कहा जाता है कि फिल्में समाज का आईना होती हैं यानी फिल्मों में वही दिखाया जाता है जो समाज में घट रहा होता है. जो भी आमतौर पर देश और समाज में हो रहा होता है उस में ही थोड़ेबहुत फेरबदल कर और थोड़ा बढ़ाचढ़ा कर फिल्में बनती हैं. तभी तो कमोबेश किसी भी दौर की फिल्मों को ध्यान से देखा जाए तो उस दौर का पूरा खाका साफ नजर आता है. जिस तरह देश और समाज ने अलगअलग दौर देखे हैं, हमारे हिंदी सिनेमा ने भी उन्हीं दौरों को अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है.

स्वतंत्रता के बाद के 20 सालों का इतिहास सपनों, चुनौतियों, आकांक्षाओं और नवनिर्माण का समय रहा. इन शुरुआती 2 दशकों की फिल्मों में हमें इसी तरह की कहानियां दिखाई दीं. 'आवारा', 'आनंदमठ', 'दो बीघा जमीन', 'फिर सुबह होगी', 'फुटपाथ', 'दो आंखें बारह हाथ', 'श्री 420', 'सीमा', 'मदर इंडिया', 'जिस देश में गंगा बहती है' और 'सुजाता' जैसी फिल्में बनाई और सराही गईं.

इसी तरह 70 के दशक में एक तरफ देश का मध्यवर्ग मजबूत हो रहा था तो वहीं समाज का ढांचा और दिशा तय हो रही थी. साथ ही, व्यवस्था से मोहभंग की शुरुआत भी हो चली थी. यही वह दौर था जब हिंदी फिल्मों में सामाजिक असंतोष को स्वर देने वाले अभिनेता अमिताभ का उदय हुआ था. एक तरफ जहां 'गुड्डी', 'परिचय', 'अभिमान', 'चुपकेचुपके', 'आपकी कसम', 'रजनीगंधा' जैसी मध्यवर्गीय समाज को दर्शाने वाली फिल्में बनीं तो दूसरी तरफ 'जंजीर', 'दीवार', 'त्रिशूल' और 'शोले' जैसी आक्रोश को व्यक्त करने वाली फिल्में भी बनीं.

80 और 90 के दशकों में सामाजिक जीवन में स्थिरता और शांति थी. उस दौर में मीठे संगीत वाली प्रेम कहानियां, जैसे 'लव स्टोरी', 'एक दूजे के लिए', 'हीरो', 'कयामत से कयामत तक' और 'मैंने प्यार किया'  'दिल', 'दीवाना', 'बेटा', 'हम आपके हैं कौन', 'बाजीगर', 'खुदा गवाह', 'फूल और कांटे' और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे जैसी फिल्में बनीं और खूब चलीं. कुछ हिंसक फिल्में, जैसे 'घायल', 'अग्निपथ', 'थानेदार', 'हम', 'अंगार', जैसी फिल्में भी बनीं. मगर ये कहीं न कहीं समाज को संदेश देने वाली फिल्में थीं.

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