फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के एक दृश्य में रेडियो जौकी बना नायक संजय दत्त जब सरकारी दफ्तर में खड़े एक बूढ़े को यह सलाह देता है कि अगर अफसर घूस मांगने पर अड़ा ही है तो उस के सामने एकएक कर के सारे कपड़े उतार दो. पीडि़त ऐसा ही करता है, इस से अफसर घबरा जाता है और उस का काम बगैर घूस लिए ही कर देता है. इस पर दर्शक हंसते हैं और तालियां पीटते हैं. दृश्य हास्यास्पद लेकिन व्यावहारिक नहीं था. यह रिश्वतखोरी की समस्या का सटीक हल नहीं था, लेकिन इस में एक संदेश था कि घूसखोरों के आगे हथियार नहीं डालने चाहिए, उन से कैसे निबटा जाए यह निर्देशक नहीं बता पाया.
घूसखोरी की प्रवृत्ति को ले कर देश का मौजूदा माहौल निराशाजनक है. हर कोई इस से त्रस्त है. अब तो सब ने मान लिया है कि यह कभी खत्म नहीं हो सकती, क्योंकि दीमक की तरह यह सारे सिस्टम को करप्ट कर चुकी है. और तो और अब लोग बेहिचक यह तक कहने लगे हैं कि इस में हर्ज ही क्या है, अगर दोचार सौ रुपए दे कर आप का काम बन जाता है तो बेवजह का झगड़ा कर के क्या हासिल होगा, उलटा वक्त आप का ही बरबाद होगा, क्योंकि होना तो कुछ है नहीं.
यह एक नहीं बल्कि अधिकतर लोगों की राय है कि जब सरकारी दफ्तर, सार्वजनिक उपक्रम और तो और प्राइवेट सैक्टर में भी अगर कोई घूस मांगे तो दे कर अपना काम निकलवा लेना चाहिए, ख्वाहमख्वाह हीरो बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए यानी जब देने वालों को एतराज नहीं है बल्कि उन्हें सुकून और सहूलत है तो लेने वाले को क्यों कोसा जाए, जो भ्रष्टाचार और घूसखोरी की बुनियाद है और घूस खाना अपना हक समझते हैं.
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