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जिंदगी और आसान बनायेंगे ये आविष्कार

अगर आदिमानव युग से आज के समय की तुलना की जाए तो मानव जीवन काफी सरल और सुगम हो गया है. और ये सब संभव हो पाया है विज्ञान और उसके आविष्कारों के कारण. यहां ऐसे ही कुछ आविष्कारों के बारे में बता रहे हैं हम जिससे अभी तक नामुमकिन लगने वाली चीजें भी मुमकिन लगने लगेंगी.

कॉन्सस कंप्यूटर

कॉन्सस कंप्यूटर (खुद के होश में रहने वाला कंप्यूटर) पर काम हो रहा है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण रजनीकांत की फिल्म रोबोट से लिया जा सकता है. चिट्टी जैसे रोबोट हकीकत का जामा ओढ़ेंगे. इनकी कृत्रिम बुद्धि इंसानों की तरह जवाब-तलब करेगी. एक पल को आप भूल जाएंगे कि आप मशीन से नहीं, इंसान से बात कर रहे हैं. ये रोबोट जज्बाती होंगे, आपके अहसासों को तरजीह देंगे. गूगल लंबे समय से इस तकनीक पर काम कर रहा है. बहुत संभव है कि साइंस फिक्शन पर आधारित फिल्मी पटकथा भविष्य में यथार्थ का रूप ले लेगी.

वायरलैस इलेक्ट्रिसिटी

जरा सोचिए, अगर आपका फोन चार्जर का इस्तेमाल किए बिना चार्ज हो जाए, घर में बिजली कनेक्शन के लिए तारों का झंझट न रहे, अंडरग्राउंड बिजली के तारों के लिए जमीन न खोदना पड़े, तो कैसा रहेगा? बहुत संभावना है कि भविष्य में वायरलैस इलेक्ट्रिसिटी जन-जीवन का हिस्सा होगी. फोन चार्जिंग वगैरह पर फिलहाल प्रयोग किए जा रहे हैं. लेकिन भविष्य की गर्त में वायरलैस इलेक्ट्रसिटी का फंडा बखूबी काबिज है.

सिर ट्रांसप्लांट

मानव अंगों को बदलने यानी ट्रांसप्लांट करने में वैज्ञानिकों ने बहुत हद तक सफलता पाई है. लिवर, हार्ट, आंख ट्रांसप्लांट करना जैसे आम बात हो गई है. लेकिन अभी मानव सिर को ट्रांसप्लांट करने की मशक्कत जारी है. इटली के न्यूरोसर्जन सर्जियो कैनावेरो कई वर्षों से सिर ट्रांसप्लांट पर काम कर रहे हैं. उनका दावा है आने वाले कुछ वर्षों में इंसान का पूरा सिर ट्रांसप्लांट करना संभव होगा, इससे उसे नई जिंदगी जीने का मौका मिलेगा. इससे लकवा खाए लोगों को सबसे ज्यादा फायदा होगा.

असली अंगों की तरह कृत्रिम मानव अंग

ऐसे कृत्रिम मानव अंग (हाथ, पैर) बनाए जा रहे हैं, जो दिमाग से मिलने वाले आदेश को फलीभूत करेंगे. यानी असली अंगों की तरह काम करेंगे. हाल ही में अमेरिका के ओहायो स्थित केस वेस्टर्न रिजर्व यूनीवर्सिटी ने ऐसे कृत्रिम हाथों पर सफल प्रयोग किया जो किसा चीज को छूने पर प्रतिक्रिया देते हैं. ये हाथ चीजों को पकड़ लेते हैं उन्हें उठा लेते हैं.

पल में भर जाएंगे घांव

फिल्मों में आपने सुपरमैन या वोल्वरीन को घांवों को पल में भरते हुए देखा होगा. यानी आपको चोट लगी, जख्म हुआ और पलक झपकते ही यूं भर गया. जरा सोचिए, ऐसा हकीकत में मुमकिन हो तो कितना बढ़िया रहेगा. अमेरिकी सेना के लिए समर्पित तकनीकी एजेंसी DARPA ( द डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी) के सौजन्य से वैज्ञानिक कुछ ऐसे माइक्रो (सूक्ष्म) इंम्प्लांट्स पर काम कर रहा हैं जो शरीर में फिट होकर ऐसी क्षमता देंगे कि घांव पल में भर जाएंगे और बड़ी से बड़ी बीमारियां पास नहीं फटकेंगी.

एंटी कोलिशन तकनीक

कारों में एंटी कोलीशन टेक्नोलॉजी पर दिन रात काम हो रहा है. इसके जरिए हादसों, भिड़ंत से बचा जा सकेगा. मान लीजिए आपकी कार सनसनाती हुई हाईवे पर जा रही है और अचानक सामने से कोई दूसरा वाहन या दूसरी चीज आ जाए तो दुघर्टना कोई नहीं रोक सकता. लेकिन एंटी कोलिशन तकनीक रोक लेगी. फिलहाल बीएमडब्ल्यू ने अपने आई3 लाइन व्हीकल रेंज में 360 डिग्री एंटी कोलीशन तकनीक का इस्तेमाल किया है. कार में लगे सेंसर उसे हर टक्कर से बचाते हैं. यहां तक की कोई ब्रेकर भी अचानक से आ जाए तो कार कंट्रोल हो जाती है.

आवाज बुझा देगी आग

आग जीवन का अहम हिस्सा है लेकिन आग तांडव भी मचा देती है. गर्मियों में जंगलों का सुलगना आम होता जा रहा है. दफ्तरों में या घरों में कभी किसी शॉर्ट सर्किट या लापरवाही से आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं. आग से बचाने के लिए सबसे बेहतर अग्निशमन साधन पानी ही नजर आता है, लेकिन अब परेशान होने की जरूरत नहीं. आग को पानी नहीं आवाज बुझा देगी. यकीन करना मुश्किल है लेकिन अमेरिका के वर्जीनिया स्थित जॉर्ज मेसन विश्वविद्यालय में किए गए शोध के बाद ऐसा अग्निशमन यंत्र बनाया गया है जो विशेष ध्वनि निकालकर आग बुझा देता है. अगर इस यंत्र के प्रयोग सफल रहे तो आग बुझाने में खर्च होने वाला पानी भी भविष्य में बचाया जा सकेगा.

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के लिए बनाया वर्ल्ड रिकॉर्ड

आमतौर पर क्रिकेटर किसी मैच की तैयारी के लिए नेट्स पर एक या 2 घंटे तक प्रैक्टिस करता है लेकिन रवांडा के एक क्रिकेटर ने नेट्स पर सबसे लंबे समय तक बैटिंग करने का ऐसा वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया है जिसे सुनकर हर कोई अचंभित रह जाएगा. क्रिकेट के इतिहास में जो बड़े दिग्गज नहीं कर पाए वो एक छोटे से देश के कप्तान ने कर सभी को हैरान कर दिया.

रवांडा के क्रिकेट कप्तान एरिक डुसिंगिजिमाना ने संयम और स्ट्रेंथ का परिचय देते हुए लगातार 51 घंटों तक नेट्स पर बैटिंग प्रैक्टिस कर गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज कराया है.

जी हां रवांडा क्रिकेट टीम के कप्तान एरिक डुसिंगिजिमाना ने 11 मई से 13 मई तक लगातार नेट्स पर बैटिंग प्रैक्टिस की. एरिक ने देश की राजधानी किगाली में बुधवार को बैटिंग करना शुरू किया और उनका मैराथन नेट सेशन शुक्रवार को खत्म हुआ.

यह काम एरिक ने किसी बड़े मैच की तैयारी के लिए नहीं बल्कि एक नेक काम के लिए किया है. देश में पहला अंतराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बनाने के लिए ही एरिक ने इतने लंबे समय तक नेट्स पर बैटिंग की ताकि गिनीज वर्ल्ड रेकॉर्ड में उन्हें जगह मिले और उन्हें स्टेडियम के लिए फंड जुटाने में मदद हो. इस पारी की तस्वीर खुद रवांडा क्रिकेट बोर्ड ने अपने सोशल मीडिया के पेज पर शेयर की थी.

अब तक 5000 पौंड (4.81 लाख रुपये) से ज्यादा जुटा चुके एरिक को विश्वास है कि उनकी इस उपलब्धि के बाद स्टेडियम के लिए जुटाई गई फंड की राशि बढ़कर 15000 पौंड (14.44 लाख रुपये) तक पहुंच जाएगी.

एरिक ने अपनी इस पारी से पहले देश के राष्ट्रपति से भी गुहार लगाई की वो आकर उन्हें नेट्स पर गेंदबाजी करें. दो दिन चले बैटिंग सेशन में एरिक को ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और रवांडा में ब्रिटिश हाई कमिश्नर विलियम गेलिंग ने भी बॉल डाली. एरिक को अपनी पत्नी की बॉलिंग का भी सामना करना पड़ा जिन्होंने 51 घंटे लंबे नेट सेशन की अंतिम बॉल डाली.

एरिक ने भारतीय मूल के विराग मारे के 50 घंटे लगातारा बल्लेबाजी करने के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए ये उपलब्धि हासिल की. इससे पहले इंग्लैंड के डेव न्यूमैन और रिचर्ड वेल्स के नाम ये रिकॉर्ड दर्ज था.

एरिक के लिए विराग का रेकॉर्ड तोड़ना उतना आसान नहीं था. नियमों के मुताबिक हर घंटे उन्हें 5 मिनट का ब्रेक मिलता था जिसमें वह कुछ खाना भी खा सकते थे.

पाकिस्तान के हनीफ मोहम्मद के नाम क्रिकेट मैच में लगातार सबसे ज्यादा बल्लेबाजी करने का रिकॉर्ड दर्ज है. हनीफ ने 1958 में वेस्टइंडीज के खिलाफ 337 रनों की हिमालयी पारी के दौरान लगातार तीन दिनों तक टेस्ट मैच में बल्लेबाजी की थी. उन्होंने 16 घंटे 10 मिनट तक बल्लेबाजी की थी, यह रिकॉर्ड आज तक कायम है.

विद्या बालन बनेंगी संजय दत्त की WIFE

जब से संजय दत्त जेल से रिहा हुए हैं उनकी बायोपिक पर फिल्म बनाने का काम तेज हो गया है. राजकुमार हिरानी के निर्देशन में बन रही इस फिल्म में रणबीर कपूर संजय के रोल के लिए फाइनल हैं.

ताजा खबर है कि संजय की पत्नी मान्यता के रूप में विद्या बालन से बात की गई है. उन्होंने अभी फिल्म साइन नहीं की है मगर मौखिक मंजूरी दे दी है. पिछले कुछ समय से कंगना रनौत का नाम मान्यता के रोल के लिए सामने आ रहा था परंतु सूत्रों का कहना है कि ऋतिक के साथ पैदा हुए विवाद के बाद कंगना को लेकर निर्माताओं ने मन बदल दिया.

सूत्रों की मानें तो पिछले हफ्ते हिरानी ने बायोपिक पर विद्या से बात की. विद्या फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई में उनके निर्देशन में काम कर चुकी हैं. उस फिल्म में उनके हीरो संजय दत्त थे. विद्या इस ऑफर को लेकर काफी उत्सुक हैं. हिरानी ने उन्हें फिल्म में मान्यता के रोल की विस्तार से जानकारी दी. स्क्रिप्ट पर फिलहाल काम चल रहा है.

सूत्रों का कहना है कि कंगना को लेकर निर्माता एक तो ऋतिक से विवाद की वजह से सशंकित हुए, दूसरे कंगना की तरफ से यह भी स्पष्ट नहीं है कि निर्देशक हंसल मेहता की फिल्म की शूटिंग कब तक खत्म हो जाएगी. संजय दत्त की बायोपिक की शूटिंग इस साल सितंबर में शुरू होनी है.

रणबीर कपूर जग्गा जासूस की शूटिंग खत्म करके जल्द ही पूरी तरह से इस फिल्म के लिए लुक पर काम करेंगे. विद्या की हां के बाद यह देखना रोचक होगा कि रणबीर के साथ उनकी जोड़ी पर्दे पर कैसी लगेगी.

फोन चोरी होने पर भी नहीं चोरी होगा डेटा

अगर आपने नया एंड्रॉयड फोन ले लिया है और उसे अपने गूगल अकाउंट से सेट कर लिया है. वॉट्सऐप, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ट्विटर जैसी एप्स को डाउनलोड भी कर लिया है तो यह समझ लीजिए कि आपके डेटा खतरे में है. हम अक्सर अपने फोन्स को संभालने के लिए लापरवाही बरतते हैं. जबकि फोन एक ऐसी डिवाइस है जिसमें हमारे बारे में सबसे ज्यादा डिजिटल इन्फॉर्मेशन होती है. अगर फोन चोरी हो जाए और गलत हाथों में पड़ जाए तो आपके डेटा का गलत फायदा भी उठाया जा सकता है. इसलिए सावधान रहें और जाने कैसे आप अपने डिजिटल डेटा को चोरी होने से बचा सकते हैं.

स्क्रीन लॉक

सबसे पहले अपने फोन में स्टोर इन्फॉर्मेशन को बचाने के लिए आपको स्क्रीन लॉक करना होगा. इसके लिए सेटिंग में जाइए, स्क्रॉल कीजिए और सिक्यॉरिटी को टैप करिए. और अब एक स्क्रीन लॉक फिक्स कर लीजिए ताकि कोई भी आपके फोन में सेव डेटा से छेड़छाड़ न कर सके. आप पैटर्न लॉक, पिन लॉक, पासवर्ड या फिंगरप्रिंट लॉक के जरिए अपने फोन को सेफ रख सकते हैं.

इनक्रिप्ट फीचर

अपने डिजिटल डेटा की सेफ्टी के लिए एंड्रॉयड  के इनक्रिप्ट फीचर का इस्तेमाल करिए. यह विकल्प सामान्यतया फोन में Settings > Security में मिलेगा, पर कुछ स्मार्टफोन्स में Settings > Privacy में मिल सकता है. अपने डिवाइस को इनक्रिप्ट कर आप अपने अकाउंट के एप्स, म्यूजिक, तस्वीरें और अन्य डेटा बचा सकते हैं. इससे होगा ये कि अगर आपका फोन किसी गलत हाथ में चला भी जाए तो आपका डिजिटल डेटा पिन, पासवर्ड और पैटर्न लॉक के पीछे सुरक्षित रहेगा.

एंड्रॉयड डिवाइस मैनेजर

अगर आपने अपने फोन में पहले से एंड्रॉयड  डिवाइस मैनेजर ऐक्टिवेट नहीं किया है. यह विकल्प आपको Settings > Security या कुछ फोन्स में Settings > Privacy में मिल सकता है. एंड्रॉयड  डिवाइस मनैजर ऐक्टिवेट कर लेने के बाद android.comdevicemanager पर अपना गूगल अकाउंट साइन इन करके चेक करें कि क्या यह ढंग से काम कर रहा है? यह ऑनलाइन डैशबोर्ड आपके हैंडसेट की लोकेशन मैप में डिसप्ले करेगा. इसके बाद आपको विकल्प दिखाई देगा जिससे अगर आप चाहें तो रिंग ऐक्टिवेट कर सकते है. इससे जब आपका फोन आस-पास होगा तो घंटी बजने लगेगी और आप उसे ढूंढ लेंगे.

अगर आपका फोन कहीं गुम हो जाता है तो भी आप अपना पासवर्ड चेंज कर सकते हैं और स्क्रीन लॉक कर सकते हैं. इसके साथ ही आप सारा डेटा इरेज कर सकते हैं जिससे कि इसका कोई गलत फायदा न उठा सके.

एंड्रॉयड  डिवाइस मैनेजर की सारी सेटिंग के बावजूद भी अगर आपके गुम हुए फोन का किसी ने सिम निकाल दिया हो, या स्विच ऑफ कर दिया हो तो आप अपना डेटा इरेज नहीं कर सकेंगे. इसके लिए आपको Cerberus anti-theft का इस्तेमाल करना होगा. यह एक पेड एप है. आपको इसके लिए सालाना तौर पर 500 रुपए देने होंगे.

आप चाहें तो इस एप को हाइड भी कर सकते हैं. इस एप से कोई भी आपके फोन से डेटा नहीं निकाल सकता. यहां तक कि सिम कार्ड चेंज हो जाने के बाद भी यह एप आपके डिवाइस की लोकेशन के साथ आपके ऑल्टरनेट नंबर पर एसएमएस कर देता है. इससे आपको अपने फोन की लोकेशन पता चल जाएगी.

अब ‘बेफिक्रे’ रणवीर होंगे NAKED…!

हिंदी फिल्मों में मेल एक्टर्स के बीच भी 'बॉडी एक्सपोज' करने की होड़ सी लगती नजर आ रही है. 'सांवरिया' में रणबीर कपूर और 'दोस्ताना' में जॉन अब्राहम के बाद इस रेस में नए खिलाड़ी हैं रणवीर सिंह.

रणवीर एक ऐसे एक्टर हैं जिन्हें दूसरों की तुलना में खुद को एनर्जेटिक दिखाना नहीं पड़ता, बल्कि वो खुद ही हमेशा चार्ज रहते हैं. जोश, जूनून, उत्साह, एनर्जी, क्रेजीनेस और शरारत तो उनकी पर्सनैलिटी का हिस्सा हैं. और पिछली कई फिल्मों में उन्होंने यह भी बखूबी साबित कर दिया है कि उन्हें किसी भी तरह के रोल से ऐतराज नहीं है.

एक बेवसाइट की खबर के मुताबिक आदित्य चोपड़ा की आने वाली फिल्म 'बेफिक्रे' के लिए रणवीर सिंह 'नेकेड' होने का मूड बना रहे हैं.

अब रणवीर बॉलीवुड के रोमांस गुरु आदित्य चोपड़ा के साथ जुड़कर फिल्म 'बेफिक्रे' के लिए करतब करते दिखेंगे. फिल्म में 23 किसिंग सीन होंगे और इसमें रणवीर सिंह बिना कपड़ों के भी नजर आएंगे.

एक्सपोज करने की रेस में रणबीर कपूर और जॉन अब्राहम को पीछे छोड़ते हुए रणवीर सिंह इस फिल्म में अपनी बॉडी के पीछे का पूरा हिस्सा ऑन-स्क्रीन नेकेड एक्सपोज करेंगे. देखने वाली बात यह होगी कि रणवीर की दीवानी फीमेल फैन्स किस तादाद में बॉक्स ऑफिस पर उनकी बेयर बॉडी की झलक पाने पहुंचेंगी.

चांद निकल आया

रेशमी जुल्फों पर कभी गुमान करते नहीं थकता था. मगर अब बादलों के बीच चांद ने कुछ यों दस्तक दी कि बाल कम होते जा रहे है और चांद पूरनमासी की तरह बढ़ता जा रहा है. भले ही तेल, आसन से ले कर दवादारू के सारे नुसखे फेल हो गए हों पर कमबख्त मजाल है कि हम हार मान जाएं. कुछ साल पहले की बात है, ज्यादा नहीं तो 5 साल जरूर हुए होंगे, उस समय मेरे सिर पर बहुत ही खूबसूरत बाल हुआ करते थे. एकदम कालेकाले, घने, मजबूत, रेशम जैसे मुलायम, चमकीले, झबरीले, बहुत ही शानदार. मैं अपने बालों में गजमोती पिरोया करता था. लोग कहते, ‘अरे, इस के बाल तो एकदम शाहरुख खान जैसे हैं.’

लोगों के कहतेकहते मैं सचमुच अपनेआप को शाहरुख खान समझने लगा और मेरे आदर्श शाहरुख खान हो गए. उस समय की फोटो जब भी मैं देखता हूं तो मेरा दिल बागबाग हो जाता है. मैं इतराने लगता हूं. अपने दोस्तों को बता कर अपने मुंह मियां मिट्ठू बनता हूं यानी अपनी बालों की तारीफ खुद करता हूं. लेकिन वह जमाना कुछ और था, घर में खानेपीने की कुछ कमी न थी. दूधदही तो हम लोग खाते नहीं, नहाते थे. लेकिन आजकल तो सबकुछ नकली मिलता है. खानेपीने की चीजों में मिलावट, दूध के नाम पर यूरिया वाला दूध, जैसे कुछ भी इन दिनों असली नहीं है. इसलिए इस समय अच्छे शरीर तथा अच्छे शरीर में अच्छे बालों की कल्पना भी नहीं कर सकते.

एक दिन की बात है, मैं बाथरूम में नहा रहा था. बालों में शैंपू किया तथा शरीर में साबुन लगाया. जब अच्छी तरह नहा कर तौलिये से अपने बालों को सुखाने लगा, उसी दौरान मेरी नजर तौलिये पर गई. मैं तौलिये को देख कर दंग रह गया. मेरे तौलिये में असंख्य टूटे हुए बाल थे. मैं उसी दिन समझ गया कि मेरा आने वाला भविष्य अंधकारमय है. मैं ने तुरंत आईने में देखा, मेरे सिर पर ‘दूज का चांद काले बादलों के बीच’ झांक रहा था. उसी दिन मैं ने अपने खास मित्र की सलाह ली. वे बोले, ‘‘अपने बालों में तेल क्यों नहीं लगाते? जैसे शरीर के लिए विभिन्न तरह के भोजन की जरूरत होती है उसी तरह बालों के लिए तेल भी आवश्यक है.’’ मैं बाजार से बहुत सारे तेल ले कर आया, जैसे शुद्ध सरसों का तेल, बादाम तेल, नारियल तेल, आंवला तेल, औलिव औयल और अरंडी तेल. मित्र के निर्देशानुसार तेल लगाना शुरू किया. यह बात भूल कर कि लोग मुझे चिपकू कहेंगे.

दरअसल, मेरे अपने स्कूल में जो भी बच्चे तेल लगा कर आते थे, हम सभी साथी उन्हें चिढ़ाने के लिए चिपकू कहा करते थे. पहले मेरी जुल्फें उड़ा करतीं, लहराया करतीं पर अब हमेशा चिपकी रहती हैं. कुछ दिनों तक उपचार चला पर बालों का झड़ना फिर भी न रुका. सारे तेल व्यर्थ गए, कुछ फायदा न हुआ और न ही सिर में मसाज ही काम आया. मेरे दिल के जितने अरमान थे उन का तेल जरूर निकल गया. एक दिन मैं टैलीविजन में समाचार देख रहा था. कुछ देर बाद उस में विज्ञापन आने शुरू हो गए. विज्ञापन में चैनल दिखा रहा था कि एक गंजे व्यक्ति के भी सिर में बाल आ जाते हैं. कुछ महीने का एक कोर्स करना होता है जिस में कैप्सूल खाना तथा कुछ तेल लगाने होते हैं. कुछ दिन कोर्स करने के उपरांत उस व्यक्ति के सिर में पहले जैसे बाल वापस आ जाते हैं.

प्रचार वाला बोल रहा था, ‘‘अभी और्डर करें. नीचे दिए फोन नंबर पर. पूरे कोर्स के लिए 5 हजार रुपए लगेंगे. नहीं ठीक होने पर पूरे पैसे वापस किए जाएंगे. अभी और्डर करने पर आप को मात्र 3 हजार रुपए लगेंगे यानी पूरे 40 प्रतिशत की छूट. आप सभी और्डर करें और पाएं 2 हजार रुपए की छूट.’’

टैलीविजन में दिखाया जा रहा था कि उपचार शुरू होते ही एक बाल की जड़ में 3-4 बाल उग आए हैं और 2-3 महीने में गंजापन पूरी तरह से गायब हो जाता है. मैं ने टैलीविजन में नंबर देख कर तुरंत और्डर कर दिया. दवा का पैकेट आने पर उपचार प्रारंभ किया. 2-3 महीने उपचार के उपरांत बालों में बाल बराबर भी फायदा न हुआ.  धीरेधीरे मेरे सिर के बाल और कम हो गए. स्किन के डाक्टर को भी दिखाया पर समस्या थोड़ी भी कम न हुई, बल्कि गहरी होती जा रही थी. न दिन को चैन न रातों को आराम, बस एक ही चिंता, केवल बाल ही बाल. सपने में भी बालबाल नजर आते. मैं हमेशा सोचता था कि मेरा बदन जब अच्छा है तो मेरे बाल भी अच्छे ही रहेंगे, मेरे बालों का कोई बाल भी बांका न कर सकेगा. पर ऐसा हो न सका.

मेरे एक और करीबी मित्र ने एक सलाह दी जो पहले वे अपने पर आजमा चुके थे. वे बोले, ‘‘ये बाल मैं ने धूप में नहीं पकाए हैं. मेरा अनुभव है, तभी मैं बोल रहा हूं. आप अपने बालों को ट्रिमिंग (बाल मशीन से एकदम छोटा करना) करा लीजिए, इस से जड़ भी मजबूत होंगी और बाल टूटेंगे भी नहीं.’’ एक दूसरे मित्र बोले, ‘‘आप सिर सफा (मुंडन) करा लीजिए. सिर की रूसी खत्म हो जाएगी और बाल मजबूत हो जाएंगे.’’ मुझे इन दोनों का वैज्ञानिक कारण समझ के परे था, पर मरता क्या न करता वाली बात चरितार्थ हो रही थी. मैं ने अपने बालों की ट्रिमिंग तथा सफा एक बार नहीं कईकई बार कराया. बस, इसी उम्मीद में कि मेरे बालों की बगिया में शायद फिर से बहार आ जाए. लेकिन ट्रिमिंग तथा सफा से बस एक बात का दुख होता, जब भी घर से बाहर निकलता तो लोग पूछते, कोई दुखांत घटना हो गई है क्या? कोई मर गया है क्या? मैं व्याख्या देतेदेते परेशान हो जाता.

आखिर मैं ने निर्णय लिया कि मैं टोपी लगा लूंगा जिस से सिर पूरी तरह ढक जाएगा और लोग परेशान भी नहीं करेंगे. टोपी लगाने पर भी लोग टोपी के अंदर झांकते और पूछते, ‘कोई मर गया है क्या?’ मतलब कि लोगों को किसी भी तरह चैन नहीं है.

कुछ दिनों तक नहाने के बाद तौलिए में बाल ढूंढ़ा करता, पर एक न मिलता. मेरा दिल कहता, मैं तो बालबाल बचा. बाल आता कहां से, सिर में बाल रहे तब न बाल आएंगे. कुछ दिनों बाद जब बाल लंबे हुए, फिर भी समस्या कम न हुई. मेरे सिर पर अब दूज का चांद नहीं, अब तो अष्टमी का चांद निकल आया था.

एक बहुत ही करीबी मित्र ने सलाह दी कि आप बालों की रोपाई क्यों नहीं करा लेते हैं. सिर के पीछे के बाल आगे की ओर रोप देते हैं और खर्च भी ज्यादा नहीं, मात्र 60 हजार रुपए से ले कर 1 लाख रुपए के बीच ही आएगा अथवा आप विग (नकली बालों की टोपी) लगा लीजिए, जैसे कि बहुत सारे फिल्मी हीरोहीरोईन या रईस लोग बालों की रोपाई करा लेते हैं या विग लगा लेते हैं. मैं ठहरा आदर्शवादी विचारधारा वाला, मेरा दिल इस बात को मानने को तैयार न हुआ. मैं सोचता कि रोपाई किए हुए बाल या बालों की विग तो नकली हुई न, मुझे तो असली चाहिए, पर मैं वह कर न सका.

मेरे एक और मित्र ने सलाह दी. वे बोले, ‘‘देखिए, मेरे खिचड़ी बाल भले हो गए हैं पर एक भी नहीं गिरे. मेरी बात मानिए, आप आसन करिए, जैसे शीर्षासन. इस से सिर में खून का दौरा बढ़ जाता है और सिर के बालों को काफी फायदा होता है.’’

मैं तो शुरूशुरू में कर नहीं पाता था लेकिन धीरेधीरे अभ्यास करतेकरते करना सीख गया. कुछ दिन करने के उपरांत कुछ भी लाभ न दिखाई दिया, उलटे सिर में जो भी कुछ बचे हुए बाल थे वे भी धीरेधीरे चले गए. और मेरे सिर पर अब चौदहवीं का चांद निकल आया था. यानी मैं एकदम से परमानैंट गंजा हो गया था. पहले मेरे आदर्श हुआ करते थे शाहरुख खान पर आज मेरे आदर्श हैं अनुपम खेर एक जन बोले, ‘‘अरे भाई, यह तो वंशागत है. यह कभी भी ठीक न होगा.’’ पर मैं ने आज भी उम्मीद नहीं छोड़ी है क्योंकि उम्मीद पर तो दुनिया कायम है, दोस्तों. बरसों का प्रयास व्यर्थ रहा और यह आज तक संभव न हो सका. अब तो मेरे खास मित्र, मुझे ‘उजड़ा चमन’ कह कर बुलाते हैं. मैं बिलकुल बुरा नहीं मानता. आज भी मैं मित्रों, दोस्तों, संबंधियों, रिश्तेदारों, जो बालों के बारे में सलाह देते हैं, की बातों का पालन करता हूं, वह भी बिना बाल की खाल निकाले.

मैं आज भी सकारात्मक उम्मीद लिए जेब में कंघी ले कर घूमता हूं. इस वैज्ञानिक युग में शायद कभी खोए हुए मेरे बाल वापस आ जाएं. फिलहाल, गंजे सिर पर हाथ फेर कर अपने दिल को सुकून देने की कोशिश करता रहता हूं.

प्रत्यूषा बनर्जी : आत्महत्या और अनसुलझे सवाल

अभिनेत्री प्रत्यूषा बनर्जी का स्वर अभी भी कानों में गूंज रहा है. मेरे साथ पहले इंटरव्यू के दौरान उस ने बताया था कि टीवी धारावाहिक ‘बालिका वधू’ में बड़ी आनंदी के किरदार को निभाने के लिए हजारों लड़कियों के बीच से उसे कैसे चुना गया था. 18 वर्ष की उम्र में इतने बड़े शो की मुख्य भूमिका का मिलना काफी अहम था क्योंकि मुंबई में बड़ी संख्या में लड़के, लड़कियां एक अच्छी भूमिका के लिए सालोंसाल दिनरात न जाने कितने प्रोडक्शन हाऊसों के चक्कर लगाते रहते हैं. प्रत्यूषा को बचपन से अभिनय का शौक था. वह कई बार आईने के सामने खड़ी हो कर अभिनय किया करती थी. जमशेदपुर के साधारण बंगाली परिवार में पलीबढ़ी प्रत्यूषा को जब बालिका वधू के लिए औडिशन का मौका मिला तो वह पहले लखनऊ, फिर मुंबई आई. इस धारावाहिक की मुख्यपात्र बन कुछ ही दिनों में वह सब की चहेती बन गई. उस की बातों में दृढ़ विश्वास था. वह हंसमुख थी, सौम्य थी. मुंबई में अभिनय की दुनिया की चकाचौंधभरी जिंदगी, ग्लैमरस पार्टियां प्रत्यूषा को अच्छी लगने लगीं. उस ने पहले विकास गुप्ता, मकरंद मलहोत्रा से डेटिंग की और फिर अभिनेतानिर्माता राहुल राज सिंह से डेटिंग करती रही. राहुल भी जमशेदपुर के हैं. एक बर्थडे पार्टी में एक कौमन फ्रैंड के जरिए वे दोनें मिले थे.

‘बालिका वधू’ की प्रसिद्धि से प्रत्यूषा खुश थी लेकिन इस धारावाहिक का अतिव्यस्त शूटिंग कार्यक्रम उस को रास नहीं आया. 2013 में जब यह धारावाहिक अपनी लोकप्रियता के चरम पर था तभी प्रत्यूषा ने इस धारावाहिक को यह कह कर छोड़ दिया कि वह बे्रक चाहती है, रोजरोज की शूटिंग से तंग आ चुकी है.बाद में यह भी सुना गया कि उस ने अपनी मां की बीमारी के चलते शो छोड़ा था. इस के बाद उस ने रिऐलिटी शो ‘झलक दिखला जा’ के 5वें सीजन और ‘बिग बौस’ के 7वें सीजन, ‘कौमेडी क्लास’, ‘ससुराल सिमर का’, ‘पावर कपल’ आदि किए.

24 वर्षीय प्रत्यूषा बनर्जी की मौत सब को चौंकाने वाली थी क्योंकि अप्रैल में ही वह राहुल राज सिंह से शादी करने वाली थी. उस ने अपनी भावी शादी का जोड़ा डिजाइनर रोहित वर्मा को डिजाइन के लिए दिया था. ऐसे में पंखे से लटक कर आत्महत्या की वजह समझ में नहीं आ रही. आखिर इतनी हंसमुख और स्पष्टवादी लड़की किस तरह से ऐसा कदम उठा सकती है. कुछ लोगों ने तो 1 अप्रैल के इस दिन को ‘अप्रैल फूल’ माना. पर जब हकीकत सामने आई तो फैमिली और फ्रैंड्स के होश उड़ गए. हालांकि पोस्टमौर्टम रिपोर्ट में मौत की वजह आत्महत्या माना गया है लेकिन प्रत्यूषा के दोस्त और साथी कलाकार इसे हत्या मानते हैं. उन के अनुसार, राहुल एक ऐयाश लड़का है. इस से पहले उस ने कोलकाता की एक लड़की से शादी की थी और फिर उसे छोड़ दिया था. इस के बाद वह प्रत्यूषा से मिला. और 1 साल से प्रत्यूषा के साथ लिवइन रिलेशनशिप में रहा और प्रत्यूषा से वह शादी करने वाला था.

इस बीच, उस के जीवन में सलोनी शर्मा नाम की एक लड़की आई जो एक धारावाहिक में काम करती है. राहुल और सलोनी की नजदीकी प्रत्यूषा को पसंद नहीं थी. उस ने राहुल से सलोनी को छोड़ने के लिए कहा पर राहुल नहीं माना. प्रत्यूषा के दोस्त और साथी कलाकारों का कहना है कि राहुल को अपनी गर्लफ्रैंड्स के पैसों पर ऐश करने में मजा आता है. रात की पार्टियों में वह अकसर दिखाई पड़ता था. प्रत्यूषा काफी दिनों से तनाव में जी रही थी. ऐसे में उस का अकेले रहना कहां तक ठीक था? प्रत्यूषा अपने और राहुल के रिश्ते से खुश थी. इंस्टाग्राम पर वह काफी तसवीरें पोस्ट किया करती थी. ऐसे में आत्महत्या की वजह समझना मुश्किल हो रहा है. यह सही है कि लिवइन रिलेशनशिप आजकल के युवाओं का पसंदीदा रिश्ता है. यह बड़े शहरों में बढ़ भी रहा है. ग्लैमरवर्ल्ड में तो लिवइन की भरमार है. छोटे शहरों से आई लड़कियां या लड़के जब मायानगरी मुंबई की इस चकाचौंध को देखते हैं तो इसे हजम कर पाना उन के लिए मुश्किल होता है. ऐसी घटनाएं यहां होती रहती हैं जब रिलेशनशिप में रहने वाले लड़के और लड़कियां अपना काम पूरा होने के बाद एकदूसरे को छोड़ देते हैं. कुछ तो डिप्रैशन के शिकार हो कर आत्महत्या कर लेते हैं तो कुछ तांत्रिक, पंडेपुजारी के जाल में फंस जाते हैं और अपना पैसा व इज्जत दोनों गंवा बैठते हैं.

लिवइन रिलेशनशिप में रहने वाले प्रत्यूषा और राहुल की यही कहानी थी. जिस में राहुल ने ऐश किया और प्रत्यूषा मंजिल से भटक कर मौत के मुंह में समा गई. प्रत्यूषा की मौत को उस के दोस्त मर्डर मानते हैं. प्रत्यूषा की दोस्त काम्या पंजाबी और विकास गुप्ता ने दावा किया है कि प्रत्यूषा ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उस की हत्या की गई है. राहुल की प्रेमिका सलोनी शर्मा भी, राहुल की गैरहाजिरी में, प्रत्यूषा के साथ दुर्व्यवहार करती थी. काम्या ने कहा कि मृत्यु से 3-4 दिन पहले प्रत्यूषा ने फोन कर उसे राहुल की बात बताई थी और उस से मदद मांगी थी. काम्या उस समय दिल्ली में थी और 4 अप्रैल को मुंबई पहुंच कर उस से मिलने वाली थी.

लिवइन रिलेशनशिप में रहना आज लड़के और लड़कियों में आम है पर इस रिश्ते में आई समस्याओं को झेलना उन के लिए आसान नहीं होता. इस बारे में मुंबई के फोर्टिस अस्पताल की मनोरोग चिकित्सक डा. पारुल टांक कहती हैं, ‘‘प्रत्यूषा उदासीनता की शिकार थी. अभी तक जो बात सामने आ रही है उस के हिसाब से उस का निजी जीवन, मातापिता से संबंध और कैरियर ये तीनों ही सही नहीं थे, ऐसे में डिप्रैशन होना स्वाभाविक है.’’ लिवइन रिलेशनशिप की बढ़ती संख्या को देख कर सुप्रीम कोर्ट ने 13 अप्रैल, 2015 को इसे मान्यता दे दी है. कोर्ट के अनुसार, अगर लड़का या लड़की अपनी मरजी से साथ रहते हैं तो उन्हें शादीशुदा माना जाएगा. उन के बच्चे भी जायज ठहराए जाएंगे.

रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट डा. संजय मुखर्जी कहते हैं, ‘‘लिवइन रिलेशनशिप में लड़का या लड़की दोनों में आपसी समझ अच्छी होनी चाहिए. एकदूसरे पर जल्दी भरोसा करना ठीक नहीं होता. अंधविश्वासी होना ठीक नहीं है. इस रिश्ते में टाइमपास कर दोनों पार्टनरों में से कोई भी रिश्ते को छोड़ सकता है.’’ डा. संजय आगे कहते हैं, ‘‘प्रत्यूषा की घटना को पर्सनैलिटी डिस्और्डर कहना ठीक होगा जिसे ‘न्यूरोटिसिज्म’ कहते हैं. यह अधिकतर आनुवंशिकी होता है. प्रत्यूषा अपने मांबाप की इकलौती संतान थी. ऐसे में राहुल का उसे धोखा दे कर किसी और के साथ समय बिताना उसे ‘हर्ट’ कर गया. ऐसे लोगों को अगर प्यार, खुशी सबकुछ ठीक तरह से मिले तो ये मस्त जिंदगी जीते हैं और अगर इन्हें जरा भी किसी से तकलीफ मिलती है, ये बरदाश्त नहीं कर पाते.’’

प्रत्यूषा ने कम उम्र में सफलता हासिल की थी. लेकिन पैसा, बौयफ्रैंड आदि सब धीरेधीरे उस से छिनता चला गया. अभिनय से शिखर पर पहुंची प्रत्यूषा अभिनय की ग्लैमरस दुनिया की शिकार हो गई. उस ने आत्महत्या की, उसे आत्महत्या करने को मजबूर किया गया या उस की हत्या की गई, इस पर संशय रहेगा.

अब अंबेडकर को देवता बनाने की साजिश

असलियत को ढकने का सब से अच्छा तरीका यह है कि उस पर राजनीति का परदा डाल दो. ऐसा करने से लोगों का बात की तह तक पहुंच पाना मुश्किल हो जाता है. और उस परदे के पीछे धर्म व उस के ठेकेदार इत्मीनान से साजिशें रचते रहते हैं.

14 अप्रैल को डा. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती देशभर में, बिलकुल धार्मिक जलसों की तरह, धूमधाम से मनाई गई. जगहजगह शोभायात्राएं निकलीं, अंबेडकर की फोटुओं और मूर्तियों का पूजन हुआ, कई जगह प्रसाद भी चढ़ाए गए. पंडाल, झांकियों की तरह सजाए गए और आतिशबाजी भी की गई. आरती की जगह भीम गीत गाए गए. ऐसा लगा, मानो आज रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, हनुमान जयंती या दुर्गा अष्टमी जैसा कोई त्योहार है. बच्चे, औरतें, बूढ़े और जवान सब एक जनून में नाचतेगाते रथयात्राओं के साथ चले तो सहज लगा कि ये अंबेडकरपूजक, दरअसल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उन से अंबेडकर को दूर करने की कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है.

दलितों का जोश और जनून देख सभी भौचक थे कि इस साल ही क्यों अंबेडकर जयंती इतनी ज्यादा धूमधाम से मनाई जा रही है, इस के पहले तक 14 अप्रैल को दलित हिमायती कुछ दल और संगठन अपनेअपने दफ्तरों में अंबेडकर को याद कर भाषण दे कर चलते बनते थे. एकाध जगह बड़ी मीटिंग कर ली जाती थीं जिन में कुछ दलित नेता बाबासाहेब के दलित उत्थान में योगदान को ले कर हर साल दिया जाने वाला भाषण दोहरा देते थे. पर इस साल अंबेडकर जयंती पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी की तरह नए तरीकों व सलीके से मनाई गई तो कहने, देखने, सुनने वालों ने यही कहा कि यह वोटों की राजनीति है और सभी सियासी पार्टियां दलितों को लुभाने में लगी हैं. हालांकि ऐसा तो इस देश में होता रहता है लेकिन इस साल कुछ ज्यादा ही हो गया.

शो महू का

अंबेडकर के नाम पर सब से बड़ा और अहम जलसा ‘दलित कुंभ’ इंदौर के नजदीक महू में हुआ जो अंबेडकर की जन्मस्थली भी है. इस जलसे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. नरेंद्र मोदी ने जो बोला उस के भी माने हैं और जो वे नहीं बोल पाए, उस के भी माने थे.

मोदी का महू आना इत्तफाक या महज सियासी बात नहीं थी बल्कि भाजपा की महती जरूरत हो गई थी. इस जलसे की तैयारियां दरअसल इस जनवरी में ही शुरू हो गई थीं जिस के कर्ताधर्ता मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे. बिहार विधानसभा चुनाव में दलितों ने भाजपा को ठेंगा दिखा दिया था और इस का दोहराव मध्य प्रदेश की लोकसभा सीट रतलाम-झाबुआ में हुआ था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया ने भाजपा की निर्मला भूरिया को तकरीबन एक लाख वोटों से शिकस्त दी थी. इस नतीजे की खास बात यह थी कि शहरी इलाकों, जहां अधिकतर ऊंची जाति वाले रहते हैं, से भाजपा ने बढ़त ली थी लेकिन गांवदेहातों, जहां अभी भी पिछड़ों, अतिपिछड़ों व दलितों की तादाद ज्यादा है, से कांग्रेस आगे रही थी. मध्य प्रदेश भाजपा का गढ़ है फिर भी भाजपा हारी तो शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के रणनीतिकारों का चौंकना लाजिमी था. लिहाजा, जम कर इस हार पर बारीकी से चर्चा हुई और जब वजह सामने आई तो पता चला कि दलित और आदिवासी अब पौराणिकवादी भाजपा के साथ नहीं हैं.

यह वाकई बेहद चिंता की बात थी. लिहाजा, शिवराज सिंह चौहान और आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के बीच कई दफा लंबी मीटिंगों के दौर चले कि कैसे दलितों को अपने खेमे में लाया जाए. इसी बीच, मध्य प्रदेश की मैहर विधानसभा सीट का उपचुनाव आया जिस में हैरतअंगेज तरीके से भाजपा जीती.

यह जीत भगवा खेमे के लिए गर्व की बात थी. जीत के पीछे वजह इतनी भर थी कि चुनाव के पहले ही शिवराज सिंह चौहान ने मैहर में दलितों के एक संत रविदास की जयंती सरकारी तौर पर मनाने का ऐलान किया था और रविदास का मंदिर बनाने के लिए जमीन व मदद देने का भी ऐलान किया था. चुनाव प्रचार में मैहर की दलित बस्तियों में घूमघूम कर खुद शिवराज सिंह चौहान ने ये बातें दोहराई थीं.

यही वह वक्त था जब दलित समुदाय आरएसएस को ले कर डरा हुआ था क्योंकि वह आरक्षण पर दोबारा सोचविचार की बात कर रहा था. इस से दलितों और भाजपा के बीच खुदी खाई और गहरी हो गई थी. लेकिन शिवराज सिंह चौहान का आइडिया मैहर में चल गया कि दलितों को लुभाने का एक बेहतर और कारगर तरीका यह भी है कि उन्हें उन के संतों के नाम पर बहलायाफुसलाया जाए, इस में हर्ज की कोई बात नहीं, उलटे फायदा यह है कि भाजपा के सिर से ऊंची जाति वालों और मनुवादी पार्टी होने का ठप्पा हटने में सहूलियत रहेगी.

भाजपा और आरएसएस ने सार यह निकाला कि अब 12-15 फीसदी ऊंची जाति वालों को खुश रखने के लिए दलित, आदिवासियों के 35-40 फीसदी वोट गंवाना समझदारी की बात नहीं क्योंकि वे अब राजनीति में पहले सी दिलचस्पी नहीं लेते. लिहाजा, बड़े पैमाने पर दलितों को धर्म से इस तरह जोड़ा जाए कि वे ऊंची जाति वाले देवीदेवताओं को ही पूजने की जिद न करें और दबंग व पैसे वाले होते जा रहे पिछड़े भी नाराज न हों जो तकरीबन सवर्ण हो चुके हैं.

इस के लिए जरूरी था कि अंबेडकर की जन्मस्थली महू में नरेंद्र मोदी को लाया जाए. इस बाबत शिवराज सिंह 2 मर्तबा पीएम से मिले और आरएसएस के जरिए भी दबाव बनवाया. लिहाजा, मोदी को महू आने को तैयार होना पड़ा.

शिवराज सिंह और आरएसएस की जोड़ी ने मोदी की सभा को कामयाब बनाने के लिए दिनरात एक कर दिया और महू में 5 लाख दलितों को जुटाने का टारगेट अपनेआप को दिया जो हालांकि पूरा नहीं हुआ. लेकिन मोदी की कदकाठी के लिहाज से लाज बचाने लायक भीड़ इकट्ठा करने में यह जोड़ी कामयाब रही.

मोदी जो नहीं बोले

नरेंद्र मोदी क्या बोलेंगे, इस में सभी की दिलचस्पी थी पर मोदी की दिक्कत यह थी कि जरूरत से ज्यादा दलितों की हिमायत की या हमदर्दी दिखाई तो दांव उलटा भी पड़ सकता है. लिहाजा, वे बेहद सधे ढंग से बोले.

उन्होंने अंबेडकर को महज आदमी नहीं, बल्कि एक संकल्प बताया और इस के बाद ग्राम उदय योजना और बिजली, पानी व शौच पर भाषण देते वक्त उन के बारे में बात काट दी. जिस से दलितों के हाथ मायूसी ही लगी जो आस लगाए आए थे कि प्रधानमंत्री एक दफा इस गलतफहमी को अंबेडकर जयंती पर खुलेतौर पर दूर कर दें कि कुछ भी हो जाए, आरक्षण नहीं हटेगा. इस से लगा कि इस मसले पर भगवा खेमा ही 2 धड़ों में बंटा हुआ है. अपने जानेपहचाने अंदाज में यह कहकर जरूर मोदी ने तालियां पिटवा दीं कि एक चाय बेचने वाला, यानी  अंबेडकर और उन के बनाए संविधान की वजह से ही, पीएम है. खुद को गरीब तबके का बताते मोदी ने यह भी दोहराया कि उन की मां घरों में काम करती थीं.

खुद को गरीब बता कर पीएम बनने के लिए वे पहले से ही हमदर्दी बटोर रहे हैं पर महू में पुराने डायलौग को दोहराने का मकसद यह था कि जाति की बात खुलेतौर पर कहने से बचा जाए. ऐसा पहली बार हुआ कि मोदी के बोलने में पहले सा दम नहीं दिखा क्योंकि वे मुद्दों की बात नहीं बोल पा रहे थे. मुद्दे की बातें थीं कि हिंदू धर्म में पसरी छुआछूत, भेदभाव और वर्ण व्यवस्था के चलते अंबेडकर ने 11 अक्तूबर, 1956 को हिंदू धर्म छोड़ बौद्ध धर्म अपनाते यह कहा था कि ऐसा लग रहा है कि आज मेरा दूसरा जन्म हुआ है. आज भी हालात बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं. इसी दिन हैदराबाद के खुदकुशी कर चुके दलित छात्र रोहित वेमुला के घरवालों ने बौद्ध धर्म अपनाया तो नागपुर में जेएनयू के छात्र कन्हैया

कुमार की जम कर बेइज्जती हिंदूवादी संगठनों ने की क्योंकि कन्हैया सीधेसीधे आरएसएस पर उस के घर में घुस कर निशाना साध रहा था. ऐसे में आरएसएस का भोपाल सहित देश के कई हिस्सों में पौराणिक व ब्राह्मणी तर्ज पर अंबेडकर जयंती पर पथ संचलन करना यानी जुलूस निकालने की तुक क्या थी, बात समझ से परे है. भोपाल में स्वयंसेवकों ने पहली दफा अंबेडकर की मूर्ति पर फूलमाला चढ़ाई. भारत माता के वेष में छोटी लड़कियों को इस्तेमाल किया तो आरएसएस का मकसद साफ था कि अब मुद्दा भारत माता होगा क्योंकि वह सभी तरह के हिंदुओं का है. मान्य देवियां अब ऊंचे सवर्णों, पिछड़ों के लिए रिजर्व हो गई हैं. बिना घरबार वाली भारत माता को दलितों और पिछड़ों के अछूत वर्गों को पकड़ाया जा रहा है.

हांका जा रहा है दलितों को

दलितों का पढ़ालिखा, बुद्धिजीवी तबका नरेंद्र मोदी से आरक्षण पर उन का रुख एकदम साफ करने के अलावा यह सुनने की उम्मीद भी पाले बैठा था कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव बड़े अभिशाप हैं, इन से छुटकारा दिलाया जाएगा. पर मोदी खुले में शौच जाने पर चिंता जताते रहे तो साफ हो गया कि इस बार बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाए जाने का मकसद इतना भर था कि दलित अपनेआप को हिंदू मानने लगें और वे अंबेडकर को देवता मानें तो यह और खुशी की बात है क्योंकि इस पर पिछड़ों को भी कोई एतराज नहीं है. हर एक पिछड़ी जाति का अपना एक अलग देवता है जिस की जयंती वे भी धूमधाम से मनाने लगे  हैं. शौच पर बात तो नरेंद्र मोदी करते हैं पर सीवर डलवाने और नल से पानी जाने की नहीं क्योंकि उस के बिना शौचालय बेमतलब का है. शौचालय को तो बहाना बनाया जा रहा है.

दरअसल, दलितों को हांका जा रहा है ताकि वे मुसलमान, ईसाइ या बौद्ध न बनें. अंबेडकर के नाम पर ही नए पुजारियों के साथ सही पूजापाठ तो करें, आरती गाएं, झांकियां लगाएं, शोभायात्राएं निकालें, प्रसाद चढ़ाएं, नाचेगाएं, अगरबत्तियांमोमबत्तियां जलाएं. यह खुशी की बात है और इस के लिए उन के सामने मोदी, शिवराज या भागवत को सवर्णों की तरफ से झुकना पड़े तो हर्ज या नुकसान की कोई बात नहीं. आरएसएस के लिए तो हमेशा की तरह आज भी हिंदू धर्म खतरे में है जिसे बचाए रखने के लिए दलितों की तादाद अहम है और भाजपा को वोट दे कर सत्ता में बैठाए रखने में भी दलितों का रोल अहम हो चला है.

अब यह दलितों को तय करना है कि कौन सा रास्ता उन के लिए भले का है– पूजापाठ वाला जिस के लिए अंबेडकर को उन का देवता बनाया जा रहा है या फिर सामंत व सवर्णवाद से लड़ने के लिए तालीम व रोजगार हासिल करने वाला जिस के लिए उन्हें किसी देवीदेवता की जरूरत नहीं. भाजपा जिस सामाजिक समरसता की बात कर रही है, उस का रास्ता मंदिरों और पंडेपुजारियों से हो कर नहीं जाता बल्कि बराबरी का अपना हक हासिल करने से है.

पहले वाले रास्ते में दलित खुद भी यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि छोटी जाति में पैदा होना उन का पिछले जन्मों का फल है, इसलिए लातें तो खानी पड़ेंगी, यही प्रायश्चित्त है. यही वह हालत थी जिस का बुद्ध ने विरोध किया था और अंबेडकर ने भी. उन दोनों ने अपनेअपने समय में आगाह भी किया था कि उन्हें या किसी और आदमी को देवता या भगवान मत बना देना वरना पूजापाठ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा. हिंदूवादी आज दलितों को पौराणिक तर्ज पर पूजापाठ में उलझा व उकसा रहे हैं और इस बाबत पहली दफा आरएसएस ने भी कमर कस ली है. दलित कल बेचारे थे और आज भी वे बेचारे जैसे हैं क्योंकि वे भाजपा व आरएसएस की इस साजिश को समझ नहीं पा रहे.

दलित और आरक्षण

भाजपा अब दलितों को गले तो लगा रही है पर आरक्षण का क्या होगा, इस सवाल का वह साफ जवाब नहीं दे पा रही. आरक्षण का राग आरएसएस ने छेड़ा था. बिहार में तो वोटर ने इस का करारा जवाब दे दिया पर अब हालात बदले हैं.

आरक्षण पर दोबारा सोचविचारी का गाना आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गाया था पर महू शो के बाद लग ऐसा रहा है कि वह दलितों के मुंह से ही कहलवाना चाह रही है कि पैसे वाले दलितों को आरक्षण छोड़ देना चाहिए. रामविलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान ने इस बात का समर्थन किया तो महू में नरेंद्र मोदी ने इसी बात को दूसरी तरह से इशारों में कहा कि उन के कहने पर कई पैसे वालों ने गैस सब्सिडी छोड़ दी.

क्या इस बात का मतलब यह समझा जाए कि पैसे वाले दलित खुद आरक्षण छोड़ दें? इसे ले कर दलित समुदाय में बेहद कशमकश का माहौल है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान कहते रहे हैं कि कुछ भी हो जाए, मौजूदा आरक्षण व्यवस्था खत्म नहीं होगी.

मौजूदा आरक्षण व्यवस्था बदली नहीं जाएगी, इस की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं. ऐसे में तो पढ़ेलिखे दलित चिंता में हैं कि कहीं ऐसा न हो कि बदलाव के नाम पर उन्हें ठग लिया जाए. कांग्रेस देशभर में कमजोर हो चुकी है तो बसपा के पास भी पहले सा जनाधार नहीं रहा. उलटे, खुद मायावती यह कहती रहती हैं कि गरीब सवर्णों को आरक्षण देने में हर्ज नहीं.

यानी सवर्ण दल अब दलितों को और दलित दल अब सवर्णों को लुभाने की बातें व राजनीति कर रहे हैं. इस में नुकसान दलितों का ही होना है. उधर, आरएसएस का दलितों को संदेशा साफ है कि पूजापाठ करो तो स्वागत है और बराबरी चाहिए तो सवर्ण हो चले दलितों को आरक्षण छोड़ने को तैयार रहना चाहिए. लेकिन ऐसे में अगर अब आरएसएस ने आरक्षण का गाना दोबारा गाया तो तय है इस की कीमत भाजपा को और उस से भी पहले नरेंद्र मोदी को चुकानी पड़ेगी क्योंकि महू शो इन दोनों की ही मिलीभगत से तय हुआ था.

दलित वोटबैंक भुनाने में कोई भी पीछे नहीं

दलितों पर राजनीति किया जाना नई बात नहीं है और अंबेडकर जयंती इस के लिए सुनहरा मौका होता है. भाजपा के महू शो की तैयरियों का अंदाज सभी पार्टियों को था. लिहाजा, सभी ने अंबेडकर के बहाने दलितों को लुभाने और बहकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बसपा सुप्रीमो लखनऊ से तिलमिलाती हुई बोलीं कि भाजपा को देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं होने देंगे तो उन का मकसद इतना भर जताना था कि भाजपा मनुवादी पार्टी है और दलित हिंदू नहीं हैं.

ऐसा पहली बार हुआ जब भाजपा ने बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाई जिस से मायावती को दलित वोटों पर अपना दबदबा खतरे में नजर आया.  मायावती की तरह कांग्रेस ने भी भाजपा को जम कर यह कहते  कोसा कि वह धर्म के नाम पर देश को बांट रही है और अंबेडकर के नाम पर राजनीति कर रही है. इधर, महू में यही आरोप मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के सिर मढ़ दिया कि वह अंबेडकर के नाम पर राजनीति करती रही है, नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो बाबासाहेब की जन्मस्थली तक उन की जयंती पर आए.

कांग्रेस ने तो बाकायदा भीम ज्योति यात्रा का आयोजन किया था जो 18 अप्रैल को लखनऊ में खत्म हुई. इस मौके पर कांग्रेसी नेता मोहसिना किदवई ने भाजपा को निशाने पर लेते कहा कि वह जिन्ना की मुसलिम लीग की तरह है और लोगों को सांप्रदायिक तौर पर बांटने व उन में नफरत फैलाने का काम करती है. कांग्रेस के दलित नेता सुशील कुमार शिंदे ने महू शो पर निशाना साधते कहा कि दरअसल, अंबेडकर जयंती धूमधाम से मनाने का पहला फैसला कांग्रेस ने लिया था जिस की भनक भाजपा को लगी तो उस की नींद खुली.

दलितों और अंबेडकर पर सियासत कर रहे इन तमाम दलों की नींद जरूर अभी तक नहीं खुली है कि असल में गड़बड़झाला कहां है. शिवराज सिंह चौहान महू में मोदी के गुणगान में लगे रहे तो मोहसिना किदवई और शिंदे लखनऊ में सोनिया व राहुल की तारीफों में कसीदे गढ़ते रहे. दलित राजनीति के अखाड़े में बिलाशक बाजी भाजपा ने मारी जिस ने सभी के अंदाजों को झुठलाते हुए दलितों के सामने अपना सिर झुका दिया. उत्तर प्रदेश में चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं, ऐसे में महू का शो बसपा और कांग्रेस दोनों को भारी पड़ सकता है.

यह हकीकत दलित समुदाय बेहतर जानता है कि कोई पार्टी उस की सगी नहीं है. कांग्रेस का लंबे वक्त तक दलित वोटों पर एकछत्र राज रहा तो इस सिलसिले को कांशीराम ने बसपा बना कर तोड़ा. बाद में मायावती दलितों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं तो दलितों ने उन्हें भी खारिज कर दिया.

दलित अब भाजपा को गले लगाएंगे, इस में शक है. पिछले अनुभव बताते हैं कि जिस किसी भी पार्टी ने भी दलितों पर जरूरत से ज्यादा राजनीति की है वह सत्ता पाने में कामयाब नहीं हुई है. इस की बेहतर मिसाल मध्य प्रदेश है जिस के 2003 के विधानसभा चुनाव में तब के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का दलित प्रेम इतने शबाब पर था कि वे यह तक कहने लगे थे कि कांग्रेस को सवर्ण वोटों की जरूरत नहीं. तब से कांग्रेस सूबे की सत्ता से बाहर है.

इस का एक मतलब यह भी निकलता है कि जरूरत से ज्यादा लगाव और हमदर्दी दिखाने वालों को दलित नकार देता है क्योंकि इस से उस की सामाजिक परेशानियां हल नहीं होतीं, न ही उसे बराबरी का हक मिलता है. वह शुरू से ही दोयम दरजे का रहा है, इस से उसे कोई छुटकारा नहीं दिलाता. ऐसे में जातिगत समीकरण का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कह पाना मुश्किल है.

कुंभ में नहलाएंगे दलितों को

दलित अब पूरी तरह खुद को हिंदू महसूस करने लगे, इस बाबत आरएसएस और शिवराज सिंह चौहान दलित आदिवासियों को कुंभ में नहाने का भी इंतजाम कर रहे हैं. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की रजामंदी से ‘दलित आदिवासी स्नान’ की डुबकी उज्जैन में 12 मई से 15 तक होगी. इस डुबकी को संघ ने समरसता स्नान नाम दिया है. इस के लिए बाकायदा अलग पंडाल लगाया जा रहा है और खुद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत व दूसरे पदाधिकारी दलितों के साथ नहाएंगे, खाना खाएंगे और पूजापाठ करेंगे. इन टोटकों को और कारगर बनाने के लिए अंबेडकर की जन्मस्थली महू से पानी लाया जाएगा. यह ‘दलित स्नान’ अपनेआप में भेदभाव से भरा है. जिस के जरिए संदेश यह भी दिया जा रहा है कि दलित ऊंची जाति वालों से अलग हैं और अंबेडकर भले ही पूजापाठ व नदी स्नान सहित दूसरे कर्मकांडों की मुखालफत करते थे पर उन्हें भगवान मानने वाला दलित नहीं करता, क्योंकि वह हिंदू है.

दलित आदिवासी क्यों कुंभ नहाएं, इस  सवाल का एक जवाब यह भी है कि वे तर जाएं और पुराने जन्मों के पाप धो लें जिन के चलते वे शूद्र योनि यानी छोटी जाति में पैदा हुए. दलित डुबकी के दूसरे माने ये हैं कि कुंभ में आए पंडों, संतों और महंतों को चढ़ावा ज्यादा मिले. उज्जैन में बड़े नामीगिरामी संत और उन के अखाड़े तंबू गाड़े हिंदुत्व के इन नए ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं. दलितों को महू की तरह उज्जैन तक ले जाने की सूबे में तैयारियां जोरों पर हैं जिस का एक मकसद यह भी है कि दलित नए हिंदूवाद में आरएसएस का साथ दें जिस के तहत हरएक को भारत माता की जय बोलना चाहिए. जय श्रीराम की जगह भारत माता को दे दी गई है जिस से ऊंची जाति वाले हिंदू राममंदिर निर्माण के बाबत सवाल न पूछें.

दलितों को कुंभ नहलाने के ऐलान से सब से ज्यादा खुश पिछड़े तबके के लोग हैं जिन्हें दलितों से अलग कर बड़ा हिंदू मान लिया गया है. वर्णव्यवस्था का विरोध करते रहने वाले अंबेडकर के उसूलों को क्षिप्रा नदी में डुबकी लगा कर दलित भूल जाएं और नई वर्णव्यवस्था को मंजूरी दे दें. इस का असल मकसद है कि तुम हिंदू तो हो पर अभी छोटे हो. इसलिए और बड़ा बनने के लिए कर्मकांडों में उलझ जाओ.

उत्तर प्रदेश : मुखौटा भर हैं भाजपा के नए अध्यक्ष

भारतीय जनता पार्टी राजनीतिक सुचिता की पक्षधर रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव के समय उस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा कि लोकसभा मंदिर की तरह है. जब हमारी सरकार आएगी तो लोकसभा के दागी सदस्यों को संसद से बाहर किया जाएगा. नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के समय इस बात को खुल कर कहा कि केवल दूसरे दलों के लोगों को ही नहीं, भाजपा के भी ऐसे सदस्यों को संसद से बाहर कर दिया जाएगा.

मोदी ने देश को अपराधमुक्त राजनीति का सपना दिखाया था. सत्ता में आने के बाद पहली बार जब नरेंद्र मोदी संसद में प्रवेश करने लगे तो संसद की सीढि़यों से पहले रुक कर उन्होंने संसद की सीढि़यों को छू कर सिर झुकाया और नमन किया. उस समय भी नरेंद्र मोदी ने संसद को अपराधियों से मुक्त करने की अपनी बात को दोहराया. राजनीतिक सुचिता की बात करने वाली भाजपा ने संसद में बैठे अपराधी नेताओं के संबंध में तो कोई नया बदलाव नहीं किया, उलटे भाजपा में जो दागी नेता चुनाव जीत कर आए उन को पार्टी में ऊंचा ओहदा दे कर उन का सम्मान और बढ़ा दिया. इन में सब से बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या हैं. केशव प्रसाद मौर्या 2014 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर संसदीय सीट से चुनाव जीत कर लोकसभा सदस्य बने.

केशव प्रसाद मौर्या पर हत्या, लूट, दंगा फैलाने और ऐसे ही तमाम आरोपों के 11 आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. केशव प्रसाद पर पहला मुकदमा 1996 में कौशांबी जिले के पश्चिम शरीरा थाने में दंगा, सरकारी काम में बाधा, पुलिस पर हमला और बलवा फैलाने का दर्ज हुआ. 1998 में दूसरा मुकदमा थाने पर बलवा, धमकी, पुलिस पर हमला और सरकारी काम में बाधा डालने की धाराओं में इलाहाबाद जिले के कर्नलगंज थाने में दर्ज हुआ. 2008 में कौशांबी जिले के मोहम्मदपुर रईसा थाने में धोखाधड़ी, जालसाजी समेत कई दूसरी धाराओं के तहत तीसरा मुकदमा दर्ज हुआ. इसी थाने में धार्मिक स्थल तोड़ने, बलवा और दंगा भड़काने का मुकदमा भी लिखा गया. 2011 में 3 मुकदमे दर्ज हुए. पहला मंझनपुर थाने में बलवा, दंगा भड़काने, मारपीट और धमकी देने का. कोखराज थाने में अल्पसंख्यक युवक की हत्या और साजिश का मुकदमा लिखा गया और कोखराज थाने में ही दंगा भड़काने का मुकदमा भी लिखा गया.

साल 2013 में कौशांबी जिले के मंझनपुर थाने में बलवा, लूट, मारपीट का मुकदमा लिखा गया. इसी साल सिविल लाइन थाने में भीड़ एकत्र कर पुलिस टीम पर हमला करने का मुकदमा लिखा गया. इस में उन को पकड़ा भी गया. 2014 में लोकसेवा आयोग अध्यक्ष के खिलाफ आंदोलन में वे कूद पड़े. तब उन पर बलवा करने, पुलिस पर हमला करने और सरकारी संपत्ति को तोड़ने के आरोप लगे.2012 में कौशांबी जिले की सिराथू विधानसभा सीट से विधायक चुने गए. इस के बाद उन्होंने 2014 में फूलपुर लोकसभा सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और चुनाव जीत कर सांसद बन गए. 47 साल के केशव प्रसाद 18 साल तक विश्व हिंदू परिषद के प्रचारक रहे. अयोध्या आंदोलन के दौरान विश्व हिंदू परिषद से वे जुड़े थे और बाद में कौशांबी व इलाहाबाद को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर पहचान बनानी शुरू कर दी. अपनी चाय की दुकान पर काम करने वाले केशव कम समय में करोड़पति बन गए. कई कंपनियों में मालिक तो कई कंपनियों में वे साझेदार हैं.

सांसद से प्रदेश अध्यक्ष

भाजपा के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी के कई बड़े नेता दौड़ में थे. जिन लोगों के नाम बाहर चल रहे थे उन में केशव प्रसाद का नाम शामिल नहीं था. भाजपा के ही कई नेता कहते हैं कि भाजपा के संगठन से जुड़े कुछ प्रमुख नेताओं को पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई की सरल कार्यशैली पसंद नहीं आ रही थी. इन नेताओं को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का करीबी माना जाता है. डा. लक्ष्मीकांत वाजपेई के फेसबुक पेज पर भाजपा के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने मन की भड़ास को निकाला भी है. इस में तमाम तरह के आरोप लगाए गए हैं. केवल भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं में ही केशव का यह विरोध नहीं दिखाई देता, विरोधी दल भी केशव पर हमलावर हैं. इलाहाबाद और कानपुर में कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने भी केशव प्रसाद पर सवाल उठाए हैं. कांगे्रस के कार्यकर्ताओं ने पोस्टर लगा कर पूछा, ‘चाय बेचने वाले केशव भैया, रहस्य पर से परदा हटाओ. करोड़पति बनने का राज तो बताओ.’ कानपुर में कार्यकर्ताओं ने ‘चाल, चरित्र और चेहरा’ नाम से पोस्टर लगा कर केशव को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया.

भाजपा में केशव को कृष्ण का अवतार बता कर उन का प्रचार करने वाले पोस्टर भी लगाए गए. भाजपा के हाईकमान ने केशव को प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिया पर वह विधानसभा चुनाव में उन की भूमिका को कम करने की जुगाड़ में भी नई योजनाएं बना रहा है. भाजपा को प्रदेश में ऐसा नेता चाहिए था जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का मुखौटा बन कर काम कर सके.

जातीय समीकरण

उत्तर प्रदेश में पिछड़ी और दलित जातियों के बीच अतिपिछड़ी जातियां भी हैं. इन की संख्या पिछड़ी जातियों से कम नहीं है. भाजपा बहुत समय पहले से अतिपिछड़ी जातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है. केशव प्रसाद अतिपिछड़ी जातियों में से ही आते हैं. पिछड़ी जातियों में अतिपिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी करीब 55 फीसदी है. इन के पास पैसा नहीं है और पिछड़ी जातियों के ही दबंगों से डरे रहते हैं इसलिए इन को सवर्ण जातियों के करीब माना जाता है. मौर्या जाति से सवर्णों को कोई खतरा महसूस नहीं होता. यह जाति हिंदूवादी विचार, पूजापाठ में यकीन रखती है. खुद केशव प्रसाद की छवि हिंदूवादी नेता की है. भाजपा उन की छवि का लाभ लेना चाहती है. भाजपा विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण का पूरी तरह से ध्यान रख रही है. पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोटबैंक हैं. जिन से अतिपिछड़ी जातियों को परेशानी महसूस होती है.

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में मौर्या बिरादरी की 2 लड़कियों की हत्या कर उन के शवों को पेड़ पर लटकाने की जो घटना हुई थी उस में पिछड़ी जाति के बीच आपसी भेदभाव को सामने रख दिया गया था. जातीय आधार पर पिछड़ी जातियों में जो दूरियां हैं, भाजपा उन का लाभ उठा कर विधानसभा चुनावों में अतिपिछड़ी जातियों का नया वोटबैंक बनाना चाहती है. उधर, समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव 17 अतिपिछड़ी जातियों को दलित वर्ग में शामिल कराने के प्रयास में लगे हैं. मुलायम सिंह यादव का कहना है कि ये 17 जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद कमजोर और दलितों जैसी हालत में हैं. उन को दलित वर्ग में शामिल कर लिया जाएगा तो उन को भी दलितों वाली सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा. इस राजनीतिक दांवपेंच से अतिपिछड़ी जातियों के महत्त्व को समझा जा सकता है. केशव प्रसाद मौर्या की छवि जातीय नेता के बजाय हिंदूवादी नेता की है. ऐसे में अतिपिछड़ी सभी जातियां उन के साथ खड़ी होंगी, इस बात को ले कर भाजपा भी पूरी तरह से विश्वस्त नहीं है.

खामोश ने गरमाई सियासत

बिहारी बाबू उर्फ शत्रु भैया उर्फ शौटगन उर्फ खामोश, शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी जीवनी का विमोचन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव से करवा कर बिहार की सियासत में जो चिंगारी भड़काई थी वह भयानक आग का रूप लेती जा रही है. नीतीश और लालू के हाथों बिहार विधानसभा चुनाव में करारी हार के जख्म से भाजपा उबर भी नहीं पाई थी कि उस के ही सांसद ने विरोधी दलों के नेताओं के हाथों अपनी जीवनी जारी करवा कर भाजपा के जख्मों को फिर से हरा कर दिया. फिल्मी परदे के विलेन अब अपनी पार्टी के लिए भी विलेन बन चुके हैं. लिहाजा उन के नाम पर भाजपा का हर बड़ाछोटा नेता ‘खामोश’ हो कर कन्नी काट जाता है.

18 मार्च को पटना में भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी बायोग्राफी ‘एनीथिंग बट खामोश’ का विमोचन लालूनीतीश की जोड़ी से करवा कर बिहार की राजनीति और भाजपा के भीतर तूफान पैदा कर दिया है. उन के जलसे में भाजपा के किसी भी नेता को न्योता नहीं दिया गया था. इस से भाजपाई तिलमिलाए हुए हैं, लेकिन उस के बाद भी शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ पार्टी कोई कार्यवाही नहीं कर पा रही है. भाजपा के सूत्र बताते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा कर पार्टी फिलहाल अपनी छीछालेदर कराने के मूड में नहीं है, जबकि शत्रु, इसी का इंतजार कर रहे हैं. पार्टी की लाख बेरुखी के बाद भी शत्रुघ्न पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं. वे चाहते हैं, पार्टी ही उन्हें बाहर निकालने की पहल करे, ताकि वे शहीद का सेहरा ले कर अपने वोटरों के बीच जा सकें. शत्रु ने लालू और नीतीश से दोस्ती गांठ कर अपना राजनीतक विकल्प पहले से ही तैयार कर रखा है. गौरतलब है कि किताब के विमोचन जलसे में लालू ने शत्रु को भाजपा छोड़ने की सलाह तक दे डाली थी. साथ ही, उन्हें जोश दिलाते हुए कहा कि अपनी खामोशी तोडि़ए. नो रिस्क नो गेन. चुप्पी तोडि़ए और आगे बढि़ए.

लालू के साथ नीतीश ने भी शत्रुघ्न सिन्हा को पटाने के लिए अपना पासा फेंक दिया. उन्होंने शत्रु के बिहार में फिल्मसिटी बनाने के ड्रीम प्रोजैक्ट में मदद देने का ऐलान कर डाला. अपनी जीवनी के बहाने शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी शौटगन से एक बार फिर पौलिटिकल फायरिंग शुरू कर दी है. यह उन का पुराना हथकंडा है. अपनी बयानबाजी से पार्टी में अलगथलग किए जाने के बाद वे फिल्मी स्टाइल में दहाड़ लगा कर सामने वाले को ‘खामोश’ करने की कवायद शुरू कर देते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव के पहले जब शत्रुघ्न को बेटिकट करने की हवा उड़ी तो बौखलाहट में उन्होंने ‘नीतीश चालीसा’ पढ़ना शुरू कर दिया था.

खामोश की गर्जना

फिल्मों में तो शत्रुघ्न की ‘खामोश’ की गर्जना सुन कर सामने वाला चुप हो जाता था, पर सियासत में उन का यह मशहूर डायलौग लोगों को कई तरह की बातें बोलने के लिए उकसाता रहा है. सियासत में लोगों को खामोश होने के बजाय बकबक करने में ज्यादा महारत हासिल होती है. इस के पहले पार्टी लाइन से अलग चलते हुए उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता कर अपनी और पार्टी की फजीहत कराई थी. उन का मानना था कि पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, यशवंत सिन्हा जैसे सीनियर और काबिल नेताओं को किनारे लगा कर नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ किया गया, जो पार्टी के लिए ठीक नहीं हैं.

लोकसभा चुनाव के पहले ‘नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है’ और ‘बिहार में राजग गठबंधन के टूटने के लिए नीतीश जिम्मेदार नहीं हैं’ कह कर शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी पार्टी भाजपा की छीछालेदर कर दी थी. गठबंधन टूटने के बाद से भाजपा लगातार नीतीश कुमार और उन की सरकार पर हमला कर रही थी और कई मसलों पर उन्हें कठघरे में कर अपनी राजनीति चमकाने में लगी हुई थी. ऐसे में उस के ही सांसद शत्रु ने नीतीश के तारीफों के पुल बांध कर उस की राजनीति को मटियामेट कर डाला था. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि शत्रु अकसर अपने नाम के लिहाज से ही काम करते हैं. दोस्ती निभाना उन की फितरत में नहीं है. जहां रहते हैं वहां वे ‘शत्रु’ की तरह व्यवहार करते हैं. इसी वजह से फिल्म इंडस्ट्री और राजनीति में उन्होंने अपने कई ‘शत्रु’ खड़े कर लिए हैं. वे कहते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं, इसी वजह से भाजपा में कभी वे कोई बढि़या पद नहीं पा सके, जिस का उन्हें मलाल भी रहता है.

सत्ता का सफर

सिनेमा में खलनायक के रोल से अपने ऐक्ंिटग कैरियर की शुरुआत करने वाले शत्रुघ्न बाद में भले ही नायक बन गए पर 80 के दशक में सियासत में उतरने के बाद से अब तक उन के भीतर दबाछिपा खलनायक बारबार बाहर आता रहा है. फिलहाल उन की सियासी खलनायकी कुछ ज्यादा ही तेज हो चुकी है. साल 1996 में भाजपा ने उन्हें पहली बार राज्यसभा का सदस्य बनाया और फिर साल 2002 में भी उन्हें राज्यसभा भेजा गया. साल 2009 में भाजपा ने पटना साहिब संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया और वे करीब ढाई लाख वोट से जीत गए. केंद्र में राजग सरकार के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा को 2 बार कैबिनेट मंत्री भी बनाया गया. साल 2003 में उन्हें केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और साल 2004 में उन्हें जहाजरानी मंत्री बनाया गया था. इस के बाद भी उन्हें हमेशा यह महसूस होता रहा कि उन की क्षमता का भाजपा ने बेहतर इस्तेमाल नहीं किया.

अभिनय यात्रा

9 दिसंबर, 1945 को पटना में जन्म लेने वाले शत्रुघ्न सिन्हा कालेज की पढ़ाई पूरी कर फिल्मों में हीरो बनने के लिए घर से बगावत कर मुंबई पहुंच गए थे. पूना फिल्म ऐंड टैलीविजन इंस्टिट्यूट से ऐक्ंिटग की ट्रेनिंग लेने के बाद 1969 में देवानंद ने उन्हें अपनी फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ में पहली बार अभिनय करने का मौका दिया था. उस के बाद वे ‘साजन’ समेत कुछेक फिल्मों में छोटेमोटे रोल करते रहे. पर 1970 में बनी फिल्म ‘खिलौना’ में बिहारी के किरदार ने उन्हें पहचान दिलाई और फिल्म इंडस्ट्री में उन की जगह पक्की कर दी. 1976 में सुभाष घई की फिल्म ‘कालीचरण’ में साइड हीरो का रोल निभाने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा खलनायक का चोला उतार कर नायक बन गए.

वे अपने बड़बोलेपन की वजह से हमेशा चर्चा में तो बने रहे पर उन्हें वह जगह हासिल नहीं हो सकी जिस के वे हकदार थे. अमिताभ बच्चन के साथ उन्होंने ‘दोस्ताना’, ‘नसीब’, ‘काला पत्थर’ और ‘शान’ जैसी फिल्मों में काम किया पर दोनों के बीच खुद को बड़ा साबित करने की होड़ ने दोनों के रास्ते अलगअलग कर दिए. राजनीति में भी वे डायलौगबाजी और हवाबाजी कर के ही अपनी नैया पार लगाते रहे हैं. साल 2009 और 2014 में पटना साहिब सीट से चुनाव जीतने के बाद भी वे अपने क्षेत्र में सियासी जमीन मजबूत करने में नाकाम रहे. अपने क्षेत्र की जनता के लिए वे हमेशा दूर की कौड़ी बने रहे हैं.

शत्रुघ्न सिन्हा को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वे कब, किस बात से पलट जाएंगे या कब किस का गुणगान करने लगेंगे, यह आज तक किसी के समझ में नहीं आया. जब नीतीश कुमार ने बिहार को स्पैशल स्टेट का दरजा दिए जाने की मांग करते हुए 16 मार्च, 2013 को दिल्ली में अधिकार रैली का आयोजन किया था और उस में भाजपा नेताओं को शामिल नहीं किया था तो शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कह कर नीतीश कुमार को ‘खामोश’ कर दिया था कि गुजरात में ‘नमो’ (नरेंद्र मोदी) के बाद अब बिहार में ‘सुमो’ (सुशील मोदी) की बारी है. नमो और सुमो की जोड़ी अगर मिल कर काम करेगी तो लोकसभा चुनाव में शानदार कामयाबी मिलेगी. वही शत्रुघ्न अब ‘नमो’ और ‘सुमो’ को भूल कर ‘नीकु’ (नीतीश कुमार) की चापलूसी में लग गए हैं, ताकि भाजपा से बाहर किए जाने के बाद वे नीतीशलालू की सियासी ऐक्सप्रैस पर सवार हो सकें. गौरतलब है कि राजद सुप्रीमो लालू यादव हमेशा से बिहारी बाबू को भाव नहीं देते रहे हैं और उन्हें नचनियाबजनिया नेता बता कर वे उन की बोलती बंद करते रहे हैं.

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