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जब भी मैं खाना खाती हूं मुझे कड़वा लगता है, मैं क्या करूं?

सवाल
मैं 32 साल की स्त्री हूं. पिछले 2-3 साल से जब भी खाना खाती हूं कुछ मिनट बाद खाना मुंह में आ जाता है और मुंह जहर की तरह कड़वा हो जाता है. मुंह और खाने की नली में खट्टास भर जाती है.  बताएं क्या करूं?     

जवाब
आप की समस्या गैस्ट्रोइसोफेजिअल रिफ्लक्स की है. यह विकार हार्टबर्न के नाम से भी जाना जाता है. हमारी खाने की नली और आमाशय के बीच 1 एकतरफा खुलने वाला कुदरती वाल्व लगा होता है. यह वाल्व खाने को आगे आमाशय की ओर तो जाने देता है, लेकिन आमाशय में आ चुके भोजन को खाने की नली में नहीं लौटने देता. कुछ लोगों में यह वाल्व कमजोर पड़ जाता है और ठीक से काम नहीं करता. ऐसे में आमाशय में आया भोजन और आमाशय में पाचन के लिए बिना हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड पलट कर खाने की नली में जाने लगता है. खाने की नली की अंदरूनी सतह हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड के तीव्र ऐसिडिक गुण को सह नहीं पाती. नतीजतन कलेजे में अगन लगने लगती है, मुंह में खट्टा खारा पानी भर आता है.

भोजन में जरूरत से ज्यादा मिर्चमसाले, बदपरहेजी, 5-6 प्याले चायकौफी किसी स्वस्थ व्यक्ति के कलेजे में भी गैस्ट्रोइसोफेजिअल रिफ्लक्स उपजा कर जलन उत्पन्न कर सकती है.

हार्टबर्न का खानपान से गहरा संबंध है. तली चीजें, अधिक घी, चरबी वाले व्यंजन, टमाटर, प्याज, लालमिर्च, कालीमिर्च, संतरा, मौसमी, चौकलेट आदि खाने की नली पर लगे वाल्व की ताकत घटाते हैं, इसलिए इन से परहेज अच्छा है. इसी प्रकार चायकौफी और कोल्ड ड्रिंक्स भी कम से कम लेने में भलाई है. सिगरेटबीड़ी, खैनी, तंबाकू, पानमसाले से जितना दूर रहें उतना ही अच्छा है.

भोजन करने के बाद अगले 2-3 घंटों तक न तो लेटें और न ही झुकें. या तो सीधे बैठें या टहल सकें तो टहल लें. लेटने और झुकने से गुरुत्वीय प्रभाव के कारण भोजन आमाशय से खाने की नली में लौटने की प्रवृत्ति रखता है. देर रात में भोजन करने और भोजन करते ही सो जाने से रात भर परेशानी हो सकती है. इस के अलावा भरपेट भोजन करने के बजाय एक समय पर थोड़ाथोड़ा खाने की आदत बनाएं. पेटू होने से वजन तो बढ़ता ही है, चाह कर भी आमाशय अपने भीतर भोजन नहीं संभाल पाता.

सदा ढीले व आरामदेह वस्त्र पहनें. तंग कसी हुई पैंट या जींस फैशनेबल दिख सकती है, पर पेट की सेहत के लिए ठीक नहीं. पेट के अधिक कसने पर खाने की नली का वाल्व ठीक से काम नहीं कर पाता.

हर आधेआधे घंटे पर पानी पीते रहें. पानी पीने से खाने की नली धुलती रहेगी और हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड उस पर बुरा असर नहीं डाल सकेगा.

सोते समय पलंग का सिरहाना 6 इंच ऊपर उठा कर रखें. इस के लिए सिरहाने पर ईंट लगा लें. अपने वजन पर अंकुश रखें. पेट पर चरबी जमने से डायफ्राम पेशी छितरा जाती है और पेट उचक कर छाती में बैठ सकता है. ऐसे में भोजन के पलट कर खाने की नली में जाने पर पूरी रोकटोक ही हट जाती है.

पेंटाप्राजोल, लैंसोप्राजोल या ओमेप्राजोल जैसी अम्लरोधी दवाएं लेने से लाभ पहुंचता है. इन में से कोई भी एक दवा सुबह उठते ही खाली पेट लेना अच्छा है. जरूरत पड़ने पर डाइजीन, म्यूकेन, जेल्यूसिल सरीखी ऐंटासिड भी लाभ दे सकती हैं.

4 तरह की होती है फैट टमी, ऐसे पाएं छुटकारा

फैट कई तरह का होता है जैसे ब्लड लिपिडस यानी खून में फैट, सबक्युटेनियस फैट यानी स्किन के नीचे वाला फैट. इस में शरीर के कुल फैट का एक बड़ा भाग सबक्युटेनियस फैट के रूप में त्वचा के नीचे जमा रहता है, विसरल फैट यानी अंदरूनी अंगों के बीच वाला फैट. किसी भी वयस्क में विसरल फैट की आदर्श मात्रा 12 फीसदी तक होती है.

हमारे शरीर के फैट में बीटा 3 और अल्फा 2 नाम के रिसैप्टर होते हैं. बीटा 3 रिसैप्टर का फैट घटाना आसान होता है जबकि अल्फा 2 रिसैप्टर का फैट घटाना थोड़ा मुश्किल होता है. पेट, कमर और हिप्स के आसपास के फैट में अल्फा 2 रिसैप्टर ज्यादा होते हैं, इसलिए वहां का फैट बहुत देर से घटना शुरू होता है. ऐसे में पेट का फैट पूरी तरह तभी घटेगा जब शरीर के बाकी हिस्सों का फैट घटेगा.

पेट के फैट को तुरंत कम नहीं किया जा सकता. पेट का फैट कम करने के लिए यह जानना जरूरी है कि आप की टमी किस तरह की है ताकि आप अपनी टमी को समझ कर उसी के अनुसार उस का फैट कम करने की कोशिश करें.  आइए, जानें अलगअलग टमी के बारे में:

1 स्पेयर टायर टमी

इस तरह की टमी में पेट के चारों तरफ टायर होता है यानी यह एकसमान चारों तरफ फैली होती है. यह तब होता है जब ऐक्सरसाइज बहुत कम की जाती है और खाने में शुगर और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. इस में टमी के साथसाथ फैट पैरों और हिप्स पर भी आ जाता है.

मेकओवर प्लान

– शराब से दूर रहें, शराब एक तरह का फैट बाम है. इस से प्योर शुगर सीधे आप के पेट में जाती है.

– लो फैट डाइट स्नैक को अवौइड करें. ये सभी प्रीपैक्ड प्रोडक्ट होते हैं, जिन में भरपूर मात्रा में कैमिकल्स, रिफाइंड शुगर, साल्ट, प्रिजर्वेटिव्स मिलाए जाते हैं ताकि उस में फ्लेवर आ सके.

– जो भी खाएं फ्रैश खाएं. फिर चाहे वह फिश हो, अंडा हो, स्लाइस मीट हो या फिर ग्रिल्ड चिकन.

– घर में थोड़ी ऐक्सरसाइज जरूर करें.

2 द स्ट्रैस टमी

इस कंडीशन में पेट नीचे की तरफ लटका होता है. इस समस्या के शिकार ज्यादातर परफैक्शनिस्ट होते हैं. उन्हें पाचन संबंधी समस्या होती है, जिस के चलते अकसर पेट फूला रहता है और पेट दबाने पर टाइट होता है.

वक्त पर खाना न खाना, जंक फूड और ज्यादा मात्रा में कैफीन जैसे चाय, कौफी, चौकलेट, ड्रिंक्स आदि चीजें लेना स्ट्रैस टमी के कारण हैं.

मेकओवर प्लान

– चिंता में डूबी रहने वाली महिलाओं के सोने का तरीका हमेशा गलत होता है, जिस की वजह से भूख को नियंत्रित करने और पाचनक्रिया को ठीक रखने वाले हारमोन गड़बड़ा जाते हैं. यही वजह है कि जब वे थकी होती हैं तो बहुत ज्यादा भूख महसूस करती हैं और खूब खा लेती हैं, जिस की वजह से बेवजह फैट बढ़ता है. इसलिए रात को सोने के लिए बैड पर जाने से पहले चायकौफी न पीएं और अच्छी नींद के लिए कुछ रिलैक्सेशन जैसे लंबी गहरी सांसें लेना जैसी ऐक्सरसाइज करें और सही पोस्चर के साथ नींद लें.

– मैग्नीशियम से युक्त हरी पत्तेदार सब्जियां खाएं. नट्स और साबूत अनाज खाएं. मैग्नीशियम दिमाग को शांत रखता है और स्ट्रैस को रिलीज करता है, इसलिए अपने भोजन में मैग्नीशियम को जगह जरूर दें.

3 लो बैली फैट

इस में पेट ऊपर के बजाय नीचे की ओर ज्यादा निकला होता है. इस तरह के मोटापे से पीडि़त लोग शरीर के बाकी हिस्सों से पूरी तरह स्लिम दिखते हैं, लेकिन पेट के निचले हिस्से में फैट जमा होने की वजह से मोटे दिखते हैं.

पेट के निचले हिस्से का मोटापा अकसर एक जगह बैठ कर लगातार काम करने की आदत और एक ही तरह का खाना खाने की वजह से होता है.

मेकओवर प्लान

– बैलेंस डाइट और नियमित ऐक्सरसाइज करने से आप अपना वजन कंट्रोल कर सकती हैं.

– रोज एक ही तरह का भोजन न लें. उस में बदलाव करती रहें. यहां तक कि एक ही औयल लंबे समय तक यूज न करें. तेल का ब्रैंड बदलती रहें.

द्य डब्बाबंद जूस के बजाय घर पर ही फ्रैश गाजर, अनार, मौसंबी का जूस निकाल कर पीएं.

– पेट के निचले भाग के फैट को घटाने के लिए रोज 7-8 गिलास पानी पीएं. इस से शरीर की गंदगी बाहर निकलेगी और आप का मैटाबोलिज्म बढ़ेगा.

– भोजन में नमक की मात्रा कम करें.

– चीनी की जगह शहद का सेवन करें.

– सुबह की चाय या कौफी में दालचीनी पाउडर डाल कर शुगर को कंट्रोल कर सकती हैं.

– भूख लगने पर संतरे खाएं. इस से भूख भी खत्म होगी और आप मोटी भी नहीं होंगी.

4 द लिटिल पोच

इस में पेट हलका उभार लिए होता है. ये काफी बिजी रहने वाली महिलाएं होती हैं और डिमांडिंग प्रोफैशनलिस्ट होती हैं. ये वर्कआउट तो करती ही हैं, साथ ही स्टिक डाइट प्लान भी फौलो करती हैं.

महिलाएं जिम बहुत ज्यादा करती हैं यानी वहां क्रंचेस वगैरह अपनी जरूरत से ज्यादा करती हैं. सिर्फ ज्यादा ही नहीं, बल्कि गलत तरीके से भी करती हैं. इन्हें सिर्फ ऐक्सरसाइज करने से मतलब होता है. वे क्या और क्यों कर रही हैं, इस के बारे में उन्हें पता नहीं होता. यही वजह है कि गलत तरीके से ऐक्सरसाइज करने की वजह से इन की टमी की मसल्स फूल जाती हैं और टमी पर फैट बढ़ जाता है.

मेकओवर प्लान

– जो भी ऐक्सरसाइज करें अपने जिम ओनर से पूछ कर ही करें.

– अपने दिमाग से यह निकाल दें कि जितनी ज्यादा ऐक्सरसाइज करेंगी उतनी जल्दी पतली होंगी. ज्यादा नहीं बल्कि सही ऐक्सरसाइज करनी जरूरी है.

– फैट कम करने के लिए सिर्फ ऐक्सरसाइज करना ही काफी नहीं है, बल्कि उस के साथ अपनी डाइट पर भी ध्यान देना जरूरी है.

– अपने भोजन में हरी सब्जियां, फाइबर और फल शामिल करें.

– सुबह के नाश्ते में ओट्स विद वैजीटेबल आप के लिए सब से अच्छा नाश्ता है, क्योंकि इस से पेट भी भरेगा और बहुत सा फाइबर भी बौडी में जाएगा.

अमेरिका में रिसर्च कंपनी मिंटेल के सर्वे में बताया गया है कि 45 से 64 साल आयुवर्ग की 72 फीसदी महिलाओं ने अपने पेट पर ऐक्स्ट्रा फैट को एक बड़ी समस्या बताया. ऐस्ट्रोजन हारमोन के घटने से 38 की उम्र के बाद महिलाओं में पेट पर फैट जल्दी जमा होने लगता है. ऐसे में नियमित ऐक्सरसाइज न की जाए तो मैटाबोलिज्म कम होने लगता है. स्ट्रैस भी एक वजह है. स्ट्रैस से कार्टिसोल हारमोन रिलीज होता है. इस से शरीर विसरल फैट ज्यादा जमा करने लगता है.

समर्पण: भाग 1- सुधा क्यों शादी तुड़वाना चाहती थी?

सुबहसुबह अनु का फोन आ रहा था. सुधा ने झट से फोन उठा लिया. अनु के पापा शर्माजी भी पास में खड़े थे. सुधा ने हमेशा की तरह स्पीकर औन कर दिया जिस से वे दोनों उस से बात कर सकें. अनु ने उन्हें तुरंत खुशखबरी सुनाई,”मम्मी, मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है.”

सुधा ने सुना तो अवाक रह गई. उसे अनु से अभी ऐसी उम्मीद नहीं थी. उस ने पूछा,”कौन है वह खुशनसीब जिसे हमारी बेटी ने अपना साथी चुना है?”

“तुषार,  हम दोनों यहां साथ ही कंपिटीशन की तैयारी कर रहे हैं,”

यह सुनते ही सुधा के हाथ कांपने और जबान लड़खड़ाने लगी.  अनु के पापा ने जब यह बात सुनी तो वे सन्न रह गए,”अनु, तुम क्या कह रही हो? तुम पर तो हमारी बहुत सारी उम्मीदें लगी हुई हैं.”

“पापा, मैं आप की उम्मीदें पूरी करने की पूरी कोशिश करूंगी. मैं तुषार को अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हूं. वह बहुत अच्छा लड़का है. मुझे पूरा यकीन है कि जब आप उस से मिलेंगे तो आप को भी वह बहुत पसंद आएगा.”

“बेटा, वह तो अभी जौब पर भी नहीं है.” “इस से क्या फर्क पड़ता है पापा? जौब में तो मैं भी नहीं हूं। हम दोनों संघर्ष कर रहे हैं और हमारा संघर्ष एक दिन जरूर रंग लाएगा.”

“अनु एक बार फिर से सोच लो.”

“इस में सोचना क्या है, पापा? मुझे अपने जीवनसाथी के रूप में तुषार पसंद है. मैं उसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हूं. अगर मेरी पसंद को आप लोग खुले दिल से स्वीकार करेंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा, मम्मी.”

“हम तो हमेशा से तुम्हारे साथ हैं.  तुम्हारी इच्छा हमारे लिए बहुत माने रखती है. हम चाहते थे कि पहले तुम कोई अच्छा जौब चुन लो उस के बाद शादी के बारे में सोचो.”

“पापा, कल किस ने देखा है? आपलोग निश्चिंत रहिए. हम दोनों आप के ऊपर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं डालेंगे. मुझे नेट क्वालीफाई करने के बाद इतनी फैलोशिप मिलती है कि उस से एक छोटे से घर में हम गुजारा कर लेंगे.”

अनु के तर्कों के आगे मम्मीपापा की एक न चली. तुषार ने भी अपने मम्मीपापा को मना लिया था. वे भी चाहते थे लड़का पहले कुछ बन जाए और उस के बाद शादी के बारे में सोचे पर तुषार नहीं माना. उस ने अनु के बारे में उन्हें सबकुछ बता दिया. वे चाह कर भी कुछ नहीं कर सके. उन्होंने भी भारी मन से शादी की सहमति दे दी. दोनों परिवारों ने दिल्ली आ कर एकदूसरे से मुलाकात कर ली थी. उन की एकदूसरे से कोई अपेक्षाएं भी नहीं थीं.

बहुत सादे तरीके से सुधा ने अपने बेटी को विदा कर दिया. तुषार और अनु बहुत खुश थे. उन्हें अपने फैसले पर नाज भी था. कोचिंग के दौरान अनु की दोस्ती तुषार से हो गई थी. वह बिहार का रहने वाला साधारण घर का लड़का था. वह पढ़नेलिखने में बहुत होशियार था. प्रशासनिक सेवा में हाथ आजमाने के लिए उस के मांबाप ने उसे कोचिंग के लिए दिल्ली  भेज दिया था। एक ही सैंटर पर कोचिंग के दौरान वे एकदूसरे के नजदीक आ गए थे.

अनु और तुषार दोनों की परवरिश साधारण परिवार में हुई थी. उन की सोच भी एकजैसी थी. बहुत जल्दी उन की दोस्ती प्यार में बदल गई. अभी तक दोनों को किसी प्रतियोगिता में सफलता नहीं मिल पाई थी लेकिन वे दोनों अपनी मंजिल की ओर लगातार अग्रसर थे. वे दोनों एकसाथ प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करते और अपने दिल का हाल भी एकदूसरे को बताते.

एक दिन अवसर पा कर तुषार ने अनु के सामने अपने प्यार का इजहार कर दिया और अनु के सामने अपने दिल की बात रख दी,”अनु, हम एकदूसरे को 2 सालों से अच्छी तरह से जानते हैं. मैं चाहता हूं कि हम हमेशा एकसाथ रहें। क्या तुम मुझ से शादी करोगी?” उस की बात सुन कर अनु चौंक गई थी। उसे उम्मीद नहीं थी कि तुषार उसे इतनी जल्दी प्रपोज कर देगा.

“यह तुम क्या कह रहे हो? अभी तो हम दोनों ही अपने कैरियर के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में शादी की बात तुम्हारे दिमाग में कहां से आ गई?”

“मेरे हिसाब से तो अभी शादी करना ठीक रहेगा. क्या पता कल अच्छी जगह नौकरी मिल के बाद हमतुम एकदूसरे से कितनी दूर चले जाएं?”

“ऐसा कभी नहीं होगा.”

“वक्त का कुछ पता नहीं होता, अनु. हम अभी से कोशिश करेंगे कि एकदूसरे के साथ अधिक से अधिक समय बिताएं। नौकरी के बाद घर वालों का दवाब भी हम पर बढ़ जाएगा.” “क्या तुम उन के दवाब में आ कर शादी करोगे?”
“नहीं, अनु… मेरे कहने का मतलब यह नहीं. मैं किसी को नाराज नहीं करना चाहता. यह समय है जब हम अपनी इच्छाओं को पूरा करते हुए दूसरों के दिल को दुखाए बगैर आराम से शादी कर सकते हैं और अपना ज्यादा से ज्यादा समय एकसाथ बिता सकते हैं,” तुषार बोला.
तुषार स्वभाव से गंभीर था. अनु उस की बातों की गहराई को समझ गई. उन से शादी के लिए हां कह दिया. सुधा के परिवार, पड़ोसी और रिश्तेदारों ने कभी सोचा भी नहीं था कि अनु इतने अच्छे कैरियर के साथ बिना व्यवस्थित हुए शादी कर लेगी.‌  पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने सुधा की बहुत खिंचाई की थी. पड़ोस वाली गुप्ता आंटी तो जैसे इसी मौके की तलाश में थीं, “सुधा, तुम तो कहती थीं कि मेरा दामाद कोई आईएएस औफिसर होगा. मेरी अनु के लिए लड़कों की कोई कमी नहीं रहेगी.”
“अनु ने बहुत सोचसमझ कर अपने लिए जीवनसाथी चुना है. आखिर उसे तुषार में कुछ खास तो दिखाई दिया होगा तभी उस ने इतना बड़ा कदम उठाया है. उस का चुनाव कभी गलत नहीं हो सकता.” “वह तो दिखाई दे रहा है,” गुप्ता आंटी कटाक्ष करती बोलीं. सुधा को सभी से ऐसी बातें सुनने को मिल रही थीं. अनु ने मम्मीपापा के सपनों को दरकिनार करते हुए, किसी की परवाह किए बगैर शादी कर ली थी.
सुधा को छुटपन से ही अपनी बेटी पर बड़ा नाज था. बचपन से ही अनु पढ़ने में बहुत होशियार थी. एक साधारण से परिवार में पैदा होने के कारण उस के पास बहुत सारी सुविधाएं तो नहीं थीं पर एक तेज दिमाग जरूर था, जिस के बल पर वह अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रही थी. शर्माजी को भी अपनी बेटी पर गर्व था. वे उस की हर इच्छा पूरी करते. अनु के बड़े होने के साथ मम्मीपापा की अपेक्षाएं भी बड़ी हो गई थीं.
“अनु पढ़नेलिखने में विलक्षण है. वह जिस काम में हाथ डालेगी वही बन जाएगी,” हरकोई यही कहता. यह सुन कर सुधा और शर्माजी फूले न समाते. अनु ने पहले ही बता दिया था कि वह डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनेगी. वह पढ़लिख कर किसी अन्य क्षेत्र में जाएगी. अनु ने अर्थशास्त्र से एमए प्रथम श्रेणी में करने के साथ ही कालेज में टौप किया था. उस के प्रोफैसर चाहते थे कि वह इसी विषय में पीएचडी कर प्रोफैसर बन जाए पर अनु कहीं और अपना भविष्य तलाश रही थी. वह प्रशासनिक सेवाओं में जाने की इच्छुक थी.
अपने सपने पूरे करने के लिए अनु कोचिंग के लिए दिल्ली चली आई. सुधा और शर्माजी को उस के कोचिंग लेने पर कोई एतराज नहीं था. उन्हें  पूरा विश्वास था कि इस के बल पर अनु एक दिन उन का नाम जरूर रोशन करेगी. लेकिन बिना कुछ बने तुषार से शादी कर के अनु ने मम्मीपापा के सपनों को एक झटके में तोड़ डाला था.

आरोही : भाग 2- अविरल की बेरुखी की क्या वजह थी?

कुछ दिनों पहले पता लगा था कि अब मामाजी किसी हकीम का इलाज कर रहे हैं और बहुत फायदा है. खुश हो कर आए थे. स्वयं ही खबर दे गए थे. कभी किसी नैचुरोपैथी के कैंप में 10 दिनों के लिए गए थे, लेकिन वहां के इलाज से घबरा कर 3 दिनों में ही भाग कर आ गए थे. फिर कुछ दिनों तक होमियोपैथी का इलाज करने के बाद उस के पास फिर से आए तो उस ने कैंसर स्पैशलिस्ट डाक्टर मयंक के पास भेज दिया तो उन्होंने बायोप्सी करवाने को कहा. अब वे फिर उस को परेशान करने के लिए आ गए थे. उस का मन तो कर रहा था कि मामाजी को डांट कर घर से बाहर कर दे और फाइल उठा कर फेंक दे लेकिन खुद को कंट्रोल करते हुए वह अपने कमरे में आ गई और अपना ईमेल चैक करने लगी.

अब कुछ दिनों से वह मैडिकल कालेज में लैक्चर देने के लिए बुलाई जाती थी. सर्जरी के क्षेत्र में अब वह पहचानी जाने लगी थी. अपने स्टूडैंट टाइम में वह टौपर रही थी, हमेशा मेहनती छात्रा रही थी. एमएस में वह गोल्ड मैडलिस्ट रही थी. वह अपने अतीत में विचरण करने लगी.

जब वह 28 साल की हो गई तो शादी के लिए पेरैंट्स के दबाव के साथसाथ वह भी अपने अकेलेपन से ऊब चुकी थी. जब उसे कोई डाक्टर मैच समझ नहीं आ रहा था तो मैट्रिमोनियल साइट्स पर ढूंढ़ते हुए अविरल का बायोडाटा उसे पसंद आया था. अविरल आईटी के साथ आईएमएम से एमबीए था. वह मल्टीनैशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर था.

उस ने उस के साथ चैटिंग शुरू कर दी थी. कुछ दिनों की चैटिंग के बाद मिलनाजुलना शुरू हो गया. अविरल मुंबई में पोस्टेड था और वह भी मुंबई में ही जौब कर रही थी, इसलिए उसे वहीं रहने वाला जीवनसाथी चाहिए था. सबकुछ ठीकठाक लग रहा था. बस, दूसरी जाति के कारण वह मन ही मन हिचक रही थी.

3 महीने तक मिलनेजुलने के बाद  दोनों ने अपने पेरैंट्स को बता दिया, फिर धूमधाम से उन दोनों की रिंग सेरेमनी तो हो गई लेकिन चूंकि लगातार उस की सर्जरी की डेट फिक्स थीं, इसलिए वह शादी नहीं कर पा रही थी क्योंकि वह शादी को एंजौय करने के लिए हनीमून पर यूरोप जाना चाहती थी. लगभग 4 महीने के लंबे इंतजार के बाद दोनों की धूमधाम से शादी हो गई थी. उस के ससुराल पक्ष के सारे रिश्तेदार चाचा, ताऊ, बूआ या फिर मामा आदि सब आसपास ही रहते थे. चूंकि बड़ा परिवार था, इसलिए रोज ही कहीं न कहीं बर्थडे, एनिवर्सरी जैसे फंक्शन में जाना पड़ता था.

मांजी कहतीं, ‘बहू, साड़ी में तुम ज्यादा अच्छी लगती हो. गले में हार तो पहन लो.’ अविरल भी कहता कि साड़ी तुम पर बहुत जंचती है और वह उन लोगों की बातों में आ कर शुरूशुरू में साड़ी पहन कर तैयार हो जाती. लेकिन वहां पर तो वह सब के लिए फ्री की डाक्टर आरोही थी.

हर फंक्शन में दोचार लोग अपनीअपनी बीमारियों के लिए दवा लिखवाने के लिए हाजिर ही रहते. वह परेशान हो कर रह जाती क्योंकि वह जनरल फिजीशियन तो थी नहीं कि हर मर्ज की दवा लिखती लेकिन कोशिश कर के कुछ लिख देती. कोई किडनी को ले कर परेशान होता तो कोई लिवर से तो किसी को बच्चा नहीं हो रहा होता था. सब आरोही से उम्मीद करते कि वह ऐसी दवा दे दे, जिस से वे सब ठीक हो जाएं.

उन लोगों की बातें सुन कर उसे बहुत कोफ्त होती और यदि परहेज बताओ तो करना नहीं. यहांवहां किसी से पूछ कर दवा बता भी दो तो वे लोग शिकायत ले कर आ जाते कि बहूरानी, तुम ने जाने कैसी दवा दे दी मुझे. इस तरह की रोजरोज की बातों से वह परेशान हो चुकी थी.

शादी के 2 साल तक वह किसी तरह से रिश्तेदारों को झेलती रही थी, फिर अविरल से उस ने साफसाफ कह दिया कि इस तरह से मेरी स्थिति बहुत खराब हो जाती है. मैं हर मर्ज की दवा नहीं बता सकती. लेकिन वह भी अक्ल का कच्चा था, ‘डाक्टर हो तो इन छोटीमोटी बीमारियों में भला क्या सोचना. वे लोग तो तुम्हारी इतनी इज्जत करते हैं. कोई भाभी, कोई मामी सब कितना तुम्हें प्यार करते हैं.’ वह मन ही मन कुड़कुड़ाई थी कि अविरल को जरा भी अक्ल नहीं है. वे सब प्यार का दिखावा कर के अपना मतलब साधते हैं. उस ने परेशान हो कर इस तरह की रिश्तेदारियां निभाना बंद कर दिया था.

जब भी कहीं कोई फंक्शन के लिए फोन आता, वह अस्पताल में काम की व्यस्तता का बहाना बता देती और फिर अविरल का मूड खराब हो जाता. मांजी का भी मिजाज बिगड़ा रहता. वह अपना ज्यादा समय अस्पताल में बिता कर आती. जो ढंग से बोलता उस से बोल लेती, नहीं तो अपना काम कर के गुड नाइट कह देती. दोनों के बीच मूक समझौता हो गया था कि तुम मेरे घर वालों के यहां नहीं जाओगी तो मैं तुम्हारे घर वालों के यहां नहीं जाऊंगा.

अविरल ने उस के बैंक अकाउंट में ताकझांक करना शुरू किया तो उस ने इशारोंइशारों में कह दिया कि मैं तो अपना अकाउंट खुद संभाल लेती हूं. यदि जरूरत पड़ी तो जरूर तुम्हारी मदद लूंगी. अविरल का मुंह बन गया था लेकिन उसे परवा नहीं थी क्योंकि यदि वह साफसाफ न कहती तो अविरल उस के पैसे पर अधिकार जमाने लगता, जो उसे पसंद नहीं था. आरोही और अविरल की पसंद में जमीनआसमान का अंतर था. आरोही को सुबहसुबह धीमी आवाज में संगीत सुनना पसंद था. जब वह ऐसा करती तो अविरल तुरंत बोलता, ‘तुम्हें शांति से रहना पसंद नहीं है. सुबह से ही शोर शुरू कर देती हो.’ यहां तक कि वह कई बार जा कर संगीत बंद कर देता.

वह सुबह वाकिंग पर जाना पसंद करती थी, लेकिन अविरल को सुबह देर तक बिस्तर पर लेटे रहना पसंद था. नाश्ते में यदि वह इडली खाती तो वह औमलेट. मांजी चीला पसंद करतीं. इसी तरह से खाने में वह चटपटा खाना पसंद करती तो उन लोगों को प्याजलहसुन वाला खाना चाहिए होता जबकि वह बहुत कोशिश कर के भी लहसुन और प्याज की सब्जियां न खा पाती. वह हर तरह से इस परिवार के साथ ऐडजस्ट करने की कोशिश कर रही थी. अविरल पति बनने के बाद उस पर बातबेबात रोब गांठने की कोशिश करने लगा था. एक दिन वह रात में पढ़ रही थी तो जोर से बोला, ‘बंद करो लाइट, मुझे सोना है.’

‘कल मेरा लैक्चर है, मुझे उस की तैयारी करनी है. लाइट तुम्हारे चेहरे पर नहीं पड़ रही.’ उस की बात सुन कर अविरल भुनभुनाता हुआ जोर से दरवाजा बंद कर के ड्राइंगरूम में जा कर दीवान पर सो गया.

‘आरोही, तुम किचन में जा कर देख नहीं सकतीं कि क्या खाना बना है. आज कामवाली ने इतना घी, मसाला, मिर्च डाल दिया है कि खाना मुश्किल हो गया. दही मांगा तो घर में दही भी नहीं था. खाना एकदम ठंडा रख देती है. रोटी कभी कच्ची तो कभी जली, तो कभी ऐसी कि चबाना भी मुश्किल हो जाता है. एक टाइम तो घर में खाता हूं, वह भी कभी ढंग का नहीं मिलता,’ कहते हुए वह गुस्से में खड़ा हो गया था. दिनोंदिन अविरल का गुस्सा बढ़ता जा रहा था और व्यवहार में रूखापन आता जा रहा था. लेकिन आरोही अपनी तरफ से रिश्ता बनाए रखने का भरपूर प्रयास कर रही थी.

कुछ दिनों तक तो उस ने गृहिणी की तरह उसे और मांजी को गरम रोटियां खिलाईं लेकिन कुछ दिनों बाद उसे लगने लगा कि शादी कर के वह लोहे की जंजीर के बंधन में जकड़ कर रह गई है. वह अपने मम्मीपापा से शिकायत कर नहीं सकती थी. उन्होंने पहले ही कहा था कि अविरल का स्वभाव गुस्सैल है. तुम्हें उस के साथ निभाना मुश्किल होगा. अविरल का क्र्रोध शांत करने के लिए उस का मौन आग पर जल के छींटे के समान होता और वह शांत हो कर उस की शिकायतों को दूर करने की कोशिश भी करती.

वह अपनी खुशी अब अपने प्रोफैशन में ढूंढ़ती और घरेलू उलझनों को अपने घर पर ही छोड़ जाती थी. इस बीच वह एक नन्ही परी की मां बन गई थी. अब परी को ले कर हर समय अविरल उस पर हावी होने की कोशिश करने लगा. यदि वह जवाब दे देती तो अनबोला साध लेता. फिर उस की पहल पर ही बोलचाल शुरू होती. वह इतनी हंसनेखिलखिलाने वाली स्वभाव की थी, मगर अविरल के साथ रह कर तो वह हंसना ही भूल गई थी. दोनों के बीच में अकसर कई दिनों तक बोलचाल बंद रहती. वह कई बार शादी तोड़ देने के बारे में सोचती पर बेटी परी के बारे में सोच कर और अपने अकेलेपन का सोच कर के वह चुप रह जाती.

एक दिन अविरल के दोस्त अन्वय के बच्चे की बर्थडे पार्टी थी. वहां पर जब ड्रिंक के लिए उस ने मना कर दिया तो अविरल सब के सामने उस पर चिल्ला पड़ा. अन्वय बारबार एक पैग लेने की जिद करता जा रहा था. वे सब पहले ही कई पैग लगा चुके थे. वह नाराज हो कर वहां से घर लौट कर आ गई. अविरल घर आ कर उस पर चिल्लाने लगा, ‘यदि एक छोटा सा पैग ले लेतीं तो क्या हो जाता?’

वह कुछ नहीं बोली. गुस्सा तो बहुत आ रहा था कि जब मालूम है कि वह ड्रिंक नहीं करती तो क्यों जबरदस्ती कर रहा था. वह मौन रह कर अपना काम करती और नन्ही परी के साथ अपनी खुशियां ढूंढ़ती. वह कई बार सोचती कि आखिर अविरल ऐसा व्यवहार क्यों करता है? धीरेधीरे उसे समझ में आया कि अविरल के मन में उस की बढ़ती लोकप्रियता के कारण हीनभावना आती जा रही है. चूंकि उस की कंपनी घाटे में चल रही थी और कंपनी में छंटनी चल रही थी, इसलिए उस के सिर पर हर समय नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती थी. वह उस की परेशानी को समझती और पत्नी का फर्ज निभाने की कोशिश करती रहती पर ताली एक हाथ से नहीं बजती. अविरल का पुरुषोचित अहंकार बढ़ता जा रहा था.

10 फीसदी आबादी के बाद भी क्वीर फिल्में क्यों नहीं चल पातीं, जानिए क्या है क्वीर फिल्मों का भविष्य

पिछले कुछ सालों से क्वीर फिल्मों का निर्माण देश में बढ़ा है, क्योंकि अब कानून इस को अपराध नहीं मानती. उन्हें अपने तरीके से जीने का अधिकार देती है, लेकिन शादी करने की मान्यता नहीं देती.

ऐसे में कुछ अलग तरीके की भाव और रहनसहन को फौलो करने वाले लोगों को छुप कर रहने की अब जरूरत नहीं रही, लेकिन परिवार, समाज और धर्म के कुछ लोग आज भी इन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं. उन्हें अपनी भावनाओं को खुल कर कहने या रखने की आजादी नहीं है.

कोर्ट के फैसले से अब उन्हें खुल कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का कुछ मौका अवश्य मिला है. ऐसे में अच्छी समलैंगिक फिल्में भी बनीं, मसलन फायर, तमन्ना, दरमिया, माय ब्रदर निखिल, बौम्बे टाकीज,कपूर एंड संस, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, गीली पुच्ची, बधाई दो,शाम की परछाइयां,अलीगढ़ आदि, जिन की गिनती अच्छी फिल्मों मे की गई और लोगों ने इस की मेकिंग को सराहा भी.

क्वीर फिल्मों का इतिहास

समय के साथसाथ यह मौका पूरे विश्व में “न्यू क्वीर सिनेमा” के रूप मे जाना गया, जिसे पहली बार 80 और 90 के दशक में सब के सामने लाया गया, जिसपर कई सालों तक बहस छिड़ी और प्राइड मार्च हुए, ताकि उन्हें ऐसी अलग कहानी कहने का मौका दिया जाए और अंत में कई देशों ने इसे कानूनी मान्यता दी और उन्हें आजादी से जीने की अधिकार दिया.

Onir
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इस के बाद निर्माता निर्देशकों ने ऐसे अलग विषयों को ले कर कई फिल्में बनाई, फिल्म फैस्टिवल करवाए गए. इतने सब के बावजूद भी इन फिल्मों को बौक्स औफिस पर लाने से हमेशा रोका जाता रहा. पहले इन फिल्मों को नैशनल फिल्म डेवलपमैंट कौरपोरेशन(NFDC) हौल तक लाने मे सहयोग करती थी, लेकिन उन का सहयोग अब कम मिल पाता है. इस की वजह वे दर्शकों की कमी बताते हैं. आज भी थिएटर हौल मिलने में मुश्किलें हैं, दर्शकों की पहुंच से आज भी ये फिल्में दूर हैं. आखिर क्वीर फिल्मों के साथ इतनी भेदभाव क्यों है, क्या है इन का भविष्य?

क्या है क्वीर फिल्में

समलैंगिकों को आम बोलचाल की भाषा में एलजीबीटी (LGBT) यानि लेस्ब‍ियन, गे, बाईसैक्सुअल और ट्रांसजेंडर कहते हैं. वहीं कई और दूसरे वर्गों को जोड़ कर इसे क्व‍ियर (Queer) समुदाय का नाम दिया गया है. इसलिए इसे LGBTQ भी कहा जाता है. सभी क्वीर फिल्मों में प्यार को अधिक महत्व दिया गया और बताया गया है कि प्यार कभी भी किसी से हो सकता है और इसे स्वीकार करना जरूरी है.

समलैंगिक सिनेमा अपना आधिकारिक लेबल दिए जाने से पहले दशकों तक अस्तित्व में थी, जैसे कि फ्रांसीसी रचनाकारों जीन कोक्ट्यू, डी’अन पोएटे और जीन जेनेट की फिल्में ऐसी ही कहानियों को कहती हैं.

जिम्मेदार सभी

इस बारे में फिल्म निर्माता, निर्देशक ओनिर कहते हैं कि “मुझे ये अच्छा लग रहा है कि मेरी फिल्म पाइन कोन क्वीर सेंट्रिक फिल्म होने के बावजूद ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट फ्लेर लंदन में दिखाई जा रही है और उसे देखने वाले भी काफी हैं. भारत में भी इन फिल्मों का निर्माण बढ़ा है. लेकिन हौल तक पहुंचने में मुश्किल है.
“इस के अलावा इन फिल्मों को बढ़ावा मिलना मुश्किल होने की वजह समाज और धर्म है, क्योंकि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादी को कानूनन मान्यता देने की बात आई, तो यही बात सामने आई कि समाज तैयार नहीं है और मना हो गया. समाज भी इसे बहुत धीरेधीरे मान रही है कि इस तरीके के व्यक्तित्व वाले लोग हमारे समाज में हैं.

“मैँ जब किसी आम फिल्म को देखने हौल तक जाता हूं तो मेरे दिमाग में एक लव स्टोरी देखने की बात सामने आती है, इस के आगे और कुछ भी नहीं सोचता, लेकिन ऐसे आम फिल्म बनाने वालों को बहुत मुश्किल होता है क्वीर फिल्मों की लव स्टोरी को देखना, इतना डर, असुरक्षा की भावना उन के अंदर क्यों आती है, मुझे समझ में नहीं आता, लेकिन उन्ही फिल्मों को औनलाइन लोग छुपछुप कर देखते हैं. आंकड़ों के अनुसार समाज में करीब 10 प्रतिशत लोग क्वीर समुदाय के हैं, क्या उन्हें अपनी तरह से जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए?”

ओनिर कहते हैं, “लोगों का डर मैं ने तब भी देखा था, जब मेरी पहली फिल्म माइ ब्रदर निखिल.. रिलीज हुई थी. तब भी इंटरवल में जब कुछ दर्शकों को पता चलता है कि मुख्य भूमिका निभाने वाला समलैंगिक है, तो वे उठ कर चले गए. पुरुष दर्शकों को इस की चिंता अधिक होती है कि कोई उन्हें समलैंगिक फिल्में देखते हुए देख न ले. डर तो उन्हें तब लगना चाहिए जब वे काफी पैसे खर्च कर हिंसात्मक फिल्में देखने हौल तक जाते हैं. प्यार से इतना डर क्यों? किसी की खुशी को मानने से उन्हें डर क्यों होता है? ये कमियां हमारे समाज और धर्म की हैं, जो इसे स्वीकार नहीं करतीं.

“समस्या हो रही है कि थिएटर में ऐसी फिल्मों को रिलीज होने के लिए जगह नहीं मिलती. पहले नैशनल फिल्म डेवलपमेंट कौरपोरेशन (NFDC) इन फिल्मों को रिलीज करने में सहयोग देती थी. अभी तो किसी फिल्म को दिखाने के लिए थिएटर को रकम देनी पड़ती है, पहले ऐसा नहीं था. अभी छोटी फिल्मों को रिलीज करना बहुत मुश्किल हो चुका है. ओटीटी पर भी रिलीज करने के लिए भी कई समस्या आती है, मसलन हीरो कितना बड़ा है, कैसी फिल्म है आदि के बारे में उन्हें बताना पड़ता है.
“क्वीर फिल्मों को इस लिहाज से अधिक महत्व नहीं दिया जाता, उसे चुनने वाले ही ऐसी फिल्मों को रिलीज करने में असहज महसूस करते हैं. क्वीर फिल्मों की समस्या हर स्तर पर अलगअलग ही होती है. ऐसे में वही फिल्में हौल तक पहुंच पाती हैं, जिस की कहानी आम दर्शकों के स्वीकार करने योग्य हों. एक अलग रंग या व्यक्तित्व को जब तक कोई मान्यता नहीं मिलेगी, इन फिल्मों को स्वीकारा नहीं जाएगा, तो दर्शक कैसे बढ़ेंगे?

“साल 2005 में मैं ने फिल्म माइ ब्रदर निखिल बनाई थी और अब ‘पाइन कोन’ ले कर आया हूं. यह फिल्म अपनी जिंदगी प्यार मोहब्बत, लिविंग आदि के बारे में है. इसलिए यहां पर इसे कम लोग स्वीकार कर रहे हैं, जबकि विदेशों में इसे देखने वाले काफी हैं. मुझे ये नहीं समझ आता है कि 100 करोड़ की घटिया फिल्मों को थिएटर हौल मिल जाती है, लेकिन 2 या 3 करोड़ की छोटी और क्वीर फिल्मों को क्यों नहीं? ऐसी कई बड़ी फिल्में आई और नहीं चली, दर्शक नहीं मिले, क्या हौल मालिक को घाटा नहीं हुआ?”

माध्यमों की कमी का नहीं होगा असर

छोटी और क्वीर फिल्मों को दिखाने के माध्यम की कमी भले ही हो, लेकिन इसे बनाना बंद नहीं करना है, क्योंकि ऐसी फिल्में कई अलग माध्यम में भी दिखाई जा सकती है और इस के दर्शक भी हैं.

निर्देशक ओनिर कहते है, “लोग मुझे पूछते हैं कि मैं ने समलैंगिक फिल्में क्यों बनाईं इस की जरूरत क्या है? मैं ने उन से कहा कि मुझे अदृश्य रह कर जीना मुझे मंजूर नहीं और मैं ने ही समलैंगिक विषयों पर फिल्में बनाई हैं और आगे भी बनाता रहूंगा. मैं जब बड़ा हुआ, तो ऐसी फिल्में नहीं थीं, क्योंकि समाज ऐसी बातों को नजरअंदाज करता था.”

*इक्वल ह्यूमन राइट

वह आगे कहते हैं, “मेरी फिल्म पाइन कोन उन लोगों के लिए है, जो इक्वालिटी इन ह्यूमन राइट को समझें. इस फिल्मों के लिए विजन की जरूरत है. ऐसे में फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाया जाना एक अच्छा कदम है. आजकल थोड़े जागरूक लोग इन फिल्मों के को देखते हैं, क्योंकि प्राइड मार्च अब छोटेछोटे शहरों में भी होता है. इस का अर्थ यह है कि लोग इसे स्वीकार रहे हैं और आगे आने वाली यंग जेनरेशन छोटी और क्वीर फिल्में बनाना नहीं छोड़ेगी. आगे दर्शकों का प्यार उन्हें मिलेगा फिल्में हौल तक जाएगी.”

मार्च का पहला सप्ताह : बतौर निर्माता आमिर खान ने डुबाया बौलीवुड को

परफैक्शनिस्ट कलाकार के रूप में मशहूर अभिनेता आमिर खान के बौक्सऔफिस के सितारे गर्दिश में चल रहे हैं, जिस का खमियाजा पूरे सिनेमा जगत को भुगतना पड़ रहा है. 2018 में प्रदर्शित फिल्म ‘ठग्स औफ हिंदुस्तान’ के बौक्सऔफिस पर बुरी तरह असफल होने के बाद आमिर खान ने अभिनय से दूरी बनाने की बात कही थी. पर वे अपने इस बयान पर ज्यादा समय तक टिके नहीं रह सके.

4 साल बाद ही वे फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ से अभिनय में वापसी की. लेकिन अफसोस ‘लाल सिंह चड्ढा’ ने बौक्सऔफिस पर पानी तक नहीं मांगा. और आमिर खान ने आखिरकार फिर अभिनय से दूरी बनाने का ऐलान कर दिया.

कुछ समय बाद आमिर खान ने अभिनय के बजाय फिल्म निर्माण की तरफ रुख किया. बतौर निर्माता, आमिर खान की पहली फिल्म ‘लापता लेडीज’ एक मार्च को रिलीज हुई, जिस के निर्देशन की जिम्मेदारी उन की पूर्व पत्नी किरण राव ने उठाई. ‘लापता लेडीज’ की बौक्सऔफिस पर हुई दुर्गति के लिए पूरी तरह से आमिर खान और किरण राव ही दोषी हैं.

‘लापता लेडीज’ ने बौक्सऔफिस पर पहले दिन महज 75 लख रुपए कमाए. लेकिन फिल्म के प्रचारक ने कुछ पत्रकारों की मदद से सोशल मीडिया पर धुआंधार झूठा प्रचार किया कि फिल्म सुपरडुपर हिट है. इस के बावजूद यह फिल्म बौक्सऔफिस पर पहले सप्ताह बामुश्किल 6 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी, जिस में से निर्माता को केवल डेढ़ करोड़ ही मिले.

मजेदार बात यह है कि आमिर खान ने पहले घोषित किया था कि इस फिल्म की लागत 50 करोड़ रुपए है, पर उन का प्रचारक फिल्म की लागत केवल 20 करोड़ रुपए ही बता रहा है. वैसे, इस फिल्म के निर्माण से मुकेश अंबानी की कंपनी ‘जिओ स्टूडियो’ भी जुड़ी हुई है.

फिल्म ‘लापता लेडीज’ की बौक्सऔफिस पर इस कदर दुर्गति होने की वजह फिल्म के विषय के साथ लोगों का रिलेट न कर पाना रहा. इस सच से वाकिफ आमिर खान ने अपनी फिल्म की कहानी को 20 साल पहले की बताई है, पर दर्शक तो फिल्म देखते हुए वर्तमान के साथ कहानी और घटनाक्रम को जोड़ कर देखता है.

कहानी के अनुसार नवविवाहिता अपने पति के साथ पारंपरिक घूंघट में ट्रेन में यात्रा करती है, जहां कई दूसरी दुलहनें भी घूंघट में हैं. नियत स्टेशन पर पति घूंघट के चलते गलत दुलहन को ले कर ट्रेन से उतर कर अपने घर के अंदर पहुंचता है, तब उसे पता चलता है कि वह तो गलत दुलहन को अपने घर ले कर आया है.

इस के बाद तीनों किरदारों की यात्रा शुरू होती है. फिल्म में औरतों से जुड़े शिक्षा सहित कई मुद्दे भी उठाए गए हैं पर जब फिल्म की कहानी का आधार ही गलत हो तो सबकुछ गलत हो जाता है. कहानी के अनुसार शादी के बाद पूरा परिवार घर वापस लौट जाता है. पर दूल्हा रुक कर अपनी ससुराल में ही पत्नी के संग सुहागरात मनाने के बाद पत्नी को घूंघट में रख कर ट्रेन में यात्रा करता है.

यह बात दर्शक को हजम नहीं होती. जब ट्रेन में पतिपत्नी ही हों, तो फिर पत्नी घूंघट क्यों डाले हुए है. इस के अलावा पति, ट्रेन से उतरने के बाद भी घर के अंदर पहुंचने से पहले अपनी पत्नी का चेहरा नहीं देखता, ऐसा क्यों? फिल्म ‘लापता लेडीज’ में इसी तरह की तमाम ऐसी चीजें दिखती हैं जिन की वजह से दर्शक लेखक व निर्देशक के ज्ञान पर हंसता है.

1 मार्च को ही पुलवामा आतंकवादी हमले और 2019 के भारतीय वायुसेना के जवाबी बालाकोट एयरस्ट्राइक पर आधारित देशभक्ति व सत्तापरक एजेंडे वाली फिल्म ‘औपरेशन वैलेंटाइन’ भी रिलीज हुई है, जिस ने भी बौक्सऔफिस पर पानी नहीं मांगा. शक्ति प्रताप सिंह हाडा निर्देशित फिल्म ‘औपरेशन वैलेंटाइन’ में वरुण तेज, मानुषी छिल्लर, नवदीप और मीर सरवर” की आम भूमिकाएं हैं. फिर भी पहले सप्ताह की समाप्ति तक यह फिल्म केवल 9 करोड़ रुपए ही कमा सकी.
इस का बजट 100 करोड़ रुपए से भी ज्यादा है. सच यह है कि इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है. तो वहीं लोग मानुषी छिल्लर को परदे पर देखना नहीं चाहते. इस फिल्म से पहली बार निर्देशक बने शक्ति प्रताप सिंह हाडा का कैरियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो गया.

इसी सप्ताह अनुपम खेर और हाल ही में निधन हुए कलाकार सतीश कौशिक के अभिनय से सजी फिल्म ‘कागज 2’ भी प्रदर्शित हुई जो कि बौक्सऔफिस पर पूरे सप्ताह में केवल 60 लाख रुपए ही कमा सकी. फिल्म को दर्शक नहीं मिले. इस की मूल वजह यह रही कि इस फिल्म का प्रचार ही नहीं किया गया. दर्शक को पता ही नहीं कि ‘कागज 2’ नामक कोई फिल्म भी बनी है.

इसी सप्ताह विजय नांबियार निर्देशित फिल्म ‘दंगे’ प्रदर्शित हुई, जिस में असफल व अभिनय शून्य अभिनेता हर्षवर्धन के साथ निकिता दत्ता व इहान भट्ट हैं. यह फिल्म पूरे सप्ताह में सिर्फ 55 लाख रुपए ही बौक्सऔफिस पर कमा सकी.

सोशल मीडिया पर गृहिणियों के पकवानों की लाजवाब खुशबू

भारतीय गृहिणियां तरहतरह के पकवान बनाने में माहिर हैं. अचार, चटनी, जैम, मुरब्बा बनाने में तो उन का मुकाबला दुनिया की कोई औरत नहीं कर सकती. तरहतरह के मसालों के उपयोग की जितनी जानकारी हमारे देश की गृहिणियों को होती है, उतनी तो दुनिया के जानेमाने शेफ्स को नहीं होगी. मगर खानपान से जुड़ी ये सारी खूबियां धारण करने के बावजूद हमारी महिलाओं की कहीं कोई तारीफ, कोई पहचान नहीं थी. भला हो सोशल मीडिया का जिस ने गृहिणियों को उन की पाककला दुनिया के सामने लाने का इतना बढ़िया मंच दिया कि आज शहरी गृहिणियां ही नहीं, बल्कि दूरदराज अंचलों की ग्रामीण गृहिणियां भी अपने पकवानों के वीडियो यूट्यूब पर डाल कर न सिर्फ शोहरत कमा रही हैं, अपनी पहचान बना रही हैं, अपनी रैसिपीज को देशदुनिया के कोनेकोने तक पहुंचा रही हैं बल्कि जबरदस्त आर्थिक लाभ भी उठा रही हैं.

आज से 10 वर्षों पहले तक अच्छी रैसिपीज के लिए लोग तरला दलाल या शेफ संजीव की किताबें खरीदते थे. मगर आज सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर ऐसेऐसे शेफ और पाककला के जानकार मौजूद हैं जिन की रैसिपीज आप को उंगलियां तक चाट जाने को मजबूर कर देंगी. आज सोशल मीडिया मंच, जैसे यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक पर खानपान से संबंधित रील्स हजारों की संख्या में हैं और लाखों लोगों द्वारा बड़े चाव से देखी जाती हैं.

यूट्यूब तो आज दुनिया का सब से ज्यादा देखा जाने वाला प्लेटफौर्म बन चुका है. आज यूट्यूब के पास 2.5 बिलियन यानी 250 करोड़ मासिक यूजर्स हैं. यूट्यूब पर यूजर्स हर रोज करोड़ों घंटे वीडियो देखने में बिताते हैं. इतना ही नहीं, प्लेटफौर्म पर कंटैंट क्रिएटर्स हर मिनट में 500 घंटे के वीडियो कंटैंट अपलोड करते हैं. यूट्यूब पर 5 करोड़ से ज्यादा चैनल हैं. यूट्यूब पर आज हम हर सब्जैक्ट से जुड़े चैनल को देख सकते हैं. YouTube के हिट होने की मुख्य वजह इस के जरिए क्रिएटर्स को होने वाली कमाई है. जो चैनल जितना लोकप्रिय होता है और जितने घंटे वीडियो कंटैंट इस पर देखे जाते हैं, उस चैनल की उतनी ही कमाई होती है. इस का बहुत बड़ा फायदा भारतीय गृहिणियां भी उठा रही हैं.

पापामम्मी किचन, कविता की रसोई, निशा मधुलिका डौटकौम, कनक की रसोई, भावना की रसोई जैसे अनेकानेक चैनल्स आज फेसबुक और यूट्यूब पर हैं, जिन में गृहिणियां अपनी लजीज रैसिपीज शेयर करती हैं. इन रील्स में वे अपनी खास डिश बना कर दिखाती हैं. यह तरीका इतना प्रभावशाली होता है कि कोई भी इन रील्स के जरिए टैस्टी डिश बना सकता है और अपने घरवालों व दोस्तों को खिला कर वाहवाही पा सकता है.

निशा मधुलिका डौटकौम

आप स्वादिष्ठ और आसान व्यंजनों की तलाश में हैं, तो आप को निशा मधुलिका रील्स देखनी चाहिए. निशा पहले एक साधारण हाउसवाइफ थीं, मगर आज 63 वर्ष की निशा मधुलिका सोशल मीडिया पर अपनी स्वादिष्ठ रैसिपीज के लिए प्रसिद्ध हैं. 2011 में शुरू किए गए उन के चैनल पर आज 14 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं. वे अपने पकवानों की रैसिपी शेयर कर के यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ब्रैंड डील से खूब कमाई करती हैं. उन की नैट वर्थ आज लगभग 3 मिलियन डौलर यानी लगभग 23 करोड़ रुपए है. उन्होंने अपनी यह पूरी संपति यूट्यूब, इंस्टाग्राम पर कुकिंग वीडियोज बना कर और ब्रैंड डील्स के जरिए बनाई है.

निशा को बचपन से ही कुकिंग का शौक था. शादी के बाद उन्होंने ससुराल वालों को अपनी पाकविद्या से स्तब्ध कर दिया. कुकिंग के प्रति उन का जनून हद से ज्यादा था. खाने में नएनए प्रयोग करना उन्हें बड़ा भाता था. इन प्रयोगों से कोई नई स्वादिष्ठ चीज बन ही जाती थी. निशा ने 50 साल की उम्र में इंटरनैट से सीख कर अपना एक फूड व्लौग शुरू किया.

वर्ष 2011 में, उन्होंने अपने परिवार के प्रोत्साहन पर ”निशा मधुलिका” नामक यूट्यूब चैनल शुरू किया. शुरुआती दौर में उन्हें थोड़ी मुश्किलें आईं, लेकिन धीरेधीरे उन के वीडियो लोगों को पसंद आने लगे. आज इन के चैनल से आप ढेर सारी रैसिपीज बनाना सीख सकते हैं. निशा के पास एक सामान्य भारतीय रैस्तरां की तुलना में अधिक विविधता है. उन में किसी भी साधारण दिखने वाली रैसिपी को उत्कृष्ट कृति में बदलने की क्षमता है और सब से अच्छी बात यह है कि वे आप को यह भी बताती हैं कि आप यह कैसे कर सकते हैं.

शुरुआत में उन के वीडियो को बहुत कम व्यूज मिलते थे. लेकिन निशा ने हार नहीं मानी और लगातार वीडियो बना बना कर डालती रहीं, साथ ही, अपनी रैसिपीज में सुधार भी करती रहीं. आज निशा मधुलिका भारत की सब से लोकप्रिय यूट्यूबरों में से एक हैं. उन्हें कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है.

पापामम्मी किचन

‘पापामम्मी किचन’ के होस्ट, राजस्थान के एक मारवाड़ी समाज के पापा और मम्मी हैं. पापा रोबोटिक्स के विशेषज्ञ हैं और उन्होंने अहम परमाणु रिएक्टर ऐप्लिकेशन पर काम किया है. वहीं, मम्मी ने पौलिटिकल साइंस में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है. लंबे कैरियर के बाद उन्होंने अपने शौक यानी खाना बनाने का काम शुरू किया और ‘पापामम्मी किचन’ के नाम से अपना यूट्यूब चैनल लौंच किया.

आज इन के 4 चैनल हैं और डेढ़ मिलियन सब्सक्राइबर हैं. पारंपरिक राजस्थानी थाली का कोई ऐसा व्यंजन नहीं है जो इस चैनल पर न आया हो. ‘पापामम्मी किचन’ पर आसानी से बनने वाली, साधारण और स्वादिष्ठ शाकाहारी रैसिपीज शेयर की जाती हैं. पापा को मिठाइयां बनाना बहुत पसंद है और मम्मी खाना पकाने को एक व्यवस्थित कला के रूप में देखती हैं.

विलेज कुकिंग चैनल

तमिलनाडु के पुडुकोट्टई क्षेत्र के एक छोटे से गांव चिन्ना वीर मंगलम में स्थित एक कुकिंग चैनल ‘विलेज कुकिंग चैनल’ ने 16 मिलियन सब्सक्राइबर बना लिए हैं. इस के सब से ज्यादा देखे जाने वाले वीडियो को 122 मिलियन से ज्यादा बार देखा गया है. यह तमिलनाडु के मेहनती और ऊर्जावान लोगों का एक समूह है, जो अपनी सभी दावतें बहुत उत्साह और हंगामे के साथ तैयार करते हैं. वे एकता में विश्वास करते हैं, परंपरा का पालन करते हैं और पोंगल जैसे त्योहारों को मिलजुल कर भव्य तरीके से मनाते हैं. वर्ष 2018 के बाद से उन की लोकप्रियता बढ़ रही है.

यहां तक कि राहुल गांधी भी जनवरी 2021 में उन से मिलने गए और तब उन्होंने राहुल को मशरूम बिरयानी तैयार करने में मदद की, जिस का बाद में सब ने मिलजुल कर खूब लुत्फ उठाया. ‘विलेज कुकिंग चैनल’ यूट्यूब पर सबसे अच्छे दक्षिण भारतीय कुकिंग चैनलों में से एक है, जो वेज और नौनवेज भारतीय व्यंजन बनाते हैं.

इस चैनल को शुरू करने वाले थे दादा एम पेरिया थाम्बी. आज वी सुब्रमण्यम, वी मुरुगेसन, वी अय्यनार, जी तमिल सेल्वन और टी मुथुमणिकम, गांव के पांच चचेरे भाई, अपने दादा, एम पेरिया थाम्बी और एक कैटरर की मदद से अपने चैनल का प्रबंधन संभालते हैं. दादा एम पेरिया थाम्बी बताते हैं, “मैं ने 25 साल की उम्र में खाना बनाना शुरू किया था और अब 70 साल का हो गया हूं, और मैं ने कभी नहीं सोचा था कि मैं इतना प्रसिद्ध हो जाऊंगा. मैं उन सभी का आभारी हूं जिन्होंने हमारे प्रयासों का समर्थन किया है.”

कबिता की रसोई

कबिता एक गृहिणी हैं जिन्होंने स्वादिष्ठ भारतीय व्यंजन पकाने के अपने जनून को आगे बढ़ाने के लिए अपनी बैंकर की नौकरी छोड़ दी. वे अपने भोजन की सभी तैयारियों के लिए एक सरल और आसान दृष्टिकोण रखते हुए शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के व्यंजन बनाती हैं. उन की kabitaskitchen.com नाम से एक वैबसाइट भी है जहां आप ट्यूटोरियल वीडियो के साथ सैकड़ों विभिन्न व्यंजनों को ब्राउज़ कर सकते हैं.

मान लें कि आप सीखना चाहते थे कि प्रैशरकुकर में चिकन कैसे पकाया जाता है या चीज, पोहा कटलेट, तो बस उन के चैनल की सदस्यता ले लें. मशहूर भारतीय हास्य कलाकार, गायक, गीतकार और यूट्यूबर भुवन बाम ने कबिता से पनीर, पोहा, कटलेट बनाना सीखा. वेज और नौनवेज स्नैक्स, पेय और मिठाइयां कैसे बनाई जाती हैं, यह जानने के लिए कबिता के चैनल पर व्यूअर्स की भीड़ लगी रहती है. कबिता दर्शकों की रुचियों पर विचार करती हैं. वे अपने दर्शकों की पसंद को समझती हैं और फिर उसी के आधार पर अपनी आगामी सामग्री की योजना बनाती हैं. कबिता दर्शकों से बातचीत को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानती हैं. अपने चैनल पर आने वाले लोगों की जिज्ञासाओं और सवालों का जवाब देने में उन्हें खूब आनंद आता है.

कुक विद पारुल

पारुल अपने यूट्यूब चैनल पर मुंह में पानी ला देने वाली रैसिपी शेयर करती हैं. यदि आप नियमित सब्जीरोटी बना कर ऊब गए हैं तो यह चैनल आप को बेहतरीन रैसिपीज देता है. यहां आप सस्ती-सरल सामग्री के साथ स्वादिष्ठ व्यंजन बना सकते हैं. पारुल अपने वीडियो के माध्यम से विशेषज्ञ युक्तियां और सलाह भी देती हैं. आप उन के संपूर्ण मैन्यू को देखने के लिए उन की वैबसाइट cookwithparul.com पर जा सकते हैं.

कनक की रसोई

कनक एक उत्साही गृहिणी हैं और यूट्यूब पर सर्वश्रेष्ठ भारतीय फूड व्लौगर्स में से एक हैं. उन्हें उन पारंपरिक व्यंजनों के साथ प्रयोग करना अच्छा लगता है जो उन की मां और दादी ने उन्हें सिखाए हैं. उन के सभी व्यंजन अपनेआप में विशिष्ट स्वाद लिए होते हैं. कनक आज की पीढ़ी की ऐसी गृहिणी हैं जो पश्चिमी स्वाद को भी बखूबी जानती हैं और उन रैसिपीज में भी उन को महारत हासिल है.

उन में स्वाद से समझौता किए बिना मांसाहारी व्यंजनों को वास्तविक शाकाहारी व्यंजनों में बदलने की अद्वितीय क्षमता भी है. वे बुधवार और शनिवार को नए वीडियो पोस्ट करती हैं और उन के चैनल पर भारतीय, कौन्टिनैंटल, थाई, मैक्सिकन, अमेरिकी, चीनी और इतालवी व्यंजनों की अनेक डिशेज होती हैं.

कनक को उत्कृष्ट भोजन तैयार करने के अलावा, आयुर्वेद की भी गहरी समझ है. वे इस ज्ञान का उपयोग अपने प्रत्येक व्यंजन को एक अद्वितीय पोषण देने के लिए करती हैं. कनक अपने खाना पकाने में फलों, सब्जियों, मसालों और जड़ीबूटियों का इस्तेमाल करती हैं जो स्वाद के साथसाथ स्वास्थ्य को भी लाभ पहुंचाते हैं. उन के व्यंजन पौष्टिक और फायदेमंद हैं. वे न सिर्फ सेहत के लिए लाजवाब हैं बल्कि वे आप की खूबसूरती को भी निखारते हैं. उन के यूट्यूब पर 3.3 मिलियन से अधिक फौलोअर्स हैं.

प्रियंका तिवारी

प्रियंका स्वादिष्ठ खाने की शौकीन हैं और अपने स्वाद को बढ़ाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं. वे विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न प्रकार के स्ट्रीट फूड का आनंद लेने के लिए पूरे भारत की यात्रा करती हैं. वे कम कीमत में उत्कृष्ट स्ट्रीट फूड खोजने के लिए खूब घूमती हैं और उन को सीखती हैं. प्रियंका ने सड़क किनारे के व्यंजनों से ले कर शानदार बुफे तक भोजन की रैसिपीज इकट्ठा की हैं जिन्हें वे अपने चैनल के माध्यम से अपने दर्शकों तक पहुंचाती हैं.

हुमा इन द किचन

अगर आप को यूट्यूब पर खाने की रैसिपी तलाशना पसंद है, तो आप शायद हुमा को जानते होंगे. इस मंच पर कदम रखने के कुछ ही समय बाद उन का चैनल ‘हुमा इन द किचन’ तेजी से प्रसिद्ध हो गया. चाहे आप शाकाहारी हों, मांसाहारी हों, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हों, या मीठा खाने के शौकीन हों, हुमा के वीडियो हर किसी को पसंद आते हैं.

उन की प्लेलिस्ट में आप खाद्य व्यंजनों की विभिन्न श्रेणियों को देख कर आश्चर्यचकित रह जाएंगे. उन के वीडियोज ‘पनीर परांठा’, ‘डालगोना कौफी’, ‘चिकन परांठा रोल’ और ‘प्रैशरकुकर में चौकलेट केक’ को लाखों बार देखा गया है. हुमा के चैनल पर 2 मिलियन से अधिक सब्सक्राइबर हैं और उन की संख्या लगातार बढ़ रही है. हुमा जानती हैं कि प्रेजेंटेशन खाना पकाने के जितना ही महत्त्वपूर्ण है और उन की सभी रचनाएं एक पेशेवर शेफ की रैसिपी की तरह लगती हैं.

क्या हिंसक फिल्में समाज की सच्ची तसवीर नहीं दिखा रही हैं

कहा जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं यानी फिल्मों में वही दिखाया जाता है जो समाज में घट रहा होता है. जो भी आमतौर पर देश और समाज में हो रहा होता है उस में ही थोड़ेबहुत फेरबदल कर और थोड़ा बढ़ाचढ़ा कर फिल्में बनती हैं. तभी तो कमोबेश किसी भी दौर की फिल्मों को ध्यान से देखा जाए तो उस दौर का पूरा खाका साफ नजर आता है. जिस तरह देश और समाज ने अलगअलग दौर देखे हैं, हमारे हिंदी सिनेमा ने भी उन्हीं दौरों को अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है.

स्वतंत्रता के बाद के 20 सालों का इतिहास सपनों, चुनौतियों, आकांक्षाओं और नवनिर्माण का समय रहा. इन शुरुआती 2 दशकों की फिल्मों में हमें इसी तरह की कहानियां दिखाई दीं. ‘आवारा’, ‘आनंदमठ’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘फुटपाथ’, ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘श्री 420’, ‘सीमा’, ‘मदर इंडिया’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘सुजाता’ जैसी फिल्में बनाई और सराही गईं.

इसी तरह 70 के दशक में एक तरफ देश का मध्यवर्ग मजबूत हो रहा था तो वहीं समाज का ढांचा और दिशा तय हो रही थी. साथ ही, व्यवस्था से मोहभंग की शुरुआत भी हो चली थी. यही वह दौर था जब हिंदी फिल्मों में सामाजिक असंतोष को स्वर देने वाले अभिनेता अमिताभ का उदय हुआ था. एक तरफ जहां ‘गुड्डी’, ‘परिचय’, ‘अभिमान’, ‘चुपकेचुपके’, ‘आपकी कसम’, ‘रजनीगंधा’ जैसी मध्यवर्गीय समाज को दर्शाने वाली फिल्में बनीं तो दूसरी तरफ ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘त्रिशूल’ और ‘शोले’ जैसी आक्रोश को व्यक्त करने वाली फिल्में भी बनीं.

80 और 90 के दशकों में सामाजिक जीवन में स्थिरता और शांति थी. उस दौर में मीठे संगीत वाली प्रेम कहानियां, जैसे ‘लव स्टोरी’, ‘एक दूजे के लिए’, ‘हीरो’, ‘कयामत से कयामत तक’ और ‘मैंने प्यार किया’  ‘दिल’, ‘दीवाना’, ‘बेटा’, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘बाजीगर’, ‘खुदा गवाह’, ‘फूल और कांटे’ और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी फिल्में बनीं और खूब चलीं. कुछ हिंसक फिल्में, जैसे ‘घायल’, ‘अग्निपथ’, ‘थानेदार’, ‘हम’, ‘अंगार’, जैसी फिल्में भी बनीं. मगर ये कहीं न कहीं समाज को संदेश देने वाली फिल्में थीं.

नई शताब्दी के शुरुआती सालों में ही ‘चक दे इंडिया’, ‘तारे जमीं पर’, ‘फैशन’, ‘लव आजकल’ जैसी लीक से हट कर फिल्में बनीं. दूसरे दशक तक हिंदी फिल्मों की कहानी और फिल्मांकन में आमूलचूल परिवर्तन आया. इस दौर में हिंदी फिल्मों में हीरो और हीरोइन दोनों के ही किरदारों में परिवर्तन आया. किसी भी विश्वविद्यालय या कालेज कैंपस में नजर आने वाले उस समय के युवा की तरह हिंदी फिल्मों के हीरोहीरोइन भी युवा और नए जमाने के नजर आने लगे. फिल्में कुछ यथार्थवादी बनने लगीं और और इन के स्वर भी थोड़े विद्रोही होने लगे. ‘माय नेम इज खान’, ‘देल्ही बैली’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘खाप’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘राजनीति’, ‘आरक्षण’, ‘रौकस्टार’ और ‘देसी बौयज’ जैसी फिल्में बनीं और पसंद की गईं.

आज का दौर और भी अधिक बदल गया है. लोगों की सोच और रहनसहन में खुलेपन के साथसाथ आज के युवाओं की मानसिकता में भी बहुत बदलाव दिखता है. उन में सहनशीलता और धैर्य नहीं रह गया है. वे तुरंत आक्रोशित हो उठते हैं. वे आवेग और जल्दबाजी में बड़ेबड़े फैसले ले लेते हैं. उन्हें रिजैक्शन सहन नहीं होता. हर बात में मरनेमारने को उतारू रहते हैं. प्रेमिका ने ‘ न ‘ कहा तो उस की हत्या कर दी. पिता ने पैसे नहीं दिए तो काट डाला. दोस्त से झगड़ा हुआ तो गोली चला दी.

कहने का मतलब यह है कि युवाओं का उबलता खून ज्यादा ही हिंसक हो उठा है और आज की फिल्में भी यही सब दिखाती हैं. सैक्स और पैसे की चाह में लोग कुछ भी कर गुजरते हैं. पिछले कुछ वर्षों में सब से ज्यादा कमाई करने वाली फिल्में फ्रंट-फुटेड ऐक्शन फिल्में रही हैं जिन में ‘कबीर सिंह’, ‘पुष्पा’, ‘केजीएफ 2’, ‘पठान’, ‘जवान’, ‘गदर 2’ और हाल ही में संदीप रेड्डी वांगा की ब्लौकबस्टर ‘एनिमल’ शामिल हैं.

कुल मिला कर कह सकते हैं कि बदलते वक्त और तत्कालीन समाज की छाया हमारी फिल्मों में हर दौर में दिखाई दी. फिल्मों ने हर वक्त अपने दौर को परदे पर साकार किया है और ये फिल्में आज के दौर की असलियत से भी रूबरू करा रही हैं.

हमें सवाल अपनेआप से करना चाहिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? हमारी फिल्में क्या संदेश दे रही हैं? फिल्म ‘एनिमल’ को ही लीजिए. इस फिल्म के कुछ दृश्य हमें सोचने पर विवश करते हैं. मसलन, जब एक टीनएज लड़का बुली करने वाले क्लासमेट्स को डराने के लिए स्कूल में औटोमैटिक गन ले कर पहुंचता है और हर तरफ खौफ पैदा कर देता है. या फिर वह दृश्य जब एक शख्स हाथ में कुल्हाड़ी ले कर दुश्मनों की भीड़ को काटते चला जाता है. हर तरफ गिरते सिर-हाथ-पैर, बहता खून और लाशों के ढेर दिखाई दे रहे हैं. वही आदमी बंदूक से लोगों के प्राइवेट पार्ट्स पर गोलियां बरसा रहा है. इसी तरह फिल्म में एक आदमी गेस्ट के सामने ही अपनी नईनवेली पत्नी के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध स्थापित करता है. इस सीन को मैरिटल रेप की कैटेगरी में रखा जा सकता है.

इस फिल्म के ‘प्रेम और हिंसा’ में हमारा समाज क्या तलाश रहा है? ‘एनिमल’ फिल्म के हिंसक सीन्स के बारे में क्या हम सच में यह कह सकते हैं कि यह रील स्टोरी वाली हिंसा आज के समाज की सच्ची तसवीर दिखा रही है और जो सच है उसे दिखाने में गलत क्या है? अगर सुधारना है तो समाज में हो रही असली हिंसा के हालात को सुधारा जाना चाहिए. यकीन न हो तो रोज अखबारों के पन्ने उठा कर देख लीजिए. बर्बर हत्या, रेप, टौर्चर, किडनैपिंग, अत्याचार, साइबर फ्रौड की खबरों से अखबारों के पन्ने भरे मिलेंगे. सो, जब समाज में ये सब हो रहा है तो सिर्फ सिनेमा में नहीं दिखाने से क्या हम समाज को बचा सकेंगे?

फिल्मों में दिखाए जाने वाले असीमित हिंसा वाले सीन पर हमारे बीच कई लोग चिंतित हैं. मगर सोचने वाली बात है कि क्या वो सीन सैंसर बोर्ड से गुजर कर और पास हो कर नहीं आए हैं? अगर इन्हें पास नहीं होना चाहिए था तो फिर सैंसर बोर्ड से कैसे पास हुआ?

हिंसक कही जाने वाली ‘एनिमल’ फिल्म इतनी ज्यादा पौपुलर हुई कि बौक्सबौफिस पर 10 सब से बेहतर प्रदर्शन करने वाली फिल्मों में जगह बना चुकी है. बहुत कम समय में ही भारत के अंदर और वर्ल्डवाइड इस की कमाई 800 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर गई. इस फिल्म को पौपुलर तो हम ने ही किया है न.

इस फिल्म के हिंदी ट्रेलर को ही यूट्यूब पर 9 करोड़ बार देखा गया. यह रिलीज के 9वें दिन 60 करोड़ रुपए कमाने वाली इकलौती फिल्म बनी. इसी तरह हिंसा से भरी दूसरी फिल्में भी काफी पसंद की गईं. फिल्म इंडस्ट्री भी आखिरकार बाजार का हिस्सा है और बाजार का एक ही उसूल होता है कि ‘वही बनेगा जो बिकेगा’. ‘एनिमल’ के बाद उस से भी ज्यादा हिंसक फिल्म जरूर आएगी. आखिर फिल्मकारों को रुपए जो कमाने हैं.

देखा जाए तो फिल्मों में हिंसा दिखाने का प्रचलन बहुत पुराना है. पुरानी फिल्मों में हीरो और विलेन की फाइट ही क्लाइमैक्स का सब से मजबूत आधार होती थी. मगर यह कुछ समय के लिए होती थी और इस में विलेन को सजा मिलते हुए दिखाया जाता था. परंतु बीते दशकों में फिल्म निर्माताओं में हिंसा को ही पूरी स्क्रिप्ट का आधार बना दिया है. फिल्म के पहले सीन से आखिरी सीन तक मारधाड़, गोलीबारी और ऐक्शन दृश्यों की भरमार रहती है. साथ ही, इन में हीरो खुद ही पूरे समय हिंसा करता दिखाई देता है. हिंसा करने के कारण उसे शक्तिशाली दिखाया जाता है, जो सही नहीं, क्योंकि इस से युवा ऐसा ही करने को प्रेरित होंगे.

यह सोचना हमारा काम है कि इन का हमारी नई पीढ़ी पर, युवाओं पर, परिवारों पर और समाज पर क्या असर हो रहा है? इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ‘एनिमल’ जैसी फिल्में समाज का सच दिखा रही हैं.

नतीजा खतरनाक

अगर हाल के सालों में हुई हिंसक घटनाओं का विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि तमाम ऐसे अपराध हुए हैं जिन के आरोपी, चाहे किशोर उम्र वाले हों या बड़ी उम्र के, फिल्मों और वैब सीरीज में दिखाए गए सीन को कौपी करते हैं. अपराध के तरीके सीखने के लिए लोग इन्हीं फिल्मों और सीरीज के सीन्स को दोहराते हैं. इन फिल्मों और वैब सीरीज में दिखाए गए हिंसक सीन बच्चों को बेशक प्रभावित कर रहे हैं. उन के व्यवहार में हिंसा की झलक आप भी अपने आसपास महसूस कर सकते हैं.

हिंसा हम सब की जिंदगी में शामिल है

फिल्म इंडस्ट्री का काम है फिल्म बनाना, उसे दर्शकों के सामने पेश करना. उसे देखना या न देखने का विकल्प हमारे पास है और हम ने इसे देखा है. जाहिर सी बात है कि हमें यह स्वीकार्य है. स्वीकार्य इसलिए है क्योंकि हम अपने समाज में ऐसा होते देखते रहते हैं. हमें इस की हिंसा के दृश्य अजीब नहीं लगे. हम खुद भी जिंदगी में कहीं न कहीं हिंसा कर रहे होते हैं. हिंसा आज हम सब की जिंदगी में शामिल है और इस की वजहें बहुत सी हैं.

धर्म के नाम पर हिंसा

धर्म की आड़ में हिंसा को बढ़ावा देना बहुत आसान है. लोग अपने मतलब के लिए धर्म के नाम पर लोगों को लड़वाते रहे हैं. हर इंसान के दिल में अपना धर्म बसा होता है और उसी का फायदा उठा कर उलटीसीधी बातों से लोगों को अन्य धर्म के खिलाफ भड़काया जाता है. इस से हालात बिगड़ते हैं. धर्म युद्ध होते हैं. लोग एकदूसरे की जान के दुश्मन बन जाते हैं और खून की नदियां बहाते हैं. यही नहीं, हमारे धर्मग्रंथों में भी आप को हर जगह हिंसा की घटनाएं नजर आएंगी. धार्मिक कहानियों में हिंसा प्रमुखता से होती है.

राजनीति भी जिम्मेदार

राजनेताओं की यह रणनीति रहती है कि पहले घाव करो और फिर उस घाव पर मरहम लगा कर जनता का विश्वास और प्यार जीतो. सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि जातिधर्म और ऊंचनीच के नाम पर लोगों के बीच वैमनस्य पैदा करना, नफरत फैलाना और हिंसा को बढ़ावा देना बहुत आसान है. इसीलिए पहले तो नेताओं द्वारा सांप्रदायिक दंगे करवाए जाते हैं, फिर उन के बीच जा कर वे संवेदना जताते हैं और दंगे से हुए नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजों का पिटारा खोल लोगों का दिल जीतने का प्रयास करते हैं.

हिंसा एंजौय करने की आदत

हमें हिंसा करना पसंद है, तभी हम ऐसी फिल्में देख कर खुद को तृप्त कर रहे होते हैं. स्पेन में भैंसों के साथ आदमियों को लड़ाया जाता है. इस को देखने के लिए लाखों लोग देखने को इकट्ठे होते हैं. भारी धूप है, आग बरस रही है और घंटों वे बैठे हुए हैं कि भैंसे से एक आदमी लड़ रहा है और भैंसे के सींग उस की छाती में घुस गए हैं. लोग उत्सुकता और आतुरता के साथ उस के गिरते हुए खून को देख रहे होते हैं. इस से भीतर की हिंसा को रस मिलता है.

हिंसा हमेशा से ही मनुष्य को आकर्षित करती है क्योंकि उस के सबकौन्शियस माइंड में हावी होने, बलवान दिखने, मजबूत और शक्तिशाली होने का भाव रहता है. इस का यह मतलब नहीं है कि वो ऐसा ही बन भी जाता है. याद रखें, हिंसा कितनी भी अट्रैक्टिव हो, अपनी तरफ खींचे, आप के भीतर ‘अल्फा मेल’ की ऊर्जा को जोर दे, इस तरह की फिल्मों के मुख्य किरदार को अपना रोल मौडल न समझें. प्रेम और रिश्तों के नाम पर हिंसा के इस ट्रैंड में खुद के भी बहने की सोच को अपने भीतर हावी न होने दें.

अपने बच्चों को हिंसा से दूर रखना है तो पहले समाज को बदलना होगा. बच्चों को धर्म के झमेलों और दांवपेंचों से दूर रखना होगा. उन्हें अपना समय देना होगा. साथ ही, यह समझना भी जरूरी है कि बच्चों को सिखाने से पहले खुद सीखना होगा. खुद घर में भी और बाहर भी हिंसक व्यवहार से तोबा करनी होगी. प्यार से हर बात सुलझ सकती है, तो फिर हिंसा का रंग देने की क्या जरुरत. बच्चों को अच्छी आदतों की ओर ले जाने के लिए उन के सामने आप को अच्छे विकल्प और अच्छे उदाहरण पेश करने होंगे. सख्ती के बजाय दोस्त के तौर पर उन के मनोभाव को समझने के साथ ही उन की इस समस्या को आप हल कर पाएंगे.

आखिर क्यों भारतीय विदेशों में नौकरी तलाश रहे हैं

भारत के एतराज के बाद हालांकि ताइवान ने माफी मांग ली है लेकिन इस से वे मुद्दे खत्म नहीं होने वाले जो उपजे थे. कहनेसुनने में बात बहुत साधारण है. ताइवान की श्रम मंत्री शू मिंग चूं ने कहा था कि ताइवान पूर्वोत्तर के इसाई कामगारों को प्राथमिकता देगा, क्योंकि उन का रूप रंग और खानपान ताइवानी लोगों जैसा है. दिनरात राम, श्याम और शिव विष्णु में उलझे लोगों को इस से कोई सरोकार कभी नहीं रहा और न ही यह भरे पेट लोगों की उत्सुकता या दिलचस्पी का विषय है कि 140 करोड़ की आबादी वाले भारत का एक करार महज ढाई करोड़ की आबादी वाले ताइवान से बीती 17 फरवरी को हुआ है. जिस के तहत भारत अब ताइवान को भी अपने कामगार उपलब्ध कराएगा दूसरे लफ्जों में कहें तो सप्लाई करने पर सहमत है.

शिंग चूं की इस टिप्पणी को अन्यथा लेते भारत सरकार ने इसे नस्लभेदी माना था जबकि उन की मंशा बहुत व्यवहारिक भी थी कि नौर्थ ईस्ट इंडिया के लोगों का रंग खाने के तौरतरीके, हम से मिलतेजुलते हैं. वे हमारी तरह ही ईसाई धर्म में ज्यादा विश्वास रखते हैं. वो काम में भी निपुण हैं इसलिए पहले पूर्वोत्तर के श्रमिकों को भर्ती किया जाएगा.

इस में गलत क्या

साफ दिख रहा है कि ताइवानी विदेश मंत्री की मंशा में कोई खोट नहीं था. वे तो लगता है अति उत्साह में अपनी प्राथमिकताएं गिना रहीं थीं. ताइवानी माफी के बाद यह मुद्दा तो आयागया हो गया लेकिन हमें काफी कुछ सीखने भी छोड़ गया जिस में अहम यह है कि देश में भयंकर बेरोजगारी है और कामगारों को उन की मेहनत और निपुणता के हिसाब से मेहनताना नहीं मिलता है.

दूसरे यह नियोक्ता का हक होता है कि उसे कैसे कर्मचारी चाहिए लेकिन दुनियाभर में कहने को ही सही लोकतंत्र है जिस के चलते धर्म और जाति बेहद संवेदनशील हो जाते हैं.

बिहारी मजदूरों की मांग देश में हर कहीं रहती है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के कई कामों पर तो कब्जा बिहारियों का ही है. तो बिहारी मजदूर एक विशेषण हो गया है. इस से धर्म जाति या नस्ल का कोई लेनादेना नहीं है जिस के नीचे ढका सच यह है कि बिहार अभी भी 60 – 70 के दशक की तरह बेरोजगारी से त्रस्त है और वहां से हजारों मजदूर और कामगार रोजगार की तलाश में दिल्ली मुंबई सहित दक्षिणी राज्यों में पलायन करते हैं जहां उन्हें ठीकठाक पैसा मिल जाता है. ये लोग सहज उपलब्ध हैं और मेहनती माने जाते हैं. यही इन की पूछ परख की वजह है.

शुक्र इस बात का होना चाहिए कि अब कोई भी घोषित तौर पर गिरमिटिया मजदूर नहीं है. गौरतलब है कि गिरमिटिया उन लोगों को कहा जाता है जिन्हें 17वीं सदी से बाद तक ब्रिटिश हुकुमत गुलामों की तरह दक्षिण अफ्रीका और अपनी जरूरत के मुताबिक दूसरे देशों में पानी के रास्ते ढो कर ले जाती थी. इन का हर तरह से जम कर शोषण होता था. हल्ला मचने पर 1917 को इस रिवाज को बंद कर दिया गया था.

गिरमिटियाओं के कोई हक नहीं होते थे वे दरअसल में गुलाम होते थे. लेकिन अब ऐसा कहीं नहीं है और है भी तो दूसरे तरीकों से कि आप सरकार की जानकारी और इजाजत के बगैर किसी को विदेश ले जा कर काम नहीं करा सकते. बहुत से नियम कायदे कानून पिछले सौ सालों में बने हैं.

भारत ताइवान सरकारों के बीच बाकायदा करार हुआ है जो यह साबित करता है कि भारतीय कामगारों और मजदूरों की पूछ परख विदेशों में ज्यादा है क्योंकि वे आमतौर पर मेहनती और ईमानदार होते हैं. अगर ताइवान जैसे छोटे देश भारतीय कामगारों को काम और दाम दे रहे हैं तो हमें उन का आभारी होना चाहिए क्योंकि हम उन्हें काम और दाम दोनों नहीं दे पा रहे.

विदेशों में ज्यादा पैसा

मिडिल ईस्ट भारतीयों की प्राथमिकता शुरू से ही रही है क्योंकि इन देशों में मजदूरों और कामगारों को भारत से कहीं ज्यादा पैसा मिलता है. एक ताजे आंकड़े के मुताबिक अकेले यूएई में 35 लाख से भी ज्यादा भारतीय काम कर रहे हैं. सऊदी अरब में इन की संख्या 23 लाख के लगभग आंकी गई है. कुवैत में 8.5 लाख भारतीय कार्यरत हैं. ओमान में भी यह संख्या 6 लाख के लगभग हैं.

वर्ल्ड औफ स्टेटिस्टिक्स ने 104 देशों में कामगारों की औसत पगार के जो आंकड़े दिए हैं. उन के मुताबिक सब से ज्यादा पगार स्विट्जरलैंड के कामगारों को 6,906 डौलर मासिक मिलती है. भारत इस लिस्ट में 65वे नंबर पर है. जहां कामगारों की औसत सैलरी महज 573 डौलर है. भारतीयों की पहली पसंद यूएई में कामगारों को 3,498 डौलर हर महीने मिलते हैं. दुनिया भर में यह 8वे नंबर पर है. कतर 6ठे नंबर पर है जहां कामगारों को 3982 डौलर प्रतिमाह मिलते हैं.

जाहिर है जहां ज्यादा पैसा मिलेगा लोग वहा जाना पसंद करेंगे. अब अगर देश से 100 से ले कर 500 गुना ज्यादा तक सैलरी विदेशों में मिलती है तो लोग विदेश जा कर कमाने वाले बहुत कुछ करने तैयार भी रहते हैं. प्लम्बर और कारपेंटर से ले कर सौफ्टवेटर इंजीनियर तक विदेशों का रुख कर रहे हैं. जिन्हें विदेश में मुनासिब पैसा मिल रहा है.

ऐसे में सरकार के किसी ताइवान पर किसी औपचारिक एतराज की वजह समझ से परे है. जो दुनिया की तीसरी पांचवी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था होने का ढिंढोरा तो रोज पीटती है लेकिन न रोजगार दे पा रही है और न ही सही मेहनताना उस की चिंता है.

सरकार को भी है फायदा

वर्क फोर्स किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है जिस के बाहर जाने में भी फायदा होता है. फायदा यह कि जो भी कामगार या इंजीनियर विदेश जाएगा तो वह अपनी कमाई घर भी भेजेगा. इसे अर्थशास्त्र की भाषा में रेमिटेंस कहते हैं.

वित्त मंत्रालय के अंदाजे के मुताबिक इस साल 2023 के मुकाबले रेमिटेंस में 8 फीसदी का इजाफा होगा. साल 2023 में भारतीय कामगारों ने कोई 125 अरब डौलर भारत भेजे थे अब इस में 8 फीसदी की बढ़ोतरी और सुकून देने वाली है.

अंदाजा है कि विदेशों में काम कर रहे भारतीय अपनी कमाई का 70 फीसदी तक हिस्सा घर वालों को भेजते हैं. वित्त मंत्रालय की एक ताजी रिपोर्ट के मुताबिक पहले के मुकाबले अधिक कुशल व योग्य होने के कारण भारतीय अब भारतीय अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में ज्यादा जा रहे हैं जिस से उन की आमदनी बढ़ रही है और रेमिटेंस में भी इजाफा हो रहा है.

विदेशी मुद्रा हासिल करने का सब से बढ़िया तरीका रेमिटेंस है. जिस से अर्थव्यवस्था को गति भी मिलती है तो सरकार इस बाबत करार पर करार किए जा रही है फिर चाहे वह ताइवान हो रूस हो या इजरायल हो या खाड़ी के देश हों, उसे इस से कोई मतलब नहीं. लेकिन अच्छी बात यह है कि इस खेल में उसे नस्ल, धर्म और जाति की चिंता है जो खुद के गिरमिटिया न होने का एहसास कराती है.

सरकार रोजगार के मुद्दे पर भी जवाब देने से बच जाती है कि वह क्यों देश में रोजगार पैदा नहीं कर पा रही और जो हैं वे अग्निवीर या डिलेवरी बौय जैसी कम सैलरी वाले और टेम्परैरी क्यों हैं?

हैं कहां रोजगार

सरकारी आंकड़ों की मानें तो देश में बेरोजगारी अब न के बराबर बची है. पिछले साल अक्तूबर में एनएसएसओ द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2022 – 23 में बेरोजगारी की दर 4.1 फीसदी थी जो साल 2021 – 22 में 4.2 फीसदी थी. बेरोजगारी दर से मतलब यह लगाया जाता है कि उपलब्ध मानव श्रम में से कितने फीसदी लोगों के पास काम नहीं है. इस लिहाज से इस साल सब से कम बेरोजगारी है. और सरल भाषा में कहें तो कामकाजी की उम्र की कुल आबादी में 57.9 फीसदी लोग काम कर रहे हैं, यानी 42.1 फीसदी लोगों के पास काम नहीं है.

इसी साल जनवरी में सेंटर फौर मौनीटरिंग इंडियन इकोनमी के मुताबिक भारत में बेरोजगारी की दर 6.8 फीसदी थी जो दिसम्बर 2023 में 8.7 फीसदी थी. सरकारी और गैरसरकारी आंकड़ों से सही अथिति नहीं आंकी जा सकती क्योंकि आंकड़ों में भिन्नता होती है और हर एक एजेंसी की बेरोजगारी की अपनी अलग परिभाषा होती है.
चुनावी साल में बेरोजगारी बेवजह बड़ा मुद्दा नहीं है. विपक्ष इसे खूब हवा दे रहा है जबकि सरकार और उस के मुखिया नरेंद्र मोदी की मुमकिन इस से बच कर निकल जाने की रहती है. लेकिन हकीकत यह है कि सरकार खुद नौकरियां नहीं दे पा रही है और प्राइवेट सैक्टर की नौकरियां बहुत कम सैलरी वाली हैं. अब जिन्हें ज्यादा सैलरी चाहिए उन्हें ताइवान और इजराइल जैसे देशों का रुख करना चाहिए.

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