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बदहाली की शिकार खेतिहर जातियां

हरितक्रांति को सफल बनाने वाले जाट, नकदी फसलों की खेती करने वाले मराठा और श्वेतक्रांति को सफल बनाने वाले पटेल अपनी मेहनत से खेती को रोजगार बनाने में सफल हो गए थे. खेती की कम होती जमीन, खेती की बढ़ती लागत और पैदावार में कम होते मुनाफे ने अब इन खेतिहर जातियों को बदहाली के कगार पर ला खड़ा कर दिया है. 10 सालों में 3 करोड़ से अधिक किसानों ने खेती छोड़ दी है. आज खेती करने वाली जातियां परेशान हैं तो वहीं अनाज की कीमतें आसमान छू रही हैं. दाल और प्याज की बढ़ती कीमतों का एक कारण इन की खेती को कम रकबे में किया जाना भी है. सरकार की गलत नीतियों के चलते 200 रुपए प्रति किलो दाल बिकने लगी है. इस के बाद भी किसानों को मुनाफा नहीं मिल रहा है. यही वजह है कि खेती करने वाली जातियां बदहाली का शिकार हो रही हैं.

खेती इस देश की आजीविका का आज भी सब से बड़ा साधन है. अगड़ी और पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी संख्या खेती पर निर्भर है. ये जातियां गांव में रह कर खेती करती थीं. इन के पास जमीन अच्छीखासी होती थी. इन के खेतों में काम करने वाली दूसरी जातियों के लोगों के साथ भी इन के संबंध मधुर होते थे. पिछले 7-8 सालों से खेती की खराब होती हालत के चलते इन खेतिहर जातियों की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं. इन के पास खेती के अलावा आजीविका का दूसरा साधन न होने से ये बदहाल होती जा रही हैं. यही वजह है कि ये जातियां भी अब अपने लिए आरक्षण मांगने वालों की श्रेणी में शामिल हो गई हैं. इन में गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के मराठा, राजस्थान, हरियाणा के जाट और गुज्जर और उत्तर प्रदेश के कुर्मी प्रमुख हैं. बड़ी संख्या में गांव में रहने वाली ठाकुर बिरादरी के लोग भी इस बदहाली का शिकार हो रहे हैं.

समाजसेवी प्रकाश कुमार कहते हैं, ‘‘अगड़ी और पिछड़ी बिरादरी के पास जो जमीनें थीं वे जमींदारी उन्मूलन के नाम पर सरकार ने बहुत पहले ले ली थीं. सरकारी योजनाओं में इन जातियों को संपन्न और अगड़ा मान कर दरकिनार कर दिया गया. दिनोंदिन इन जातियों के लोगों की परेशानियां बढ़ने लगीं. जब तक खेती से मुनाफा हो रहा था, इन जातियों के लोगों को कम परेशानी हो रही थी. अब जब खेती से मुनाफा घटने लगा, खेती की जमीन कम होने लगी, तब से खेतिहर जातियों की स्थिति खराब हो गई. खेती का रकबा घटने से ये लोग वैज्ञानिक ढंग से खेती भी नहीं कर पा रहे हैं. खेती में मजदूरी बढ़ने और सिंचाई व जुताई का खर्च बढ़ने से खेती का लागत मूल्य बढ़ता जा रहा है. खेती से होने वाली पैदावार से उत्पादन लागत निकालनी मुश्किल हो गई है.’’

3 करोड़ लोगों ने छोड़ दी खेती

गुजरात को देश का सब से संपन्न प्रदेश माना जाता है. पटेल जाति इस प्रदेश की सब से संपन्न जाति मानी जाती है. देश की तरक्की में इस जाति के लोगों का बड़ा हाथ है. इस जाति के बहुत सारे लोग विदेशों में अच्छा काम कर रहे हैं. गुजरात में रहने वाले पटेलों ने श्वेतक्रांति को सफल बनाने में सब से बड़ा योगदान दिया, जिस की वजह से देश में दूध की कमी को पूरा किया जा सका. देश में दूध की बहुत कमी थी. ऐसे में श्वेतक्रांति की शुरुआत गुजरात से हुई. गुजरात की खेतिहर पटेल जाति के लोगों ने दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए गाय और भैंस को पालना शुरू किया. उस से प्राप्त होने वाले दूध को सहकारी समितियों को दिया. इस से न केवल किसानों को मुनाफा हुआ बल्कि गुजरात प्रदेश में भी संपन्नता आई. पूरे देश के अलगअलग क्षेत्रों में श्वेतक्रांति की सफलता के लिए गुजरात मौडल का प्रयोग किया गया.

गुजरात में जब पटेल बिरादरी के लोगों ने युवा नेता हार्दिक पटेल की अगुआई में आरक्षण की मांग के लिए प्रदर्शन किया तो देश का ध्यान इस ओर गया कि अगड़ी समझी जाने वाली पटेल जाति में भी गरीब और मजबूर लोग हैं. बात केवल गुजरात की पटेल बिरादरी की नहीं है. महाराष्ट्र के रहने वाले मराठा और राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के रहने वाले जाट बिरादरी के लोग भी अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. पटेल की तरह जाट और मराठा भी अगड़ी बिरादरी में गिने जाते थे. पटेल बिरादरी ने अगर श्वेतक्रांति को सफल बनाने में मदद की तो मराठा बिरादरी के लोगों ने कपास, गन्ना और प्याज जैसी नकदी फसलों की पैदावार का विकसित मौडल देश के सामने रखा. कपास, गन्ना और प्याज इस देश की नकदी फसलों में शामिल हैं. इन की खेती से न केवल किसानों को लाभ हुआ बल्कि देश ने भी कृषि मामलों में तरक्की की. नकदी फसलों की खेती में महाराष्ट्र के किसानों ने बहुत मेहनत की. इस के बाद पूरे देश में किसानों ने नकदी फसलों की खेती शुरू कर दी.

इसी तरह से जाट बिरादरी ने देश की जरूरत के लिए हरितक्रांति को सफल बनाया. पहले हमारा देश गेहूं और धान के लिए दूसरे देशों पर आश्रित था. अब ऐसा नहीं है. हरितक्रांति की सफलता का बड़ा श्रेय पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों को जाता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश के नाम से अलग प्रदेश तक बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया है. इस मांग में जाट बिरादरी का बड़ा योगदान है. पटेल, जाट और मराठा तीनों ही जातियां खेती पर अपना जीवनयापन करने वाली जातियां हैं. बहुत ज्यादा पढ़ाईलिखाई पर इन का ध्यान नहीं रहा. पिछले 10 सालों में खेती में बदलाव आया. खेती में लागत अधिक लगने लगी, मुनाफा कम हो गया. कभी ओले पड़ने से तो कभी बरसात तो कभी सूखा पड़ने के कारण खेती को नुकसान होने लगा. इस से खेती पर जीवन गुजरबसर करने वाली जातियों में गरीबी आने लगी. खेती का रकबा घटने लगा. आंकड़े बताते हैं कि साल 2004 से ले कर 2012 के बीच 3 करोड़ से अधिक लोगों ने खेती के पेशे को छोड़ दिया. वे मजदूर बनना बेहतर समझने लगे हैं.

अरहर की घटती बोआई

आज बाजार में अरहर की दाल की कीमत 200 रुपए प्रति किलो है. रसोई में प्रयोग होने वाली चीजों में सब से अधिक भाव दाल का ही बढ़ा है. इस की सब से बड़ी वजह है कि अब किसानों ने अरहर की बोआई कम कर दी है. अनाज में अरहर ऐसी फसल होती है जिस की पैदावार में 9 माह का समय लगता है. पहले लोगों के पास जमीनें ज्यादा होती थीं तो कुछ खेत अरहर की खेती के लिए छोड़ दिए जाते थे. जिन जगहों पर सिंचाई की सुविधा कम होती थी, जहां पर गेहूं और धान जैसी फसलें नहीं होती थीं, अरहर की खेती वहीं की जाती थी. खेत के लगातार घटने से किसान अपना खेत 9 माह के समय के लिए फंसाना नहीं चाहता है. दूसरे, जिन जगहों पर सिंचाई के साधन नहीं होते थे, किसान कम सिंचाई वाली फसलों की खेती करता था. अब वहां पर सिंचाई के साधन होने लगे हैं जिस से किसान अरहर की खेती बंद कर दूसरी फसलों की खेती करने लगा है. अरहर की पैदावार में बड़ी बाधा नीलगाय भी है. अरहर के खेत को यह बरबाद कर देती है. ऐसे में किसानों ने अरहर की खेती को कम कर दिया है.

अरहर दाल में कार्बोहाइड्रेट, आयरन, कैल्शियम भरपूर मात्रा में पाया जाता है. अरहर की दाल की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यह खाने के बाद पाचन में आसान होती है. इस वजह से रोगियों को देने में भी इस का खूब प्रयोग होता है. पहले गांव में दाल का प्रयोग खाने में खूब होता था, जिस से कम खाने के बाद भी लोगों में पोषण की कमी नहीं होती थी. अब खाना खाने के बाद भी शरीर में पोषण की कमी होने लगी है, खासकर बच्चों पर इस का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है. शरीर में प्रोटीन की कमी से दूसरे तमाम रोग जन्म लेने लगे हैं. पूर्वी उत्तर भारत में दाल की मुख्य फसलों में अरहर आती है. उत्तर प्रदेश में इस की सब से अधिक खेती की जाती है. करीब 30 लाख एकड़ खेत में इस की खेती होती है. अरहर के लिए दोमट मिट्टी वाले ऊंचे खेत उपयोगी होते हैं, जहां बरसात के पानी का जमाव न होता हो. अरहर की बोआई बरसात के समय की जाती है. यह फसल मार्चअप्रैल में तैयार होती है. किसान अरहर के साथ मिक्स क्रौप की खेती करता है. अरहर के साथ कोदों, ज्वार, बाजरा, तिल और मूंगफली की खेती की जाती है. एक ही खेत में एकसाथ 2 फसलें लेने से किसान का मुनाफा बढ़ जाता है. अब किसानों ने अरहर के साथ दूसरी फसलों की बोआई कम कर दी है. वे अपने खेतों में केला, आलू, टमाटर और दूसरी सब्जियों की कैश क्रौप तैयार करने लगे हैं जिस में कम समय में ही अरहर से ज्यादा मुनाफा हो रहा है.

किस काम का समर्थन मूल्य

अरहर के साथ बोने वाली दूसरी फसलें दिसंबर माह में तैयार हो जाती हैं. इस के बाद अरहर तेजी से बढ़ती है. अप्रैल में अरहर तैयार हो जाती है तो इस को पीट कर पौधे से अलग कर लिया जाता है. अरहर से अरहर की दाल बनाने का काम किया जाता है. देश में अरहर की दाल की पैदावार करीब 180 से 200 लाख टन तक होती थी. पिछले कुछ सालों से यह पैदावार घट रही है. पिछले साल देश में 170 लाख टन ही अरहर का उत्पादन हुआ. जो मांग से करीब 40 से 50 लाख टन कम है. इस की वजह से अरहर की दाल का भाव बढ़ रहा है. केंद्रीय खाद्यमंत्री रामविलास पासवान और वित्त मंत्री अरुण जेटली इस बात को समझते हैं. दाल की बढ़ती कीमत सरकार के लिए मुसीबत का कारण न बने, इस के लिए सरकार ने करीब 5 हजार टन अरहर की दाल विदेश से मंगाने की तैयारी कर ली है.

यही नहीं, सरकार ने दाल की पैदावार को बढ़ाने के लिए किसानों के लिए दाल के समर्थन मूल्य में भी 275 रुपए प्रति कुंतल की बढ़ोत्तरी कर दी है. अब किसानों को सरकार 4,625 रुपए प्रति कुंतल देगी. सरकार ने अरहर की दाल की कीमतों को कम करने का प्रयास शुरू कर दिया है. अरहर दाल की जमाखोरी कर मुनाफा कमाने की राह देख रहे आढ़तियों पर सरकार शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है. वहीं, बाजार भाव के जानकार और कुछ अनाज का कारोबार करने वालों का मानना है कि अरहर की दाल की देश में खपत बढ़ रही है. अरहर की पैदावार पहले से कम हो गई है जिस की वजह से इस की कीमतों का कम होना आसान नहीं है. सरकार के प्रयासों के बाद भी अरहर की दाल की कीमतें पहले की तरह कम नहीं होंगी. 

भारत भूमि युगे युगे

पौराणिक गालियां

बिहार चुनाव में नेता एकदूसरे को बड़ी दिलचस्प गालियां बक रहे हैं. लालू यादव ने अमित शाह को नरभक्षी कहा तो जवाबी हमले में नरेंद्र मोदी ने उन्हें शैतान करार दे दिया. उम्मीद है आखिरी चरण आतेआते संस्कृतनुमा इन गालियों का प्रयोग और बढ़ेगा. वैसे, गालियां धर्मग्रंथों से भी ली जा सकती हैं जैसे नीच, पतित, कामी, लंपट, दुष्ट, राक्षस वगैरहवगैरह. इन गालियों से भाषाई संपन्नता ही प्रदर्शित होती है जिन पर कानून भी कुछ ज्यादा नहीं कर पाता. इंडियन पीनल कोड में गाली की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. अदालतें भी प्रचलित गालियों को ही अपमानजनक मानती हैं. इसलिए अगले चुनावों के मद्देनजर सभी दलों को ऐसे प्रकांड विद्वानों की सेवाएं लेनी चाहिए जो पौराणिक ग्रंथों से अभिजात्य किस्म की गालियां निकाल कर दे सकें.

जर्नलिस्ट सीएम

कुछकुछ चीजें जिन्हें ज्ञान कहा जा सकता है, उम्र के साथ ही समझ आती हैं. मीडिया से मधुर संबंध इन में से एक है. यह ज्ञान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को मिला तो वे बीते दिनों लखनऊ में एक अखबार के दफ्तर में बतौर अतिथि संपादक जा पहुंचे और अखबारी दुनिया को नजदीकी और बारीकी से देखा सबकुछ समझ लेने की एक्ंिटग करने के बाद अखिलेश ने एक ऐसी बात कही जो आमतौर पर बुजुर्ग करते हैं कि मुखपृष्ठ पर पे्ररक खबरें होनी चाहिए. बात सच है कि जमाना और माहौल खराब है. आम लोग डर, निराशा और अवसाद से घिरे हैं. ऐसे में यह अखबारों की जिम्मेदारी है कि वे पहले पेज पर डेल कार्नेगी, स्वेट मार्डेन और उन के देसी संस्करण शिव खेड़ा को छाप कर लोगों को नैतिकता का नशा देते रहें.

बांके बोल

अब कम ही लोग बचे हैं जो धर्म की परवा किए बगैर सच बोलते हुए इस के नुकसान गिना पाएं. अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के कुलपति रिटायर्ड लैफ्टिनैंट जनरल जमीरुद्दीन शाह ने विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में बोलते हुए मुसलिम समाज की दुर्दशा की जो वजहें बताईं वे गलत नहीं थीं. इन से मुसलमानों को सबक लेना चाहिए. बकौल जमीरुद्दीन-मुसलमान जुम्मे की नमाज से वक्त जाया करते हैं, रमजान के महीने में काम नहीं करते और औरतों को गुलाम सा बना कर रखते हैं.

प्रतीकात्मक रूप में कही इन बातों की व्याख्या करते हुए उन का यह कहना भी एक तरह का दर्शन ही है कि जो भी सभ्यता महिलाओं को गुलाम बनाती है वह आधी आबादी को अनुत्पादक बना देती है. उम्मीद कम है कि लोग उन की बातों पर कान देंगे, जो ये बता गईं कि कैसेकैसे धर्म में पड़ कर लोग वक्त और पैसा बरबाद करते हैं.

वंश पर बाबा

बिहार चुनाव में भाजपा के पास सबकुछ है. नहीं है तो बस यादव जाति का कोई बड़ा नेता जिसे पेश कर वह लालू यादव का जादू तोड़ पाए. गोमांस पर विवादित बयान लालू यादव ने दिया तो योग गुरु बाबा रामदेव, जो इन दिनों पूरी तरह अपने कारोबार में व्यस्त रहते हैं, को गुस्सा आ गया और इसी गुस्से में उन्होंने डीएनए के बजाय  जीन्स (वंश) की बात यह कहते कर डाली कि लालू यादव कृष्ण के नहीं कंस के वंशज हैं. रामदेव चूंकि खुद यादव हैं इसलिए बेहतर जानते हैं कि आखिरकार कंस और कृष्ण के पूर्वज भी एक ही थे. भागवत कथा में इस बात का विस्तृत उल्लेख है कि क्यों विष्णु को कृष्ण के रूप में अवतरित होना पड़ा था. द्वापर युग में जो यदुवंशी उत्पात करते रहते थे वे कंस गुट के थे इसलिए कृष्ण ने अपना नया गुट बना लिया था. वंश की बातभर कर देने से रामदेव ने भाजपा का साथ देने के धर्म को निभा दिया और फिर हरिद्वार अपने कारोबार का हिसाबकिताब करने चले गए. 

जगाएं बच्चों में पढ़ने की प्रवृत्ति

बाल्यावस्था से बच्चों में पढ़ने के प्रति प्रवृत्ति, रुचि जगाना लाभकारी होता है. पढ़ने से जहां एक ओर बच्चों का मानसिक विकास होता है वहीं दूसरी ओर समय का भी सदुपयोग होता है, अच्छी आदतों का निर्माण व विकास होता है. बच्चों में पढ़ने के प्रति प्यार सकारात्मक अनुभवों से ही उत्पन्न किया जा सकता है.  वे मांबाप या अध्यापक बच्चों में पढ़ने के प्रति प्यार जगा सकते हैं जो धैर्यपूर्वक घंटों, दिनों बच्चों का एकएक शब्द सुनते हुए उन्हें आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकें जब तक कि बच्चे पढ़ने में आश्वस्त व आत्मविश्वासी न हो जाएं. पढ़ने में निपुण होने पर बच्चों के मुख पर जो उल्लास झलकता है वह देखने योग्य होता है. बच्चों को इस उल्लास की स्थिति में लाने व उन्हें शौकीन पाठक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें शुरू से ही ऐसे सकारात्मक अनुभव प्रदान किए जाएं जिस से वे प्रोत्साहित हो स्वयं ही पढ़ने के लिए प्रेरित हों.

बच्चों में पढ़ने की प्रवृत्ति जगाने में सब से सहायक बात होती है कि उन्हें  उन की क्षमता, स्तर व उन की पसंद की किताबें पढ़ने के लिए दी जाएं जिस से उन की पढ़ने में रुचि बनी रहे और वे बोर हो कर पढ़ना न छोड़ दें. जब बच्चों को उन की क्षमता से बढ़ कर किताबें पढ़ने के लिए दी जाती हैं तो वे उन्हें ठीक से न पढ़ पाने पर हतोत्साहित हो जाते हैं, डर जाते हैं और फिर पढ़ने से कतराने लगते हैं. इसलिए उन्हें प्रेरित करने के लिए ऐसी पुस्तकें दी जानी चाहिए जिन्हें वे पढ़ सकें व आसानी से समझ सकें.

बच्चों को करें प्रोत्साहित

बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें जब भी संभव हो जोरजोर से पढ़ कर सुनाना चाहिए. सुनसुन कर बच्चे उसे पढ़ने का प्रयास करने लगते हैं. बच्चों की किताबें 2 प्रकार की होती हैं– एक तो वे जो बड़ों द्वारा जोरजोर से पढ़ कर सुनने वाली होती हैं और दूसरी वे जिन्हें पढ़ना सीखने वाले बच्चे खुद पढ़ सकें. ये दोनों ही प्रकार की पुस्तकें बच्चों के लिए लाभकारी होती हैं. साक्षर होने के लिए ये दोनों ही अनुभव उपयोगी होते हैं. इस बात की चिंता जरूरी नहीं है कि बच्चा कब पढ़ना शुरू करता है, वरन इस बात की चिंता आवश्यक है कि बच्चा पढ़ने के प्रति रुचि व्यक्त करे. बच्चे में पढ़ने के प्रति रुचि जाग्रत हो जाए और जब वह उंगली बाएं से दाएं हर अक्षर व फिर हर शब्द के साथ आगे बढ़ाने लगे तब समझना चाहिए कि वह अक्षर और शब्दों को पहचानने लगा है. सब से पहले छोटे बच्चों को तसवीरों से अवगत कराना चाहिए. जब वे तसवीरों को पहचानने लगें तब उन्हें उन शब्दों के नाम, उन के उच्चारण से परिचित कराना चाहिए. बच्चों को सदा आश्वस्त करना चाहिए कि जब भी वे पढ़ने में अटकेंगे आप उन की सहायता करेंगे. बच्चों को डांटफटकार कर भयभीत नहीं करना चाहिए.

3 सैकंड का नियम बना लीजिए. जब भी बच्चा अटके उसे वह शब्द बताने में 3 सैकंड से ज्यादा समय न लें. अधिक समय लेने से कहानी की रोचकता में बाधा आ जाती है और साथ ही बच्चा हतोत्साहित हो कर उस में अपनी रुचि खो बैठता है. बच्चे के पास 3 सैकंड का समय होता है स्वयं को ठीक करने का. पर यदि वह उस समय में स्वयं को ठीक नहीं कर पाता है, तो जहां आप के बताने से कहानी का तारतम्य बना रहता है वहीं बच्चों के दिल से शब्द न जानने का भय निकल कर यह आश्वस्तता पैदा होती है कि भूल करना स्वाभाविक है, यह भी सीखने का एक सामान्य भाग है, तरीका है. बच्चा यदि बारबार एक ही किताब पढ़ना चाहता है तो उसे इस के लिए हतोत्साहित न करें बल्कि ऐसा करने के लिए उसे प्रोत्साहित करें. एक ही पुस्तक को बारबार पढ़ कर अच्छी तरह पढ़ने पर बच्चा और भी उत्साह से पढ़ेगा.

कुछ बच्चे पढ़ते हुए हिलतेडुलते रहते हैं. इसी तरह वे पढ़ने में अपना ध्यान केंद्रित करते हैं. अत: ऐसे बच्चों को पढ़ते हुए हिलनेडुलने से रोकिए मत. शुरूशुरू में बच्चों को शब्दों को उच्चारित कर के पढ़ने के लिए मत कहिए. जबतक उन में शब्द उच्चारित करने की क्षमता नहीं आ जाती तबतक उन्हें शब्द उच्चारित करने के लिए मजबूर करने से उन की पढ़ने से रुचि हट जाती है क्योंकि वे उच्चारित कर शब्द पढ़ नहीं पाते और हतोत्साहित हो जाते हैं. जब भी बच्चे किन्हीं प्रतीकों, संकेतों, सूत्रों, सुरागों का उपयोग करें तो उन्हें शाबाशी दें. प्रतीकों, तसवीरों द्वारा अनुमान लगा कर या रटे हुए शब्दों को याद करकर के पढ़ना भी पढ़ने का, शिक्षा प्राप्त करने का एक ढंग है. बच्चों को उस की अपनी भाषा में पुस्तकें पढ़ने दीजिए जो वे रोजाना बोलते हैं. यह आदत बाद में भी दूसरी भाषा में पुस्तकें पढ़ने में सहायक होगी क्योंकि आदत और क्षमता हस्तांतरित व स्थानांतरित होती हैं. बच्चों को बाल्यावस्था से शब्द शक्ति से परिचित कराएं ताकि उन के भविष्य की सर्वोच्च प्रगति का आधार बन सके.

ऐसे जगाएं रुचि

बच्चों को उन की रुचि व उम्र के अनुसार जानवरों की कहानियां, एडवैंचर, रहस्य, लोककथाओं की किताबें पढ़ने के लिए दें. ऐसा करने से बच्चा धीरेधीरे किताब पढ़ना भी सीख जाएगा. बच्चा जो भी किताब पढ़े उस से उस किताब के बारे में पूछें, उस के चरित्रों के बारे में पूछें, जानें कि उस ने किताब से क्या सीखा. इस से बच्चे की पढ़ने में रुचि और जगेगी.बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि जगाने के लिए जरूरी है आप खुद उस के समक्ष किताबें पढ़ें. न कि टीवी, मोबाइल व लैपटौप में व्यस्त रहें. उस के जन्मदिन पर उसे और उस के दोस्तों को किताबों का उपहार दीजिए. यह एक सतत प्रक्रिया है जिस का परिणाम धीरेधीरे दिखाई देता है.    

बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें जब भी संभव हो जोरजोर से पढ़ कर सुनाना चाहिए. सुनसुन कर बच्चे उसे पढ़ने का प्रयास करने लगते हैं.

दुनिया के बच्चे ऐसे सीखते हैं भाषा

जापान के स्कूली बच्चों को 9वीं कक्षा तक हर साल नए अक्षर सिखाए जाते हैं. मूल जापानी शब्द लिखना सीखने के लिए उन्हें 2100 अक्षर सीखने पड़ते हैं. इस के लिए वे हर रोज अभ्यास करते हैं ताकि भूलें नहीं.

जरमनी में सुन कर लिखने की परंपरा कई स्कूलों में शुरू हुई थी पर बाद में यह बहस का मुद्दा बन गई. पहली कक्षा में अक्षरों के साथ एक तसवीर होती है, जो उस अक्षर का उच्चारण बताती है, ठीक अंगरेजी के ए फोर ऐप्पल जैसा. जरमन में एफ तो उच्चारण में एफ होता है लेकिन वी का उच्चारण फ जैसा और जे का य जैसा. इस कारण शब्दों का उच्चारण बदल जाता है.

चीन में 3 साल के बच्चे पहली बार अक्षर देखते हैं और 6 साल की उम्र से लिखना शुरू करते हैं. जब वे 5वीं में जाते हैं तो उन्हें 10 हजार अक्षर सीखने होते हैं. इस के लिए बच्चों को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है

मिस्र के बच्चे जब लिखना सीखते हैं तो इस के लिए उन्हें नई भाषा सीखनी पड़ती है क्योंकि इलाकों में बोली जाने वाली बोली मानक अरबी से बहुत अलग है. सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में करीब 80 बच्चे होते हैं, इसलिए हर बच्चा उतने अच्छे से सीख नहीं पाता. कुछ बच्चे तो अच्छे से लिखना और पढ़ना कभी नहीं सीख पाते.

भारत की राष्ट्रीय भाषा भले ही हिंदी हो लेकिन हर राज्य की अपनी अलग भाषा है और अलग लिपि भी. इसलिए पहली कक्षा में बच्चे को हिंदी, अंगरेजी और राज्य की भाषा सिखाईर् जाती है. यह जरूरी नहीं कि बच्चे की अपनी मातृभाषा भी इन तीनों में से एक हो. भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं. 

 सर्बियाई भाषा किरील लिपि में लिखी जा सकती है और लैटिन में भी. बच्चों को दोनों ही सीखनी पड़ती हैं. पहली कक्षा में बच्चे किरील लिपि सीखते हैं और दूसरी कक्षा में लैटिन. कुछ समय बाद बच्चे खुद तय करते हैं कि वे कौन सी लिपि में लिखना चाहते हैं.

में पहली कक्षा से नहीं बल्कि शून्य से स्कूल शुरू होता है यानी एक तरह का किंडरगार्टन. इस क्लास में जाना बच्चों के लिए अनिवार्य है. यहां बच्चों को खेलखेल में अक्षरों की पहचान कराई जाती है.

हमारी बेडि़यां

हमारी एक परिचिता प्रतिवर्ष सावन माह के सभी सोमवार को व्रत रखती हैं, जिस में वे केवल फलाहार करती हैं. इस वर्ष उन्होंने अपने पति को जबरदस्ती व्रत रखवाया. तीसरे सोमवार को उन के पति का ब्लडप्रैशर एकदम लो हो गया और वे औफिस में ही चक्कर खा कर गिर पड़े. आननफानन उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. डाक्टरों के अनुसार, लंबे समय तक भूखे रहने के कारण उन का बीपी लो हो गया, जिस के कारण उन की जान भी जा सकती थी. एक सप्ताह तक अस्पताल में रहने के बाद वे घर आ सके.

प्रतिभा अग्निहोत्री, उज्जैन (म.प्र.)

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हमारे एक साथी हैं जो वन विभाग में नौकरी करने के बाद रिटायर हो कर गांव में अपने परिवार के साथ रहते हैं. परिवार में उन की बूढ़ी मां भी हैं. वे काफी बुजुर्ग होने के कारण अब चलनेफिरने से मुहताज हैं. उन को गांव के ही एक पंडित ने बताया कि आप गाय को रोज एक रोटी दो, गाय को खिलाने से आप के सारे पाप कट जाएंगे और इस योनि से आप को मुक्ति मिल जाएगी. पंडित की यह बात उन के दिल में घर कर गई और प्रतिदिन वे एक रोटी गाय को खिलाने लगीं. एक दिन मेरे मित्र ने कहा, ‘‘मां, इन सब झंझटों में न पड़ो, जानवर का क्या भरोसा, किसी दिन वह हूंफ देगी तो आप गिर पड़ोगी, हाथपैर टूट जाएंगे,’’ लेकिन उन पर असर नहीं पड़ा. एक दिन वही गाय उन के हाथ से रोटी लेने के लिए दरवाजे पर ऐसी चढ़ी कि वे उस के धक्के से गिर पड़ीं और हाथपैर की हड्डियां टूट गईं. अब लाचार हो कर बिस्तर पर पड़ी रहती हैं, अपने हाथ से खाना खाने से भी मजबूर हैं. अंधविश्वास पता नहीं कितने लोगों को सताएगा?

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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मेरे छोटे भाई की बस अड्डे के समीप कन्फैक्शनरी की दुकान है. वह साधुसंतों की खूब सेवा करता है. एक दिन जब मेरा छोटा भाई किसी शादी को अटैंड करने गया हुआ था, तब दुकान पर मेरे पास एक साधु आया. उस ने 1 रुपया मुझे देते हुए 5 रुपए वाली सिगरेट मांगी. मैं ने उस से 4 रुपए और मांगे, वह आगबबूला हो कर मुझ से कहने लगा कि यदि उसे गुस्सा आ गया तो वह यह सारा बिजनैस चौपट कर देगा और उस के एक मंत्र से मैं भी रहस्यमय बीमारियों की गिरफ्त में आ जाऊंगा. फिर उस साधु ने लोगों की भीड़ इकट्ठी कर ली और मुझ पर तरहतरह के लांछन लगाता रहा. धर्मभीरु भीड़ की नजर में मैं गुनाहगार था, जबकि मुफ्तखोर साधु एक सज्जन.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

बच्चों के मुख से

मेरी नातिन रिशिता 6 वर्ष की थी. वह कक्षा 1 में पढ़ती थी. उस की टीचर ने उसे सिखाया था कि ‘पैट एनिमल्स ऐंड प्लांट्स आर अवर फ्रैंडस.’ परीक्षा में पूछा गया, ‘वैजिटेबल्स आर अवर फ्रैंड्स’? सही या गलत.

रिशिता ने जवाब दिया : गलत.

जब मम्मी को उस ने बताया तो मम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, यह तो सही था, आप ने गलत क्यों लिखा.’’ इस पर रिशिता ने जवाब दिया कि वैजिटेबल्स तो हम खाते हैं. यदि ये सही हैं तो क्या हम अपने फ्रैंड को खाएंगे?’’

उस की यह बात सुन कर उस की मम्मी उसे देखती ही रह गईं.

मीना गर्ग, आनंद (गुज.)

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3 साल की पोती को नहला कर जैसे ही मैं फ्रौक पहनाने लगी, वह रोतीरोती चीख उठी, ‘‘ममाममा, मेरा पेट क्रैक हो गया है. अब उस से पानी बहने लगेगा और आप मुझे बाहर फेंक दोगी.’’ असल में एक दिन पहले प्लास्टिक की बालटी में क्रैक हो गया था और उस का पानी बह रहा था. सो, उसे बाहर फेंक दिया गया था. रोने की आवाज सुन कर मेरी बहू भाग कर बाहर आई, पूछा, ‘‘बेबी, तुम्हारा पेट कहां से क्रैक हुआ है?’’ वह तुरंत झुक कर अपना पेट दिखाने लगी. नहाने के बाद पेट पर बड़ा सा बाल चिपक गया था. उस बाल को बच्ची पेट में क्रैक होना समझ बैठी. मैं ने तुरंत उस के पेट से बाल हटा दिया. वह हैरान हो कर हंस पड़ी. यह बाल उस के सिर के लंबे बालों का ही था.

– कैलाश भदोरिया, गाजियाबाद (उ.प्र.)

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मेरे किचनगार्डन में बहुत सारी तोरई लगी हैं. एक दिन मैं अपने माली से उन्हें तुड़वाना भूल गई तो मैं अपने पति से बोली, ‘‘अरे, माली चला गया और मैं तोरई तुड़वाना तो भूल ही गई. अब अगली बार तक तो बहुत मोटी हो जाएंगी.’’ मेरे इतना कहते ही पास बैठी 4 वर्षीया बेटी बोली, ‘‘अरे, तो उन्हें डायटिंग करने को बोल दो.’’ उस के इतना कहते ही हम सब हंस पड़े.

– प्रतिभा अग्निहोत्री, उज्जैन (म.प्र.)

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मेरी सहेली अपने 6 वर्षीय बेटे को पढ़ा रही थी कि 1 अंक से पहले जीरो आता है. दूसरे दिन जब वह परीक्षा देने स्कूल जाने लगा तो उसे समझाया, सब अच्छे से करना, नहीं तो टीचर तुम्हें जीरो दे देगी. बच्चे ने भोलेपन से कहा, ‘‘आप ही तो कल कह रही थीं कि जीरो एक से पहले आता है. तो अच्छा ही है न टीचर जीरो दे दे.’’ उस की बात  सुन कर सब हंसने लगे.    

– सिम्मी बवेजा, सूरत (महा.)

मुसकान की रोशनाई

कैसी फैली रोशनाई है

कि आज

मुसकान ही हाशिए पर आई है

ये कैसी

जीवन की आपाधापी

सूरतें मुरझाई हैं

न तो इस के दाम बढ़े हैं

जमाखोरों की करतूत

भी देती नहीं दिखाई है

न हो रही इस की अल्प पूर्ति

फिर क्यों लुप्तप्राय हो आई है

बैठ तरु तल

सोचो एक पल

बदल रहा जमाना है

ठहाके लगा के जोर से हंस लो

यही अनमोल खजाना है

पलीते लगी बस एक चिंगारी

खिला देगी

अनार-बम सी

मुसकान तुम्हारी

छोटी सी मुसकान ही तो

जीवन की धुरी.

          – प्रतिमा प्रधान

 

मेरे पापा

मेरी उम्र 12 वर्ष थी. बारिश का मौसम था. मेरी मम्मी एक शासकीय विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थीं. एक रात को पापा को भोजन परोसते समय उन्होंने बताया कि शायद आज वे अपने कार्यालय की लाइट बंद करना भूल गई हैं और पंखा भी चल रहा होगा. भोजन के बाद मैं ने देखा कि पापा तैयार होते हुए मम्मी से बोले कि औफिस की चाबी ले लो, हम अभी स्कूल जाएंगे. बरसते पानी में 4 किलोमीटर दूर वे साइकिल से मम्मी को ले कर स्कूल गए और लाइट बंद कर के आए. इस घटना ने मेरे मनमस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ा. आज नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के दौर में विचार आता है कि व्यक्ति अगर मेरे पापा जैसे हो जाएं तो देश की जो दुर्दशा दिखाई दे रही है उस से उसे बचाया जा सकता है.

– सुधीर शर्मा, इंदौर (म.प्र.)

*

मैं 10वीं की बोर्ड की परीक्षा देने वाली थी. हमारे शहर मथुरा में उसी समय रेडियो स्टेशन की स्थापना हुई. रेडियो स्टेशन वालों ने हमारे कालेज में पत्र भेज कर कुछ लड़कियों के नाम मांगे थे जो संगीत में अच्छी हों. मेरी अध्यापिका ने मेरा नाम भी दिया और कहा कि मातापिता की अनुमति के बाद तुम्हारा नाम आगे भेजा जाएगा. घर आ कर बताया तो मां ने साफ मना कर दिया, कहा कि पहले पढ़ाई पर ध्यान दो, बोर्ड की परीक्षा सिर पर है. पर मेरे पिताजी को जब यह पता चला तो वे बहुत खुश हुए. वे मुझे स्वयं औडीशन के लिए ले कर गए. मेरा चयन होने के बाद जबजब मेरी रिकौर्डिंग होती, वे मेरे साथ जाते और स्टूडियो के बाहर मेरा इंतजार करते रहते. पिताजी के बढ़ावा देने पर ही मैं ने रेडियो स्टेशन में और भी कई प्रोग्राम दिए. आज भी जब मैं गाती हूं तो मुझे उन की बहुत याद आती है और मेरी आंखें भर आती हैं.

–  मीना भाटिया, बरेली (उ.प्र.)

पिताजी आज हमारे बीच नहीं हैं. उन के नैतिक मूल्यों व सीख से मैं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सेवा में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत हूं. परिवार में करुणामयी एवं वात्सल्य से परिपूर्ण मां है, हमेशा ध्यान रखने वाली, वफादार एवं हमसफर पत्नी है, जान न्योछावर करने वाले आज्ञाकारी भाई एवं बहनें हैं, साथ ही चरित्रवान, परिश्रमी एवं उद्यमी बेटे व बेटियां हैं. कमी है, तो केवल पिताजी की. कभी संसार के किसी झंझावात से जूझते हुए यदि मेरे पैर लड़खड़ाने लगते हैं एवं विश्वास कम होने लगता है तो मैं पिताजी की बताई बातें दोहरा लेता हूं.    

–  कृष्ण पाल सिंह गौतम, कोच्चि (केरल) 

रंगरोगन से रंगीन हो आशियाना

कहते हैं दीवारों के भी कान होते हैं लेकिन मैं दीवारों को कान नहीं बल्कि घर का आईना मानता हूं. जब यह आईना साफसफाई के बाद चमकतादमकता है तो घर भी उस चमक में रोशन हो जाता है. घर की यह चारदीवारी जितनी रंगीन और रोशन होती जाती है, घर का मिजाज भी उतना ही खुशनुमा और रंगीन हो जाता है. यों तो साल भर हम कई त्योहार मनाते हैं लेकिन जो इंतजार दीवाली उत्सव को ले कर होता है वह शायद ही किसी और के लिए होता हो. इस उत्साह की अपनी वजहें भी हैं. दीवाली ही एकमात्र ऐसा त्योहार है जिस में घर की साफसफाई और पुताई पर जोर दिया जाता है. वरना बाकी त्योहार तो हुड़दंग और गंदगी फैलाने का मौका तो खूब देते हैं लेकिन सफाई की वकालत सिर्फ दीवाली पर की जाती है. सिर्फ साफसफाई ही नहीं बल्कि सजावट और रोशनी से सराबोर दीवाली मन के अंदर की तमाम अंधेरी गलियों को रोशन करने का संदेश देती है. घरद्वार की साफसफाई से रंगाईपुताई तक और मन को उजालों से भरने वाले त्योहार दीवाली को मनाने का अंदाज ही निराला होता है.

पुताई और रंगों का बाजार

दीवाली के कुछ दिन पहले से ही इस की तैयारियों का दौर शुरू हो जाता है. जाहिर है इस में रंगाईपुताई से ही शुरुआत होती है. लेकिन आजकल बढ़ती महंगाई और बाजारी रंगों के दामों में हुई अनापशनाप वृद्धि ने रंगाईपुताई को ले कर भी दिक्कतें बढ़ा दी हैं. साथ ही पुताई करने वालों ने भी अपने दामों में अनापशनाप तरीके से वृद्धि कर दी है. आजकल दिहाड़ी पुताई वाले अमूमन एक कमरे के लिए 500 से 1 हजार रुपए तक वसूल रहे हैं. जबकि ठेकेदार 25 हजार रुपए एकदो कमरों के फ्लैट के लिए मांगते हैं. हालांकि यह बजट महानगरों के लिए है और पेंटों की डिजाइन व इस्तेमाल होने वाले सामान के आधार पर घटताबढ़ता रहता है. जबकि कलर्स काउंसलर की मदद से घर की रंगाईपुताई का काम और महंगा पड़ता है. उस पर सामान खुद खरीद कर देना पड़ता है. पिछले साल की अपेक्षा इस साल रंग और पेंट्स के दामों में तकरीबन 20 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इसलिए इस से बचने के तरीके निकालने जरूरी हैं. कितना बढि़या हो इस दीवाली घर की रंगाईपुताई आप खुद करने की ठानें.

जरूरी नहीं है कि बाजार से खरीदे महंगे पेंट ही इस्तेमाल करें बल्कि चाहें तो चूना, खरी और मामूली रंगों के घालमेल से भी बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं. डिजाइन बदल कर भी क्वालिटी पेंट जैसा परिणाम पाया जा सकता है. लेकिन सब से बेहतर है कि बाजार की चीजों और मजदूरों पर निर्भर न रहा जाए बल्कि कुछ जरा हट कर आजमाया जाए. अगर रंग से बचना चाहें तो आजकल वालपेपर भी नए विकल्प बन कर उभरे हैं. इस के अलावा कोई दीवार किसी रंग की वजह से अच्छी न लगे तो उस हिस्से को पेंटिंग्स या घर की तसवीरों का इस्तेमाल कर उस कमी को ढका जा सकता है. इस दीवाली आप भी अपने घर की रंगाईपुताई की योजना बना रहे होंगे. अमूमन तो लोग विज्ञापनों की चमकधमक और हर रंग कुछ कहता है की जुमलेबाजी में आ कर बाजार से महंगे पेंट खरीद कर घर चमकाने की सोचते हैं. लेकिन यह तरीका न सिर्फ काफी महंगा पड़ता है बल्कि दीवाली का बजट शुरुआत से ही असंतुलित करने लगता है. अगर इस महंगे खर्चे को बचा लिया जाए तो दीवाली पर और भी जरूरी खर्चे पूरे किए जा सकते हैं. और रही घर की रंगाईपुताई की बात तो इस के लिए इस बार जरा खुद ही हाथ आजमाएं. इस के 2 फायदे हैं. पहला तो आर्थिक मोरचे पर बचत होगी लेकिन दूसरा और सब से जरूरी फायदा यह कि रंगाईपुताई के जरिए न सिर्फ अपने घर को सजाएंगे बल्कि रिश्तों के मोरचे पर प्रगाढ़ता आएगी. वह ऐसे कि जब सब मिल कर कोई काम हंसीखुशी करेंगे तो मन में माधुर्य छलकेगा ही.

बीते दौर का मजा

जरा सोचिए, पुराने दिनों की तरह किसी आर्ट क्लास का असाइनमैंट पूरा करते समय आंगन में अपनों के साथ कलर्स और क्राफ्ट का काम कितने मजे से पूरा हो जाता था और परिवार की अहमियत भी समझ आती थी. लेकिन अब चूंकि न्यूक्लियर फैमिली का जमाना है और उस में भी वर्किंग क्लास और तकनीकी दखल ने कोई काम ऐसा छोड़ा ही नहीं जो सपरिवार मिलजुल कर मस्ती में पूरा किया जाए. हर कोई अकेले ही स्मार्ट फोन और कंप्यूटर में अपनेअपने कमरों में आंखें फोड़ रहा है. किचन में कामवाली बाई खाना बनाती है और बाकी लोग टीवी सीरियल से फुरसत नहीं पा पाते. ऐसे में इस दीवाली के दौरान रंगाईपुताई वह मौका है जब रंगों की कसरत में आप अपने रिश्तों में भी नई जान फूंकेंगे.

अकसर यह सवाल जेहन में आता है कि त्योहार से पहले इतने बड़े पैमाने पर साफसफाई भला जरूरी क्यों हैं. दरअसल, इसी त्योहार के बहाने साल में एक बार घर के कोनेकोने को पूरी तरह साफ कर लिया जाता है. घर की धूलगंदगी दूर हो जाती है. इस के अलावा कार्तिक मास से पूर्व बारिश का समय रहता है. लिहाजा कई जगह दीवारें सीलन पकड़ लेती हैं और उन से चूना आदि झड़ने लगता है. साफसफाई और रंगाईपुताई की परंपरा के बहाने इन का भी समाधान हो जाता है. सफाई के दौरान सर्दियों के कपड़ों को धूप दिखाने का काम भी हो जाता है. वास्तविकता तो यह है कि इतनी सफाई और रंगाई के बाद घर एकदम नया सा लगने लगता है. कई बार गैरजरूरी सामान जो बेकार में पड़ा होता है सफाई के बहाने निकल आता है और किसी जरूरतमंद को देने के काम भी आ जाता है. तीजत्योहारों का असल मकसद आपसी संबंधों में सौहार्द पैदा करना और बीते साल की कमियों और बुराइयों को दूर कर नए सिरे से नई शुरुआत करना होता है. हर दीवाली हम अपने घरों की सफाई तो करते हैं लेकिन जिस तरह सफाई और रंग करने से घर में एक अलग चमक आ जाती है वैसे ही अगर हम अपने मन की सफाई करें तो जीवन में नई उमंग आ जाए.

जब तक मन साफ नहीं है, बाहर की सफाई और सौंदर्य व्यर्थ है. कितना अच्छा हो यदि हम अपने भीतर का भी सौंदर्यीकरण करें. अपने मन की उलझनों और पुराने विचारों को बाहर निकाल कर नकारात्मक विचारों के जाले साफ करें. घर की सजावट और रोशनी की झालरों के साथ मन के अंदर सद्विचारों की झालर लगाएं, फिर देखें कि कितनी रोशनी होती है मन की संकरी गलियों में. इस दीवाली कुछ सार्थक करें तभी सही माने में उत्सव का आनंद मिलेगा.

टिमटिमाता सितारा : सोनम कपूर

अभिनेत्री सोनम कपूर की पहचान अभिनेता अनिल कपूर की बेटी और एक बड़बोली अभिनेत्री की रही है. कभी ऐश्वर्या राय बच्चन को आंटी कहने तो कभी दीपिका या कैटरीना से कैट फाइट के चलते उन्हें सुर्खियां भले ही मिलती रही हों लेकिन इस से उन के अभिनय का स्तर नहीं सुधरा. अपने 7 साल लंबे कैरियर में उन्हें बड़ा ब्रेक संजय लीला भंसाली ने फिल्म ‘सांवरिया’ में दिया. फिल्म असफल रही लेकिन फिल्मी परिवार की होने के चलते उन्हें काम मिलता रहा. कई असफल फिल्मों के बावजूद उन की फिल्में रिलीज होती रहीं. इतने मौके किसी संघर्षरत कलाकार को शायद ही मिलते. बहरहाल अति आत्मविश्वास की शिकार सोनम खुद को फैशन आइकन व सुपरस्टार समझती हैं लेकिन उन का कैरियर ग्राफ उन्हें औसत कलाकार ही साबित करता है. सोनम ने अपनी बहन व पिता के साथ मिल कर फिल्म ‘खूबसूरत’ का निर्माण भी किया लेकिन वह फिल्म भी नहीं चली. जबकि इस से पहले वे ‘आयशा’ जैसी फ्लौप फिल्म भी निर्मित कर चुकी हैं. हालांकि उन के अभिनय की तारीफ फिल्म ‘रांझणा’ में हुई लेकिन इतने सालों बाद किसी कलाकार के पास सफलता के नाम पर एक या दो फिल्में होना जाहिर करता है कि उस का कामयाबी का सफर अभी शुरू हुआ है. उन्हें अभी कुछ और यादगार फिल्में करनी होंगी. हाल ही में सोनम कपूर से हुई बातचीत में उन से कई बातें जानीं.

दीवाली पर रिलीज फिल्म ‘प्रेम रतन धन पायो’ में वे सलमान खान की हीरोइन बन कर आईं तो वहीं वे नीरजा भानोट की बायोपिक फिल्म के अलावा एक पौलीटिकल व रोमांटिक फिल्म ‘बैटल फौर बिटोरा’ भी कर रही हैं. सफलता व असफलता को ले कर सोनम कहती हैं, ‘‘मैं इस से काफी आगे निकल चुकी हूं. ‘रांझणा’ से पहले मेरी फिल्में असफल हुई थीं. ‘रांझणा’ के बाद तो मेरी सारी फिल्में बौक्स औफिस पर सफल हो रही हैं. कभी कोई फिल्म बहुत बड़ी हिट हुई है, तो कभी कोई फिल्म औसत रही. ‘बेवकूफियां’ औसत चली, तब मुझे थोड़ा सा दुख हुआ था क्योंकि ‘बेवकूफियां’ के लिए मैं ने बहुत मेहनत की थी. लोगों को मेरा काम भी पसंद आया था.’’

‘रांझणा’ की सफलता से क्या बदलाव आए, इस बाबत सोनम बताती हैं, ‘‘‘रांझणा’ ने मुझे कलाकार के तौर पर बड़ी पहचान दी. लोगों को एहसास हुआ कि सोनम कपूर अभिनय भी कर सकती है. मुझे कई नौमीनेशन मिले. अवार्ड भी मिले. इस फिल्म के बाद लोग मुझे एक उत्कृष्ट अभिनेत्री के साथसाथ साफ हिंदी व उर्दू भाषा बोलने वाली अदाकारा मानने लगे हैं. दर्शकों को यही सब चाहिए होता है.’’ वे आगे कहती हैं, ‘‘एक कलाकार के तौर पर भाषा का सही उच्चारण बहुत माने रखता है. मेरी उर्दू भाषा अच्छी होने की ही वजह से मुझे ज्यादातर मुसलिम किरदार मिलते रहते हैं. आज समकालीन अभिनेत्रियों में से बहुत कम हैं, जिन का उर्दू भाषा का उच्चारण सही है.’’

‘प्रे्रम रतन धन पायो’ की रिलीज से पहले सलमान खान ने उन की तुलना माधुरी दीक्षित से की थी. इस पर वे कहती हैं, ‘‘यह उन का मजाक था. उन्होंने खुद कहा कि फिल्म प्रचार के लिए ऐसा कह रहे हैं. उन की बातों को गंभीरता से मत लीजिए. मैं खुद अपनी तुलना किसी से नहीं करती. माधुरी दीक्षित तो मेरी पसंदीदा हीरोइनों में से हैं. जब मैं ने ‘सांवरिया’ की थी तो लोगों ने मेरे बारे में कहा था कि यह तो नूतन की तरह लगती है. कुछ लोगों ने कहा था कि वहीदा रहमान की तरह लगती है. कुछ लोगों ने मेरी तुलना रेखा से की थी. पहली फिल्म से ले कर अब तक तमाम अभिनेत्रियों के साथ मेरी तुलना की जा रही है. मुझे इस तरह की तुलना से बहुत डर लगता है. आज तक मुझे किसी भी अदाकारा के साथ तुलना किए जाने पर खुशी नहीं मिली, पर डर जरूर लगा.’’ मुझे लगता है कि दूसरों के साथ मेरी तुलना नहीं की जानी चाहिए. मुझे पता है कि लोगों को मेरा काम पसंद आता है. पर मुझे खुद नहीं पता कि उन्हें मेरा काम क्यों पसंद है. मुझे लगता है कि अभी बहुत अच्छा काम करने के लिए मेरे पास समय है. सच कह रही हूं जब भी लोगों ने मेरे बारे में बहुत अच्छा लिखा है या कहा है तब भी मुझे नहीं लगा कि मैं ने इतना अच्छा काम किया है.’’

अभिनय को ले कर एप्रोच में आए बदलाव के बारे में सोनम का मानना है, ‘‘फिल्मों के चयन में मैं बहुत ध्यान देती हूं. किसी भी फिल्म को चुनने में बहुत समय लगाती हूं. हर फिल्म पर मैं कड़ी मेहनत करती हूं. मैं भले ही सब से बेहतरीन कलाकार नहीं हूं पर मुझे लगता है कि धीरेधीरे मैं अपने अंदर की प्रतिभा को विकसित कर रही हूं. फिल्म दर फिल्म अनुभव के आधार पर मेरा व्यक्तित्व व मेरी कला निखर रही है.’’ अच्छी डांसर होने के बावजूद उन्हें गानों के फिल्मांकन से डर क्यों लगता है, इस सवाल का जवाब सोनम कुछ यों देती हैं, ‘‘मुझे ड्रामैटिक सीन करना अच्छा लगता है पर किसी भी गाने पर डांस करना मुझे कठिन लगता है, क्योंकि उस गाने में मेरी अपनी आवाज नहीं होती है. मैं ने कत्थक डांस की ट्रेनिंग ले रखी है. अच्छी डांसर हूं पर गाने के बोल मेरी आवाज में न हो कर किसी गायिका की आवाज में होते हैं. इस वजह से मुझे तकलीफ होती है. उस वक्त मुझे लगता है कि यह तो मैं नहीं गा रही हूं. दूसरे की आवाज को अपना बनाने में समय लगता है.’’

सोनम समाजसेवा से भी जुड़ी हुई हैं. 4 साल पहले उन्होंने पतंग उड़ाने के लिए शीशायुक्त मांझा के खिलाफ आवाज उठाई थी. उस वक्त महाराष्ट्र के गृहमंत्री को उन्होंने पत्र भी लिखा था. जिस का जवाब उन्हें आज तक नहीं मिला. सोनम बताती हैं, ‘‘मैं ने इस मुहिम को सोशल मीडिया पर भी डाला. इस से लोगों में अवेयरनैस जरूर पैदा हुई है. मैं लोगों से कह रही हूं, ‘आप पतंग उड़ाएं, पर शीशे वाले मांझे का उपयोग न करें.’ शीशे वाला मांझा इंसानों के साथसाथ पशुपक्षियों के लिए भी खतरनाक है.’’ सरकार की तरफ से पत्र का जवाब न मिलना, क्या सरकार की उदासीनता है? इस पर वे कहती हैं, ‘‘मेरा मकसद लोगों के बीच जागरूकता पैदा करना है. कैंसर पीडि़तों का मनोबल बढ़ाना भी है. मैं अपने हिस्से का काम कर रही हूं. मैं ने ब्रेस्ट कैंसर के खिलाफ भी मुहिम चलाई थी. मैं महिलाओं को सलाह देती रहती हूं कि वे समयसमय पर अपनी जांच कराती रहें. यदि छाती के कैंसर का पता जल्दी लगेगा तो उस का इलाज ज्यादा आसानी से व जल्दी संभव है. मैं उन से कहती हूं कि कैंसर के खिलाफ आप लड़ाई लड़ कर जीत हासिल कर सकती हैं. कैंसर का अर्थ सिर्फ मौत नहीं होता है.

नारी सशक्तीकरण पर वे गंभीर हैं. उन के मुताबिक, ‘‘यदि आप मेरी फिल्मों पर नजर दौड़ाएंगे तो आप को एहसास होगा कि मैं नारी सशक्तीकरण को ध्यान में रख कर ही अपने किरदारों का चयन करती हूं. मैं अपनी हर फिल्म में सशक्त नारी किरदार निभाती आ रही हूं. मुझे नहीं लगता कि मैं ने अब तक किसी फिल्म में ऐसा किरदार निभाया है जो कमजोर रहा हो या उसे पता न हो कि उसे क्या चाहिए, फिर चाहे फिल्म ‘रांझणा’ का जोया का ग्रे किरदार ही क्यों न हो. जोया को पता है कि उसे इस आदमी से शादी करनी है. उसे पता है कि उसे सोशल वर्क करना है, और वह कर सकती है. ‘बेवकूफियां’ में मेरा किरदार अपने प्रेमी की अपेक्षा ज्यादा पैसा कमाने वाली का है. ‘खूबसूरत’ में मेरा किरदार पिं्रस से कहता है, ‘प्रिं्रस को तुम अपने घर में रखो. मैं किसी के लिए भी अपनेआप को बदलने वाली नहीं हूं.’ इतना ही नहीं, ‘डौली की डोली’ में भी मेरा किरदार सशक्त था. फिल्म ‘प्रेम रतन धन पायो’ का मेरा पिं्रसैस मैथिली का किरदार भी कम सशक्त नहीं है. मैथिली को पता है कि उसे जिंदगी से क्या चाहिए. वह अपने प्रेमी से कहती है कि यदि हमारे बीच कुछ नहीं हो रहा है तो फिक्र मत करो. मैं अपनी दादी से बात कर लूंगी.’’

यदि बौलीवुड में नारी सशक्तीकरण और नरनारी समानता की बात हो रही है तो फिर पुरुष और महिला कलाकारों की पारिश्रमिक राशि में लंबा अंतर क्यों है? इस बाबत सोनम बताती हैं, ‘‘यह सारा मसला बिजनैस का है. यदि मैं सलमान खान के साथ कोई फिल्म करती हूं तो उस फिल्म का रिलीज के पहले दिन का बौक्स औफिस कलैक्शन 20-30 करोड़ रुपए होता है पर यदि मैं अकेले कोई फिल्म करती हूं तो पहले दिन उस का बौक्स औफिस कलैक्शन 4 करोड़ रुपए होता है. इस हिसाब से ही हमें पारिश्रमिक राशि मिलती है. ‘प्रेम रतन धन पायो’ एक ऐसी फिल्म है जिस में हीरो को मुझ से कहीं अधिक पैसे मिले हैं.  लेकिन ‘रांझणा’, ‘खूबसूरत’, ‘आएशा’, ‘डौली की डोली’ ऐसी फिल्में हैं जिन में मुझे हीरो से ज्यादा पैसे मिले. ‘भाग मिल्खा भाग’ में तो मेरा एक छोटा सा किरदार था, तो उस में पैसे का कोई मसला नहीं था. मेरी आने वाली फिल्म ‘नीरजा भानोट’ में तो कोई हीरो ही नहीं है, वहां तो मुझे ही सारे पैसे मिले हैं. ‘रांझणा’ से ले कर अब तक मुझे हर फिल्म में मेरे हिस्से के सही पैसे मिलते रहे हैं.

‘‘‘नीरजा भानोट’ पूरी हो गई है, फिल्म का ट्रेलर बाजार में आने वाला है. मैं खुश हूं कि नीरजा भानोट की कहानी लोगों तक पहुंचेगी. इस फिल्म में अभिनय करने के बाद मेरी अपनी जिंदगी बदल गई है. नीरजा 23 साल की लड़की, उस के अंदर अद्भुत ताकत, अदम्य साहस था. यह काल्पनिक किरदार नहीं है. वह हम सब के बीच की एक ऐसी जिंदा लड़की थी जिस में कई गुण थे. वह बुद्धिमान थी वह नेकदिल थी. वह अपने परिवार के अलावा दूसरों के लिए बहुतकुछ करती रहती थी. इस किरदार को निभा कर मेरी समझ में आया कि यदि वह ऐसी लड़की थी, तो हम इस तरह की लड़की क्यों नहीं बन सकते.’’ डैड के साथ कोई फिल्म न करने के पीछे का कारण बताते हुए सोनम कहती हैं, ‘‘डैड के साथ फिल्म करने में डर लगता है. अन्यथा मैं ने फरहान अख्तर सहित कई कलाकारों के साथ फिल्में की हैं.’’

सोनम लंबे समय से सोशल मीडिया व ट्विटर पर व्यस्त हैं. ऐसे में वे इस समस्या को कितना गंभीर मानती हैं कि अब लोगों के बीच बातचीत कम होती है, लोग सोशल मीडिया पर ही व्यस्त रहते हैं. वे कहती हैं, ‘‘मैं पार्टी में जाती हूं तो वहां पर मैं सभी को मोबाइल पर ही व्यस्त पाती हूं. मुझे भी सोशल मीडिया पर रहना अच्छा लगता है. पर मुझे लगता है कि जिंदगी व परिवार की तरफ भी ध्यान देना चाहिए. अपनों व अपने रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए. मैं घर पर ज्यादातर समय अपना मोबाइल फोन सायलैंट पर रख कर पापा से, मम्मी से या भाई हर्षवर्धन या बहन रिया से बातें करती हूं. दरअसल, लोगों को सोशल मीडिया की लत लग गई है. सोशल मीडिया का उपयोग करना चाहिए, पर एक सीमा के अंदर.’’ सोशल मीडिया हालांकि लड़ाई का क्षेत्र बनता जा रहा है. हालांकि लड़ाईझगड़े तो हर जगह होते हैं, फिर चाहे वह सोशल मीडिया हो, कुरुक्षेत्र हो या ट्विटर हो. अब सबकुछ सार्वजनिक हो गया. यदि आप को अपनी निजी जिंदगी को निजी रखना है तो वह भी सार्वजनिक हो जाता है.

खूबसूरती को ले कर सोनम का कहना है, ‘‘‘खूबसूरती’ का मतलब खुश रहना है. किसी दूसरे की नकल करने के बजाय अपनी पसंद के कपड़े पहनने चाहिए. हर किसी को अपनी खुद की स्टाइल बनानी चाहिए. हमेशा सकारात्मक सोच रखनी चाहिए.’’ आज सोनम जिस आत्मविश्वास के साथ हर विषय पर अपनी राय रखती हैं वही आत्मविश्वास उन्हें अपने अभिनय में लाना होगा. तब शायद उन को वह कद हासिल हो पाए जो उन के पिता अनिल कपूर ने सालों की मेहनत के बाद हासिल किया है.

शाहरुख से पूछताछ

अभिनेता शाहरुख खान सहिष्णुता पर दिए गए अपने बयान को ले कर आलोचनाओं से घिरे थे कि उन पर एक और मुश्किल आ पड़ी. हुआ यह कि प्रवर्तन निदेशालय ने उन की कंपनी नाइट राइडर्स स्पौर्ट्स प्राइवेट लि. के शेयर मौरीशस स्थित कंपनी को बेचे जाने में कथित अनियमितता के मामले में उन से पूछताछ की है. विदित हो कि शाहरुख आईपीएल की एक टीम के मालिक हैं और कुछ शेयर बेचने को ले कर ईडी जांच कर रही है. वैसे यह कोई आज का मामला नहीं है, 2008-09 में खान की रेड चिलीज एवं अभिनेत्री जूही चावला व उन के पति की अगुआई वाली केआरएसपीएल के शेयर मौरीशस स्थित कंपनी को बेचे जाने से संबद्ध है. इस से पहले, ईडी ने करीब 100 करोड़ रुपए के विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के कथित उल्लंघन को ले कर खान से 2011 में भी पूछताछ की थी.

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