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सलमान का इकरारनामा

टैलीविजन के रिएलिटी शो ‘बिग बौस’ के फिनाले में भले ही प्रिंस नरुला ने बाजी मारी, लेकिन सलमान खान के एक डायलौग ने माहौल को इश्क की गरमी से भर दिया. हुआ यों कि ‘बिग बौस’ के फिनाले पर आदित्य राय कपूर और कैटरीना कैफ अपनी नई फिल्म ‘फितूर’ के प्रमोशन के लिए आए थे, जहां सलमान खान ने कैटरीना से कहा कि वे पूरे भारत की तरह उन के लिए पागल हैं. अब जब कैटरीना कैफ और रणबीर कपूर के ब्रेकअप की खबरें आ रही हैं, तो सलमान का कैटरीना के लिए यह पागलपन कहीं इश्क की नई इबारत तो नहीं लिख रहा है?

तीर से दौड़े नंगे वीर

हीरो वीर दास ने अपनी सैक्स कौमेडी फिल्म ‘मस्तीजादे’ के प्रोमो के लिए मुंबई की सड़कों पर नंगा हो कर दौड़ लगाई. फिल्म ‘मस्तीजादे’ के इस प्रोमो में वीर दास एक औरत के साथ उस के घर पर सैक्स कर रहे होते हैं. इसी बीच उस औरत का पति आ जाता है और वीर को बिना कपड़े पहने ही खिड़की से कूद कर भागना होता है. यह सीन मुंबई के वर्ली लिंक इलाके में शाम के साढ़े 4 बजे फिल्माया गया था.

परिणीति और पीरियड्स

पिछले कुछ समय से परिणीति चोपड़ा बड़े परदे पर नहीं दिखाई दी हैं. पर जब से उन्होंने अपना वजन घटा कर खुद को छरहरा बनाया है, तब से वे पब्लिक इवैंट में खूब दिखाई देती हैं. ऐसे ही एक कार्यक्रम में परिणीति चोपड़ा ने औरतों की माहवारी के दौरान उन पर लगाई जाने वाली रोक पर खुल कर बात की. उन्होंने कहा कि खुद वे उन खास दिनों में बंदिश महसूस करती थीं. इस दौरान उन्हें अचार छूने नहीं दिया जाता. न वे मंदिर में जा सकती थीं और न ही रसोईघर में. इतना ही नहीं, वे अपना सिर भी नहीं धो पाती थीं. परिणीति चोपड़ा का एक सवाल भी था कि उन्हें ऐसा करने से क्यों रोका जाता था? अगर है जवाब तो दीजिए.

टीचर्स पर स्टूडैंट्स की दादागीरी

उस दिन 12वीं कक्षा का गणित का पेपर था. एक इन्विजिलेटर ने एक छात्र को नकल करते रंगेहाथों पकड़ लिया. इस पर पहले तो नकलची छात्र उस इन्विजिलेटर से बहसबाजी करने लगा, फिर गुस्से में आ कर उस ने अपनी उत्तरपुस्तिका फाड़ कर फेंक दी. इस के बाद वह छात्र अपनी दादागीरी दिखाता परीक्षा कंट्रोल रूम में गया, जहां प्रिंसिपल भी मौजूद थे. उस ने संबंधित इन्विजिलेटर का गरीबान पकड़ा तथा उन के साथ बदसलूकी की. प्रिंसिपल बीचबचाव करने आए तो छात्र उन्हें धमकाता हुआ बोला, ‘‘अपने इन्विजिलेटर्स को समझा दें कि मुझ से पंगा न लें. आप जानते नहीं मैं कौन हूं. चाहूं तो एक मिनट में आप सब का ट्रांसफर करा दूं. यदि मेरा नकल प्रकरण बना कर भेजा गया, तो मैं किसी को छोडं़ूगा नहीं. उस इन्विजिलेटर को तो मैं ऐसा सबक सिखाऊंगा कि ताउम्र याद रखेगा.’’

प्रिंसिपल ने ऐसे बदतमीज छात्र के मुंह लगना उचित नहीं समझा और पुलिस को फोन कर उसे शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार करवा दिया. अगले दिन वह नकलची छात्र जमानत पर छूटने के बाद 15-20 गुंडों को ले कर स्कूल आ धमका और धमकाता हुआ बोला कि उस के खिलाफ की गई रिपोर्ट वापस ली जाए अन्यथा खैर नहीं. उस के साथ जो गुंडे आए थे उन के पास हौकी, लाठी, लोहे के सरिए आदि थे. इस प्रकार बलपूर्वक और अपना आतंक दिखा कर स्कूल प्रबंधन को रिपोर्ट वापस लेने पर मजबूर किया गया और इतना कुछ होने के बावजूद उस पर नकल प्रकरण दर्ज नहीं हुआ.

हाल में मध्य प्रदेश के एक कालेज में कतिपय छात्रों की गुंडागर्दी चरम पर पहुंच गई. बीएससी चतुर्थ वर्ष की मिडटर्म प्रायोगिक परीक्षा में कम नंबर मिलने पर छात्रों ने जम कर हंगामा किया. कुछ तो नारेबाजी करते हुए कालेज बिल्डिंग की छत पर चढ़ गए और वहां से कूदने की धमकी देने लगे. छात्रों का दबाव था कि उन के अंक बढ़ाए जाएं, जबकि डीन का कहना था कि नंबर देने में कोई लापरवाही नहीं बरती गई. एक अन्य महाविद्यालय में भी कुछ ऐसा ही हुआ. प्रिंसिपल चैंबर में प्रोफैसर्स की बैठक चल रही थी. इसी बीच छात्र नेता अपनी अनुचित मांग मनवाने हेतु नारेबाजी करने लगे. यही नहीं, उन्होंने प्रिंसिपल चैंबर को बाहर से बंद कर अपना ताला लगा दिया यानी प्रोफैसर्स और प्रिंसिपल को कमरे में बंद कर दिया. पुलिस के आने के बाद कहीं जा कर ताला खुला.

आमतौर पर देखा गया है कि कुछ छात्र अपना दबदबा बनाए रखने के लिए टीचर्स पर दादागीरी करते हैं जो गुंडागर्दी यानी मारपीट में बदल जाती है. ऐसे छात्र गुरुशिष्य के रिश्ते को तारतार कर देते हैं. आमतौर पर ऐसे दादा किस्म के छात्रों का संबंध किसी नेता, विधायक, मंत्री या बड़े आदमी से होता है. इन आकाओं से उन्हें संरक्षण प्राप्त होता है. सत्तापक्ष चाहे जिस पार्टी का हो, उस के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी हर स्कूलकालेज में चलती है और वे अनुचित काम के लिए दबाव बनाते हैं.

ऐसे गुंडेबदमाश छात्र देश के हर स्कूलकालेज में मिल जाएंगे जो भले ही संख्या में मुट्ठी भर हों पर उन का आतंक इतना होता है कि प्रिंसिपल और टीचर्स भी उन से खौफ खाते हैं और बच कर रहना चाहते हैं. यह विडंबना ही है कि ऐसे छात्र नेता कभी विद्यार्थियों की उचित मांग या उन के अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते. वे सदैव अनुचित मांगों और गैरकानूनी काम करने के लिए ही अपनी दादागीरी दिखाते हैं. कई बार स्कूल या कालेज प्रबंधन न चाह कर भी उन की बात मानने पर विवश हो जाता है, जिसे ये छात्र नेता अपनी विजय मान लेते हैं. काश, कभी ये दादा विद्यार्थियों को यह कहते कि अच्छा पढ़ो और आगे बढ़ो.

टीचर्स पर गुंडागर्दी करने वाले लड़कों की सोच नकारात्मक और विध्वंसात्मक होती है. वे तोड़फोड़ करना चाहते हैं और बात का बतंगड़ बना कर स्कूलकालेज में धरना, प्रदर्शन, हड़ताल कर उसे जंग का मैदान बना देते हैं. वे अपनी ऊर्जा कभी रचनात्मक कार्यों में नहीं लगाते, क्योंकि उन की सोच ही एकतरफा होती है. स्कूलकालेज में अपना आतंक फैलाने वाले इन छात्रों का कैरियर चौपट हो सकता है. उन का ध्यान पढ़ाईलिखाई में तो होता नहीं, वे तो केवल गुंडागर्दी करते हैं. स्कूलकालेज छोड़ने के बाद जब ऐसे छात्रों को वास्तविक जिंदगी से रूबरू होना पड़ता है और किसी मोड़ पर सेर को सवा सेर मिल जाता है तो ऐसे छात्र अपनी सारी दादागीरी भूल जाते हैं.

दादा टाइप लड़कों को भी सही दिशा में मोड़ा जा सकता है. इस के लिए उन के पेरैंट्स से भी बात की जा सकती है. ऐसे छात्रों को स्कूलकालेज में अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. पैदाइशी कोई गुंडा या अच्छा नहीं होता. उसे गुंडाबदमाश परवरिश या माहौल बनाता है. ऐसे छात्रों का मनोविज्ञान समझने की जरूरत है. तदनुसार उन के साथ व्यवहार करने की जरूरत है. ऐसा नहीं है कि ये बिगड़ैल छात्र लाइन पर नहीं आ सकते. लेकिन इस के लिए टीचर्स को बुद्धिमानी व धैर्य से काम लेना चाहिए, न कि सबक सिखाने या बदले की भावना से उन का भविष्य बिगाड़ना चाहिए. जिस दिन गुंडागर्दी वाले छात्र को इस सच का पता लगेगा कि टीचर्स उस के दुश्मन नहीं, शुभचिंतक और भविष्य निर्माता हैं, वह उन के आगे नतमस्तक हो जाएगा.

बिहार: फिर पंचायतों को मजबूत बनाने का ड्रामा

जर्जर पंचायत भवन, मुखिया और पंचायत प्रतिनिधियों की खोज में भटकते गांव वाले, ग्राम कचहरी का कहीं कोई नामलेवा नहीं मिलता. टूटी और कीचड़ से पटी गलियां, पंचायत की बैठकें भी समय पर नहीं होती हैं. रोहतास जिले की बिसैनी पंचायत की यही पहचान है.

बिसैनी के रहने वाले बालेश्वर सिंह कहते हैं कि ग्राम कचहरी के बारे में सरकार बढ़चढ़ कर दावे करती रही है, लेकिन आज तक उसे कोई हक ही नहीं दिया गया है.

सरकारें बारबार रट लगाती रही हैं कि पंचायत के झगड़ों के निबटारे पंचायत में ही हो जाएंगे, कोर्ट जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, पर पंचायत चुनाव को 5 साल बीत गए, लेकिन ग्राम कचहरी को कोई हक ही नहीं दिया गया है. इस वजह से पंचायत के लोगों को सिविल कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.

भोजपुर जिले के शाहपुर ब्लौक की पंचायतें सरकार की बेरुखी और अफसरों की लापरवाही की कहानी चीखचीख कर कहती हैं. गोविंदपुर, मरचईया, पचकौरी डेरा, दलन छपरा, करीयन ठाकुर डेरा, रमकरही, लक्षुटोला वगैरह पंचायतों में सड़कों का कहीं भी नामोनिशान नहीं मिलता है. बरसात का पानी महीनों तक संकरी गलियों में जमा रहता है. दलन छपरा गांव के जीवन लाल बताते हैं कि पंचायत को मजबूत करने का जितना ढोल पीटा जाता है, उस का 10 फीसदी भी काम नहीं होता है.

छपरा तक तो तरक्की की धारा आज तक पहुंच नहीं सकी है. गांव के लोगों को नैशनल हाईवे तक पहुंचने में ही पापड़ बेलने पड़ते हैं. गलियों और संकरी सड़कों पर बारह महीने कीचड़ और पानी जमा रहता है. कोई देखने वाला नहीं है. मुखिया से जब लोग इस बारे में शिकायत करते हैं, तो वे अपना ही रोना रोने लगते हैं. वे कहते हैं कि फंड ही नहीं मिलता है, तो काम कैसे करेंगे? बिहार में पंचायत चुनाव की डुगडुगी एक बार फिर बज गई है. हर 5 साल में पंचायत चुनाव तो हो जाते हैं, लेकिन पंचायतों की हालत बद से बदतर ही होती जा रही है.

सरकार पंचायतों के चुनाव करा कर अपनी जिम्मेदारी को खत्म होना मान कर फिर से अगले 5 सालों के लिए बैठ जाती है और पंचायतों के प्रतिनिधि अपने हक की लड़ाई लड़ते रह जाते हैं. पंचायतों के चुनाव का मकसद पूरा करने में सरकार और प्रशासन कन्नी काटते रहे हैं. राज्य की राजधानी में बैठी कोई भी सरकार नहीं चाहती कि सत्ता की लगाम पंचायत प्रतिनिधियों के हाथों तक पहुंचे. वैसे, इस साल मईजून महीने में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव होने हैं.

साल 2006 में राज्य में 23 सालों के बाद पंचायतों के चुनाव हुए थे. उस के बाद अप्रैल, 2011 में पंचायतों के चुनाव कराए गए थे. इस के बाद भी पंचायती राज संस्थाएं सफेद हाथी बनी हुई हैं. पंचायतों और ग्राम कचहरियों के सदस्यों को पंचायतों और कचहरी के कामकाज को निबटाने और चलाने की ट्रेनिंग तक नहीं दी जा सकी है. ग्राम कचहरी के कामकाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए पंच, सरपंच और न्यायमित्रों को ट्रेनिंग देने की केवल तारीख दर तारीख ही तय की जाती रही है.

समस्तीपुर जिले की मुस्तफापुर पंचायत के किसान संकेत कुमार कहते हैं कि उन की पंचायत में पंचायत भवन तो बना दिया गया है, लेकिन न समय पर पंचायत की बैठकें होती हैं और न ही ग्राम कचहरी का ही कहीं अतापता है. पंचायतों में शौचालय बनाने का काम ठप है. समस्तीपुर की सरपंच रही अंजु देवी कहती हैं कि सरपंचों को उन के हक मिलने से गांवों की अनेक समस्याएं और झगड़ों का आसानी से निबटारा हो सकता है. छोटेमोटे झगड़ों का निबटारा करने के लिए लोग थाना और जिला अदालतों में चले जाते हैं, जहां उन का काफी पैसा और समय बरबाद होता है.

ग्राम कचहरियों को बनाने का मकसद गांवों में आसानी से इंसाफ मुहैया कराना है. साल 2011 में पंचायत चुनाव के बाद ग्राम कचहरी को बनाया गया था. इस का कार्यकाल साल 2016 में खत्म हो जाएगा, पर अभी यह फाइलों से बाहर नहीं निकल सकी है. हाल यह है कि पंचायतों को मिलने वाले सारे हक और पैसों पर अफसरों का कंट्रोल है. पंचायत और ग्राम सभा को हर काम और फैसले के लिए अफसरों का मुंह ताकना पड़ता है. ग्राम सभा को बेजान बना कर रख दिया गया है.

गौरतलब है कि सरकार गाहेबगाहे सभी जिलों के एसपी को निर्देश देती रहती है कि ग्राम कचहरी लैवल पर हल होने वाले मामलों को थाने में दर्ज नहीं किया जाए, अदालतों पर बोझ कम करने के लिए ग्राम कचहरी लैवल पर मामलों का निबटारा होना जरूरी है. आईपीसी की 40 धाराओं और 10 हजार रुपए तक के सिविल मामलों को निबटाने का काम ग्राम कचहरियों को मिला हुआ है, वहीं दूसरी ओर ग्राम कचहरियों को न कोई सुविधा मिली है, न ही काम निबटाने की ट्रेनिंग दी गई है.

बिहार प्रदेश मुखिया महासंघ के पटना जिला संयोजक अजीत कुमार सिंह बताते हैं कि पंचायतों को ज्यादा से ज्यादा अधिकार दे कर ग्राम स्वराज का सपना साकार किया जा सकता है. संविधान के 73वें संशोधन के तहत पंचायतों को स्वतंत्र संवैधानिक संस्था का दर्जा तो दिया गया, पर उसे अधिकार देने का जिम्मा राज्य सरकारों के हाथों में सौंप दिया गया. इस से पंचायतों को सरकार की दया पर निर्भर रहना पड़ता है और राज्य सरकार उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिशें करती रही हैं.

पंचायत प्रतिनिधि सरकार के दोमुंहे रवैए से लगातार नाराज रहे हैं और अपने हक के लिए सड़कों पर उतरते रहे हैं. उन का गुस्सा इस बात को ले कर है कि पंचायत का बजट, तरक्की की योजनाएं, गांवों के स्कूल और अस्पतालों को बनाने से ले कर रखरखाव का काम अफसरों के हवाले कर दिया गया है, जबकि पंचायत कानून में इन सब पर ग्राम सभा का हक है. इस के अलावा गरीबी रेखा को तय करने, सामाजिक सुरक्षा, इंदिरा आवास, पैंशन, राजस्व वसूली समेत सभी कल्याणकारी योजनाओं को पंचायतों और ग्राम सभा से छीन कर प्रशासन के हवाले कर दिया गया है. राज्य सरकार ने अफसरशाही के जिम्मे पंचायतों और ग्राम सभा का सारा काम सौंप कर ग्राम सभा को लाचार बना डाला है.

‘बिहार राज्य पंचसरपंच संघ’ के अध्यक्ष आमोद कुमार ‘निराला’ ने कहा कि पंचों और सरपंचों को उन के पद के हिसाब से कभी भी हक और इज्जत नहीं मिली है. सांसदों और विधायकों पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिए जाते हैं, पर पंचसरपंचों को पद के हिसाब से मानदेय भी नहीं मिलता है. सही मौके और सुविधा मिलने पर पंचसरपंच न्यायपालिका के बोझ को काफी कम कर सकते हैं. इस से 50 फीसदी मामलों का निबटारा तो गांव में ही हो जाएगा. दूसरी ओर प्रशासन और पुलिस के अफसर मुखिया समेत पंचायतों के प्रतिनिधियों को परेशान और बेइज्जत करने में लगे रहते हैं. उन्हें कई झूठे मुकदमों में फंसा दिया गया है, जबकि संविधान की धारा 170 के तहत मुखिया को लोक सेवक का दर्जा मिला हुआ है और उस के खिलाफ कोई भी कानूनी कार्यवाही करने से पहले सरकार की इजाजत लेना जरूरी है.

प्रदेश मुखिया महासंघ के मीडिया प्रभारी कामेश्वर गुप्ता कहते हैं कि तमाम मुखिया पर गबन और घपले के केस दर्ज किए गए हैं, पर कई साल बीत जाने के बाद भी उन पर चार्जशीट दाखिल नहीं की गई है. इस से यह साफ हो जाता है कि नौकरशाही का मकसद पंचायत प्रतिनिधियों को बेइज्जत करना और उन्हें नीचा दिखाना है. पंचायतों, ग्राम कचहरियों को सुविधाएं और हक देने को अफसरशाही कतई तैयार नहीं हैं, इस से उन्हें उन के हकों में कटौती नजर आती है. इस से पंचायतों को बनाने और पंचायतों को हक दे कर गांवों को मजबूत बनाने का मकसद ही फेल होता दिखने लगा है.

परिश्रम और लगन से मिलती है मंजिल

शमा से उजाला भी फैलता है और आग भी लग सकती है. दादागीरी भी एक ऐसा फेनोमेना है जिस की परिभाषा बहुत विस्तृत है. अपने व्यक्तित्व को निखारने और कैरियर को संवारने के लिए जोश व लगन के साथ परिश्रम और डिटरमिनेशन का नाम ही दादागीरी है. अत्याचार के खिलाफ उठ खड़े होना भी दादागीरी है जोकि सराहनीय है, क्योंकि समाज को ऐसे ही दादाओं की जरूरत है, जो आगे बढ़ें और अन्याय के विरुद्ध आवाज बुलंद कर सकें. हां, इस सीमा से आगे बढ़ने पर वही दादागीरी स्वयं और समाज दोनों के लिए बरबादी का कारण बन कानून के खिलाफ हो सकती है और भारतीय दंड विधान की धाराओं के अनुसार दंडनीय हो सकती है.

दादागीरी के अंतर्गत भारतीय दंड विधान की निम्न धाराएं लागू होती हैं :

1. धारा 141 से 149 तक.

2. धारा 319 से 338 तक.

3. धारा 349 से 374 तक.

4. धारा 405 से धारा 409 तक.

5. धारा 499 से धारा 510 तक.

किशोरों में बहुत जोश होता है. वे मौके और माहौल का खयाल किए बिना ऐसे कार्यों में कूद पड़ते हैं जो आगे चल कर उन के भविष्य के लिए कठिनाइयां खड़ी कर सकते हैं.

दादागीरी का नकारात्मक पहलू

मैडिकल, इंजीनियरिंग तथा अन्य प्रोफैशनल कालेजों में दादागीरी का अत्यंत भयानक रूप नजर आता है. कड़े परिश्रम के बाद छात्र इन संस्थाओं में प्रवेश पाते हैं. अपने परिवारों से दूर होस्टल्स में उन्हें रहना पड़ता है. अजनबी माहौल में अनजाने लोगों के साथ सामंजस्य बैठाना बहुत मुश्किल होता है. ऐसे में उन्हें रैगिंग के आतंक से भी जूझना पड़ता है.

पूर्वी और दक्षिण भारत में आमतौर पर देखा गया है कि वहां के सीनियर छात्र फ्रैशर्स के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, कुछ तो बड़े भाई या बड़ी बहन जैसा प्यार देते हैं और पढ़नेलिखने व अन्य कार्यों में भी उन्हें प्रोत्साहित करते हैं.

इस के विपरीत उत्तर भारत के प्रोफैशनल कालेजों में सीनियर छात्रों का फ्रैशर्स के साथ ऐसा दुर्व्यवहार होता है मानो उन्हें किसी पुरानी दुश्मनी का बदला चुकाना है.

उदाहरणार्थ अपनी परीक्षा के लिए जूनियर्स से नोट्स तैयार करवाना, अपने कपड़े धुलवाना, अपना बिस्तर ठीक करवाना, छोटेमोटे खर्च के लिए धमकी दे कर रुपए वसूल करना, उन का मोबाइल आदि छीन कर अपने कब्जे में रखना. इस तरह की दादागीरी दिखा कर वे नए छात्रों का जीना मुहाल कर देते हैं.

जो फ्रैशर्स इन अत्याचारों को सहन नहीं कर पाते उन्हें मारापीटा और अपमानित किया जाता है. कभीकभी यौन उत्पीड़न से वे इतने क्षुब्ध हो जाते हैं कि आत्महत्या तक कर बैठते हैं. कुछ वर्ष पहले इसी तरह हिमाचल के एक मैडिकल कालेज में फर्स्ट ईयर के एक छात्र अमन कचरू की वहां के सीनियर छात्रों ने बेदर्दी से पीटपीट कर हत्या कर दी थी. अमन के मातापिता पर क्या गुजरी होगी, यह सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

इसी तरह दिल्ली में आर्किटैक्चर के सुप्रसिद्ध कालेज स्कूल औफ प्लानिंग ऐंड आर्किटैक्चर में बिहार के एक छात्र को दाखिला लेने के कुछ ही दिन के भीतर रैगिंग के नाम पर इतना परेशान और आतंकित किया गया कि उसे जान बचा कर भागना पड़ा. एक सफल आर्किटैक्ट बनने का उस का सपना चकनाचूर हो गया.

दादागीरी या वक्त की आवाज (सकारात्मक पहलू)

यदि हिम्मत वाले युवा अपने जोश और जज्बे को, अपने व्यक्तित्व को शालीन बनाने और अपने कैरियर को बेहतर बनाने के लिए दादागीरी का इस्तेमाल करें तो प्रशंसनीय है. समाज में फैली बुराइयों को दूर करने के लिए भी अगर वे आगे आते हैं तो इस तरह की दादागीरी भी प्रशंसनीय है, लेकिन दुर्बल को सताने में दादागीरी दिखाना कतई ठीक नहीं.

केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की पचासों योजनाएं हैं, जिन का लाभ जरूरतमदों तक नहीं पहुंच पाता, क्योंकि बिचौलिए और दलाल सरकारी कर्मचारियों से सांठगांठ कर सारा माल समेट लेते हैं. यदि दादागीरी का दमखम रखने वाले समाज सेवक इन दलालों को हटा कर सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों व जरूरतमंदों तक पहुंचाने में सहायता करें तो यह उत्तम दरजे की दादागीरी होगी.

नगरों और विशेषकर महानगरों में सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं तथा बच्चों के साथ जो दुर्व्यवहार होता है उसे रोकने में दादागीरी की क्षमता रखने वाले युवक बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं. उन का यह बहुमूल्य योगदान कानून और समाज दोनों के हित में होगा.

इसी प्रकार विभिन्न दुर्घटनाओं में सड़क तथा दुर्घटनास्थल पर तड़प रहे घायलों को प्राथमिक उपचार देने और अस्पताल पहुंचाने में भी मदद कर सकते हैं. दूसरों की सहायता, परिश्रम एवं लगन से ही मंजिल मिल सकती है.

16वीं शताब्दी का है दिल्ली का पुराना किला

दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं बल्कि अपने में कई रोचक इतिहास भी समेटे हुए है. दिल्ली अपने में 7 शहरों को समेटे हुए है. यहां का इतिहास बताता है कि आज जो दिल्ली है, वह 11वीं शताब्दी से किसी न किसी शासन का केंद्र रही है. दिल्ली कई बार उजड़ी और कई बार बसी. कई शासकों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और कई बार वे अपनी राजधानी दिल्ली से बाहर भी ले गए. इसी दिल्ली में एक शहर कभी यमुना किनारे वर्तमान शहर के पूर्वी छोर पर स्थित पुराने किले में भी बसता था और इस शहर की गिनती उस दौर के समृद्ध शहरों में होती थी.

पांडवों ने बसाया था इंद्रप्रस्थ

यह कोरी किंवदंती है कि वर्तमान पुराने किले का अस्तित्व महाभारत काल से है और इस शहर का नाम उस वक्त इंद्रप्रस्थ हुआ करता था. महाभारत इतिहास से जुड़ा है, यही संदिग्ध है, फिर भी इस क्षेत्र की खुदाई से प्राचीन मकान दिखे हैं. इस किले के भीतर इंद्रापत नामक गांव 1913 ईस्वी तक मौजूद था, जिसे अंगरेजों ने हटाया.

शेरशाह सूरी ने बनाया वर्तमान ढांचा

अभी किले का जो ढांचा मौजूद है, इसे अफगानी शासक शेरशाह सूरी ने बनवाया था. इतिहासकारों के मुताबिक, 1545 ईस्वी में शेरशाह सूरी की मृत्यु होने तक इस का निर्माण अधूरा ही रह गया था, जिसे उस के बेटे इस्लाम शाह या हुमायूं ने पूरा कराया. इस बारे में अब भी जानकारी नहीं है कि किले के कौन से हिस्से का निर्माण किस ने किया. आर्कियोलौजिकल सर्वे औफ इंडिया ने 1954-55 और 1969 से 1973 में पुराने किले की खुदाई की थी और वहां उन्हें 1000 ईसा पूर्व शहर के अस्तित्व के होने की जानकारी मिली थी. इस के अलावा, मौर्य काल से ले कर मुगलकाल के बीच के शुंग, कुशाण, गुप्त, राजपूत और सल्तनत काल के दौरान इस शहर के होने की पुख्ता जानकारी हासिल हुई.

दीनापनाह से शेरगढ़ तक

1533 ईस्वी में हुमायूं ने इस किले का निर्माण शुरू किया था और उस दौर में इसे ‘दीनापनाह’ के नाम से जाना जाता था. इस किले का निर्माण 5 वर्ष में पूरा किया गया. इसे उस दौर में दिल्ली का छठा शहर माना गया. 1540 ईस्वी में सूरी वंश के संस्थापक शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराया और फिर उस ने इस किले में कई बदलाव किए. उस ने इस किले के जरिए अपनी मृत्यु तक यानी 1545 ईस्वी तक शासन किया. इस किले को उस दौर में ‘शेरगढ़’ के नाम से जाना जाता था. उस के बाद शेरशाह सूरी के बेटे इस्लाम शाह ने गद्दी संभाली और अपनी सल्तनत की राजधानी ग्वालियर ले गया और दिल्ली के अलावा पंजाब की सत्ता अपने हिंदू गवर्नर और सेनापति हेमू को सौंप दी. 1553 ईस्वी में उस की मृत्यु के बाद आदिल शाह सूरी ने उत्तर भारत की सत्ता संभाली और हेमू को सेना का प्रधानमंत्री सहित सेनापति बना दिया और खुद आज के उत्तर प्रदेश के चुनार किले में रहने लगा.

हुमायूं ने 1555 में दोबारा किया कब्जा

अबु फजल के मुताबिक, हेमू के पास पूरी शासन व्यवस्था थी और किसी की नियुक्ति और निष्कासन तक का अधिकार उसे प्राप्त था. हालांकि हेमू का अधिकतर समय पूर्वी भारतीय शासकों के साथ लड़ाई में गुजर रहा था और इस का परिणाम यह हुआ कि किला पूरी तरह से उपेक्षित हो गया. उस वक्त हुमायूं काबुल में रह रहा था और उस ने दिल्ली पर चढ़ाई की और 1555 में दोबारा इस किले पर कब्जा कर लिया. पूरे 15 वर्ष तक इस उपेक्षित किले को जीतने के लिए हुमायूं को चौसा और कन्नौज की लड़ाई लड़नी पड़ी. गौरतलब है कि उस के बाद हुमायूं का शासनकाल काफी कम समय रहा और 1 वर्ष बाद 1556 में शेर मंडल की सीढि़यों से गिरने के बाद उस की मौत हो गई.

हेमू ने अकबर की सेना को हराया

जिस वक्त हुमायूं ने दिल्ली के किले पर कब्जा किया, उस वक्त हेमू बंगाल में था, जहां उस ने बंगाल के शासक मुहम्मद शाह को हराया. जानकारी मिलते ही वह दिल्ली की ओर वापस मुड़ा और इस क्रम में उस ने आगरा, इटावा और कानपुर पर आसानी से अपना कब्जा जमा लिया. हेमू ने अपने जीवनकाल में उत्तर भारत में कुल 22 युद्धों में विजय हासिल की और फिर अकबर की सेना को भी हरा कर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा किया.

यह लड़ाई तुगलकाबाद इलाके में 1556 में हुई. इस के बाद हेमू ने अपना राज्याभिषेक पुराने किले में कराया और पूरे उत्तर भारत को हिंदू राज्य के तौर पर घोषित कर दिया. हेमू ने खुद को विक्रमादित्य घोषित किया. हालांकि 1556 ईस्वी में पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू की मौत हो गई.

18 मीटर ऊंची हैं किले की दीवारें

पुराने किले की दीवारें 18 मीटर ऊंची हैं और यह डेढ़ किलोमीटर लंबा है. इस किले में 3 दरवाजे हैं जिस में बड़े दरवाजे का प्रयोग आज भी होता है. बड़ा दरवाजा किले के पश्चिमी छोर पर है. दक्षिणी छोर पर स्थित दरवाजे को हुमायूं दरवाजा कहा जाता है.

इतिहासकारों के मुताबिक, इस दरवाजे का निर्माण हुमायूं ने किया था और यहां से हुमायूं का मकबरा भी साफ दिखाई देता है. इस किले में एक और दरवाजा है जिसे तलाकी दरवाजा कहा जाता है और यह वर्जित दरवाजा है. सभी दरवाजे दो मंजिला हैं और इन का निर्माण बलुवा पत्थर से किया गया है. सभी पत्थरों पर अर्द्धवृत्त के आकार की मेहराबें बनी हुई हैं. इन में सफेद और रंगीन मार्बल लगा हुआ है और नीले रंग के टायल्स का इस्तेमाल किया गया है. इन में झरोखे के साथसाथ छतरी भी बनी हुई हैं. सारी कलाकारी राजस्थानी स्टाइल में है और मुगल आर्किटैक्चर की तरह इस का निर्माण किया गया है. इस किले के भीतर ही शेरशाह द्वारा बनाई गई किलाएखुआना नामक मसजिद और शेर मंडल भी है.

इस किले से अकबर ने नहीं किया शासन

मुगलकालीन शासन के दौर में जब अकबर की तूती पूरे देश में बोलती थी, तो उन्होंने कभी भी इस किले से शासन नहीं किया. एक ओर जहां हुमायूं का मकबरा दिल्ली में है, वहीं अकबर का मकबरा आगरा में है. अकबर का अधिकतर समय आगरा के किले या आसपास ही बीता. हालांकि अकबर के बेटे शाहजहां ने दिल्ली में नए किले ‘लाल किले’ का निर्माण कराया. कालांतर में मुगलकालीन राजधानी दिल्ली होने के कारण आखिर तक लाल किले से ही पूरे देश पर मुगल सल्तनत का कब्जा रहा और शासन यहीं से चलता था.

1947 में बना रिफ्यूजी कैंप

1920 के दशक में जब अंगरेजों ने अपनी राजधानी कोलकाता से हटा कर कहीं और ले जाने का विचार किया तो दिल्ली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए उन्होंने इस शहर को अपनी नई राजधानी बनाने का निश्चय किया. राजधानी को दिल्ली लाने में भारतीय वायसराय चार्ल्स हार्डिंग ने सब से अधिक पैरोकारी की थी. उन का मानना था कि हिंदू और मुसलिम दोनों का जुड़ाव इस शहर से है.

एडविन लुटियंस ने इस शहर का निर्माण किया और उस दौर में पुराने किले से एक केंद्रीय रेखा खींची, जिसे आज राजपथ कहा जाता है. देश विभाजन के दौर में पुराने किले के अलावा हुमायूं का मकबरा रिफ्यूजी कैंप में तबदील हो गया जहां पाकिस्तान से विस्थापित मुसलिमों ने शरण ली थी. यहां करीब डेढ़ लाख मुसलिमों ने शरण ली थी जिन में करीब 12 हजार वे सरकारी कर्मचारी भी थे जो पाकिस्तान में नौकरी कर रहे थे. पुराने किले में मौजूद कैंप 1948 तक रहा.

बिखरी पड़ी हैं अतीत की धरोहरें

इस किले के चप्पेचप्पे में अतीत की धरोहरें बिखरी पड़ी हैं और विभिन्न सल्तनतों की कहानी कहती हैं. किलाएकुहना नामक मसजिद का निर्माण शेरशाह सूरी ने किया था. 5 दरवाजों वाली इस मसजिद की शैली उस दौर की कहानी कहती है. ये दरवाजे घोड़े की नाल की डिजाइन के हैं.

इस का निर्माण जामी मसजिद की तर्ज पर किया गया है जहां सुलतान और उस के दरबारी नमाज अता करते थे. इस में लाल और सफेद संगमरमर के अलावा स्लेट का प्रयोग किया गया है. किसी वक्त यहां एक टैंक और फाउंटेन था. इस मसजिद में महिला दरबारी के लिए अलग से नमाज अता करने का स्थान भी बना हुआ था. इस के अलावा यहां एक शेर मंडल भी है. दोमंजिली यह इमारत अष्टभुजाकार है और इस का निर्माण हुमायूं के लिए उस की निजी लाइबे्ररी और वेधशाला के लिए किया गया था. इसी इमारत की सीढि़यों पर फिसलने से हुमायूं की मौत हुई थी.

सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए परकोटा

1970 के दशक में इस किले के परकोटे का प्रयोग थिएटर के लिए किया जाने लगा. नैशनल स्कूल औफ ड्रामा ने इस के परकोटे से 3 नाटकों ‘तुगलक’, ‘अंधायुग’ और ‘सुलतान रजिया’ का मंचन किया. इन तीनों नाटकों को प्रख्यात नाटककार इब्राहीम अल्काजी ने निर्देशित किया था

ऐसे मांगें माफी

हर व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की ईगो होती है. यह इंसानी फितरत है. साक्षी में इतनी ईगो है कि वह पहले तो किसी से भी लड़ लेती है फिर अपनी गलती होते हुए भी गलती नहीं मानती. छोटीछोटी बातों पर बहुत जल्दी गुस्सा हो जाना और पलट कर जवाब देना उस की आदत बन चुकी है.

साक्षी अपनी ईगो को हर रिश्ते से ऊपर रखती है. अपनी ईगो पर जरा सी चोट पहुंचते ही वह कोई भी निर्णय लेने को तैयार हो जाती है. इसी कारण उस की किसी से बनती नहीं है. उस के दोस्तों की संख्या भी कम होती जा रही है.

साक्षी जैसे अनगिनत लोग हैं जो अपनी ईगो के चलते अनमोल रिश्तों को भी खो देते हैं. जीवन का हर रिश्ता अनमोल होता है चाहे वह दोस्त का हो या फिर रिश्तेदार का. हमारा फर्ज है कि हम अपने हर रिश्ते को संभालें व अपनी ईगो के कारण अकारण ही रिश्ते को टूटने से बचाएं.

निम्न बातों पर अमल कर आप अपने रिश्ते को संभाले रख सकते हैं :

– किसी भी बात पर आपसी मतभेद हो जाना आम बात है, लेकिन कभीकभी यह मतभेद उग्र रूप भी ले लेता है. मतभेद या लड़ाई हर जगह होती है पर सौरी बोल कर आप उस मतभेद को खत्म कर के रिश्तों में आई कड़वाहट दूर कर सकते हैं. अगर आप ने अपने सब से अच्छे दोस्त को कुछ ऐसा कह दिया है, जिस से उस की भावनाओं को ठेस पहुंची है तो तुरंत उस से माफी मांग लीजिए. इस से बिगड़ते रिश्ते को संभाला जा सकता है.

अब सवाल यह उठता है कि माफी किस तरह मांगी जाए? चंद उपाय अपना कर आप वापस अपने दोस्त को अपना बना सकते हैं, जो इस प्रकार हैं :

–       फोन पर बात करें. अपनी ईगो को दरकिनार करते हुए पहल करें व उस से फोन कर माफी मांगें. कभी यह न सोचें कि वही आप को फोन करेगा.

–       चिट्ठी लिखें. अगर आप सोच रहे हैं कि यह तरीका तो पुराना हो गया है तो आप गलत सोच रहे हैं. यह तरीका आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था. इस के जरिए आप विस्तारपूर्वक अपनी बात रख पाएंगे. आजकल ईमेल, व्हाट्सऐप, फेसबुक आदि का भी काफी प्रचलन है. आप इन का उपयोग कर माफी मांग सकते हैं.

–       एसएमएस करें. यह भी एक कारगर तरीका है क्योंकि मैसेज तो आप का दोस्त पढ़ ही लेगा. इस तरह से आप माफी भी मांग लेंगे और आप को नीचा दिखना भी महसूस न होगा.

–       अपने दोस्त को मनाने के लिए आप कार्ड व फूल भी दे सकते हैं, जिसे देख कर उस का आप के प्रति गुस्सा काफूर हो जाएगा.

–       कोशिश करें कि बात करते समय अपनी गलती को स्वीकारें.

–       हर तरह के रिस्पौंस के लिए तैयार रहें. जरूरी नहीं कि आप के द्वारा माफी मांगने पर पौजिटिव रिप्लाई ही मिले. इसलिए माफी मांगते समय नकारात्मक नतीजों के लिए भी खुद को तैयार रखें.

–       अगर बारबार माफी मांगने के बावजूद आप को सफलता नहीं मिलती, तो परेशान या निराश न हों. एक न एक दिन आप का दोस्त आप की भावनाओं को जरूर समझेगा और आप को माफ कर ही देगा.

इश्क बजाजी

एक फिल्म में नायक कहता है कि लव इज वेस्ट औफ टाइम. फिर दूसरे ही पल जब वह सुंदर हीरोइन के गलबहियां डालता है तो कहता है कि आई लव दिस वेस्ट औफ टाइम. मतलब यह कि प्यार मिल जाए तो जिंदगी सफल, नहीं तो यह समझो कि बेकार में इधरउधर झख ही मारते रहे.

दुनिया में अमूमन 2 प्रकार का इश्क पाया जाता है, ‘इश्क मजाजी’ और ‘इश्क हकीकी.’ दोनों में अपनेअपने स्वाद व प्रवृत्ति के अनुसार आदमी मसरूफ रहता है. गालिब कहते थे, ‘कहते हैं जिस को इश्क, सब खलल है दिमाग का.’ उन्होंने तो इश्क को बहुत बेकार की चीज कहा है, ‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के.’

लेकिन आज की दौड़भाग भरी जिंदगी में एक तीसरे प्रकार का इश्क ईजाद हुआ है, जिस का नाम है, ‘इश्क बजाजी’ यानी इश्क में आपसी लेनदेन. आजकल ऐसा इश्क बहुतायत में पाया जाने लगा है. एक हाथ दो, एक हाथ लो. इस प्रकार के आधुनिक इश्क में दिल के बदले दिल न दे कर दिल की मुनासिब कीमत दे दी जाती है. हम भी खुश और सामने वाला भी निहाल. इश्क बजाजी में सारे फंडे बिलकुल क्लीयर होते हैं. रातों को जागने या दुखी हो कर तनहाई के मारे तारे गिनने का कोई पंगा नहीं. आहें भरने, गिलेशिकवे करने, दर्द भरी शायरी करने या बेचैनी के मारे अंगारों पर लोटने का कोई झंझट नहीं. सारी रात साजन व सजनी की याद में जल बिन मछली की तरह तड़पने की जरूरत नहीं या करवटें बदलबदल कर दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं. दोपहर में कड़कती धूप में आशिक या महबूबा की एक झलक पाने के लिए घंटों बालकनी, छज्जों या चौबारों पर पागलों की तरह नंगेपांव खड़े होने की भी जरूरत नहीं.

इश्क इन दिनों एक विशुद्ध कारोबारी हिसाबकिताब हो गया है. सबकुछ तय करने में ज्यादा देर नहीं लगती. एक एसएमएस उस ने भेजा, एक मैसेज इधर से गया, समझो कि इश्क हो गया. 4-5 संगीसाथियों को खबर दे दी गई कि अपना फलां के साथ कुछकुछ चालू हो चुका है, अत: तुम बीच में मत आना. तफरीह होने लगी. बस, इश्क बजाजी हो गया. घूमेफिरे, खायापिया, चूमाचाटी की, इतने में कोई तीसरा बीच में आ टपका. पहला इश्क खल्लास. हर तरफ बताया गया कि हमारे बीच महज दोस्ती थी.

अब भी हम अच्छे दोस्त हैं. कमबख्तो, इश्क बहुत ही कमीना हो गया है आजकल. यह है नया इश्क, जो सुविधा की चीज बन चुका है. इश्क में और चाहिए भी क्या. इश्क तो अंधा होता है मगर शादी आंखें खोल देती है. इश्क में महबूबा के गाल के दाग भी डिंपल नजर आते हैं. इश्क का इकोनौमिक्स के साथ बहुत ही गहरा संबंध है. संबंध बिगड़ते भी 2 ही स्थितियों में हैं, एक कड़वा बोलने से और दूसरा पैसों की तंगी से. पैसों के लिए तो आदमी गधे को भी बाप बना लेता है मगर जिस बाप के पास पैसा नहीं, बेटा उसे गधा समझता है. कवि गिरधर कहते हैं कि गांठ में जब तक पैसा है, यार संगसंग डोलता है मगर इधर आदमी दिवालिया हुआ, उधर यार ने बोलना बंद किया. इश्क भी तभी सूझता है जब घर में साल भर का राशन हो.

खांडे़ की धार पर चलने जैसा काम है यह. फिर भी आज का युग थोड़ी सी बेवफाई और छोटी सी लव स्टोरी का है. ज्यादा पचड़ों में पड़ने की क्या जरूरत है. इस फास्टफूड वाले जमाने में देवदास टाइप लंबी रेस के घोड़ों का क्या काम? आज का युग इश्क बजाजी का युग है. झूठी कसमें खाओ और सच्चा प्यार हासिल कर के अगले दरवाजे पर दस्तक दो

हाट बाजार

भारत बंगलादेश की सीमा. घने जंगल, ऊंचेऊंचे वृक्ष, कंटीली झाडि़यां, किनारा तोड़ कर नदियों में समाने को आतुर पोखर और ऊंचीनीची पथरीली, गीली धरती. इसी सीमा पर विपरीत परिस्थितियों में अपनीअपनी सीमाओं की रक्षा करते हुए बीएसएफ और बंगलादेश राइफल्स के जवान. सीमा पर बसे लोगों की शक्लसूरत, कदकाठी, रूपरंग और खानपान एक ही था और दोनों तरफ के रहने वालों के एकदूसरे की तरफ दोस्त थे, रिश्तेदार थे और आपसी मेलजोल था.

दोनों ही तरफ के बाशिंदों की एक पैंडिंग मांग थी कि सीमा पर एक हाट हो जहां दोनों ही ओर के छोटेबड़े व्यापारी अपनेअपने माल की खरीदफरोख्त कर सकें. उन का दावा था कि ऐसा हाट बनाने से गैरकानूनी ढंग से चल रही कार्यवाहियां रुक जाएंगी और किसान एवं खरीदारों को सामान की असली कीमत मिलेगी. राजनैतिक स्तर पर वार्त्ताओं के लंबेलंबे कई दौर चले. कई बार लगा कि ऐसा कोई हाट नहीं बन पाएगा और योजना सिर्फ कागजों तक ही सीमित हो कर रह जाएगी. लेकिन अंतत: दोनों सरकारों को जनता की मांग के सामने झुकना ही पड़ा और दोनों सीमाओं के बीच वाले इलाके पर हाट के लिए जगह का चुनाव कर दिया गया. तय यह भी हुआ कि उस जगह पर एक पक्का बाजार बनेगा जहां सीमा के दोनों तरफ के लोग एक छोटी सी प्रक्रिया के बाद आराम से आ जा सकेंगे और जब तक पक्का हाट नहीं बनता तब तक वहीं एक कच्चा बाजार चलता रहेगा.

टैंडर की औपचारिकता के बाद कोलकाता की एक कंपनी ‘शाहिद ऐंड कंपनी’ को काम का ठेका सौंप दिया गया और कंपनी का मालिक शाहिद अपने साथी मिहिर के साथ भारतबंगलादेश सीमा पर तुरुगांव तक पहुंच गया, जहां से बीएसएफ के जवानों की एक टुकड़ी उन्हें वहां ले गई जहां हाटबाजार का निर्माण करना था. जगह देख कर शाहिद और मिहिर दोनों ही चक्कर खा गए.

‘‘क्या बात है बड़े मियां, किस सोच में पड़ गए?’’ शाहिद को यों हैरान देख कर टुकड़ी के कमांडर ने पूछा और फिर उस के मन की बात जान कर खुद ही बोल पड़ा, ‘‘काम मुश्किल जरूर है मगर नामुमकिन नहीं. बस आप को इस उफनती जिंजीराम नदी का ध्यान रखना है और जंगली जानवरों से खुद को बचाना है, जो यदाकदा आप के सामने बिन बुलाए मेहमानों की तरह टपक पड़ेंगे.’’

‘‘मेहमान वे नहीं हम हैं कप्तान साहब. हम उन के इलाके में बिना उन की इजाजत के अपनेआप को उन पर थोप रहे हैं. खैर, वर्क और्डर के मुताबिक यहां 50 दुकानें, एक मीटिंग हौल, एक छोटा सा बैंक काउंटर और एक दफ्तर बनना है,’’  शाहिद ने नक्शे पर नजर गड़ाते हुए कहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा आप ने इंजीनियर साहब. मगर काम शुरू करने से पहले एक जरूरी बात आप को बता दूं,’’ कप्तान मंजीत ने बड़ी संजीदगी से कहा, ‘‘इस इलाके को जहां हम सब खड़े हैं, ‘नो मैन लैंड’ कहते हैं यानी न भारत न बंगलादेश. काफी संवेदनशील जगह है यह. बंगलादेशियों की लाख कोशिशों के बावजूद हम ने यहां उन के गांव बसने नहीं दिए. इसे वैसे ही रखा जैसे अंतर्राष्ट्रीय कानून में उल्लेखित है. इसलिए यहां आप और आप के मजदूर सिर्फ अपने काम से काम रखेंगे और भूल कर भी आगे जाने की कोशिश नहीं करेंगे. बंगलादेशी यों तो हमारे दोस्त हैं, लेकिन कभीकभी दुश्मनों जैसी हरकतें करने से गुरेज नहीं करते हैं. शक ने अभी भी उन के दिमाग से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा है. तभी तो इस काम के लिए फौज का महकमा होते हुए भी समझौते के तहत हमें आप जैसे सिविलियंस की सेवाएं लेनी पड़ीं.’’

शाहिद ने अगले दिन से ही अपना काम शुरू कर दिया. लेकिन सप्ताह में 2 दिन काम की गति तब कम हो जाती जब वहां कच्ची दुकानों में दुकानदारों और ग्राहकों का हुजूम इकट्ठा हो जाता. भारतीय दुकानदार जहां कपड़े, मिठाइयां और बांस के बने खिलौने वगैरह बेचते, वहीं बंगलादेशी व्यापारी मछली और अंडे इत्यादि अधिक से अधिक मात्रा मेें ला कर बेचते. लेनदेन दोनों तरफ की करैंसी में होता.

शाहिद ने वहीं पास के गांव में एक छोटा सा घर ले लिया और अपने अच्छे व्यवहार से धीरेधीरे लोगों का दिल जीत लिया. घर के कामकाज के लिए उस ने एक बुजुर्ग महिला मानसी की सेवाएं ली थीं. मानसी दाईमां का काम करती थी. मगर उम्र के तकाजे की वजह से उस ने वह काम बंद कर दिया था. मानसी को शाहिद प्यार से मानसी मां कहता.

एक दिन बरसात ने पूरे इलाके को अपनी आगोश में जकड़ लिया. उस वक्त नदी पूरे उफान पर थी और उस का पानी लकड़ी के बने पुल तक पहुंच रहा था. बंगलादेशी व्यापारियों में चिंता बढ़ती जा रही थी. शाहिद की नजरें बेबस लोगों को देख रही थीं कि अचानक उस की नजरें ठिठक गईं. एक लड़की अपने सामान और पैसों को बरसात के पानी और तेज हवा से बचाने का असफल प्रयास कर रही थी. देखते ही देखते हवा का एक तेज झोंका आया, तो लड़की का संतुलन बिगड़ा और उस के हाथ का थैला और सामान की गठरी छिटक के दूर जा गिरी. शाहिद को न जाने क्या सूझा. उस ने पल भर में उफनते पानी में छलांग लगा दी और इत्तफाक से बिना ज्यादा मशक्कत के दोनों ही चीजें हासिल करने में सफल हो गया.

‘‘ये लीजिए अपना सामान,’’ शाहिद ने सामान लड़की को थमाते हुए कहा.

‘‘जी धन्यवाद,’’ लड़की ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा. कुछ देर के इंतजार के बाद बरसात का प्रकोप कम हुआ, तो एकएक कर के सभी बंगलादेशी शुक्र मनाते हुए अपनी सीमा की ओर बढ़ने लगे. लड़की जातेजाते कनखियों से शाहिद को देखती जा रही थी. धीरेधीरे लड़की की नाव शाहिद की आंखों से ओझल होने लगी, लेकिन शाहिद एकटक जाती हुई नौका को तब तक निहारता रहा जब तक मिहिर की कर्कश आवाज ने उस की तंद्रा भंग नहीं कर दी.

उस दिन के बाद हर मंगलवार और शुक्रवार को शाहिद अपना सारा कामकाज छोड़ कर हाट में उस लड़की को ढूंढ़ता रहता. एक दिन वह अपना सामान बेचती हुई दिखी तो तुरंत उस के पास पहुंचा. उस ने नजरें उठा कर देखा तो वह तुरंत उस से बोला, ‘‘आज आप सिंदूर नहीं लाईं. मेरी मानसी मां ने मंगवाया था,’’ ऐसा उस ने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के उद्देश्य से कहा था.

‘‘हां, लीजिए न,’’ लड़की ने शर्माते हुए कहा.

‘‘ये लीजिए क्व100. कम हों तो बता दीजिए.’’

‘‘मैं आप से पैसे कैसे ले सकती हूं. आप ने उस दिन मेरी कितनी मदद की थी.’’

‘‘अच्छा तो एक शर्त है. मैं खाने का डब्बा लाया हूं. मेरी मानसी मां ने बड़े प्यार से बनाया है. आप को भी थोड़ा खाना होगा.’’

‘‘खाना तो हम भी घर से लाए हैं,’’ लड़की ने हौले से कहा.

‘‘ठीक है. फिर हमारी मां का बनाया खाना आप खाइए और आप का लाया खाना मैं खाऊंगा,’’ शाहिद ने प्रसन्न होते हुए कहा.

‘‘ये क्या कर रही हो रुखसार?’’ एक भारीभरकम आवाज ने दोनों को खाना खाते देख कर टोका, ‘‘किस के साथ मिलजुल रही हो? जानती नहीं यह उस तरफ का है. जल्दी से खाना खत्म कर बाकी बचा माल बेचो. मुझ से इतना माल ढोने की उम्मीद मत करना.’’

‘‘माल तो तुम्हें ही ढोना पड़ेगा जमाल भाईजान. अब मैं तो उठाने से रही.’’

शाम को हूटर बजते ही सभी व्यापारी अपनाअपना माल समेटने लगे और देखते ही देखते सब की गठरियां तैयार हो गईं. रुखसार ने बड़े सलीके से गठरियां बांधीं और अपने भाई की राह देखने लगी. थोड़ी देर में एकएक कर के सभी जाने लगे. लेकिन जमाल का कहीं पता न था. तभी दूर खड़ा शाहिद रुखसार की परेशानी भांपते हुए करीब आया और बोला, ‘‘अगर जमाल नहीं आया तो कोई बात नहीं आप का सामान नाव में मैं रखवा देता हूं, आप परेशान न हों.’’

रुखसार ने सामान पर एक नजर डाली और बोली, ‘‘परेशानी इधर की नहीं इंजीनियर बाबू उधर की है. हमारा घर जिंजीराम नदी के किनारे से 2-3 मील के फासले पर है. कोई कुली या ठेले वाला वहां नहीं मिलता, जो हमारी मदद करे.’’

‘‘एक उपाय है रुखसारजी, आप को अगर हम पर विश्वास हो तो यह सामान आप हमारे क्वार्टर में रखवा दें. शुक्रवार को आइएगा तो ले लीजिएगा.’’

उस रोज के बाद सामान रखने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उस के साथ ही शुरुआत हुई उस रिश्ते की जिस ने न सीमा देखी न राष्ट्रीयता. रुखसार और शाहिद एक ऐसी दुनिया में प्रवेश कर चुके थे, जिस में दूर तक सिर्फ अंधेरा ही नजर आता था. शाहिद का बदला रूप और रंगढंग गांव वालों से छिप न सका. मानसी मां ने तो बस एक ही जिद कर रखी थी कि किसी भी तरीके से शाहिद रुखसार को घर ले आए. शाहिद कई दिन तक टालमटोल करता रहा और एक दिन रुखसार से मानसी मां की इच्छा कह दी.

संतरियों से बच कर और सब की आंखों में धूल झोंक कर शाहिद एक दिन रुखसार को घर ले आया. मानसी से मिलवाने के बाद शाहिद रुखसार को वापस ले कर जा ही रहा था कि मिहिर ने आ कर यह खबर दी कि बंगलादेशी गार्ड्स की एक टुकड़ी किसी खास मकसद से कोनेकोने में फैल गई है और बीएसएफ के सिपाहियों के साथ मिल कर किसी आतंकवादी दल की तलाश में जुट गई है. शाहिद असमंजस में पड़ गया. सब ने राय दी कि ऐसे बिगड़े माहौल में रुखसार को ले जाना खतरे से खाली न होगा. अंधेरा बढ़ता जा रहा था और सन्नाटा सारे इलाके में पसर गया था. रुखसार का दिल घबराहट के मारे बैठा जा रहा था, लेकिन उसे अपने प्यार पर पूरा विश्वास था. शाहिद का साथ पाने के लिए वह किसी भी मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार थी. बीचबीच में सिपाहियों के बूट की आवाज सन्नाटे को चीर कर गांव वालों के कानों को भेद रही थी. ऐसा लग रहा था कि हर घर की तलाशी ली जा रही हो.

‘‘रुखसार आप के घर में रह सकती है, मगर तभी जब उस का निकाह आप के साथ अभी हो जाए,’’ सभी गांव वालों की यह राय थी. शाहिद के समझानेबुझाने का किसी पर कोई असर नहीं हो रहा था. न ही कोई रुखसार को अपने घर में रखने को तैयार था. मानसी का घर भी 2 गांव छोड़ कर था. लिहाजा वहां भी पहुंचना उन परिस्थितियों में नामुमकिन था. शाहिद बिना समय गंवाए किसी फैसले तक पहुंचना चाहता था. उस ने एक नजर रुखसार पर डाली, जो बुत बनी खड़ी थी. उसे भरोसा था कि शाहिद जो भी करेगा ठीक ही करेगा. अंतत: वही हुआ जो सब ने एक सुर में कहा था, काजी ने दोनों का निकाह करवाया. इस शादी में न बरात थी, न घोड़ी, न बैंड न बाजा बस दिलों का मिलन था.

मानसी ने दिल से कई तरह के पकवान बनाए, जो गांव वालों ने मिलजुल कर मगर छिप कर ऐसे खाए मानो अंधरे में अपराध की किसी घटना को अंजाम दे रहे हों. 4 दिन बाद जब रुखसार की रुखसत का वक्त आया तो उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. रुखसार ने रुंधे गले से कहा, ‘‘तुम कहीं मुझे बीच राह में छोड़ तो नहीं दोगे? मैं अनाथ हूं. आगेपीछे मेरा एक चचेरा भाई जमाल है या फिर पड़ोसी. बस इतनी सी है मेरी दुनिया.’’ ‘‘कुदरत को शायद हमें मिलाना ही था और शायद उसे यही तरीका मंजूर होगा. अब तुम हाट में जा कर अपने लोगों में यों घुलमिल जाओ मानो तुम आज ही उन के साथ आई हो. किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि तुम 4 दिन यहां रही हो,’’ शाहिद उस से बोला.

रुखसार फुरती से चल कर हाट तक पहुंच गई और अपनी झोंपड़ीनुमा दुकान पर जा कर ही दम लिया. मिहिर ने पहले ही वहां सामान रख दिया था. रुखसार ने सामान सजाना शुरू किया और स्वयं को संयत रखने का प्रयत्न कर ही रही थी कि किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया. देखा तो सामने जमाल था. वह बोला, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम 4 दिन कहां थीं. तुम भूल गई हो रुखसार कि तुम एक बंगलादेशी हो और वह एक हिंदुस्तानी. कैसे तुम उस के प्यार के चक्कर में पड़ गईं? अपनेआप को संभालो रुखसार. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. वापस लौट चलो.’’

‘‘मैं बहुत दूर निकल आई हूं जमाल. अब तो सिर्फ मौत ही मुझे उस से जुदा कर सकती है. सिर्फ मौत,’’ रुखसार का जवाब था.

शाहिद अपने प्रोजैक्ट की प्रगति के बारे में कप्तान मंजीत और दिल्ली से आए मंत्रालय के अफसरों से मीटिंग कर के घर लौटा तो परेशान था. मंत्रालय ने 1 साल से ज्यादा समयसीमा बढ़ाने की अर्जी नामंजूर कर दी थी. मानसी ने शाहिद को परेशान देख कर सवाल दागे तो उसे बताना ही पड़ा, ‘‘लगता है मां कि अब दिनरात काम करना पड़ेगा, रोशनी का पूरा इंतजाम होने के बाद हो सकता है मैं रात को भी वहीं रहूं.’’

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि रुखसार भी मेरे साथ वहीं रह जाए, उसी जगह?’’

शाहिद मानसी मां की मासूमियत पर मुसकरा दिया, ‘‘कोशिश करूंगा कि रुखसार को भारत की नागरिकता जल्दी ही मिल जाए.’’ शाहिद सारी रात सो नहीं पाया. अगले दिन उसे काम के सिलसिले में पैसों व अन्य साजोसामान के इंतजाम के लिए शिलौंग, अगरतला और कोलकाता जाना था. सारे रास्ते वह रुखसार के बारे में ही सोचता रहा. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि जिंदगी उसे कभी ऐसे मुकाम पर भी ला कर खड़ा कर देगी.

शाहिद जब वापस लौटा तो इलाका फिर बरसात की गिरफ्त में था. जीरो लाइन की तरफ जाते हुए उसे रास्ते में कप्तान मंजीत मिल गए और बोले, ‘‘क्या बात है शाहिद, आजकल तू कम ही नजर आता है,’’ काम की वजह है या कोई और चक्कर है? ‘‘आप भी सरदारजी खिंचाई करने का कोई मौका हाथ से गंवाते नहीं हो. एक तो उबड़खाबड़ जमीन, उस पर भयानक जंगल, जंगली जानवरों का खौफ, कयामत ढाती बरसात और उड़ाने को तैयार हवाएं, ऐसे हालात में रह कर भी आप देश की रक्षा करते हो, यह काबिलेतारिफ है.’’

‘‘एक काम कर शाहिद, यहां कोई चंगी सी कुड़ी देख कर उस से ब्याह कर ले. खबर है कि ऐसे और भी कई छोटेबड़े हाटबाजार खुलने वाले हैं. फिर तो बड़े आराम से जिंदगी गुजरेगी यहां.’’ शाहिद कप्तान की बात पर झेंप गया.

‘‘हां, शाहिद एक बात और. खबर है कि इस बौर्डर के रास्ते पाकिस्तानी आईएसआई भारत में आतंकवादी गतिविधियां करने की फिराक में है, इसलिए सावधान रहना. और कोई ऐसीवैसी बात नजर आए तो फौरन खबर देना,’’ मंजीत ने जातेजाते कहा.

शाहिद जब हाट पहुंचा तो उस ने रुखसार को बेकरारी से इंतजार करते हुए पाया. चाह कर भी वे दोनों वहां मिल नहीं पाए. दफ्तर में जब मिले तो रुखसार को एहसास हो गया कि शाहिद की तबीयत बहुत खराब है. बड़ी मुश्किल से दोनों शाहिद के छोटे से घर में पहुंचे और वहां रुखसार ने उसे जबरदस्ती दवा खिला कर सुला दिया. शाहिद की जब आंख खुली तो बहुत देर हो चुकी थी. आखिरी नाव भी जा चुकी थी और दोनों ही तरफ के लोग अपनीअपनी सीमाओं की तरफ जा चुके थे. अंधेरे और सन्नाटे ने पूरा इलाका घेर लिया था. मिहिर को आता देख रुखसार की जान में जान आई. रुखसार ने जमाल से हुई सारी बात मिहिर को बताई. रुखसार की घबराहट भांप कर मिहिर भी सोच में पड़ गया. उस पर दोनों तरफ ही गार्ड किसी वजह से ज्यादा ही सख्ती दिखा रहे थे. ऐसे में रुखसार का वहां से निकलना बहुत मुश्किल था. लिहाजा वहां रहने के अलावा रुखसार के पास कोई चारा नहीं था.

रुखसार रात को वहीं रुक गई और हाटबाजार के अगले पड़ाव तक वहीं रही. 4 दिन बाद जब बाजार में गई तो जमाल गुस्से से लालपीला हो रहा था, ‘‘तुम आखिर चाहती क्या हो? क्यों अपने साथ मेरी जिंदगी भी खतरे में डाल रही हो. अगर इश्क किया है तो या तुम भारत जाओ या उसे बंगलादेश ले जाओ. यों चूहेबिल्ली का खेल बंद करो.’’ ‘‘जमाल तुम जानते हो कि यह मुमकिन नहीं है. शाहिद कोशिश कर रहा है, लेकिन इस में समय कितना लगेगा यह हमें भी नहीं पता. पता नहीं ऐसा हो भी पाएगा या नहीं.’’

‘‘तो तब तक तुम…’’ जमाल कुछ सोचने लगा. फिर बोला, ‘‘मेरी राय है कि यहीं रहो. जब तक तुम्हें भारत की नागरिकता नहीं मिल जाती यहां तुम पूरी तरह से महफूज हो. बस तुम्हें इन चारदीवारी में रहना होगा. मैं सब से कह दूंगा कि तुम चटगांव में किसी कारखाने में काम कर रही हो.’’

‘‘लेकिन…’’ रुखसार कुछ कहना चाह रही थी मगर जमाल ने उसे इशारे से रोक दिया और कहा, ‘‘देखो रुखसार, यह थोड़े दिनों की ही परेशानी है. कप्तान साहब और अन्य गांव वालों की मदद से तुम्हें जल्दी ही भारत की नागरिकता मिल जाएगी. फिर सब ठीक हो जाएगा.’’

समय अपनी गति से बढ़ता गया और हाटबाजार का काम भी अपनी गति से बढ़ता गया. सरकार काम में हो रही प्रगति से संतुष्ट थी और इंसपैक्शन के दौरान सरकार ने काम में आ रही बाधाओं के मद्देनजर 6 महीने की अवधि और बढ़ा दी. उधर रुखसार को मानो एकाकी जीवन जीने की आदत सी पड़ गई थी. कभीकभी जमाल स्टोर में सामान लेने व रखने आता, तो वह उत्कंठा से गांव का हालचाल पूछती. इस के अलावा तो वह बिलकुल तनहा थी. शाहिद के आने से उस के होंठों पर मुसकान फैल जाती. शाहिद रुखसार को देखता तो उसे बहुत दुख होता. कई बार उसे आत्मग्लानि भी होती. उसे लगता कि जो कुछ भी हुआ सब का कुसूरवार वही है. एक दिन उस के चेहरे के भाव देख कर रुखसार ने उस से कहा, ‘‘तुम खुद को दोषी क्यों मानते हो? यही हमारा जीवन है, यही हमारी नियति है.’’

‘‘लेकिन सारा दिन तुम अकेली वक्त गुजारती हो. यह जिंदगी मैं ने दी है तुम्हें. मैं बता नहीं सकता कि मुझे कैसा लगता है. मैं कभी भी खुद को माफ नहीं कर पाऊंगा.’’

‘‘तुम खुद को बिलकुल कुसूरवार मत समझो. यह फैसला सिर्फ तुम्हारा ही नहीं था. मैं भी इस में बराबर की हिस्सेदार थी. और मैं अकेली कहां हूं? दिन भर मूर्तियां बनाती हूं, उन्हें सजाती हूं, संवारती हूं, जिस से मानसी मां को 4 पैसे मिल जाते हैं.’’ फिर कुछ सोच कर धीरे से बोली, ‘‘क्या हुआ मेरी भारत की नागरिकता का?’’

‘‘मैं कोशिश कर रहा हूं, लेकिन सरकारें अभी बहुत सख्त हो गई हैं. थोड़ा इंतजार करना पड़ सकता है.’’

‘‘मैं तो इंतजार कर सकती हूं, शायद तुम भी कर सकते हो मगर वह जो आने वाला मेहमान है उस के बारे में सोचती हूं तो रूह कांप जाती है कि क्या होगा उस का?’’

एक रात सायंसायं करती हवा और हिंसक पशुओं की तरह झूमते पेड़ों की कर्कश आवाज से रुखसार की घबराहट से आंख खुली. शाहिद अभी नहीं आया था, लेकिन एक साया स्टोर की तरफ जा रहा था. रुखसार का दिल बैठ गया. चीख मानो हलक में ही अटक गई. धीरेधीरे साया कुछ साफ हुआ…वह जमाल था.

‘‘तुम…तुम इस वक्त यहां क्या कर रहे हो?’’ रुखसार की आवाज में तल्खी थी.

‘‘कुछ नहीं… तुम सो जाओ, मैं कुछ सामान रख कर चला जाऊंगा.’’

‘‘मगर आज तो कोई हाट नहीं था. क्या सामान रखने आए हो तुम?’’ रुखसार की आवाज और सख्त हो गई थी.

जमाल ने भी लगभग उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘तुम चुपचाप यहां अपने दिन गुजारो. समझ लो यह मेरी खामोशी की कीमत है. मैं जब चाहूं बिना रोकटोक के यहां आ जा सकता हूं. अगर तुम ने कोई चालाकी दिखाने की कोशिश की तो, भयानक अंजाम के लिए तैयार रहना.’’

रुखसार को काटो तो खून नहीं, ‘‘जमाल, तो इसलिए तुम ने मुझे यहां रहने के लिए उकसाया था और मैं अनाड़ी नादान अब तक यह समझ रही थी कि मेरा भाई अपना प्यार मुझ पर उड़ेल रहा है. तुम ने मेरी हालत का, मेरे भरोसे का गलत फायदा उठाने की कोशिश की है. लेकिन मैं तुम्हारे मंसूबे कामयाब नहीं होने दूंगी. मेरे लिए दोनों मुल्क मेरे अपने हैं. तुम जानते हो मैं अगर कोई फैसला करती हूं तो अंजाम का सामना करने को तैयार रहती हूं.’’

‘‘तुम तो नाहक ही परेशान हो रही हो,’’ जमाल ने पैतरा बदला.

‘‘मैं कल सुबह सारा सामान यहां से ले जाऊंगा. तुम बेफिक्र हो कर सो जाओ.’’

‘‘इसी में तुम्हारी भलाई है और मेरी भी,’’ रुखसार ने धीरे से कहा.

रुखसार की आंखों में नींद का नाम न था. आने वाली विपत्तियों के बारे में सोचसोच कर वह परेशान हो रही थी. किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत रुखसार को थोड़ा चैन तब मिला जब उस ने शाहिद को आते देखा. आते ही वह बोला, ‘‘मानसी मां यहां आने की जिद पकड़े बैठी हैं और अगर वे यहां आती हैं तो खतरा और बढ़ जाएगा. बीएसएफ वाले तो शायद फिर भी मान जाएं मगर बंगलादेशी गार्ड्स मौके को हाथ से जाने नहीं देंगे. मगर और कोई उपाय भी नहीं नजर आ रहा. ऐसी परिस्थिति में अगर सरेंडर भी करते हैं, तो भी समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा, बल्कि जेल की सलाखों के पीछे एक गुमनाम मौत मरना होगा.’’

इसी उधेड़बुन में रात बीत गई और इसी तरह कई दिन और कई रातें बीत गईं. कुदरत मेहरबान थी कि मानसी की उपस्थिति का अभी तक किसी को आभास नहीं हुआ. काम की गहमागहमी में सब कुछ छिपा रह गया. कहते हैं, जब हालात विपरीत हों तो कुरदत को भी हालात के शिकार लोगों पर तरस आ ही जाता है. बच्चे का जन्म समय से पहले हो गया था. इस के बावजूद बच्चा स्वस्थ और सुंदर हुआ था. मानसी ने सारा इंतजाम और व्यवस्थाएं धीरेधीरे कर ली थीं ताकि ऐन मौके पर किसी चीज के लिए परेशानी न हो और मन ही मन दुआ कर रही थी की कुदरत का रहम बना रहे और सब कुछ ठीकठाक हो जाए.

दिन भर तो काम के शोर में बच्चे के रोने की आवाज दब जाती मगर रात के सन्नाटे में यह काम मुश्किल हो जाता. शाहिद और रुखसार ने यह फैसला किया की किसी भी तरीके से गैरकानूनी ढंग से ही सही शिलौंग या अगरतला से होती हुई दिल्ली की तरफ चली जाएगी और अवैध रूप से रह रहे बंगलादेशियों की भीड़ का एक हिस्सा बन जाएगी. लेकिन तभी वह हुआ जिस का रुखसार को डर था. जमाल ने धीरेधीरे अपनी गतिविधियां और भी तेज कर ली थीं और रुखसार को समझ में आ रहा था कि जमाल किसी बड़े गैरकानूनी गिरोह के लिए काम कर रहा है.

‘‘क्या है इस गट्ठर में?’’ रुखसार ने एक दिन सामान उतरवाते हुए जमाल से सख्ती से पूछा, तो जमाल की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘सूखी मछलियां हैं. तुम तो शाकाहारी हो. नहीं तो तुम्हारे लिए 5-10 छोड़ देता.’’

‘‘मैं खाती नहीं पर इतना तो जानती हूं की सूखी मछलियां इतनी भारी नहीं होतीं कि उन का गट्ठर आदमियों से भी मुश्किल से उठे.’’

‘‘हां इस में कुछ और भी है. लेकिन जो भी है वह भारत को अंदर तक खोखला कर देगा और इसलाम को मजबूत.’’

‘‘चुप रहो,’’ रुखसार गरजी, ‘‘इसलाम इतना कमजोर नहीं कि वह पाकिस्तान का बाजू थामे. पाकिस्तान एक कुंठित मुल्क है. भारत से मिल रही लगातार हार से परेशान हो कर वह यह सब कर रहा है. मगर तुम तो एक बंगलादेशी हो. भूल गए कि भारत के हम पर कितने एहसान हैं. पाकिस्तान के दबाव में आ कर एहसान फरामोश बंगलादेशियों की भीड़ में अपनेआप को शामिल मत करो मेरे भाई. आज अगर हम जिंदा हैं तो इन्हीं हिंदुस्तानियों की बदौलत वरना पाकिस्तान ने तो हमें गुमनामी के गर्त में धकेलने में कोई कमी नहीं रखी थी.’’

जमाल ने रुखसार की पूरी बात नहीं सुनी. वह अंधेरे की आड़ में गायब हो गया. शाहिद लौटा तो रुखसार ने उसे सारी बात विस्तार से बता दी.

‘‘मैं जमाल का नापाक इरादा पूरा नहीं होने दूंगा. अपने सुखचैन के लिए मैं अपने मुल्क से गद्दारी नहीं करूंगा. मैं कप्तान मंजीत को सब कुछ सचसच बता दूंगा. भले ही इस का अंजाम कुछ भी क्यों न हो,’’ शाहिद ने मानो पक्का फैसला कर लिया और जीरो लाइन के करीब पोस्ट की तरफ चल पड़ा.

‘‘साहब तो कहीं फौरवर्ड एरिया में गए हैं,’’ संतरी ने बताया.

‘‘अच्छा कप्तान साहब आएं तो कहना मैं आया था. कोई जरूरी काम है. मैं सुबह फिर आऊंगा.’’

पौ फटते ही शाहिद फिर मंजीत से मिलने के लिए निकला, तो सामने से आती बीएसएफ और बंगलादेशी गार्ड्स की संयुक्त टुकड़ी को अपनी ओर आते हुए देख कर ठिठक गया. अनिष्ट की आशंका को इनसान की परेशानी पर पसीने के रूप में आने से ठंडी और बर्फीली हवा भी नहीं रोक सकती. शाहिद चाह कर भी पसीना पोंछ नहीं पाया.

‘‘हमें तुम्हारे स्टोर की तलाशी लेनी है. इन्हें शक है कि इस जगह का इस्तेमाल आईएसआई के एजेंट अपने उन हथियारों को रखने के लिए करते हैं, जो भारत में गड़बड़ी के इरादे से भेजे जाते हैं,’’ मंजीत ने बंगलादेशी कप्तान की ओर इशारा करते हुए कहा.

शाहिद को काटो तो खून नहीं, ‘‘यह एक लंबी कहानी है कप्तान साहब. मैं कल रात को सब सच बयां करने के लिए आप की पोस्ट पर गया था. मगर आप वहां नहीं थे. यह सारा सामान रुखसार के भाई जमाल का है.’’

‘‘रुखसार कौन, वही बंगलादेशी लड़की न, जिसे आप ने डूबने से बचाया था? उस का आप से क्या रिश्ता है?’’ मंजीत ने सवाल दागा.

‘‘मैं बताती हूं,’’ रुखसार ने बाहर निकल कर आत्मविश्वास के साथ कहना शुरू किया, ‘‘यह अमन है मेरा बच्चा. यह यहीं इसी बियाबान जंगल में पैदा हुआ है. मैं शाहिद की ब्याहता हूं, हमारा बाकायदा निकाह हुआ है.’’

कप्तान मंजीत और बंगलादेशी गार्ड दोनों हतप्रभ हो कर एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘क्या तुम दोनों नहीं जानते कि तुम मुख्तलिफ मुल्कों के बाशिंदे हो और जो तुम ने किया वह गैरकानूनी है,’’ मंजीत बोले.

‘‘शादी के अलावा हम ने कोई भी काम गैरकानूनी नहीं किया है,’’ शाहिद ने आहिस्ता से कहा, ‘‘हम ने सिर्फ प्यार किया है. इस के अलावा कोई गुनाह नहीं किया है. न हम ने कोई कानून तोड़ा है, न कोई गद्दारी की है.’’

‘‘इस का फैसला कानून करेगा,’’ मंजीत ने कहा फिर शाहिद को अपनी जीप में बैठा लिया. बंगलादेशी गार्ड ने बच्चा रुखसार की गोद से छीन लिया और उस को जीप में धकेल दिया. जीप जब चलने को हुई तो रुखसार चीख उठी, ‘‘मेरा बच्चा…’’

रुखसार की चीख का बंगला गार्ड पर कोई असर नहीं हुआ. वह बोला, ‘‘तुम्हारा बच्चा न इंडियन है न बंगलादेशी, इसलिए वह कहीं और रहेगा. और तुम बंगलादेश की जेल में सड़ोगी और तुम्हारा खाविंद हिंदुस्तानी जेल में हवा खाएगा.’’

‘‘यह अन्याय है, एक मासूम पर जुल्म है. हमारे जुर्म की सजा इसे क्यों दी जा रही है? यह कहां रहेगा किस के पास रहेगा? अगर बच्चा दोनों मुल्कों के बीच की धरती में पैदा हुआ है तो क्या वह इनसान नहीं है?’’ रुखसार चीखती जा रही थी और जीप उसी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी.

कप्तान मंजीत ने शाहिद के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘तुम बेफिक्र रहो. मैं तुरंत रैडक्रौस को वायरलैस भिजवा कर उन की नर्स को बुलवाता हूं और बाकी इंतजाम करवाता हूं.’’

शाहिद को भारतीय जेल में डाल दिया गया और रुखसार बंगलादेश की जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दी गई. ‘नो मैन लैंड’ में जन्मा मासूम अमन रैडक्रौस के हवाले कर दिया गया और मीडिया के कैमरों की मेहरबानी से दोनों ओर की सीमा पर अमन को दूर से देखने वालों का तांता लग गया. वह समाचार, नेताओं और एनजीओ के सदस्यों के लिए चाय के प्याले पर चलने वाली बहस का एक मुद्दा भी बन गया. टीआरपी बढ़ाने के लिए इस विषय पर टीवी चैनलों में होड़ सी लग गई और अमन को इंसाफ दिलाने की मुहिम हर शहर, हर गांव तक पहुंच गई.

यह बात कि अमन नाम का एक बच्चा दोनों सरहदों के बीच जन्म लेने के जुर्म की सजा पा रहा है और दोनों देशों के बीच अपनी पहचान ढूंढ़ रहा है, दोनों देशों की सरकारों के कानों तक भी पहुंच चुकी थी. नन्हा अमन रैडक्रौस की नर्सों से इठलाते हुए कभी भारत की सीमा की ओर मुंह कर लेता, तो कभी बंगलादेश की सरहद की तरफ इशारा कर देता मानो अपने वजूद की तलाश कर रहा हो या याचना कर रहा हो कि मेरा कुसूर क्या है? जमाल में शायद कुछ इंसानियत जिंदा रह गई थी. उस ने ऐसा बयान दिया कि रुखसार पर कोई आंच नहीं आई. उधर कप्तान मंजीत और गांव वालों ने शाहिद को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सजा के तौर पर शाहिद का ठेका रद्द कर दिया गया और हाटबाजार का काम रोक दिया गया.

धीरेधीरे बेबस शाहिद, रुखसार और अमन का मामला अंतर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन गया और कोलकाता एवं ढाका दोनों के न्यायालयों में याचिकाएं दायर हो गईं. दोनों ही देशों के मानवाधिकार आयोग भी सक्रिय हो गए. दोनों ही न्यायालयों ने सख्त रवैया अपनाते हुए लगभग एकजैसा फैसला सुनाया कि अमन के बालिग होने तक उसे रैडक्रौस के संरक्षण में रखा जाए. उस के बाद ही मामला फिर सुना जाए. शाहिद और रुखसार टूट गए. लगा वक्त ठहर गया है और इस गहरी भयानक काली रात का कोई अंत नहीं है. लेकिन तभी आशा की एक किरण से ऐसा प्रकाश फूटा जिस ने तीनों की जिंदगी को पूर्णतया रोशन कर दिया. हताशा और बेबसी की लहरों के बीच कुदरत ने अपना करतब दिखाया और उफनती लहरों के शांत होने की उम्मीद जाग उठी.

भारत और बंगलादेश की सीमा पर कुछ गांवों की अदलाबदली का मामला दसियों सालों से निलंबित था. सरकारें बदलती गईं मगर इस प्रक्रिया की कोई शुरुआत नहीं हो पाई. नियति ने मानो इस मामले को शाहिद, रुखसार और अमन के लिए ही बचा कर रखा हुआ था. दोनों सरकारों ने नई अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखाएं तय कीं और अदलाबदली किए जाने वाले इलाकों को चिहिन्त किया. इसी समझौते के अंतर्गत जिंजराम नदी के मुहाने के कई बंगलादेशी गांव भारत में शामिल हो गए और वहां के नागरिकों को यह अख्तियार और विकल्प दिया गया कि वे भारत अथवा बंगलादेश की नागरिकता का स्वेच्छा से चुनाव करें.

वह दिन किसी मेले से कम नहीं था. रैडक्रौस ने भारतीय और बंगलादेशी अधिकारियों की उपस्थिति में अमन को रुखसार की गोद में डाल दिया. जिस की आंखों से आंसू अविरल और अनवरत बहते जा रहे थे. रुखसार और शाहिद के अलावा न सिर्फ मानसी मां, बल्कि पूरे गांव वाले भी अपने आंसू छिपा नहीं पा रहे थे और सब के हाथ स्वत: ही आशीर्वाद स्वरूप उठ गए थे. दूर कहीं से नगाड़ों के बजने की आवाज पूरे वातावरण में गूंज रही थी. देशों की राजनीति से बिछड़ा प्यार फिर मिल रहा था.

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