Download App

सर्दियों में ‘जिप्सम समृद्ध’ खाद से सुधारें ऊसर

आमतौर पर ऊसर सुधार का काम गरमी के मौसम में किया जाता है, मगर हाल के सालों में कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत से दूसरे मौसमों में भी ऊसर सुधार मुमकिन हो सका है. देश में हरियाणा के करनाल स्थित ‘केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान’ के वैज्ञानिकों ने धान के पुआल व जिप्सम के संयोग से ‘जिप्सम समृद्ध’ नाम से एक गुणकारी खाद बनाने का तरीका खोज निकाला है. इस से न केवल सर्दियों में काफी मात्रा में पाए जाने वाले धान के पुआल का सदुपयोग होगा, बल्कि लवणीय जमीन के ऊसर सुधार का काम भी आसानी से हो सकेगा. खास बात यह है कि यह खाद मिट्टी को कई जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति करने की कूवत रखती है.

खाद बनाने का तरीका : धान की कटाई के बाद पुआल को जलाने के बजाय छोटेछोटे टुकड़ों में काटें. इस के बाद कटे हुए टुकड़ों को पूरी रात पानी में डुबो कर रखें ताकि खाद आसानी से बन सके. अगली सुबह भीगे हुए टुकड़ों को निकाल कर 150-200 लीटर वाली टंकी में डालें. पुआल के गीले टुकड़े टंकी में डालने से खाद बनाने में आसानी होगी और पोषक तत्त्व जमीन के बहुत नीचे नहीं जाएंगे. टंकी में पुआल को गोबर से अच्छी तरह लेप देते हैं. खाद सड़ने की गति बढ़ाने के लिए टंकी में ट्राइकोडर्मा कवक 50 ग्राम प्रति 100 किलोग्राम पुआल की दर से मिलाया जाता है. इस के साथ ही 0.25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति 100 किलोग्राम पुआल के हिसाब से मिलाते हैं. इस के अलावा 25 किलोग्राम जिप्सम प्रति 100 किलोग्राम पुआल की दर से मिलाते हैं.

खाद में नमी बरकरार रखना बहुत जरूरी है, लिहाजा समयसमय पर पानी का छिड़काव जरूर करते रहें. करीब 1 महीने बाद टंकी के मिश्रण को खूब अच्छी तरह से मिलाएं ताकि भरपूर मात्रा में हवा बनी रहे. हवा के बने रहने से खाद को जल्दी तैयार होने में मदद मिलती है. 3 से 4 महीने में यह खाद बन कर तैयार हो जाती है.

प्रयोग विधि : इस संबंध में ‘केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल’ के निदेशक डाक्टर दिनेश कुमार शर्मा ने बताया कि 100 किलोग्राम पुआल से तैयार खाद को खूब अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की 1 टन खाद में मिला कर खेत में इस्तेमाल करना चाहिए. यह पूरी मात्रा 1 एकड़ खेत के लिए काफी है.

खाद के फायदे : भारत में काफी मात्रा में धान का पुआल पाया जाता है. देश में लगभग 600-700 मिलियन टन खेती से निकलने वाले फालतू पदार्थ पाए जाते हैं. इस में तकरीबन 300 मिलियन टन पुआल होता है. धान का पुआल जला दिए जाने से पर्यावरण व मिट्टी की सेहत को काफी नुकसान पहुंचता है. ‘केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान’ के एक अंदाजे के मुताबिक यदि धान को जला दिया जाता है, तो तकरीबन 20 फीसदी नाइट्रोजन, 25 फीसदी फास्फोरस व 20 फीसदी पोटाश का नुकसान उठाना पड़ता है. ‘जिप्सम समृद्ध’ खाद से यह नुकसान नहीं हो पाता है. इस के अलावा ‘जिप्सम समृद्ध’ खाद से होने वाले खास फायदे निम्न प्रकार हैं :

* ऊसर (खासकर लवणीय भूमि में) का सुधार होता?है.

* जिप्सम एक प्रमुख लवणीय भूमि सुधारक है. ऐसे में जिप्सम की घुलनशीलता को बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि इस में कई प्रकार के अम्ल पाए जाते हैं, जो इस की घुलनशीलता बढ़ाने में मदद करते हैं.

* यह कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में इजाफा करता है, क्योंकि इस में  कार्बनिक पदार्थ साधारण खाद के मुकाबले ज्यादा पाया जाता है, जोकि मिट्टी की संरचना में सुधार करता है.

* यह मिट्टी में पोषक तत्त्वों की मात्रा में इजाफा ही नहीं करता, बल्कि मिट्टी की उर्वरा कूवत को भी लंबे समय तक बनाए रखता है.

पिस्ता नानखटाई सब के मन को भाई

नानखटाई एक तरह का बिस्कुट होता है, जो बेकरी में बनाया जाता है. अब इसे बनाने के लिए ओवन का प्रयोग किया जाने लगा है. भारत भर में नानखटाई मिलती है. अब इसे बड़ेबड़े होटलों में भी लोगों को चाय के साथ दिया जाता है. इसे बनाना सरल होता है. इसे घर में भी बना कर इस का स्वाद लिया जाता है. जो लोग बेकरी का रोजगार करते हैं, नानखटाई उन के लिए बेहद मुनाफे वाली साबित होती है. इस का बिजनेस करने वालों को कभी नुकसान नहीं होता है. उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में बनने वाली नानखटाई बेहद मशहूर है. मेरठ में छोटीबड़ी सभी दुकानों में थाल में सजा कर नानखटाई को बेचा जाता है. यहां की नानखटाई की डिमांड पूरे देश में रहती है. मेरठ आने वाले लोग यहां से नानखटाई जरूर ले जाते हैं. मेरठ में 150 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 600 रुपए प्रति किलोग्राम तक की नानखटाई मिलती है. आमतौर पर यह 30 मिनट में बन कर तैयार हो जाती है. देशी घी और मेवों की नानखटाई महंगी होती है. अब तरहतरह की नानखटाई बनने लगी है. काजू नानखटाई, काजूबादाम नानखटाई, पिस्ता नानखटाई व मूंग नानखटाई की मार्केट में काफी डिमांड है. नानखटाई गरमगरम खाने में ज्यादा स्वाद मिलता है. आमतौर पर इस का सीजन बरसात के बाद जाड़ों से शुरू होता है और गरमी भर रहता है. बरसात में यह कम बिकती है. अब अच्छी पैकिंग आने के बाद पूरे साल नानखटाई बिकती है. हर छोटेबड़े शहर में बेकरी वालों के यहां नानखटाई  मिल जाती है. खानपान के कारोबार से जुड़ी लखनऊ की रहने वाली सुनीता सिंह कहती हैं कि नानखटाई अब बिस्कुट से अधिक पसंद की जाने लगी है.

मिर्च के मुख्य कीट व उन का जैविक इलाज

दुनिया के मिर्च उत्पादक देशों में भारत का नाम सब से ऊपर आता है. मिर्च एक खास मसाला व नकदी फसल है. सेहत के लिहाज से मिर्च में विटामिन ए व सी और कुछ खनिजलवण पाए जाते हैं. मिर्च की फसल में कीटों द्वारा काफी नुकसान होता है. ये कीट पत्तियों व फलों को नुकसान पहुंचाते हैं. यहां मिर्च की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले खास कीटों की जानकारी दी जा रही है. दीमक : यह सर्वभक्षी कीट है, जो उदई के नाम से भी जाना जाता है. इस का प्रकोप मुख्य रूप से रेतीली मिट्टी, कम पानी और ज्यादा तापमान की अवस्थाओं में ज्यादा होता है. यह मिर्च की फसल को विकास की किसी भी अवस्था में नुकसान पहुंचा सकती है. यह जमीन के नीचे मिट्टी में अपना घर बना कर रहती है. दीमक मिर्च की जड़ों को खा कर नुकसान पहुंचाती है, इस वजह से पौधे जगहजगह झुंडों में सूख जाते हैं और खींचने पर आसानी से उखड़ जाते?हैं. खेत में सूखे हुए पौधों की जड़ों की जगह खोदने पर दीमक आसानी से दिखाई देती है. सूखे इलाकों में दीमक का प्रकोप ज्यादा होता?है इस से मिर्च की पैदावार पर बुरा असर पड़ता है.

इलाज

* खेत व खेत के आसपास दीमक के घरों व खरपतवारों को नष्ट करें.

* खेत में गोबर या मींगनी की खाद अच्छी तरह से सड़ा कर डालनी चाहिए.

* खेत में नीम की खली 200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिलाएं.

सफेद लट : यह जमीन में रह कर जड़ों को खाती है, जिस से पौधे कमजोर हो कर पीले पड़ जाते?हैं और फिर सूख जाते हैं. वयस्क लट मुड़ी हुई अर्धचंद्राकार रूप में जमीन के अंदर रहती है. मानसून या इस से पहले भारी वर्षा होने व कुछ क्षेत्रों के खेतों में पानी लगाने पर जमीन से भृंगों का निकलना शुरू हो जाता?है. भृंग रात के समय जमीन से निकल कर परपोषी पेड़ों (खेजड़ी, बेर, अमरूद व आम वगैरह) पर बैठते हैं और पत्तियों को खाते?हैं. ये खेतों की मिट्टी में अंडे देते हैं, जिन से लटें निकल कर पौधों को नुकसान पहुंचाती?हैं. इन का साल में 1 ही जीवनकाल होता है.

इलाज

अगर वयस्क भृंगों को परपोषी पेड़ों से रात में पकड़ने की सुविधा हो तो?भृंगों के निकलने के बाद करीब 9 बजे रात को बांसों की सहायता से परपोषी पेड़ों पर बैठे भृंगों को हिला कर नीचे गिराएं व इकट्ठा कर के मिट्टी का तेल मिले पानी (1 लीटर तेल व 20 लीटर पानी) में डाल कर नष्ट करें. 

सफेद मक्खी : इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही पत्तियों के कोमल भागों से रस चूस कर काफी नुकसान पहुंचाते?हैं. इन के असर से पत्तियां सिकुड़ जाती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती?है. यह मक्खी एक किस्म का तरल पदार्थ निकालती?है, जिस से फफूंदी रोग हो जाता है और पौधों का विकास व प्रकाश संश्लेषण रुक जाता है. यह जितना नुकसान रस चूस कर नहीं करती, उस से कहीं ज्यादा विषाणु रोग फैला कर करती?है.

मोयला : यह कीट चेपा व माहू के नाम से भी जाना जाता?है. यह छोटे आकार व कोमल शरीर वाला होता?है. इस की अवयस्क (पंखरहित) व वयस्क (पंख वाले) दोनों अवस्थाएं फसल को नुकसान पहुंचाती?हैं. ये पौधों के कोमल तनों, पत्तियों व फूलों से रस चूस कर उन का विकास रोक देते हैं. जिन स्थानों पर मोयला बैठता?है, वहां एक प्रकार का लसीला व शहद जैसा पदार्थ अपने शरीर से निकाल देता?है. इस से बाद में फफूंद रोग हो जाता?है. इस कीट की पंख वाली अवस्था बीमारियों को भी फैलाती है.

पर्णजीवी : यह कालेपीले रंग का बहुत छोटा कीट होता है. इस के 6 पैर होते?हैं. इस के पंख रोएंदार या झालरदार होते हैं. इस कीट के शिशु और वयस्क दोनों ही कोमल व नई पत्तियों के निचले भाग से हरा पदार्थ खुरच कर उन का रस चूसते हैं, जिस से पत्तियों पर छोटेछोटे सफेद या भूरे निशान बन जाते?हैं और पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

बरूथी : बहुत छोटे 8 पैरों वाले ये कीट आमतौर पर नजर नहीं आते हैं. ये मकड़ी नाम से?भी जाने जाते?हैं. ये पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं. इन के लगातार रस चूसने से पत्तियों पर सफेद निशान बन जाते हैं. इन की वजह से पौधों पर फलों की संख्या घट जाती हैं.

हरा तेला : यह फुदकने वाले छोटे व मध्यम आकार के हरे रंग के कीट पत्तियों की निचली सतह पर रहते?हैं ये पत्ती पर तिरछा चलते हैं. इन के शिशु व वयस्क दोनों ही पौधों से रस चूस कर उन्हें कमजोर बना देते हैं. ये कीट विषाणु रोग भी फैलाते हैं.

फलछेदक : इस कीट की लटें फलों में छेद बना कर अंदर घुस कर फलों को खाती?हैं. इन के असर से फल सड़ जाते हैं. इन से उत्पादन में कमी के साथसाथ फलों की गुणवत्ता में भी कमी आ जाती है. यह कीट मिर्च के अलावा कपास, टमाटर व चना वगैरह को भी नुकसान पहुंचाता है.

इलाज

* पौधशाला (नर्सरी) में पौधों को सफेद नायलोन जाली से ढक कर रखें.

* रसचूसक कीटों से बचाव के लिए 10 पीले चिपचिपे पाश (ट्रैप) प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

* परभक्षी कीट क्राइसोपरला कारनिए के 2 ग्रब प्रति पौधे की दर से खेत में छोड़ने का इंतजाम करें.

* फलछेदक कीटों से बचाव के लिए 5 फेरोमोन पाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करें.

* बेसीलस थूरिनजिएंसिस नामक जीवाणु का 1.5 लीटर घोल प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में मिला कर छिड़काव करने से फलछेदक कीटों से बचाव होता?है.

* ट्राइकोग्रामा ब्रोसिलिएंसिस या ट्राइकोग्रामा किलोनिस अंड परजीवी को खेत में 50000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें. यह परजीवी फलछेदक कीटों के अंडों में अपने अंडे देता?है, जिस से फलछेदक कीट के अंडे नष्ट हो जाते?हैं.

* न्यूक्लियर पालीहाइड्रोसिस वाइरस (एनपीवी) के 250 एलई का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से फूलन से फलन तक 3 बार छिड़काव करने से फलछेदक कीट को कम किया जा सकता?है.

जैव आधारित कीट रोकथाम

मिर्च की फसल में खास नाशी कीटों व लीफ कर्ल के इलाज के लिए 30 व 40 दिनों की फसल अवस्था पर आवश्यकतानुसार एजाडियरेक्टिन (0.03 फीसदी ईसी) 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ वर्टिसीलियम मित्र फफूंद 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें. दूसरा छिड़काव 50 दिनों की फसल अवस्था पर केवल वर्टिसीलियम फफूंद 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का करें. अंतिम 2 छिड़काव 70 व 90 दिनों की फसल अवस्था पर स्पाइनोसेड 45 एससी 200 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त पानी में घोल कर करें.

मधुमक्खी व तितली की कृषि में भूमिका

मधुमक्खी व तितली जमीन पर पाए जाने वाले 2 खास कीट हैं. ये कीट परागण में खास भूमिका निभाते हैं. मधुमक्खियों के सिर पर 5 आंखें होती हैं, लेकिन इन सब के बावजूद ये सिर्फ 1 मीटर की दूरी तक ही देख सकती हैं. फूलों का रस चूसते समय परागकण मधुमक्खियों के पैरों पर चिपक जाते हैं. जब ये दूसरे पौधों पर जा कर बैठती हैं, तो वहां पर ये परागकण छूट जाते हैं, इस प्रकार उस पौधे पर फूलफल आदि आ जाते हैं. इस प्रकार यह छोटा सा कीट हमारे लिए कई प्रकार के फलों, सब्जियों और अनाजों के उत्पादन में अहम भूमिका निभाता है. लेकिन आधुनिक कृषि में बढ़ते कीटनाशकों के प्रयोग से इन की तादाद में चिंताजनक गिरावट आई है.

तितली जमीन पर पाया जाने वाला सुंदर और तमाम खासीयतों वाला कीट है. दुनियाभर में तितलियों की करीब 20 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं. ये लगभग सभी देशों में मिलती हैं. भारत में यह ज्यादातर केरल, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश वगैरह में पाई जाती हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन की लगभग 15 हजार प्रजातियां खतरे से घिरी हुई हैं. इन में से कुछ तो गायब ही हो गई हैं.

तितली के जीवनचक्र की 4 अवस्थाएं होती हैं अंडा, लारवा, प्यूपा व प्रौढ़. तितली के अंडे छोटे, गोल व बेलनाकार होते हैं. इस का जीवन काल 2 से 9 महीने का होता है.

फूलों से रस चूसने के लिए तितली के मुंह के आगे की ओर एक   सूंड़ होती है. मधुमक्खी के जीवनचक्र की भी 4 अवस्थाएं होती हैं अंडा, लारवा, प्यूपा व प्रौढ़. ये 3 प्रकार की होती हैं क्वीन मक्खी, ड्रोन व वर्कर.

कहा जाता है कि 1 क्वीन मक्खी 1 दिन में करीब 2 हजार अंडे देती है. अंडे से लारवा निकलने में 4 दिनों का समय लगता है. करीब 9 दिनों के बाद लारवा खाना बंद कर देता है और प्यूपा बनता है. जीवनचक्र की प्यूपा अवस्था में ही मधुमक्खियों में टांग, आंख व पंख बनने शुरू होते हैं. इस के बाद प्रौढ़ बनने का समय 10-23 दिनों के बीच का होता है. मधुमक्खियों व तितलियों से प्रति एकड़ लगभग 30-50 फीसदी तक उपज में इजाफा होता है.

गायब होने के कारण

*      मधुमक्खियों के गायब होने की खास वजह फसलों पर कीटनाशी का बढ़ता प्रयोग है.

*      जंगलों का अंधाधुंध कटाव.

*      मधुमक्खियों व तितलियों के शिकार का बढ़ना.

*      इनसान व सरकार की उदासीनता और जागरूकता की कमी.

*      मोबाइल फोन से निकलने वाली तरंगों के कारण ये अपना मार्ग  भटक जाती हैं और फिर मर जाती हैं.

बचाने के उपाय

*      कीटनाशकों का प्रयोग कम किया जाए.

*      जंगलों को खत्म न किया जाए.

*      इन के गैरकानूनी शिकार को पूरी तरह से बंद किया जाए.

*      इनसान व सरकार के द्वारा इन को बचाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं.

*      मोबाइल फोन के टावरों को जंगलों से दूर लगाया जाए.

*      विभिन्न विश्वविद्यालयों व कालेजों में इन का पढ़ाई व रिसर्च में कम इस्तेमाल किया जाए.

फायदे

सभी फसलों में कुल परागण का करीब 87 फीसदी कीटों द्वारा होता है.  इन कीटों में मधुमक्खियां व तितलियां खास हैं. भारत में हर साल तितलियों द्वारा किए गए परागण से हमें करीब 200 करोड़ डालर प्राप्त होते हैं.

सोचने की बात

हर साल करीब 50 हजार तितलियों का विदेशों को निर्यात किया जाता है. इन की सुंदरता ही आज इन के गायब होने की वजह बनी है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि ये परागण के काम में खास भूमिका निभाती हैं.

हम बाघ, शेर, हाथी व गैंडे जैसे बड़े जीवों को गायब होने से बचाने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन जिन छोटे से जीवों पर जमीन पर रहने वाले तमाम जीवों का वजूद टिका है, उन्हें हम नहीं बचा पा रहे हैं.

इन कीटों में मधुमक्खी व तितली खास हैं. अगर पृथ्वी से दोनों कीट खत्म हो गए तो 1 साल में शेर खत्म हो जाएंगे और 3 सालों में इनसान खत्म हो जाएंगे और धीरेधीरे जमीन के तमाम जीव भी खत्म हो जाएंगे. लिहाजा हमें मधुमक्खियों व तितलियों की हिफाजत का पूरा खयाल रखना चाहिए.                      

– अरुण कुमार, डा. आरएस सेंगर व डा. पूरनचंद

गायब होती मवेशियों व मछलियों की देशी नस्लें

हमेशा चर्चा में रहने वाले बिहार सहित देश के कई राज्यों में देशी मवेशियों और मछलियों के गायब होने का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है. गाय, भैंस, भेड़, बैल और कई मछलियों की देशी नस्लें धीरेधीरे गायब होती जा रही हैं. नई तकनीक की खूबियों के बीच देशी मवेशी गायब होते जा रहे हैं और उन्हें बचाने के लिए बने महकमों को इस बात की कोई चिंता नहीं है. दर्जनों सरकारी योजनाएं कागजों से बाहर नहीं निकल सकी हैं. गाय, भैंस, बैल और भेड़ों की कई नस्लों के गायब होने का खतरा काफी बढ़ गया है. बिहार के सभी वेटनरी फार्म और वेटनरी कालेजों की खस्ता हालत की वजह से मवेशियों की नस्लों की हिफाजत नहीं हो पा रही है. इस से दियारा भैंस, शाहाबादी भेड़, रेड गाय और बछौर बैल की नस्लें खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं और इस बारे में सरकारी अफसरों को कोई चिंता ही नहीं है. इस के अलावा गायों और भैंसों की कई लोकल नस्लों का भी कोई आंकड़ा पशुपालन विभाग के पास नहीं है. पटना, गोपालगंज, डुमरांव, पूर्णियां, बेला, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, नालंदा, कटिहार, नवादा और किशनगंज के वेटनरी फर्म सफेद हाथी बने हुए हैं. किसी भी फर्म में वेटनरी डाक्टर नहीं हैं. सारे पद काफी दिनों से खाली पड़े हुए हैं.

वहीं दूसरी ओर गंगा नदी में हजारों सालों से रह रही देशी किस्म की मछलियां लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं. गंगा समेत बिहार की बाकी नदियों में पाई जाने वाली रोहू, कतला, नैनी, पोठिया, गरई, मांगुर, बचबा वगैरह देशी किस्म की मछलियों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. अगर इन्हें बचाने का कोई उपाय नहीं किया गया तो देशी मछलियां इतिहास की बात हो जाएंगी. गंगा की देशी मछलियां अफ्रीकन, दक्षिण अमेरिकन और चाइनीज मछलियों का शिकार हो रही हैं. बाढ़ के दौरान तालाबों और झीलों से निकल कर विदेशी किस्म की मछलियां गंगा समेत बाकी नदियों में आसानी से पहुंच जाती हैं. बिहार में बड़े पैमाने पर विदेशी किस्म की मछलियों का पालन तालाबों और झीलों में किया जा रहा है. इस से किसानों और मछलीपालकों को काफी फायदा तो हो रहा है, लेकिन बाढ़ के समय जब सारी झीलें और तालाब पानी से लबालब हो जाते हैं, तो विदेशी मछलियां उन से निकल कर नदियों तक पहुंच जाती हैं. राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्य और डाल्फिन मैन के नाम से मशहूर डाक्टर आरके सिन्हा तमाम सभाओं और सेमीनारों के जरीए लोगों को चेताते रहे हैं कि सही और ठोस इंतजाम न होने की वजह से कई विदेशी किस्म की मछलियां गंगा नदी में पहुंच चुकी हैं. अफ्रीका की थाई मांगुर और पिलपिया, दक्षिण अमेरिका की सेलफिनफिश और चीन की सिल्वर कौर्प, कौमन कौर्प और ग्रास मछलियां देशी मछलियों को खा जाती हैं.

गंगा के बड़े पैमाने पर हो रहे शोषण पर चिंता जताते हुए डाक्टर सिन्हा कहते हैं कि गंगा नदी पर बने बैराज, तटबंधों और बांधों की वजह से पानी की कमी हो गई है. गंगा के 90 फीसदी पानी को जहांतहां रोक लिया जाता है और महज 10 फीसदी पानी ही गंगा में दिखाई देता है. इसे दुरुस्त करने के लिए जलस्तर को बढ़ाना होगा और वेटलैंड को बचाना होगा. बिहार के मिथिलांचल के तालाबों और पोखरों से देशी नस्ल की मछलियां गायब होने लगी हैं. मिथिला की पहचान रही लोकल छोटी मछलियां गायब होने की कगार पर हैं और उन्हें बचाने के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना ही नहीं है. गैंची, पोठिया, कबई, मांगुर, सिंगही, मारा, रेवा, चेंगा वगैरह छोटी और देशी मछलियों की बाजार में खासी मांग भी है. इस के बाद भी इन्हें बचाने का कोई उपाय नहीं किया जा रहा है. इन मछलियों की खासीयत यह है कि तालाबों और पोखरों की तलहटी में या कीचड़ वाले पानी में ये भरपूर मात्रा में पनपती हैं. इन मछलियों में कोलेस्ट्राल घटाने और प्रोटीन बढ़ाने की कूवत होती है.

मछलीपालक उमेश प्रसाद कहते हैं कि पिछले कुछ सालों से चीनी प्रजातियों की मछलियों की पैदावार बढ़ने से देशी मछलियों में किसान ज्यादा दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं. ज्यादातर मछलीपालक थाई मांगुर, सिल्वर कौर्प, विकेट, कोमन कौर्प वगैरह विदेशी मछलियों की ही पैदावार कर रहे हैं. मछलीपालक रामधनी साहनी कहते हैं कि विदेशी नस्ल की मछलियां काफी तेजी से बढ़ती हैं, जिस से कम समय में किसानों की अच्छी कमाई हो जाती है. विदेशी मछलियां छोटी मछलियों को चट कर जाती हैं, जिस से छोटी मछलियां बाजार तक पहुंच ही नहीं पाती हैं. इस के साथ ही करेले पर नीम वाली हालत यह है कि आंध्र प्रदेश से काफी मात्रा में आने वाली मछलियों से बाजार पटा रहता है और उसी को खाना लोगों की मजबूरी और आदत बन गई है.

घडि़याल भी हो रहे हैं कम

गायब हो रहे घडि़यालों की बिहार की गंडक नदी में खोज शुरू की गई है. घडि़यालों की तादाद में तेजी से हो रही कमी को ले कर वैज्ञानिक और पर्यावरणविद काफी चिंतित हैं. वैज्ञानिकों को बिहार की गंडक नदी में उम्मीद की किरण नजर आई है, लिहाजा गंडक में घडि़यालों के सर्वे का काम शुरू किया गया है. इस सर्वे को मल्टी स्पीशीज सर्वे का नाम दिया गया?है. घडि़यालों के अलावा दूसरे जलीय जीवों व नदी के पानी की रासायनिक स्थिति वगैरह का भी पता लगाया जाएगा. देश के कई नामचीन संगठनों के प्रतिनिधि और वैज्ञानिक इस काम में लगे हैं. सर्वे टीम की अगवाई विक्रमसिला जैव विविधता शोध संस्थान कर रहा है. वैज्ञानिकों का मानना है कि नेपाल से निकलने वाली 380 किलोमीटर लंबी गंडक नदी में काफी तादाद में घडि़याल मौजूद हैं, जबकि दुनिया भर में इन की तादाद 100 के आसपास ही है.

मकई की खेती जीने का सहारा

मकई की खेती उन किसानों के लिए काफी फायदेमंद होती है, जो नदी के किनारे रहते है. मकई की खेती में मेहनत कम करनी पड़ती है और खर्च भी कम होता है. इस के अलावा मकई की फसल तैयार होने में वक्त भी कम लगता है. सब से खास बात तो यह है कि मकई की फसल तैयार हो जाने के बाद उसी खेत में धान की खेती भी आसानी से की जा सकती है, यानी किसान एक ही खेत में 2 फसलें आसानी से पैदा कर सकते हैं. जहां तक मकई की खेती में कम लागत में अधिक आमदनी होने की बात है, तो इस के बारे में किसानों का कहना है कि मकई की खेती करने में कुल मिला कर प्रति बीघा 12 से 15 क्विंटल उपज हासिल होती है. इस में तकरीबन 2 हजार रुपए का खर्च आता है और तकरीबन 16 हजार रुपए  की आमदनी होती है. इस फायदेमंद खेती के प्रति बड़ी तादाद में किसान आकर्षित हो रहे हैं. यहां तक देखने में आया है कि अपने पास उपजाऊ जमीन न होने के बाद भी तमाम किसान दूसरे लोगों की उपजाऊ जमीन को बंटाई पर ले कर मकई की खेती करते हैं. इस प्रकार से मकई की खेती नदियों के करीब रहने वाले किसानों की खास खेती बन गई है. यह खेती एक तरह से किसानों के जीने का सहारा बन कर उभरी है.            

बीजशोधन से बढ़ेगी पैदावार

एक शोध के मुताबिक हर साल फसलों की उपज का 20 फीसदी कीटों द्वारा व 26 फीसदी रोगों द्वारा खराब होता है. किसी भी फसल में बीमारियों से होने वाला नुकसान महामारी का रूप ले लेता है. यहां तक कि इस के प्रकोप से पूरी फसल तबाह हो जाती है. ज्यादातर फसलों में कीटों व रोगों का संक्रमण जमीन, वायुमंडल व बीजों के द्वारा ही होता है. फसल के रोगी बीजों को अगले साल बोने पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं. इस से हर साल किसानों को काफी नुकसान होता है. अब बीजजनित व भूमिजनित रोगों के इलाज के लिए एक वैज्ञानिक तकनीक है, जिसे बीजशोधन कहते  हैं. इस से फसलों की रोगों से हिफाजत होती है और अनुमानित पैदावार के साथसाथ आमदनी भी बढ़ती है. आइए तफसील से जानते हैं बीजशोधन और उस के फायदों के बारे में.

क्या है बीजशोधन

फसलों में रोगों का हमला भूमि, वायु व बीजों के जरीए ही होता है. बीजशोधन का खास मकसद बीजजनित, वायुजनित व जूमिजनित रोग कारकों के खिलाफ सुरक्षा कवच बनाना है. रसायनों व बायोएजेंट्स से शोधित कर देने से बीजों व मिट्टी में पाए जाने वाले बीमारियों के बीजाणु नष्ट हो जाते हैं.

कैसे होता है बीजशोधन

बोआई से पहले बीजों को शोधित करने के लिए खास रसायनों व बायोएजेंट्स वगैरह को पानी में मिला कर घोल तैयार करते हैं. घोल को बीजों में इस तरह मिलाते हैं कि हर बीज पर एक मोटी सी परत बन जाए, इस से बीज के साथ पाए जाने वाले बीजाणु व जीवाणु नष्ट हो जाते हैं. ध्यान देने वाली बात यह है कि परत के अच्छी तरह सूखने के बाद ही बीजों की बोआई करनी चाहिए.

बीजशोधन के फायदे

बीज शोधित हो जाने से अगली फसल बीजजनित, भूमिजनित और वायुजनित रोगों से बच जाती है. ऐसे बीजों की दोबारा बोआई करने पर रोग के लक्षण नहीं दिखाई पड़ते. अरहर, चना व मटर के उकठा रोग सहित कई रोगों का इलाज सिर्फ बीजशोधन से ही हो पाता है. इस तरह बीजशोधन से फसल की रोगों से हिफाजत के साथसाथ बंपर पैदावार भी हासिल होती है. खास बात यह है कि बीजशोधन से आगामी फसलों में अधिक खर्च से भी बचा जा सकता है. यकीनन इस से किसान भाइयों की माली हालत काफी अच्छी हो सकती है.              

बदहाली की शिकार खेतिहर जातियां

हरितक्रांति को सफल बनाने वाले जाट, नकदी फसलों की खेती करने वाले मराठा और श्वेत क्रांति को सफल बनाने वाले पटेल अपनी मेहनत से खेती को रोजगार बनाने में सफल हो गए थे. खेती की कम होती जमीन, खेती की बढ़ती लागत और पैदावार में कम होते मुनाफे ने अब इन खेतिहर जातियों को बदहाली की कगार पर ला खड़ा किया है. mपिछले 10 सालों में 3 करोड़ से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है. इस से खेती करने वाली जातियां परेशान हैं. आजकल अनाज की कीमतें आसमान छू रही हैं. दालों और प्याज की बढ़ती कीमतों का एक कारण इन की खेती का घटता रकबा भी है. सरकार की गलत नीतियों की वजह से अनाजों की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं, मगर इस के बाद भी किसानों को मुनाफा नहीं मिल रहा है. यही वजह है कि खेती करने वाली जातियां बदहाली का शिकार हो रही हैं.

खेती इस देश की आजीविका का आज भी सब से बड़ा साधन है. अगड़ी और पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी संख्या खेती पर निर्भर है. ये जातियां गांवों में रह कर खेती करती थीं. इन के पास जमीन अच्छीखासी होती थी. इन के खेतों में काम करने वाली दूसरी जातियों के लोगों के साथ इन के संबंध मधुर होते थे. पिछले 7-8 सालों से खेती की खराब होती हालत के चलते इन खेतिहर जातियों की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं. इन के पास खेती के अलावा आजीविका का कोई दूसरा साधन न होने से ये बदहाल होती जा रही हैं. यही वजह है कि ये जातियां भी अब अपने लिए आरक्षण मांगने वालों की श्रेणी में शामिल हो गई हैं. इन में गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के मराठा, राजस्थान, हरियाणा के जाट व गूजर और उत्तर प्रदेश के कुर्मी शामिल हैं. बड़ी संख्या में गांवों में रहने वाली ठाकुर बिरादरी के लोग भी इस बदहाली का शिकार हो रहे हैं. समाजसेवी प्रकाश कुमार कहते हैं, ‘अगड़ी और पिछड़ी बिरादरी की जिन जातियों के पास जमीनें थीं, वे जमींदारी उन्मूलन के नाम पर सरकार ने बहुत पहले ले ली थीं. सरकारी योजनाओं में इन जातियों को संपन्न और अगड़ा मान कर दरकिनार कर दिया गया. दिनोंदिन इन जातियों के लोगों की परेशानियां बढ़ने लगीं. जब तक खेती से मुनाफा हो रहा था, इन जातियों के लोगों को कम परेशानी हो रही थी. अब जब खेती से मुनाफा घटने लगा, खेती की जमीन कम होने लगी, तब से ये खेतिहर जातियां बदहाली की शिकार हो गईं. खेती का रकबा घटने से ये लोग वैज्ञानिक ढंग से खेती भी नहीं कर पा रहे हैं. खेती में मजदूरी बढ़ने और सिंचाई व जुताई का खर्च बढ़ने से खेती का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा है. खेती की पैदावार से उत्पादन लागत निकालना मुश्किल हो गया है.’

3 करोड़ लोगों ने छोड़ दी खेती

गुजरात को देश का सब से संपन्न प्रदेश माना जाता है. पटेल जाति इस प्रदेश की सब से संपन्न जाति मानी जाती है. देश की तरक्की में इस जाति के लोगों का बड़ा हाथ है. इस जाति के बहुत सारे लोग विदेशों में अच्छे काम कर रहे हैं. गुजरात में रहने वाले पटेलों ने श्वेत क्रांति को सफल बनाने में सब से बड़ा योगदान दिया, जिस की वजह से देश में दूध की कमी को पूरा किया जा सका. देश में दूध की बहुत कमी थी. ऐसे में श्वेत क्रांति की शुरुआत गुजरात से हुई. गुजरात की खेतिहर पटेल जाति के लोगों ने दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए गायों और भैंसों को पालना शुरू किया. उस से प्राप्त होने वाले दूध को सहकारी समितियों को दिया. इस से न केवल किसानों का मुनाफा हुआ बल्कि गुजरात की संपन्नता में भी इजाफा हुआ. पूरे देश के अलगअलग क्षेत्रों में श्वेत क्रांति की सफलता के लिए गुजरात मौडल का प्रयोग किया गया. गुजरात में जब पटेल बिरादरी के लोगों ने युवा नेता हार्दिक पटेल की अगवाई में आरक्षण की मांग के लिए प्रदर्शन किया तो देश का ध्यान इस ओर गया कि अगड़ी समझी जाने वाली पटेल जाति में भी गरीब और मजबूर लोग हैं.

महाराष्ट्र के रहने वाले मराठा और राजस्थान, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के रहने वाले जाट बिरादरी के लोग भी अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. पटेल की तरह जाट और मराठा भी अगड़ी बिरादरी में गिने जाते थे. पटेल बिरादरी ने अगर श्वेत क्रांति को सफल बनाने में मदद की तो मराठा बिरादरी के लोगों ने कपास, गन्ना और प्याज जैसी नकदी फसलों की पैदावार का विकसित मौडल देश के सामने रखा. कपास, गन्ना और प्याज इस देश की नकदी फसलों में शामिल हैं. इन की खेती से न केवल किसानों को फायदा हुआ बल्कि देश ने भी कृषि मामलों में तरक्की की. नकदी फसलों की खेती में महाराष्ट्र के किसानों ने बहुत मेहनत की. इस के बाद पूरे देश में किसानों ने नकदी फसलों की खेती शुरू कर दी.

इसी तरह से जाट बिरादरी ने देश की जरूरत के लिए हरित क्रांति को सफल बनाया. हरित क्रांति की सफलता का श्रेय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों को जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो हरित प्रदेश के नाम से अलग प्रदेश तक बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया. इस में जाट बिरादरी का खास योगदान है. पटेल, जाट और मराठा तीनों ही जातियां खेती पर अपना जीवन बिताने वाली जातियां हैं. बहुत ज्यादा पढ़ाईलिखाई पर इन का ध्यान नहीं रहा. पिछले 10 सालों में खेती में बदलाव आया. खेती में लागत अधिक लगने लगी, मुनाफा कम हो गया. कभी ओले तो कभी बरसात तो कभी सूखा पड़ने से खेती को नुकसान होने लगा. इस से खेती पर जीवन गुजरबसर करने वाली जातियों में गरीबी आने लगी. खेती का रकबा घटने लगा. आंकड़े बताते हैं कि साल 2004 से ले कर 2012 के बीच 3 करोड़ से अधिक लोगों ने खेती के पेशे को छोड़ दिया. वे मजदूर बनना बेहतर समझने लगे हैं.

आज बाजार में अरहर की दाल की कीमत 200 रुपए प्रति किलोग्राम है. किचन में प्रयोग होने वाली चीजों में सब से अधिक भाव दाल का ही बढ़ा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब किसानों ने अरहर की बोआई कम कर दी है. अनाज में अरहर ऐसी फसल होती है, जिस की पैदावार में 9 महीने का समय लगता है. पहले लोगों के पास जमीनें ज्यादा होती थीं, तो कुछ खेत अरहर की खेती के लिए ही छोड़ दिए जाते थे, जिन जगहों पर सिंचाई  की सुविधा कम होती थी, जहां पर गेहूं और धान जैसी फसलें नहीं होती थीं, वहां भी अरहर की खेती की जाती थी. अब खेतों के लगातार घटने से किसान अपने खेत 9 महीने के लिए अरहर की खातिर फंसाना नहीं चाहते हैं.

घट रही भोजन की पौष्टिकता

अरहर की दाल में कार्बोहाइड्रेट, आयरन व कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. अरहर की दाल की सब  बड़ी खासीयत यह है कि यह खाने के बाद पचने में भी आसान होती है. इस वजह से रोगियों को देने में भी इस का खूब प्रयोग होता है. पहले गांवों में अरहर की दाल का प्रयोग खाने में खूब होता था, जिस से कम खाने के बाद भी लोगों में पोषण की कमी नहीं होती थी. अब खाना खाने के बाद भी शरीर में पोषण की कमी होने लगी है. खासकर बच्चों पर इस का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है. शरीर में प्रोटीन की कमी से तमाम रोग जन्म लेने लगे हैं. उत्तर प्रदेश में इस की सब से अधिक खेती की जाती है. करीब 30 लाख एकड़ रकबे में इस की खेती होती है. अरहर के लिए दोमट मिट्टी वाले ऊंचे खेत मुनासिब होते हैं, जहां बरसात के पानी का जमाव न होता हो. अरहर की बोआई बरसात के समय की जाती है. यह फसल मार्चअप्रैल में तैयार होती है.

किसान अरहर के साथ मिक्स क्रौप की खेती करते हैं. अरहर के साथ कोदों, ज्वार, बाजरा, तिल और मूंगफली की खेती की जाती है. एक ही खेत में एकसाथ 2 फसलें लेने से किसानों का मुनाफा बढ़ जाता है. किसान अपने खेतों में केला, आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों की खेती ज्यादा करने लगे हैं.

किस काम का सर्मथन मूल्य

अरहर के साथ बोई जाने वाली दूसरी फसलें दिसंबर तक तैयार हो जाती हैं. इस के बाद अरहर तेजी से बढ़ती है और अप्रैल तक तैयार हो जाती है. अरहर से अरहर की दाल बनाने का काम किया जाता है. देश में अरहर की दाल की पैदावार करीब 180 से 200 लाख टन तक होती थी. पिछले कुछ सालों से यह पैदावार घटी है. पिछले साल देश में 170 लाख टन ही अरहर का उत्पादन हुआ, जो मांग से करीब 40 से 50 लाख टन कम है. इसी वजह से अरहर की दाल का?भाव बढ़ रहा है. केंद्रीय खाद्यमंत्री रामविलास पासवान और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस बात को समझते हैं. दाल की बढ़ती कीमत सरकार के लिए मुसीबत का कारण न बने, इस के लिए सरकार ने करीब 5 हजार टन अरहर की दाल विदेश से मंगाने की तैयारी कर ली है. यही नहीं सरकार ने दाल की पैदावार बढ़ाने के लिए दाल के समर्थन मूल्य में भी 275 रुपए प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर दी है. अब सरकार किसानों को 4625 रुपए प्रति क्विंटल की दर से दाल की कीमत देगी. सरकर ने अरहर की दाल की कीमतों को कम करने की कोशिश शुरू कर दी है. अरहर की दाल की जमाखोरी कर के मुनाफा कमाने की राह देख रहे आढ़तियों पर सरकार शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है. बाजार भाव के जानकार और अनाज का कारोबार करने वालों का मानना है कि अरहर की दाल की देश में खपत बढ़ रही है, जबकि अरहर की पैदावार पहले से कम हो गई है. इसी वजह से इस की कीमतों का कम होना आसान नहीं है.  यहां सवाल अरहर की हालत का नहीं है, बल्कि मामला खेतिहर जातियों की तबाही का है. खराब हालात की वजह से वाकई तमाम खेतिहर जातियां दिनबदिन बदहाली की चपेट में आ रही हैं.

अब खट्टे नहीं रहे अंगूर प्रोसेसिंग से होती है कमाई भरपूर

हर रोज 10 अंगूर खाने से चेहरे का नूर बढ़ता है. बात सही है, क्योंकि पुराने जमाने से ताकत की देशी दवाओं में अंगूरों से द्राक्षासव बनाया जा रहा है. अंगूर उगाने का सिलसिला सदियों पुराना है. अंगूर सुखा कर बनी किशमिश सूखे मेवों में अहम है. पहले गोल व हरे अंगूर खट्टे होते थे. अब नई मीठी व लंबी किस्में आने से अंगूरों की खटास मुहावरों में ही बची?है. किसान अंगूरों की प्रोसेसिंग से बागबानी में कमाई की मिठास बढ़ा सकते?हैं. एक छोटी सी पहल बहुत बड़ा बदलाव ला सकती है. जनकारों के मुताबिक अंगूरों की खेती पहले उत्तर भारत में ही होती थी, लेकिन मुगलों के जमाने में यह उत्तर से दक्षिण चली गई. अब महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, मिजोरम व पंजाब वगैरह कई राज्यों में अंगूरों की भरपूर खेती होती है. देश में सब से ज्यादा अंगूर हसन, सांगली, उस्मानाबाद, शोलापुर व चिकमगलूर वगैरह जिलों में उगाए जाते?हैं. इधर पिछले कुछ बरसों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा व पंजाब वगैरह में भी किसानों का रुझान अंगूरों की खेती की तरफ बढ़ रहा है.

किसान परेशान

दुनिया भर में अंगूरों का सब से ज्यादा रकबा 13 फीसदी स्पेन का है. भारत का रकबा सिर्फ डेढ़ फीसदी व मुकाम 16 वें नंबर पर है. अंगूरों के कुल उत्पादन में सब से बड़ी हिस्सेदारी 14 फीसदी चीन की है. भारत सिर्फ 1.85 फीसदी अंगूर पैदा कर के दुनिया में 14वें नंबर पर आता है. जाहिर है कि अपने देश में अंगूरों की खेती में अभी बहुत गुंजाइश बाकी है. भारत में अंगूर की खेती का रकबा 117 हेक्टेयर व पैदावार 2483 हजार मीट्रिक टन है. लेकिन ज्यादातर भारतीय अंगूर उत्पादकों का कहना है कि उन्हें अंगूरों की वाजिब कीमत नहीं मिलती. कुछ साल पहले दिल्ली में पंजाब के अंगूरों से भरे ट्रकों पर 20 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से अंगूर बिके थे. चीज कोई भी हो, पैदावार बढ़ने पर माली नुकसान किसानों का ही होता है. बीती 7 अगस्त, 2015 को जालंधर में खफा किसानों ने अपने कई ट्रक आलू मुफ्त लुटा दिए, क्योंकि उन्हें मंडी में सिर्फ 1-2 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से दाम मिल रहे थे. ऐसे?झटकों से किसानों को गहरा सदमा लगता है और तब दूसरों पर से ही नहीं किसानों का यकीन खुद पर से भी उठने लगता है. इस से बचाव का रास्ता यही है कि फार्म से फूड की ओर बढ़ा जाए.

प्रोसेसिंग जरूरी

किसान अंगूर सुखा कर बिना बीज वाले अंगूरों से किशमिश व बीजदार अंगूरों से मुनक्का बना कर ज्यादा कमा सकते हैं. बाजार में फुटकर अंगूर 80-100 रुपए प्रति किलोग्राम और मंडी में थोक में 50-60 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकताहै, लेकिन किसानों को अपने अंगूरों के महज 25-30 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से ही दाम मिल पाते हैं. आजकल किशमिश करीब 900 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक रही है. अमूमन 4 किलोग्राम अंगूरों से करीब 1 किलोग्राम तक किशमिश बन जाती है. किशमिश बनाने के लिए अंगूरों को 3-4 हफ्ते छांव में सुखाने के बाद जब उन की नमी 75 फीसदी से घट कर 15 फीसदी से कम हो जाए, तो उन्हें धूप में सुखाया जाता है. अब गरम हवा, सुखावक मशीन व लेजर तकनीक से किशमिश जल्दी, ज्यादा व उम्दा क्वालिटी की बनती है.

किशमिश सुनहरी, हरी, पीली व भूरे रंग की होती है. किशमिश का रंग अंगूरों की किस्म, तापमान व सुखाने के तरीके पर टिका रहता?है. बाजार में ज्यादा कीमत लंबी हरी किशमिश की मिलती है. अंगूर से प्रसंस्कृत उत्पाद बनाने की तकनीक ‘राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केंद्र पुणे’ से हासिल की जा सकती है. केंद्र सरकार ने साल 1997 से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तहत राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केंद्र चला रखा है. इस रिसर्च सेंटर के माहिरों ने अंगूर की ज्यादा उपज देने वाली उम्दा किस्में, अंगूर की खेती की बेहतर तकनीकें व सुधरी मशीनें निकाली हैं. साथ ही वहां रोपण सामग्री मुहैया कराने, उपज को कीटबीमारी से बचाने और किसानों को?ट्रेनिंग व राय देने का काम भी किया जाता?है.

पेय बनाएं

किसान जूसर मशीन लगा कर अंगूररस की बोतलबंदी व अल्यूमीनियम केनिंग की इकाई भी लगा सकते?हैं. ध्यान रखें कि जूस निकालने के बाद अंगूर का कचरा बेकार न जाए. अंगूर में तकरीबन 50 फीसदी गूदा, 40 फीसदी छिलका व 10 फीसदी बीज होते हैं. अंगूर के बीज विटामिन ई का भंडार हैं. उन का तेल बहुत कीमती व फायदेमंद होता है. साथ ही अंगूरों की प्रोसेसिंग से सिरका, जैम व टाफी वगैरह कई दूसरे उत्पाद बना कर बेचे जा सकते?हैं. इन चीजों को बनाने की तकनीक व मशीनें मौजूद हैं. जरूरत किसानों को आगे आ कर अंगूर प्रसंस्करण की इकाई लगाने की है. भारत सरकार के खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने साल 2009 के दौरान पुणे में भारतीय अंगूर प्रसंस्करण बोर्ड बनाया था, ताकि किसानों व उद्यमियों को बढ़ावा मिल सके. हालांकि इस बोर्ड को गठित करने के मकसद व दायरे में सूखे अंगूरों का इलाकाई विकास, अंगूर उत्पादकों के लिए उन की उपज की कीमत बढ़ाना व सहकारी कोशिशों को बढ़ाना जैसे मुद्दे भी हैं, लेकिन इस बोर्ड को अंगूर की प्रोसेसिंग के नाम पर सिर्फ अंगूरी मदिरा ही दिखाई देती?है. लिहाजा बोर्ड की कारगुजारियां मदिरा के इर्दगिर्द ही ज्यादा घूम रही?हैं.

अंगूर निर्यात

अब हमारे देश से खेती की बहुत सी उपज का निर्यात किया जा रहा?है. साल 2013 में 1,74,194 करोड़ रुपए व साल 2014 में 1,95731 करोड़ रुपए कीमत के कृषि उत्पादों का निर्यात किया गया. इन में 88,116 मीट्रिक टन अंगूरों का भी निर्यात किया गया?था. नीदरलैंड, इंगलैंड, रूस, संयुक्त अरबअमीरात, सउदीअरब, जर्मनी, थाईलैंड, श्रीलंका, हांगकांग व बांगलादेश भारतीय अंगूरों के खास ग्राहक हैं. अंगूर निर्यात के बारे में इच्छुक किसान ‘कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण, नई दिल्ली’ से ज्यादा जानकारी हासिल कर सकते हैं. खुद निर्यात करने की कूवत न रखने वाले छोटे किसान किसी निर्यातक से तालमेल बना सकते?हैं. जीप व खेती के लिए?ट्रैक्टर वगैरह बनाने वाली ‘महिंद्रा एंड महिंद्रा’ कंपनी महाराष्ट्र में बीते 10 सालों से बड़े पैमाने पर अंगूर का कारोबार कर रही है. किसानों की मदद से आज यह कंपनी देश की सब से बड़ी अंगूर निर्यातक है.

तालमेल से तरक्की

बोपेगांव के किसान दत्तात्रेय ढोंढेराम अंगूर की पैदावार पहले महज 6-7 टन प्रति एकड़ मुश्किल से ले पाते थे. साल 2013 में वे महिंद्रा एंड महिंद्रा कंपनी से जुड़े और कंपनी की बताई तकनीक अपनाई. अब वे प्रति एकड़ 10 टन ज्यादा यानी 16-17 टन की पैदावार ले रहे हैं. बीते दिनों के दौरान देश के कई हिस्सों में ज्यादा बारिश होने से किसान फसल खराब होने की वजह से परेशान थे. तब पिंपलगांव के किसान अनिल खुले अपनी डेढ़ एकड़ अंगूर की फसल को बचाने में कामयाब रहे, क्योंकि उन्होंने स्पेन से मंगाई खास किस्म की छतरी प्लास्टिक से अपनी पूरी फसल को ढक दिया. खेती से?ज्यादा कमा कर बचाव करना आसान रहता है. वैसे तो तरक्की के लिए दूसरों की पहल का इंतजार क्यों करना? चाह से राह निकल आती?है. खेती से कमाई बढ़ाने के लिए नुकसान घटाना भी जरूरी?है. मसलन कुल पैदा होने वाले अंगूर का करीब 80 फीसदी फुटकर बिकता है. खराब पैकिंग से नाजुक अंगूर खराब हो जाते?हैं. ज्यादातर किसान नहीं जानते कि एपीडा ने भारतीय पैकेजिंग तकनीक संस्थान की मदद से अंगूरों की पैकिंग करने की खास तकनीक व तरीके निकाले हैं, जिन्हें अपनाना जरूरी?है.

नईनई किस्में

‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली’ के माहिरों ने जल्द पकने, पत्तियां झड़ने, मिठास व उपज के लिहाज से अंगूर की 48 नई संकर किस्मों को परखा. उन में आरआईपी 9, आरआईपी 14 व ईआरआर 2 पी 36 बेहतर पाई गईं. इन किस्मों के अंगूरों के गुच्छों का वजन 340 ग्राम तक, लंबाई 24 सेंटीमीटर तक व चौड़ाई 12 सेंटीमीटर तक रही. पूसा स्वर्णिका एचवाई 76-1 किस्म जल्द जारी होगी. बीजदार अंगूरों की किस्मों में रेडग्लोब, अनाबेशाही, बैंगलोर ब्लू, गुलाबी मस्कट व भोंकरी और बिना बीज के अंगूरों में माजरी नवीन, फलेम, परलेट, शरद काला व थामसन ज्यादा बोई जाती?हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के माहिरों ने एच 80, एच 222, एच 541 व एच 382 किस्मों को पहचान कर परखने की सूची में लिया?है, लिहाजा जल्द ही अच्छे नतीजों की उम्मीद?है. ज्यादा जानकारी के लिए इच्छुक किसान इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक, राष्ट्रीय अंगूर अनुसंधान केंद्र, माजरी, शोलापुर रोड, पुणे (महाराष्ट्र).

कुछ कहती हैं तसवीरें

कश्मीर किसी जन्नत से कम नहीं है और यहां की हसीनाएं स्वर्ग की अप्सराओं को मात देती हैं. झील में शिकारा चलाती हसीना हो या झील से सिंघाड़े चुनती सुंदरियां, सभी दिल चुराती लगती हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें