उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनावों की तैयारी शुरू हो गई है और चूंकि पंचायत चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को काफी सीटें मिली हैं, निगाहें मायावती की ओर लगी हैं. मायावती देश की एकमात्र दलितों की नेता बची हैं और उत्तर प्रदेश में खासी दमदार और खजाने में काफी पैसा रखने के बावजूद वे दलितों के लिए कहीं कुछ करती नजर नहीं आ रही हैं. उन का काम सिर्फ चुनाव जीतना, सीटें बांटना, दलितों पर कुछ होने पर बयान देना और अपने चमचमाते हीरे दिखाना भर रह गया है. काली वरदी वाले सुरक्षा बल से घिरी मायावती दूरदूर तक दलितों की नेता नजर नहीं आतीं.

यह जरूरी नहीं कि गरीबों का नेता गरीब नजर आए, पर अंधभक्तों के नेताओं को तो देखो, वे हर समय तिलक लगाए, भगवा गमछा ओढ़े, कमल का बिल्ला लगाए, हाथ में कलेवे बांधे नजर आते हैं और अंधभक्तों को बारबार एहसास दिलाते हैं कि अंधभक्ति ही उन की संपन्नता का राज है. मायावती से भी यही उम्मीद होनी चाहिए कि वह अछूत दलितों जैसी चाहे न लगें, पर कम से कम एक साधारण औरत तो लगें.

मायावती ने जब से शानशौकत को पाया है, दलितों की समस्याओं से दूर होती जा रही हैं. उन्हें दलितों, अछूतों, अति पिछड़ों, गरीब किसानों, कारीगरों की मुसीबतों से कुछ लेनादेना नहीं रह गया. लखनऊ में उन्होेंने जो महल बनवाए हैं, उन में फटेहाल गरीब क्या अपनी मुसीबतों की झलक देख पाते हैं? इतने भव्य तो अमीरों के, ऊंची जातियों के मंदिर भी नहीं हैं, जितने अंबेडकर के हैं.

दलित देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. उन का काम ही देश को ऊंचाइयों पर ले जा सकता है. 25-30 करोड़ दलित अगर अमेरिकियों और चीनियों की तरह काम करने लगें, तो देश सोने की चिडि़या बन सकता है. उन्हें ऐसा नेता चाहिए, जो उन की सोती हुई कर्मठता को झकझोर सके. जो उन्हें मेहनत पर मजबूर करे. जो उन्हें खुशहाली का रास्ता नई तकनीकों, नई पढ़ाई से बताए. जो पर्स न झुलाए, ठीक उस तरह उकसाए जैसे लाल कृष्ण आडवाणी राम मंदिर के लिए उकसाते थे, नरेंद्र मोदी ने अच्छे दिनों के लिए बहकाया था. इन दोनों ने अपनी जमात को बहला कर 1998 व 2014 के चुनाव जीत लिए, पर दलितों को सिर्फ आरक्षण का लौलीपौप दिया जा रहा है.

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