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मराठवाड़ा का सूखा सुलतानी या आसमानी?

महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाका 1972 के बाद सब से बड़े सूखे की चपेट में है. वहां के लोग बूंदबूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. पिछले 4 सालों से चल रहे सूखे के कारण खेत रेगिस्तान जैसे नजर आने लगे हैं. सूखा तो इन इलाकों में अकसर हर साल ही पड़ता है लेकिन मौजूदा सूखे ने पिछले 4 दशकों का रिकौर्ड तोड़ दिया है. फसलें तबाह होने के चलते किसानों द्वारा आत्महत्याएं किए जाने के कारण मराठवाड़ा सुर्खियों में ज्यादा रहता है.

यहां का लातूर जिला इन दिनों पानी के अकाल के कारण चर्चा में है. यहां पानी का अकाल इस सीमा तक पहुंच चुका है कि सारे देश से रेल के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है. पानी को ले कर ऐसी मारामारी रही कि पानी के लिए यहां धारा 144 लगानी पड़ी. लातूर में पानी का अकाल चरम पर है. लगातार 3 सालों से पड़ रहे सूखे ने किसानों की तो सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, उस पर पानी के जबरदस्त संकट ने इलाके को घेर लिया है. तालाब सूख चुके हैं, हैंडपंप बेकार हो गए हैं. कुओं में पानी नहीं, कुएं की तली दिखाई देती है. मराठवाड़ा की धरती भी प्यासी है और लोग व मवेशी भी प्यासे हैं.

जलाशयों में जल नहीं

मराठवाड़ा के बांधों में पिछले साल जलस्तर 18 प्रतिशत था, इस साल उन में केवल 3 प्रतिशत ही पानी रह गया है. बीड़, लातूर और उस्मानाबाद के बांधों में जलस्तर एक फीसदी से भी नीचे आ चुका है. औद्योगिक इलाके औरंगाबाद में आने वाले कुछ महीनों में पानी बंद हो सकता है. 2014 से इलाके में कम बारिश हो रही है. यह सब देखने पर लगता है कि कोई क्या कर सकता है यह तो प्रकृति के खेल हैं, भुगतने ही होंगे. लेकिन जानकार कहते हैं कि हम प्रकृति को बेकार ही दोष दिए जा रहे हैं. यह विभीषिका आसमानी नहीं, सुलतानी है, प्रकृति निर्मित नहीं, मनुष्य निर्मित है. महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने महाराष्ट्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि सूखा एक रात में आई हुई आपदा नहीं है. राज्य की शिवसेनाभाजपा सरकार इस के लिए तैयारी नहीं कर रही थी. सरकार को सिंचाई पर ज्यादा जोर देना चाहिए. जब तेलंगाना जैसे छोटे राज्य ने अपने बजट में इस मद में 25 हजार करोड़ रुपए रखे हैं तो महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य ने केवल 7 हजार करोड़ रुपए क्यों रखे?

इलाके प्यासे हैं

महाराष्ट्र का अपना सिंचाई का अनुभव कम दर्दनाक नहीं है. महाराष्ट्र देश में सब से अधिक बांध बनाने वाला राज्य है. वहां 1,845 बड़े बांध बने हैं. लेकिन इस के बावजूद महाराष्ट्र के इलाके प्यासे हैं, लोग बूंदबूंद पानी को तरस रहे हैं. इस की वजह यह है कि पहले की सरकारों ने पानी के संसाधनों का इतना अपराधपूर्ण दुरुपयोग होने दिया है कि बांध होने के बावजूद भी मराठवाड़ा जैसे कई इलाके सूखे के शिकार हो रहे हैं. मराठवाड़ा में तो 90 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की कोई सुविधा है ही नहीं. बड़ी संख्या में बांध तो बने लेकिन राजनीतिज्ञों ने वहां बांध बनवाए जहां उन की व उन के अपनों के कारखाने, सहकारी चीनी कारखाने और डेयरी आदि जैसे व्यावसायिक हित थे न कि वहां जहां आम किसानों को लाभ हो सके. बांध बनवाने में क्षेत्रीय संतुलन का खयाल भी नहीं रखा गया.

पानी किल्लत के पीछे घोटाला

गलेगले तक भ्रष्टाचार में डूबे महाराष्ट्र की त्रासदी तब सारे देश के सामने उजागर हो गई जब राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का सिंचाई घोटाला उजागर हुआ. उन पर आरोप है कि उन के कार्यकाल में सिंचाई परियोजनाओं पर 72 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए मगर राज्य की सिंचाई की क्षमता में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. सारा पैसा राजनेता डकार गए. सिंचाई खेतों की नहीं, नेताओं के जेबों की हुई. कई जिलों में भूजलस्तर 1,500-1,600 फुट नीचे तक पहुंच गया है. पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ग्रामीण इलाकों में किसान 1,500 फुट नीचे तक बोरवैल लगा कर पानी खींच रहे हैं जबकि वैधानिक रूप से 300 फुट से नीचे बोरवैल नहीं लगाए जाने चाहिए. लोगों ने करोड़ों रुपए इन बोरवैल्स पर खर्च किए हैं और अरबों रुपयों की बिजली बरबाद की है.

बेमौत दम तोड़ते सपने

सूखे के चलते गांवों में बसने वाले किसानों के सपनों ने बेमौत दम तोड़ दिया है. इन गांवों में से एक है उस्मानाबाद जिले का परांडा गांव. मराठवाड़ा के इस गांव में रहने वाले कोंडिबा जाधव ने सपना देखा था कि गन्ने की पैदावार से वे अपना कर्ज कम करने की कोशिश करेंगे. कोंडिबा के घर का हर सदस्य कुछ न कुछ काम करता है. बेटे दूसरों की खेती पर जा कर मजदूरी करते हैं और भिकाजी अकेले ही अपने खेत में पसीना बहाते हैं. लेकिन इस बार बारिश ऐसी रूठी कि सूखे ने कोंडिबा की सारी फसल बरबाद कर दी. कर्ज कई गुना और बढ़ गया. किसान बाबू काले का कहना है कि 3 एकड़ में उस ने गन्ना लगाया. रिश्तेदारों से कर्ज ले कर बीज, खाद खरीदा. डेढ़ लाख रुपए खर्च कर चांदनी डैम से यहां तक पाइपलाइन डाली. डैम में पानी आया ही नहीं तो पाइपलाइन भी बेअसर रही. पैसे के अभाव में बच्चों की शिक्षा का खर्च पूरा नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्हें स्कूल से निकाल लिया. गन्ने के पैसों से बेटी का ब्याह करने को सोचा था लेकिन फसल आई ही नहीं.

कारण और भी हैं

2 वर्षों के दौरान कम बारिश हुई. मराठवाड़ा जैसे हमेशा ही पानी किल्लत से त्रस्त क्षेत्र में 40 प्रतिशत कम बारिश हुई लेकिन केवल यही मराठवाड़ा के अभूतपूर्व सूखे के संकट की वजह नहीं है. यदि हम सारे राज्य में हुई बारिश के आंकड़ों पर सरसरी नजर डालें तो बारिश की कमी के कारण सूखा पड़ने का तर्क हजम नहीं होता. पिछले वर्ष महाराष्ट्र में 1,300 एमएल (मिलीमीटर) बारिश हुई जो बारिश के राष्ट्रीय औसत 1,100 से ज्यादा है. राज्य के कोंकण जैसे इलाकों में तो 3,000 एमएम बारिश हुई. मराठवाड़ा जैसे सूखाग्रस्त इलाके में औसत 882 एमएम बारिश हुई और विदर्भ में 1,034 एमएम. इस की तुलना बहुत सूखे या राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों से कीजिए जहां आमतौर पर 400 एमएम से ज्यादा बारिश नहीं होती. ऐसे में राजस्थान के हालात उतने बुरे नहीं हैं जितने महाराष्ट्र के हैं.

इस का जवाब केवल इतना ही है कि महाराष्ट्र में जल प्रबंधन के मामले में अपराधपूर्ण लापरवाही की गई. यदि 1958 में महाराष्ट्र बनने के बाद बनी तमाम सरकारों में एक बात कौमन है तो यह कि सभी ने पानी संग्रहण और भूमिगत जलस्तर को बढ़ाने की अहम समस्याओं की घोर उपेक्षा की. यह पानी के बेजा इस्तेमाल का ही नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में भूगर्भ में जलस्तर 20 फुट से 200 फुट तक गिर गया है. जमीन में मौजूद पानी का एक बड़ा हिस्सा सिंचाई और पीने के लिए इस्तेमाल किया गया. लेकिन पानी दोबारा जमीन में कैसे जाएगा, इंसान इस सवाल को ही भूल गया. महाराष्ट्र की भयावह पानी समस्या का एक बड़ा खलनायक है गन्ने की फसल. इस ने महाराष्ट्र का बहुत ही अजीब तरीके से विकास किया. इस ने गरीबी के महासागर में कुछ समृद्धि के द्वीप खड़े कर दिए हैं लेकिन इस समृद्धि का खमियाजा बाकी महाराष्ट्र को भुगतना पड़ रहा है.

महाराष्ट्र के निर्माण के साथ ही राजनीतिज्ञों की छत्रछाया में सहकारी चीनी मिलों की शृंखला पश्चिमी महाराष्ट्र में खड़ी होने लगी थी. धीरेधीरे यह बीमारी राज्य के बाकी इलाकों में भी फैलने लगी. आज महाराष्ट्र में 205 सहकारी चीनी मिलें नेताओं की बिक्री की जागीरें हैं. इस के अलावा 80 प्राइवेट चीनी मिलें हैं. ये सहकारी मिलें नाम के लिए सहकारी हैं, इन में ज्यादातर पर राजनीतिक दलों और खास कर कांगे्रस व शरद पंवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कब्जा है जो सत्तारुढ़ होने के कारण राज्य के सत्ता केंद्रों पर हावी रहे हैं.  वे मनमाना खेल खेलते रहे हैं. गन्ने की फसल की एक सब से बड़ी खासीयत यह है कि यह निरंतर पानी पीने वाली फसल है. इसे 12 महीने कई फुट पानी में रखना पड़ता है. इस का अंदाजा आप इस तथ्य से लगा सकते हैं कि राज्य की 4 प्रतिशत कृषि जमीन पर ही गन्ने की फसल होती है लेकिन उस पर 71 प्रतिशत सिंचित पानी खर्च होता है.

देश में कुल चीनी का 66 फीसदी उत्पादन करने वाले महाराष्ट्र में गन्ने की फसल किसानों के लिए आय का बड़ा जरिया है. लेकिन गन्ने की फसल के लिए पानी ज्यादा लगता है. ऐसे में किसान मुनाफा कमाने के चक्कर में जायजनाजायज हर तरीके से खेती को पानी देता रहता है. खेती के इस रिवाज को बदलने की कोशिश किसी राजनीतिक पार्टी ने नहीं की.

वजह साफ है. सत्ताधारी हो या फिर विपक्षी दल, सभी पार्टियों की आर्थिक रीढ़ यहां की को-औपरेटिव शुगर फैक्टरियां मानी जाती हैं. लेकिन यह स्थिति तो सालोंसाल महाराष्ट्र में मौजूद थी, तो ऐसा क्या हुआ कि इस साल हालात इतने बदतर हो गए? दरअसल, इस का एक बड़ा कारण है सिंचाई घोटाला. महाराष्ट्र में जल आपूर्ति के लिए सिंचाई योजनाएं शुरू तो हुईं लेकिन वे सालोंसाल अधूरी रहीं.

लापरवाह सरकारें, स्वार्थी नेता

यह बात सारी सरकारें जानती थीं तब भी राज्य में चीनी मिलों की संख्या बढ़ती गई. इसे किसी सरकार ने नहीं रोका क्योंकि इन मिलों को चलाने वाले ज्यादातर राजनेता ही हुआ करते थे. पहले चीनी मिलों पर कांग्रेस का ही कब्जा था मगर बाद में विपक्षी राजनेताओं को भी इस का चस्का लग गया. जो भी नामी राजनेता होता वह अपने राजनीतिक साम्राज्य को मजबूत करने के लिए चीनी मिल जरूर बनवाता. इस का सब से बड़ा उदाहरण है कि भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे की भी चीनी मिलें थीं. पहले मिलें केवल पश्चिमी महाराष्ट्र तक ही सीमित थीं, फिर मराठवाड़ा जैसे सूखाग्रस्त इलाके में भी बनने लगीं. यहां अब 70 चीनी मिलें हैं. इन में से 20 तो पिछले 3-4 सालों में ही बनी हैं. इस इलाके में जहां 10 प्रतिशत जमीन ही सिंचित है, वहां गन्ने की फसल की प्यास हैंडपंप से ही पूरी की जाती है. नतीजतन, भूमिगत जलस्तर तली तक पहुंच गया है. वैसे तो भारत और इसराईल के बीच बरसों से बैठकें होती रहती हैं मगर हम कभी इसराईल से सूखे की स्थिति से निबटने की सिंचाई तकनीक कभी नहीं सीखते. इसराईल पानी की भारी किल्लत वाला देश है जिस ने आधुनिक कृषि तकनीकों का प्रयोग कर सूखे पर विजय पाई है. भारत को भी सूखे पर विजय पाने के लिए उन तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए. पर सत्ता के सुलतानों को जनता की फिक्र भला कब रही है.

धर्मगुरुओं की आधी आबादी को हाशिए पर रखने की मंशा

महिलाओं को धार्मिक क्रियाकलापों में व्यस्त रखने के पीछे धर्म के ठेकेदारों की साजिश है ताकि उन की दुकानदारी चलती. आज महिलाएं हर मारेचे पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर न केवल आगे बढ़ रही हैं बल्कि कई मामलों में पुरुषों को पीछे छोड़ भी रही हैं. ऐसे में केरल के सुन्नी मुसलिम नेता कनथापुरम एपी अबूबकर मुस्लीयर ने यह बयान दिया, ‘‘महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं क्योंकि वे केवल बच्चे पैदा करने के लिए होती हैं. औरतों की भूमिका तय है और वे सिर्फ बच्चे पैदा कर उन का लालनपालन करें. महिलाओं में मानसिक मजबूती और दुनिया को नियंत्रित करने की शक्ति नहीं होती क्योंकि यह ताकत पुरुषों में होती है. लैंगिक समानता ऐसी चीज है जो कभी वास्तविकता में तबदील होने वाली नहीं है. यह इसलाम व मानवता के खिलाफ है व बौद्धिक रूप से गलत है.’’

अबूबकर ने आगे कहा कि महिलाओं में संकट की स्थितियों का सामना करने की क्षमता नहीं होती. उन में बड़ी सर्जरी करने की हिम्मत नहीं होती. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या हार्ट के हजारों सर्जनों में एक भी महिला है?’’ कालेजों में लड़के और लड़कियों की सीटें साझा करने की अनुमति पर जारी बहस के संदर्भ में अबूबकर ने कहा, ‘‘यह इसलाम और संस्कृति को खराब करने के सुनियोजित अभियान का हिस्सा है.’’ आधुनिकीकरण के इस युग में समाज बदल रहा है और बहुत तेजी से विज्ञान का विकास हो रहा है. ऐसे में अबूबकर और अन्य धर्मगुरुओं के द्वारा जबतब किए जाने वाले महिला विरोधी बयान महिलाओं के प्रति उन की रुढि़वादी सोच को ही दर्शाते हैं.

महिलाओं के प्रति दोयम भाव

धर्मगुरु तो शास्त्रों को मानते हुए स्त्री को दुर्गा, लक्ष्मी, काली का दरजा देते हैं जहां धर्म के शत्रुओं को उन से मरवाया गया, कोई मेहनत का काम करने की उन्हें प्रेरणा नहीं दी गई. इस के बाद आज धर्मगुरु अपने बेतुके बयानों से आधी आबादी यानी महिलाओं को हाशिए पर रखने का षड्यंत्र रच रहे हैं. शिया मुसलिम धर्मगुरु कल्बे जव्वाद के अनुसार, ‘‘लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उन का काम लीडर पैदा करना है. कुदरत ने महिलाओं को इसलिए बनाया है कि वे अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें.’’ कुछ इसी मानसिकता से त्रस्त आसाराम ने दिल्ली की दिवंगत बलात्कार पीडि़ता को ही गुनाहगार बताते हुए कहा था, ‘‘यदि उस लड़की ने सरस्वती मंत्र का जाप किया होता या उन से दीक्षा ली होती तो वह उस बस में सवार ही न हुई होती.’’ इस से पहले उन्होंने कहा कि यदि उस लड़की ने बलात्कारियों को भाई कहा होता तो वे उस के साथ बलात्कार न करते. साथ ही, एक अन्य आपत्तिजनक बयान भी दे डाला, ‘‘एक हाथ से ताली नहीं बज सकती.’’

भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महाराज ने कहा था, ‘‘हिंदू महिलाओं को अपने धर्म की रक्षा करने के लिए कम से कम 4 बच्चे पैदा करने चाहिए.’’ यानी जो करो धर्म की रक्षा के लिए करो ताकि धर्म की दुकानें चलती रहें. 4 और 5 बच्चे पैदा करने का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ कि बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य वासुदेवानंद सरस्वती ने हैरान करने वाला बयान दिया. उन्होंने हिंदुओं से आह्वान किया वे 10-10 बच्चे पैदा करें. उन के अनुसार ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि हिंदू बहुसंख्यक बने रहें. हाल ही में जयपुर की 2 महिलाओं अफरोज बेगम और जहांआरा ने मुंबई के दारुल उलूम लिस्वान से महिला काजी का 2 वर्षीय प्रशिक्षण लेने के बाद काजी बनने की इच्छा जाहिर की तो मुसलिम संगठन और उलेमा विरोध में उतर आए. उन का कहना था कि महिलाएं काजी बनने की ट्रेनिंग तो ले सकती हैं लेकिन काजी बन नहीं सकती हैं . कहने को शास्त्रों का कथन कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का निवास होता है पर यह केवल बहकाने की बात है. असल में तो हाल ही में शनि श्ंिगणापुर मंदिर में महिलाओं के पूजा करने के अधिकार पर विवाद उठ गया. इस बारे में द्वारकापीठ के शंकराचार्य ने कहा कि अगर महिलाएं शनि की पूजा करेंगी तो उन का अनिष्ट होगा. इस वक्तव्य से एक कदम आगे बढ़ कर अयोध्या के रामलला मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास ने तो यह तक कह दिया कि महिलाओं को किसी भी देवता की पूजा करने से पहले पति की अनुमति लेनी चाहिए क्योकि जो महिलाएं पति की मरजी के बगैर पूजाअर्चना करती हैं वे विधवा मानी जाती हैं.

दक्षिण भारत की एक लोकप्रिय महिला धर्मगुरु ने वेश्यावृत्ति को वैध करने की मांग की है. उन्होंने दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के लिए महिलाओं के पहनावे को जिम्मेदार बताया है. लिंगायत समुदाय की धर्मगुरु माथे महादेवी ने कहा कि रेप के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं और इसलिए वेश्यावृत्ति को कानूनी दरजा दिए जाने का वक्त आ गया है. इस धर्मगुरु ने कालेज में पढ़ने वाली और मल्टीनैशनल कंपनियों में काम करने वाली लड़कियों के चुस्त कपड़े पहनने की भी आलोचना की. उन्होंने कहा कि लड़कियां ऐसा कर के अवांछित तरीके से लोगों का ध्यान खींचती हैं और अपराधियों के निशाने पर आ जाती हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अभिभावकों को अपनी बेटियों को देररात तक घर से बाहर नहीं रहने देना चाहिए. धर्मगुरुओं द्वारा महिलाविरोधी उक्त बयान दर्शाते हैं कि महिलाओं को ले कर उन की सोच खतरनाक रूप से रूढि़वादी और सामंतवादी है. जब कोई धर्मगुरु महिला को सिर्फ बच्चा पैदा करने के काबिल माने तो समझ जाइए कि महिलाओं के प्रति उस की सोच कैसी होगी. कोई इन धर्मगुरुओं से पूछे कि अगर महिला में बच्चा पैदा करने की ताकत नहीं होती तो वे इस दुनिया में कैसे होते? जिस महिला के बल पर वे इस दुनिया में हैं उस की काबिलीयत पर शक करना महिला के प्रति उन के दकियानूसी खयालात को जाहिर करता है.

आधुनिक दौर में महिलाएं नौकरी करने जा सकती हैं, सिनेमा जा सकती हैं, वायुसेना में भरती हो सकती हैं, संसद व विधानसभाओं में प्रवेश पा सकती हैं, यहां तक कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री जैसे वरिष्ठ व अहम पद हासिल कर सकती हैं. ऐसे में धर्मगुरुओं द्वारा महिलाओं की काबिलीयत पर सवाल उठाना और महिलाओं के प्रति उन का दोयम भाव उन की सामंती सोच को ही दर्शाता है और साथ ही दर्शाता है कि वे आज भी महिलाओं के उठनेबैठने, उन के कपड़ों यानी उन की जिंदगी पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. पिछले दिनों काशी विश्वनाथ मंदिर में ड्रैस कोड लागू करने की बात की गई, यहां तक कि विदेशी महिलाओं को भी साड़ी पहन कर ही मंदिर में दर्शन करने पर जोर दिया गया. हालांकि विरोध के बाद इसे हटा दिया गया. ये खबरें महिलाओं के प्रति कुत्सित सोच को अभिव्यक्त करती हैं. महिला क्या पहने, क्या करे, इस का निर्णय वह खुद ले न कि कोई धर्मगुरु. ऐसा क्यों है कि धर्मगुरु आज भी हर कदम पर महिला की अभिव्यक्ति व स्वच्छंदता से जीने की इच्छाओं के पर कतरने की फिराक में रहते हैं और जबतब उस के अस्तित्व को ले कर टिप्पणियां करते रहते हैं. धर्मगुरु आज भी महिला समाज को 200 साल पहले की स्थिति में रखना चाहते हैं जब समाज की धुरी धर्मगुरुओं के हाथ में रहती थी. राजा भी धर्म के गुलाम होते थे.

परिवार की धुरी

धर्मगुरु यह समझते हैं कि एक महिला किसी भी परिवार की धुरी होती है और जब किसी परिवार की महिला सशक्त होती है तो वह परिवार तेजी से प्रगति करता है क्योंकि उस परिवार की प्रगति में पुरुष के अतिरिक्त महिला की भी मेहनत और कोशिश शामिल हो जाती है. वे यह भी जानते हैं कि जिस परिवार की मां सशक्त होती है उस परिवार की बेटी को भी सशक्त होने की प्रेरणा मिलती है और यह प्रोत्साहन किसी भी परिवार के विकास में एक मजबूत कड़ी का काम करता है.

पर यही औरत फिर धर्मगुरुओं की गुलाम नहीं रहती और न धर्म से न तन से उन की सेवा करती है. नारी जाति पर अनापशनाप टिप्पणी करने वाले धर्मगुरु  समझते हैं कि यदि देश में आधी आबादी यानी महिलाएं कमजोर न रहेंगी तो वे बैठ कर खाली हाथ ताली बजाते नजर आएंगे. इसलिए उन के महिला विरोधी वक्तव्य महिलाओं को कमजोर बनाने की साजिश की ओर बढ़ता एक कदम है. धर्मगुरुओं की आपत्तिजनक टिप्पणियों का परिणाम यह होता है कि उन का अनुसरण करने वालों के मन में यह बात घर कर जाती है कि महिलाएं पुरुषों के बराबर नहीं हैं, उन्हें समाज में बराबरी का दरजा प्राप्त नहीं है और फिर वे स्वयं भी महिलाओं के साथ दोयम दरजे का व्यवहार करने लगते हैं. महिलाओं के लिए कोई सीमांकन ही गलत है. महिलाओं को भी उतनी ही आजादी देने की जरूरत है जितनी पुरुष को मिली हुई है. जब तक महिलाओं पर धर्मगुरुओं का दबाव बना रहेगा, महिलाओं का पूर्ण विकास संभव नहीं.

सारी बंदिशें महिलाओं के लिए

क्या हम सभी ने कभी गौर किया है कि सारी दुनिया के धर्म, धर्मग्रंथ और धर्मगुरु सिर्फ महिलाओं को ही सीख क्यों देते हैं. जितने नियमकायदे वे महिलाओं को मानने के लिए कहते हैं उतने पुरुषों को क्यों नहीं कहते? वे पुरुषों से क्यों नहीं कहते कि वे अपनी पत्नी की लंबी आयु के लिए निर्जल व्रत रखें. कोई भी धर्मगुरु सिर्फ महिलाओं को ही अच्छी बेटी, अच्छी पत्नी, अच्छी मां बनने की सलाह क्यों देता है, पुरुषों को अच्छा पति, अच्छा बेटा, अच्छा पिता बनने की सलाह क्यों नहीं देता? धर्मगुरुओं की बात को आंख बंद कर के मानने वाले धर्मभीरू उन की ताकत को बढ़ाने का ही काम करते हैं और वे अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए जबतब महिला विरोधी बयान देते रहते हैं. अगर धर्मगुरु चाहें तो अपनी इस ताकत का सदुपयोग स्त्रियों के साथ भेदभाव, हत्या, दहेज, बलात्कार, यौन शोषण जैसी समस्याओं को सुलझाने में कर सकते हैं लेकिन भोगविलास में डूबे धर्मगुरु तो सिर्फ भोग भावनाओं को भड़काने में लगे रहते हैं और महिलाओं को पुरुषों से कमतर और उन की दासी बना कर रखने का षड्यंत्र रचते रहते हैं.

करारा जवाब

श्रीमती एसआर मेहता ऐंड सर के पी कार्डिएक इंस्टिट्यूट, मुंबई की कंसल्टैंट कार्डिएक सर्जन ?डा. रत्ना मागोत्रा ने केरल के सुन्नी नेता अबूबकर के वक्तव्य, जिस में उन्होंने महिलाओं के अस्तित्व को नकारते हुए पूछा था कि क्या हार्ट के हजारों सर्जनों में एक भी महिला है, का करारा जवाब देते हुए कहा कि अबूबकर शायद यह नहीं जानते कि न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में अनेक महिलाएं कार्डिएक सर्जन हैं. यही समय है कि अबूबकर और महिलाओं के विरुद्ध सोच रखने वाले उन के जैसे विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को त्यागें और महिलाओं को अकेला छोड़ दें ताकि वे बंधनमुक्त हो कर अपने सपनों को पूरा कर सकें. जहां तक लैंगिक समानता का सवाल है तो 40 किलोग्राम की महिला व 130 किलोग्राम के पुरुष को हैवीवेट टाइटल के रिंग में एकसाथ खड़े कर के उन की तुलना करना कहीं से भी जायज नहीं है. लैंगिक समानता का अर्थ दोनों को उन की शारीरिक व मानसिक क्षमता के अनुसार वाजिब अवसर देना है.

फेसबुक में महिलापुरुष बराबर

एक तरफ अबूबकर व उन के जैसे धर्मगुरु महिला को असहाय व दबेकुचले रूप में देखने व उन के अस्तित्व को नकारने जैसे वक्तव्य देते हैं वहीं फेसबुक में जहां फ्रैंड्स आइकन में पुरुष की छवि आगे होती थी और महिला की पीछे होती थी, वहां इस आइकन को बदल कर महिला को आगे व पुरुष को पीछे कर दिया गया है. इतना ही नहीं, महिला व पुरुष के बालों व शारीरिक आकृति को भी बराबर रखा गया है यानी कंधे से कंधा मिला कर.

मुसलिम महिलाओं में बदलाव की बेताबी

धर्म की नाजायज बंदिशों को तोड़ने के लिए मुसलिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रही हैं. धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुसलिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं. इसी कड़ी में अफरोज बेगम और जहांआरा ने महिला काजी ट्रेनिंग ली है. नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर देश व समाज की सेवा की है.

बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्त्व के बीच हिंदुस्तान की मुसलिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेडि़यों को झकझोरना शुरू कर दिया है. उन में अपना जीवन बदलने की बेताबी है और हर वह हक वे पाना चाहती हैं जो उन का अपना है. विरोध के स्वर और अपने हक की आवाज उठाती, बैनर व तख्ती लिए, अब मुसलिम महिलाएं भी दिखने लगी हैं. यह कटु सत्य है कि शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है. इतिहास गवाह है कि शिक्षित कौमों ने ही हमेशा समाज में तरक्की की है. किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्त्व दे रहे हैं, वहीं मुसलिम समाज इस मामले में आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में महिलाओं खासकर मुसलिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. 1983 की अल्पसंख्यक रिपोर्ट यानी गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट में मुसलिम लड़कियों की निराशाजनक शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा किया गया था. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े तो सारी पोल ही खोल देते हैं. वे साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुसलिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया था कि एक तो कर्ज जैसी सुविधाओं तक मुसलिम महिलाओं की पहुंच बहुत कम होती है, इस के अलावा कर्ज वितरण में उन के साथ भेदभाव भी किया जाता है. इस भेदभाव के पीछे कर्जदाता संस्थानों के अधिकारियों की तंग सोच के अलावा उन महिलाओं का कम शिक्षित होना, अपने हक को हासिल करने के लिए मजबूती से स्टैंड न लेना आदि वजहें भी हो सकती हैं. मुसलिम महिलाओं के सशक्तीकरण का मसला काफी अहम है. सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, मुसलिम महिलाएं देश के निर्धनतम, शैक्षिक स्तर पर पिछड़े, राजनीति में हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं.

अशिक्षा की मार

हमारे मुल्क में सब से ज्यादा निरक्षर मुसलिम लड़कियां और महिलाएं ही हैं. ग्रैजुएट व पोस्टग्रैजुएट स्तर पर स्थिति खासी चिंताजनक है. भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 40 प्रतिशत है. इस में मुसलिम महिलाएं मात्र 11 प्रतिशत हैं. हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाओं का प्रतिशत मात्र 2 है और स्नातक तक पहुंचते ही यह घट कर 0.81 प्रतिशत ही रह जाता है. उधर, मुसलिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुसलिम लड़कों का अनुपात 56.5 फीसदी है. छात्राओं का अनुपात महज 40 प्रतिशत है. इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात 52.3 है तो छात्राओं का 30 प्रतिशत है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुसलिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुसलिम लड़कियों के उच्च शिक्षा से दूर रहने के सब से सामान्य कारण उन की युवावस्था, महिला टीचर्स की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी व दकियानूसी रवैया है. वैसे, मुसलिम महिलाओं की शैक्षिक दुर्दशा का सवाल नया नहीं है. गुलामी के दौर में ब्रिटिश सरकार ने मुसलिम महिलाओं की शिक्षा का स्तर जानने के लिए 1920 में एक कमेटी का गठन किया था. उस के बाद तत्कालीन सरकार ने पुरानी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके बुलबुली खाना में बुलबुल-ए-खाना नामक स्कूल की स्थापना की थी.

वैसे आधुनिक समाज के तमाम लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को यह अधिकार देने पर सहमत हैं. लेकिन यह आरोप लगाया जाता है कि मुसलिम धर्मगुरु अभी भी शरीयत कानून का हवाला दे कर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं. यानी मुसलिम औरतों के हक तथा तालीम की राह का इतिहास बड़ा पेचीदा है और आगे भी इस दिशा में रास्ता मुश्किलों भरा प्रतीत होता है.

राजनीति की बात की जाए तो यहां भी मुसलिम महिलाओं की मौजूदगी नाममात्र है. फिर सवाल खड़ा होता है कि जब भारत में एक महिला प्रधानमंत्री बन सकती है, राष्ट्रपति बन सकती है, राजनीतिक दल की अध्यक्ष बन सकती है तो लोकसभा में उन का प्रतिनिधित्व महज 10.86 प्रतिशत क्यों है? इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की 2011 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के हिसाब से भारत 78वें स्थान पर है जबकि पाकिस्तान और नेपाल इस मामले में भारत से आगे हैं. जब सामान्य वर्ग और दूसरे समुदाय की महिलाओं की उच्च राजनीति में यह हैसियत है तो मुसलिम महिलाओं की हैसियत का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सब से बड़े गणराज्य भारत में लोकसभा चुनावों के इतिहास में अब तक सिर्फ 12 मुसलिम महिलाओं ने ही प्रतिनिधित्व किया है. देश के पहले लोकसभा चुनाव में 23 महिलाएं चुन कर संसद पहुंचीं, जिन में से एक भी मुसलिम महिला नहीं थी. दूसरे लोकसभा चुनाव में चुनी गईं 24 महिलाओं में कांगे्रस के टिकट पर 2 मुसलिम महिलाएं, माफिदा अहमद (जोरहट) तथा मैमूना सुल्तान (भोपाल), लोकसभा में पहुंचीं. बेगम आबिदा और बेगम नूर बानो 2 बार सांसद बनीं. लेकिन मोहसिना किदवई देश की पहली महिला मुसलिम सांसद हैं जो 3 बार जीतीं और संसदीय इतिहास में अपना नाम दर्ज किया.

देश में असहिष्णुता, गैर बराबरी और भेदभाव पर पिछले दिनों खूब बहस चली. लेकिन इन तीनों की शिकार मुसलिम महिलाओं की हालत पर चर्चा के लिए कोई तैयार नहीं. चुनावी नारों में विकासविकास की गूंज तो चारों तरफ सुनाई पड़ती है लेकिन इस विकास में मुसलिम महिलाएं कहां हैं, उन का खुशहाल चेहरा कहीं नहीं दिखता. क्या मुसलिम महिलाओं के बड़े तबके को आजादी के 68 साल बाद भी असली आजादी नसीब हो पाई है? यह बड़ा सवाल तमाम सरकारों से ले कर मुसलमान नेताओं, रहनुमाओं और बातबात पर मजहब का झंडा बुलंद करने वाली तंजीमों के सामने खड़ा है.

आवाजें उठने लगी हैं

बदलते वक्त के साथ भेदभाव के खिलाफ मुसलिम महिलाएं खुद आवाज उठाने लगी हैं. जब आवाज उठी है तो कई सवाल भी उठे हैं. सवाल यह कि क्या मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की जरूरत है? देशभर में ज्यादातर सियासी दल मुसलिम पर्सनल ला के मुद्दे पर भले ही चुप हों लेकिन कई वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में मुसलिम महिलाओं ने उन धार्मिक नियमों का विरोध किया है, जिन्हें वे महिला विरोधी मानती हैं और इस लड़ाई में कई महिलाओं ने अभूतपूर्व हिम्मत व सूझबूझ का परिचय भी दिया है. लखनऊ में मुसलिम महिलाओं के एक समूह ने एक समानांतर पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना कर के उस के जरिए मुसलिम महिलाओं को न्याय दिलाने का प्रयास किया था. इसी तरह, चेन्नई की महिला वकील बदरे सैय्यद ने उच्च न्यायालय में काजियों के तलाक की पुष्टि के अधिकार के विरोध में याचिका दायर की थी. लेकिन सब से प्रभावशाली प्रयास भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन यानी बीएमएमए ने किया.

आंदोलन की संस्थापक नूरजहां, सफिया नियाज और जकिया सोमन हैं. उन का मानना रहा है कि जिस तरह से शरीयत कानून का क्रियान्वयन भारत में होता है उस से मुसलिम महिलाओं के विकास के रास्ते में बहुत सी बाधाएं आती हैं. इसलिए उन्होंने एक मौडल निकाहनामा तैयार किया है और हजारों मुसलिम महिलाओं के हस्ताक्षर ले कर, एकतरफा तलाक के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के सामने याचिका प्रस्तुत की है. बीएमएमए का दावा है कि उस ने देश के 10 राज्यों में 4,710 महिलाओं से बातचीत के आधार पर सर्वे किया. सर्वे के अनुसार, ज्यादातर मुसलिम महिलाओं ने एकसाथ 3 दफा बोल कर तलाक देने की परंपरा को बदलने की मांग की है.

कोर्ट से गुहार

सर्वे में कहा गया है कि देश की महिलाओं ने माना कि तलाक से पहले कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए और इन मामलों में मध्यस्थता का प्रावधान होना चाहिए. इसी तरह 23 फरवरी को उत्तराखंड के काशीपुर की एक मुसलिम महिला सायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि मुसलिम पर्सनल ला में 3 बार तलाक कहने पर तलाक की प्रक्रिया को पूरा मान लेने की परंपरा को खत्म किया जाए. सायरा बानो ने कोर्ट से यह भी गुहार लगाई कि निकाह हलाला (पति से तलाक के बाद उस से दोबारा शादी की प्रथा) पर भी प्रतिबंध लगाया जाए. साथ ही, पुरुषों द्वारा एक से ज्यादा शादियों पर भी रोक लगाई जाए. इन सभी मामलों में सायरा बानो ने भारतीय नागरिक के लिए संविधान की धारा 14, 15, 21 और 25 के तहत अपने मूल अधिकारों के हनन की बात कही है. गौरतलब है कि संविधान की ये सभी धाराएं देश के सभी नागरिकों को एकसमान अधिकार देती हैं और अपने इन अधिकारों की रक्षा के लिए वे सीधे देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं.

पर्सनल ला में सुधार

देश के विभिन्न राज्यों से तकरीबन 70 हजार मुसलिम महिलाओं ने मुसलिम पर्सनल ला में सुधार की मांग को ले कर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है. गौरतलब है कि मुसलिम पर्सनल ला में निकाह, तलाक, हलाला जैसे कई प्रावधान हैं, जिन की आड़ में मुसलिम औरतों का शोषण होता है. शोषण या अन्याय की स्थिति में महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है क्योंकि अदालतों के हाथ मुसलिम पर्सनल ला से बंधे होते हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में कई संप्रदायों के लेग निवास करते हैं. एक ही देश के नागरिक होने के बावजूद उन की संस्कृति में खासा अंतर है. पारिवारिक मामले जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के लिए अलगअलग कानून हैं. हिंदू एक्ट बहुत हद तक पारंपरिक नियमों का संशोधित स्वरूप है और सभी प्रकार के हिंदुओं, बौद्ध, सिख, जैन पर लागू होता है. जबकि ईसाई, पारसी और मुसलिम तीनों अपनेअपने धर्मानुसार व्यक्तिगत कानूनों से यानी पर्सनल ला से शासित हैं.

इन कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर निष्कर्ष आता है कि कई मामलों में स्त्री के अधिकार पुरुषों की तुलना में ही नहीं, बल्कि दलितों व शूद्रों की तुलना में भी काफी सीमित हैं, खासतौर से मुसलिम महिलाओं की कानूनी व सामाजिक स्थिति दयनीय है. मुसलिम नागरिकों पर लागू होने वाला पर्सनल ला शरीयत पर आधारित है. मुसलिम पर्सनल ला के अंतर्गत महिलाओं की सामाजिक स्थिति सम्मानजनक नहीं कही जा सकती.

मुसलिम महिलाओं को गिनेचुने आधारों पर ही तलाक के बेहद सीमित हक मिले हैं. उस पर भी यदि तलाक की मांग औरत खुद करे तो उसे अपना मेहर छोड़ना पड़ता है. मेहर वह रकम है, जो निकाह से पहले दोनों पक्षों की सहमति से तय होती है और यह रकम शौहर अपनी बीवी को देता है. पुरुष जब चाहे बिना कारण बताए मौखिक रूप से 3 बार तलाक शब्द बोल कर तलाक दे सकता है. पुरुष पर अपनी पत्नी के भरणपोषण का कर्तव्य भी तलाक के बाद इद्दत काल यानी 3 महीनों तक ही होता है.

मुसलिम समुदाय में हलाला प्रथा भी चलन में है. इस के तहत तलाकशुदा पतिपत्नी किसी कारणवश यदि दोबारा वैवाहिक संबंध बनाना चाहें, तो उस के पहले अनिवार्य रूप से पत्नी को किसी दूसरे पुरुष से विवाह कर के, एक तय समयावधि पत्नी के तौर पर, उस पुरुष के साथ गुजारनी पड़ती है. इस के बाद नियमानुसार ही तलाक ले कर वह पहले पति से शादी कर सकती है. भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन की ओर से हलाला को दंडनीय अपराध घोषित करने और तलाक व भरणपोषण के संबंध में नए व बेहतर कानून बनाए जाने की मांग की गई है. मौलिक अधिकारों और न्याय के सिद्धांतों पर एकसमान नागरिक संहिता लागू करने की जब भी बात हुई है उस का सब से ज्यादा विरोध मुसलिम समुदाय द्वारा ही किया जाता रहा है और इस का दुष्परिणाम मुसलिम महिलाओं को सब से ज्यादा भुगतना पड़ा है. ऐसे में मुसलिम समुदाय की ही 70 हजार महिलाओं का पर्सनल ला में सुधार किए जाने के लिए पीएम को पत्र लिखना बड़ी व खास बात है.

तमाम मुश्किलों के बावजूद कई ऐसी मुसलिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल की और देश व समाज की सेवा भी की. इस संबंध में पहली महिला न्यायाधीश बी फातिमा, मोहसिना किदवई, नजमा हेपतुल्लाह, समाजसेविका व अभिनेत्री शबाना आजमी, ब्यूटी एक्सपर्ट शहनाज हुसैन, नाट्यकर्मी नादिरा बब्बर, पूर्व महिला हौकी कप्तान रजिया जैदी, टैनिस सितारा सानिया मिर्जा, साहित्य में नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा परवेज, इस्मत चुगताई, कुर्रतुल ऐन हैदर तो पत्रकारिता में नगमा और सादिया के नाम लिए जा सकते हैं.

महिलाओं की इसी जमात से निकली उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के छोटे से गांव कम्हरिया की रहने वाली अंजुम आरा, बिहार के बाढ़ जिले में जन्मी गुंचा सनोबर, बिहार की ही सहला निगार और मुंबई के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी सारा रिजवी जैसे कुछ

नाम हैं जिन्होंने भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी बन कर लाखों मुसलिम लड़कियों के लिए एक नई राह दिखाई है.

तरक्की में भागीदारी

मुसलिम महिलाओं की ये सफलताएं मिसाल हैं. इसी तरह वाराणसी के खजूरी इलाके में रहने वाली मुसलिम महिला नौशाबा मुसलिम महिलाओं के लिए किसी उदाहरण से कम नहीं हैं. उन्होंने न सिर्फ अपनी जिंदगी को संवारा बल्कि अब दूसरी मुसलिम महिलाओं को शिक्षा से जोड़ने के साथ ही उन्हें स्वावलंबी बनाने का भी जिम्मा बखूबी निभा रही हैं. उन के ट्रेनिंग कैंप से प्रशिक्षित हो कर लगभग 2 हजार लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी हैं. कानपुर की नूरजहां, जो कई घरों को रोशन कर रही हैं, का जिक्र तो पीएम मोदी अपने भाषण में कर चुके हैं.

बहरहाल, ये उदाहरण इस बात के साक्ष्य हैं कि यदि मुसलिम औरतों को भी उचित अवसर मिले तो वे भी देश व समाज की तरक्की में उचित भागीदारी निभा सकती हैं. लेकिन यह तय है कि मुसलिम महिलाएं सुधारों की इस बहस को अकेले सरकारों, सियासी दलों के ऊपर नहीं छोड़ सकती हैं बल्कि इस के लिए समुदाय, विशेषकर महिलाओं, को पूरी ताकत के साथ सामने आना भी होगा, तभी सुधार, चर्चा तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि आगे बढ़ सकेंगे.

काजी बनती मुसलिम महिलाएं
मुसलिम महिला काजी बन सकती है या नहीं, यह विवाद का विषय बना हुआ है. महिलाओं के जहां अपने तर्क हैं और वे इसे इसलामी शरीअत के अनुरूप बता रही हैं वहां मुसलिम संगठन काजी के रूप में उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. वादविवाद में यह सवाल भी चर्चा में है कि क्या देश के वर्तमान कानून में काजी की कोई व्यवस्था है? यदि हां, तो उस के चुनाव की प्रक्रिया क्या है और उस के दायित्व एवं अधिकार क्या हैं?जानकारों की मानें तो अंगरेजों ने काजी के पद को तो बाकी रखा लेकिन उस के दायित्व एवं अधिकार को खत्म कर दिया. जिस के बाद इस की हैसियत परामर्शदाता पद के तौर पर है. तो फिर काजी बनने को ले कर किसी हंगामे का औचित्य क्या है? कहीं यह पुरुषप्रधान समाज को चुनौती देना जैसा तो नहीं है जिस की वजह से इस का विरोध शुरू हो गया है.

इसलामी न्यायविधि यानी फिकहा के जानकार मानते हैं कि औरत जिन मामलों में गवाही दे सकती है उन मामलों में वह काजी बन कर फैसले भी कर सकती है. लेकिन जिस तरह पूरे मामले को पेश किया जा रहा है उस से यह धारणा सामने आ रही है कि इसलाम, महिला अधिकारों का विरोधी है.

सचाई यह है कि मुसलिम समाज ने महिलाओं को वे अधिकार नहीं दिए जो इसलाम ने उन्हें दिए हैं. इस ओर जमाते इसलामी हिंद के महासचिव व इंजीनियर मोहम्मद सलीम ने अपने एक बयान में इशारा कर महिलाओं को उन के अधिकार देने की वकालत की है. सब से रहस्यमय भूमिका दारुल उलूम देवबंद की रही. उस ने पहले महिला काजी बनने का समर्थन किया, दूसरे दिन इस का खंडन कर स्पष्ट किया कि महिला काजी नहीं बन सकती. दारुल उलूम की यह भूमिका निश्चय ही जांच का विषय है.

काजी होने के दावे

राजस्थान की 2 महिलाओं द्वारा काजी होने का दावा करने के बाद मामला सामने आया है. अफरोज बेगम और जहांआरा ने मुंबई स्थित दारुल उलूम निस्वान से ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ ली है. मुंबई के इस मदरसे में 30 अन्य महिलाएं भी काजी बनने के लिए अध्ययन कर ट्रेनिंग ले रही हैं. दारुल उलूम निस्वान की ट्रस्टी जकिया सोनम और नूरजहां नियाजी का मानना है कि इस से महिलाएं निकाह, तलाक और मेहर जैसे रिवाजों को सीधे तौर पर खुद देख सकेंगी एवं इस से मात्र 3 बार तलाक देना कह देने और हलाला जैसे मामलों का गलत इस्तेमाल नहीं होगा क्योंकि पुरुष काजी अकसर महिला अधिकारों की अनदेखी करते हैं.

3 बार तलाक कहने और हलाला के मामले में वे असंवेदनशील होते हैं. महिला अधिकारों की रक्षा के लिए महिलाएं भी काजी बनें, यह जरूरी है.

पहले भी काजी बनी महिलाएं

किसी महिला के काजी बनने का मामला अब सामने आया है, ऐसा नहीं है. अतीत में भी काजी बन चुकी हैं महिलाएं. कोलकाता में जब 2004 में एक महिला काजी बनी तो उसे अदालत में चैलेंज किया गया. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने उस याचिका को निरस्त कर उस में किसी भी तरह का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. दरअसल, पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम के काजी व मैरिज रजिस्ट्रार का 2003 में निधन हो गया तो उन की बेटी शबाना बेगम ने इंस्पैक्टर जनरल, रजिस्ट्रेशन (जुडीशियल) को आवेदन किया कि उसे अपने पिता के स्थान पर काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त किया जाए. उस ने तर्क दिया कि वह इस पद के लिए हर लिहाज से योग्य है और अपने पिता की जिंदगी में उन के सहायक के तौर पर निकाह मजलिस में शामिल हुआ करती थी. 8 अप्रैल, 2004 को सरकार ने नंदीग्राम में शबाना को काजी व मैरिज रजिस्ट्रार नियुक्त कर दिया.

वर्तमान में उलेमा के विरोध की बुनियादी वजह दारुल उलूम निस्वान से भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन के तहत 2 साल की ‘महिला काजी ट्रेनिंग’ है. उन को डर सता रहा है कि इस से पुरुष वर्चस्व में सेंध लग जाएगी और उन का महत्त्व कम हो

जाएगा. इस बात को उलेमा कह नहीं रहे हैं लेकिन उन की भाषा से इस का आभास होता है.

भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इसलामिक स्कौलर मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी इसलामी दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो लोग यह तर्क देते हैं कि इसलाम में मर्द को संरक्षक बनाया गया है तो वह मियांबीवी के घरेलू मामलों में है न कि आम मर्द व औरत के मामले में. यदि किसी संस्था अथवा कंपनी की मालिक कोई महिला हो तो उस से वहां काम करने वाले मर्दों के संरक्षक होने का क्या मतलब हो सकता है. मर्द का उस के अधीन काम करने में कोई शरई रुकावट नहीं है. मर्द पर खाना, खर्चा यानी गुजाराभत्ता एवं अन्य जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी की वजह से मियांबीवी में शौहर को घर का संरक्षक बनाया गया है अन्यथा इंसान होने के नाते दोनों बराबर हैं. यदि फिकहा (न्यायविधि) की बुनियादी किताबों हिदाया, कुदुरी और अन्य इस्लामी फिकहा की किताबों में कुछ सामाजिक मामलों के लिए औरत के काजी बनने को जायज करार दिया गया है तो उसे इसलामी शरीयत के खिलाफ करार नहीं दिया जा सकता.

मालूम हो कि काजी धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करता है. काजी के पद पर अब तक पुरुषों की ही नियुक्ति होती थी जो निकाह, तलाक व अन्य मामलों में शरीया की पुरुषवादी व्याख्या करते थे जिस में महिलाओं के साथ अकसर भेदभाव होता था. यदि महिलाओं की नियुक्ति काजी के पद पर होती है तो वे ऐसे मामलों में अधिक संवेदनशीलता से विचार कर फैसला देंगी, जिस से मजहब की आड़ में महिलाओं के साथ नाइंसाफी होने की संभावना कम रहेगी.

– खुरशीद आलम साथ में मदन कोथुनियां

अपराधी नहीं हैं बिल्डर

बिल्डरों के खिलाफ माहौल बहुत तेजी से खराब होता जा रहा है. नया कानून बनाया गया है जो न केवल बिल्डरों को शरीफ रखने के बहाने उन पर सैकड़ों टन कागजों का बोझ डाल देगा, बल्कि अदालतें तो बिल्डरों को तरहतरह की सजाएं देने भी लगी हैं. इस में शक नहीं कि बिल्डर जो कहते हैं, करते नहीं हैं और साधारण घर खरीदार के पास न लड़ने का समय होता है, न पैसा. ऐसे में उसे बिल्डरों की नाजायज बातें भी माननी पड़ती हैं. भवन निर्माण व्यवसाय की जड़ में बिल्डरों का लालच तो है ही पर उस से ज्यादा खलनायकी सरकारी विभाग दिखाते हैं जो छिपे रहते हैं. यह व्यवसाय भी दूसरे व्यवसायों की तरह प्रतियोगिता से भरा है और बिल्डर नाम व पैसा कमाने के साथ अपना काम चालू रखना चाहता है. वह चाहता यही है कि उस की एक बिल्डिंग पूरी हो तो वह दूसरी, तीसरी शुरू करे और ज्यादा मुनाफा कमाए.

कठिनाइयां यहां जमीन खरीद से ले कर कंपलीशन सर्टिफिकेट तक की हैं जो सरकारी हाथों में हैं जिन्हें असल उपभोक्ता की कोई फिक्र नहीं होती. नया कानून और अदालतें सरकारी नियमों को ब्रह्मवाक्य मान कर उन के पालन पर जोर देती हैं. अगर सब तरह के टेढ़ेसीधे कानून लागू करना ही देश के लिए उपयोगी व व्यावहारिक होता तो देश इस तरह अस्तव्यस्त नहीं लगता. आज कहीं कोई निर्माण देख लें. सरकारी ही देख लें. कैसे बनते हैं सरकारी दफ्तर, देखिए. सरकारी पुल देखिए. सरकारी रिहायशी मकान देखिए. सरकारी स्टेडियम देखिए. इन में से कौन सा सही है? कौन सा बजट में बना है? कौन सा समय पर बना है? कौन सा नियमों का पालन कर रहा है? अगर कोई मानकों पर नहीं उतर रहा तो साफ है कि इस देश में किसी की मंशा, सरकार की भी, सही काम करने की है ही नहीं, न सही कानून बनाने की है, न सही सेवा देने की.

फिर बिल्डरों को ही महाखलनायक क्यों बनाया जाए? जो लाखों लोग बिल्डरों के मकानों में रह रहे हैं और जिन्होंने 20 सालों में अपनी संपत्ति का मूल्य 5-7 से 20-25 गुना होते देखा है, वे भी बिल्डरों को कोसते हैं जबकि उन का पैसा बिल्डरों की वजह से ही फलाफूला. वहां वे अपने बुद्धि को श्रेय देते हैं कि उन्होंने सही समय पर सही बिल्डर चुना पर उसे धन्यवाद के दो शब्द नहीं देते. क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी को नीचा देखना पड़ा जब उस के स्पौंसर आम्रपाली समूह की पोल खुली पर आम्रपाली के बिल्डरों को दूसरों से क्या परेशानियां हैं, उस की फेहरिस्त क्या किसी ने उस से मांगी?

बिल्डर दूध के धुले नहीं हैं. हर बिल्डर बेईमानी कर रहा है पर फिर भी वे मकान तो मुहैया करा ही रहे हैं. दूध वाले पानी मिलाते हैं पर दूध वालों पर पुलिस का पहरा बैठाने से क्या काम चलेगा? उस गाय को उतना न मारो कि वह शक्तिमान घोड़ा बन जाए जिस पर भारतीय जनता पार्टी के विधायक गणेश जोशी ने डंडे बरसाए, मानो वह कोई दलित हो और मर गया. बिल्डरों को अपराधी न मानें, उन्हें सिर्फ कालिख लगे व्यवसायी मानें जो हर चीज में डंडी मारते हैं पर सेवा तो आखिरकार दे ही देते हैं.

गुजरात में पटेल पेच

गुजरात में पटेल आंदोलन को कुचलने के लिए मुख्यमंत्री आनंदीबाई पटेल की सरकार उसी तरह का अलोकतांत्रिक कदम उठा रही है जिस तरह का खालिस्तान आंदोलन के समय इंदिरा गांधी की सरकार ने उठाया था. आनंदीबाई पटेल को आपातकाल की तरह के कदम उठाने में कोई हिचक नहीं हो रही है क्योंकि उन्हें डर है कि अगर यह आंदोलन पनप गया तो गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की गद्दी हिल सकती है. आनंदीबाई और नरेंद्र मोदी ने हार्दिक पटेल को जेल में डाल दिया है. अक्तूबर से जेल में बंद हार्दिक पटेल को विभिन्न अदालतों से छूट नहीं मिल रही. चूंकि पटेल जाति के लोग अभी तक हरियाणा के जाटों, आंध्र प्रदेश के कापुओं और राजस्थान के गुर्जरों की तरह मरनेमारने को तैयार नहीं है, इसलिए पटेल आंदोलन को काबू में करना सरकार के लिए आसान हो रहा है. शायद यह महात्मा गांधी की विरासत है कि गुजरात के पटेल भी आमतौर पर शांतिप्रिय हैं.

पर इस का अर्थ यह नहीं कि सरकार इंटरनैट और मोबाइल सेवाएं बंद कर के सूचना के आदानप्रदान पर कर्फ्यू लगा सकती है. आंदोलनकारी एकदूसरे को भड़का न सकें. इस के लिए सरकार के पास इंटरनैट या मोबाइल को बंद करने का अगर कानूनी हक है तो भी उसे असंवैधानिक माना जाना चाहिए. किसी भी सरकार को चाहे वह कश्मीर की हो, गुजरात की हो या हरियाणा की, दंगों को भड़कने से रोकने के लिए प्रैस, टैलीविजन, इंटरनैट, मोबाइल आदि को बंद करने का हक नहीं है. संवाद के ये तरीके मानव के अब मौलिक अधिकार हैं और एक तरह से संविधान से भी ऊपर हैं. किसी भी सरकार, चाहे तानाशाही क्यों न हो, को इन अधिकारों को छीनने का हक नहीं है. इन अधिकारों को छीनना असल में मानसिक हत्या के रूप में माना जाना चाहिए. यह एक तरह का नरसंहार है जो अंतर्राष्ट्रीय अपराध है और भारत भी इंटरनैशनल कोर्ट औफ क्रिमिनल जस्टिस का सदस्य है. ऐसे में गुजरात सरकार के खिलाफ इस तरह के अपराध का मुकदमा चलना चाहिए.

आज का विश्व नागरिक केवल देश के स्थानीय कानूनों से बंधा नहीं रह सकता. कोई सरकार ऐसे कानून नहीं बना सकती जो उस के अपने नागरिकों के जीने के पूर्ण अधिकार छीने. इंटरनैट और मोबाइल सेवाएं केवल आनंद लेने के लिए नहीं हैं, जीनेमरने के माध्यम भी हैं. लोगों ने हजारों मील जा कर काम करना शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि वे तो एक तरह से इंटरनैट और मोबाइल के जरिए 2 तल्ले के मकान में केवल ऊपरनीचे रह रहे हैं. सत्ता हाथ से निकलते दिखेगी तो भाजपा सरकारें क्याक्या कर सकती हैं, गुजरात में क्या इस बात का ट्रेलर दिखाया जा रहा है?

कानून का अड़ंगा

नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का कहना है कि संविधान की भावना व आत्मा के विरुद्ध आज भी देश के दंड विधान में 295ए जैसा प्रावधान होना अनुचित है जिस के नाम पर धर्म को थोपने का अधिकार मिला हुआ है. इस धारा का उपयोग आजकल दूसरे धर्मों के लोगों को एकदूसरे के प्रति कटु बात कहने को रोकने के लिए तो किया ही जाता है, अपने धर्म में सुधार की बात न करने के लिए भी कर लिया जाता है. यह प्रावधान किसी भी थाने में शिकायत करने से हरकत में आ जाता है और हमारी अधसड़ी पुलिस समाज सुधार के वक्तव्यों व लेखन की जांच करने के बहाने वक्ता या लेखक को बंद कर के उस से चोरडकैतों व हत्यारों की तरह की पूछताछ करने लगती है.

ज्यादा अफसोस की बात यह है कि हिंदू व मुसलिम दोनों ही धर्मों के कट्टरवादी दुकानदार अपने धर्मों की खामियों को छिपाने के लिए इस प्रावधान का जम कर उपयोग करते हैं और जब भी दुरुपयोग होता है, आमतौर पर राजनीतिबाज मुंह फेर लेते हैं ताकि वोटबैंक वाले इस मामले में दखल न देना पड़े. वक्ता या लेखक को खुद पुलिस और अदालतों से निबटना होता है. यदि न्यायाधीश उदार हुए तो बात दूसरी, लेकिन यहां तो सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे न्यायाधीश बैठे हैं जो 295ए को ईशनिंदा वाला कानून मानते हैं. हाल में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दिए गए कई बयानों पर दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त बी एस बस्सी ने खुलेआम कह दिया कि ये बयान व नारे ईशनिंदक हैं और अपने ही धर्म वालों की भावनाओं को आहत करते हैं. जबकि यह कानून ज्यादा से ज्यादा विधर्मियों के लिए है.

असल में यह कानून हिंदू और मुसलिम दोनों के लिए बहुत काम का है क्योंकि धर्मों ही नहीं, धर्मगुरुओं की पोल खोलने से रोकने में इस का जम कर उपयोग किया जाता है. देश में असहिष्णुता कानूनों से लागू की जाती है. सलमान रुशदी की ‘द सैटेनिक वर्सेस’ को मुसलिम नेताओं के कहने पर, इस प्रावधान के हवाले से, ईशनिंदक कहा गया था. देश में जाति को ले कर जो हंगामा मचा हुआ है उसे जानने के लिए, परखने के लिए, समझने के लिए हिंदू धर्मग्रंथों को खंगालना जरूरी है, हिंदू रीतिरिवाजों को जांचना जरूरी है. पर इस प्रावधान के कारण यह नहीं हो पा रहा है. नतीजतन, 295ए से संरक्षित जमीन पर जातिवाद के जहरीले पौधे उग ही नहीं रहे, बुरी तरह फैल भी रहे हैं.

अमर्त्य सेन को व्यावहारिक कठिनाइयों का कितना पता है, मालूम नहीं पर उन्होंने कम से कम चेताया तो है. वरना हमारे अधिकांश लेखकसंपादक स्वधर्म आलोचना को सामाजिक, नैतिक व आपराधिक मानते हैं क्योंकि आलोचना दरअसल उस भ्रमजाल को तोड़ती है जिस में जीने के हम आदी हो चुके हैं.

हमारे यहां कोई तानाशाही नहीं है: आनंद एल राय

बॉलीवुड में अक्सर निर्देशकों की शिकायत होती है कि उन्हें निर्माता के असहनीय दबाव में काम करना पड़ता है. और यदि फिल्म का निर्माता चर्चित निर्देशक हो तो बेचारा निर्देशक  कुछ ज्यादा ही असहाय सा हो जाता है.‘तनु वेड्स मनु’, ‘रांझणा’’ और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न’ जैसी सफलतम फिल्मों के निर्देशक आनंद एल राय की गिनती एक बेहतरीन रचनात्मक व सुलझे हुए इंसान के रूप में की जाती है. इन दिनों वह बतौर निर्माता व क्रिएटिव डायरेक्टर फिल्म ‘मनमर्जियां’ का निर्माण कर रहे हैं. जिसका निर्देशन समीर शर्मा कर रहे हैं.

इस फिल्म में आयुष्मान खुराना के साथ भूमि पेडणेकर की जोड़ी है. ऐसे में सवाल उठता है कि उनकी तरफ से सामने वाले निर्देशक पर कितना दबाव होता है? और जब यही सवाल हमने आनंद एल राय से किया, तो आनंद एल राय ने कहा-‘‘जैसा कि मैंने अभी कहा कि निर्देशक के तौर पर मैं कभी किसी का दबाव सहन नहीं करता. उसी तरह निर्माता के तौर पर मैं किसी भी निर्देशक पर दबाव नहीं बनाता. मैं यहां पर एक ऐसा प्लेटफार्म तैयार करना चाहता हूं, जहां एक निर्देशक का अपना खुद का प्रोडक्शन हाउस हो और निर्देशक बिना दबाव के काम करते रहें. हमारे यहां कोई तनाशाही नही है. मेरी सोच यह है कि हम आपस में बैठकर चाय पीते हुए किसी सही व सटीक हल पर पहुंच जाएंगे. मेरा सपना है कि निर्देशक के तौर पर आप अपनी पसंद की फिल्में बनाएं.’’

यानी कि आनंद एल राय का दावा है कि उनकी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘‘एलो कलर्स प्रोडक्शन’’ में तानाशाही वाला रवैया नही है. मगर फिल्म ‘मनमर्जियां’ को लेकर कई तरह की खबरें फैली हुई हैं. चर्चा है कि फिल्म का पहला शिड्यूल खत्म होने के बाद आंनद एल राय के कहने पर इसे रीशूट किया गया. पर फिल्म जिस तरह से बनी है, उससे आनंद एल राय संतुष्ट नहीं हैं. इसलिए उन्होंने ‘मनमर्जिया’ के निर्देशक समीर शर्मा को हटा दिया है.

जब हमने यह बात आनंद एल राय के समक्ष रखी, तो आनंद एल राय ने बड़े शांत स्वभाव व विनम्रता के साथ कहा-‘‘आपने बहुत सटीक सवाल किया है. मैं पूरी घटना बता देता हूं. इस फिल्म का निर्देशन समीर शर्मा कर रहे थे, जो कि मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे. वह आज भी मेरे अच्छे दोस्त हैं. मैं आज भी उन्हें एक अच्छा निर्देशक मानता हूं. वह मेरे पास एक कथा लेकर आए. तो मुझे लगा कि इस पर फिल्म बननी चाहिए. सब कुछ तय हो गया. कलाकार भी तय हो गए. जब फिल्म का पहला शिड्यूल पूरा हुआ, तो मुझे अहसास हुआ कि फिल्म जिस तरह से बननी चाहिए थी, उस तरह से नहीं बनी है.”

वे आगे कहते हैं कि, “हमने इस मसले पर आपस में बैठकर बातचीत की. उसके बाद फिर दो चार दिन शूटिंग हुई. पर हमें अहसास हुआ कि बात बन नहीं रही है. कई बार ऐसा होता है कि कहानी, निर्देशक, कलाकार सभी बहुत अच्छे होते हैं, पर कहीं न कहीं लगता है कि कहानी सिमट नहीं रही है. मतलब सब कुछ सही होते हुए भी जो ‘सुर’ मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है.‘मनमर्जियां’ के साथ भी वही स्थिति बनी हुई है. मैंने सोचा कि इस फिल्म के साथ जुड़े सभी लोग अच्छे हैं. कहानी भी अच्छी है. पर यह फिल्म जिस ढंग से बन रही है, वैसे बन गयी, तो यह, वह फिल्म नहीं होगी, जो हम बनाना चाहते हैं. अतः हम लोगों ने शूटिंग रोक कर इस स्थिति पर विचार विमर्श करने के लिए समय लिया. एक दिन समीर शर्मा ने मुझसे कहा कि अब इस फिल्म को आगे मैं अपने हिसाब से निर्देशित करूं. और वह दूसरी फिल्म पर काम करना चाहते हैं. समीर शर्मा आपसी सहमति से खुद को इस फिल्म से अलग कर दूसरी फिल्म पर काम करने जा रहे हैं. यह सारा निर्णय दो रचनात्मक लोगों की आपसी बातचीत का रहा. कहीं कोई विवाद या तानाशाही का मसला नही है.’’

तो इस अनुभव के साथ यह बात उभरती है कि क्या हर कहानी हर निर्देशक के लिए उपयुक्त नहीं होती है? इस सवाल पर आंनद एल राय ने कहा-‘‘बिल्कुल यही बात सामने आती है. कई बार ऐसा हुआ है कि मैं कहानी सुनता हूं, मुझे कहानी बहुत पसंद आती है. पर मुझे खुद लगता है कि इस कहानी पर काम नहीं कर पाउंगा. पर मैं उस फिल्म को देखना जरूर चाहूंगा. मैंने फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ देखी और बहुत इंज्वॉय किया. पर यदि यह फिल्म मुझे बनाने को दी जाती, तो इस अंदाज में न बना पाता, जिस अंदाज में संजय लीला भंसाली ने बनायी है. मैं यदि इसे बनाता तो वह किस तरह की फिल्म बनती कह नहीं सकता. कई बार हमने देखा है कि बहुत अच्छी पटकथा पर बनी फिल्म भी अच्छी बनकर नहीं निकलती है. तो हमें सतर्क रहने की जरूरत है. मेरी राय में फिल्म सफल या असफल नहीं होती. बल्कि फिल्म एक इंसान के वीजन से निकलनी चाहिए. फिल्म किसी भी एक इंसान के वीजन से ना निकली हो, तो वह तकलीफ ही देती है.’’

महिलाएं अपना आसमान खुद तलाश लेंगी

स्वतंत्रता के इन 69 वर्षों के दौरान भारतीय नारी ने अपने स्तर पर हर क्षेत्र में सफलता हासिल की है. यों तो शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अशिक्षा का स्तर ज्यादा है और अगर शिक्षित नारी की शिक्षित पुरुष से तुलना की जाए तो वह उन से कहीं आगे है. मगर हालिया नतीजे बताते हैं कि महिलाएं अब शिक्षा के प्रति जागरुक है. अक्सर हम पत्रपत्रिकाओं और अखबारों में पढ़ते रहते हैं कि हाईस्कूल परीक्षा परिणाम में छात्राओं ने बाजी मारी, आईआईटी परीक्षा परिणाम में छात्र सर्वप्रथम, आईएएस टौपर बनी दिल्ली की छात्रा आदि से मिलता रहा है.

दरअसल पढ़ाई में दिनोंदिन सफलता के कीर्तिमान बना रही महिलाओं को यह मुकाम उन की मेहनत और लगन से प्राप्त हो रहा है. अभी हाल ही में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा 2015 के परिणाम के नतीजे घोषित हो गए हैं. इन नतीजों में कुल 1078 कैंडीडैट्स पास हुए हैं. पर यहां भी एक महिला ने टौप कर के जता दिया कि आज की महिला वास्तव में जागरूक हो चुकी है.

महिलाओं की उपलब्धियां सिविल सेवा परीक्षा में

भोपाल में जन्मी और दिल्ली में रहने वाली टीना ढाबी ने सिविल सेवा परीक्षा में पूरे देश में पहला स्थान प्राप्त कर महिलाओं का सिर ऊंचा कर दिया है. सब से बड़ी बात टीना ने पहले ही अटेंप्ट में यह परीक्षा क्लीयर कर ली. इस अटेंप्ट के पीछे उन की जो तपस्या है वह उन की 9 सालों की कड़ी मेहनत का ही नतीजा है. सिर्फ 22 साल की उम्र में टौप कर के अब टीना ढाबी लड़कियों के लिए रौल मौडल बन गई हैं.

महिलाओं की उपलब्धियां

वाराणसी की अर्तिका शुक्ला ने 25 साल की उम्र में सिविल सेवा परीक्षा में सफलतापूर्वक चौथा स्थान प्राप्त किया है. अर्तिका अपनी प्रेरणा का स्रोत स्वर्गीय राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को मानती हैं. उन का मानना है कि वह गरीबों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए अथक प्रयास करेंगी.

वहीं 29 वर्षीय झांसी की एसपी सिटी आईपीएस गरिमा सिंह का भी चयन हुआ उन की 55वीं रैंक है. इस से पहले वह राजधानी लखनऊ में ट्रेनिंग के दौरान अलीगंज क्षेत्र की सीओ के पद पर तैनात थी. आईपीएस जौब के दौरान ही उन्होंने आईएएस की परीक्षा पास की. गरिमा का मानना है कि टाइम मैनेजमैंट सब से इंपौटेंट है अपनी कैपिसिटी डेवलैप करें, धैर्य रखें और योजनाबद्ध तरीके से पढ़ाई करें.

रायबरेली निवासी वत्सला गुप्ता ने अपने तीसरे प्रयास में 173 रैंक प्राप्त किया है. वत्सला को अपने 3 साल की मेहनत के बाद औल इंडिया रैंक में 173वां स्थान प्राप्त किया है. इन का मानना है कि सफलता के लिए सब से जरूरी है हार्डवर्क और अपने कैरियर में पैशन बनाए रखना, पढ़ाई को बोझ नहीं समझा.

हौसलों की उड़ान

इतिहास गवाह है कि महिलाएं हर वो काम कर सकने में सक्षम हैं जो पुरुष कर सकते हैं महिलाओं के कदमकदम पर मानव समाज की समृद्ध में योगदान दिया है. सदियों से ही समाज में महिलाएं कई क्षेत्रों में आगे आई हैं और आज निश्चय ही आधुनिक समाज के विकास में सकारात्मक भूमिका निभाने वाली महिलाओं की तादात बढ़ रही है. एक अबला भी छिव से निकल कर एक सबला के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो चुकी है प्रगति का कोई ही शिखर बचा होगा, जहां आज की नारी न पहुंची हो. महिलाएं अपने प्रयास और प्रयत्न में पीछे नहीं हैं.

प्रो कबड्डी लीग नीलामी, मालामाल हुए ये खिलाड़ी

प्रो कबड्डी लीग (PKL) के आगामी चौथे सीजन के लिए आयोजित खिलाड़ियों की नीलामी में डिफेंडर मोहित छिल्लर के लिए सबसे बड़ी बोली लगी. नॉर्थ ईस्ट रेलवे में क्लर्क के पद पर काम करने वाले इस प्लेयर के लिए बंगलुरु बुल्स ने 53 लाख रुपये खर्च कर दिए. 2014 में मोहित की कमाई की यह नौ गुना कीमत है. उन्हें दूसरे सीजन की चैंपियन यू मुंबा से खरीदा गया. छिल्लर को 2014 में पहले सीजन के लिए हुई नीलामी में 5.75 लाख रुपये में खरीदा गया था.

आठ टीमों की नीलामी में प्रत्येक को पिछले तीन सत्र से जुड़े प्लयेर्स में से केवल दो को बरकरार रखने की अनुमति थी. राजधानी से 30 किमी दूर निजामपुर गांव के छिल्लर ने कहा, 'मैं बहुत खुश हूं. मुझे इतनी कीमत मिलने की उम्मीद नहीं थी. मैंने सोचा था कि मैं 35 से 40 लाख के बीच में बिकूंगा.'

तीसरे सीजन की चैंपियन पटना पायरेट्स के संदीप नारवाल को 45.5 लाख रुपये में खरीदा, जबकि यू मुंबा ने ग्रुप-ए खिलाड़ियों की बोली के दौरान जीवा कुमार को 40 लाख रुपये में खरीदकर सभी को चौंका दिया. जीवा की बेस प्राइस 12 लाख रुपये थी.

नीलामी में पाकिस्तानी प्लेयर मोहम्मद रिजवान की भी बोली लगी. उन्हें तेलगु टाइटंस ने खरीदा. प्रो कबड्डी लीग के चौथे सीजन का आयोजन 25 जून से 31 जुलाई तक होगा, जिसके पहले दौर के मैच पुणे में जबकि दो सेमीफाइनल और फाइनल हैदराबाद में होंगे.

ग्रुप ए से अन्य नीलामी

पुणेरी पल्टन के जसमेर सिंह गुल्ला को 35.5 लाख रुपये में तेलुगू टाइटंस ने खरीदा. जयपुर पिंक पैंथर्स के कुलदीप सिंह को 30.4 लाख में पटना पाइरेट्स ने खरीदा. यू मुंबा के सुरेंद्र नाडा 30 लाख में बंगलुरु बुल्स की टीम में गए. धर्मराज चेरालाथान को 29 लाख में पटना पाइरेट्स ने तेलुगू टाइटंस से खरीदा.

यू मुंबा ने राकेश कुमार को 26 लाख में अपने पास बरकरार रखा. बंगाल वॉरियर्स के बाजीराव होडागे को पटना पाइरेट्स ने 20 लाख में अपने साथ जोड़ा. पुणेरी पल्टन ने अजय ठाकुर को 19 लाख रुपये में बरकरार रखा.

किसने ठोका सनी लियोनी पर मानहानि का मुकदमा?

टीवी शो ‘बिग बॉस’ सीजन 5 की प्रतिभागी और मॉडल पूजा मिश्रा ने फिल्म स्टार सनी लियोन पर मानहानि का दावा किया है. पूजा ने सनी लियोन के खिलाफ बॉम्बे हाई कोर्ट में एक याचिका दायर कर 100 करोड़ रुपये के हर्जाने की मांग की है.

सनी ने पूजा के खिलाफ दिया इंटरव्यू

पूजा ने अपनी याचिका में दलील दी है कि वह टीवी शो ‘बिग बॉस’ सीजन 5 की एक लोकप्रिय प्रतिभागी थीं और सनी उस शो में काफी बाद में शामिल हुईं. उन्होंने आरोप लगाया कि सनी ने मीडिया के एक हिस्से को उसके खिलाफ इंटरव्यू दिया. पूजा के मुताबिक, इससे लोगों की नजर में उनकी इमेज खराब हुई है. इस वजह से उन्हें अपना फिक्स डिपोजिट तोड़ना पड़ा और अपनी सेविंग के पैसे निकालने पड़े, जिससे उन्हें 70 लाख रुपये तक नुकसान हुआ.

जून में हो सकती है याचिका पर सुनवाई

याचिकाकर्ता ने सनी लियोनी के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 500 (मानहानि) के तहत मुकदमा दर्ज कराया है. इस मामले पर बॉम्बे हाई कोर्ट में गर्मी की छुट्टियों के बाद जून में सुनवाई हो सकती है.

 

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