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राजू, कुमुद दीदी का इकलौता पुत्र है, बेहद आज्ञाकारी व लाड़ला. पढ़नेलिखने में उस का मन कभी न लगा, सो, पिता ने अपने व्यवसाय में ही उसे माहिर बना दिया. राजू का व्यक्तित्व अब निखर गया था. नीले रंग के सूट में वह खूब जंच रहा था, वैसे उस पर तो कुछ भी जंच सकता था, मां का गोरा रंग, भूरे घुंघराले बाल व पिता की 6 फुट की ऊंचाई उस ने विरासत में जो पाई थी. ‘शादी कब कर रही हो तुम इस की?’ सभी मिलने वालों का एक ही प्रश्न था.

‘हां, कर ही दो शादी. अब तो लड़का काम पर भी लग गया है. कहो तो अपनी चचेरी बहन की ननद से बात चलाऊं,’ शोभा, कुमुद दीदी के पास सरक आई.

‘ऐसी जल्दी भी क्या है? मुझे बहू चाहिए लाखों में एक. लड़की गोरीचिट्टी तो होनी ही चाहिए. तुम्हारी बहन की ननद का रंग तो काला है,’ कुमुद दीदी ने मुंह बिचकाया. शोभा के इस अपमान से पास ही खड़ी शारदा की आंखें चमकने लगीं. वह बोली, ‘कुमुद, मेरी जेठानी की लड़की है. वे लोग तुम्हारा घर भर देंगे. पूरे 25 लाख रुपए नकद देने को तैयार हैं.’ दीदी को यह लुभावना प्रस्ताव भी डिगा न सका. पूछा, ‘लड़की देखने में कैसी है? पढ़ीलिखी कितनी है?’

सुनते ही शारदा का मुंह उतर गया. हौले से बोली, ‘8वीं पास है. लेकिन तुम्हें पढ़ीलिखी लड़की का क्या करना है, नौकरी थोड़े ही करवानी है.’

‘न सही नौकरी, पर दोचार लोगों में उठनेबैठने लायक तो हो. न बाबा न, मुझे लड़की देखपरख कर ही चुननी है.’

ऐसे ही अनेक लुभावने प्रस्तावों को कुमुद दीदी निर्ममता से पैरों तले रौंदती चली गईं. कहीं लड़की का रंग आड़े आ जाता कहीं कदकाठी तो कहीं पढ़ाईलिखाई. कुमुद दीदी को बहू चाहिए थी, सर्वगुणसंपन्न. दिखने में अत्यंत रूपवती, पढ़ीलिखी, घर के कामकाज में माहिर, सिर झुका कर सभी की आज्ञा शिरोधार्य करने वाली. राजू की उम्र आगे सरकती जा रही थी. दीदी की तलाश अभी भी जारी थी. एक दिन मैं ने दीदी को समझाने का प्रयास किया, ‘अब तुम लड़की जल्दी से ढूंढ़ लो. इस अगस्त में राजू 28 साल पूरे कर लेगा. अब देरी ठीक नहीं.’

‘कहां ढूंढ़ लूं? कोई अच्छी लड़की मिलती ही नहीं. लगता है, हमारे यहां लड़कियों का अकाल पड़ गया है. किसी में कुछ नुक्स है तो किसी में कुछ. अब हमें एक ही तो बहू चाहिए. आंखों से देखते हुए मक्खी कैसे निगल लें?’ उत्तर में वे फट पड़ी थीं.

‘क्यों, तुम्हारी सरला चाची की लड़की सुषमा में क्या कमी है? तुम ने पिछली बार उस की कितनी प्रशंसा की थी.’

‘वह तो बड़ी बेशर्म लड़की है. पूरे समय खीखी कर के हंसती रही. किसी का कोई लिहाज ही नहीं. हमें बहू चाहिए, जोकर नहीं.’

मुझ से अब चुप न रहा गया, ‘रूपा को तुम ने चुप रहने पर नापसंद किया था. कहा था कि बहू चाहिए, पत्थर की मूर्ति नहीं. पता नहीं कैसी लड़की पसंद आएगी तुम्हें. कोई जोकर है, कोई पत्थर की मूर्ति तो कोई रेल का इंजन. देखो, देर होने से पहले ही संभल जाओ.’ पर उन्हें समझाने के मेरे सभी प्रयास निष्फल रहे. अब तक राजू की उम्र 30 पार कर चुकी थी.

हार कर मैं ने राजू को ही समझाने का प्रयास किया. परंतु उस ने रुखाई से उत्तर दिया, ‘ये सभी बातें तो मां ही बेहतर समझती हैं. मुझे अपनी पसंद पर कोई भरोसा नहीं है. पता नहीं, लड़की कैसी निकल आए?’ फिर एक दिन गर्व से फूली न समाती कुमुद दीदी मेरे घर आईं. साथ आए नौकर ने फलों से भरी टोकरी और मिठाई का डब्बा मेज पर रख दिया. ‘इस बुधवार को हमारे राजू की सगाई है. हमारी बहू है लाखों में एक. बहुत बड़ा घराना तो नहीं है पर बिटिया है सुंदर, सुशील और समझदार,’ उन्होंने गर्व से घोषणा की. राजू की सगाई धूमधाम से हुई. कुछ समय बाद ही विवाह का न्योता भी मिला. शादी का कार्ड देख कर सभी मुग्ध हो गए. कुमुद दीदी की बहू रिनी वास्तव में ही अत्यंत रूपवती थी. हम सभी ने चैन की सांस ली. राजू के विवाह के तुरंत बाद ही मुझे किसी कारणवश 2-3 महीने बाहर रहना पड़ा. लौट कर आई तो कुमद दीदी से मिलने पहुंच गई. खूबसूरत और हरेभरे लौन की दुर्दशा देख कर एक क्षण को मेरे कदम ही रुक गए. लगा, मानो किसी और ही घर में आ गई हूं. हिम्मत कर के मैं आगे बढ़ी. मैं द्वार पर ही थी कि अंदर से आने वाले स्वरों ने मुझे वहीं ठिठक कर रुक जाने पर बाध्य कर दिया.

‘इस टोकाटाकी से तो मैं तंग आ चुकी हूं. कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? कब तक लौटोगे…? इतना दखल अब बरदाश्त नहीं होता. बेहतर होगा कि अब आप हमारे मामलों में दखल देने के स्थान पर अपने कमरे में ही रह कर कुछ कामधाम करें,’ इस के साथ ही द्वार धड़ से खुल गया. पूरी तरह से आधुनिक, कटे हुए बालों को एक झटका दे कर मेरी ओर देखे बिना रिनी सैंडल खटखटाती तेजी से बाहर निकल गई. निरीह गाय सी खड़ी कुमुद दीदी ने मुझे देख लिया था. इसलिए भीतर जाना ही पड़ा.

‘आओ, आओ. आज बहुत दिनों के बाद आना हुआ. रिनी अभीअभी किसी जरूरी काम से बाहर गई है, नहीं तो वही तुम्हारा सत्कार करती. शायद पहचाना नहीं उस ने तुम्हें,’ फीकी सी मुसकान के साथ वे आवश्यकता से कुछ अधिक ही बोल गई थीं.

फिर रुक कर पूछा, ‘क्या लोगी, ठंडा या चाय?’

घर का हुलिया व उस से बढ़ कर दीदी को देख कर चाय तो क्या, पानी पीने का भी मन न किया. वे भद्दे से रंग की एक फीकी सी साड़ी पहने थीं, जिस का आंचल धूल से सने हुए कालीन पर झाड़ू लगा रहा था. माथे पर लगी सिंदूर की बिंदिया पसीने की बहती धारा के साथ नाकमुंह पर नक्शा बना रही थी. उन के हाथ में झाड़न था. दर्पण सा चमकता दीदी का घर बदलाबदला लग रहा था. जगहजगह धूल की परतें, मकड़ी के जाले व बिखरे वस्त्र. इसी हौल को सजाने में दीदी ने न जाने कितना खर्च आवश्यकता न होने पर भी किया होगा. रसोई नवीनतम उपकरणों से सजी थी. स्नानघर का तो वास्तव में जवाब ही नहीं था. इतने सारे तामझाम के बिना इस परिवार का काम ही नहीं चल पाता था. आज भी दीदी के वैभव में तो कोई कमी नहीं आई थी पर उन की वह शाही तबीयत कहां खो गई?

मैं ने हैरानी से पूछा, ‘नौकर कहां है, दीदी? तुम ने यह क्या हाल बना रखा है?’

‘राम छुट्टी पर है. वैसे रिनी को उस का किया काम पसंद भी नहीं है. कहती है, चार जनों के परिवार में नौकर का क्या काम? बड़ी समझदार लड़की है.’ कुमुद दीदी की बातों से झूठ साफ झलक रहा था.

तभी आंधीतूफान की भांति राजू ने प्रवेश किया. मुझे देख केवल एक फीकी सी मुसकान उस के होंठों पर उभरी. फिर वह सोफे पर बैठ गया.

‘मां, रिनी तैयार है क्या? मुझे आने में थोड़ी देर हो गई. एक मीटिंग में फंस गया था,’ वह लापरवाही से बोला.

‘वह तो बाहर गई, बेटे. तू बैठ, पानी पी ले.’

‘नहीं, आप ने उसे जाने ही क्यों दिया? पता नहीं आटो मिलेगा भी या नहीं. बेचारी धूप में कहांकहां घूमेगी. आप बहुत लापरवाह हैं. मैं भी चलता हूं.’ मुझ से बिना कुछ कहे राजू उठ कर बाहर चला गया. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं भी लौट आई. कुछ दिनों बाद एक विवाहोत्सव में दीदी से फिर भेंट हो गई.

‘बहू नहीं आई क्या?’

‘नहीं, आई है. रिनी, इन से मिलो…’ कुछ दूर खड़ी बहू को उन्होंने पुकारा.

रिनी आई तो नहीं, पर उस का कुछ ऊंचा, अशिष्ट स्वर मेरे कानों में पड़ा.

‘अब किसी से मिलनाजुलना हो तो भी इन की मरजी ही चलेगी. हर बात में अपनी टांग जरूर अड़ाती हैं. पता नहीं, मुझे कब छुटकारा मिलेगा.’

दीदी का मुख अपमान से काला पड़ गया. सभी मेहमानों के समक्ष रिनी से ऐसे व्यवहार की शायद उन्हें आशा न थी. पीछे बजता गाड़ी का हौर्न सुन कर मेरी चेतना लौट आई. दोढाई माह बाद किसी काम से बैंक गई थी कि अचानक एक सतरंगी आंचल ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. देखा तो रिनी थी. बात करने की इच्छा तो नहीं हुई पर कुमुद दीदी का हालचाल पूछने की जिज्ञासा अवश्य थी. इतने में वह स्वयं ही मेरे पास आ खड़ी हुई.

‘‘दीदी कैसी हैं?’’ मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘ठीक हैं. हम लोग कल ही उन से मिल कर आए हैं,’’ कुछ देर इधरउधर की बातें कर वह चली गई.

मैं सोचने लगी, ‘मिल कर आए हैं’ का क्या अर्थ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि दीदी ने वह घर ही छोड़ दिया हो? वैसे भी रिनी और राजू के साथ उन के संबंधों में कड़वाहट आ ही गई थी. किंतु कुमुद दीदी ने जीवन में कभी हार कर पलायन करना नहीं सीखा था. कैसा भी दुख हो, उन्होंने मुंह खोल कर किसी से शिकायत नहीं की थी. सदा परिस्थितियों का डट कर सामना किया था. क्या वे हार मान सकती हैं? विचार थे कि लगाम तोड़ कर इधरउधर भागे ही जा रहे थे. इसी उधेड़बुन में मेरे पैर अनजाने ही कुमुद दीदी के घर की ओर ही मुड़ गए. दरवाजा दीदी ने ही खोला. उन्हें देख कर मैं ने राहत की सांस ली.

‘‘क्या हुआ? बहुत परेशान लग रही हो, अंदर आओ.’’

ये तो वही पुरानी वाली कुमुद दीदी थीं. वेशभूषा वैसी ही गरिमामय, मुख पर फिर वही तेज.

घर का भी कायापलट हो चुका था. बैठते ही नमस्कार कह कर एक नौकर 2 गिलासों में जूस ला कर रख गया.

मेज पर रखी हुई पत्रिकाओं को एक ओर सरकाते हुए कुमुद दीदी ने पूछा, ‘‘हां, आज अचानक कैसे आना हुआ?’’

‘‘सुबह बैंक में रिनी मिली थी.’’

‘‘ओह रिनी, मुझे उसे फोन भी करना था. दरअसल, कल वह अपना कुछ सामान यहां भूल गई थी. सुबह तक ध्यान भी था, फिर कामकाज में व्यस्त हो गई तो याद ही नहीं रहा,’’ दीदी ने जूस का हलका सा घूंट लिया, ‘‘लो न, नहीं तो गरम हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन…रिनी…क्या वे लोग अब यहां तुम्हारे साथ नहीं रहते?’’

कुमुद दीदी ने गहरी सांस ली. फिर बोलीं, ‘‘नहीं. रिनी का स्वभाव तो तुम से छिपा नहीं है. राजू की शादी के बाद हम लोग पूरा व्यापार उसी को सौंप कर निश्चिंत हो गए थे. बस, शायद यहीं से रिनी को यह महसूस होने लगा कि वही घर की मालकिन है. फिर मैं ने भी तो चाबियां उसी को थमा दी थीं. लेकिन हम लोग तो उसे बोझ लगने लगे. राजू भी उसी की सुनता था. ‘‘पिछले दिनों मेरे भानजे का तबादला यहां हो गया था. वह पूरे परिवार को ले कर मिलने आया. मकान मिलने में 2-4 दिन लग ही जाते. अब हमारी कोठी इतनी बड़ी है कि कोई भी महीने, 2 महीने आराम से रह सकता है. उसे रुक जाने को कहा तो रिनी ने ऐसा हंगामा किया कि पूछो मत. हमारी तो छोड़ो, उन लोगों का भी बहुत अपमान किया. तुम्हारे जीजाजी का भी लिहाज न किया. इतने पर भी राजू चुपचाप सुनता रहा.’’

कुमुद दीदी की आंखें भर आईं. उन्हें पोंछ कर दृढ़ स्वर में आगे बोलीं, ‘‘उसी दिन हम ने यह फैसला किया कि राजू और रिनी का अलग हो जाना ही हम लोगों के लिए अच्छा है. उन्हें एक फ्लैट खरीद कर दे दिया है. व्यापार भी धीरेधीरे अलग कर देंगे. असल में रिनी को गलतफहमी ही यही थी कि राजू हमारा इकलौता बेटा है और उस की जुदाई हम शायद सह नहीं पाएंगे. पर अब जब राजू ही पराया हो गया तो उस का क्या मोह करना?’’

‘‘लेकिन रिनी तो कह रही थी कि वे लोग कल यहां आए थे?’’ मैं ने पूछ लिया.

‘‘हां, राजू और रिनी ने बहुत माफी मांगी पर मैं अडिग रही. मेरे लिए वे दोनों अनमोल हैं, किंतु एक बार रस्सी टूट जाए तो जुड़ने पर भी गांठ रह ही जाती है. दूर रह कर पास होना बेहतर है, साथसाथ रह कर दूर हो जाने के लिए और कोई चारा भी नहीं था.’’

‘‘अब हम लोग तीजत्योहारों पर मिलते हैं, कोई खुशी हो या दुख, मिलबांट सकते हैं. सच मानो तो अब हम पहले से अधिक पासपास हैं.’’

दीदी की बातें सुन कर मैं मन ही मन उन के इस निर्णय का अवलोकन करने लगी. शायद, दीदी ने वक्त को देखते हुए सही निर्णय लिया था. अगर अपनों का प्यार बना रहे, फिर दूरी क्या माने रखती है.

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