पिछले कुछ सालों से क्वीर फिल्मों का निर्माण देश में बढ़ा है, क्योंकि अब कानून इस को अपराध नहीं मानती. उन्हें अपने तरीके से जीने का अधिकार देती है, लेकिन शादी करने की मान्यता नहीं देती.
ऐसे में कुछ अलग तरीके की भाव और रहनसहन को फौलो करने वाले लोगों को छुप कर रहने की अब जरूरत नहीं रही, लेकिन परिवार, समाज और धर्म के कुछ लोग आज भी इन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं. उन्हें अपनी भावनाओं को खुल कर कहने या रखने की आजादी नहीं है.
कोर्ट के फैसले से अब उन्हें खुल कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का कुछ मौका अवश्य मिला है. ऐसे में अच्छी समलैंगिक फिल्में भी बनीं, मसलन फायर, तमन्ना, दरमिया, माय ब्रदर निखिल, बौम्बे टाकीज,कपूर एंड संस, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, गीली पुच्ची, बधाई दो,शाम की परछाइयां,अलीगढ़ आदि, जिन की गिनती अच्छी फिल्मों मे की गई और लोगों ने इस की मेकिंग को सराहा भी.
क्वीर फिल्मों का इतिहास
समय के साथसाथ यह मौका पूरे विश्व में "न्यू क्वीर सिनेमा" के रूप मे जाना गया, जिसे पहली बार 80 और 90 के दशक में सब के सामने लाया गया, जिसपर कई सालों तक बहस छिड़ी और प्राइड मार्च हुए, ताकि उन्हें ऐसी अलग कहानी कहने का मौका दिया जाए और अंत में कई देशों ने इसे कानूनी मान्यता दी और उन्हें आजादी से जीने की अधिकार दिया.
इस के बाद निर्माता निर्देशकों ने ऐसे अलग विषयों को ले कर कई फिल्में बनाई, फिल्म फैस्टिवल करवाए गए. इतने सब के बावजूद भी इन फिल्मों को बौक्स औफिस पर लाने से हमेशा रोका जाता रहा. पहले इन फिल्मों को नैशनल फिल्म डेवलपमैंट कौरपोरेशन(NFDC) हौल तक लाने मे सहयोग करती थी, लेकिन उन का सहयोग अब कम मिल पाता है. इस की वजह वे दर्शकों की कमी बताते हैं. आज भी थिएटर हौल मिलने में मुश्किलें हैं, दर्शकों की पहुंच से आज भी ये फिल्में दूर हैं. आखिर क्वीर फिल्मों के साथ इतनी भेदभाव क्यों है, क्या है इन का भविष्य?