story in hindi
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सोशल मीडिया पर 2 खबरें बड़ी तेजी से वायरल हुईं. पहली खबर फिल्म अभिनेत्री और मौडल पूनम पांडेय की मौत से जुड़ी है और दूसरी किरन बेदी को पंजाब का राज्यपाल बनाने की खबर भी सच की तरह से देखी गई. यह हाल के एकदो दिनों की घटनाएं हैं, ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं.
जनवरी 2011 में विद्रोहियों ने राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की सत्ता को उखाड़ फेंका था. इस विद्रोह को आगे बढ़ाने वाले लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय थे. इस क्रांति के पीछे सोशल मीडिया की ताकत थी. क्रांति का बिगुल फूंकने का श्रेय गोनिम को जाता है. उन्होंने ‘हम सब खालिद सईद हैं’ नाम का फेसबुक पेज शुरू कर लोगों से विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की अपील की थी. सोशल मीडिया से एकजुट हुए लोगों के 3 दिनों के प्रदर्शनों के बाद सेना ने मिस्र में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए राष्ट्रपति को पद से हटा दिया. इस के बाद सत्ता और भी अधिक कट्टरवादियों के हाथ आ गई.
मिस्र में क्रांति का कोई मकसद पूरा नहीं हुआ. 2011 की क्रांति को जोरदार धक्का लगा है. देश में दमन का राजनीतिक माहौल है. मुबारक युग की वापसी हो रही है. क्रांति का मकसद पूरा नहीं हुआ है. लोगों को रोटी, आजादी और सामाजिक न्याय मिले. कुछ लोग मानते हैं कि क्रांति में मेरा भरोसा अडिग है. देश की स्थिति सुधारने के लिए वह निहायत ही जरूरी था. क्रांति का कोई मकसद पूरा नहीं हुआ. आजादी का मुद्दा आज भी बना हुआ है. सोशल मीडिया ने क्रांति तो करवा दी पर जिम्मेदारी नहीं संभाल पाई. जिस की वजह से देश और भी खराब हालात में फंस गया.
मिस्र जैसा उदाहरण ही भारत में भी देखने को मिला है. अन्ना आंदोलन भी कुछ उसी तरह का था. जिस ने उस समय की यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि को खराब किया. उस में सोशल मीडिया की भूमिका सब से अधिक थी. देश में अन्ना आंदोलन पहला था जिस में सोशल मीडिया और सामाजिक क्षेत्र में काम करने वालों की भूमिका प्रमुख थी. इस आंदोलन को बड़ी सफलता दिल्ली के निर्भया कांड के कारण मिली. पूरे देश ने निर्भया को न्याय दिलाने के लिए आवाज उठाई.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी निर्भया से मिलने अस्पताल गए. इलाज के लिए विदेश भेजा लेकिन उस को बचाया नहीं जा सका. उस समय की यूपीए सरकार ने निर्भया को ले कर अलग से बजट बनाया जिस से महिला सुरक्षा के लिए काम किया जा सके. महिलाओं को ले कर नया कानून भी बनाया गया. इस के बाद भी सोशल मीडिया में जो प्रचार हुआ उस का प्रभाव 2014 के लोकसभा चुनाव पर पड़ा और कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार चुनाव हार गई. एनड़ीए की अगुआई में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए.
सोशल मीडिया ने यूपीए सरकार हटाने की दिशा में बड़ा प्रचार अभियान चलाया. भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दा बना. देश को भ्रष्टाचारमुक्त रखने के लिए लोकपाल कानून बनाने की मांग की गई थी. यूपीए की सरकार हटने के बाद लोकपाल और भ्रष्टाचार पर बात होनी बंद हो गई.
देश की राजनीति ‘दानदक्षिणा पंथी’ विचारधारा की तरफ बढ गई. ‘दक्षिणा बैंक’ मजबूत करने के लिए मंदिर और धर्म की राजनीति होने लगी. महिला कानून और भ्रष्टाचार जैसे मुददे दरकिनार हो गए. जिस सोशल मीडिया ने इन को ले कर हल्ला मचाया था वह इस को भूल कर ‘दक्षिणा पंथी’ हो गई. अन्ना आंदोलन के प्रमुख अन्ना हजारे और उन के लोग अलगअलग गुटों में बंट गए. जो राजनीति को बदलने की बात करते थे वे खुद बदल गए.
मुद्दों को हल करने की ताकत नहीं :
सोशल मीडिया की सब से बड़ी कमजोरी या दिक्कत यह है कि वह मुद्दों को उठा सकती है. किसी भी विरोध को हवा दे सकती है लेकिन उस को हल नहीं कर सकती. मिस्र में मुबारक सरकार के खिलाफ हवा देने की बात हो या भारत में यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की, सोशल मीडिया ने हवा तो बनाई लेकिन बदलाव की दिशा को सही करने का काम नहीं किया. कारण यह है कि विरोध को हवा दे कर नाकारात्मक माहौल तो बनाया जा सकता है, सोशल मीडिया या भीड़ निर्माण का काम नहीं कर सकती.
अयोध्या में विवादित ढांचे के खिलाफ आंदोलन कर के कारसेवा करने वालों को एकजुट तो किया जा सकता है जो ढांचे को गिरा सकता था. वहां पर निर्माण करना भीड़ के वश का नहीं था. सोशल मीडिया जो फैलाता है वह पूरा सच नहीं होता. उस में 90 फीसदी झूठ होता है. लोग सच को नहीं जानना चाहते, झूठ के पीछे भाग लेते है. पूनम पांडेय ने अपनी मौत का झूठ सोशल मीडिया पर फैलाया, सब ने सही मान लिया. भाजपा नेता ने किरन बेदी को पंजाब का राज्यपाल बनाया, लोगों ने सच मान लिया.
पहले परखें, फिर आगे बढाएं :
ऐसे में जरूरी है कि सोशल मीडिया के सच को पहचानें. सोशल मीडिया पर बहुत सारे इन्फ्लुएंसर है जो तरहतरह के प्रचार कर के देखने वालों को बेवकूफ बनाते है. सोशल मीडिया पर इन को फौलो करने वाले यह भी नहीं देखते कि ये लोग हैं कौन? इन की अपनी विश्वसनीयता कितनी है. सोशल मीडिया पर जब कोई पोस्ट देखते हैं तो सब से पहले यह देखना जरूरी है कि पोस्ट करने वाला कौन है, उस की अपनी विश्वसनीयता क्या है.
ऐसी बहुत सारी पोस्ट होती हैं जिन को किस ने भेजा, हमें पता नहीं होता है. हम उस को आगे फौरवर्ड करने लगते हैं. इस से सोशल मीडिया पर झूठ को बढ़ावा मिलता है. पैसे कमाने के लिए इन्फ्लुएंसर्स झूठ बोलते है. हम उन को सही मान कर यकीन कर लेते हैं. ये ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं जिन का काम किसी तरह से अपने फौलोअर्स को बढ़ाने का होता है. फौलोअर्स बढ़ाने के साथ ही वे झूठे प्रचार कर पैसे कमाने लगते हैं.
आज बहुत सारे अच्छे लोग और उन के चैनल सोशल मीडिया पर हैं. भले ही उन के फौलोअर्स अधिक न हों पर वे झूठ नहीं परोसते. ऐसे लोगों को फौलो करिए. उन के कमैंट देखिए. पत्रपत्रिकाओं के भी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म हैं, जहां कुछ भी पोस्ट करने से पहले संपादक की नजर से हो कर गुजरना पड़ता है. उन की पोस्ट पर यकीन करें. अखबार और पत्रिकाएं पढ़ेंगे तो आप के अंदर तर्क करने की क्षमता का विकास होगा. आप लिखना समझेंगे, सोशल मीडिया के झूठ को फैलाने का हिस्सा नहीं बनेंगे.
भारतीय जनता पार्टी ने अपने राजसूय यज्ञ का घोड़ा खोल दिया है. 2024 में वह पूरे भारत को जीतना चाहती है. इस के लिए उस ने अपना लक्ष्य 400 के पार लोकसभा की सीटों का रखा है.
भारत के इतिहास में 400 सांसदों की जीत केवल 1984 में मिली थी. जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी. राजीव गांधी उस समय कांग्रेस के नेता थे. इस सहानुभूति वाले चुनाव में कांग्रेस को 404 लोकसभा की सीटें मिली थीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना नाम इतिहास में लिखवाने का शौक है. ऐसे में वे 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को 400 से अधिक सीटें हासिल करने का लक्ष्य ले कर चल रहे हैं.
पौराणिक कहानियों में तमाम ऐसे राजाओं की कहानियां दर्ज हैं जो अपनी ताकत दिखाने के लिए राजसूय यज्ञ करते थे. इस के लिए अपना एक घोड़ा छोड़ते थे. घोड़ा जो भी पकड़ता था उसे राजा से लड़ना होता था.
मजेदार बात यह है कि यह घोड़ा केवल कमजोर राज्यों की तरफ जाता था. भारत के किसी भी राजा ने दूसरे देशों पर अपना झंडा नहीं लहराया है. जिस तरह से मुगलों ने भारत पर आक्रमण किया, उस तरह भारत के किसी राजा ने दूसरे देश को अपने कब्जे में नहीं किया. इस से यह पता चलता है कि राजसूय यज्ञ का घोड़ा अपने ही राज्य के राजाओं के लिए छोड़ा जाता था.
कहां खो गया पार्टी का चाल, चरित्र और चिंतन ?
लोकतंत्र में घोड़ा तो नहीं छोड़ा जा सकता, ऐसे में इस के लिए दूसरी पार्टियों को खत्म करना जरूरी हो गया है. इस के लिए भाजपा तोड़फोड़ और दलबदल को बढ़ावा दे रही है. बिहार में जदयू और राजद गठबंधन को तोड़ कर नीतीश कुमार को भाजपा ने अपनी तरफ मिला लिया. नीतीश कुमार को अपना बहुमत साबित करना है. अब सब की नजर कांग्रेस के विधायकों पर है. कांग्रेस अपने विधायकों को हैदराबाद में कैद कर के रखे हुए है, जिस से किसी दूसरे दल से उन की बातचीत न हो सके.
उत्तर प्रदेश में भाजपा जंयत चौधरी की पार्टी लोकदल पर डोरे डाल रही है. महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़ कर एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया. इस के साथ ही विरोधी नेताओं को दबाने के लिए सीबीआई और ईडी का सहारा लेना पड़ रहा है. इस तरह के काम हमेशा कमजोर लोग करते हैं. भाजपा खुद को ताकतवर कहती है. सिद्धांतों पर चलने वाली पार्टी बताती है. इस के बाद भी उसे छोटे दलों में तोड़फोड़ करनी पड़ती है.
चंडीगढ़ में मेयर का चुनाव जीतने के लिए इसी तरह का काम किया गया. जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक को टिप्पणी करनी पड़ी है. चुनाव में दलबदल कोई नई बात नहीं है. हरियाणा में 1980 के दशक में ‘आयाराम गयाराम’ नाम से दलबदल मशहूर था. उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा और सपा की सरकार के दौर में 1989 के बाद से 2007 तक यह खूब हुआ. इस में संस्कारवान कही जाने वाली भाजपा का बड़ा योगदान रहा है. ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ की बात करने वाली भाजपा ने इस संस्कृति को खूब बढ़ावा दिया.
बिना विपक्ष किस काम का लोकतंत्र ?
राजनीति में पालाबदल संस्कृति धर्म के रास्ते आई. पौराणिक कहानियों में कई जगहों पर यह बताया गया है कि देवता भी एकदूसरे के पक्ष में पाला बदल करते रहते थे. उन की कहानियां सुना कर नेता अपने पालाबदल को सही ठहराते हैं. वे तर्क देते हैं कि न्याय के लिए बोला गया झूठ झूठ नहीं होता.
रामायण में राम ने जब राजा बालि को मारा तो बालि ने अपना दोष पूछा तो राम ने कहा कि अपने भाई का राज्य और पत्नी हासिल करने के अपराध का दंड है. विभीषण ने रावण के अधर्म को ढाल बना कर पाला बदल लिया. महाभारत में कृष्ण ने दोनों पाले में रहने का फैसला करते समय कहा कि वे युद्ध नहीं करेंगे. इस के बाद भी वे परोक्ष रूप से युद्ध में हिस्सा लेते रहे.
आज भी नेता जब पाला बदलते हैं तो कहते हैं कि उस पार्टी का लोकतंत्र खत्म हो गया था, वहां दमघुट रहा था. अब आजादी की सांस ले रहे हैं, घरवापसी हो गई है. संविधान बचाने के लिए दलबदल जरूरी था. नेताओं के तर्क पर ही घर, परिवार और महल्लों में अलगअलग पाले बन जा रहे हैं. घरों में 2 ही भाई हैं तो दोनों के बीच पाले बन गए हैं. उन के बीच खींचतान होती है. पालाबदल की यह संस्कृति धर्म से राजनीति, राजनीति से घरों तक फैल रही है. इस से घर का अमनचैन प्रभावित हो रहा है.
लोकतंत्र में अगर विधायकों, सांसदों को बचाने के लिए कभी हैदराबाद, कभी गोवा और कभी गोहाटी के रिजौर्ट में कैद रखना पड़े तो यह कैसा लोकतंत्र और कैसी आजादी. दलबदल करने वाला नेता तो इस का जिम्मेदार है ही, जो ताकत इस के लिए मजबूर कर रही है वह और भी अधिक जिम्मेदार है.
केवल 400 के पार जाने से क्या हासिल होगा? लोकतंत्र में संख्या का बल तो महत्त्व रखता ही है, उससे अधिक महत्त्व विपक्ष भी रखता है. लोकसभा में जब सदन बैठे, दूसरी तरफ विपक्ष हो ही न, सब सांसद हां में हां ही मिलाते रहे तो जनता की आवाज को कौन उठाएगा…
1 – सुबह उठ कर सब से पहले भगवान गणेश का ध्यान करें क्योंकि 14 फरवरी को बुधवार है जो उन का दिन होता है. मन ही मन 108 बार ॐ गण गणपते नमाय मंत्र का जाप करें. इस के बाद सरस्वती का ध्यान करें क्योंकि इस दिन उन का भी डे यानी बसंतपंचमी है. उन से बस इतनी प्रार्थना करें कि ‘हे मां, हुड़दंगियों को इतनी बुद्धि मत दे देना कि वे मुझे पहचान लें.’
2 – अब बिस्तर छोड़ कर नहाएंधोएं (हालांकि यह ऐच्छिकहै). फिर सीधे घर के पूजाघर में जा कर जितने भी प्रकार के देवीदेवता राम, कृष्ण, शंकर, दुर्गा, हनुमान, शालिग्राम वगैरह मम्मी ने रख छोड़े हों, सब का बारीबारी से पूजन करें (यह अनिवार्य है). नंदी, राहू केतु, काली, शनि और दूसरे न समझ आने वालो को भी पूजें. आज न जाने कौन कृपा बरसा दे. पूजा पूरे मन से और विधिविधान से करते देवीदेवताओं से प्रार्थना करें कि ‘हे प्रभु, बस आज इन प्यार के दुश्मन हुड़दंगियों से बचा ले, सवा सौ रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगा. जेब की हैसियत और प्यार की गहराई व सचाई के मुताबिक यह राशि बढ़ा भी सकते हैं.
3 – बाहर जाने से पहले ड्रैसअप हों लेकिन इस बार आप की ड्रैस जींसटीशर्ट नहीं, बल्कि भगवा कुरता और धोती होंगे. ये वस्त्र पूरे श्रद्धाभाव से धारण करें.
4 – अब माथे पर बड़ा सा तिलक या त्रिपुंड लगाएं जिसे देख कर हुड़दंगी अगर कहीं टकराए तो फ्लेट हो जाएंगे और आप से ही कहेंगे कि तू एकांत पार्क संभाल, मैं नेहरू गार्डन जा रहा हूं. वहां बहुत से शिकार गुटरगूं-गुटरगूं कर रहे हैं.
5 – गले में बड़ी सी रुद्राक्ष की माला धारण करें जो आप की छाती, चाहे वह कितने भी इंच की हो, पर झूलती दिखे. इसे देखते ही प्यार के दुश्मनों में आप के प्रति श्रद्धा, सम्मान और अपनेपन का भाव जागृत होगा.
6 – वे आप को देख कर जयजय श्रीराम, हरहर महादेव और जय बजरंगबली के नारे लगाएंगे, आप को पूरे जोश के साथ गला फाड़ कर इन आधुनिक अभिवादनों का जवाब देना है जिस से वे आप की मंशा, नीयत और अभियान पर कोई शक न करें.
7 – गले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बड़ा सा लौकेट लटकाएं. कलियुग में इन दिनों यह सब से बड़ा संकटमोचक और चमत्कारी यंत्र है जो स्वयंसिद्ध है. इसे अलग से अभिमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती. आप खुद इसे पहनने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज हो जाएंगे और आप को सिवा नरेंद्र मोदी के, किसी का डर नहीं रहेगा या लगेगा.
8 – साइकिल, बाइक या कार से जाएं तो उस पर भगवा झंडा अवश्य लगा हो, जिसे देख कर ही छोटोमोटी बाधाएं रास्ता छोड़ देती हैं.
9 -गले में अगर जनेऊ लटका लें तो सोने पे सुहागा वाली बात होगी. किसी हुड़दंगी की मजाल नहीं होगी कि आप की तरफ आंख उठा कर देखे.
10 – हाथ में डंडा भी रखें. इस से आप पूरी तरह खुद हुड़दंगी गैंग के मैंबर नजर आएंगे. मुमकिन है, कई प्रेमी जोड़े आप को देख कर छिपें और भागें. आप चाहें तो निशुल्क या सशुल्क उन की मदद कर उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा सकते हैं. इस के बाद अपने पार्टनर के पास जा सकते हैं. किन्हीं प्रेमियों की यों मदद कर आप को उसी अदभुद सुख का एहसास होगा जो हुड़दंगियों को प्रेमियों की मारकुटाई करने से होता है.
11 – गले में भगवा गमछे का लहराते रहना सब से ज्यादा जरूरी है.
डिस्क्लेमर (एक) – ये दुर्लभ उपाय सामान्य जानकारियों व अनुभवों पर आधारित हैं. इन से यह गारंटी नहीं ली जाती कि आप हुड़दंगियों से बच ही जाएंगे. लेकिन बचने की संभावना 99 फीसदी बढ़ जाती है. एक फीसदी में आप की ऐक्टिंग, समय और प्यार की सचाई शामिल है, इसलिए अपने रिस्क पर यह सब करें.
डिस्क्लेमर (दो) – इस वेशभूषा को तन तक ही सीमित रखें, मन तक न लाएं, क्योंकि इस का प्रभाव इतना तेज होता है कि आप खुद को हुड़दंगी समझते प्रेमियों की मारकुटाई शुरू कर सकते हैं और उन से वसूली भी कर सकते हैं. इसलिए अपना मकसद ध्यान रखें और जहां अपनी महबूबा से मिलने का वादा किया है, जल्द से जल्द वहां पहुंचें.
डिस्क्लेमर (तीन) – आप की माशूका आप को इस गेटअप में देख कर डर सकती है, इसलिए उसे पहले ही बता दें कि आप हुड़दंगी बन कर आ रहे हैं.
डिस्क्लेमर (चार) – अकेले जाएंगे तो असली हुड़दंगी आप पर शक कर सकते हैं, इसलिए किसी दोस्त को भी साथ लटका लें, जैसे पुरानी हिंदी फिल्मों में हीरो के साथ महमूद या मोहन चोटी जैसा कोई कलाकर लटका रहता था. लेकिन उस का भी गेटअप ऐसा ही होना चाहिए जैसा कि ऊपर बताया गया है.
डिस्क्लेमर (पांच) – इस लेख को अपने तक रखें, ज्यादा से ज्यादा फौरवर्ड न करें. नहीं तो हुड़दंगी सतर्क हो जाएंगे.
उम्मीद है, इन टोटकों को अमल में लाने से आप का वैलेंटाइन डे बिना ठुकाईपिटाई के सलामत हाथपांव के साथ मन जाएगा. प्यार में लोग क्याक्या नहीं कर गुजरते, यह आप बेहतर जानते हैं. उस के आगे तो हुड़दंगियों वाला यह गेटअप कुछ नहीं. लेकिन एक बार फिर याद दिला दें कि आप को हुड़दंगी बन कर प्रेमियों पर गाज नहीं गिराना है. ये टिप्स आप के अभियान की सफलता के लिए हैं. ये टिप्स ‘जहर ही जहर को काटता है’ या फिर ‘कांटे से ही कांटा निकलता है’ वाले तर्ज पर दिए जा रहे हैं. इन का बेजा विध्वंसात्मक इस्तेमाल न करें.
दिग्गज भाजपा नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण अडवाणी को देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न देने पर उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रिया नहीं हुई. विपक्ष के तमाम नेता ईडी से बचने के जुगाड़ और भागादौड़ी में लगे हैं. ऐसे में वे इस फैसले पर प्रतिक्रियाहीन बने रहने में ही अपना भला महसूस रहे हैं. लेकिन जिस जनता के बिहाफ पर भारत रत्न और पद्म पुरस्कार सहित दूसरे छोटेबड़े सरकारी पुरस्कार व सम्मान दिए जाते हैं उस जनता के दिलोदिमाग पर भी भारत रत्न के ऐलान का कोई खास असर नहीं हुआ.
इस घोषणा के 11 दिनों पहले जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा हुई थी तब जरूर थोड़ी हलचल हुई थी. लेकिन अधिकतर लोगों को खासतौर से युवाओं के जेहन में यह सवाल आया था कि अब ये कर्पूरी ठाकुर कौन हैं और इन्होंने देश के लिए ऐसा क्या किया है कि उन्हें यह सब से बड़ा सम्मान प्रदान किया जा रहा है.
यह घोषणा बिहार और उत्तर प्रदेश के समाजवादी दलों और कुछ पिछड़ों को ही थोड़ी रास आई थी लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के बारे में गिनाने के लिए हिंदूवादियों के पास इतना ही है कि उन की कोशिशों के चलते राममंदिर बन पाया और देश हिंदू राष्ट्र होने की तरफ बढ़ रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पुरस्कार को देने की घोषणा के साथ वजह बताने की कोशिश भी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स पर की थी कि एल के आडवाणी का देश के विकास में अहम योगदान रहा है. यह योगदान क्या था, किसी की समझ नहीं आया, न ही इस बाबत नरेंद्र मोदी ने कोई उदाहरण पेश किया.
इस से आम लोग भी असमंजस में दिखे जिन्हें यह रटा पड़ा है कि वे 80-90 के दशक में भाजपा और राममंदिर आंदोलन के पोस्टरबौय थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल राजनीति कि काट उन्होंने कमंडल की राजनीति से किया था जिस के एवज में आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं. भगवा राजनीति में आडवाणी को मोदी का गुरु माना जाता है क्योंकि गोधरा कांड के बाद उन्होंने हो मोदी की पीठ थपथपाई थी जबकि भाजपा के दूसरे दिग्गज प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी तो मोदी को राजधर्म की याद दिला रहे थे.
गलत नहीं कहा जा रहा कि शिष्य ने गुरु को दक्षिणा दे दी लेकिन इस के एवज में नरेंद्र मोदी आडवाणी से काफीकुछ छीन भी चुके हैं. 22 जनवरी के अयोध्या शो में आडवाणी को न आने देने पर उन की आलोचना हुई थी और इस बार चूंकि यह भगवा कुनबे के अंदर से ज्यादा हुई थी, इसलिए उन्होंने आडवाणी को भारत रत्न दे कर अपने मन का गिल्ट दूर कर लिया, बशर्ते वह रहा हो तो, नहीं तो यह एक खामखां का ही फैसला लगता है जिस से किसी को कुछ मिलना जाना नहीं है. हां, कुछ सहूलियतें जरूर 96 वर्षीय आडवाणी को मिल जाएंगी.
कर्पूरी ठाकुर के पहले भी जिन 49 हस्तियों को यह सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया, यह जरूरी नहीं वे सभी इस के सच्चे हकदार थे या रहे होंगे. दरअसल, भारत रत्न देने का कोई तयशुदा पैमाना या पैमाने नहीं हैं. यह सरकार यानी प्रधानमंत्री की इच्छा पर निर्भर करता है कि किसे यह दिया जाना फायदे का सौदा साबित होगा.
दौर दक्षिणपंथियों का है, लिहाजा, वे अपने हिसाब से रेवड़ियां बांट रहे हैं. यही अपने दौर में कांग्रेस करती रही थी. इस लिहाज से तो बात बराबर हो जाएगी वाली शैली में खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन यह दलील ठीक वैसी ही है कि उस ने गलती की या जनता के वोट का मनमाना इस्तेमाल किया तो हम भी क्यों न करें.
भगवा गैंग हमेशा ही कांग्रेस पर यह आरोप लगाता रहा है कि उस ने पुरस्कारों का राजनीतिकरण किया और भारत रत्न नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों को दिए. साल 1955 में जब तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को भारत रत्न देने की घोषणा की थी तब कोई खास हलचल नहीं हुई थी. नेहरू तब प्रधानमंत्री थे, इसलिए यह मान लिया गया कि उन्होंने खुद को ही इस खिताब से नवाज लिया था. यहां मकसद नेहरू की उपलब्धियों का बखान करना नहीं लेकिन कोई भी इस सच से मुंह नहीं मोड़ सकता कि उन्होंने विषम परिस्थितियों में आधुनिक भारत की नींव रखी थी.
वह नजारा कितना दिलचस्प रहा होगा, इस का आज अंदाजा लगा पाना मुश्किल है. 13 जुलाई, 1965 को नेहरू यूरोप और रूस के दौरे से वापस लौटे थे तो प्रोटोकाल तोड़ते खुद राजेंद्र प्रसाद उन के पास पहुंचे थे और एयरपोर्ट पर उन का स्वागत किया था. रात के भोज में राष्ट्रपति ने नेहरू को भारत रत्न दिए जाने का ऐलान किया था.
बकौल राजेंद्र प्रसाद, नेहरू हमारे समय के शांति के सब से बड़े वास्तुकार हैं. उन्होंने संभावित विरोध को आंकते भारत रत्न के बारे में यह भी कहा था कि यह कदम मैं ने स्वविवेक से अपने प्रधानमंत्री की अनुंशसा के बगैर व उन से किसी सलाह के बिना उठाया है. इसलिए एक बार कहा जा सकता है कि यह निर्णय अवैधानिक है लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे इस फैसले का स्वागत पूरे उत्साह से किया जाएगा.
जानने वाले ही जानते हैं कि डाक्टर राजेंद्र प्रसाद न तो हिंदू कोड बिल पर नेहरू से इत्तफाक रखते थे और न ही धार्मिक मुद्दों पर उन से सहमत थे. जब राजेंद्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद वहां गए थे तब भी नेहरू ने एतराज जताया था. एवज में राजेंद्र प्रसाद ने लंबाचौड़ा पत्र उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं की भावना के बाबत लिखा था और नेहरू की बात नहीं मानी थी. संसद में हिंदू कोड बिल के पेश होने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद ने पत्र लिख कर एतराज जताया था.
7 दशकों बाद भी इन बातों के अपने अलग माने हैं कि विकट के वैचारिक और धार्मिक मतभेद होने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद, नेहरू की उपलब्धियों और प्रतिभा की अनदेखी नहीं कर पाए थे. नेताओं में एकदूसरे के प्रति सहज सम्मान का भाव था. इस पैमाने पर तो नरेंद्र मोदी द्वारा लालकृष्ण आडवाणी को इस ख़िताब से नवाजना समझ आता है लेकिन वे आडवाणी की उपलब्धियां नहीं गिना पाए. इस पैमाने पर लगता है कि अब तमाम पुरस्कार निरर्थक और वोटों की राजनीति के शिकार हो चले हैं, इसलिए अपना औचित्य, महत्त्व और गरिमा भी खो रहे हैं.
हालांकि इस की शुरुआत कांग्रेस ने ही की थी जब उस ने साल 2014 में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को यह सम्मान बख्शा था. सचिन किसी भी एंगल से इस के लायक नहीं थे. अच्छा क्रिकेट खेलने के एवज में उन्हें कई दूसरे राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिल चुके थे. अहम बात यह है कि हरेक मैच के बदले उन्हें तगड़ी फीस मिलती थी. उन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया, सिवा इस के कि करोड़ों लोगों का वक्त बरबाद किया जो दूसरे किसी उत्पादक काम में लग सकता था.
भारत रत्न सचिन इश्तिहारों से भी पैसा कमाते हैं. कम हैरत की बात नहीं कि राष्ट्रीय खेल हौकी में दुनियाभर में अपना लोहा मनवाने वाले मेजर ध्यानचंद की तरफ अभी तक किसी का ध्यान नहीं गया. उन के प्रशंसक जबतब उन के लिए इस सर्वोच्च सम्मान की मांग करते रहते हैं. अगर किसी खिलाड़ी को देना ही था तो भारत रत्न के सही हकदार ध्यानचंद ही थे जिन्होंने आर्थिक अभावों में रहते भारतीय हौकी का परचम लहराया था.
जिस तरह राजेंद्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू को भारत रत्न दिया था उसी तरह 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति वी वी गिरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भारत रत्न दिया था. तब भी आरोप यही लगे थे कि इंदिरा ने खुद ही प्रधानमंत्री रहते यह पुरस्कार ले लिया. हालांकि तब वजह यह बताई गई थी कि इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से बंगलादेश को अलग करवाने में अहम भूमिका निभाई थी.
अब वर्तमान में दिए गए अवार्ड में ऐसी कोई वजह आडवाणी, कर्पूरी ठाकुर या दूसरे किसी राजनेता को भारत रत्न देते वक्त सामने नहीं आई. 1957 में गोविंद वल्लभ पंत और फिर 1998 में लोकनायक के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण को भारत रत्न देना राजनीति से ही प्रेरित था. हां, लाल बहादुर शास्त्री इस के हकदार जनता के पैमाने पर थे जिन्हें यह सम्मान 1966 में दिया गया था. उन के पहले 1962 में राजेंद्र प्रसाद को भारत रत्न दिया जाना एक तरह से रिटर्न गिफ्ट था क्योंकि उन्होंने नेहरू को यह सम्मान दिया था. इसी तरह कांग्रेस ने वी वी गिरी को भी भारत रत्न रिटर्न गिफ्ट साल 1975 में किया था.
इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान की प्रतिष्ठा तो यहीं से गिरना शुरू हो गई थी जब इस को एक्सचेंज किया गया था. यानी, तब तक यह कांग्रेसियों द्वारा कांग्रेसियों के लिए ही था. 1976 में के कामराज जैसों को तो यह यों ही दे दिया गया था, जिन्होंने कांग्रेस को खासतौर से दक्षिण में मजबूत करने का काम किया था.
राजर्षि के नाम से जाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन को 1961 में भारत रत्न किस बिना दिया गया था, यह समझ से परे है. अगर फ्रीडम फाइटर होना इस की वजह थी तो ऐसे हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इस काबिल थे जिन्होंने छोटेमोटे काम, समाजसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में किए थे. उन्हें भारत रत्न क्यों नहीं दिया गया ?
पहली बार 1954 में भारत रत्न डा. सर्वपल्ली राधा कृष्णन, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और भौतिक शास्त्री डा. चंद्रशेखर वेंकटरमण को दिए गए थे तब इस की कोई खास अहमियत नहीं थी. साल 1955 में सिविल इंजीनियरिंग के जनक डा. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को भारत रत्न दिया गया था तब ऐसा लगा था कि कला, साहित्य विज्ञान और लोकसेवा के क्षेत्रों में ईमानदारी से दिया जाएगा लेकिन उन के साथ ही डाक्टर भगवानदास को भी भारत रत्न दिया गया था तो साफ हो गया था कि कांग्रेस सरकार अपनी खुदगर्जी पूरी करने के लिए मनमरजी भी इस की आड़ में कर रही है.
डाक्टर भगवान दास ने भी आजादी की लड़ाई लड़ी थी और वे समाजसेवी भी थे लेकिन चूंकि उन्होंने पहली सरकार में कोई पद लेने से मना कर दिया था यानी त्याग किया था, इसलिए उस की भरपाई उन्हें भरत रत्न दे कर कर ली गई. यह असल में नरेंद्र मोदी की आडवाणी को ले कर मन की ग्लानि दूर करने जैसी बात भी थी. इसे प्रायश्चित्त भी कहा जा सकता है जिस का विधान धर्मग्रंथों में इफरात से है कि कोई गलती या पाप हो जाए तो ऐसा या वैसा कर यानी कुछ दानदक्षिणा लेदे कर गिल्ट दूर कर लो. इस से दूसरा फायदा लोकनिंदा से बचने का भी होता है.
इसी लोकनिंदा से बचने के लिए साल 1991 में भारत रत्न देने की घोषणा की गई तो राजीव गांधी के साथ में मोरारजी देसाई और वल्लभभाई पटेल के भी नाम घोषित किए गए थे. अब अगर कोई यह सवाल करता कि राजीव गांधी को यह क्यों, तो जवाब यह होता कि मोरारजी देसाई और वल्लभभाई पटेल को भी तो दिया है. और सच में किसी ने कोई सवाल उन के नाम पर नहीं किया था.
अगर वैज्ञानिकों और कलाकारों सहित दूसरे क्षेत्रों की कुछ हस्तियों को छोड़ दें तो सही माने में भारत रत्न के जो नेता हकदार थे उन में एक नाम भीमराव आंबेडकर का भी है लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री पद की कुरसी संभालते ही पद्म पुरस्कारों की तरह भारत रत्न की अहमियत गिराने में भी नरेंद्र मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. 2015 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न देने का फैसला कतई हैरान कर देने वाला नहीं था बल्कि यह अपने सियासी पुरखों का पुण्य स्मरण और श्रद्धांजलि कांग्रेस की तर्ज पर थी.
लेकिन इसी साल मदन मोहन मालवीय को भी इसी सम्मान से नवाजा जाना साबित कर गया था कि इस सम्मान का कोई पैरामीटर नहीं है. इस खामी का बेजा इस्तेमाल कांग्रेस ने भी किया था. महामना अर्थात महान आत्मा के ख़िताब से नवाजे गए पंडित मदन मोहन मालवीय का बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की स्थापना में सहयोग के अलावा देश के लिए एक बड़ा योगदान यह भी था कि उन्होंने कभी कांग्रेस छोड़ कर हिंदू महासभा जैसी कट्टरवादी हिंदू पार्टी बनाई थी.
आज जो कट्टरवादी पत्रकारिता फलफूल रही है उस का जनक भी उन्हें भी न कहना अतिशयोक्ति होगी. हिंदी हिंदू हिंदुस्तान के जरिए हिंदू राष्ट्र की अवधारणा भी उन्हीं की दी हुई है. जिस के सपने मंदिरों के जरिए साकार करने की कोशिश आज भगवा गैंग कर रहा है.
कांग्रेस ने तो कभी किसी हिंदूवादी को भारत रत्न नहीं दिया लेकिन साल 2019 में नरेंद्र मोदी ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को यह पुरस्कार दे कर चौंकाने की कोशिश की थी. एक हार्डकोर कांग्रेसी कहे जाने वाले प्रणब मुखर्जी ने, दरअसल, आरएसएस के दफ्तरों में जाना शुरू कर दिया था और खुद के कभी प्रधानमंत्री न बन पाने का जिम्मेदार नेहरू-गांधी परिवार को ठहराना शुरू कर दिया था.
कांग्रेसमुक्त भारत का नारा देने वाले मोदी को ऐसे कांग्रेसियों की सख्त जरूरत आज भी रहती है जो गांधी परिवार को कोसें और हिंदुत्व से रजामंदी रखें. यह डील परवान चढ़ पाती, इस के पहले ही प्रणब मुखर्जी का निधन हो गया. अब हर कभी उन की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी के कांग्रेस में जाने की अफवाह उड़ती रहती है जो 5 फरवरी को जयपुर लिटरैचर फैस्टिवल में यह कहती नजर आ रही थीं कि वे भी पिता की तरह हार्डकोर कांग्रेसी हैं लेकिन कांग्रेस को राहुल गांधी और गांधी परिवार से इतर भी कुछ सोचना चाहिए. संसद में 370 सीटों की दावेदारी ठोक चुके मोदी को ऐसे कांग्रेसियों की दरकार है जो कांग्रेस में रहते सोनिया-राहुल को कोसते रहें, नहीं तो ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसों की तरह भाजपा में शामिल हो जाएं.
चूंकि प्रणब मुखर्जी बड़ा नाम थे और विभीषण बनने की राह पर पहला पांव रख चुके थे, इसलिए उन्हें भारत रत्न दे देना घाटे का सौदा कहीं से नहीं था. घाटे का सौदा तो यह कर्पूरी ठाकुर या आडवाणी को देने से भी नहीं है जिन्हें एवज में मुफ्त रेलयात्रा जैसी कुछ मामूली सहूलियतों के साथ सरकारी आयोजनों में कुछ विशिष्ट हस्तियों के साथ बैठने का मौका मिल जाएगा. लेकिन जब वे उम्र और अशक्तता के चलते अयोध्या राम लला की प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जा पाए या नहीं जाने दिए गया तो किसी और आयोजन में क्या जा पाएंगे.
रहा सवाल भारत रत्न का, तो वह कर्मठ और देश के लिए कुछ कर गुजरने वालों को ही दिया जाना चाहिए जिस के लिए कुछ तयशुदा पैमानों का होना भी जरूरी है. नहीं तो यह रिवाज ही खत्म होना चाहिए जिस से कम से कम उस जनता को कुछ हासिल नहीं होता जिस का प्रतिनिधित्व सरकार करती है.
हाल ही में हम ने फिल्म ऐक्टर्स और राजनेताओं के डीपफेक फोटो-वीडियो देखे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मंच पर डांस करते देख कर लोग आश्चर्य में पड़ गए. बाद में पता चला कि डीपफेक के जरिए प्रधानमंत्री के फेस का इस्तेमाल हुआ. मगर अब डीपफेक मामला बहुत आगे बढ़ चुका है. हौंगकौंग की एक मल्टीनेशनल कंपनी को डीपफेक की वजह से करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ा है. साइबर क्रिमिनल्स ने ऐसा जाल बिछाया कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के कर्मचारियों को भनक तक नहीं लगी और कंपनी ने 200 करोड़ रुपए क्रिमिनल्स के बताए 5 अलगअलग बैंकों में ट्रांसफर कर दिए.
मजे की बात यह है कि डीपफेक से धोखाधड़ी करने के लिए साइबर क्रिमिनल्स ने बाकायदा ज़ूम मीटिंग की. इस मीटिंग में कई क्रिमिनल्स बैठे थे जिन के चेहरों पर डीपफेक के जरिए असली अधिकारियों के चेहरे लगे थे. यहां तक कि कंपनी के चीफ फाइनैंशियल औफिसर को भी क्लोन कर के डीपफेक वर्जन तैयार किया गया था. इन सब ने कंपनी के एक अधिकारी को धोखे में रख कर वीडियो कौन्फ्रैंस की और उस से हौंगकौंग के 5 अलगअलग बैंक खातों में पैसे ट्रांसफर करने को कहा. अपने सीएफओ के आदेश का पालन करते हुए उस अधिकारी ने सारे पैसे ट्रांसफर कर दिए.
कुछ समय पहले तक दुनियाभर में आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस को ले कर लोगों में काफी उत्सुकता और उत्साह था. कहा जा रहा था कि इस से मनुष्य को काम करने में बहुत आसानी हो जाएगी. घंटों के काम चुटकी बजाते हो जाएंगे. मगर अब इस तकनीक से लोगों में डर बढ़ता जा रहा है. आप के फोन पर आप को किसी अपने की आवाज सुनाई दे जो आप से कहे कि वह परेशानी में है, तुरंत पैसे चाहिए तो आप बिना देर किए पैसे भेज देंगे. बाद में पता चले कि उस रिश्तेदार ने तो आप को फोन ही नहीं किया. उस की आवाज में बात कर के किसी ने आप को ठग लिया. या फिर वीडियो कौल पर किसी महिला को उस का कोई जानने वाला, आप का प्रेमी, पति या कोई रिश्तेदार नजर आए और उस को कहीं मिलने के लिए बुलाए तो वह अवश्य वहां चली जाएगी. लेकिन हो सकता है कि अनजान जगह बुला कर उस को लूट लिया जाए, उस की हत्या कर दी जाए, उस का रेप हो जाए, क्योंकि जो तसवीर उस ने वीडियो पर देखी और जिस पर भरोसा कर के वह मिलने गई वह तो क्रिमिनल द्वारा डीपफेक के जरिए बनाई गई थी.
हौंगकौंग की जिस बहुराष्ट्रीय कंपनी को डीपफेक तकनीक का शिकार बनाया गया है. उस से 20 करोड़ रुपए हौंगकौंग डौलर की ठगी की गई है. यह राशि 200 करोड़ रुपए से भी अधिक है. यह डीपफेक तकनीक से की गई अब तक की सब से बड़ी ठगी है. हालांकि हौंगकौंग पुलिस ने अभी इस बात का खुलासा नहीं किया है कि किस कंपनी से यह ठगी हुई है, मगर मामले की जांच बहुत तेजी से शुरू हो चुकी है.
डीपफेक तकनीक में नकली वीडियो या औडियो रिकौर्डिंग के लिए एआई टूल का उपयोग किया जाता है. डीपफेक से बनाए गए ये चेहरे देखने में असली जैसे लगते हैं. साइबर अपराधियों ने वीडियो कौन्फ्रैंसिंग कौल कर के कंपनी को निशाना बनाया. इस दौरान डीपफेक तकनीक के जरिए कंपनी के सीएफओ के साथ अन्य कर्मियों का एआई अवतार तैयार किया गया.
5 अलगअलग बैंक खातों में पैसे ट्रांसफर
वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के दौरान डीपफेक टैक्नोलौजी की मदद से मौजूद सीएफओ समेत सभी अधिकारी और कर्मचारी फर्जी थे. इसी दौरान फर्जी सीएफओ ने कंपनी की कौन्फ्रैंसिंग शाखा के वित्त विभाग के एक अधिकारी से 5 अलगअलग बैंकों में रकम ट्रांसफर करने के लिए कहा. अपने सीएफओ की बात वह कैसे न मानता? उस ने तुरंत बताए गए खातों में रकम ट्रांसफर कर दी.
एक सप्ताह बाद हुआ ठगी का एहसास
अधिकारी ने पुलिस को बताया कि उस की कंपनी का सीएफओ उस समय ब्रिटेन में था. जब डीपफेक वीडियो कौल की गई तो उसे लगा कि सीएफओ समेत सभी कर्मचारी असली हैं. वह इन में से कई लोगों को जानता था, इसलिए वह झांसे में आ गया और कौन्फ्रैंसिंग के 5 बैंक खातों में 15 बार में कुल मिला कर 20 करोड़ कौन्फ्रैंसिंग डौलर ट्रांसफर कर दिए. अधिकारियों को लगभग एक सप्ताह बाद ठगी का एहसास हुआ, जिस के बाद पुलिस जांच शुरू हुई.
जैसेजैसे टैक्नोलौजी का इस्तेमाल बढ़ रहा है और काम करना आसान हो रहा है वैसेवैसे साइबर स्कैमर्स एआई की डीपफेक तकनीक का गलत इस्तेमाल करते जा रहे हैं. एआई की मदद से धोखाधड़ी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. हाल ही में आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस की डीपफेक तकनीक की मदद से केरल के एक व्यक्ति के साथ 40 हजार रुपए की ठगी हुई है. शिकायत करने वाले शख्स का नाम राधाकृष्ण है जिस के साथ फ्रौड हुआ है.
स्कैमर ने धोखाधड़ी को अंजाम देने के लिए खुद को राधाकृष्ण का सहकर्मी होने का दावा किया और अस्पताल में एक रिश्तेदार के इलाज के लिए उन से पैसे मांगे. राधाकृष्ण का दिल पसीज आया और उन्होंने 40 हजार रुपए ट्रांसफर कर दिए. हालांकि, राधाकृष्ण ने इस तरह के फ्रौड के बारे में पहले सुना था, सो पूरी तरह अस्वस्थ होने के लिए उस से वीडियो कौल करने के लिए कहा, फिर उस शख़्स ने विडियो कौल किया. जिस के बाद राधाकृष्ण को तसल्ली हुई और उन्होंने 40 हजार रुपए ट्रांसफर कर दिए.
राधाकृष्ण का कहना है कि उन्होंने सतर्कता बरती थी, लेकिन उन्हें ठगा जा चुका था. उन का दावा है कि उन्हें डीपफेक के जरिए झांसा दिया गया. जिस के बाद इस की शिकायत कोझिकोड के साइबर क्राइम पुलिस थाने में की गई.
डीपफेक का मतलब है कि किसी भी शख्स की तसवीर, आवाज या वीडियो बना देना. ये वीडियो कौल देखने में बिलकुल फर्जी नहीं लगते हैं. आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस या एआई और मशीन लर्निंग जैसेजैसे उन्नत होती जाएगी, इस तरह की समस्याएं बढ़ती जाएंगी. कुछ समय पहले तक डीपफेक वीडियोज को पहचानना आसान होता था. लेकिन अब ऐप डैवलपर्स ने अनेक कमियों को सुधार दिया है, वैसे भी एआई तो हमेशा लर्न ही करता रहता है, विभिन्न डेटा पैटर्न को समझता रहता है.
अब डीपफेक की ऐप्स इतनी उन्नत हो गई हैं कि इन में बनाए वीडियो में पलकें झपकना भी एकदम सामान्य लगता है, वहीं वीडियो और इमेज भी अब पहले से बेहतर हो गए हैं. कई देशों में एआई टीवी न्यूजकास्टर भी शुरू हो गए हैं जो हूबहू न्यूज एंकर जैसे लगते हैं और खबरें पढ़ते हैं.
पिछले दिनों भारत में भी कुछ मीडिया घरानों ने इस को लौंच किया है. हालांकि, इस के नुकसान भी हैं क्योंकि फेक न्यूज फैलाने में इस का इस्तेमाल किया जा सकता है. डीपफेक की सहायता से चुनावी अभियान भी प्रभावित किए जा सकते हैं.
फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि अगर आप को अनजान नंबर या आईडी से वीडियो कौल आए तो उस पर विश्वास न करें. किसी को पैसा देने से पहले उस से फोन पर बात कर लें या उस से जा कर मिल लें. अगर करीबी दोस्त है, परेशानी में है तो उस के परिवार में से किसी से बात कर के स्थिति के बारे में जानने का प्रयास करें.
आप कहीं छुट्टी पर जा रहे हैं या आप के बच्चे कहीं जा रहे हैं तो उस के बारे में सोशल मीडिया पर न लिखें. सोशल मीडिया पर घरेलू बातें, परिवारजनों की तसवीरें आदि पोस्ट करने से बचें, जो आप की निजता को सार्वजनिक करता है.
सवाल
मैं और मेरे पति अपनी मैरिड लाइफ बहुत अच्छी तरह से एंजौय कर रहे थे कि अचानक औफिस के काम से हसबैंड को 2 साल के लिए आस्ट्रेलिया जाना पड़ गया. अब एक साल हो गया है उन्हें गए हुए. इसलिए मैं ने एक साल से सैक्स नहीं किया है. क्या इस वजह से मेरी सैक्स ड्राइव पर कोई फर्क पड़ सकता है ? सुना है कि वैजाइना टाइट हो जाती है ? कृपया मुझे सलाह दें.
जवाब
देखिए, हमारे शरीर की कई बातें हमारी मैंटल कंडीशन से जुड़ी होती हैं. आप ने एक साल से पति के साथ सैक्स नहीं किया है लेकिन आप के दिलदिमाग में यह बात रहती होगी कि आप के पास प्यार करने वाला पति है, बेशक वह आप के पास नहीं, दूर है. एक खुशी तो आप के दिल में है न. आप चिंतामुक्त रहती हैं. ये सब बातें भी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर डालती हैं. आप खुश हैं, अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दे रही हैं तो सैक्स की कमी का आप के स्वास्थ्य पर खास कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
जहां तक वैजाइना के टाइट होने की बात है तो काफी दिनों तक सैक्स से दूर हैं तो भी आप की वैजाइना तुरंत टाइट नहीं हो जाएगी. कई बार चिकनाई की कमी के कारण और एंग्जायटी के कारण वैजाइना की मांसपेशियां सिकुड़ जाती हैं. ऐसे में कई लोग गलफहमी के कारण यह सम झ लेते हैं कि सैक्स न करने की वजह से ही वैजाइना टाइट हुई है.
जब आप बहुत समय तक सैक्स से दूर रहती हैं तो वैजाइना खुद लुब्रिकैंट नहीं हो पाती. इस में चिंता की कोई बात नहीं है. एक बार जब आप दोबारा नियमित सैक्स करने लगेंगी तो आप के ग्लैंड्स फिर से ल्यूब बनाने लगेंगे.
सैक्स न होने के कारण वैजाइना में ब्लड सर्कुलेशन कम हो पाता है. जिस से ड्राई वैजाइना की शिकायत होती है. पति के साथ जब आप दोबारा सैक्स की शुरुआत करें और आप की ऐसी शिकायत हो तो दर्द से बचने के लिए लुब्रिकेशन का प्रयोग करें.
लंबा कद, मुसकुराती आंखों में कहीं छिपा हुआ सा दर्द, दिल में कुछ करने की ललक पर जमाने की बेरुखी से परेशान मन लिए 27 साल की अनुभा (बदला हुआ नाम ) बताती हैं, “ मैं आगरे की रहने वाली हूं. ग्रैजुएशन के बाद दिल्ली आ कर मैं ने फैशन डिजाइनिंग कोर्स ज्वाइन किया. जब मैं यह कोर्स कर रही थी तभी मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिस से मेरी जिंदगी का रुख बदल गया.
“दरअसल एक लड़के अमित (बदला हुआ नाम) के साथ मेरी फ्रेंडशिप थी. हम एकदूसरे को पसंद करते थे. समय के साथ हम दोनों को लगा कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए. मगर हमारे घर वाले इस के लिए तैयार नहीं हुए. मैं ने अमित से कहा कि हमें शांति से अलग हो जाना चाहिए. वह इस के लिए तैयार नहीं था. वह चाहता था कि हम भले ही दूसरी जगह शादी कर ले फिर भी एकदूसरे से कनेक्टेड रहे. मगर यह बात मुझे मंजूर नहीं थी. उस ने मुझे धमकी दी कि अगर तुम मेरी नहीं हुई तो मैं तुम्हें किसी और की भी नहीं होने दूंगा. उस ने एक साइको की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया. मेरी मम्मी का फोन ट्रेक कर लिया. मम्मी के नंबर से कई कई बार मेरे पास कौल आने लगे. जब कि वे कौल मम्मी नहीं बल्कि अमित करता था. उस ने मुझे धमकी दी कि बात न मानने पर फोटो एडिट कर सोशल मीडिया पर वायरल कर देगा ताकि मैं बदनाम हो जाऊं.
“मैं डर गई थी फिर भी मैं ने उस की बात नहीं मानी. एक दिन जब मैं लौट रही थी तो उस ने मुझे जबरदस्ती अपनी गाड़ी में बिठा लिया. फिर हमारी कॉमन फ्रेंड के जरिए मेरे घर यह सन्देश भिजवा दिया कि मुझे 3 -4 लड़के पकड़ कर ले गए हैं. बदहवास से मेरे पैरेंट्स मुझे बचाने दिल्ली दौड़े आये. जाहिर है आसपास वालों को भी यह खबर मिल गई.
इधर अमित मुझे गाड़ी में बिठा कर अपनी खुन्नस निकालने लगा. मुझे डराने धमकाने लगा. उस ने मेरे बाल भी नोचे. वह इस बात पर क्रोधित था कि उस के बगैर में खुश कैसे रह सकती हूं. मैं ने उसे समझाना चाहा कि मेरा करियर अभी पीक पर चल रहा है और मैं अपना पूरा ध्यान पढ़ाई और करियर पर देना चाहती हूं. पर वह मुझ से लड़ता रहा. तभी उस के पेरेंट्स का फोन आ गया तो उस ने मुझे छोड़ दिया.
सिर्फ इतना ही नहीं मुझे बदनाम करने के लिए उस ने मेरी एक साड़ी वाली फोटो को फोटोशौप में एडिट कर मेरी मांग में सिंदूर भर दिया और मेरे आसपड़ोस के घरों में फिंकवा दिया. उस ने यह अफवाह फैला दी कि मैं ने किसी दलित लड़के के साथ भाग कर शादी कर ली है और मेरे घर वालों ने मुझे छुड़ाने के लिए उस के मांबाप को 50 -60 हजार रूपए भी दिए हैं. उस ने मेरे मैसेजेस के साथ भी छेड़छाड़ कर उन्हें इस तरह रीराइट किया जैसे मैं उस के पीछे पड़ी हूं और मैं ने ही उसे मिलने को दिल्ली बुलाया था.
“झूठी अफवाहों को उस ने इतनी हवा दी कि आज लोग मुझे सही होने पर भी गलत समझते हैं. जहां कहीं भी मेरी शादी की बात चलती है तो यह अफवाह अपना असर दिखाने लगती है, लड़के वाले कोई स्पष्ट कारण बताए बिना शादी करने से इंकार कर देते हैं. 2 साल पहले अमित की शादी हो गई पर मैं आज तक उस की वजह से खुली हवा में सांस नहीं ले पा रही हूं. मेरी शादी भी नहीं हो पा रही है और मैं स्ट्रैस की वजह से अपने करियर पर भी ध्यान नहीं दे पा रही. मैं ने कोई गलती नहीं की पर उस ने मेरी जिंदगी में इतने तूफान भर दिए हैं कि स्ट्रैस से पापा बीमार रहने लगे हैं. मेरे करियर पर भी बुरा असर पड़ रहा है. मेरा सवाल यह है कि सिर्फ लड़कियों को ही जज क्यों किया जाता है. सच्चाई जाने बगैर बड़ी आसानी से मान लिया जाता है कि लड़की का चरित्र ही खराब होगा. अफवाहें फैला कर लड़कियों की जिंदगी खराब कर दी जाती है पर लड़के मजे से जीते हैं.”
कौन फैलाते हैं अफवाह
अफवाहें अक्सर जलन और क्रोध का नतीजा होती हैं. किसी से बदला लेने या उसे नीचा दिखाने के मकसद से कुछ लोग ऐसी हरकतों को अंजाम देते हैं. लोग अफवाहों को जैसे का तैसा स्वीकार कर लेते हैं. असलियत पता लगाने का प्रयास भी नहीं करते.
जिस व्यक्ति के बारे में ऐसी अफवाहें उड़ाई जाती है उसे गलती किए बिना भी बहुत कुछ सहना पड़ता है. अफवाहें उस की जिंदगी में तूफान ला सकती हैं. उस की मानसिक सेहत पर असर डाल सकती हैं. उस का जॉब करना दूभर हो सकता है. पुरानेनए रिश्ते टूट सकते हैं. दूसरों की नजरों में उस की अहमियत घट सकती है. उस के करीब उस से दूर हो सकते हैं. वह किसी भी काम में अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता. इस की वजह से वह एंजायटी, डिप्रेशन ,स्ट्रैस आदि का शिकार हो सकता है. परेशान हो कर सुसाइड भी कर सकता है.
अफसोस की बात यह होती है कि दूसरे लोग जो इस तरह की बातें होते देखते हैं वह भी अक्सर सही व्यक्ति का साथ नहीं देते. लोग उस व्यक्ति से कटने लगते हैं जिस के खिलाफ अफवाहें उड़ाई जाती हैं. लोगों को डर होता है कि कहीं अगला शिकार वे ही न बन जाए.
अफवाहें हमेशा शक के आधार पर फलतीफूलती हैं. ये ऐसी सूचनाओं के रूप में फैलती हैं जो लोगों के लिए नई और रोचक हो. इन की सत्यता पर हमेशा शक होता है. ये अनवेरीफाइड होती है. प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से लोगों से जुड़ी होती है या किसी के व्यक्तिगत जीवन से वास्ता रखती है. मान लीजिए कोई लड़का कई दिनों से औफिस या स्कूल नहीं आ रहा तो ऐसे में बड़ी तेजी से उस के बीमार होने या जीवन में कोई बड़ा हादसा हो जाने की अफवाह फैला दी जाती है.
देश में जनवरी 2017 से भीड़ एक बच्चे के अपहरण के आरोप में 33 लोगों की हत्या कर चुकी है. यह सब व्हाट्सएप पर एक फर्जी मैसेज की वजह से हुआ. इस मैसेज पर यकीन कर केवल शक के आधार पर भीड़ बेगुनाहों को मौत के घाट उतार सकती है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अफवाहें और क्याक्या गुल खिला सकती है.
2006 में प्रकाशित प्रशांत बोडिया और राल्फ रोजनो के रिसर्च के मुताबिक के मुताबिक ज्यादा चिंताग्रस्त और उत्सुक लोग अफवाहें ज्यादा फैलाते हैं. किसी के स्टेटस और लोकप्रियता से चिढ़ने वाले शख्स अक्सर अफवाहों का सहारा लेते हैं. गलत तरीके से किसी का नाम खराब करना या उसे बदनाम करना उन का मकसद होता है.
यह संभव नहीं कि हम हर किसी के अच्छे दोस्त बन जाएं या हमें हर कोई पसंद आए. मगर किसी को पसंद न करने का मतलब यह नहीं कि हमें उस के खिलाफ अफवाहे फैलाने या भलाईबुराई करने का अधिकार मिल गया. अपना स्टेटस बढ़ाने या ग्रुप में लोकप्रियता हासिल करने का यह गलत तरीका है. वास्तविक लोकप्रियता इंसान के आचरण पर निर्भर करती है. किसी से इस तरह की दुश्मनी निकाल कर या दूसरों का अपमान कर व्यक्ति अपना सम्मान तो खोता ही है दूसरे लोगों का उस पर विश्वास भी ख़त्म हो जाता है.
यदि आप बन जाएं शिकार
यदि कभी आप के साथ इस तरह की घटना हो जाए तो डिप्रेशन में आ कर कुछ गलत फैसला लेने से बेहतर है कि आप यह बात अपने पेरेंट्स ,टीचर, काउंसलर या दोस्तों से शेयर करें. अपनी बेगुनाही का सबूत तैयार करें और सर ऊंचा कर हर सवाल का जवाब दें. अपनी जिंदगी के लिए कोई लक्ष्य तैयार करें और इन बातों से दिमाग हटा कर पूरी एकाग्रता से अपने मकसद को पूरा करने में ध्यान दें. अपने दोस्तों के साथ मिलनाजुलना, मस्ती करना न छोड़ें.
यही नहीं जो शख्स आप के खिलाफ अफवाह उड़ा रहा है उस से जा कर मिले. शांति से उस से अपनी बात कहें. आप के मन में जो भी सवाल उठ रहे हैं या आप उस से जो भी कहना चाहती हैं वह सब बोल कर अपनी भड़ास निकालें. उसे ताकीद करें कि आइंदा उल्टासीधा बोलने का अंजाम बहुत बुरा होगा. अपनी बातें पूरे विश्वास, स्पष्टता और मैच्योरिटी से करें. इस के बाद उस के जवाब का इंतजार किए बगैर वहां से निकल आएं ताकि वह शख्स आप की बातों पर गहराई से विचार करने को मजबूर हो जाए.
यदि औफिस/आसपड़ोस में आप के खिलाफ अफवाहें फैलने लगें या गौसिप होने लगे और यह काम वही करें. जिसे आप अपनी सहेली या करीबी समझती थी तो यह सब सहन करना कठिन हो जाता है. धीरे-धीरे आप को महसूस होने लगेगा कि दूसरे लोग भी आप से दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में यदि बात छोटीमोटी हो तब तो आप इस परिस्थिति को आसानी से हैंडल कर सकती हैं. पर यदि बात बड़ी हो और आप मानसिक रूप से परेशान रहने लगी है तो वह जगह छोड़ देना बेहतर होगा. क्यों कि मानसिक शांति से बढ़ कर कुछ भी नहीं होता.
कुछ लोग दूसरों की निजी बातें या गलत भड़काऊ सूचनाएं फैलाने में मजे लेते हैं. भले ही वे सच हो या नहीं. इसे आप गौसिप कह सकते हैं. ऐसा वे दूसरे को चोट पहुंचा कर अच्छा महसूस करने के लिए करते हैं. इस तरह के गौसिप दूसरे व्यक्ति के सम्मान को चोट पहुंचाते हैं. वे जिसे पसंद नहीं करते उस के खिलाफ झूठी बातें बोल कर भले ही अपना मकसद पूरा कर ले क्यों कि सच्चाई अक्सर सामने नहीं आ पाती. मगर वे खुद को इस के लिए कभी माफ नहीं कर पाएंगे.
गौसिप करने वालों से दूर रहे
ऐसे लोगों से हमेशा दूर रहे जिन्हें पीठ पीछे दूसरों की बुराई और अपमान करने में आनंद आता है. क्यों कि जो आज आप से दूसरों की बुराई कर रहे हैं वे आप की बुराई दूसरों से करने से भी बाज नहीं आएंगे.
बेहतर है कि आप न सिर्फ अफवाहें फैलाने या गौसिप करने से बचे बल्कि ऐसा कर रहे व्यक्ति से भी दूरी बढ़ा ले. यदि कोई शख्स पीठ पीछे किसी की बुराई कर रहा है तो सॉरी कह कर उस ग्रुप से बाहर निकल आए. निकलने से पहले स्पष्ट रूप से कहें कि जिस के बारे में यह बात कही जा रही है जब वह खुद को निर्दोष साबित करने के लिए मौजूद नहीं तो फिर उस के बारे में बात करने में आप कंफर्टेबल नहीं. ऐसा कर के आप न केवल उस गॉसिप चेन को तोड़ेंगे बल्कि दूसरे लोगों का विश्वास भी जीत सकेंगे. दूसरे लोग यह महसूस करेंगे कि आप ऐसी फालतू बातों में रुचि नहीं रखते. इस तरह आप दूसरों के आगे एक उदाहरण पेश करेंगे.
हर दुख और आपत्ति में क्या करना चाहिए : धर्म कहता है कि प्रार्थना करनी चाहिए. कबीर दास को हिंदू संत मान लिया गया है और उन का दोहा ‘दुख में सुमरिन सब करें…’ हर मुंह पर चढ़ा दिया गया है. कथन साफ है कि दुख में हर कोईर् स्मरण करता है कि हे प्रभु, मु झे विपत्ति, रोड़ा, नुकसान, रेप, हिंसा, प्राकृतिक प्रकोप, पुलिस, जेल आदि से बचाओ, बचाओ.
यह बात इतनी बार बोली जाती है कि जो सफल होते हैं वे तो अपने कामों में ही लगे रहते हैं पर जो असफल रहते हैं, पिछड़े रह जाते हैं. वे इस कथन का अक्षरश: पालन करने के लिए एक मंदिर से दूसरे मंदिर, एक बाबा से दूसरे बाबा, एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ जाने लगते हैं. हर धर्म यही सिखाता है कि आफत में प्रार्थना करो.
यहूदी सदियों तक पूजापाठ के कारण सताए गए. जब वे फिलिस्तीनी इलाकों में रोमनों, ईसाईयों और फिर अरब मुसलिमों से सताए गए तो यूरोप में जा बसे जहां उन्हें फिर सताया गया. उन का धर्म उन के साथ चला, वे फलेफूले भी पर विपत्तियों में मरे भी, जेलों में सड़े भी, परिवारों को छोड़ कर दूसरे धर्म अपनाए भी. लेकिन उन में से ज्यादातर ने पूजा के स्थान पर कर्मठता का रास्ता अपनाया.
कुछ यहूदियों ने पढ़नालिखना शुरू किया. वे साइंटिस्ट बने, विचारक बने, अन्वेषणकर्ता बने. उन की सफलताओं ने दूसरों को चिढ़ाया. उन पर फिर और अत्याचार हुए. लेकिन वे समाप्त नहीं हुए क्योंकि वे सिनेगौग (उपासना गृह) कम बना रहे थे, व्यापार-उद्योग ज्यादा चला रहे थे. वे अपने साथ अपनी जमीन पर रह रहे स्थानीय लोगों से ज्यादा संपन्न हो गए. यूरोपीय उन से चिढ़ने लगे. यूरोपियनों (ईसाईयों) के विशाल चर्च तो बनने लगे पर वे यहूदियों की तरह अमीर नहीं बन पा रहे थे क्योंकि वे अपनी जमीन पर मेहनत करने की जगह पूजापाठ कर रहे थे. पोप अमीर बन रहे थे, बिशप अमीर बन रहे थे, जबकि ईसाई जनता बेहाल थी.
आज यहूदियों ने एक जमीन को अपनी पुश्तैनी कह कर उस पर कब्जा कर लिया है. उन का इजराइल दुनिया के नए देशों में से सब से संपन्न है. वहीं के रहने वाले फिलिस्तीनी पूजापाठी हैं, हिंसक हैं, मरने से नहीं डरते और मारते हुए उन्हें दर्द नहीं होता. वे बेहद धर्मकट्टर हैं. आज वे बुरी तरह मार खा रहे हैं, इस बुरी तरह कि उन के पड़ोसी, उन के धर्म को मानने वाले देशों में हिम्मत नहीं है कि पैसा होते हुए भी वे इजराइल की गाजा में आज की जा रही अति का मुकाबला बहादुरी से कर सकें.
इधर, हमारे देश में लड़ाई गरीबी, गलत या अधूरी शिक्षा से है. हमारा दुश्मन हमारे अपने अंधविश्वास, अपने जातिगत भेदभाव हैं. हमारे पैरों में बेडि़यां हमारी नौकरशाही, हमारे नेताओं, हमारे अपने कौर्पोरेटों ने डाल रखी हैं. जबकि, अफसोस है कि इस का हल या इलाज हमें यह बताया जा रहा है- ‘‘दुख में सुमरिन सब करें, सुख में करे न कोय; जो सुख में सुमरिन करें, दुख काहे का होय.’’
जो दुखी है, बीमार है, गरीब है, वह पड़ोस के मंदिर में जा रहा है. जो अमीर है, सुखी है, संपन्न है वह कामधाम छोड़ कर स्मरण करने के लिए एक से दूसरे तीर्थ पर हवाईजहाजों में जा रहा है, फाइवस्टार होटलों में रह रहा है और वह गरीब से कह रहा है कि देखो, मैं पैसे वाला हूं, सफल हूं पर फिर भी तीर्थों में मारामारा फिर रहा हूं. तुम भी सफल होना चाहते हो तो कामधाम छोड़ो, भक्ति में लग जाओ.
अब तो सरकारें भी यही कह रही हैं- पूजापाठ करो, देश पर पैसा बरसेगा, तीर्थों में जाओ, गरीबी दूर होगी. दानदक्षिणा दो, बेरोजगारी दूर होगी. प्रार्थना करो, बीमारी दूर होगी.
कमोबेश सभी समाज ऐसा ही कह रहे हैं. लेकिन भारत में हम तो हर सीमा लांघ रहे हैं. हम वह जमीन तैयार कर रहे हैं कि जब 7वीं शताब्दी में बौद्ध विहारों को तोड़ना अकेला पुण्य का काम रह गया था. उस से देश के शासन में जो शून्यता आई थी उस ने विदेशियों को आमंत्रित किया जिन का शासन 1947 तक लगातार चलता रहा. आज लगता है, फिर उसी की शुरुआत हो गईर् है.
कोरोना से लगे लौकडाउन की वजह से लोगों को वर्क फ्रौम होम की आदत लग गई है. वर्क फ्रौम होम की वजह से काफी लोगों को अधिक से अधिक समय लैपटौप या कंप्यूटर पर बिताना पड़ रहा है. वे अपना ज्यादातर समय मोबाइल फोन या टीवी के स्क्रीन देखते हुए बिताते हैं. इस वजह से आंखों में जलन या खुजली जैसी परेशानी लोगों में दिख रही है. सिर्फ बड़े ही नहीं, बल्कि वे बच्चे भी इस से प्रभावित हो रहे हैं जो ज्यादा देर तक टैबलेट्स पर वक्त बिताते हैं या स्कूल से जुड़े कामों के लिए कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं.
दिल्ली स्थित अपोलो स्पैक्ट्रा हौस्पिटल के नेत्र रोग विशेषज्ञ डा. कार्तिकेय संगल कहते हैं, ‘‘कंप्यूटर विजन सिंड्रोम आंखों से जुड़ी एक समस्या है, जो घंटों लगातार लैपटौप, टीवी या कंप्यूटर के सामने बैठने से होती है. पिछले कुछ महीनों से आंखों की समस्या बढ़ती दिखाई दे रही है. समय रहते इलाज होना जरूरी है, नहीं तो दृष्टि की समस्या हो सकती है.’’
सिंड्रोम के लक्षण
कंप्यूटर ज्यादा देर तक लगातार इस्तेमाल करने से आंखों को एक अवधि के बाद नुकसान पहुंचता है. इस का कोई प्रमाण फिलहाल उपलब्ध नहीं है, लेकिन रोज 8 से 10 घंटे लगातार कंप्यूटर स्क्रीन पर काम करने से आंखों पर काफी दबाव पड़ता है, जिस से परेशानी महसूस हो सकती है और वह परेशानी कंप्यूटर विजन सिंड्रोम होते हैं. इस के लक्षण निम्न हैं-
1. धुंधला नजर आना
2. चीजें डबल नजर आना
3. आंखें लाल होना
4. आंखों में खुजली
5. सिरदर्द
6. गरदन या पीठ में दर्द आदि.
डाक्टरों का मानना है कि आजकल लोगों की नौकरी ज्यादातर 12 घंटे कंप्यूटर या लैपटौप पर काम करने की होती है. जब आप किताब पढ़ते हैं तो आप 30 से 40 मिनट में उठते हैं और इधरउधर जाते हैं, मगर कंप्यूटर पर काम करने के दौरान ऐसा नहीं कर पाते. लोग लगातार घंटों नहीं उठते. इस से ही कंप्यूटर विजन सिंड्रोम अस्तित्व में आया है. इस में आंखों का सूखना, आंखों का लाल होना, आंखों से पानी निकलना और मांसपेशियों का कमजोर होना आदि परेशानियां शामिल होती हैं.
डा. कार्तिकेय बताते हैं, ‘‘आंखों में खुजली होने या आंखों के लाल होने की परेशानी सब को है. यह समस्या किसी को कम, तो किसी को ज्यादा है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कंप्यूटर पर कितना वक्त बिताते हैं.’’ उन के अनुसार, कंप्यूटर और लैपटौप पर काम करने के दौरान आंखों को स्वस्थ रखने के कुछ सुझाव निम्न हैं-
कंप्यूटर की स्क्रीन आंखों की सीध में या आंखों से थोड़ी नीचे होनी चाहिए. स्क्रीन आंखों से ऊपर नहीं होनी चाहिए. स्क्रीन आंखों से जितनी ऊपर होगी, आंखों पर उतना ही जोर पड़ेगा.
नियमित कंप्यूटर या लैपटौप पर काम करने वालों को हमेशा एंटीग्लेयर लैंस का इस्तेमाल करना चाहिए. जिन्हें नजर का चश्मा लगा हुआ है, वे अपने चश्मे में एंटीग्लेयर लैंस लगवाएं. जिन्हें चश्मा नहीं लगा हुआ है, वे एंटीग्लेयर लैंस का साधारण चश्मा पहनें. बेहतर यह है कि कंप्यूटर की स्क्रीन पर भी एंटीग्लेयर शीशा लगा लें.
हर आंधे घंटे में ब्रेक लेना जरूरी है और 5 से 10 बार आंखों को जल्दीजल्दी झपकाना चाहिए, जिस से आंख के सभी हिस्सों में पानी पहुंच जाए और आंखों में नमी बनी रहे.
आंखों में किसी भी समस्या के होने पर तुरंत डाक्टर के पास जाएं और समय रहते इलाज करवाएं, ताकि किसी भी संभावित गंभीर बीमारी से बचा जा सके.
आंखों के लिए करें ये वर्कआउट
बचाव के तरीके
1. कोई भी लक्षण लगातार नजर आए, तो डाक्टर से संपर्क करें.
2. चश्मा लगा कर ही काम करें.
3. कंप्यूटर, टीवी, मोबाइल का इस्तेमाल अंधेरे में न करें.
4. डैस्कटौप, लैपटौप, मोबाइल को आंखों से डेढ़ फुट की दूरी पर रखें.
5. आंखों में ड्राइनैस महसूस हो, तो आईड्रौप्स डालें.
6. कंप्यूटर पर काम करते हैं, तो बीचबीच में ब्रेक लेते रहें.
7. आंखों को आराम देने के लिए हर आधे घंटे के गैप में आंखों को कंप्यूटर से हटा लें, 1-2 मिनट के लिए आंखें बंद कर के बैठें.