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आ गया है ‘वीरप्पन’, खून-खराबे से लैस ट्रेलर रिलीज

राम गोपाल वर्मा की आने वाली फिल्म 'वीरप्पन' का ट्रेलर रिलिज हो गया है. यह फिल्म कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन के जीवन पर आधारित है. यह फिल्म हिंदी के अलावा कन्नड़, तेलुगु और तमिल भाषा में भी रिलीज होगी. फिल्म में वीरप्पन का किरदार संदीप भारद्वाज ने निभाया है. फिल्म का निर्देशन रामगोपाल वर्मा ने किया है और प्रोड्यूसर सचिन जोशी हैं .

इस साल की शुरूआत में आई रामगोपाल की कन्नड़ फिल्म 'किलिंग वीरप्पन' को काफ़ी सराहना मिली.अब रामू इस फ़िल्म को बॉलीवुड में बना रहे हैं लेकिन एक बड़े बजट के साथ.

रामू बताते हैं, "मैं जानता हूं मेरी पिछली फ़िल्में फ़्लॉप रही हैं लेकिन इस कहानी में और इस कैरैक्टर में मेरा पूरा भरोसा है. मुझे लगता है कि यह हिट रहेगा."

फिल्म का ट्रेलर सन्नाटे के बीच बिना किसी डायलॉग के खून खराबे से लैस है. इस फ़िल्म में लीसा रे, सचिन जोशी और वीरप्पन की पत्नी के किरदार में उषा जाधव मौजूद हैं. गौर हो कि 2004 में को एसटीएफ ने कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा से लगे जंगल में मुठभेड़ के दौरान चंदन तस्कर वीरप्पन को मार गिराया था. वीरप्पन चन्दन की तस्करी के अलावा हाथी दांत की तस्करी, हाथियों के अवैध शिकार, पुलिस तथा वन्य अधिकारियों की हत्या व अपहरण के कई मामलों का भी अभियुक्त था.

रामू उषा के किरदार के बारे में हंसते हुए कहते हैं, "इस फ़िल्म को बनाते हुए मुझे एक बात समझ में आई है कि आदमी कितना ही खूंखार क्यों न हो जाए, गुस्से में भरी बीवी के आगे वीरप्पन की भी नहीं चलती." यह फिल्म अनुराग कश्यप की फिल्म 'रमन राघव' के साथ ही 27 मई को रिलीज होगी.

तीन साल बाद राजस्थान में होंगे नौ आईपीएल मैच

राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन (आरसीए) ने राज्य सरकार को जयपुर में आईपीएल के लिए प्रस्तावित मैचों के लिए अपनी सहमति दे दी है. उल्लेखनीय है कि राजस्थान में तीन साल के अंतराल के बाद राजधानी जयपुर में आईपीएल के नौ क्रिकेट मैच हो रहे हैं. राजस्थान के खेल मंत्री गजेन्द्र सिंह खींवसर ने यह जानकारी देते हुए बताया कि आरसीए के पदाधिकारियों के साथ मंगलवार को हुई बैठक में इस बात को लेकर सहमति बनी. 

उन्होंने बताया कि इसके तहत राजस्थान क्रिकेट संघ आवश्यकता होने पर मैदान के रखरखाव के लिये कर्मचारियों को उपलब्ध करायेगा. उन्होंने स्पष्ट किया कि मैच स्पोर्ट्स काउंसिल द्वारा ही आयोजित होंगे और आरसीए की इन मैचों में कोई भूमिका नहीं होगी. 

खींवसर ने बताया कि मैच के लिए आयोजन समिति का गठन शीघ्र कर लिया जाएगा तथा मैदान के रखरखाव और पिच आदि की तैयारियां शुरू हो चुकी है. 

खेल मंत्री के साथ यहां हुई बैठक में राजस्थान क्रिकेट संघ के सचिव समरेन्द्र तिवारी सहित अन्य पदाधिकारी भी मौजूद थे. उन्होंने कहा कि बीसीसीआई ने जयपुर में आइपीएल 9 के तीन मैच कराने की जिम्मेदारी राज्य सरकार को सौंपी है और सरकार इस संबंध में पूरी गंभीरता के साथ सभी पक्षों को साथ लेकर मैच के लिये सभी आवश्यक कयावद पूरी करने में जुट गई है.

उन्होंने बताया कि इस संबंध में बीसीसीआई के प्रतिनिधि अमृत माथुर के साथ कल ही राज्य सरकार की बातचीत हो चुकी है. मुम्बई इंडियन्स की फ्रेंचांइजी कंपनी की इवेंट टीम ने भी कल मैदान का जायजा लिया. 

जयपुर का सवाई मानसिंह स्टेडियम अभी राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अधीन है और बीसीसीआई ने आरसीए को निलंबित कर रखा है. 

मुद्रास्फीति और मानसून पर निर्भर होगी ब्याज दर

रिज़र्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि ब्याज दर में आगे और कटौती के लिए केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति आंकड़ों और मॉनसून की भविष्यवाणी पर नजदीकी से निगाह रखे हुए है. उन्होंने कहा कि मौद्रिक नीति अभी भी समन्वय बिठाने वाली उदार राह पर है. रिजर्व बैंक ने इस महीने मुख्य नीतिगत दर को 0.25 प्रतिशत घटाकर 6.5 प्रतिशत किया है.

राजन ने हालांकि आगे के लिए ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि अगली कटौती कब और कितनी होगी. उन्होंने कल कोलंबिया लॉ स्कूल में एक समारोह में कहा, 'हम मुद्रास्फीति पर निगाह रखे हुए हैं और अच्छे मॉनसून के संकेत पर भी नजर रख रहे हैं. जैसे ही कुछ साक्ष्य उभरते हैं उससे हमें यह और अधिक जानकारी मिलेगी कि मौद्रिक नीति की आगे की दिशा कैसी होगी.'

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति मार्च महीने में छह महीने के न्यूनतम स्तर 4.83 प्रतिशत पर रही. फरवरी में यह 5.26 प्रतिशत थी. राजन चाहते हैं कि मार्च 2017 तक मुद्रास्फीति पांच प्रतिशत के भीतर रहे और अच्छे मानसून से बेहतर फसल उत्पादन का रास्ता साफ होगा.

राजन ने ब्याज दर पर मानसून के असर के संबंध में पूछे गए सवाल के जवाब में कहा, 'हम अभी भी उदार मौद्रिक नीति के दौर में हैं लेकिन आगे इसमें कब और कितनी कटौती होगी यह हमें देखना होगा.' दो साल के सूखे के बाद मौसम विभाग ने पिछले सप्ताह भविष्यवाणी की कि पिछले तीन साल में पहली बार औसत से बेहतर मानसून रहेगा.

राजन ने कहा कि मौद्रिक नीति का संयोजन आसानी से नहीं हो सकता. उन्होंने कहा, 'लेकिन हम मौद्रिक नीति के बारे में बात कर रहे हैं. देखना होगा कि कितनी कटौती की जा सकती है और बिना बाकी दुनिया पर बोझ डाले हमारे लिए कितनी कटौती लाभदायक है.' उन्होंने कहा कि ब्याज दर पर फैसला करने के लिए छह सदस्यी मौद्रिक नीति समिति बनेगी. उन्होंने कहा, 'मैं अब भारत में नीतिगत दर तय नहीं करूंगा, समिति तय करेगी.' इसका फायदा यह होगा कि एक के बजाए छह लोग नीतियों पर फैसला करेंगे और समिति में निरंतरता है.

इसका अर्थ है कि यदि आप किसी खास तरह का नतीजा चाहते हैं तो एक आदमी के बजाय समिति पर दबाव डालना ज्यादा मुश्किल होगा. एमपीसी में आरबीआई गवर्नर और सरकार के तीन नामित सदस्य होंगे. यह खुदरा मुद्रास्फीति को पूर्व तय लक्ष्य पर लाने के लिए ब्याज दर तय करेंगे. यह संसद में वित्त विधेयक 2016 पारित होने के बाद लागू होगा. एफडीआई प्रवाह के बारे में राजन ने कहा कि भारत इस साल सर्वाधिक एफडीआई प्राप्त करने की राह में है.

चुनौतियों से भरे दिन

67 साल पार कर चुके भारतीय गणतंत्र के सामने गंभीर चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. ये चुनौतियां देश को शर्मसार करने वाली हैं. देश में माली सुधारों के 25 साल बाद भी अमीरगरीब के बीच का फर्क बड़ी तेजी से बढ़ा है. सवा सौ करोड़ देशवासियों की दौलत गिनेचुने लोगों की तिजोरी में कैद हो कर रह गई है. अभी हाल ही में दुनिया की 3 बड़ी एजेंसियों औक्सफैम, वर्ल्ड वैल्थ व क्रेडिट सुइस की रिसर्च रिपोर्टों के नतीजे आंखें खोलने और चौंकाने वाले हैं. हमारे देश की कुल जमापूंजी का 53 फीसदी हिस्सा महज एक फीसदी परिवारों में सिमट कर रह गया है. इतना ही नहीं, देश की कुल जमापूंजी का 76.3 फीसदी हिस्सा देश के 10 फीसदी अमीर परिवारों की बपौती बन चुका है.

एक सुनियोजित तरीके से अमीर बड़ी तेजी से अमीर बनते चले गए और गरीब लगातार गरीब बनते चले गए हैं. आज देश में 36 करोड़ से ज्यादा लोग महज 50 रुपए रोज पर गुजारा करने के लिए मजबूर हैं. दुनिया के कम से कम साढ़े 20 फीसदी गरीब लोग हमारे देश के हैं. आजादी हासिल करने के बाद सत्ता तंत्र का प्रमुख नारा ‘गरीबी हटाओ’ था, पर यह नारा आज भी महज ‘नारा’ ही बना हुआ है. देश में पिछले 10 साल में स्लम यानी झुग्गीझोंपडि़यों की तादाद में 34 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया है. देश में तकरीबन 1 करोड़, 80 लाख झुग्गीझोंपडि़यां हैं, जिन में रहने वाले लोग बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश के कुल 24.39 करोड़ परिवारों में से 73 फीसदी यानी 17.91 करोड़ परिवार गांवों में रहते हैं. चौंकाने वाली बात यह है कि इन परिवारों में 49 फीसदी यानी 8 करोड़, 69 लाख परिवार बेहद गरीब हैं. इन गरीब परिवारों में से 44.84 लाख परिवार तो दूसरे के घरों में गुजारा करने को मजबूर हैं. 4 लाख परिवार कचरा बीन कर अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं, वहीं साढ़े 4 लाख परिवार बेघर हैं और गंदे नालों, रेलवे लाइन, सड़क, फुटपाथों, पुलों वगैरह के नीचे रहने को मजबूर हैं.

जिन लोगों के सिर पर छत है, उन में से भी 5.35 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिन के मकानों की हालत बहुत बुरी है. साथ ही, 53 फीसदी मकानों में शौचालय ही नहीं हैं. इंटरनैशनल फूड पौलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, दुनियाभर में अनाज वगैरह उगाने के मामले में दूसरे नंबर पर रहने के बावजूद भारत में तकरीबन 20 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं. एक तरफ देश में लाखों टन अनाज सड़ जाता है, वहीं दूसरी तरफ भूख व कुपोषण के चलते एक बड़ी आबादी भरपेट रोटी के लिए तरसती रहती है. ‘सेव द चिल्ड्रन’ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में रोजाना 5 हजार से ज्यादा बच्चे कुपोषण के चलते दम तोड़ देते हैं. देश में हर साल 25 लाख से ज्यादा बच्चों की अकाल मौत होती है. ग्लोबल टैलेंट कंपीटीटिव इंडैक्स के मुताबिक, देश में कुशल कामगारों की कमी हो गई है. इस मामले में दुनिया के लैवल पर भारत 11वें पायदान से फिसल कर 89वें पायदान पर पहुंच गया है. बेरोजगारी और बेकारी के चलते नौजवान अपराध के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं.

बेहद शर्मसार करने वाली बात यह है कि देश के पोस्ट ग्रेजुएट लोग भी भीख मांगने के लिए मजबूर हैं. साल 2011 की जनगणना के आधार पर जारी ‘नौनवर्कर्स बाय मेन ऐक्टिविटी ऐंड एजुकेशन’ के आंकड़ों के मुताबिक, देश में 410 भिखारी ऐसे हैं, जिन के पास पोस्ट ग्रेजुएशन या उस के बराबर की तकनीकी डिगरी है. इन में 137 औरतें और 273 मर्द हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 3.72 लाख भिखारियों में से तकरीबन 3 हजार भिखारी ग्रेजुएट व टैक्निकल या प्रोफैशनल डिप्लोमाधारी हैं. क्या सुपर पावर के रूप में तेजी से उभर रहे देश के लिए यह गहरा कलंक नहीं है?

देश का ‘अन्नदाता’ किसान कर्ज के चक्रव्यूह में फंस कर मौत को गले लगाने को मजबूर है. नैशनल क्राइम रिकौर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में रोजाना 46 किसान खुदकुशी करते हैं. देश का हर दूसरा किसान कर्ज के बोझ के नीचे दबा हुआ है. देश के 9 करोड़ किसान परिवारों में से 52 फीसदी किसान कर्ज के नीचे सिसक रहे हैं और हर किसान पर औसतन 47 हजार रुपए का कर्ज है. एक आंकड़े के मुताबिक, साल 2001 में किसानों की तादाद 12 करोड़, 73 लाख थी, जो साल 2011 में घट कर 11 करोड़, 87 लाख रह गई.

चौंकाने वाली बात यह है कि साल 1990 से साल 2000 के बीच खेती की 20 लाख हैक्टेयर जमीन में भी कमी दर्ज हो चुकी है. यह आंकड़ा कितना खतरनाक साबित होने वाला है, इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर 1000 हैक्टेयर खेती की जमीन कम होती है, तो कम से कम सौ किसानों और 760 किसान मजदूरों की रोजीरोटी छिन जाती है यानी वे बेरोजगार हो जाते हैं. देश में औरतों के प्रति बढ़ते अपराध भी बेहद चिंता की बात है. नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक, देश में रोजाना 92 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं. देश में हर 29वें मिनट में एक औरत की इज्जत को लूटा जा रहा है. हर 77 मिनट में एक लड़की दहेज की आग में झोंकी जा रही है. हर 9वें मिनट में एक औरत अपने पति या रिश्तेदार की ज्यादती का शिकार हो रही है. हर 24वें मिनट में किसी न किसी वजह से एक औरत खुदकुशी करने को मजबूर हो रही है.

औरतों के मामले में स्वास्थ्य सेवाएं और भी बदतर हैं. एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल एक लाख औरतें खून की कमी यानी एनीमिया की वजह से मर जाती हैं, जबकि 83 फीसदी औरतें खून की कमी से जूझ रही हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि ये सभी आंकड़े हमारे देश पर बदनुमा दाग हैं. जब इन दागों से हमारा देश मुक्त हो जाएगा, तभी हकीकत में अच्छे दिन आएंगे.

कैसे थमें बलात्कार: 11 साल बाद 10 साल की सजा

‘मैं एक घर से काम करके लौट रही थी. पराग चैराहे से थोडा आगे मंदिर के आगे पहुंची तो सामने से कार में सवार 4 लडके आये. उन लोगों ने मेरा मुंह बंद करके मुझे जबरदस्ती कार में चढा लिया. मुझे गाडी की पिछली सीट की गद्दी के नीचे लिटा दिया. मैने शोर मचाया तो उन लोगों ने जोर से बाजा बजा दिया. उनमें से एक गाडी चलाने लगा और 2 लडको ने मेरे साथ जोर जबरदस्ती करनी शुरू कर दी. मुझे धमकी देकर कहा कि रोओगी तो गोली मार देगे. मैने जब उन से कहा कि भैया मुझे छोड दो तो उन लोगों ने मुझे और मारा. मेरे पैर में लाइटर से जलाया और बट से कमर पर मारा. उनमें से 3 लडको ने मेरे साथ उस समय गलत काम किया.’ 2 मई 2005 को उत्तर प्रदेश की राजधनी लखनऊ में घटी इस घटना को आशियाना बलात्कार कांड के नाम से जाना जाता है. इस लडकी को शाम के 6 बजे अगवा किया गया था और रात के 11 बजे हाथ में 20 रूपया देकर घायल अवस्था में सडक पर छोड कर युवक भाग गये.

लडकी गरीब परिवार की थी. घरों में मेहनत मजदूरी करके काम चलाती थी. उसके पिता रिक्शा चलाकर अपना परिवार चलाते थे. लडकी किसी तरह उस रात पहले घर फिर पिता के साथ थाने पहुंची, पुलिस ने मुकदमा लिखा. 6 आरोपियों को पुलिस ने पकडा, जिनमें से 4 खुद को नाबालिग बताने लगे. मुख्य आरोपी गौरव शुक्ला लखनऊ के एक बाहुबलि नेता का भतीजा था. बहुत सारी अदालतीय लडाई के बाद अदालत में यह साबित हो गया कि गौरव शुक्ला बालिग था. 5 सितम्बर 2005 को बालिग आरोपी अमन बक्शी और भारतेन्दु मिश्रा को सेशन कोर्ट ने 10 साल की सजा और 10-10 हजार रूपये जुर्माना की सजा दी. इस कांड में शामिल दो आरापियों आसिफ सिद्दकी और सौरभ जैन जमानत पर छूट कर बाहर आये. एक दुर्घटना में दोनो की मौत हो गई. एक आरोपी फैजान को अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई. गौरव शुक्ला ने पूरे मामले को भटकाने के जितने प्रयास कर सकता था किया. अदालत ने उसे 10 साल की सजा और 20 हजार रूपये का जुर्माना सुनाया. फास्ट ट्रैक अदालत के बाद यह मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जायेगा. न्याय का मूल सिद्वान्त है कि न्याय होना ही नहीं चाहिये न्याय होते दिखना भी चाहिये. 

अदालत में पेशी पर जब भी गौरव शुक्ला आता था हमेशा सफेद लकदक कपडों में ही रहता था. उसको जेल में हर सुविध मिले इसके लिये पूरे गठजोड होते रहे. सजा सुनाये जाने के बाद भी उसे विशेष सुविध हासिल थी. यह राजनीतिक और नौकरशाही के गठजोड के बिना संभव नहीं हो सकती. प्रदेश की राजनीति और नौकरशाही को मुंह चिढाने वाली यह घटना बताती है कि पीडित लडकी और उसके परिवार के साथ मीडिया, अदालत और महिला संगठनों का जोर नहीं होता, तो यह मामला कब का दबा दिया जाता. कई बार पीडित परिवार को केस वापस लेने के लिये लालच और धमकी दी गई. इससे पता चलता है कि हमारे देश में समाज बलात्कार के मामले में आज भी पीडित के बजाय दोषी के साथ खडा होता है. क्या इन परिवारों का समाज ने कोई बायकाट किया ?

राजभवन और सरकार के बीच आजम खां

मोहम्मद आजम खां का गुस्सा उत्तर प्रदेश की सरकार पर शुरू से ही भारी पडता रहा है. जिस तरह से प्रदेश के मुख्यमंत्री उनका गुस्सा कम करने के लिये उनको मनाने जाते थे, उस पर विरोधी दल कटाक्ष करते आरोप लगाते थे कि प्रदेश में एक नहीं कई मुख्यमंत्री हैं. आजम खां को इन आरोपों की कभी परवाह नहीं रही वह अपने हिसाब से चलते रहते है. मिश्री की तरह मीठा बोलने वाले आजम खां आर उत्तर प्रदेश के राजभवन के बीच भी संबंध मधुर नहीं रहे. आजम खां की नाराजगी है कि राजभवन रामपुर में उनके विश्वविद्यालय के कामकाज को लेकर अडंगा लगाता है. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक को लेकर आजम खां ने विधान सभा में सदन के दौरान मिश्री की तरह मीठा बोल दिया. जिसे सदन में ठीक नहीं माना गया.

आजम ने जो कुछ कहा उसके कुछ हिस्से सदन की लिखापढत से हटा दिये गये. यह बात जब राजभवन को पता चली तो विधानसभा में कही गई बातों का रिकार्ड तलब किया गया. रिकार्ड देखने पर राजभवन को लगा कि कुछ गलत तो बोला गया है जो संसदीय मंत्री आजम खां को नहीं बोलना चाहिये था. राजभवन ने इस बारे में विधानसभा के स्पीकर माता प्रसाद पांडेय सहित सरकार को लिखा और जबाव देने को कहा. उस समय आजम खां, विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और संसदीय मंत्री आजम खां देश से बाहर गये थे. अब सभी देश वापस आ चुके है. उम्मीद यह की जा रही थी कि सरकार की ओर से राज्यपाल से मिलकर मामले में साफ सफाई का दौर चलेगा.

विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय राजभवन गये, पर राज्यपाल से क्या बात हुई यह नहीं बताया. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस मसले पर राज्यपाल से मिलने वाले थे पर उनका मिलना टलता जा रहा है. राजभवन ने जिस तरह से आजम खां की टिप्पणियों को गलत मानते हुये उनको मंत्री पद से हटाने का संदेश दिया है उसे पूरा कर पाना मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी हाईकमान के लिये सरल नहीं है. बीच का यह रास्ता तय हुआ कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राज्यपाल से मिलकर उनकी नाराजगी कम करेगे. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के तमाम नेता राजभवन पर हमला करने और आजम खां के बचाव में उतर आई है. कई समाजवादी नेता तो आरोप लगाने लगे है कि राजभवन संघ के एजेंडें को लागू करने की कोशिश में है. आजम खां राजभवन विवाद को वोट बैंक की नजर से भी देखा जा रहा है. ऐसे में हर कदम सोच समझ कर उठाना पडता है.

अपनी पहचान तलाशते राबर्ट वाड्रा

दिक्कत तो यह है कि उन्हें सोनिया गांधी का दामाद या फिर प्रियंका गांधी का पति ही कहा जाता है, इससे कम या ज्यादा कोई पहचान अगर राबर्ट वाड्रा की है तो वह चर्चित और संदिग्ध डीएलएफ जमीन सौदे की है. बीते दिनों वे दिल्ली के गोल्फ क्लब में पत्रकारों से जो कुछ बोले उसे कांग्रेस का बुद्धिजीवी वर्ग पहले से बोलते खासा बवंडर मचा चुका है, मसलन कोई भी देश विरोधी होने के लिए नहीं कहता लेकिन सबका अपना सोचने का नजरिया है, हम किसी पर अपने विचार थोप नहीं सकते. थोड़ा और कुरेदने पर राबर्ट का कहना था कि वे परेशान होकर देश छोडऩे वाले नहीं हैं और जब इच्छा होगी तब राजनीति में आ जाएंगे.

यहां तक बात सधी हुई थी लेकिन जल्द ही राबर्ट वाड्रा पत्रकारों के सामने लडख़ड़ा गए और फिर जो बोले वह जरूर काबिल गौर और उनके दिल का दर्द बयां करता हुआ था बकौल राबर्ट उनके माता-पिता ने उन्हें बहुत सी सम्पत्ति दी हुई है इसलिए उन्हें आगे बढऩे या जीवन सुधारने के लिए प्रियंका की मदद की जरूरत नहीं है.

राजनीति का यह वह दौर है जिसमें प्रियंका गांधी के सक्रिय होने की संभावनाएं और जरूरतें दोनों बढ़ते जा रहे हैं. ऐसे में उनके पति राबर्ट वाड्रा की यह खीझ इस बात की पुष्टि ही करती नजर आती है.

लब्बोलुवाव यह कि कल तक जिस घराने का दामाद होने पर राबर्ट को फख्र होता था अब उस पर वे कुंठित होने लगे हैं और पैसे व जायदाद की बातें करते यह भी जता रहे हैं कि वे कोई घरजमाई नहीं है जो पत्नी या ससुराल वालों के पैसों पर गुजर बसर करता है इसीलिए अपने परिवार की गुणात्मक सम्पन्नता उन्होंने बताई. अभी तक परिवार और पत्नी प्रियंका के बारे में धैर्यपूर्वक बोलते रहने वाले राबर्ट वाड्रा की परेशानी वाकई यह है कि उनकी अपनी अलग पहचान नहीं है और यह स्वाभाविक बात भी है.

ऐसा ही कभी इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी के साथ हुआ था, नतीजतन दाम्पत्य में खटास और दरार आई लेकिन इंदिरा को जो चाहिए था वह उन्होंने हासिल करके छोड़ा. गलत नहीं कहा जाता कि इतिहास अपने आप को दोहराता है इंदिरा और फिरोज के बीच खाई खोदने का जिम्मेदार जवाहरलाल नेहरू को माना जाता है पर अब राबर्ट प्रियंका के बीच कौन आ रहा है जो राबर्ट इस हद तक भड़भड़ा रहे है इसे कोई समझ नहीं पा रहा कि वह परेशान क्यों है.

कोई भी स्वाभिमानी पति नहीं चाहता कि वह पत्नि या ससुराल वालों के नाम से जाना पहचाना जाये लेकिन राबर्ट कैसे अपनी अलग पहचान बनाएँ इसका जवाब यह हल शायद ही किसी के पास हो. वैसे भी यह एक गैर जरूरी बात है लेकिन एक पति की पीड़ा भी है.

पिछले चुनाव प्रचार के वक्त नरेन्द्र मोदी ने कई सार्वजनिक सभाओं में दामाद जी और उनकी जमीनों पर खूब चुटकियां ली थी और उन्हें जेल भेजने की बात भी कही थी. कुर्सी सम्हालने के कुछ दिनों बाद ही राबर्ट वाड्रा पर मोदी ने शिकंजा कसना शुरू किया और फिर ढील दे दी यह सिलसिला अभी तक चल रहा है जिससे संभव है कि राबर्ट वाड्रा डरे और घबराये हुये हों उनकी इस हालत की दूसरी वजह कांग्रेस का लगातार कमजोर होते जाना भी है.

प्रियंका के लिहाज से चिंता की बात यह है कि पहली दफा राबर्ट वाड्रा ने सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ कहा है जो उनके स्वभाव और इन दोनों की आपसी समझ से मेल खाता हुआ नहीं है अभी तक खुद प्रियंका भी बहुत सोच समझकर पति व ससुराल वालों के बारे में बोलती रही हैं क्योंकि उन्हें  मालूम है कि राजनीति हमेशा से ही बहुत बेरहम रही है. संभव है यह इनके दाम्पत्य के दरकने का संकेत हो और अगर बात गुस्से में कही गयी थी तो इसके जिम्मेदार तो खुद राबर्ट वाड्रा ही होते हैं.

जलन

पिछले कुछ दिनों से सरपंच का बिगड़ैल बेटा सुरेंद्र रमा के पीछे पड़ा हुआ था. जब वह खेत पर जाती, तब मुंडे़र पर बैठ कर उसे देखता रहता था. रमा को यह अच्छा लगता था और वह जानबूझ कर अपने कपड़े इस तरह ढीले छोड़ देती थी, जिस से उस के उभार दिखने लगते थे. लेकिन गांव और समाज की लाज के चलते वह उसे अनदेखा करती थी. सुरेंद्र को दीवाना करने के लिए इतना ही काफी था.  रातभर रमेश के साथ कमरे में रह कर रमा की बहू सुषमा जब बाहर निकलती, तब अपनी सास रमा को ऐसी निगाह से देखती थी, जैसे वह एक तरसती हुई औरत है.

रमा विधवा थी. उस की उम्र 40-42 साल की थी. उस का बदन सुडौल था. कभीकभी उस के दिल में भी एक कसक सी उठती थी कि किसी मर्द की मजबूत बांहें उसे जकड़ लें, जिस से उस के बदन का अंगअंग चटक जाए, इसी वजह से वह अपनी बहू सुषमा से जलती भी थी. शाम का समय था. हलकी फुहार शुरू हो गई थी. रमा सोच रही थी कि जमींदार के खेत की बोआई पूरी कर के ही वह घर जाए. उसे सुरेंद्र का इंतजार तो था ही. सुरेंद्र भी ऐसे ही मौके के इंतजार में था. उस ने पीछे से आ कर रमा को जकड़ लिया. रमा कसमसाई और उस ने चिल्लाने की भी कोशिश की, लेकिन फिर उस का बदन, जो लंबे समय से इस जकड़न का इंतजार कर रहा था, निढाल हो गया. सुरेंद्र जब उस से अलग हुआ, तब रमा को लोकलाज की चिंता हुई. उस ने जैसेतैसे अपने को समेटा और जोरजोर से रोते हुए सरपंच के घर पहुंच गई और आपबीती सुनाने लगी. लेकिन सुरेंद्र की दबंगई के आगे कोई मुंह नहीं खोल रहा था.

इधर बेटा रमेश और बहू सुषमा भी सरपंच के यहां पहुंच गए. रमा रो रही थी, लेकिन सुषमा से आंखें मिलाते ही एक कुटिल मुसकान उस के चेहरे पर फैल गई. गांव में चौपाल बैठ गई थी. सरपंच और 3 पंच इकट्ठा हो गए थे. एक तरफ रमा खड़ी थी, तो दूसरी तरफ सुरेंद्र था. गांव के और भी लोग वहां मौजूद थे.

रामू ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘जो हुआ सो हुआ. अब रमा  जो बोलेगी वही सब को मंजूर होगा.’’

तभी दीपू ने कहा, ‘‘हां, रमा बोल, कितना पैसा लेगी? बात को यहीं खत्म कर देते हैं.’’ पैसे की बात सुनते ही बहू सुषमा खुश हो गई कि सास 2-4 लाख रुपए मांग ले, तो घर की गरीबी दूर हो जाए. लेकिन रमा बिना कुछ बोले रोते ही जा रही थी.

जब सब ने जोर दिया, तब रमा ने कहा, ‘‘मेरी समझ में सरपंचजी सुरेंद्र का जल्दी से ब्याह रचा दें, जिस से यह इधरउधर मुंह मारना बंद कर दे.’’ रमा की बात पर सहमत तो सभी थे, पर सुरेंद्र की हरकतों और बदनामी को देखते हुए भला कौन इसे अपनी बेटी देगा. इस बात पर सरपंच भी चुप हो गए. सुरेंद्र भी अब 45 साल के आसपास हो चला था, इसलिए चाहता था कि घरवाली मिल जाए, तो जिंदगी सुकून से कट जाए.

रामू ने कहा, ‘‘रमा, तुम्हारी बात सही है, लेकिन इसे कौन देगा अपनी बेटी?’’

कांटा फंसता जा रहा था और चौपाल किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रही थी. इस का सीधा मतलब होता कि सुरेंद्र को या तो गांव से निकाले जाने की सजा होती या उस के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होती. मामले की गंभीरता को देखते हुए अब सुरेंद्र ने ही कहा, ‘‘मैं यह मानता हूं कि मुझ से गलती हुई है और मैं शर्मिंदा भी हूं. अगर रमा चाहे, तो मैं इस से ब्याह रचाने को तैयार हूं.’’ रमा को तो मनमानी मुराद मिल गई थी, लेकिन तभी बहू सुषमा ने कहा, ‘‘सरपंचजी, यह कैसे हो सकता है? आप के बेटे की सजा मेरी सासू मां क्यों भुगतें? आप तो बस पैसा लेदे कर मामले को सुलझाएं.’’

तब दीपू ने कहा, ‘‘हम रमा की बात सुन कर ही अपनी बात कहेंगे.’’

रमा ने कहा, ‘‘गांव की बात गांव में ही रहे, इसलिए मैं दिल से तो नहीं लेकिन गांव की खातिर सुरेंद्र का हाथ थामने को तैयार हूं.’’ सरपंच और चौपाल ने चैन की सांस ली. बहू सुषमा अपना सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई. वहीं बेटा रमेश खुश था, क्योंकि उस की मां को सहारा मिल गया था. अब मां का अकेलापन दूर हो जाएगा. थोड़े दिनों के बाद ही उन दोनों की चुपचाप शादी करा दी गई. पहली रात रमा सुरेंद्र के सीने से लगते हुए कह रही थी, ‘‘विधवा होते ही औरत को अधूरी बना दिया जाता है. वह घुटघुट कर जीने को मजबूर होती है. अरे, अरमान तो उस के भी होते हैं.

‘‘और फिर मेरी बहू सुषमा की निगाहों ने हमेशा मेरी बेइज्जती की है. उस के लिए मेरी जलन ने ही हम दोनों को एक करने का काम किया है.’’ खुशी में सराबोर सुरेंद्र की मजबूत होती पकड़ रमा को जीने का संबल दे रही थी. जो खेत में हुआ वही अब हुआ, पर अब दोनों को चिंता नहीं थी, क्योंकि रमा सुरेंद्र की ब्याहता जो थी

संस्कृति के नाम पर तमाशा

इस देश में गरीबी इसलिए नहीं हैं कि यहां के लोग आलसी हैं या यहां का मौसम खराब है. यहां गरीबी, भुखमरी या बीमारी इसलिए है कि यहां के राजा सदा जनता को बहकाते बहलाते रहे हैं और उस से मोटी रकम वसूल कर उसे भूखानंगा रखते रहे हैं. तानाशाही से आजादी के बाद उम्मीद जगी थी कि इस देश में बदलाव देखने को मिलेगा, पर 1947 के बाद से ही शासकों की ऐसी झड़ी लगी है, जिस ने लूट को पहले की तरह जारी रखा. हां, तकनीक की वजह से पैदावार ज्यादा हो रही है, पर लूट की मात्रा बढ़ गई है. जो चमकधमक दिख रही है, वह तकनीक का कमाल है. शासक तो पहले की तरह या तो मौजमस्ती में डूबे रहते हैं या पूजापाठ में. यमुना के किनारे, दिल्ली के बीच रविशंकर के तमाशे ने फिर जता दिया है कि इस देश की सरकारों को झूठे बहलाने वाले यज्ञहवनों की फिक्र ही ज्यादा है. कहीं कुंभ हो रहा है. कहीं मंदिरों के लिए एकड़ों जमीनें दी जा रही हैं, तो कहीं सेना को देश की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि पूजापाठ की सुरक्षा के लिए लगाया जा रहा है.

इस से गरीबभूखे बीमारों को क्या मिलेगा? आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने विशाल यज्ञ किया तो केंद्र सरकार क्यों पीछे रहती. उस ने अपनी ‘दुश्मन’ दिल्ली सरकार के साथ मिल कर दिल्ली में हवनों की झड़ी लगा दी और मनोरंजन का चसका देने के लिए रंगबिरंगे नाच पेश कर दिए. पहले के राजा भी घरघर से सालाना जलसे के लिए पैसे वसूल करते थे. सब को राजा के दरबार में झुकने के लिए मजबूर करते थे. इस बार भी सारे मंत्री कामकाज छोड़ कर यमुना तट पर चरण छूने पहुंच गए–राजा के गुरु के. करोड़ों रुपया, पुलिस का तामझाम, नदी का बहाव रोकने वाले पुल वगैरह जो बने ओलिंपिक खेलों से भी गएबीते हैं, जहां आदमी की ताकत की आजमाइश होती है. विकास का नारा लगाने वाली सरकारें 2000 साल तक गुलामी में झोंकने वाली सोच के जिम्मेदार पुराणों, ग्रंथों, पाखंडों, हवनों से किसे बहला रही हैं? इन प्रपंचों से कपड़े नहीं बनेंगे, मकान नहीं बनेंगे, काम नहीं मिलेगा, पढ़ाई पूरी नहीं होगी, बीमारियां दूर नहीं होंगी. यह तमाशा और इस तरह के देशभर में तमाशे कहीं न कहीं होते रहते हैं. यह सब केवल दिमागी बीमारी पैदा करने वाला है और अफसोस है कि यह सरकारों के खुले समर्थन पर हुआ.

शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है ‘निल बटे सन्नाटा’

सिनेमा समाज का दर्पण होता है. यही वजह है कि इन दिनों शिक्षा जगत व शिक्षा की खामियों को उजागर करने वाली फिल्में बन रही है. कुछ माह पहले जयंत गिलाटकर शिक्षा जगत पर व्यंग प्रधान फिल्म ‘‘चाक एन डस्टर’’ लेकर आए थे. अब अश्विनी अय्यर तिवारी शिक्षा जगत पर व्यंग कसने के अलावा दर्शकों को इंस्पायर करने वाली फिल्म ‘‘निल बटे सन्नाटा’’ लेकर आ रही हैं. 22 अप्रैल को रिलीज होने वाली फिल्म ‘‘निल बटे सन्नाटा’’ में लोगों के घरों में काम करने वाली बाई चंदा (स्वरा भास्कर) और उनकी बेटी की कहानी है. जो कि एक मोड़ पर एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती हैं. इस स्कूल के प्रिंसिंपल और गणित के शिक्षक (पंकज त्रिपाठी) अपने हर विद्यार्थी को लंबी रेस का घोड़ा बनाना चाहते हैं. वह बिना ट्यूशसन लिए बच्चों को पढ़ाते हें. पर क्या वास्तव में आज की शिक्षा पद्धति सही है?

फिल्म ‘‘निल बटे सन्नाटा’’ में प्रिंसिपल का किरदार निभाने वाले अभिनेता पंकज त्रिपाठी वर्तमान समय में शिक्षा की जो स्थिति या जो समस्याएं हैं, उनको लेकर अपनी निजी समझ या सोच के बारे में बताते हुए कहते हैं-‘‘देखिए,मैं फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’की बात नहीं कर रहा हूं. निजी जीवन में शिक्षा को लेकर मेरी दो समझ है. मेरी पहली समझ यह कहती है कि हमारी सरकार नहीं चाहती कि सभी लोग अच्छी शिक्षा ग्रहण करें. यदि सभी लोग अच्छी तरह से पढ़ लिख गए, तो सभी राजनैतिक पार्टियों और नेताओं का बुरा हाल हो जाएगा. इसीलिए सभी सरकारें शिक्षा का ढोंग चलाती हैं.

सरकारें चाहती हैं कि शिक्षा का बजट 500 से 1000 करोड़ हो जाए, नए स्कूल बने. आंगनबाड़ी हो. पर वास्तविक पढ़ाई ना हो. यदि इंसान वास्तव में सही शिक्षा पा गया,तो उसे पास सही और गलत की परख हो जाएगी. फिर वह जाति धर्म आदि के चक्कर में नहीं फंसेगा. तब राजनीतिज्ञ पार्टियों की शामत आ जाएगी. कोई भी नेता अपनी शामत नहीं बुलाना चाहता. दूसरी समझ यह है कि जो वास्तव में पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए निजी स्कूल खुल गए हैं. जहां शिक्षा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है. ऐसे निजी स्कूलों में पढ़ाई हो रही है. मगर फायदा किसी एक बड़ी कंपनी या इंसान को हो रहा है. यह निजी स्कूल या कालेज भी हमारे देश के नेताओं के हैं.’’

शिक्षा को लेकर पंकज त्रिपाठी की जो निजी सोच हैं, वह फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ में कहीं पूरी करेगी. वह कहते हैं- ‘‘जरूर करेगी. सच कहूं तो मुझे नहीं पता कि सिनेमा कितना प्रभाव डालता है. पर लोग इस फिल्म से इंस्पायर होंगे. मेरी राय में यह फिल्म लोगों में जागरूकता लाएगी. मेरी राय में सिनेमा की जिम्मेदारी है कि वह मनोरंजन देने के साथ साथ लोगों को जागरूक करे. इसलिए समाज में जो कुछ हो रहा हो, उसको लेकर फिल्म के अंदर टीखा व्यंग्य जरूर किया जाना चाहिए.एक कलाकार होने के नाते मैं चाहता हूं कि दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ वह कुछ सीखे.

‘निल बटे सन्नाटा’ देखकर दर्शकों को अहसास होगा कि आज भी सरकारी स्कूल में कुछ शिक्षक ऐसे हैं, जो कि लोगों को शिक्षा देने में अहम भूमिका निभाते हैं. हमारी फिल्म का शिक्षक अपने विद्यार्थियों से कहता है कि ,‘यदि समझ में नहीं आ रहा है, तो मैं दोबारा समझाउंगा.’ यह शिक्षक अपने हर बच्चे को लंबी रेस का घोड़ा बनाना चाहता है. तो यह संदेश सशक्त तरीके से फिल्म के अंत में आता है. फिल्म में मां यानी कि चंदा का किरदार निभा रही स्वरा भास्कर कहती हैं-‘‘कोई भी इंसान चाहे जितने निचले स्तर का हो, यदि वह कुछ अच्छा करना चाहे,तो उसे दो चार लोग मदद करने के लिए जरुर मिल जाएंगे. कुछ लोग उसके सपनों को पंख लगाने में मददगार साबित होंगे. इस फिल्म में मेरा किरदार मां व बेटी के सपनों में पंख लगाने का काम करता है.’’

पर वर्तमान समय में शिक्षा जगत में बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए निःस्वार्थ भाव से पंख लगाने वाले शिक्षकों की संख्या ‘न’ के बराबर है? इस सवाल के जवाब में पंकज त्रिपाठी ने कहा-‘‘न के बराबर नही होंगी. क्योंकि हमारे पास उन्ही शिक्षकों की खबरे आती हैं, जो कि व्यवसायी हो गए हैं. जो निःस्वार्थ भाव से शिक्षा के प्रचार प्रसार में लगे हुए हैं, उनकी खबरें नहीं आती हैं. मगर यदि दुनिया चल रही है. एक संतुलन बना हुआ है, तो इसके मायने यह है कि कुछ अच्छे लोग अभी हैं. मैं या आप अच्छी बातें कर रहे हैं, तो इसके मायने यह हुए कि हमारा और आपका शिक्षक अच्छा ही रहा होगा.’’

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