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दलित देश की रीढ़

उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनावों की तैयारी शुरू हो गई है और चूंकि पंचायत चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को काफी सीटें मिली हैं, निगाहें मायावती की ओर लगी हैं. मायावती देश की एकमात्र दलितों की नेता बची हैं और उत्तर प्रदेश में खासी दमदार और खजाने में काफी पैसा रखने के बावजूद वे दलितों के लिए कहीं कुछ करती नजर नहीं आ रही हैं. उन का काम सिर्फ चुनाव जीतना, सीटें बांटना, दलितों पर कुछ होने पर बयान देना और अपने चमचमाते हीरे दिखाना भर रह गया है. काली वरदी वाले सुरक्षा बल से घिरी मायावती दूरदूर तक दलितों की नेता नजर नहीं आतीं.

यह जरूरी नहीं कि गरीबों का नेता गरीब नजर आए, पर अंधभक्तों के नेताओं को तो देखो, वे हर समय तिलक लगाए, भगवा गमछा ओढ़े, कमल का बिल्ला लगाए, हाथ में कलेवे बांधे नजर आते हैं और अंधभक्तों को बारबार एहसास दिलाते हैं कि अंधभक्ति ही उन की संपन्नता का राज है. मायावती से भी यही उम्मीद होनी चाहिए कि वह अछूत दलितों जैसी चाहे न लगें, पर कम से कम एक साधारण औरत तो लगें.

मायावती ने जब से शानशौकत को पाया है, दलितों की समस्याओं से दूर होती जा रही हैं. उन्हें दलितों, अछूतों, अति पिछड़ों, गरीब किसानों, कारीगरों की मुसीबतों से कुछ लेनादेना नहीं रह गया. लखनऊ में उन्होेंने जो महल बनवाए हैं, उन में फटेहाल गरीब क्या अपनी मुसीबतों की झलक देख पाते हैं? इतने भव्य तो अमीरों के, ऊंची जातियों के मंदिर भी नहीं हैं, जितने अंबेडकर के हैं.

दलित देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. उन का काम ही देश को ऊंचाइयों पर ले जा सकता है. 25-30 करोड़ दलित अगर अमेरिकियों और चीनियों की तरह काम करने लगें, तो देश सोने की चिडि़या बन सकता है. उन्हें ऐसा नेता चाहिए, जो उन की सोती हुई कर्मठता को झकझोर सके. जो उन्हें मेहनत पर मजबूर करे. जो उन्हें खुशहाली का रास्ता नई तकनीकों, नई पढ़ाई से बताए. जो पर्स न झुलाए, ठीक उस तरह उकसाए जैसे लाल कृष्ण आडवाणी राम मंदिर के लिए उकसाते थे, नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिनों के लिए बहकाया था. इन दोनों ने अपनी जमात को बहला कर 1998 व 2014 के चुनाव जीत लिए, पर दलितों को सिर्फ आरक्षण का लौलीपौप दिया जा रहा है.

मायावती को तो अगली पीढि़यों के लिए कुछ करना चाहिए. उन्हें दूसरा कांशीराम, अंबेडकर बनना चाहिए. उन्हें उत्तर प्रदेश से शुरू कर दलित सुधार की जोत सारे देश में जलानी चाहिए. उन्होंने राज बहुत कर लिया, अब कुछ बदलाव का काम करें. राज अपनेआप झोली में आ जाएगा.

होली पर फैशन की खुमारी

हर फैस्टिवल पर नए कपड़े पहनने का चलन है, लेकिन होली के अवसर पर रंग खेलने के लिए नए कपड़े खरीदना है ना आश्चर्य की बात… पहले के समय में होली में रंग खेलने के लिए अपने पुराने कपड़े निकाल कर पहनते थे लेकिन अब लोगों पर फैशन की खुमारी इस तरह से छाई है कि अब वो भी हर फैस्टिवल की तरह होली पर भी खास कपड़े खरीदने लगे हैं.

होली स्पैशल वियर

राजधानी लखनऊ में होली खेलने के लिए अब नए कपडे़ खरीदने का क्रेज बढ़ा है. कस्टमर की इसी सोच और चौइस को ध्यान में रखते हुए अब मार्केट भी होली स्पैशल कपड़ों से गुलहार है. अमीनाबाद और चौक की लाल मार्केट से ले कर फैब इंडिया जैसे स्टोर्स में भी होली स्पैशल कुर्ते उपलब्ध हं. एक तरफ लखनऊ चिकन के व्हाइट कुर्ते जो होली के रंगों की शान बढ़ाने के लिए एकदम हिट हैं वहीं फैब इंडिया का लाल, हरा, पीला समेत कई रंगों से सजा खास कौटन का कुर्ता तैयार किया है. जैसेजैसे लोगों को इस के बारे में पता चल रहा है वो इसे जल्द से जल्द खरीद रहे हैं. इस में नई कुर्तियों का के्रज भी काफी है जो हौस्टल में रहने वाली लड़कियों को लुभा रहा है. मगर सब से ज्यादा डिमांड सफेद कुर्ती की है.

रीजनेबल प्राइस

होली खेलने के लिए इन स्पैशल कुर्ते की कीमत काफी रीजनेबल प्राइस में उपलब्ध है. इन कुर्तों की कीमत 150 रु. से ले कर 400 रु. तक की है. आप अपनी जेब और बजट के हिसाब से इन कुर्ते और कुर्तियों को खरीद कर अपने होली फैस्टिवल को और रंगीन कर सकते हैं.

डिसकाउंट भी उपलब्ध

अगर अप एक साथ कई कुर्ते खरीदते हैं तो आप को इस से अच्छाखास डिसकाउंट भी मिल जाएगा फिर देर किस बात की अपनी होली को और रंगीन बनाने के लिए अपने प्रियजनों के लिए एक साथ कई होली स्पैशल कुर्ता खरीद कर भेंट करें और सभी को होली फैशन के रंग में रंग डालिए.

47 हजार किलो में सोने वाली गुझिया

होली में गुझिया का महत्व सबसे अलग ही होता है. बिना गुझिया के होली का त्योहार पूरा नहीं होता है. बाजार में बिकने वाली दूसरी तमाम मिठाईयों के मुकाबले गुझिया सस्ती मिलती है. इसलिये गुझिया को दूसरी मिठाईयों से कमतर आंका जाता था. अब हालात बदल गये है. होली में गुझिया के महत्व को देखते हुये सोने के वर्क वाली गुझिया बाजार में बिकने पंहुच गई है. इसकी कीमत बाजार में 42 हजार रूपये किलो से लेकर 47 हजार रूपये किलो तक है. गोल्डन कलर की यह गुझिया 5-5 हजार के छोटे गिट पैक में भी मिलती है. एक गिफ्ट पैक में सोने के वर्क वाली 6 गुझिया होती है. इन गुझिया को को कोरियर द्वारा विदेशों तक भी भेजा जा सकता है.

मधुरिमा स्वीट्स के मालिक मनीष गुप्ता कहते है ‘सोने के वर्क से तैयार गुझिया की सबसे बडी खासियत यह है कि यह चिलगोजा, स्वर्ण भस्म, पिस्ता और दूसरी तमाम चीजों से मिलाकर तैयार की जाती है. तैयार गुझिया में उपर से स्वर्ण वर्क चढाया जा सकता है. इसकी दूसरी खासियत है कि यह बिना फ्रिज के भी एक माह तक सुरक्षित रखी जा सकती है.’ गुझिया को डेकोरेटड गिफ्ट पैक में देने का रिवाज चल रहा है. यह देखने में आकर्षक लगती है. गुझिया को डेकोरेटड गिफ्ट पैक में देखकर पाने वाला भी खुश हो जाता है. छीका जैसा गिफ्ट पैक भी खूब चल रहा है. छीका को अलगअलग रंगों में रंगा जाता है. इसकी कीमत 300 रूपये से लेकर 500 रूपये तक हो सकती है. गुझिया के साथ ही साथ इसमें ड्राईफ्रूट्स भी रखे जाते है. आकर्षक गिफ्ट पैक में गुझिया का रंग और भी निखर जाता है.

‘किस’ का मजा…बंद आंखों से

अकसर हम ‘किस’ को ले कर अजीबअजीब सवाल करते हैं. जैसे किस करते समय नाक क्यों टकराती है? आंखें क्यों बंद हो जाती हैं? चेहरे पर एकदम से स्माइल क्यों आ जाती है? लेकिन इन सवालों के पीछे की वजह को कभी जानने की कोशिश नहीं करते.

नाक टकराने के बारे में तो नहीं पता लेकिन मनोवैज्ञानिक पौली डाल्टन और सेंड्रा मर्फी ने अपने अध्ययन में आंखें बंद होने के कारणों का पता लगा लिया है. इन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि विजुअल टास्क के साथसाथ यदि दूसरी क्रियाएं जारी रहती हैं तो हमारा ध्यान बट जाता है. अध्ययन के दौरान लोगों को सैंस औफ टच के साथ ही विजुअल टास्क दिया गया और उन की परफौर्मैंस को मापा गया. अध्ययन में पाया गया कि जब लोगों की आंखें दूसरे कामों में व्यस्त थीं तो सैंस औफ टच में ध्यान नहीं लगा पाए और उन का प्रदर्शन ठीक नहीं हुआ.

स्टडी के निष्कर्ष में कहा गया कि किसिंग और सैक्स के दौरान हमारा फोकस सैंस औफ टच पर होता है न कि किसी विजुअल टास्क पर. डा. डाल्टन ने बताया कि इसीलिए जब हमारा ध्यान किसी और जगह होता है तो हम आंखें बंद कर लेते हैं और हमारा ध्यान एक काम पर केंद्रित हो जाता है.

किस के कई फायदे

किस स्ट्रैस को कम कर के बौडी को रिलैक्स करता है.

किसिंग से पाचन शक्ति और जीवनकाल में वृद्धि होती है.

किसिंग के समय हमारे चेहरे की मांसपेशियों की कसरत होती है, जिस से हमारे गाल कसे हुए और कोमल बनते हैं.

कैलोरी घटाने के लिए भी किस फायदेमंद होता है.

किस के दौरान शरीर में एड्रेनालिन नामक हार्मोन बनता है जो पूरे शरीर में रक्तसंचार के लिए पंप होने में दिल की मदद करता है.

क्या करें जब कोई घूस मांगे

फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के एक दृश्य में रेडियो जौकी बना नायक संजय दत्त जब सरकारी दफ्तर में खड़े एक बूढ़े को यह सलाह देता है कि अगर अफसर घूस मांगने पर अड़ा ही है तो उस के सामने एकएक कर के सारे कपड़े उतार दो. पीडि़त ऐसा ही करता है, इस से अफसर घबरा जाता है और उस का काम बगैर घूस लिए ही कर देता है. इस पर दर्शक हंसते हैं और तालियां पीटते हैं. दृश्य हास्यास्पद लेकिन व्यावहारिक नहीं था. यह रिश्वतखोरी की समस्या का सटीक हल नहीं था, लेकिन इस में एक संदेश था कि घूसखोरों के आगे हथियार नहीं डालने चाहिए, उन से कैसे निबटा जाए यह निर्देशक नहीं बता पाया.

घूसखोरी की प्रवृत्ति को ले कर देश का मौजूदा माहौल निराशाजनक है. हर कोई इस से त्रस्त है. अब तो सब ने मान लिया है कि यह कभी खत्म नहीं हो सकती, क्योंकि दीमक की तरह यह सारे सिस्टम को करप्ट कर चुकी है. और तो और अब लोग बेहिचक यह तक कहने लगे हैं कि इस में हर्ज ही क्या है, अगर दोचार सौ रुपए दे कर आप का काम बन जाता है तो बेवजह का झगड़ा कर के क्या हासिल होगा, उलटा वक्त आप का ही बरबाद होगा, क्योंकि होना तो कुछ है नहीं.

यह एक नहीं बल्कि अधिकतर लोगों की राय है कि जब सरकारी दफ्तर, सार्वजनिक उपक्रम और तो और प्राइवेट सैक्टर में भी अगर कोई घूस मांगे तो दे कर अपना काम निकलवा लेना चाहिए, ख्वाहमख्वाह हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए यानी जब देने वालों को एतराज नहीं है बल्कि उन्हें सुकून और सहूलत है तो लेने वाले को क्यों कोसा जाए, जो भ्रष्टाचार और घूसखोरी की बुनियाद है और घूस खाना अपना हक समझते हैं.

कई जगह तो घूस भी एहसान की तरह ली जाती है यानी मामला धर्म और पंडेपुजारियों जैसा है, जो मालपुआ खाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं, फर्क सिर्फ पेशे का है.

क्या करें जब…

जब कोई घूस मांगे तब क्या करें? इस सवाल का जवाब ऊपर बताया जा चुका है, लेकिन वह गलत है. आज जिस भ्रष्ट व्यवस्था को लोग पानी पीपी कर कोसते हैं, उस के फलनेफूलने में उन का भी बराबर का योगदान है. रेल यात्रा के दौरान अकसर ऐसा होता है कि बर्थ खाली पड़ी रहती है, लेकिन बगैर चढ़ावे के वह आवंटित नहीं होती, क्योंकि एक बर्थ के लिए दर्जन भर लोग लाइन में लगे रहते हैं और घूस देने के लिए सभी की पौकेट में पैसा होता है.

यहां गौर करने वाली अहम बात यह नहीं है कि बर्थ कम और मुसाफिर ज्यादा थे. अहम बात यह है कि इन दर्जन भर लोगों में एकजुटता, जागरूकता अनुशासन व ईमानदारी नाम की चीजें ही नहीं थीं. यह कोई आदर्श बात या परिकल्पना भर नहीं है कि ये सभी इकट्ठा हो कर एक स्वर में यह कहते कि हम में से कोई घूस नहीं देगा और जो देगा हम टिकट निरीक्षक के साथसाथ उस का भी सफर और सोना हराम कर देंगे.

ऐसा करना नामुमकिन नहीं है वजह जिस यात्री ने घूस दी है खुश तो वह भी नहीं होता जो समझता है कि टिकट चैकर ने अपने अधिकार का दुरुपयोग किया है. घूस देने के बाद जो मानसिकता बनती है वह दरअसल, लंबे समय तक साथ नहीं देती, बावजूद इस के कि ऐसा हर किसी के साथ हर कहीं होता है.

यानी माहौल कदमकदम पर घूस, घूसखोरी और घूसखोरों का है, दिक्कत तो तब बढ़ती है जब ये घूसखोर मुंह फाड़ते भिखारियों की तरह पैसे मांगने लगते हैं और न दो तो मामूली से काम के लिए इतने चक्कर लगवा देते हैं कि पीडि़त को लगता है कि इस से तो अच्छा है कि पहली बार में ही घूस दे देता तो सही रहता.

बेंगलुरु शिफ्ट हुए भोपाल के आदित्य सक्सेना ने भोपाल में 75 लाख रुपए का एक मकान खरीदा और रजिस्ट्री कर के वापस अपनी नौकरी पर चले गए. कुछ दिन बाद उन के किराएदार का फोन आया कि बिजली विभाग और नगर निगम में अपना नामांतरण करा लें, क्योंकि नामांतरण न होने से उन का किरायानामा बैंक की नजर में अवैध है, जिस के आधार पर उन्हें एटीएम कार्ड चाहिए और जिस का केवाईसी यानी नो योअर कस्टमर के तहत वैरिफिकेशन कराना है.

आदित्य ने सोचा कि दीवाली की छुट्टियों में दोनों काम करवा लूंगा. इस में दिक्कत क्या है, एकदो दिन का काम है. छुट्टियों में आ कर जब वे कार्पोरेशन के दफ्तर गए तो काम करने वाले बाबू ने उन्हें खास नजरों से देखा, जिस का मतलब तो आदित्य समझ गए पर अनजान बने रहे. बाबू बेहद घाघ था वह भी समझ गया कि आदित्य बाबू ऐसे नहीं मानने वाले लिहाजा, टालमटोल करने लगा.

आदित्य ने जब उस क्लर्क से 4 दिन बाद वापस बेंगलुरु जाने की अपनी मजबूरी बताई तो वह बजाय उन की परेशानी समझे वक्त पर काम करने के कागजों में ही कई कमियां निकालने लगा, जो बेवजह की थीं. इस चालाकी पर आदित्य भड़क उठे, चूंकि वे एक बड़ी नामी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं, इसलिए सीधे कमिश्नर के पास जा पहुंचे. उन के व्यक्तित्व और फर्राटेदार अंगरेजी बोलने से कमिश्नर साहब प्रभावित तो हुए पर शिकायत सुन कर बोले कि देखिए अगर आज हमारा विभाग कोई भी काम बगैर नियमों के करेगा तो कल को आप को भी परेशानी होगी और हमें भी. इसलिए बेहतर होगा कि आप क्लर्क के कहे मुताबिक अपने कागज दुरुस्त करा लें.

जो ज्ञान बुद्ध जैसे महात्माओं को सालों की तपस्या के बाद प्राप्त हुआ, वह आदित्य को 4 दिन में ही प्राप्त हो गया. उन्होंने 5 हजार रुपए बाबू को दिए और उन का नामांतरण हो गया, जो काम बेहद दिक्कत वाला लग रहा था कि इस में विक्रेता के दस्तखत नहीं हैं, स्टांप शुल्क कम दिया गया है और गवाहों के दस्तखतों का सही मिलान नहीं हो रहा है. 5 हजार रुपए देने के बाद अपनेआप ठीक हो गया.

कहां करें शिकायत

क्या आदित्य ने ठीक किया. इस का सटीक और व्यावहारिक जवाब है हां, क्योंकि घूस नहीं देते तो बेंगलुरु से 4 चक्कर और काटने पड़ते. छुट्टियां बरबाद होतीं, किराया लगता सो अलग. इस पर भी काम होने की कोई गारंटी नहीं थी. यहां एक अहम सवाल यह उठता है कि घूस मांगे जाने पर कमिश्नर के अलावा कहां शिकायत करते लोकायुक्त में, मंत्रालय में या फिर थाने जा कर धरने पर बैठ जाते या कपड़े उतारने लगते.

जाहिर है इन सब बातों से कोई तात्कालिक फायदा नहीं था, क्योंकि नामांतरण जरूरी था और बेचारा किराएदार बेवजह परेशान हो रहा था यानी घूस मांगे जाने पर त्वरित कार्यवाही की कोई व्यवस्था नहीं है और जो है भी वह यह कि आप शिकायत कर दीजिए कार्यवाही आज नहीं तो कल होगी. मुमकिन है कार्यवाही करने वाला अफसर भी घूस मांगने लगता है.

लोकायुक्त, खुफिया विभाग, एंटी करप्शन ब्यूरो जैसी एजेंसियों का तरीका विभागों से भी ज्यादा जटिल है, इसलिए पीडि़त वहां नहीं जाते. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने घूसखोरी के खिलाफ धुआंधार शुरुआत करते हुए एक टोलफ्री नंबर जारी किया था कि कोई घूस मांगे तो इस नंबर पर शिकायत करें, तुरंत कार्यवाही होगी, लेकिन जो हो रहा है वह सब के सामने है. ऐसे शिकायत केंद्र हंसी का अड्डा बन कर रह जाते हैं वहां पर सुनवाई या कार्यवाही नहीं होती.

तो क्या मांगे जाने पर घूस दे दी जाए? इस सवाल पर पीडि़तों और आम लोगों की राय व अनुभव काफी माने रखता है. जिस देश में मंत्री से संतरी और अफसर से बाबू तक अपनी हैसियत के मुताबिक घूस लेते हों वहां सुधार या घूसखोरी के खात्मे का रास्ता क्या है. यह शायद अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी भी न बता पाएं, लेकिन कुछ किया जाना जरूरी है, नहीं तो आम आदमी घूस की चक्की में पिस कर शोषण का शिकार होता रहेगा. जो उत्साही लोग जोश में यह कहते नजर आते हैं कि घूसखोरों को सरेआम बेइज्जत कर उन्हें थप्पड़ मार कर सबक सिखाया जाना चाहिए वे यह भूल जाते हैं कि ये सब फिल्मी बातें हैं, हकीकत में ऐसा करना नामुमकिन है.

कानून से कोई उम्मीद रखनी बेकार है, 80 फीसदी घूसखोर पकड़े जाने के बाद भी बाइज्जत बरी हो जाते हैं यानी एक तरह से कानूनी सम्मान से नवाजे जाते हैं. यहां जरूरत इस बात की है कि वे तमाम काम जो घूस के बगैर मुमकिन हैं उन की अनिवार्यता खत्म की जानी चाहिए. शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बड़ीबड़ी बातें की थीं लेकिन नतीजा सामने है. वे अब नकारे जा रहे हैं, लोग प्रवचन नहीं ठोस सुधार चाहते हैं जो किसी के बस की बात नहीं दिख रही.

यह कर के देखें

–      घूसखोर को जितना हो सके शर्मिंदा करने की कोशिश करें, इस से वह नैतिक रूप से कमजोर होगा.

–       अगर काम बहुत जरूरी न हो तो घूसखोर को वैसे ही टालें जैसे वह जरूरी काम होने पर आप को टालता है.

–       उस के विभाग में शिकायत करें अगर कार्यवाही न हो तो लोकायुक्त व एंटी करप्शन विभाग में शिकायत अवश्य करें. अभी जो घूसखोर पकड़े जा रहे हैं उस की वजह यही शिकायतें हैं.

–       घूस लेने वाले की उस के विभाग में और मिलनेजुलने वालों से उस की बदनामी करें.

–       मीडिया वालों को घूसखोरी के बारे में सूचित करें अैर उन से सहयोग लें.

–       घूस बिलकुल भी न दें बल्कि किश्तों में दें, इस से मुमकिन है कम घूस में ही काम हो जाए.

–       इस बात से डरें नहीं कि घूस न देने पर आप का काम नहीं होगा.

–       अगर घूसखोर बहुत ज्यादा परेशान या ज्यादती कर रहा है तो उसे उस के दफ्तर में जलील करने से न चूकें.

–       कोशिश करें कि उधारी में काम हो जाए और काम होने के बाद घूसखोर को टालते रहें. ऐसे में आप का वह कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा.

दिव्यांगों के प्रति समाज असंवेदनशील क्यों

हाल ही में 27 दिसंबर, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आकाशवाणी से प्रसारित अपने प्रसिद्ध कार्यक्रम ‘मन की बात’ में भी विकलांगजनों का उल्लेख किया और बताया कि इन लोगों को विकलांग के बजाय ‘दिव्यांग’ के नाम से जाना जाए, क्योंकि इन के अंदर ऐसी प्रतिभा होती है जो आम आदमी में नहीं होती. इन की इस अद्भुत प्रतिभा की वजह से इन्हें दिव्यांग कहा जाए. प्रधानमंत्री की बात का गूढ़ अर्थ जान कर इन लोगों को अत्यंत प्रसन्नता हुई और वे दिव्यांग शब्द के कायल हो गए. दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं बल्कि शारीरिक अंगों में कमी के कारण होती है. कुछ कमियों का प्रभाव समझ में नहीं आता जबकि कुछ कमियां हमारे जीवन को प्रभावित कर देती हैं. एक अंग बेकार होने से व्यक्ति निशक्त नहीं हो जाता.

क्या है दिव्यांगता

निशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 के मुताबिक जब शारीरिक कमी का प्रतिशत 40 से अधिक होता है तो वह दिव्यांगता की श्रेणी में आता है.

दिव्यांगता ऐसा विषय है जिस के बारे में समाज और व्यक्ति कभी गंभीरता से नहीं सोचते. क्या आप ने कभी सोचा है कि कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठ कर, भाई के साथ साइकिल पर बैठ कर या मां की पीठ पर लद कर या फिर ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राईसाइकिल चला कर ज्ञान लेने स्कूल जाता है, किंतु सीढि़यों पर ही रुक जाता है, क्योंकि वहां रैंप नहीं है और ऐसे में वह अपनी व्हीलचेयर को सीढि़यों पर कैसे चढ़ाए? उस के मन में एक कसक उठती है, ‘क्या उस के लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं? क्या शिक्षण संस्था में उस को कोई सुविधा नहीं मिल सकती?’ शौचालय तो दूर उस के लिए एक रैंप वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपनी व्हीलचेयर चला कर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके.

सुविधाओं का अभाव

कोई दफ्तर, बैंक एटीएम, पोस्टऔफिस, पुलिस थाना, कचहरी ऐसी नहीं है जहां दिव्यांगों के लिए अलग से सुविधाएं मौजूद हों. सामान्य दिव्यांगों की तो छोडि़ए, यहां के दिव्यांग कर्मचारियों के लिए भी कोई सुविधा नहीं है. अगर दिव्यांगों को बराबर का अधिकार है तो नजर कहां आता है?

ट्रेन की ही बात करते हैं. क्या ट्रेन में दिव्यांग अकेले यात्रा कर सकते हैं? प्लेटफौर्म, अंडरब्रिज यहां तक कि ट्रेन तक पहुंचने के लिए भी दिव्यांगों को दूसरों की सहायता चाहिए. उन के लिए कोई मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. किसी तरह अगर वे डब्बे में चढ़ भी जाएं तो ट्रेन में उन के लिए अलग से शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है. घर बैठ कर सभी सामान्य लोग औनलाइन टिकट की बुकिंग कर सकते हैं लेकिन दिव्यांगों को प्लेटफौर्म पर लाइन में लग कर ही टिकट लेना पड़ता है.

यहां तक कि मतदान केंद्रों पर भी दिव्यांगों को कोई अलग से सुविधा नहीं दी जाती, अधिकांश मतदान केंद्रों पर रैंप न होने के कारण वे मताधिकार से वंचित रह जाते हैं. यह तंत्र एवं समाज के लिए शोचनीय और शर्मनाक बात है.

हर साल बजट में दिव्यांगों के लिए भारी सहायता राशि की घोषणा की जाती है. कागज पर योजनाएं एवं सुविधाएं उकेरी जाती हैं, लेकिन अभी तक कोई भी तंत्र उन्हें मौलिक अधिकार एवं सुविधाएं नहीं दे सका है.

समाज से उपेक्षित दिव्यांग

हमारे समाज में दिव्यांगता थोथी संवेदनाओं का केंद्र बन कर रह गई है. दिव्यांगों से तो सभी सहानुभूति रखते हैं लेकिन उन्हें दोयम दर्जे का व्यक्तित्व मानते हैं. बेचारे, पंगु, निर्बल, निशक्त जाने कितने संवेदनासूचक शब्दों से हम उन्हें पुकारते हैं. कितनी सरकारी योजनाएं, विभाग बन गए लेकिन क्या दिव्यांगों को हम सबल बना पाए हैं? क्या उन को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ कर राष्ट्र निर्माण में उन का योगदान ले पाए हैं, शायद नहीं. इस के जिम्मेदार हम सभी हैं.

दिव्यांगों के अधिकारों को आवाज देता ‘संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता समझौता’ विश्वव्यापी मानवाधिकार समझौता है. यह समझौता स्पष्ट रूप से दिव्यांगों के अधिकारों एवं विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा निर्बाध रूप से दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की पैरवी करता है.

देश की संसद ने दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 दिव्यांगता अधिनियम पारित किया. स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ‘राइट्स औफ पर्सन्स विद डिस्एबिलिटीज’ कन्वैंशन में कही गई बातों को 2007 में स्वीकार किया और दिव्यांगों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित कन्वैंशन जिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ, के आधार पर बदलने की बात कही.

फिलहाल करीब 40 कंपनियां दिव्यांगों को नौकरियां दे रही हैं. गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से दिव्यांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है. आज आवश्यकता है दिव्यांगों को समान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वे देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें.

आंकड़ों की जबानी, उपेक्षा की कहानी

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 58 चक्र के अनुसार देश में लगभग 1 करोड़ 85 लाख दिव्यांग हैं, जबकि रजिस्ट्रार जनरल औफ इंडिया की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार देश में दिव्यांग की संख्या 2 करोड़ 68 लाख है. 75% दिव्यांग ग्रामीण इन क्षेत्रों में हैं, 49% दिव्यांग साक्षर हैं एवं 34% दिव्यांग रोजगार प्राप्त हैं.

मध्य प्रदेश में कुल 11 लाख 31 हजार 405 दिव्यांग हैं.

अन्य आंकड़े इस प्रकार हैं :

–       4,12,404 दिव्यांग बेरोजगार हैं.

–       2,87,052 दिव्यांग दैनिक रूप से आय अर्जित कर जीवनयापन करते हैं.

–       2,81,670 दिव्यांग स्वरोजगार करते हैं.

–       1000 रुपए से कम प्रतिमाह कमाने वाले दिव्यांगों की संख्या 5,05,472 है.

–       सरकारी क्षेत्र में केवल 15,955 दिव्यांग काम करते हैं.

–       प्रदेश में कुल सर्वेक्षित दिव्यांग जनसंख्या के 80% यानी 8,89,755 दिव्यांग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं.

–       केवल 19,667 दिव्यांगों को स्वरोजगार हेतु सरकारी सहायता मिली है.

–       सिर्फ 66,962 दिव्यांगों को ही सामाजिक सुरक्षा पैंशन का लाभ मिल रहा है.

ये आंकड़े दर्शाते हैं कि स्थिति कितनी भयावह है. समाज और सरकारी तंत्र दिव्यांगो के प्रति असंवेदनशील है. शिक्षा एवं रोजगार ही दिव्यांगता से लड़ने के मुख्य अस्त्र हैं किंतु इन दोनों की स्थिति इतनी दयनीय है कि दिव्यांग व्यक्ति का आत्मबल दम तोड़ देता है.

छेड़खानी: डरें नहीं, मुंहतोड़ जवाब दें

युवतियों को अकसर राह चलते, बस, मैट्रो, मार्केट आदि जगहों पर छेड़खानी का सामना करना पड़ता है. यह छेड़खानी घूरने, भद्दे व अश्लील इशारे करने, अभद्र कमैंट्स व मौके का फायदा उठा कर शरीर छूने के रूप में सामने आती है.

जब युवतियां जानती हैं कि ऐसे मनचलों से पाला पड़ना आम बात है तो क्यों न इन से डरने के बजाय बोल्ड हो कर, डट कर इन का सामना करती हैं?जब तक आप डरती रहेंगी तब तक इन मनचलों के हौसले बढ़ते रहेंगे. शहर हो या कसबा, ऐसे मनचलों की कमी नहीं है जो युवतियों को देखते ही अश्लील फबतियां कसने से बाज नहीं आते. ऐसे में कुछ युवतियां उन की इस छेड़खानी को नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाती हैं, जिस से मनचलों के हौसले बुलंद होते हैं. छेड़खानी की घटनाएं बढ़ने का मुख्य कारण युवतियों द्वारा मनचलों का डट कर मुकाबला न करना है. युवतियां मनचलों से डर कर व बदनामी के भय से उन का विरोध नहीं करतीं, जिस का लाभ मनचले उठाते हैं.

जानिए, कैसे थोड़ी सी सूझबूझ से आप मनचलों को छेड़खानी का मुंहतोड़ जवाब दे सकती हैं :

छेड़छाड़ को समझें

छेड़छाड़ के अंतर्गत अश्लील हरकतें करना, गलत कमैंट्स करना, सोशल नैटवर्किंग के जरिए भद्दे एसएमएस व मैसेज भेजना, सीटी मारना, भीड़भाड़ वाले स्थान पर जबरदस्ती टकराते हुए निकलना, छूने की कोशिश करना आदि आते हैं. ऐसा व्यवहार जो किसी युवती की भावनाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से आहत करता है, छेड़छाड़ के अंतर्गत आता है.

22 वर्षीय रूपाली जो रोजाना घर से औफिस जाने के लिए बस व मैट्रो का प्रयोग करती है, कहती है, ‘‘घर से निकलते ही छेड़छाड़ की शुरुआत हो जाती है. बाइक व गाड़ी में आतेजाते युवक भद्दे इशारे करते हैं, घूरते हुए जाते हैं, कुछ तो लिफ्ट देने का भी निमंत्रण देते हैं. बस में साथ बैठने पर युवक जबरदस्ती ज्यादा जगह घेरते हुए छूने की कोशिश करते हैं और अगर बस में भीड़ हुई तो सीट के बराबर में खड़े हो जबरदस्ती लिंगर औन करते हैं या फिर पास आते हुए अपने मैनहुड से शोल्डर्स को छूने की कोशिश करते हैं. ऐसे में अगर मैं पीछे हटने या खुद को सिकोड़ने की कोशिश करूं तो उन के हौसले बढ़ जाते हैं.

‘‘इसी तरह मैट्रो व मार्केट में चलतेफिरते युवक जबरदस्ती टकराते हुए निकलने की कोशिश करते हैं. उन की हरकतों से समझ आ जाता है कि उन की नीयत ठीक नहीं है. वे भीड़ का फायदा उठा कर  गलत हरकतें करने की कोशिश करते हैं.

‘‘मैं इन सब से निबटने के लिए हर पल तैयार रहती हूं, क्योंकि मैं जानती हूं कि डर के आगे जीत है. जब भी कोई युवक मुझे छूने या टकराने की कोशिश करता है, तो मैं अपना बैग या कुहनी बीच में अड़ा देती हूं. इस के बावजूद यदि वह नहीं संभलता तो मैं जोर से चिल्लाती हूं ताकि वह संभल जाए. मैं अपने पास पेपर स्प्रे, सेफ्टी पिन व छोटा चाकू रखती हूं ताकि जरूरत पड़ने पर स्वयं को बचा सकूं.

‘‘डरना छेड़खानी से बचने का समाधान नहीं है. डरने से तो इन मनचलों की हिम्मत और बढ़ती है. इसलिए जब भी कोई ऐसा प्रयास करे तो उस से आंखें मिलाएं और बोल्ड बन कर उस का सामना करें.’’

अपनी भावनाएं आहत न करें

छेड़खानी के दौरान हर युवती खुद को आहत पाती है, उसे लगता है उस के साथ शाब्दिक और शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार हो रहा है. उसे गुस्सा आता है, युवकों की भेदती निगाहें उसे भीतर तक छलनी करती हैं, लेकिन वह डर से रिऐक्ट नहीं करती, ऐसा हरगिज न करें. खुद को बेचारी न समझें. किसी को कोई हक नहीं कि वह आप की भावनाएं आहत करे, आप को शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाए. इसलिए ऐसी किसी भी हरकत का पलट कर बोल्डनैस से जवाब दें. डरें व घबराएं नहीं. आप सोचें कि सड़क पर, मैट्रो में, बस में, मार्केट में आप को भी आजादी से निडर घूमनेफिरने का उतना ही हक है जितना कि युवकों को.

छेड़खानी : आप की गलती नहीं

कुछ घरों में युवतियों को सिखाया जाता है कि अगर कोई आप से छेड़खानी करे, अभद्र कमैंट करे तो सिर नीचे कर के आगे बढ़ जाओ, उस का जवाब न दो वरना वह कुछ और गलत कर सकता है. आज जरूरत ऐसी सोच बदलने की है क्योंकि गलत कमैंट व छेड़खानी कर के उस ने गलती की है और उस की गलती का जवाब न देना एक और बड़ी गलती है. गलती वह करे और सिर झुका कर आप चलें, भला यह कहां का इंसाफ है. इसलिए अगर कोई आप के साथ छेड़खानी करता है तो उसे मुंहतोड़ जवाब दें.

युवतियों में इस बदलाव को लाने में अभिभावकों को भी आगे आना होगा. अपनी बेटियों में वह आत्मविश्वास व निडरता पैदा करनी होगी ताकि वे राह चलते मनचलों का बोल्डनैस से सामना कर सकें. मनचले इस बात का फायदा उठाते हैं कि युवती बदनामी और सीन क्रिएट होने के डर से जवाब नहीं देगी. उन की इसी सोच को बदलने के लिए उन्हें मुंहतोड़ जवाब देना जरूरी है ताकि अगली बार वे किसी युवती से छेड़छाड़ करने से पहले कई बार सोचें.

आत्मरक्षा की ट्रेनिंग लें

छेड़खानी से बचने के तरीकों में सैल्फ डिफैंस टे्रनिंग अहम भूमिका निभाती है. कई बार जब छेड़छाड़ हद से अधिक बढ़ जाए और बात शारीरिक सुरक्षा की हो, तो जूडोकराटे जैसी सैल्फ डिफैंस की टे्रनिंग खासी काम आती है. सैल्फ डिफैंस की तकनीक से न केवल युवतियों में शारीरिक ताकत बढ़ती है बल्कि मानसिक आत्मविश्वास भी बढ़ता है.

जब हो छेड़छाड़

आप को यह समझना होगा कि आप अपने शरीर की मालिक खुद हैं. किसी को आप पर कमैंट करने या छूने का कोई हक नहीं है ऐसे में आप को निम्न बातों पर अमल करना चाहिए :

चिल्लाएं

जब भी कोई आप के साथ छेड़खानी करे तो आप जोरजोर से चिल्लाना शुरू कर दें. इस से उस में खौफ पैदा होगा.

खुद को परिस्थिति का शिकार न होने दें

अकसर भीड़भाड़ वाले इलाकों, बस या ट्रेन में लोग ‘बहुत भीड़ है’ कहते हुए युवतियों को छेड़ने, उन्हें टच करने का बहाना ढूंढ़ते हैं. ऐसी स्थिति में डरें नहीं और खुद को परिस्थिति का शिकार न होने दें. सब से पहले आप उसे दूर या फिर सलीके से खड़े होने को कहें. अपने बैग को उस के व अपने बीच की दीवार बनाएं. इस से वह अपने मनसूबों में कामयाब नहीं हो पाएगा.                  मोबाइल ऐप ‘आर मित्र’अगर ट्रेन में अकेले सफर करते हुए आप को छेड़खानी का सामना करना पड़े, तो ‘आर’ मित्र नाम का ऐप आप की मदद करेगा. इस ऐप के जरिए मैसेज भेज कर आप अगले स्टेशन पर आरपीएफ या जीआरपी की मदद हासिल कर सकते हैं. आर मित्र यानी रेलवे मोबाइल इंस्टैंट ट्रैकिंग रिस्पौंस ऐंड असिस्टैंस नामक ऐप का इस्तेमाल करने के लिए इस ऐप को ऐंड्रौयड स्मार्टफोन के जरिए गूगल प्लेस्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं. अगर आप का फोन ऐंड्रौयड नहीं है तो भी आप मैसेज अंगरेजी में ‘इरेलहैल्प’ से टाइप कर के भारतीय रेलवे हैल्पलाइन नंबर 56161 पर भेज दें. आर मित्र के मैसेज भेजने पर जीपीएस व जीपीआरएस के जरिए यात्री और ट्रेन की लोकेशन का आसानी से पता चल जाएगा और सुरक्षाकर्मी आप तक पहुंच कर आरोपी के खिलाफ कार्यवाही कर सकेंगे.

छेड़खानी या पीछा करना जीने के अधिकार का हनन है -कोर्ट

दिल्ली की एक अदालत ने हाल ही में एक युवक द्वारा एक युवती का पीछा करने, उस से अश्लील बातें करने व उस की मर्यादा भंग करने का दोषी मानते हुए कहा कि छेड़छाड़ सामाजिक अपराध है जो महिला के जीने के अधिकार व आजादी का हनन करता है. ऐसे अपराधियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए ताकि वे दोबारा इस तरह का अपराध करने की हिम्मत न करें.

उत्तराखंड की लडाई केंद्र की छवि खराब करेगी

गर्मियों के शुरू होते ही पहाड का मौसम खुशनुमा हो जाता है. उत्तराखंड में इससे अलग राजनीति के चलते मौसम गर्म हो गया है. वहां कांग्रेस के हरीश रावत मुख्यमंत्री हैं. अगले साल उत्तराखंड में विधानसभा के चुनाव होने है. भारतीय जनता पार्टी की शह पर कांग्रेस के 9 विधायकों ने हरीश रावत सरकार के खिलाफ बगावत कर दी है. इससे हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गई है. शुरूआत में उत्तराखंड के भाजपा नेताओं को लग रहा था कि वह कांग्रेस के बागी नेता हरक सिंह रावत और संगम बहुगुणा को आगे करके सत्ता पलट कर सकती है. जब भाजपा के इस खेल का कांग्रेस ने मुकाबला करना शुरू किया तो अब लगने लगा है कि भाजपा नेताओं ने जो जल्दबाजी की उससे केन्द्र सरकार की छवि खराब होगी. सत्ता पलट से भाजपा को कुछ हासिल होने वाला नहीं है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत नैतिकता का आधार बनाकर अपना बचाव करने में सफल हो जायेगे.

भाजपा वैसे तो दलबदल के खिलाफ दिखती है पर उत्तर प्रदेश में भाजपा ने कई बार सत्ता पलट कर सरकार बनाने और बचाने का काम किया है. उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने के लिये भाजपा को 4 साल का समय मिल गया था. उसके चलते कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बन सके थे. उत्तराखंड में 1 साल से भी कम समय बचा है. भाजपा का कोई नेता कुर्सी हासिल नहीं कर पायेगा. सबसे बडी बात हरीश रावत जिस तरह के नेता है आसानी से सत्ता पलट नहीं होगा. संविधान के जानकार यह मानते हैं कि अल्पमत की सरकार बनने के बजाय हरीश रावत सरकार भंग करने का फैसला लेकर नये चुनावों की घोषणा कर सकते हैं. राष्ट्रपति शासन लगाकर भाजपा उत्तराखंड में अपना दबाव नहीं बना पायेगी. कांग्रेस अब इस लडाई को दिल्ली और उत्तराखंड दोनो में लडने की व्यूह रचना कर रही है.

दिल्ली की लडाई में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का पलडा भारी पड रहा है. कांग्रेस के लिये सबसे अचछी बात यह है कि अगर हरीश रावत सरकार सत्ता से बाहर होती है होती कांग्रेस केन्द्र को घेरने का काम करेगी. जिसमे वह भाजपा की नैतिकता पर सवाल उठायेगी.उ त्तराखंड के लोगों में हरीश रावत सरकार के प्रति सहानुभूति आयेगी. जो नुकसान विधानसभा चुनावों में होने वाला होगा उसकी खानापूर्ति हो जायेगी. हरीश रावत के संपर्क में भाजपा के 5 बागी विधायक भी हैं जिससे भाजपा की किरकिरी होने की पूरी संभावना है. कानूनी दांवपेंच में हालात हरीश रावत के पक्ष में दिखाई दे रहे है.

अगर हरीश रावत सरकार बचाने में सफल हो गये तो भाजपा के खिलाफ केन्द्र में कांग्रेस यह मुद्दा बना लेगी. ऐसे में भाजपा के लिये उत्तराखंड की हालत सांप और छछूदंर वाली हो गई है. जिसे न अब वह उगल पा रही है और न निगल पा रही है. भाजपा के उत्तराखंड के नेता पार्टी का हित देखने के बजाये अपनी दुश्मनी निकालने की होड में पार्टी के हित को दांव पर लगा बैठे है. भाजपा के इन नेताओं ने केन्द्र सरकार को गफलत में रखा. जिससे केन्द्र सरकार फंस गई है

फिर दिखेगी लालू की कुर्ता फाड़ होली

इस बार फिर से लालू यादव की कुर्ता फाड़ होली का रंग और धमाल देखने को मिल सकता है. होली के लोक गीतों पर थिरकते लालू और उनके संगी-साथियों का रंग देखने को मिलेगा. पिछले 10 सालों से बिहार की सत्ता से दूर होने के बाद लालू की होली का रंग भी बेरंग हो गया था. साल 2005 में उनके अभी के सियासी साथी और तब के सियासी दुश्मन नीतीश कुमार ने ही उनके 20 साल के शासन के रंग में भंग डाल दिया था. बिहार की सत्ता गंवाने के बाद लालू के आवास पर होली का हुड़दंग बंद हो गया था और वह दिल्ली में ही होली मनाने लगे थे. बिहार की सत्ता पर एक बार फिर रंग जमाने के बाद लालू इस बार फिर से होली का रंग जमाने की तैयारियों में लग गए हैं.

साल 1990 में जब लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तो उसके बाद से 2005 तक हर साल मुख्यमंत्री आवास में कुर्ता फाड़ होली का आयोजन होता था. लालू मंत्रिमंडल के सभी मंत्री और उनके दल के सारे विधायकों, सीनियर नेताओं समेत विरोधी दलों के नेताओं का मजमा एक-अणे मार्ग में लगता था. सारी सियासी दुश्मनी और सरकारी फाइलों के बोझ को भुला कर सभी एक रंग में रंग जाते थे.

होली के दिन मुख्यमंत्री आवास में सारे भेद-भाव और ऊंच-नीच का भाव खत्म हो जाता था और भांग के घूंट के साथ जोगीरा सरारारा…सारारारा… के लोकगीत पर सभी जम कर धमाल मचाते. भांग और रंग का सुरूर चढ़ते ही लोगों में एक दूसरे का कुर्ता फाड़ने की होड़ सी मच जाती थी. लालू कभी ढोल बजाते, तो कभी मंजीरा उठा कर बजाने लगते और लोकगीतों पर सारे नेताओं को ठुमके लगाने के लिए मजबूर कर देते. बिहार की राजनीतिक गलियारों में लालू की बोली और लालू की होली की चरचा हमेशा होती रहती थी.

पिछले विधानसभा चुनाव में लालू और नीतीश के गठजोड़ ने साबित कर दिया है कि उनके पास मजबूत वोट बैंक है. 243 सदस्यों वाले बिहार विधान सभा में 178 सीटों पर महागठबंधन का कब्जा है. इसमें जदयू की झोली में 71, राजद के खाते में 80 और कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें हैं. नीतीश की पार्टी जदयू को 16.8, राजद को 18.4 और कांग्रेस को 6.7 फीसदी वोट मिले, जो कुल 41.9 फीसदी हो जाता है.

इतनी बड़ी सियासी ताकत किसी को भी इतराने के लिए काफी है. लालू भले ही इस बार मिली सियासी जीत के बाद अपने पुराने गवंई और लठ्मार राजनीति के रंग में नहीं लौटे हैं, पर होली का रंग उनपर चढ़ चुका है. होली के बहाने एक बार फिर से लोगों को गवंई और हुड़दंगी लालू का रंग देखने को मिल सकेगा. राजद के एक बड़े नेता बताते हैं कि लालू यादव एक बार फिर होली में अपने असली रंग में लौटेंगे और जम कर होली का मजा लेंगे. लालू की कंर्ता फाड़ होली की इस बार वापसी होने वाली है. ‘होली में बुढ़वा देवर लागे रे’… और ‘झामलाल बुढ़वा पीटे कपार हमरे करम में जोरू नहीं’ जैसे गीतों पर ठुमकने और थिरकने के लिए लालू और उनके समर्थकों की टोली लिए तैयार हैं. जोगीरा….सा…रा..रा…

संदीप पाटिल अब क्यूं नहीं देखेंगे वर्ल्ड कप का कोई मैच

टी-20 विश्वकप के पहले मुकाबले में भारत-न्यूजीलैंड के खिलाफ मैच में टीम इंडिया के मुख्य चयनकर्ता संदीप पाटिल को ऐसी शर्मिंदगी उठानी पड़ी की उन्होंने आगे किसी भी मैच को देखने नहीं जाने का मन बना लिया है. 15 मार्च को नागपुर में खेले गये मैच के दौरान संदीप पाटिल और उनके एक मित्र विक्रम राठौर को कथित रूप से प्रेसीडेंट बॉक्स से बाहर जाने को कहा गया. नागपुर में बीसीसीआई का हेड शशांक शेखर का गृह नगर है और विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन का मुख्य केंद्र भी है.

जानकारी के अनुसार उस वक्त वीवीआईपी बॉक्स में बीसीसीआई के कई आला अधिकारी और वर्ल्ड टी-20 के मुख्य को-ऑर्डिनेटर प्रोफेसर रत्नाकर शेट्टी और सीरीज के डायरेक्टर एमवी श्रीधर भी उस वक्त वहां मौजूद थे जब पाटिल को बॉक्स से बाहर जाने को कहा गया. इस घटना के बाद संदीप पाटिल ने किसी भी मैच को मैदान में जाकर नहीं देखने का मन बना लिया है. इस घटना के बाद पाटिल होटल चले गये और उन्होंने वहां टीवी पर मैच देखा. जबकि उनके मित्र ने मैदान में ही दर्शकों के बीच बैठकर मैच देखा.

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