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ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे

‘‘उम्र उम्र की बात होती है. जवानी में जो अच्छा लगता है बुढ़ापे में अकसर अच्छा नहीं लगता. इसी को तो कहते हैं जेनरेशन गैप यानी पीढ़ी का अंतर. जब मांबाप बच्चे थे तब वे अपने मांबाप को दकियानूसी कहते थे. अब जब खुद मांबाप बन गए हैं तो दकियानूसी नहीं हैं. अब बच्चे उद्दंड और मुंहजोर हैं. मतलब चित भी मांबाप की और पट भी उन्हीं की. किस्सा यहां समाप्त होता है कि मांबाप सदा ही ठीक थे, वे चाहे आप हों चाहे हम.’’

राघव चाचा मुसकराते हुए कह रहे थे और मम्मीपापा कभी मेरा और कभी चाचा का मुंह देख रहे थे. राघव चाचा शुरू से मस्तमलंग किस्म के इनसान रहे हैं. मैं अकसर सोचा करता था और आज भी सोचता हूं, क्या चाचा का कभी किसी से झगड़ा नहीं होता? चिरपरिचित मुसकान चेहरे पर और नजर ऐसी मानो आरपार सब पढ़ ले.

‘‘इनसान इस संसार को और अपने रिश्तों को सदा अपने ही फीते से नापता है और यहीं पर वह भूल कर जाता है कि उस का फीता जरूरत के अनुसार छोटाबड़ा होता रहता है. अपनी बच्ची का रिश्ता हो रहा हो तो दहेज संबंधी सभी कानून उसे याद होंगे और अपनी बच्ची संसार की सब से सुंदर लड़की भी होगी क्योंकि वह आप की बच्ची है न.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, राघव,’’ पिताजी बोले, ‘‘साफसाफ बात करो न.’’

‘‘साफसाफ ही तो कर रहा हूं. सोमू के रिश्ते के लिए कुछ दिन पहले एक पतिपत्नी आप के घर आए थे…’’

पिताजी ने राघव चाचा की बात बीच में काटते हुए कहा था, ‘‘आजकल सोमू के रिश्ते को ले कर कोई न कोई घर आता ही रहता है. खासकर तब से जब से मैं ने अखबार में विज्ञापन दिया है.’’

‘‘मैं अखबार की बात नहीं कर रहा हूं,’’ राघव चाचा बोले, ‘‘अखबार के जरिए जो रिश्ते आते हैं वे हमारी जानपहचान के नहीं होते. आप ने उन से क्या कहा क्या नहीं, बात बनी, नहीं बनी, किसे पता. दूर से कोई आया, आप से मिला, आप की सुनी, उसे जंची, नहीं जंची, वह चला गया, किसे पता किसे कौन नहीं जंचा. किस ने क्या कहा, किस ने क्या सुना…’’

चाचा के शब्दों पर मैं तनिक चौंक गया. मैं पापा के साथ ही उन के कामकाज मेें हाथ बटाता हूं. आजकल बड़े जोरशोर से मेरे लिए लड़की ढूंढ़ी जा रही है. घर में भी और दफ्तर में भी. कौन किस नजर से आता है, देखतासुनता है वास्तव में मुझे भी पता नहीं होता.

‘‘याद है न जब मानसी के लिए लड़का ढूंढ़ा जा रहा था तब आप की गरदन कैसी झुकी होती थी. उस का रंग सांवला है, उसी पर आप उठतेबैठते चिंता जाहिर करते थे. मैं तब भी आप को यही समझाता था कि रंग गोराकाला होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. पूरा का पूरा अस्तित्व गरिमामय हो, उचित पहनावा हो, शालीनता हो तो कोई भी लड़की सुंदर होती है. गोरी चमड़ी का आप क्या करेंगे, जरा मुझे समझाइए. यदि लड़की में संस्कार ही न हुए तो गोरे रंग से ही क्या आप का पेट भर जाएगा? आप का सम्मान ही न करे, जो हवा में तितली की तरह उड़ती फिरे, जो जमीन से कोसों दूर हो, क्या वैसी लड़की चाहिए आप को?

‘‘अच्छा, एक बात और, आप मध्यमवर्गीय परिवार से आते हैं न, जहां दिन चढ़ते ही जरूरतों से भिड़ना पड़ता है. भाभी सारा दिन रसोई में खटती हैं और जिस दिन काम वाली न आए, उन्हें बरतन भी साफ करने पड़ते हैं. यह सोमू भी एक औसत दर्जे का लड़का है, जो पूरी तरह आप के हाथ के नीचे काम करता है. इस की अपनी कोई पहचान नहीं बनी है. आप हाथ खींच लें तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से कमा सकेगा. आप का बुढ़ापा तभी सुखमय होगा जब संस्कारी बहू आ कर आप से जुड़ जाएगी. कहिए, मैं सच कह रहा हूं कि नहीं?’’

राघव चाचा ने एक बार पूछा तो मम्मीपापा आंखें फाड़फाड़ कर उन का चेहरा देख रहे थे. सच ही तो कह रहे थे चाचा. मेरी अपनी अभी कोई पहचान है कहां. वकालत पढ़ने के बाद पापा की ही तो सहायता कर रहा हूं मैं.

‘‘मेरे एक मित्र की भतीजी है जो मुझे बड़ी प्यारी लगती है. काफी समय से उन के घर मेरा आनाजाना है. वह मुझे अपनीअपनी सी लगती है. सोचा, मेरे ही घर में क्यों न आ जाए. मुझे सोमू के लिए वह लड़की उचित लगी. उस के मांबाप आप का घरद्वार देखने आए थे. मेरे साथ वे नहीं आना चाहते थे, क्योंकि अपने तरीके से वे सब कुछ देखना चाहते थे.’’

‘‘कौन थे वे और कहां से आए थे?’’

‘‘आप ने क्या कहा था उन्हें? आप को तो सुंदर लड़की चाहिए जो ‘ऐश्वर्या राय तो मैं नहीं कहता हो पर उस के आसपास तो हो,’ यही कहा था न आप ने?’’

मैं चाचा की बात सुन कर अवाक् रह गया था. क्या पापा ने उन से ऐसा कहा था? ठगे से पापा जवाब में चुप थे. इस का मतलब चाचा जो कह रहे थे सच है.

‘‘क्या आप अमिताभ बच्चन हैं और आप का बेटा अभिषेक, जिस की लंबाई 5 फुट 7 इंच’ है. आप एक आम इनसान हैं और हम और? क्या आप को ऐश्वर्या राय चाहिए? अपने घर में? क्या ऐश्वर्या राय को संभालने की हिम्मत है आप के बेटे में?… इनसान उतना ही मुंह खोले जितना पचा सके और जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारे.’’

‘‘बस करो, राघव,’’ मां तिलमिला कर बोलीं, ‘‘क्या बकबक किए जा रहे हो.’’

‘‘बुरा लग रहा है न सुन कर? मुझे भी लगा था. मुझे सुन कर शर्म आ गई जब उन्होंने मुझ से हाथ जोड़ कर माफी मांग ली. भैया को शर्म नहीं आई अपनी भावी बहू के बारे में विचार व्यक्त करते हुए…भैया, आप किसी राह चलती लड़की पर फबती कसें तो मैं मान लूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि आप कैसे चरित्र के मालिक हैं. पराई लड़कियां आप की नजर में सदा ही पराई रही हैं, जिन पर आप कोई भी फिकरा कस लेते हैं, लेकिन अपनी बहू ढूंढ़ने वाला एक सम्मानजनक ससुर क्या इस तरह की बात करता है, जरा सोचिए. आप तब अपनी बहू के बारे में बात कर रहे थे या किसी फिल्म की हीरोइन के बारे में?’’

पापा ने तब कुछ नहीं कहा. माथे पर ढेर सारे बल समेटे कभी इधर देखते कभी उधर. गलत नहीं कह रहे हैं चाचा. मेरे पापा जब भी किसी की लड़की के बारे में बात करते हैं, तब उन का तरीका सम्मानजनक नहीं होता. इस उम्र में भी वे लड़कियों को पटाखा, फुलझड़ी और न जाने क्याक्या कहते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगता पर क्या कर सकता हूं. मां को भी उन का ऐसा व्यवहार पसंद नहीं है.

‘‘अब आप बड़े हो गए हैं भैया. अपना चरित्र जरा सा बदलिए. छिछोरापन आप को नहीं जंचता. हमें स्वप्न सुंदरी नहीं, गृहलक्ष्मी चाहिए, जो हमारे घर में रचबस जाए और लड़की वालों को इतना सस्ता भी न आंको कि उन्हें आप कहीं भी फेंक देंगे. लड़की वाले भी देखते हैं कि कहां उन की बेटी की इज्जत हो पाएगी, कहां नहीं. जिस घर में ससुर ही ऐसी भाषा बोलेगा वहां बाकी सब कैसा बोलते होंगे यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.’’

‘‘कौन थे वे लोग? और कहां से आए थे?’’ मां ने प्रश्न किया.

‘‘वे जहां से भी आए हों पर उन्होंने साफसाफ कह दिया है कि राघवजी, आप के भाई का परिवार बेहद सुंदर है और इतने सुंदर परिवार में हमारी लड़की कहीं भी फिट नहीं बैठ पाएगी. वह एक सामान्य रंगरूप की लड़की है जो हर कार्य और गुण में दक्ष है, लेकिन ऐश्वर्या जैसी किसी भी कोण से नहीं लगती.’’

चाचा उठ खड़े हुए. उड़ती सी नजर मुझ पर डाली, मानो मुझ से कोई राय लेना चाहते हों. क्या वास्तव में मुझे भी कोई रूपसी ही चाहिए, जिस के नखरे भी मैं शायद नहीं उठा पाऊंगा. राह चलते जो रूप की चांदी यहांवहां बिखराती रहे और मैं असुरक्षा के भाव से ही घिरा रहूं. मैं ही कहां का देवपुरुष हूं, जिसे कोई अप्सरा चाहिए. चाचा सच ही कह रहे हैं कि पापा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था. मैं ने एकाध बार पापा को समझाया भी था तो उन्होंने मुझे बुरी तरह डांट दिया था, ‘बाप को समझा रहा है. बड़ा मुंहजोर है तू.’

मुझे याद है एक बार मानसी की एक सहेली घर आई थी. पापा ने उसे देख कर मुझ से ही पूछा था :

‘‘सोमू, यह पटाखा कौन है? इस की फिगर बड़ी अच्छी है. तुम्हारी कोई सहेली है क्या?’’

तब पहली बार मुझे बुरा लगा था. वह मानसी की सहेली थी. अगर मानसी किसी के घर जाए और उस घर के लोग उस के शरीर की बनावट को तोलें तो यह जान कर मुझे कैसा लगेगा? यहां तो मेरा बाप ही ऐसी अशोभनीय हरकत कर रहा था.

मेरे मन में एक दंश सा चुभने लगा. कल को मेरे पिता मेरी पत्नी की क्या इज्जत करेंगे? ये तो शायद उस की भी फिगर ही तोलते रहेंगे. मेरी पत्नी में इन्हें ऐश्वर्या जैसा रूप क्यों चाहिए? मैं ने तो इस बारे में कभी सोचा ही नहीं कि मेरी पत्नी कैसी होगी. मेरी बहन  का रंग सांवला है, शायद इसीलिए मुझे सांवली लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं.

मैंने चाचा की तरफ देखा. उन की नजरें बहुत पारखी हैं. उन्होंने जिसे मेरे लिए पसंद किया होगा वह वास्तव में अति सुंदर होगी, इतनी सुंदर कि उस से हमारा घर रोशन हो जाए. मुझे लगा कि पिता की आदत पर अब रोक नहीं लगाऊंगा तो कब लगाऊंगा. मैं ने चाचा को समझाया कि वे उन से दोबारा बात करें.

‘‘सोमू, वह अब नहीं हो पाएगा.’’

चाचा का उत्तर मुझे निरुत्तर कर गया.

‘‘अपने पिता की आदत पर अंकुश लगाओ,’’ चाचा बोले, ‘‘उम्रदराज इनसान को शालीनता से परहेज नहीं होना चाहिए. खूबसूरती की तारीफ करनी चाहिए. मगर गरिमा के साथ. एक बड़ा आदमी सुंदर लड़की को ‘प्यारी सी बच्ची’ भी तो कह सकता है न. ‘पटाखा’ या ‘फुलझड़ी’ कहना अशोभनीय लगता है.’’

चाचा तो चले गए मगर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा. ऐसा लगने लगा कि मेरा पूरा भविष्य ही अंधकार में डूब जाएगा, अगर कहीं पापा और मेरी पत्नी का रिश्ता सुखद न हुआ तो? पापा का अपमान भी मुझ से सहा नहीं जाएगा और पत्नी की गरिमा की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही होगी. तब क्या करूंगा मैं जब पापा की जबान पर अंकुश न हुआ तो?

मां ने तो शायद यह सब सुनने की आदत बना ली है. मेरी पत्नी पापा की आदत पचा पाए, न पचा पाए कौन जाने. अभी पत्नी आई नहीं थी लेकिन उस के आने के बाद की कल्पना से ही मैं डरने लगा था.

सहसा एक दिन कुछ ऐसा हो गया जिस से हमारा सारा परिवार ही हिल गया. हमारी कालोनी से सटा एक मौल है जहां पापा एक दिन सिनेमा देखने चले गए. अकेले गए थे इसलिए हम में से किसी को भी पता नहीं था कि कहां गए हैं. शाम के 5 बजे थे. पापा खून से लथपथ घर आए. उन की सफेद कमीज खून से सनी थी. एक लड़की उन्हें संभाले उन के साथ थी. पता चला कि आदमकद शीशा उन्हें नजर ही नहीं आया था और वे उस से जा टकराए थे. नाक का मांस फट गया था जिस वजह से इतना खून बहा था. पापा को बिस्तर पर लिटा कर मां उन की देखभाल में जुट गईं और मैं उस लड़की के साथ बाहर चला आया.

‘‘ये दवाइयां इन्हें खिलाते रहें. टिटनैस का इंजेक्शन मैं ने लगवा दिया है,’’ इतना कहने के बाद उस लड़की ने अपना पर्स खोल कर दवाइयां निकालीं.

‘‘दरअसल इन का ध्यान कहीं और था. ये दूसरी ओर देख रहे थे. लगता है सुंदर चेहरे अंकल को बहुत आकर्षित करते हैं.’’

जबान जम गई थी मेरी. उस ने नजरें उठा कर मुझे देखा और बताने लगी, ‘‘माफ कीजिएगा, मैं भी उन चेहरों के साथ ही थी. जब ये टकराए तब वे चेहरे तो खिलखिला कर अंदर थिएटर में चले गए लेकिन मैं जा नहीं पाई. मेरी पिक्चर छूट गई, इस की चिंता नहीं. मेरे पिताजी की उम्र का व्यक्ति खून से सना हुआ छटपटा रहा है, यह मुझ से देखा नहीं गया.’’

दवाइयों का पुलिंदा और ढेर सारी हिदायतें मुझे दे कर वह सांवली सी लड़की चली गई. अवाक् छोड़ गई मुझे. मेरे पिता पर उस ने कितने पैसे खर्च दिए पूछने का अवसर ही नहीं दिया उस ने.

नाक की चोट थी. पूरी रात हम जागते रहे. सुबह पापा के कराहने से हमारी तंद्रा टूटी. आंखों के आसपास उभर आई सूजन की वजह से उन की आंखें खुली हैं या बंद, यह हमें पता नहीं चल रहा था.

‘‘वह बच्ची कहां गई. बेचारी कहांकहां भटकी मेरे साथ,’’ पापा का स्वर कमजोर था मगर साफ था, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची थी. वह कहां है?’’

पापा का स्वर पहले जैसा नहीं लगा मुझे. उस साधारण सी लड़की को वह बारबार ‘प्यारी बच्ची’ कह रहे थे. बदलेबदले से लगे मुझे पापा. यह चोट शायद उन्हें सच के दर्शन करा गई थी. सुंदर चेहरे उन पर हंस कर चले गए और साधारण चेहरा उन्हें संभाल कर घर छोड़ गया था. एक कमजोर सी आशा जागी मेरे मन में. हो सकता है अब पापा भी मेरी ही तरह कहने लगें, ‘साधारण सी लड़की चाहिए, ऐश्वर्या नहीं चाहिए मुझे.’

हीरो: क्या समय रहते खतरे से बाहर निकल पाई वह?

लेखिका-  संगीता माथुर

बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही मूसलाधार बारिश शुरू हो गई थी. अपने घर की बालकनी में बैठी चाय की चुसकियों के साथ बारिश की बौछारों का मैं आनंद लेने लगी. आंखें अनायास ही सड़क पर तितरबितर होते भीड़ के रैले में किसी को तलाशने लगीं लेकिन उसे वहां न पा कर उदास हो गईं. आज ये फुहारें कितनी सुहानी लग रही हैं, जबकि यही गड़गड़ाहट, आसमान में चमकती बिजली की आंखमिचौली उस दिन कितना कहर बरपाती प्रतीत हो रही थी. समय और स्थान परिवर्तन के साथसाथ एक ही परिदृश्य के माने कितने बदल जाते हैं.

2 बरस पूर्व की यादें अभी भी जेहन में आते ही शरीर में झुरझुरी सी होने लगती है और इस के साथ ही आंखों के सामने उभर आता है एक रेखाचित्र, ‘हीरो’ का, जिस की मधुर स्मृति अनायास ही चेहरे पर मुसकान ला देती है.

उस दिन औफिस से निकलने में मुझे कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी. काफी अंधेरा घिर आया था. स्ट्रीट लाइट्स जल चुकी थीं. मैं ने घड़ी देखी, घर पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 तो बज ही जाएंगे. मां चिंता करेंगी, सोच कर लिफ्ट से उतरते ही मैं ने मां को फोन लगा दिया.

‘हां, कहां तक पहुंची? आज तो बहुत तेज बारिश हो रही है. संभल कर आना,’ मां की चिंता उन की आवाज से साफ जाहिर हो रही थी.

‘बस, निकल गई हूं. अभी कैब पकड़ कर सीधे घर पहुंचती हूं और फिर मुंबई की बारिश से क्या घबराना, मां? हर साल ऐसे ही तो होती है. मेहमान और मुंबई की बारिश का कोई ठिकाना नहीं. कब, कहां टपक जाए कोई नहीं बता सकता,’ मैं बड़ी बेफिक्री से बोली.

‘अरे, आज साधारण बारिश नहीं है. पिछले 10 घंटे से लगातार हो रही मूसलाधार बारिश थमने या धीमे होने का नाम नहीं ले रही है. हैलो…हैलो…’ मां बोलती रह गईं.

मैं भी देर तक हैलो… हैलो… करती बिल्डिंग से बाहर आ गई थी. सिगनल जो उस वक्त आने बंद हुए तो फिर जुड़ ही नहीं पाए थे. बाहर का नजारा देख मैं अवाक रह गई थी. सड़कें स्विमिंग पूल में तबदील हो चुकी थीं. दूरदूर तक कैब क्या किसी भी चलती गाड़ी का नामोनिशान तक न था. घुटनों तक पानी में डूबे लोग अफरातफरी में इधरउधर जाते नजर आ रहे थे. महानगरीय जिंदगी में एक तो वैसे ही किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं होता और उस पर ऐसा तूफानी मंजर… हर किसी को बस घर पहुंचने की जल्दी मची थी.

अपने औफिस की पूर्णतया वातानुकूलित इमारत जिस पर हमेशा से मुझे गर्व रहा है, पहली बार रोष उमड़ पड़ा. ऐसी भी क्या वातानुकूलित इमारत जो बाकी दीनदुनिया से आप का संपर्क ही काट दे. अंदर हमेशा एक सा मौसम, बाहर भले ही पतझड़ गुजर कर बसंत छा जाए. खैर, अपनी दार्शनिकता को ठेंगा दिखाते हुए मैं तेज कदमों से सड़क पर आ गई और इधरउधर टैक्सी के लिए नजरें दौड़ाने लगी. लेकिन वहां पानी के अति बहाव के कारण वाहनों का रेला ही थम गया था. वहां टैक्सी की खोज करना बेहद मूर्खतापूर्ण लग रहा था. कुछ अधडूबी कारें मंजर को और भी भयावह बना रही थीं. मैं ने भैया से संपर्क साधने के लिए एक बार और मोबाइल फोन का सहारा लेना चाहा, लेकिन सिगनल के अभाव में वह मात्र एक खिलौना रह गया था. शायद आगे पानी इतना गहरा न हो, यह सोच कर मैं ने बैग गले से कमर में टांगा और पानी में उतर पड़ी. कुछ कदम चलने पर ही मुझे सैंडल असुविधाजनक लगने लगे. उन्हें उतार कर मैं ने बैग में डाला.

आगे चलते लोगों का अनुसरण करते हुए मैं सहमसहम कर कदम बढ़ाने लगी. कहीं किसी गड्ढे या नाले में पांव न पड़ जाए, मैं न जाने कितनी देर चलती रही और कहां पहुंच गई, मुझे कुछ होश नहीं था. लोकल ट्रेन में आनेजाने के कारण मैं सड़क मार्गों से नितांत अपरिचित थी. आगे चलने वाले राहगीर भी जाने कब इधरउधर हो गए थे मुझे कुछ मालूम नहीं. मुझे चक्कर आने लगे थे. सारे कपड़े पूरी तरह भीग कर शरीर से चिपक गए थे. ठंड भी लग रही थी. अर्धबेहोशी की सी हालत में मैं कहीं बैठने की जगह तलाश करने लगी तभी जोर से बिजली कड़की और आसपास की बत्तियां गुल हो गईं. मेरी दबी सी चीख निकल गई.

फुटपाथ पर बने एक इलैक्ट्रिक पोल के स्टैंड पर मैं सहारा ले कर बैठ गई. आंखें स्वत: ही मुंद गईं. किसी ने झटके से मुझे खींचा तो मैं चीख मार कर उठ खड़ी हुई. ‘छोड़ो मुझे, छोड़ो,’ दहशत के मारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. अंधेरे में आंखें चौड़ी कर देखने का प्रयास करने पर मैं ने पाया कि एक युवक ने मेरी बांह पकड़ रखी थी. ‘करेंट खा कर मरना है क्या?’  कहते हुए उस ने मेरी बांह छोड़ दी. वस्तुस्थिति समझ कर मेरे चेहरे पर शर्मिंदगी उभर आई. फिर तुरंत ही अपनी असहाय अवस्था का बोझ मुझ पर हावी हो गया. ‘प्लीज, मुझे मेरे घर पहुंचा दीजिए. मैं पिछले 3 घंटे से भटक रही हूं.’

‘और मैं 5 घंटे से,’ उस ने बिना किसी सहानुभूति के सपाट सा उत्तर दिया.

‘ओह, फिर अब क्या होगा? मुझ से तो एक कदम भी नहीं चला जा रहा. मैं यहीं बैठ कर किसी मदद के आने का इंतजार करती हूं,’ मैं खंभे से थोड़ा हट कर बैठ गई.

‘मदद आती नहीं, तलाश की जाती है.’

‘पर आगे कहीं बैठने की जगह भी न मिली तो?’ मैं किसी भी हाल में उठने को तैयार न थी.

‘ऐसी सोच के साथ तो सारी जिंदगी यहीं बैठी रह जाओगी.’

मेरी आंखें डबडबा आई थीं. शायद इतनी देर बाद किसी को अपने साथ पा कर दिल हमदर्दी पाने को मचल उठा था. पर वह शख्स तो किसी और ही मिट्टी का बना था.

‘आप को क्या लगता है कि मैं किसी फिल्मी हीरो की तरह आप को गोद में उठा कर इस पानी में से निकाल ले जाऊंगा? पिछले 5 घंटे से बरसते पानी में पैदल चलचल कर मेरी अपनी सांस फूल चुकी है. चलना है तो आगे चलो, वरना मरो यहीं पर.’

उस के सख्त रवैए से मैं सहम गई थी. डरतेडरते उस के पीछे फिर से चलने लगी. तभी मेरा पांव लड़खड़ाया. मैं गिरने ही वाली थी कि उस ने अपनी मजबूत बांहों से मुझे थाम लिया.

‘तुम आगे चलो. पीछे गिरगिरा कर बह गई तो मुझे पता भी नहीं चलेगा,’ आवाज की सख्ती थोड़ी कम हो गई थी और अनजाने ही वह आप से तुम पर आ गया था, पर मुझे अच्छा लगा. अपने साथ किसी को पा कर मेरी हिम्मत लौट आई थी. मैं दूने उत्साह से आगे बढ़ने लगी. तभी बिजली लौट आई. मेरे दिमाग में बिजली कौंधी, ‘आप के पास मोबाइल होगा न?’

‘हां, है.’

‘तो मुझे दीजिए प्लीज, मैं घर फोन कर के भैया को बुला लेती हूं.’

‘मैडम, आप को शायद स्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं है. इस क्षेत्र की संचारव्यवस्था ठप हो गईर् है. सिगनल नहीं आ रहे हैं. पूरे इलाके में पानी भर जाने के कारण वाहनों का आवागमन भी रोक दिया गया है. हमारे परिजन चाह कर भी यहां तक नहीं आ सकते और न हम से संपर्क साध सकते हैं. स्थिति बदतर हो इस से पूर्व हमें ही किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचना होगा.’

‘लेकिन कैसे?’ मुझे एक बार फिर चारों ओर से निराशा ने घेर लिया था. बचने की कोईर् उम्मीद नजर नहीं आ रही थी. लग रहा था आज यहीं हमारी जलसमाधि बन जाएगी. मुझे अपने हाथपांव शिथिल होते महसूस होने लगे. याद आया लंच के बाद से मैं ने कुछ खाया भी नहीं है. ‘मुझे तो बहुत जोर की भूख भी लग रही है. लंच के बाद से ही कुछ नहीं खाया है,’ बोलतेबोलते मेरा स्वर रोंआसा हो गया था.

‘अच्छा, मैं तो बराबर कुछ न कुछ उड़ा रहा हूं. कभी पावभाजी, कभी भेलपुरी, कभी बटाटाबड़ा… मुझे समझ नहीं आता तुम लड़कियां बारबार खुद को इतना निरीह साबित करने पर क्यों आमादा हो जाती हो? तुम्हें क्या लगता है मैं अभी सुपरहीरो की तरह उड़ कर जाऊंगा और पलक झपकते तुम्हारे लिए गरमागरम बटाटाबड़ा ले कर हाजिर हो जाऊंगा. फिर हम यहां पानी के बीच गरमागरम बड़े खाते हुए पिकनिक का लुत्फ उठाएंगे.’

‘जी नहीं, मैं ऐसी किसी काल्पनिकता में नहीं जी रही हूं. बटाटाबड़ा तो क्या, मुझे आप से सूखी रोटी की भी उम्मीद नहीं है.’ गुस्से में हाथपांव मारती मैं और भी तेजतेज चलने लगी. काफी आगे निकल जाने पर ही मेरी गति थोड़ी धीमी हुई. मैं चुपके से टोह लेने लगी, वह मेरे पीछे आ भी रहा है या नहीं?

‘मैं पीछे ही हूं. तुम चुपचाप चलती रहो और कृपया इसी गति से कदम बढ़ाती रहो.’

उस के व्यंग्य से मेरा गुस्सा और बढ़ गया. अब तो चाहे यहीं पानी में समाधि बन जाए, पर इस से किसी मदद की अपेक्षा नहीं रखूंगी. मेरी धीमी हुई गति ने फिर से रफ्तार पकड़ ली थी. अपनी सामर्थ्य पर खुद मुझे आश्चर्य हो रहा था. औफिस से आ कर सीधे बिस्तर पर ढेर हो जाने वाली मैं कैसे पिछले 7-8 घंटे से बिना कुछ खाएपीए चलती जा रही हूं, वह भी घुटनों से ऊपर चढ़ चुके पानी में. शरीर से चिपकते पौलीथीन, कचरा और खाली बोतलें मन में लिजलिजा सा एहसास उत्पन्न कर रहे थे. आज वाकई पर्यावरण को साफ रखने की आवश्यकता महसूस हो रही थी. यदि पौलीथीन से नाले न भर जाते तो सड़कों पर इस तरह पानी नहीं भरता. पानी भरने की सोच के साथ मुझे एहसास हुआ कि सड़क पर पानी का स्तर काफी कम हो गया है.

‘वाह,’ मेरे मुंह से खुशी की चीख निकल गई. वाकई यहां पानी का स्तर घुटनों से भी नीचा था. तभी एक बड़े से पत्थर से मेरा पांव टकरा गया. ‘ओह,’ मैं जोर से चिल्ला कर लड़खड़ाई. पीछे आ रहे युवक ने आगे आ कर एक बार फिर मुझे संभाल लिया. अब वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे चलाने लगा क्योंकि मेरे पांव से खून बहने लगा था और मैं लंगड़ा रही थी. पानी में बहती खून की धार देख कर मैं दहशत के मारे बेहोश सी होने लगी थी कि उस युवक के उत्साहित स्वर से मेरी चेतना लौटी, ‘वह देखो, सामने बरिस्ता होटल. वहां काफी चहलपहल है. उधर इतना पानी भी नहीं है.

हम वहां से जरूर फोन कर सकेंगे. हमारे घर वाले आ कर तुरंत हमें ले जाएंगे. देखो, मंजिल के इतने करीब पहुंच कर हिम्मत नहीं हारते. आंखें खोलो, देखो, मुझे तो गरमागरम बड़ापाव की खुशबू भी आ रही है.’

मैं ने जबरदस्ती आंखें खोलने का प्रयास किया. बस, इतना ही देख सकी कि वह साथी युवक मुझे लगभग घसीटता हुआ उस चहलपहल की ओर ले चला था. कुछ लोग उस की सहायतार्थ दौड़ पड़े थे. इस के बाद मुझे कुछ याद नहीं रहा. चक्कर और थकान के मारे मैं बेहोश हो गई थी. होश आया तो देखा एक आदमी चम्मच से मेरे मुंह में कुनकुनी चाय डाल रहा था और मेरा साथी युवक फोन पर जोरजोर से किसी को अपनी लोकेशन बता रहा था. मैं उठ कर बैठ गई. चाय का गिलास मैं ने हाथों में थाम लिया और धीरेधीरे पीने लगी. किसी ने मुझे 2 बिस्कुट भी पकड़ा दिए थे, जिन्हें खा कर मेरी जान में जान आई.

‘तुम भी घर वालों से बात कर लो.’

मैं ने भैया को फोन लगाया तो पता चला वे जीजाजी के संग वहीं कहीं आसपास ही मुझे खोज रहे थे. तुरंत वे मुझे लेने निकल पड़े. रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन आसपास मौजूद भीड़ की आंखों में नींद का नामोनिशान न था. हर किसी की जबान पर प्रकृति के इस अनोखे तांडव की ही चर्चा थी.

‘मेरा साला मुझे लेने आ रहा है. तुम्हें कहां छोड़ना है बता दो… लो, वे आ गए.’अपनी गर्भवती पत्नी को भी गाड़ी से उतरते देख वह हैरत में पड़ गया, ‘अरे, तुम ऐसे में बाहर क्यों निकली? वह भी ऐसे मौसम में?’ बिना कोईर् जवाब दिए उस की पत्नी उस से बुरी तरह लिपट गई और फूटफूट कर रोने लगी. वह उसे धीरज बंधाने लगा. मेरी भी आंखें भर आईं. पत्नी को अलग कर वह मुझ से मुखातिब हुआ, ‘पहली बार कोई हैल्प औफर कर रहा हूं. चलो, हम छोड़ देंगे.’

‘नहीं, थैंक्स, भैया और जीजाजी बस आ ही रहे हैं. लो, वे भी आ गए.’

‘अच्छा बाय,’ वह चला गया.

हम ने न एकदूसरे का नाम पूछा, न पता. उस की स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए मैं ने उसे एक नाम दे दिया है, ‘हीरो’  वास्तविक हीरो की तरह बिना कोई हैरतअंगेज करतब दिखाए यदि कोई मुझे उस दिन मौत के दरिया से बाहर ला सकता था तो वही एक हीरो. उस समय तो मुझे उस पर गुस्सा आया ही था कि कैसा रफ आदमी है, लेकिन आज मैं आसानी से समझ सकती हूं उस का मुझे खिझाना, आक्रोशित करना, एक सोचीसमझी चालाकी के तहत था ताकि मैं उत्तेजित हो कर तेजतेज कदम बढ़ाऊं और समय रहते खतरे की सीमारेखा से बाहर निकल जाऊं. सड़क पर रेंगते अनजान चेहरों के काफिले में आज भी मेरी नजरें उसी ‘हीरो’ को तलाश रही हैं.

निर्णय: क्या कुमुद के बेटे की शादी हुई?

राजू, कुमुद दीदी का इकलौता पुत्र है, बेहद आज्ञाकारी व लाड़ला. पढ़नेलिखने में उस का मन कभी न लगा, सो, पिता ने अपने व्यवसाय में ही उसे माहिर बना दिया. राजू का व्यक्तित्व अब निखर गया था. नीले रंग के सूट में वह खूब जंच रहा था, वैसे उस पर तो कुछ भी जंच सकता था, मां का गोरा रंग, भूरे घुंघराले बाल व पिता की 6 फुट की ऊंचाई उस ने विरासत में जो पाई थी. ‘शादी कब कर रही हो तुम इस की?’ सभी मिलने वालों का एक ही प्रश्न था.

‘हां, कर ही दो शादी. अब तो लड़का काम पर भी लग गया है. कहो तो अपनी चचेरी बहन की ननद से बात चलाऊं,’ शोभा, कुमुद दीदी के पास सरक आई.

‘ऐसी जल्दी भी क्या है? मुझे बहू चाहिए लाखों में एक. लड़की गोरीचिट्टी तो होनी ही चाहिए. तुम्हारी बहन की ननद का रंग तो काला है,’ कुमुद दीदी ने मुंह बिचकाया. शोभा के इस अपमान से पास ही खड़ी शारदा की आंखें चमकने लगीं. वह बोली, ‘कुमुद, मेरी जेठानी की लड़की है. वे लोग तुम्हारा घर भर देंगे. पूरे 25 लाख रुपए नकद देने को तैयार हैं.’ दीदी को यह लुभावना प्रस्ताव भी डिगा न सका. पूछा, ‘लड़की देखने में कैसी है? पढ़ीलिखी कितनी है?’

सुनते ही शारदा का मुंह उतर गया. हौले से बोली, ‘8वीं पास है. लेकिन तुम्हें पढ़ीलिखी लड़की का क्या करना है, नौकरी थोड़े ही करवानी है.’

‘न सही नौकरी, पर दोचार लोगों में उठनेबैठने लायक तो हो. न बाबा न, मुझे लड़की देखपरख कर ही चुननी है.’

ऐसे ही अनेक लुभावने प्रस्तावों को कुमुद दीदी निर्ममता से पैरों तले रौंदती चली गईं. कहीं लड़की का रंग आड़े आ जाता कहीं कदकाठी तो कहीं पढ़ाईलिखाई. कुमुद दीदी को बहू चाहिए थी, सर्वगुणसंपन्न. दिखने में अत्यंत रूपवती, पढ़ीलिखी, घर के कामकाज में माहिर, सिर झुका कर सभी की आज्ञा शिरोधार्य करने वाली. राजू की उम्र आगे सरकती जा रही थी. दीदी की तलाश अभी भी जारी थी. एक दिन मैं ने दीदी को समझाने का प्रयास किया, ‘अब तुम लड़की जल्दी से ढूंढ़ लो. इस अगस्त में राजू 28 साल पूरे कर लेगा. अब देरी ठीक नहीं.’

‘कहां ढूंढ़ लूं? कोई अच्छी लड़की मिलती ही नहीं. लगता है, हमारे यहां लड़कियों का अकाल पड़ गया है. किसी में कुछ नुक्स है तो किसी में कुछ. अब हमें एक ही तो बहू चाहिए. आंखों से देखते हुए मक्खी कैसे निगल लें?’ उत्तर में वे फट पड़ी थीं.

‘क्यों, तुम्हारी सरला चाची की लड़की सुषमा में क्या कमी है? तुम ने पिछली बार उस की कितनी प्रशंसा की थी.’

‘वह तो बड़ी बेशर्म लड़की है. पूरे समय खीखी कर के हंसती रही. किसी का कोई लिहाज ही नहीं. हमें बहू चाहिए, जोकर नहीं.’

मुझ से अब चुप न रहा गया, ‘रूपा को तुम ने चुप रहने पर नापसंद किया था. कहा था कि बहू चाहिए, पत्थर की मूर्ति नहीं. पता नहीं कैसी लड़की पसंद आएगी तुम्हें. कोई जोकर है, कोई पत्थर की मूर्ति तो कोई रेल का इंजन. देखो, देर होने से पहले ही संभल जाओ.’ पर उन्हें समझाने के मेरे सभी प्रयास निष्फल रहे. अब तक राजू की उम्र 30 पार कर चुकी थी.

हार कर मैं ने राजू को ही समझाने का प्रयास किया. परंतु उस ने रुखाई से उत्तर दिया, ‘ये सभी बातें तो मां ही बेहतर समझती हैं. मुझे अपनी पसंद पर कोई भरोसा नहीं है. पता नहीं, लड़की कैसी निकल आए?’ फिर एक दिन गर्व से फूली न समाती कुमुद दीदी मेरे घर आईं. साथ आए नौकर ने फलों से भरी टोकरी और मिठाई का डब्बा मेज पर रख दिया. ‘इस बुधवार को हमारे राजू की सगाई है. हमारी बहू है लाखों में एक. बहुत बड़ा घराना तो नहीं है पर बिटिया है सुंदर, सुशील और समझदार,’ उन्होंने गर्व से घोषणा की. राजू की सगाई धूमधाम से हुई. कुछ समय बाद ही विवाह का न्योता भी मिला. शादी का कार्ड देख कर सभी मुग्ध हो गए. कुमुद दीदी की बहू रिनी वास्तव में ही अत्यंत रूपवती थी. हम सभी ने चैन की सांस ली. राजू के विवाह के तुरंत बाद ही मुझे किसी कारणवश 2-3 महीने बाहर रहना पड़ा. लौट कर आई तो कुमद दीदी से मिलने पहुंच गई. खूबसूरत और हरेभरे लौन की दुर्दशा देख कर एक क्षण को मेरे कदम ही रुक गए. लगा, मानो किसी और ही घर में आ गई हूं. हिम्मत कर के मैं आगे बढ़ी. मैं द्वार पर ही थी कि अंदर से आने वाले स्वरों ने मुझे वहीं ठिठक कर रुक जाने पर बाध्य कर दिया.

‘इस टोकाटाकी से तो मैं तंग आ चुकी हूं. कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कब तक लौटोगे…? इतना दखल अब बरदाश्त नहीं होता. बेहतर होगा कि अब आप हमारे मामलों में दखल देने के स्थान पर अपने कमरे में ही रह कर कुछ कामधाम करें,’ इस के साथ ही द्वार धड़ से खुल गया. पूरी तरह से आधुनिक, कटे हुए बालों को एक झटका दे कर मेरी ओर देखे बिना रिनी सैंडल खटखटाती तेजी से बाहर निकल गई. निरीह गाय सी खड़ी कुमुद दीदी ने मुझे देख लिया था. इसलिए भीतर जाना ही पड़ा.

‘आओ, आओ. आज बहुत दिनों के बाद आना हुआ. रिनी अभीअभी किसी जरूरी काम से बाहर गई है, नहीं तो वही तुम्हारा सत्कार करती. शायद पहचाना नहीं उस ने तुम्हें,’ फीकी सी मुसकान के साथ वे आवश्यकता से कुछ अधिक ही बोल गई थीं.

फिर रुक कर पूछा, ‘क्या लोगी, ठंडा या चाय?’

घर का हुलिया व उस से बढ़ कर दीदी को देख कर चाय तो क्या, पानी पीने का भी मन न किया. वे भद्दे से रंग की एक फीकी सी साड़ी पहने थीं, जिस का आंचल धूल से सने हुए कालीन पर झाड़ू लगा रहा था. माथे पर लगी सिंदूर की बिंदिया पसीने की बहती धारा के साथ नाकमुंह पर नक्शा बना रही थी. उन के हाथ में झाड़न था. दर्पण सा चमकता दीदी का घर बदलाबदला लग रहा था. जगहजगह धूल की परतें, मकड़ी के जाले व बिखरे वस्त्र. इसी हौल को सजाने में दीदी ने न जाने कितना खर्च आवश्यकता न होने पर भी किया होगा. रसोई नवीनतम उपकरणों से सजी थी. स्नानघर का तो वास्तव में जवाब ही नहीं था. इतने सारे तामझाम के बिना इस परिवार का काम ही नहीं चल पाता था. आज भी दीदी के वैभव में तो कोई कमी नहीं आई थी पर उन की वह शाही तबीयत कहां खो गई?

मैं ने हैरानी से पूछा, ‘नौकर कहां है, दीदी? तुम ने यह क्या हाल बना रखा है?’

‘राम छुट्टी पर है. वैसे रिनी को उस का किया काम पसंद भी नहीं है. कहती है, चार जनों के परिवार में नौकर का क्या काम? बड़ी समझदार लड़की है.’ कुमुद दीदी की बातों से झूठ साफ झलक रहा था.

तभी आंधीतूफान की भांति राजू ने प्रवेश किया. मुझे देख केवल एक फीकी सी मुसकान उस के होंठों पर उभरी. फिर वह सोफे पर बैठ गया.

‘मां, रिनी तैयार है क्या? मुझे आने में थोड़ी देर हो गई. एक मीटिंग में फंस गया था,’ वह लापरवाही से बोला.

‘वह तो बाहर गई, बेटे. तू बैठ, पानी पी ले.’

‘नहीं, आप ने उसे जाने ही क्यों दिया? पता नहीं आटो मिलेगा भी या नहीं. बेचारी धूप में कहांकहां घूमेगी. आप बहुत लापरवाह हैं. मैं भी चलता हूं.’ मुझ से बिना कुछ कहे राजू उठ कर बाहर चला गया. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं भी लौट आई. कुछ दिनों बाद एक विवाहोत्सव में दीदी से फिर भेंट हो गई.

‘बहू नहीं आई क्या?’

‘नहीं, आई है. रिनी, इन से मिलो…’ कुछ दूर खड़ी बहू को उन्होंने पुकारा.

रिनी आई तो नहीं, पर उस का कुछ ऊंचा, अशिष्ट स्वर मेरे कानों में पड़ा.

‘अब किसी से मिलनाजुलना हो तो भी इन की मरजी ही चलेगी. हर बात में अपनी टांग जरूर अड़ाती हैं. पता नहीं, मुझे कब छुटकारा मिलेगा.’

दीदी का मुख अपमान से काला पड़ गया. सभी मेहमानों के समक्ष रिनी से ऐसे व्यवहार की शायद उन्हें आशा न थी. पीछे बजता गाड़ी का हौर्न सुन कर मेरी चेतना लौट आई. दोढाई माह बाद किसी काम से बैंक गई थी कि अचानक एक सतरंगी आंचल ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. देखा तो रिनी थी. बात करने की इच्छा तो नहीं हुई पर कुमुद दीदी का हालचाल पूछने की जिज्ञासा अवश्य थी. इतने में वह स्वयं ही मेरे पास आ खड़ी हुई.

‘‘दीदी कैसी हैं?’’ मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘ठीक हैं. हम लोग कल ही उन से मिल कर आए हैं,’’ कुछ देर इधरउधर की बातें कर वह चली गई.

मैं सोचने लगी, ‘मिल कर आए हैं’ का क्या अर्थ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दीदी ने वह घर ही छोड़ दिया हो? वैसे भी रिनी और राजू के साथ उन के संबंधों में कड़वाहट आ ही गई थी. किंतु कुमुद दीदी ने जीवन में कभी हार कर पलायन करना नहीं सीखा था. कैसा भी दुख हो, उन्होंने मुंह खोल कर किसी से शिकायत नहीं की थी. सदा परिस्थितियों का डट कर सामना किया था. क्या वे हार मान सकती हैं? विचार थे कि लगाम तोड़ कर इधरउधर भागे ही जा रहे थे. इसी उधेड़बुन में मेरे पैर अनजाने ही कुमुद दीदी के घर की ओर ही मुड़ गए. दरवाजा दीदी ने ही खोला. उन्हें देख कर मैं ने राहत की सांस ली.

‘‘क्या हुआ? बहुत परेशान लग रही हो, अंदर आओ.’’

ये तो वही पुरानी वाली कुमुद दीदी थीं. वेशभूषा वैसी ही गरिमामय, मुख पर फिर वही तेज.

घर का भी कायापलट हो चुका था. बैठते ही नमस्कार कह कर एक नौकर 2 गिलासों में जूस ला कर रख गया.

मेज पर रखी हुई पत्रिकाओं को एक ओर सरकाते हुए कुमुद दीदी ने पूछा, ‘‘हां, आज अचानक कैसे आना हुआ?’’

‘‘सुबह बैंक में रिनी मिली थी.’’

‘‘ओह रिनी, मुझे उसे फोन भी करना था. दरअसल, कल वह अपना कुछ सामान यहां भूल गई थी. सुबह तक ध्यान भी था, फिर कामकाज में व्यस्त हो गई तो याद ही नहीं रहा,’’ दीदी ने जूस का हलका सा घूंट लिया, ‘‘लो न, नहीं तो गरम हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन…रिनी…क्या वे लोग अब यहां तुम्हारे साथ नहीं रहते?’’

कुमुद दीदी ने गहरी सांस ली. फिर बोलीं, ‘‘नहीं. रिनी का स्वभाव तो तुम से छिपा नहीं है. राजू की शादी के बाद हम लोग पूरा व्यापार उसी को सौंप कर निश्चिंत हो गए थे. बस, शायद यहीं से रिनी को यह महसूस होने लगा कि वही घर की मालकिन है. फिर मैं ने भी तो चाबियां उसी को थमा दी थीं. लेकिन हम लोग तो उसे बोझ लगने लगे. राजू भी उसी की सुनता था. ‘‘पिछले दिनों मेरे भानजे का तबादला यहां हो गया था. वह पूरे परिवार को ले कर मिलने आया. मकान मिलने में 2-4 दिन लग ही जाते. अब हमारी कोठी इतनी बड़ी है कि कोई भी महीने, 2 महीने आराम से रह सकता है. उसे रुक जाने को कहा तो रिनी ने ऐसा हंगामा किया कि पूछो मत. हमारी तो छोड़ो, उन लोगों का भी बहुत अपमान किया. तुम्हारे जीजाजी का भी लिहाज न किया. इतने पर भी राजू चुपचाप सुनता रहा.’’

कुमुद दीदी की आंखें भर आईं. उन्हें पोंछ कर दृढ़ स्वर में आगे बोलीं, ‘‘उसी दिन हम ने यह फैसला किया कि राजू और रिनी का अलग हो जाना ही हम लोगों के लिए अच्छा है. उन्हें एक फ्लैट खरीद कर दे दिया है. व्यापार भी धीरेधीरे अलग कर देंगे. असल में रिनी को गलतफहमी ही यही थी कि राजू हमारा इकलौता बेटा है और उस की जुदाई हम शायद सह नहीं पाएंगे. पर अब जब राजू ही पराया हो गया तो उस का क्या मोह करना?’’

‘‘लेकिन रिनी तो कह रही थी कि वे लोग कल यहां आए थे?’’ मैं ने पूछ लिया.

‘‘हां, राजू और रिनी ने बहुत माफी मांगी पर मैं अडिग रही. मेरे लिए वे दोनों अनमोल हैं, किंतु एक बार रस्सी टूट जाए तो जुड़ने पर भी गांठ रह ही जाती है. दूर रह कर पास होना बेहतर है, साथसाथ रह कर दूर हो जाने के लिए और कोई चारा भी नहीं था.’’

‘‘अब हम लोग तीजत्योहारों पर मिलते हैं, कोई खुशी हो या दुख, मिलबांट सकते हैं. सच मानो तो अब हम पहले से अधिक पासपास हैं.’’

दीदी की बातें सुन कर मैं मन ही मन उन के इस निर्णय का अवलोकन करने लगी. शायद, दीदी ने वक्त को देखते हुए सही निर्णय लिया था. अगर अपनों का प्यार बना रहे, फिर दूरी क्या माने रखती है.

मैं 30 साल की हूं मैं नोटिस कर रही हूं, मेरे पीरियड का रंग काला आ रहा है , ऐसे में क्या करूं?

सवाल

मैं 30 साल की हूं. पिछले 3 बार से नोटिस कर रही हूं मेरे पीरियड में खून का रंग काला आ रहा है. मैं घबराई हुई हूं. क्या यह बुरा संकेत है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

आप के मासिकधर्म के खून का रंग आप के स्वास्थ्य की ओर संकेत करता है. इस से पहले कि आप घबराएं, हम आप को बता दें कि पीरियड ब्लड का रंग अलग होना बिलकुल सामान्य है. उदाहरण के लिए, यह गहरा लाल या भूरा, गुलाबी, ग्रे और काला हो सकता है. बहुत सी महिलाओं को यह चिंता तब होती है जब वे अपने पीरियड्स के खून को काला होते हुए देखती हैं.

एक महिला के पीरियड ब्लड का रंग और बनावट में महीनेदरमहीने या यहां तक कि एक ही पीरियड के दौरान बदलाव आ सकता है. हार्मोनल परिवर्तनों के साथसाथ एक व्यक्ति के आहारजीवनशैलीउम्र और पर्यावरण के कारण यह बदलाव हो सकता है. हालांकि संक्रमणगर्भावस्था और दुर्लभ मामलों में जैसे सर्वाइकल कैंसरअसामान्य रक्त के रंग या अनियमित रक्तस्राव का कारण बन सकता है.

इस बात का ध्यान रहे कि अगर ब्लैक पीरियड ब्लड के साथ असामान्य योनि स्रावदुर्गंध और खुजली हो तो तुरंत डाक्टर से सलाह लें. ऐसे मामलों में देरी न करें.

मार्च का अंतिम सप्ताह कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

2024 की तिमाही का अंतिम सप्ताह बौलीवुड को थोड़ी सी राहत दे गया. पर इस राहत को ले कर लोग आश्चर्य चकित हैं. मार्च के अंतिम सप्ताह की शुरुआत गुरुवार 28 मार्च को पृथ्वीराज सुकुमारन की फिल्म “द गोट लाइफ” के प्रदर्शन से हुई. यह मलयालम फिल्म है, जिसे हिंदी तमिल तेलुगू और कन्नड़ में भी एक साथ रिलीज किया गया. तो वहीं 29 मार्च को एकता कपूर व अनिल कपूर निर्मित फिल्म ” क्रू” के साथ आकाशादित्य लामा की फिल्म “बंगाल 1947” भी रिलीज हुई.

पृथ्वीराज सुकुमारन की मुख्य भूमिका वाली बेसस्ली निर्देशित फिल्म “द गोट लाइफ” एक अच्छी व संदेश परक फिल्म है, पर 3 घंटे लंबी है. इस फिल्म में दक्षिण भारत से गल्फ कंट्रीज में नौकरी करने जाने वाले लोगों को किन मुसीबतों से गुजरना पड़ता है, उस का सजीव चित्रण है.

फिल्म देखते समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं. 85 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने लगभग 100 करोड़ कमा लिए हैं. यानी की है फिल्म एवरेज रही. इस फिल्म से नुकसान की संभावनाएं कम हैं.

29 मार्च को ही प्रदर्शित एकता कपूर व अनिल कपूर निर्मित तथा राजेश कृष्णन निर्देशित फिल्म ‘क्रू’में तब्बू ,करीना कपूर व कृति सैनन की मुख्य भूमिकाएं हैं. इस फिल्म की कहानी के केंद्र में 3 एयर होस्टेस हैं, जिन पर सोने की स्मगलिंग का आरोप लगता है. वह भी भारत से विदेशों में अवैध तरीके से सोना ले जाने का जब कहानी आगे बढ़ती है, तो लोगों को लगता है कि यह कहानी तो विजय माल्या की असली कहानी है. यह अति कमजोर और अविश्वसनीय दृश्यों वह द्विअर्थी संवादों से भरी फिल्म है. और इस फिल्म को दर्शक मिलने की उम्मीदें नहीं थी, लेकिन सनक डांट काम के अनुसार इस फिल्म ने 43 करोड़ कमा लिए हैं. जबकि इस फिल्म का बजट 75 करोड़ है. लेकिन फिल्म के पीआरओ का दावा है कि फिल्म ने 87 करोड़ 28 लाख कमाए हैं.

फिल्म ‘क्रू’ के निर्माताओं पर कौर्पोरेट बुकिंग के आरोप लग रहे हैं. बहरहाल यह फिल्म एवरेज रही और फिल्म इंडस्ट्री के लिए तो सुखद ही कहा जाएगा.

29 मार्च को ही आकाशादित्य लामा की फिल्म ‘बंगाल 1947’ रिलीज हुई. इस फिल्म की कहानी के केंद्र में शबरी व मोहन की खूबसूरत प्रेम कहानी है. मगर फिल्मकार ने बेवजह एक खास विचारधारा वालों को खुश करने के चक्कर में कुछ अनचाहे दृश्य जोड़ दिए हैं जिस से फिल्म का सत्यानाश हो गया.

इस फिल्म का नाम पहले ‘शबरी का मोहन’था पर बाद में बदल कर “बंगाल 1947” किया गया. फिल्मकार का यह निर्णय गलत रहा. इस वजह से भी दर्शकों ने इस फिल्म से दूरी बना कर रखी.

यूं तो यह फिल्म बहुत कम सिनेमाघर में रिलीज हुई. प्राप्त सूत्रों के अनुसार इस फिल्म ने पूरे सप्ताह 10 लाख रुपए भी नहीं कमाए. वैसे अभी तक निर्माता ने बौक्स औफिस के आंकड़े को ले कर चुप्पी साध रखी है.

कायनात मुस्कुरा उठी- भाग 3: पराग की मनोदशा आखिर क्यों बिगड़ी?

“यह कैसी बातें कर रहे हो पराग? हिम्मत हारोगे तो  कैसे काम चलेगा? अभी तुम्हारा घाव ताजा है.  इसलिए कंसंट्रेट नहीं कर पा रहे हो. देखना, थोड़े दिनों में तुम पहले की तरह पढ़ाई करने लग जाओगे. अगर थक गए हो तो थोड़ा लेट लो. आधा घंटे बाद मेरी मीटिंग है. तब तक मैं फ्री हूं. चलो, तब तक एक पावर नैप ले लेते हैं यार. मैं भी सुबह से बैठेबैठे थक गई हूं,” कहते हुए वह उसे  अपनी बांह में जकड़ उस से चिपक कर लेट गई, लेकिन रोते हुए पराग ने उस से छिटक कर दूर होते हुए कहा,”नहीं, मुझे लगता है कि मैं एक पैरासाइट की लाइफ बिता रहा हूं, हर चीज के लिए तुम पर डिपेंडेंट हो गया हूं. मुझ से यह जिंदगी नहीं जी जा रही है यार, समझा करो. कभी सोचा ना था कि मुझे यह दिन भी देखना पड़ेगा, जब मैं हर चीज के लिए तुम्हारा मोहताज हो जाऊंगा. नहीं… नहीं, बस और नहीं, मुझे जयपुर जाने दो.”

“यह तुम कह रहे हो पराग? क्या हम अलगअलग हैं?  तुम तो अपने प्यार की कसमें खाया करते थे, दुहाई दिया करते थे. तो अब वो वादे, वो कसमें क्या हुए? याद है, तुम हमेशा क्लास में फर्स्ट आया करते थे और  मैं हमेशा टॉप टेन के आखिर में रहा करती थी. तुम को हरगिज हिम्मत नहीं हारनी  है. मैं तुम्हें गाइड करूंगी. यह हो ही नहीं सकता कि तुम सीए नहीं बनो.”

“नहीं तानी, अब पढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं है. बहुत कोशिश कर ली, नहीं हो पा रहा है मुझ से. इतनी देर से यह बैलेंसशीट टेली करने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन हो ही नहीं  रही. समझो यार, मैं कोई नाटक नहीं कर रहा, फैक्ट बता रहा हूं. मुझे वापस जयपुर जाने दो.”

“नहीं, मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी. हम शादी करेंगे, अपनी एक खूबसूरत दुनिया बसाएंगे, जिस में बस तुम होगे और मैं. मरते दम तक हम साथ रहेंगे. तुम सीए  बनोगे और जरूर बनोगे.

“जब मैं सीए बन सकती हूं, तो तुम क्यों नहीं बन सकते? तुम मुझ से कहीं ज्यादा इंटेलिजेंट हो,” यह कहते हुए उस ने पराग को एक बार फिर अपनी बांहों  में भींच लिया. उस को बेहद ममता से चूमते हुए वह बुदबुदाई, “तुम्हारा ड्रीम जरूर पूरा होगा, यह तुम्हारा नहीं हम दोनों का ड्रीम है.”

पराग को उस की बातों से बेहद हिम्मत मिली.

वक्त के साथ उस के समर्पित सहयोग से वह धीरेधीरे सामान्य होता गया. धीरेधीरे उस का कंसंट्रेशन वापस आने लगा, और वह पहले से कहीं अधिक एकाग्रता से पढ़ने लगा.

उस बार पराग ने आशंकित ह्रदय से सीए फाइनल परीक्षा दी, लेकिन नियति तो इन दो प्यार करने वालों का कड़ा इम्तिहान लेने पर आमादा थी.

दो माह बाद परिणाम निकला, लेकिन पराग उसे उत्तीर्ण नहीं कर पाया. दोनों के सपने मिट्टी में मिल गए, लेकिन वह परिस्थितियों के सामने सहजता से घुटने टेकने वालों में से नहीं थी.

उस ने एक बार फिर से पराग को हिम्मत दी और उसे फिर से पूरे जोश से परीक्षा की तैयारी करने के लिए हौसला दिया.

दुर्घटना घटे खासा वक्त गुजर चुका था. पराग बहुत हद तक संभल चुका था. सो, इस बार वह पूरी लगन से फाइनल की तैयारी में जुट गया और तय वक्त पर उस ने सीए का फाइनल एग्जाम दे दिया.

इस बार पराग के पेपर बहुत शानदार हुए. उसे पूरीपूरी उम्मीद थी कि वह इस बार फाइनल एग्जाम क्रैक कर लेगा.

तभी  कोविड-19 के प्रकोप की वजह से आई मंदी के चलते तानी की कंपनी में छंटनी हुई और उस की नौकरी चली गई. उन दोनों पर घोर आर्थिक संकट के बादल मंडराने लगे. कुछ दिन तो उन्होंने बेहद तंगी में गुजारे. दोनों पराग और तानी को अपनेअपने परिवारों से कोई उम्मीद न थी. तीन माह पूरे होतेहोते उस की बचत पूरी तरह से खत्म हो गई और दोनों के सड़क पर आने के आसार नजर आने लगे.

तभी एक दिन अचानक दादाजी को अपने दरवाजे पर देख उसे और पराग को जैसे जीवनदान मिला. अगले ही दिन उन्हें अपना फ्लैट खाली करना था और उन के पास कुल जमापूंजी के नाम पर मात्र एक हजार रुपए बचे थे. परले ही दिन से उन के रहने का कोई ठिकाना नहीं था.

वह और पराग  दादाजी के साथ जयपुर उन के  घर आ गए. लगभग एक सप्ताह बाद दादाजी ने दोनों के विवाह की तिथि निकलवाने के लिए अपने खानदानी पंडित को बुलवा भेजा.

पंडितजी ने दोनों की कुंडलियों का मिलान कर दादाजी से कहा, “जजमान, दोनों की कुंडलियां नहीं मिल रही हैं. अगर आप ने दोनों को विवाह बंधन में बांध भी दिया, तो दोनों जीवनभर दुख पाएंगे. दोनों की ग्रहदशा बहुत अशुभ है.  दोनों का अमंगल ही अमंगल होगा.”

पंडितजी की बातें सुन कर दादाजी का चेहरा लटक गया कि तभी कमरे के एक कोने पर लैपटाप के सामने बैठी तानी खुशी से चीखी, “दादाजी, मुझे एक दूसरी नौकरी मिल गई. एक बढ़िया कंपनी में पहले से ड्योढ़ी सैलरी पर. अगले वीक से ही मुझे जौइन  करना है दिल्ली में.”

तानी की नई नौकरी लगने की खबर सुन कर सब के चेहरे खिल उठे. घरभर में उछाहउमंग की लहर फैल गई कि तभी पराग का एक दोस्त घर में चिल्लाते हुए घुसा,” पराग भाई, सीए का रिजल्ट आ गया है. नेट पर देख कि तेरा क्या रहा?”

धड़कते दिल से तानी ने पराग का रिजल्ट चेक किया, और कंप्यूटर स्क्रीन पर उस का नाम और रोल नंबर देख तानी खुशी के अतिरेक से उमगते हुए चीखी, “पराग, पराग, तू पास हो गया. सुन रहा है, तू सीए बन गया. हमारा सपना पूरा हुआ.”

तभी पराग ने पंडितजी से कहा, “पंडितजी, आप तो कह रहे थे कि दोनों की कुंडली नहीं मिल रही. शादी का खयाल छोड़ दो, लेकिन यहां तो शादी की बात चलाते ही दोदो खुशखबरी मिल गई. अब क्या कहते हैं पंडितजी,” और गले में थूक  निगलते घबराए हुए से पंडितजी बोले, “बेटा,  जरूर आप दोनों बच्चों के जन्म का समय सही नहीं होगा, तभी यह गड़बड़ी हुई है.”

“पंडितजी, अब मुझे कोई कुंडलीवुंडली नहीं मिलानी.  अब मैं खुद ही कोई अच्छा सा दिन देख कर इन की शादी का दिन तय कर देता हूं,” इस बार दादाजी बोले  और उन की बातें सुन कर पंडितजी बगलें झांकने लगे.

दादाजी ने अपने जिगर के टुकड़ों की शादी के लिए एक संडे चुना.

आज उन दोनों की सगाई और संगीत संध्या के प्रोग्राम  हंसीखुशी संपन्न हुए. कल उस की शादी है.

तभी दूर कहीं रेलगाड़ी की सीटी की कर्कश ध्वनि हवा में तैरती हुई उस तक पहुंची, और वह अपनी पुरानी यादों की पोटली समेट यथार्थ के धरातल पर वापस आई.

उस ने घड़ी देखी, सुबह के 8 बजे थे, तभी जेहन में कौंधा, ‘ओह, आज तो उस की जिंदगी का यादगार दिन है.’ इस खुशनुमा खयाल से वह होंठों ही होंठों में मुसकरा दी.

वह पलंग पर लेटेलेटे अंगड़ाई ले ही रही थी कि तभी उस के दरवाजे पर दस्तक हुई.

“तानी बेटा दरवाजा खोलो.”

“जी, दादाजी.”

“गुडमार्निंग दादाजी,”और यह कहते हुए उस ने उन के पैर छू लिए.

“सदा सुखी रहो बेटा,” दादाजी ने उसे आशीर्वाद दिया.

तभी उन के पीछे आते पराग ने हंसते हुए दादाजी से कहा, “दादाजी, मुझे आशीर्वाद नहीं देंगे?”

“अरे बेटा, मेरा आशीर्वाद तो हमेशा तेरे साथ है,” यह कहते हुए दादाजी ने पराग  और तानी दोनों को अपनी बांहों में भर लिया.

दोनों बच्चों को कलेजे से लगा कर उन्हें यों लगा था मानो और कुछ पाना शेष न रहा था. बरसों से आंखों में सजा पोते की शादी का ख्वाब आज सच होने आया था. वह मुसकरा दिए. तभी फिजां में शहनाई की मधुर स्वरलहरी गूंजी. उन्हें लगा, उन के साथसाथ पूरी कायनात मुसकरा रही थी.

चुनाव से पहले सत्तापरस्त एजेंडे वाली फिल्में : क्या गुल खिलाएंगी?

सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि समाज से संवाद करने का सीधा माध्यम भी है. सिनेमा समाज पर प्रभाव भी डालता है. यही वजह है कि पूरे विश्व के हर देश की सरकार बदलने के साथ ही वहां का सिनेमा बदलता रहा है. इस से भारतीय फिल्म उद्योग भी अछूता नहीं रहा. आजादी के बाद नेहरू की नीतियों की तर्ज पर सिनेमा बनता रहा. फिर कम्युनिस्ट पार्टी के विचारों व सोच के मुताबिक ‘इप्टा’ हावी हुआ और इप्टा से जुड़े लोगों ने वैसा ही सिनेमा बनाया.

श्याम बेनेगल व गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों को पश्चिम बंगाल के उद्योगपति वहां की सरकार के दबाव में सिनेमा बनाने के लिए उन्हें धन मुहैया कराते रहे. मगर इन फिल्मकारों ने एजेंडा वाला सिनेमा बनाते हुए भी सिनेमा की तरह ही बनाया. जिस के चलते इन फिल्मकारों या इन की फिल्मों पर ‘एजेंडा वाला’ सिनेमा का लैवल नहीं लगा.

आज भी वामपंथी विचारधारा वाला सिनेमा मलयालम भाषा में धड़ल्ले से बन रहा है, पर इस सिनेमा पर भी ‘एजेंडे वाला’ या ‘प्रोपगंडा वाला’ सिनेमा का आरोप नहीं लगा सकते. मगर 2014 के बाद हिंदी में ‘एजेंडे वाला’ सिनेमा और प्रोपगंडा वाला सिनेमा इस हिसाब का बन रहा है कि इन्हें खुलेआम सरकारपरस्त एजेंडा वाला सिनेमा कहा जा रहा है.

सिनेमा बना माध्यम

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने आरएसएस की सहयोगी संस्था संस्कार भारती से जुड़े तमाम लोगों के साथ बैठक की. उन के साथ इस बात पर विचारविमर्श किया कि सिनेमा के माध्यम से किस तरह अपनी नीतियों का प्रचार किया जा सकता है और किस तरह बौलीवुड पर कब्जा जमा सकते हैं. पिछले 9 वर्षों से जिस तरह का सिनेमा बन रहा है, उस पर गौर करें, तो हमें नजर आता है कि इसी बैठक का नतीजा है. भाजपा व्यवस्थित तरीके से सिनेमा में अपनी घुसपैठ बनाती जा रही है.

अभी कुछ दिनों पहले पंचकूला में वार्षिक सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिस में चित्र साधक नामक ग्रुप ने चित्र भारतीय सिने महोत्सव का भी आयोजन किया, जहां पर दक्षिणापंथी फिल्मकार एकत्र हुए थे. इस से एहसास हुआ कि अब ‘दक्षिणापंथी’ भी ‘इप्टा’ की तर्ज पर आंदोलन चला रहे हैं. पर ये लोग इप्टा की तरह प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं क्योंकि इप्टा में ज्ञानी, सिनेमा व कला की समझ रखने वाले उत्कृष्ट रचनात्मक लोग थे, जबकि भाजपा की संस्कार भारती या चित्र साधक ग्रुप की बात करें तो इन में विचारों का अभाव है.
ये सभी महज एक व्यक्ति पर केंद्रित हो कर सिनेमा बना रहे हैं. इस वजह से दक्षिणापंथी फिल्मकार भाजपा के इशारे पर काम करते हुए बेहतरीन फिल्में नहीं बना पा रहे हैं. पिछले 2 वर्षों में सत्तापरस्त एजेंडा वाली कुछ फिल्में बनीं, जिन में से ज्यादातर फिल्में असफल रहीं.

किस्सा ‘आरआरआर’ का

दक्षिण के फिल्मकार एस एस राजामौली की फिल्म ‘आरआरआर’ सफलतम फिल्म मानी जाती है. इस फिल्म का एक सच यह है कि 60 प्रतिशत फिल्माए जाने के बाद इस फिल्म के निर्माता ने आरएसएस के इशारे पर फिल्म में काफी बदलाव किया. आरएसएस के एक पत्र अधिकारी ने फिल्म की पटकथा नए सिरे से अपनी देखरेख में लिखवाई, जिस के चलते फिल्म के एक कलाकार को इस फिल्म से हटाया भी गया और नए कलाकार को जोड़ा गया तथा पूरी फिल्म का काफी हिस्सा फिर से फिल्माया गया. उस के बाद इस फिल्म का प्रचार करने के लिए निर्देशक राजामौली व अभिनेता प्रभाष जोशी वाराणसी भी गए, गंगा आरती की. इतना ही नहीं, इस फिल्म का प्रचार दिल्ली व गुजरात के द्वारका मंदिर में भी किया गया.
इसी तरह विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द ताशकंद फाइल्स’ के अलावा ‘मैं अटल हूं’, ‘तेजस’, ‘फाइटर’ सहित कुछ फिल्में आईं, पर इन’में से सिर्फ ‘द कश्मीर फाइल्स’ सफल रही, वह भी इसलिए सफल हो पाई क्योंकि भाजपा के सारे पदाधिकारियों ने अपनी जेब से पैसे खर्च कर इस फिल्म के टिकट खरीद कर दर्शकों को मुफ्त में बांटे. अब आप इसे यह भी कह सकते हैं कि यह फिल्म सरकार ने लोगों को मुफ्त में दिखाई.

वर्ष 2024 की शुरुआत से अब तक प्रोपगंडा व सत्तापरस्त एजेंडा वाली कई फिल्में आईं, जिन में से ‘मैं अटल हूं’, ‘ फाइटर’, ‘आर्टिकल 370’ जैसी फिल्मों को दर्शक नहीं मिले. यहां तक कि एक मार्च को प्रदर्शित 150 करोड़ की लागत में बनी एजेंडे वाली फिल्म ‘औपरेशन वैलेंटाइन’ बौक्सऔफिस पर सिर्फ 9 करोड़ रुपए ही कमा सकी.

फिल्म ‘रजाकार: साइलैंट जीनोसाइड औफ हैदराबाद’

चुनाव से पहले ही फिल्मकार याता सत्यनारायण की फिल्म ‘रजाकार: साइलैंट जीनोसाइड औफ हैदराबाद’ प्रदर्शित होगी, जिस का ट्रेलर हाल में कंगना रनौत ने रिलीज किया. इस फिल्म में मकरंद देशपांडे, राज अर्जुन, बौबी सिम्हा, वेदिका और अनुप्रिया त्रिपाठी की अहम भूमिकाएं हैं.
इस फिल्म की कहानी 1947 की पृष्ठभूमि में हैदराबाद के भारत में विलय में हो रही देरी के समय निजाम और रजाकार समुदाय द्वारा हिंदुओं की सामूहिक नरसंहार की कथा है. बाद में सरदार पटेल के प्रयासों से हैदराबाद का भारत में विलय संभव हो पाया था. ट्रेलर से स्पष्ट हो जाता है कि इस फिल्म का मुख्य एजेंडा क्या है.

‘ टू जीरो वन फोर’

2014 में किस के इशारे पर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की कोशिश की गई थी, इस की पड़ताल पर आधारित स्पाई थ्रिलर फिल्म ‘टू जीरो वन फोर’ ले कर श्रवण तिवारी आ रहे हैं, जिस में जैकी श्रौफ का अहम किरदार है. लेखक व निर्देशक श्रवण तिवारी का दावा है कि उन की यह फिल्म सत्य घटनाक्रमों पर आधारित है, तो वहीं वे इसे काल्पनिक कथा भी बताते हैं.
निर्देशक श्रवण तिवारी कहते हैं, “2014 में जब गुजरात के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया जाता है, तब उन्हें रोकने के लिए पाकिस्तानी आतंकवादी, कुछ विदेशी सीक्रेट एजेंटों ने मिल कर उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की थी. उसी की पड़ताल हमारी यह फिल्म करती है.”

फिल्म ‘ऐक्सिडैंट और कौंस्पिरैंसी : गोधरा’

2002 के गोधरा कांड पर आधारित फिल्म ‘ऐक्सिडैंट और कौंस्पिरैंसी : गोधरा’ नामक फिल्म का निर्माण ओम त्रिनेत्र फिल्म्स के बैनर तले किया गया है. इस में भाजपा के पूर्व विधायक हितु कनोडिया, भाजपा समर्थक अभिनेता मनोज जोशी के साथ ही कई दूसरे कलाकार हैं. फिल्म के निर्देशक एम के शिवाकश का दावा है कि उन की यह फिल्म सत्य घटनाक्रमों और नानावती मेहता कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित है. उन का दावा है कि वे अपनी इस फिल्म के माध्यम से हर इंसान को सच से परिचित कराना चाहते हैं.

 ‘द साबरमती रिपोर्ट’

गोधरा कांड पर ही रंजन चंदेल निर्देशित फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ 3 मई को प्रदर्शित होगी. इस के लेखक असीम अरोड़ा, अर्जुन भांडे गांवकर और अविनाश सिंह तोमर हैं. यह फिल्म 27 फरवरी, 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग में 59 लोगों की मौत होने के घटनाक्रम पर आधारित है.
निर्देशक रंजन चंदेल का दावा है कि उन की फिल्म गोधरा कांड में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि है. फिल्म के ट्रेलर में दिखाया गया है कि फिल्म में किस तरह टीवी चैनल के एंकर को अपनी खबर पढ़ते समय रोक कर नए तरीके से खबर पढ़ने के लिए कहा जाता है. इस फिल्म में विक्रम मैसे व राशि खन्ना की अहम भूमिकाएं हैं.

फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’

कन्नन अय्यर निर्देशित और सारा अली खान, अलैक्स ओनीर, इमरान हाशमी व अभय वर्मा के अभिनय से सजी फिल्म ‘ऐ वतन मेरे वतन’ हाल ही में रिलीज हुई. यह कहानी 1942 के विश्व युद्ध के समय एकता का संदेश देने वाली उस लड़की की है, जिस ने भूमिगत रेडियो स्टेशन शुरू किया था तथा ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ रोमांचक लड़ाई शुरू की थी.

फिल्म ‘इमरजैंसी’

अभिनेत्री व निर्मात्री कंगना रनौत ने फिल्म ‘इमरजैंसी’ बनाई है. इस में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किरदार खुद कंगना रनौत ने ही निभाया है. इस ऐतिहासिक ड्रामा फिल्म की कहानी भी कंगना ने लिखी है, जिस पर रितेश शाह ने पटकथा लिखी है. कंगना रानौत निर्देशित इस फिल्म की कहानी 1975 के आपातकाल पर है. इस फिल्म में अनुपम खेर, श्रेयस तलपड़े, मिलिंद सोमन और महिमा चौधरी की भी अहम भूमिकाएं हैं.

‘बस्तर’

फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ फेम फिल्मकार सुदीप्तो सेन ने इस बार नक्सलवाद पर आधारित फिल्म ‘बस्तर’ बनाई है. इस फिल्म की कहानी के केंद्र में छत्तीसगढ़ की नक्सलवाद की वास्तविक घटनाएं हैं. इस के ट्रेलर में एक पुलिस अफसर को केंद्रीय गृहमंत्री पर नक्सलियों द्वारा 76 पुलिस वालों की हत्या का दोष मढ़ते हुए दिखाया गया है. यह फिल्म पुलिस अफसर कम्युनिस्टों को जड़ से उखाड़ फेंकने की भी बात करती है. इसी बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस फिल्म का मुख्य एजेंडा क्या है. इस फिल्म में अदा शर्मा, इंदिरा तिवारी, यशपाल शर्मा और राइमा सेन की अहम भूमिकाएं हैं.

फिल्म ‘स्वतंत्र वीर सावरकर’

‘स्वतंत्र वीर सावरकर’ की कहानी हिंदुत्व की बात करने वाले स्वतंत्रता सेनानी और सुधारक विनायक दामोदर सावरकर की जीवनी है. हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा हिंदुत्व को विकसित करने का श्रेय भी वीर सावरकर को ही जाता है.
रणदीप हुड्डा निर्देशित इस फिल्म में वीर सावरकर की मुख्य भूमिका में रणदीप हुड्डा खुद हैं. इस फिल्म में अंकिता लोखंडे, अपिंदर दीप सिंह और अमित सियाल की भी अहम भूमिकाएं है. पहले इस फिल्म का निर्देशन महेश मांजरेकर कर रहे थे, पर रणदीप हुड्डा जिस एजेंडे के साथ बनाना चाहते थे उस से महेश मांजरेकर सहमत नहीं थे. इसलिए महेश मांजरेकर की जगह रणदीप हुड्डा खुद निर्देशक बन गए.

फिल्म के टीजर व ट्रेलर से स्पष्ट होता है कि यह अति विवादास्पद फिल्म है, जिस में इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया है. टीजर में दिखाया गया कि सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर की विचारधारा के समर्थक थे. इस का विरोध सुभाष चंद्र बोस के पोते कर चुके हैं. फिल्म के ट्रेलर में वीर सावरकर बने रणदीप हुड्डा कहते हैं कि- ‘कभी आप ने सोचा है कि किसी कांग्रेसी को काला पानी की सजा क्यों नहीं मिली?’ इस से एहसास होता है कि इस फिल्म का मूल एजेंडा क्या है.

इतना ही नहीं, आरएसएस ने भी कुछ फिल्में गुप्त रुप से बनवाई हैं जो कि अप्रैल माह में प्रदर्शित होंगी. इन में से‌ एक फिल्म डाक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने निर्देशित की है.
इस तरह देखें तो जो फिल्में चुनाव से पहले प्रदर्शित होने वाली हैं वे सभी सरकारपरस्त एजेंडा वाली मगर सभी तात्कालिक फिल्में हैं. ये सभी भाजपा सरकार की नीतियों, उस की सोच, विचार से युक्त फिल्में है. मगर हकीकत यह है कि इन फिल्मों का व्यापक प्रभाव नहीं पड़ने वाला क्योंकि ‘एनिमल’ या ‘बारहवीं फेल’ जैसी कमर्शियल फिल्मों के आगे दक्षिणापंथियों का सारा व्याकरण असफल हो जाता है.

आज दक्षिणापंथी फिल्मकार व कलाकार बहुत अग्रैसिव हो कर सोशल मीडिया पर अपनी बातें जरूर कर रहे हैं जबकि स्वतंत्र विचारधारा के फिल्मकार व कलाकार खामोश व सहमे हुए हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के कारण दक्षिणापंथी फिल्मकार प्रोपगंडा व सरकारपरस्त फिल्में बना रहा है, लेकिन, हकीकत में वह सिनेमा नहीं बना रहा है. इसलिए यह सिनेमा याद नहीं रखा जाएगा.

 

दुनियाभर में मशहूर है लखनऊ की चिकनकारी

शहर लखनऊ न सिर्फ अपनी तमीज-तहज़ीब और मीठी जुबान के लिए मशहूर है, बल्कि अपनी चिकनकारी के लिए भी विश्वविख्यात है. विदेशी पर्यटक लखनऊ आएं और हजरतगंज, अमीनाबाद व चौक की गलियों से चिकेन के सूट, साड़ियां, दुपट्टे, लहंगा-चोली, अनारकली, प्लाजो, जेंट्स शर्ट और कुर्ते, चादरें, पिलो कवर, लैंप शेड, सोफा कवर, मेजपोश, आदि खरीद कर न ले जाएं, ऐसा हो नहीं सकता. लखनऊ घूमने के लिए आने वाला व्यक्ति चिकनकारी से सजे परिधान अवश्य खरीदता है. इस की दो वजहें हैं – एक तो यह कढ़ाई बेहद खूबसूरत होती है और दूसरा इन परिधानों की कीमत की रेंज बहुत व्यापक है. 500 रुपए से ले कर 3 लाख रुपए तक के चिकनवर्क के परिधान आपको लखनऊ में मिलेंगे और यहां आप अपनी जेब के अनुसार शौपिंग कर सकते हैं.

लखनऊ चिकेन की कढ़ाई का गढ़ है. पारम्परिक तौर पर यह कढ़ाई सफेद धागे से सफेद मलमल या सूती कपड़ों पर की जाती थी. मगर समय के अनुसार धीरेधीरे यह रंगीन कपड़ों पर भी होने लगी. अब तो प्रिंटेड कपड़ों पर भी कशीदाकारी होने लगी है. सूती और मलमल के अलावा जार्जेट, शिफौन और रेशमी कपड़ों पर होने वाली चिकनकारी देखने वालों की आंखें चौड़ी कर देती है.

चिकेन या चिकिन शब्द फारसी भाषा से आया है जिस का मतलब है कपड़े पर कशीदाकारी. माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में मुगल बादशाह जहांगीर की बेगम नूरजहां तुर्क कशीदाकारी से बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने उस विधा को तुर्क काशीदाकारों से यहां की महिलाओं को सिखवाया. तभी से भारत में चिकनकारी कला का आरंभ माना जाता है. जहांगीर भी इस कला से खासे प्रभावित रहे और उनके संरक्षण में यह कला खूब फलीफूली. उन्होंने इस कला को सिखाने के लिए कई कार्यशालाएं बनवायी. उस वक्त मलमल के कपड़े पर यह कढ़ाई होती थी, क्योंकि मलमल का कपड़ा बहुत मुलायम और गर्मी में सुकून देने वाला होता है. लखनऊ के चिड़ियाघर में बने म्यूजियम में आज भी लखनऊ के नवाबों द्वारा पहने गए चिकेन वर्क के कुर्ते काफी सहेज कर रखे गए हैं. उन मरदाना कुर्तों के ऊपर की गई कढ़ाई देख कर आप पलकें झपकाना भूल जाएंगे.

मुगल काल के पतन के बाद 18वीं और 19वीं शताब्दी में चिकनकारी के कारीगर पूरे भारत में फैल गए और उन्होंने चिकनकारी के कई केंद्र खोल दिए. इन में से लखनऊ सब से महत्वपूर्ण केंद्र था जबकि दूसरे नंबर पर अवध का चिकनकारी केंद्र आता था. उस समय ईरान का अमीर बुरहान उल मुल्क अवध का गवर्नर था. वह भी इस कला का बहुत मुरीद था. बुरहान उल मुल्क ने इस कला को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

सिने परदे पर पुरानी हीरोइनों ने चिकन वर्क के कुर्ते, दुपट्टे और लहंगा आदि पहन कर इस की कद्र बढ़ाई. चूंकि इस में हलकी कढ़ाई से ले कर बहुत हेवी कढ़ाई तक मिलती है, लिहाजा बड़ेबड़े ब्रैंड और कंपनियों ने इन कपड़ों से अपने शोरूम्स सजाए और इस को ऊंचाइयां दीं. लखनऊ चिकनकारी को राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में बौलीवुड तथा लिबास बनाने वाली छोटी कंपनियों का बहुत योगदान रहा है.

आप को जानकार हैरानी होगी कि लखनऊ की इस कशीदाकारी में लगभग 36 तरह की कढ़ाई का इस्तेमाल होता है. सब से पहले कपड़े पर हलके नीले रंग छापे वाले लकड़ी के ब्लौक से डिजाइन छापा जाता है, फिर लिबास के अनुसार कपड़े की कटिंग होती है. फिर यह पीस उन महिलाओं के पास भेजे जाते हैं जो चिकनकारी में माहिर हैं.

आमतौर पर यह कढ़ाई महिलाएं ही करती हैं. वे डिजाइन छपे कपड़े को छोटे लकड़ी के फ्रेम में लगा कर डिजाइन के अनुसार सफेद धागे से कढ़ाई करती हैं. कढ़ाई में वे पैटर्न के अनुसार अनेक प्रकार के टांकों का इस्तेमाल करती हैं जैसे – मकड़ा, कौड़ी, हथकड़ी, साज़ी, करण, कपकपी, धनिया पत्ती, जोड़ा, मुर्री, जाली, टेपची, बखिया, जंजीरा, हूल, फंदा, रहत, कील कंगन, खाटुआ और बुलबुल सिलाई आदि. इस में मुर्री और जाली का काम सब से उम्दा होता है और खूब पसंद किया जाता है. असली चिकनकारी वही है जिस में मुर्री और जाली का काम दिखता है. इस के अलावा शैडो वर्क बहुत आम है. लखनऊ चिकनकारी की प्रमुख विशेषता है कि हर सिलाई पूरी निपुणता के साथ की जाती है और इस तरह की नजाकत और कहीं मिलना मुश्किल है. हाथ से की हुई महीन और कलात्मक कढ़ाई लिबास को एक अलग ही रूप देती है.

कढ़ाई के बाद हर पीस को पानी में डाल दिया जाता है ताकि छपाई का नीला रंग निकल जाए, फिर दरजी इन को कुर्ता, शर्ट, लेडीज सूट, लहंगा के रूप में तैयार करते हैं. बाद में इन तैयार कपड़ों पर जरूरत के हिसाब से कलफ चढ़ाया जाता है, जो चिकन के कपड़ों और खासकर कड़क लखनवी कुर्तों की खासियत हैं.

लखनऊ चिकनकारी कला पर ईरानी सौंदर्य शास्त्र का गहरा प्रभाव है. इस के डिजाइन में फूलों और बेलों के पैटर्न, पत्तियां, गुलबूटे, जालियां ईरानी कला का दर्शन कराती हैं. इन्हें बनाने की शैलियां फैशन के चलन के साथ भले बदलती रहीं मगर कढ़ाई की जटिलता और नजाकत जस की तस है.

पुराने समय में में चिकनकारी सफेद धागे से बनाए गए मलमल या सामान्य सूती कपड़े पर की जाती थी लेकिन समय के साथ इस में हल्के रंगों और फ्लोरेसेंट का समावेश हो गया. चिकनकारी अब रेशम, शिफौन, जारजट, नेट, महीन कपड़ा, कोटा, डोरिया, आर्गेंजा, कौटन और पौलिएस्टर मिले कपड़ों पर भी होने लगी है. मगर कपड़ा जितना हल्का और मुलायम होता है, कशीदाकारी उतनी ज्यादा उभर कर आती है. क्योंकि चिकन वर्क महिलाएं सिर्फ हाथ से करती हैं इसलिए कपड़े का हल्का और मुलायम होना अच्छा होता है. इस पर कढ़ाई आसानी से हो जाती है और कारीगरी भी अलग ही नजर आती है.

लखनऊ चिकन की किस्में पहले जितनी होती थीं आज उस से कहीं ज्यादा हो चुकी हैं. शहर के आम लोगों, उच्च वर्ग और बौलीवुड तथा हौलीवुड की हस्तियों में इन की बहुत मांग है. ज्योग्राफिकल इंडिकेशन रजिस्ट्री ने लखनऊ चिकन को दिसंबर 2008 में जी.आई. का दर्जा दिया था.

चिकनकारी उद्योग में आज ढाई लाख कारीगर काम करते हैं जो भारत में कारीगरों का सब से बड़ा जमावड़ा है. यह वह कारीगर हैं जो रजिस्टर्ड हैं, इन के अलावा बहुत बड़ी संख्या उन महिलाओं की है जो गांवदेहात में बैठ कर बहुत कम पैसे में यह कसीदाकारी करती हैं. यह संख्या लाखों में है मगर कहीं दर्ज नहीं है.

इन महिलाओं को बहुत कम पैसा देकर छोटे ठेकेदार और कपड़ा व्यवसाई कपड़ों पर चिकनकारी करवाते हैं और फिर उन्हें बड़े शहरों के मार्किट में ले जा कर बेचते हैं. लखनऊ का चौक इलाका चिकनवर्क के कपड़ों से भरा हुआ है. यहां आप को 500 रुपये में बढ़िया कसीदाकारी वाली जेंट्स शर्ट, लेडीज कुर्ता या सूट बहुत आसानी से मिल जाएगा, वहीं हजारों रुपये मूल्य के भारीभरकम कढ़ाई वाले पार्टी वेअर भी मिलेंगे. अनेक व्यवसायी चौक और अमीनाबाद की मार्किट से कम रेट में सूटपीस और जेंट्स शर्ट, कुर्ते वगैरा थोक में खरीद कर दिल्ली और मुंबई के बाजारों तक पहुंचाते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं. जो पीस ये व्यापारी हजारपांच सौ रुपये में लखनऊ से लाते हैं वह दिल्ली की मार्केट में दोढाई हजार में बड़ी आसानी से बिक जाता है. लाजपतनगर सेन्ट्रल मार्किट, सरोजिनी नगर मार्किट, दिल्ली हाट, करोल बाग, हवाई अड्डा, रेलवे स्टेशन आदि पर चिकनवर्क की दुकानें बहुतायत में दिखाई देती हैं. गर्मी के मौसम में हल्का हल्का रंग, हल्काहल्का कपड़ा और उस पर खूबसूरत कशीदाकारी शरीर और रूह दोनों को सुकून देती है.

क्लासिक गानों की रीमिक्स और बेकार हुए संगीतकार

पिछले दिनों सिंगर इला अरुण ने फिल्म ‘क्रू’ के ‘चोली के पीछे क्या है…’ गाने की रीमिक्स पर काफी नाराजगी जताई और कहा कि ‘आप भले ही मुझे बूढ़ा कह सकते हैं, लेकिन ओरिजिनल गाना हर किसी के दिल को छूने वाला रहा है. यही वजह है कि इस का रीमिक्स किया गया है. असल में इला अरुण ने सुभाष घई की वर्ष 1993 की फिल्म ‘खलनायक’ का मूल गाना ‘चोली के पीछे क्या है…’ गाया था, जिस में माधुरी दीक्षित और नीना गुप्ता थीं.

इला की नाराजगी

इला अरुण ने फिल्म ‘क्रू’ के लिए अपने फेमस गाना ‘चोली के पीछे क्या है…’ के रीक्रिएशन से दुखी हैं. नए ट्रैक में करीना कपूर हैं जबकि सुभाष घई की 1993 की फिल्म ‘खलनायक’ के ट्रैक में माधुरी दीक्षित व नीना गुप्ता थीं. उन्होंने कहा कि म्यूजिक लेबल टिप्स ने गाने के लौंच से ठीक पहले उन्हें फोन किया और उन का आशीर्वाद मांगा.

अंतिम क्षण में उन्हें आशीर्वाद देने के अलावा और क्या कर सकती थी, मैं अवाक रह गई. लेकिन उन से यह नहीं पूछ सकी कि आप ने ऐसा क्यों किया? आगे इला ने यह भी कहा है कि नए संगीतकारों को नई पीढ़ी के लिए, क्लासिक्स गाने की रीमिक्स के बजाय ओरिजिनल, ऊर्जावान और सशक्त गीत बनाने चाहिए, जो युवा पीढ़ी को पसंद आएं. यहां तक कि डीजे भी सभी क्लासिकल गानों को दोबारा बना कर उन्हें खराब कर देते हैं.

इस गाने को इला और अलका याग्निक ने ओरिजिनल ट्रैक में अपनी आवाज दी थी. इसे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने कंपोज किया था और आनंद बख्शी ने लिखा था. इसे सरोज खान ने कोरियोग्राफ किया था, जबकि नए गाने को अक्षय और आईपी ने रीमिक्स किया है, जिसे दिलजीत दोसांझ और आईपी सिंह ने गाया है और आईपी सिंह ने लिखा है. फराह खान ने इस ट्रैक को कोरियोग्राफ किया है. गाने में करीना एक नाइट क्लब में गुलाबी रंग के आउटफिट में गाने पर थिरकती और लिप-सिंक करती नजर आ रही हैं.

उठते रहे कई और विवाद

यह सही है कि आएदिन पुराने चर्चित गानों को ले कर रीमिक्स करने पर विवाद उठते रहे हैं. गायिका नेहा कक्कड़ ने भी कई रीमिक्स गानों मे अपनी आवाज दी है. नेहा कक्कड़ का ‘ओ सजना…’ जब से रिलीज हुआ, तो उन्हें जम कर ट्रोल किया गया, क्योंकि यह गाना सिंगर फाल्गुनी पाठक के आइकौनिक गाने ‘मैं ने पायल है छनकाई…’ का रीमिक्स वर्जन है. नेहा कक्कड़ का गाना जैसे ही रिलीज हुआ, यूजर्स से ले कर फाल्गुनी पाठक तक ने उन पर इस गाने को ‘बरबाद’ करने का आरोप लगाया. इस के जवाब में नेहा कक्कड़ ने कहा कि लोग उन की खुशी देख कर परेशान है.

इस सभी सिंगर की नाराजगी में म्यूजिक कंपोजर ए आर रहमान ने भी कहा है कि मैं जितना अधिक इन रीमिक्स को देखता हूं, उतना ही अधिक खराब लगता है. खुद को संगीतकार कहलाए जाने वाले नए जमाने के कंपोजर क्लासिक संगीत को खराब कर रहे हैं, साथ ही, वे यह भी कह रहे हैं कि वे इन क्लासिक गीतों को री-इमेजिन कर रहे हैं. मेरा उन से पूछना है, वे होते कौन हैं री–इमेजिन करने वाले? मैं किसी के काम को जब प्रयोग करता हूं, तो सावधानी बरतता हूं, क्योंकि यह एक ग्रे एरिया है, जिसे सुलझाने की जरूरत है.

चलन रीमिक्स का

यह सही है कि इन गानों का आज बहुत अधिक चलन भी हो चुका है और फिल्मों मे भी इन गानों को ग्लैमरस तरीके से फिल्माया जाता है, जिसे युवा पीढ़ी पसंद करती है, लेकिन वे इन गानों के ओरिजिनल सिंगर को नहीं पहचान पाते, क्योंकि क्लासिक गाने की केवल ट्यून को ले कर कई बार उस में दूसरे शब्दसंग्रह का प्रयोग कर लिया जाता है और आज के यूथ, रीमिक्स गाने वाले को ही उस गायक कलाकार की आवाज मान बैठते हैं और यह ओरिजिनल गायकों के लिए असम्मानजनक होता है. आइए जानते हैं रीमिक्स है क्या?

रीमिक्स के तरीके

रीमिक्स किसी मूल गीत का नया संस्करण है, जिसे कलाकार एक नए तरीके से वाद्य और गायन ट्रैक को फिर से व्यवस्थित कर के बनाते हैं. गायिका और कंपोजर सोमा बनर्जी रीमिक्स के बारे में बताती हैं कि किसी भी पौपुलर गाने को पहले चुन लिया जाता है, इस के बाद ओरिजिनल गाने की ट्यून को हटा कर उसी सिंक और उसी फ्लो के आधार पर नई ट्यून को क्रिएट कर रिदम को बदल दिया जाता है.

इस के बाद उस गाने का न्यू लुक तैयार किया जाता है. जिन लोगों का म्यूजिक सैंस अच्छा है, वे एक अच्छा रीमिक्स बना सकते हैं, लेकिन कोई अनाड़ी जब इसे बनाने की कोशिश करता है तो डिजास्टर हो जाता है.

बेकार हो रहे हैं कंपोजर

आज कंपोजर के पास कोई काम नहीं है, क्योंकि उन्होंने पहले से गाने को कंपोज़ कर रखा है. इस में वे ट्यून को बदल नहीं रहे हैं बल्कि उस में कुछ नया जोड़ रहे हैं. इसे नया रूप देने वाले अरेंजर ही होते हैं. नएनए साउंड को ले कर छानबीन करने वाले अरेंजर ही इसे अधिकतर करते हैं. संगीत निर्देशक अगर अरेंजर है, तो सोने पर सुहागा होता है.

नई तकनीक का चतुराई से प्रयोग

रीमिक्स करने वाले सभी अरेंजर एक या दो व्यक्ति की सहायता से ‘कीबोर्ड’ की सहायता से करते हैं क्योंकि फिल्म ‘रौकी और रानी’ की प्रेमकहानी में ‘अभी न जाओ…’ गीत को धर्मेंद्र और शबाना आजमी के लिए गाया गया था, जो एक अलग गाना रहा. सोमा कहती हैं कि पहले उस की ट्यून अलग थी, लेकिन अभी रीमिक्स की वजह से उस का इन्सट्रूमेंशन बदल चुका है.

इस की अरेंजमेंट प्रीतम ने किया है, जबकि इस के गीतकार साहिर लुधियानवी, संगीतकार जयदेव हैं और इसे गाने वाले मोहम्मद रफी व आशा भोंसले हैं. यहां उसी गाने को मैं ने और अनुपम ने गाया है, क्लासिक लोगों के नाम कैप्शन पर जा रहे हैं, लेकिन प्रीतम अपनी काबिलीयत को इस गाने के जरिए दर्शा रहे हैं. इस प्रकार आवाज और अरेंजमेंट दोनों ही पूरी तरह से बदल गया है और इस गाने ने नए वस्त्र पहन लिए हैं. फिल्म ‘क्रू’ में भी सभी पुराने गानों को रीमिक्स कर नया रूप दिया गया है.

नया गाना बनाना भी हुआ आसान

अब अकेला व्यक्ति भी इस टैक्नोलौजी के इस्तेमाल से कंपोजीशन तैयार करने के साथ मोबाइल फोन की एप्लीकेशन के जरिए रिकौर्डिंग कर सकता है. उस रिकौर्डिग में भी अब सिर्फ लीड पर्सन के अलावा बाकी सौफ्टवेयर से कंपोज किया जाता है. लाइव म्यूजिक रिकौर्डिग कौन्सेप्ट पीछे छूटते हुए अब लेटेस्ट सौफ्टवेयर रिकौर्डिंग को डैवलप और प्ले कर रहे हैं. ये सब इंटरनैट पर यूट्यूब और सोशल नैटवर्किग साइट्स से मिलने वाली सुविधाएं हर किसी के दायरे में आने से काम आसान होने लगा है. साउंड कार्ड की सहायता से टेपलेस इस्तेमाल ने वर्कलोड आसान करने के साथ एक्सपैरिमैंट पर जोर दिया है.

पहले वर्चुअल इंस्ट्रूमेंट टैक्निक (वीएसटी) सिर्फ वैस्टर्न इंस्ट्रूमेंट को ही सपोर्ट करते थे, पर अब इंडियन इंस्ट्रृमेंट जैसे तबला, तानपूरा, हारमोनियम में भी मददगार साबित हो रहे हैं. वैस्टर्न में आए सौफ्टवेयर इंटरनैट के माध्यम से सौफ्टवेयर डाउनलोड किए जा रहे हैं. इंस्ट्रूमेंट्स से कनैक्ट होने के बाद वे सिंगल कंप्यूटर प्रोसैस करते हैं. इस में कंप्यूटर के सहयोग से अलगअलग साउंड इफैक्ट क्रिएट होते हैं, जिस से कंपोजर को इफैक्ट में वैरायटी मिलते हुए कंपोजीशन तैयार करने में मदद मिलती है.

गिटार के लिए गिटार रिग 5, एंप्लीत्यूब, कैबिनैट इंपल्स लोडर प्रमुख सौफ्टवेयर हैं. वहीं सिंथेसाइजर में प्रोपैलर हैड रीजन, नेटिव इंस्ट्रूमेंट, ट्रक्टर प्रो, कांटेक्ट है. रिदम के लिए नेटिव इंस्ट्रूमेंट बैटरी, टून ट्रैक, सुपीरियर ड्रमर, ईजी ड्रमर और एडिटिव ड्रमर प्रमुख सौफ्टवेयर हैं. आईफोन में भी तबला और हारमोनियम होता है, अब रियाज करने के लिए किसी को तबला, हारमोनियम या कोई वाद्ययंत्र खरीदने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि अब आईफोन के एप्स और एंड्रायड एप्लीकेशन में तानपूरा, तबला तरंग, स्वर पेटी आदि सभी रागों का साथ मिल जाता है.

एक नया ट्रैंड रीमिक्स का

आजकल एक नया ट्रैंड भी रीमिक्स में आ चुका है, जिस में एक नया लिरिक्स लिखा जाता है, उस में ओरिजिनल ट्यून से हट कर नए ट्यून में जा कर फिर ओरिजिनल सुर में आना पड़ता है. हुक लाइन पुराने गानों से ही लेते हैं, क्योंकि कुछ नया क्रिएट करना अरेंजर के वश में नहीं होता, मसलन फिल्म ‘रौकी और रानी की प्रेमकहानी’ में ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में…’ में व्हाट झुमका? को गाने में लाना इसी प्रकार का प्रयोग है. जिस में ओरिजिनल गाने से हट कर यह प्रयोग हुआ है.

ऐड वर्ल्ड में यह काफी दिनों से चल रहा है, जिस में गाना पुराना होता है, लेकिन गवाया किसी नए से जाता है और वीडियो नया बनाया जाता है. इस में ओरिजिनल सिंगर को पूरी तरह से नजरअंदाज किया जाता है, जो बहुत गलत हो रहा है. यह सब काम मशीन से होता है, संगीत निर्देशक अब म्यूजिक प्रोड्यूसर हो चुके हैं. म्यूजिक प्रोड्यूसर में अरेंजमैंट भी आ जाता है. नए युवा खुद को म्यूजिक प्रोड्यूसर ही कहते हैं. वे सबकुछ करते हैं.

आजकल ऐसे प्रसिद्ध संगीत निर्देशक प्रीतम, सलीम सुलेमान, शंकर एहसान लौय आदि सभी ऐसे ही संगीत बना रहे हैं.
ए आर रहमान, संजय लीला भंसाली, अमित त्रिवेदी, हिमेश रेशमिया आदि कई संगीतकार हैं जो रीमिक्स करना पसंद नहीं करते. किसी भी गाने की बंदिश को पौपुलर करने वाले संजय लीला भंसाली हैं और ऐसे संगीतकारों की आज कमी है. यह क्रिएटिविटी इंडस्ट्री के लिए बहुत बड़ा खतरा है.

फिल्म प्रोड्यूसर की होती है डिमांड

 

इसे करने का मुख्य उद्देशय फिल्म प्रोडयूसर ही होते हैं, जो ऐसे गानों को रीमिक्स के लिए बाध्य करते हैं. सालों पहले भी ऐसा प्रयोग फिल्मों के साथ हुआ करता था. हालांकि यह काम आसान नहीं होता, क्योंकि बहुत सारे कानूनी परमीशन उस गाने के प्रयोग के लिए म्यूजिक कंपनी से लेने पड़ते हैं, जिस में गाने की प्रति खरीदनी, कौपीराइट धारक से अनुमति लेनी, लिखित या वौयस रिकौर्डिंग में अनुमति आदि लेनी होती है. बिना अनुमति के रीमिक्सिंग को तकनीकी रूप से ‘बूटलेग’ कहा जाता है और इस के कानूनी परिणाम हो सकते हैं.

 

बाल्टीमोर ब्रिज हादसा पुल के साथ ढहा भारतीय आत्मसम्मान

‘आज व्हाइट हाउस में शानदार स्वागत समारोह में एक प्रकार से भारत के 140 करोड़ देशवासियों का सम्मान है और गौरव है. यह सम्मान अमेरिका में रहने वाले 4 मिलियन (40 लाख) से अधिक भारतीय लोगों का भी सम्मान है.’

ये शब्द पिछले साल 22 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान बेहद गदगद होते हुए कहे थे. इस दिन उन का व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति जो बाइडेन की मेजबानी में राजकीय स्वागत व सम्मान आयोजित किया गया था, जो निश्चित रूप से कई वजहों के चलते नरेंद्र मोदी के लिए एक व्यक्तिगत उपलब्धि वाली बात थी. इस वजह को बहुत संक्षेप में बयां करें तो इसी अमेरिका ने कोई 19 साल पहले नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों का जिम्मेदार और दोषी मानते हुए राजनीतिक वीजा देने से साफ मना कर दिया था.

व्हाइट हाउस में हुए अपने स्वागत को नरेंद्र मोदी ने एक व्यक्तिगत जीत की शक्ल में देखा था और इस सम्मान को 140 करोड़ भारतीयों से जोड़ते हुए एक और भावनात्मक दबाव बनाने की कोशिश की थी, जो कि उन की आदत है. बात आईगई हो गई लेकिन उन का यह कहना व्हाइट झूठ निकला कि यह सम्मान और गौरव भारतीयों का या फिर 40 लाख से ज्यादा अमेरिकी भारतीयों का है. इस झूठ के चिथड़े बीती 28 मार्च को एक बार फिर उड़ते दिखे जब भारतीयों से नफरत प्रदर्शित करता एक नस्लभेदी कार्टून सुर्खियों में आया.

इस कार्टून के पीछे छिपी मंशा और नफरत को समझने से पहले बाल्टीमोर ब्रिज हादसे को समझना जरूरी है. अमेरिका के मेरिलैंड राज्य के बाल्टीमोर शहर में 26 मार्च को डौली नाम का मालवाहक जहाज फ्रांसिस स्कौट के पुल से टकरा गया था जिस से 6 लोगों की मौत हो गई थी. अमेरिका के राष्ट्रगान के रचयिता फ्रांसिस स्कौट मशहूर कवि थे जिन के नाम पर 1977 में यह पुल बनाया गया था. जहाज सिंगापुर का था जो श्रीलंका के लिए रवाना हुआ था. इस में 22 लोग सवार थे और इत्तफाक से सभी भारतीय थे जिन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा था. हालांकि टक्कर इतनी जबरजस्त थी कि लोहे का यह ढाई किलोमीटर लंबा पुल ताश के पत्तों की तरह बिखर गया था. असल में डौली में बिजली की सप्लाई बाधित हो गई थी जिस से उस का इंजन बेकाबू हो गया था और पुल से टकरा गया.

इस हादसे की जांच अभी चल रही है लेकिन चालक दल की तारीफ सभी ने की थी कि उस ने वक्त रहते ट्रैफिक अथौरिटी के अधिकारियों को जहाज के बेकाबू हो जाने की खबर दे दी थी जिस से तुरंत ट्रैफिक रोक दिया गया और दूसरी एहतियात भी बरती गईं, जिस से नुकसान बहुत कम हुआ और कई जिंदगियां भी बच गईं.
हादसे के बाद स्वाभाविक तौर पर तरहतरह की आशंकाएं जताई जा रही थीं जो बेकार साबित हुईं. खुद राष्ट्रपति जो बाइडेन ने माना कि यह एक सामान्य लेकिन भयानक दुर्घटना थी. उन्होंने भारतीय क्रू की सूझबूझ की तारीफ की जिस से बड़ा हादसा होने से बच गया. मेरिलैंड के गवर्नर वेस मूर ने भी क्रू मैंबर्स को हीरो बताया. कोई शक नहीं कि इस के हकदार वे थे भी.

लेकिन फौक्सफोर्ड कौमिक्स कंपनी को यह तारीफ और भारतीयों की सूझबूझ इतनी नागवार गुजरी कि उस ने दूसरे ही दिन सोशल मीडिया प्लेटफौर्म एक्स पर एक कार्टून पोस्ट कर दिया जिस की मंशा भारत और भारतीयों का मखौल उड़ाने की ही थी. इस कार्टून, जिसे पुल से टकराने से ठीक पहले डौली जहाज की रिकौर्डिंग कैप्शन से नवाजा गया, में कुछ भारतीय नाव चलाते दिखाई दे रहे हैं. इन लोगों ने सिर्फ लंगोट पहन रखा है जो कभी परंपरागत भारतीय परिधान हुआ करता था. नाव चलाते भारतीयों के चेहरे से यह परेशानी झलक रही है कि एक बहुत बड़ा खतरा सामने है जिस से निबटने को अब क्या करें.

कार्टूनिस्ट की पूरी कोशिश यह रही कि ये भारतीय असभ्य, आदिमानवों जैसे नंगधड़ंग और गंवार दिखें. इस पर जी नहीं भरा, तो कार्टून में एक वीडियो भी जोड़ दिया गया जिस में ये हिंदुस्तानी गालीगलौच कर रहे हैं. इस कार्टून के बैकग्राउंड में फ्रांसिस स्कौट की ब्रिज से डौली की टक्कर से ढहता हुआ पुल भी दिख रहा है. जैसे ही यह वीडियो वायरल हुआ, यूजर्स की प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गईं जो ज्यादातर आलोचनात्मक ही थीं. लोगों ने इस कार्टून पर एतराज जताया था. महज 2 दिनों में ही इसे कोई 40 लाख लोग देख चुके थे और कोई 4 लाख ने इसे रीट्वीट किया था.

इस नस्लवादी कार्टून पर एक यूजर ने प्रतिक्रिया दी कि यह अपमानजनक है, गवर्नर ने क्रू की तारीफ की है और आप उन्हें इस तरह दिखा रहे हैं. लेकिन भारत के सोशल मीडिया सूरमाओं ने इस बेइज्जती से कोई इत्तफाक नहीं रखा. उन्हें तो रामश्याम, हिंदूमुसलिम और मोदीराहुल से फुरसत ही नहीं मिलती. ये वही लोग हैं जो दिनरात नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे गढ़ते रहते हैं कि उन्होंने विदेशों में देश का सम्मान और स्वाभिमान बढ़ाया है. वे जिस देश में भी जाते हैं वहां के राजनयिक और आम लोग पलकपांवड़े बिछाते स्वागत में बिछ जाते हैं. मोदी जैसा शेर आज तक नहीं पैदा हुआ जो देश को विश्वगुरु बनने की राह पर ले जा रहा है.

इन भक्तों को तो मालूम ही नहीं कि बाल्टीमोर में कब क्या हो गया और कैसे राष्ट्रीय सम्मान व स्वाभिमान के चिथड़े अमेरिका की एक मैगजीन ने उड़ाए. हां, इन होनहारों को यह जरूर मालूम है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर अमेरिका ने एतराज जताया है और वह आजकल खुल कर पाकिस्तान का साथ दे रहा है. इन दोनों मुद्दों पर वे अमेरिका को अपनी अक्ल और जानकारियों के मुताबिक घेर रहे हैं. लेकिन फौक्सफोर्ड कौमिक्स की करतूत पर खामोश हैं क्योंकि उन्हें एहसास और अंदाजा है कि वे 22 भारतीय छोटी जाति वाले ही रहे होंगे, जो यहां से जी नहीं भरा तो अमेरिका अपमानित होने पहुंच गए.
यानी, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का अपना दायरा है जिस में शिप पर काम करने वाले छोटेमोटे लोगों की कोई जगह नहीं है. कोई बड़ा नेता भी कुछ नहीं बोला. एक अर्थशास्त्री संजीव सान्याल, जो प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य हैं, ने जरूर इस हादसे की खबर शेयर की लेकिन वे फौक्सफोर्ड कौमिक्स की हरकत से कतराते ही नजर आए.

यह कोई पहला मौका नहीं था और न ही आखिरी है जब अमेरिका में भारत का मजाक उड़ाया गया हो. साल 2015 में न्यूयौर्क टाइम्स ने क्लाइमेट समिट पर एक कार्टून साझा किया था जिस में एक हाथी ट्रेन के आगे बैठा उसे रोकता नजर आ रहा है. ट्रेन पर क्लाइमेट समिट और हाथी पर भारत लिखा हुआ था.
अमेरिकी भारतीयों से हर स्तर पर नफरत करते हैं, इस का एक उदाहरण वह आंकड़ा है जो इसी साल फरवरी में उजागर हुआ था. इस के मुताबिक, महज 2 महीनों में 5 भारतीय नस्लीय हिंसा का शिकार हो चुके हैं. इन में छात्र, कारोबारी और नौकरीपेशा सभी शामिल हैं. एक मामले में तो एक सुरक्षाकर्मी एक भारतीय युवती को धक्का दे कर खरदूषण जैसे हंस रहा है.

विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स और घटनाएं बताती हैं कि भारतीयों के प्रति नफरत और हिंसा डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद और बढ़ी थीं, जो, जो बाइडेन कार्यकाल में कुछ हद तक काबू हुई थीं लेकिन अब फिर रफ्तार पकड़ रही हैं. अमेरिका के युवा मानते हैं कि जो बाइडेन सरकार भारतीयों को प्राथमिकता देती है. उस ने कोई 125 अहम सरकारी पदों पर भारतीयों को नियुक्ति दी है. अमेरिका के मौजूदा चुनावों के मद्देनजर वहां भी दक्षिणपंथ फिर से हावी हो रहा है और वहां भी मीडिया इस मानसिकता को खूब हवा दे रहा है.

बाल्टीमोर हादसे के दिनों में ही यह दिलचस्प आंकड़ा सामने आया कि अमेरिका में भारतीय वहां की आबादी का लगभग एक फीसदी ही हैं लेकिन वे 6 फीसदी टैक्स देते हैं. वहां का हर छठा डाक्टर भारतीय है और दर्जनों पौलिटीशियंस खासा दखल रखते हैं. लेकिन बात जब सम्मान और स्वाभिमान की आती है तो वे खून का घूंट पी कर रह जाते हैं क्योंकि अहम बात पैसों और कमाई की है जो अमेरिका में कहीं ज्यादा होती है.
पिछले साल अक्तूबर में एक अमेरिकी सांसद रिच मेककार्मिक ने संसद में बताया भी था कि भारतवंशी सालाना 1 लाख 38 हजार डौलर कमाते हैं जबकि अमेरिकी इस से आधा भी नहीं कमा पाते.

डोनाल्ड ट्रंप ने इसे सियासी हथियार और चुनावी मुद्दा भी बना रखा है जिसे ले कर वहां के भारतीय सहमे हुए हैं. फौक्सफोर्ड कौमिक्स जैसी हरकत पर वे कुछ नहीं कर पाते, सिवा नरेंद्र मोदी के 22 जून, 2023 को व्हाइट हाउस में दिए इस भाषण को सुन कर कुढ़ने के कि-
आज व्हाइट हाउस में शानदार स्वागत समारोह में एक प्रकार से भारत के 140 करोड़ देशवासियों का सम्मान है और गौरव है. यह सम्मान अमेरिका में रहने वाले 4 मिलियन से अधिक भारतीय लोगों का भी सम्मान है.

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