसानी से नष्ट किया जा सकता है.

* गुजिया कीट का हमला बढ़ने पर इंडोसल्फान 35 ईसी (1.50-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर) या क्लोरोपायरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़कें.

दीमक (ओडोंटोटर्मिस ओबेसेस) : दीमक से असिंचित इलाकों में जौ की फसल को ज्यादा नुकसान होता है. दीमक करीब 6 मिलीमीटर लंबी व मटमैलेसफेद रंग की होती है. दीमक फसल की छोटी अवस्था से फसल पकने तक नुकसान पहुंचाती है. यह खेत की सतह से कुछ नीचे पौधे को काट कर नष्ट करती है, जिस से पूरा पौधा सूख जाता है. अधिक प्रकोप होने पर कभीकभी फसल की दोबारा बोआई करनी पड़ती है.

रोकथाम

* प्रभावित खेत में समयसमय पर सिंचाई करते रहें.

*  खेत में हमेशा गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद डालें.

* 1 किलोग्राम बिवेरिया व 1 किलोग्राम मेटारिजयम को करीब 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद में अच्छी तरह मिला कर छाया में 10 दिनों के लिए छोड़ दें, इस के बाद प्रभावित खेत में प्रति एकड़ की दर से बोआई से पहले इस्तेमाल करें.

* सिंचाई के समय इंजन से निकले हुए तेल की 2-3 लीटर मात्रा का इस्तेमाल करें.

* प्रकोप अधिक होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा को रेत में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* बीजों को बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित करें.

गेहूं तनामक्खी (एथरिगोना सोकटा) : इस कीट के प्रौढ़ छोटे हैं. मादा कीट अंडे जमीन के पास तनों पर व कभीकभी पत्तियों की निचली सतह पर देती है. अंडों से 2 से 3 दिनों में सूंड़ी निकल आती है. सूंड़ी पत्तियों के निचले भाग के तने में घुस कर पौधे के अंदर के हिस्से को खा कर नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम

* खेत में फसलचक्र अपनाएं और फसलचक्र में चना, अलसी या गोभीवर्गीय फसल लगाएं और एक ही खेत में लगातार जौ की फसल न बोएं.

* खेत में पानी की भरपूर मात्रा होने पर इस कीट का प्रकोप कम होता है.

* जौ की फसल 15 नवंबर के बाद बोएं.

* कीटनाशी रसायन मोनोक्रोटोफास 36 फीसदी एसएल की 650 मिलीलीटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलीटर मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* कार्बारिल 10 फीसदी डीपी 25 किलोग्राम का प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें.

गुलाबी तनाभेदक कीट : इस कीट की गिडारें तने में घुस कर सभी अंदरूनी हिस्सों को खाती रहती हैं, जिस से पौधे का मुख्य तना सूख जाता है, जिसे डेडहर्ट कहते हैं. मादा पतंगी पत्तियों की निचली सतह व तने पर अंडे देती है. अंडे छोटे, गोल व सफेद रंग के होते हैं, जो बाद में गुलाबी रंग के हो जाते हैं. पूरी वयस्क गिडार गुलाबी रंग की व लगभग 1.4 सेंटीमीटर लंबी होती है, प्यूपा तने के अंदर ही रहता है. पूरा जीवनचक्र 6 से 7 हफ्ते में पूरा हो जाता है.

रोकथाम

* फसल को जमीन से मिला कर काटना चाहिए, जिस से कम से कम ठूंठ बचें और कीट ठूंठों के अंदर न रह पाएं.

* फसल की कटाई के बाद खेत की गहरी जुताई करें व इस के बाद उस में पानी भर दें ताकि तनाछेदक की सभी बची सूंडि़यां मर जाएं व अगली फसल को नुकसान न पहुंचा पाएं.

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगाएं ताकि तनाछेदक के प्रौढ़ नर ट्रैपर में इकट्ठे हो कर मरते रहें.

* तमाम विधियां अपनाने के बाद भी यदि तनाछेदक कीट का प्रकोप खत्म न हो, तो कारटाप हाइड्रोक्लोराइड 4 जी की 18 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सूखे रेत या राख में मिला कर खेत में बिखेरें.

माहू कीट : जौ की फसल पर माहू कीट का प्रकोप जनवरी के दूसरे हफ्ते तक होता है. माहू छोटा कोमल शरीर वाला व हरे मटमैले भूरे रंग का कीट है, जिस के झुंड पत्तियों, फूलों, डंठलों व पौधे के अन्य कोमल भागों पर चिपके रहते हैं. ये रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं.

रोकथाम

* माहू का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रेप का प्रयोग करें, ताकि माहू ट्रेप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-1,00,000 अंडे या सूंडि़यां प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* इंडोपथोरा व वर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोगकारक कवक) का छिड़काव करें.

*  जरूरत होने पर मैलाथियान 50 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिस्टाक्स 25 ईसी की 1.25-2.0 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.

सैनिक कीट (माइथिमना सपरेटा) : सैनिक कीट का प्रकोप फसल पर कभीकभी होता है. इस से फसल को बहुत नुकसान होता है. इस का प्रकोप फसल पकने के कुछ समय पहले होता है. इस कीट की गिडारें पत्तियों को खाती हैं. ये दिन में मिट्टी के ढेलों व दरारों में रहती हैं और रात को झुंड में निकल कर तनों व बालियों को काट कर तबाह कर देती हैं.

रोकथाम

* खेत में खड़े पुरानी फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर देना चाहिए.

* खेत के आसपास खड़े खरपतवारों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

* कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर या क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

जौ की बीमारियां

जौ का गेरुई या रतुआ रोग : यह 2 प्रकार का होता है, पीला गेरुई रोग व काला गेरुई रोग.

इस रोग के लक्षण जनवरीफरवरी के दौरान ज्यादा दिखाई देते हैं. पत्तियों पर पीले व भूरे रंग का चूर्ण भर जाता है, जो हवा में फट कर फैल जाता है और दूसरे पौधों में भी रोग फैल जाता है.

रोकथाम

* इंडोफिल 2.5 किलोग्राम या बाविस्टीन 1 किलोग्राम या वेलेटान 1 किलोग्राम या मेथमेजेव 2.5 किलोग्राम या जिनेव 2.5 किलोग्राम को 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. दूसरा छिड़काव 15 दिनों बाद करना चाहिए.

* रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए. जौ की रोगरोधी किस्में  के 560 हरितमा, के 508 प्रगति, के 551 ऋतंभरा वगैरह हैं.

* फसलचक्र अपना कर भी इस रोग से बचाव किया जा सकता है. मिश्रित फसलों में गेहूं और जौ को मिला कर बोने से यह रोग कम होता है.

जौ का कंडुआ रोग : यह 2 प्रकार का होता है, आवृत कंडुआ व अनावृत कंडुआ.

इस के लक्षण बालियां निकलने के बाद दिखाई पड़ते हैं. अनावृत कंडुआ से फफूंदी के असंख्य बीजाणु हवा में फैल जाते हैं. आवृत कंडुआ आंतरिक बीजजनित होता है.

रोकथाम

* रोगी पौधे को उखाड़ कर गड्ढों में गाड़ देना चाहिए या उसे जला कर नष्ट कर देना चाहिए.

* कार्बंडाजिम या कार्बाक्सिन या वीटावैक्स की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम की दर से बीजों को उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

* रोगरोधी प्रजातियां बोनी चाहिए. कुछ रोगरोधी प्रजातियां हैं ज्योति, अंबर, विजया आजाद, के 141, के 560, के 409, जाग्रति, लखन, के 329, के 1149 छिलका रहित, के 508, के 603 वगैरह.

पत्ती का धारीदार रोग (स्ट्राइप रोग) : पौधों की पत्तियों का हरापन खत्म हो कर पीली धारियां बन जाती हैं, जो बाद में गहरे भूरे रंग में बदल जाती हैं. इसे आसानी से पहचाना जा सकता है.

रोकथाम

इस का इलाज कंडुआ रोग की तरह किया जाता है.

धब्बेदार स्पाट ब्लाच जालिकावत धब्बा रोग नेक ब्लाच : इस रोग की वजह से पत्तियों पर अंडाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ते हैं, जिन्हें शुरू में पहचानना मुश्किल होता है. बाद में धब्बे मिल कर धारियां बन जाती हैं.

रोकथाम

* इस रोग की रोकथाम भी धारीदार रोग या कंडुआ रोग की तरह ही करनी चाहिए.

जौ का मोल्या रोग : इस रोग से पौधे कहींकहीं अलग दिखाई देते हैं. यह रोग निमेटोड से होता है. इस के असर से पौधे पीले व लालिमा लिए नजर आते हैं. जड़ों का विकास भी कम हो जाता है. जड़ें खेत में गहराई तक नहीं पहुंच पाती हैं. फसल देखने में लगता है जैसे किसी जरूरी पोषक तत्त्व की कमी हो.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए जौ गेहूं की फसल कई सालों तक नहीं उगानी चाहिए.

* अप्रैलजून के दौरान खेत की जुताई कर के खाली छोड़ देना चाहिए. फसलचक्र अपनाना चाहिए.

* खेत में फ्यूमीगेशन करना चाहिए. इस के लिए डीडीटी फ्यूमीजेट का इस्तेमाल 300 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से या निमेजान डीवीसीपी का इस्तेमाल 45 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए.

– ऋषिपाल व सीएस प्रसाद

एक जादुई औषधीय पौधा कौंच

इस का वानस्पतिक नाम मुकुना प्रूरिएंस है और यह फाबेसी परिवार का पौधा है. बात हो रही है कौंच की जो भारत के लोकप्रिय औषधीय पौधों में से एक है. यह भारत के मैदानी इलाकों में झाडि़यों के रूप में फैली हुई होती है. इस झाड़ीय पौधे की पत्तियां नीचे की ओर झुकी होती हैं. इस के भूरे रेशमी डंठल 6.3 से 11.3 सेंटीमीटर लंबे होते हैं. इस में झुके हुए गहरे बैगनी रंग के फूलों के गुच्छे निकलते हैं, जिस में करीब 6 से 30 तक फूल होते हैं. इस पौधे में सेम जैसी फलियां लगती हैं. कौंच के पौधे के सभी भागों में औषधीय गुण होते हैं. इस की पत्तियों, बीजों व शाखाओं का इस्तेमाल दवा के तौर पर किया जाता है. ज्यादातर कौंच का इस्तेमाल लंबे समय तक सेक्स की कूवत बरकरार रखने के लिए किया जता है.

जिन खिलाडि़यों की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता?है, उन के लिए भी कौंच का इस्तेमाल मुफीद होता है. इस के बीजों के इस्तेमाल से याद रखने की कूवत बढ़ती है. वजन बढ़ाने में भी कौंच का इस्तेमाल कारगर साबित होता है. इस के अलावा गैस, दस्त, खांसी, गठिया दर्द, मधुमेह, टीबी व मासिकधर्म की तकलीफों के इलाज के लिए भी कौंच के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है.

कौंच के बीजों में निम्न रोगों को दूर करने की कूवत होती है:

* दर्द व पेट की तकलीफें  * मधुमेह

* बुखार * खांसी, * सूजन

* गुर्दे की पत्थरी * गैस की समस्या

* नपुंसकता * नसों की कमजोरी

यौन संबंधी परेशानियां

कौंच को कपिकच्छू और कैवांच वगैरह नामों से भी जाना जाता है. आयुर्वेद में इसे यौन कूवत बढ़ाने वाली दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सेक्स कूवत बढ़ाने के लिए इस के बीज बेहद कारगर होते हैं. कौंच का इस्तेमाल मर्दों व औरतों की हमबिस्तरी की ख्वाहिश में इजाफा करता है. यह नपुंसकता दूर करने में मदद करती है.

कौंच के बीजों का इस्तेमाल

कौंच के बीजों का इस्तेमाल करने के लिए उन को दूध या पानी में उबाल कर उन के ऊपर का छिलका हटा देना चाहिए. इस के बाद बीजों को सुखा कर बारीक चूर्ण बना लेना चाहिए. इस चूर्ण की 5 ग्राम मात्रा को मिश्री व दूध में मिला कर रोज सुबहशाम इस्तेमाल करने से मर्दों के अंग का ढीलापन और शीघ्रपतन का रोग दूर होता है. कौंच के बीजों के साथ सफेदमूसली और अश्वगंधा के बीजों को बराबर मात्रा में मिश्री के साथ मिला कर बारीक चूर्ण तैयार कर के सुबहशाम 1 चम्मच मात्रा दूध के साथ लेने से मर्दों की तमाम सेक्स संबंधी दिक्कतों को दूर किया जा सकता है. कौंच के बीजों के साथ शतावरी, गोखरू, तालमखाना, अतिबला और नागबला को एकसाथ बराबर मात्रा में मिला कर बारीक चूर्ण तैयार कर के इस चूर्ण को मिश्री मिला कर 2-2 चम्मच चूर्ण सुबह और शाम के वक्त दूध के साथ रोज लेने से मर्द के अंग की कूवत बढ़ती है. सोने से 1 घंटा पहले इस चूर्ण को कुनकुने दूध के साथ लेने से जिस्मानी संबंध बेहतर होते हैं.

10-10 ग्राम धाय के फूल, नागबला, शतावरी, तुलसी के बीज, आंवला, तालमखाना व बोलबीज, 5-5 ग्राम अश्वगंधा, जायफल व रुद्रंतीफल, 20-20 ग्राम सफेदमूसली, कौंच के बीज व त्रिफला और 15-15 ग्राम त्रिकुट व गोखरू को एकसाथ मिला कर चूर्ण बना लें. इस के बाद इस मिश्रण को 16 गुना पानी में मिला कर उबालने पर जब पानी सूख जाए तो उस में 10 ग्राम भांगरे का रस मिला कर दोबारा उबालें और जब मिश्रण गाढ़ा हो जाए तो इसे आंच से उतारें और ठंडा कर के कपड़े से अच्छी तरह मसल कर छान लें और सुखा कर व पीस कर चूर्ण बनाएं. इस चूर्ण में 20 ग्राम शोधी हुई शिलाजीत, 1 ग्राम बसंतकुसूमार रस और 5 ग्राम स्वर्ण बंग मिलाएं. इस मिश्रण की आधा ग्राम मात्रा शहद के साथ मिला कर सुबहशाम चाट कर उस के बाद दूध पीना बेहद फायदेमंद होता है. इस औषधि के सेवन से मर्द के बल में इजाफा होता है. इस औषधि को लेने के दौरान तेज मिर्चमसाले वाली, तली हुई व खट्टी चीजें नहीं खानी चाहिए.

कौंच के बीजों के साथ उड़द, गेहूं, चावल, शक्कर, तालमखाना और विदारीकंद को बराबर मात्रा में ले कर बारीक पीस कर दूध मिला कर आटे की तरह गूंध कर इस की छोटीछोटी पूडि़यां बना कर गाय के घी में तलें. इन पूडि़यों को दूध के साथ खाने से भी काफी फायदा होता है. 100-100 ग्राम कौंच के बीज, शतावरी, उड़द, खजूर, मुनक्का, दाख व सिंघाड़ा को मोटा पीस कर 1 लीटर दूध व 1 लीटर पानी मिला कर हलकी आग में पकाएं. गाढ़ा होने पर आंच से उतारें और ठंडा होने पर छानें. इस में 300-300 ग्राम चीनी, वंशलोचन का बारीक चूर्ण और घी मिलाएं. इस मिश्रण की 50 ग्राम मात्रा में शहद मिला कर रोजाना सुबहशाम खाने से बल बढ़ता है.

कौंच के अन्य लाभ

कौंच तनाव और चिंता को दूर करती है. यह खासतौर पर यौन ग्रंथियों को मजबूती प्रदान करती है. यह तंत्रिकातंत्र के लिए एक खास पोषक तत्त्व के रूप में काम करती है.

तंत्रिकातंत्र संबंधी परेशानियां : कौंच तंत्रिकातंत्र संबंधी परेशानियों के लिए एक खास दवा के रूप में इस्तेमाल की जाती है. यह पार्किसंस रोग में भी इस्तेमाल की जाती है.

कोलेस्ट्राल और ब्लडशुगर : कौंच कोलेस्ट्राल कम करने की एक खास दवा है, साथ ही यह ब्लडशुगर के स्तर को सही करने के लिए फायदेमंद दवा है. इस के अलावा यह एक मानसिक टानिक के रूप में भी कारगर होती है. 

कुछ कहती हैं तसवीरें

किस में कितना है दम : बुल फाइटिंग यानी सांड़ों की लड़ाई महज भारत में ही नहीं मशहूर है, बल्कि दुनियाभर के मुल्कों में इस के कायल मौजूद हैं. ये नजारे हैं जापानी बुलफाइटिंग के. दर्शकों का जोश भी देखने लायक है.

मेरे पापा

मैं कक्षा 9 में पढ़ती थी. उस दौरान पहनने के लिए कपड़े सालभर में 1-2 बार ही बनवाए जाते थे. पिताजी हम 2 बहनों के लिए 6 मीटर कपड़ा सलवारसूट के लिए लाए. घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण कम सिलाई लेने वाली पास में रहने वाली एक महिला को कपड़े सिलने के लिए दे दिए. बाल उत्सुकतावश मैं 4-5 दिन बाद अपने ‘सूट’ के बारे में पूछने गई. उन्होंने कहा कि 3-4 दिन बाद ले जाना. इसी तरह कलकल कह कर 12-13 दिन बीत गए और वह कपड़ा वैसे ही वापस कर दिया. नए कपड़े पहनने का उत्साह ठंडा पड़ गया. मैं बिना सिला कपड़ा देख कर पिताजी के पास आ कर फूटफूट कर रो पड़ी. पिताजी ने चुप कराया, ढांढ़स बंधाया कि पड़ोस में ही रहने वाली ताईजी तुम्हारे सूट सिल देंगी. मैं कपड़ा ले कर उन के पास गई. उन्होंने हम दोनों की नाप ली. हम खुश हो गए कि सारे कपड़े सिल जाएंगे. पर ताईजी भी केवल आश्वासन देती रहीं और मैं अपना कपड़ा वापस ले आई पिताजी से कहा, ‘‘अब बताओ किस से सिलवाओगे हमारे कपड़े?’’

वे कुमाऊंनी भाषा में बोले, ‘‘मेरी चेली तमौत्ते होशियार छ:. मैं बतौन उ सिड़ैली. तू त कसकस कै हरें देली.’’ अर्थात् मेरी लड़की तो बहुत होशियार है. मैं बताऊंगा, वह सिलेगी. वह तो कैसेकैसों को हरा सकती है. इन शब्दों से मैं उत्साह से भर गई. पिताजी के प्रोत्साहन व प्रेरणा से मैं अपना सूट काटने के लिए तैयार हो गई. 6 मीटर कपड़े में मैं केवल 1 सूट बना पाई. उस के बाद धीरेधीरे मैं घर के सभी कपड़े सिलने लगी और अच्छी दर्जिन बन गई. फिर मैं पासपड़ोस के भी कपड़े सिलने लगी जो हमारी आजीविका का साधन बन गया. आज पिताजी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन के प्रेरणास्रोत शब्द आजीवन हमारे साथ रहेंगे.

काबिंदी पाठक, बेतालघाट (नैनीताल)

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हम उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर में रहते थे. हम 5 बहनें और 3 भाई हैं. पिताजी सरकारी नौकरी की वजह से बाहर रहते थे पर होली, दीवाली त्योहारों में घर आते थे. वे हम लोगों को बहुत प्यार करते थे. एक बार हमारी छोटी बहन बहुत बीमार पड़ गई. पिताजी घर आए हुए थे. बहुत इलाज के बाद भी वह ठीक नहीं हो रही थी लेकिन जब तक वह ठीक नहीं हुई तब तक पिताजी उस के पास बैठे रहे और देखभाल करते रहे. कुछ तो दवाओं का असर और कुछ पिताजी के असीम प्यार के कारण बहन ठीक हो गई. ऐसे थे हमारे पिताजी जिन्हें हम आज भी याद करते हैं.

रमा पांडे, लखनऊ (उ.प्र.)

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