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RIO OLYMPICS: फिलहाल रूस पर बैन नहीं

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) की आपात बैठक में रियो ओलंपिक में रूस पर प्रतिबंध के बारे में फैसला टाल दिया गया है. आईओसी ने रूस के खेलमंत्री विताली मुटको को रियो ओलंपिक से प्रतिबंधित किया, लेकिन पूरी रूसी टीम पर प्रतिबंध के बारे में फैसला गुरुवार को होने वाले खेलों की मध्यस्थता अदालत (सीएएस) का फैसला आने तक टाल दिया.

आईओसी के कार्यकारी बोर्ड की स्विट्जरलैंड में आपात बैठक हुई कि रूस को रियो ओलंपिक में भाग लेने से प्रतिबंधित किया जाना है कि नहीं. रूस में प्रतिबंधित दवाओं के व्यापक इस्तेमाल की रिपोर्ट्स के बाद रूस को ओलंपिक से बैन किए जाने की मांग उठ रही है.

विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने ओलंपिक में रूस पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है. लेकिन आईओसी ने कहा कि वह ऐसा कदम उठाने से पहले कानूनी विकल्पों पर विचार करेगा. आईएएएफ द्वारा रियो ओलंपिक में हिस्सेदारी पर प्रतिबंध के खिलाफ 68 रूसी एथलीट्स की अपील पर सीएएस में गुरुवार को फैसला होना है.

आईओसी ने एक बयान में कहा कि रूसी एथलीटों की ओलंपिक भागीदारी के संबंध में आईओसी सरकार द्वारा प्रायोजित डोपिंग प्रोग्राम पर स्वतंत्र रिपोर्ट का ध्यान से आकलन करेगी. साथ ही वह सभी रूसी एथलीटों पर सामूहिक बैन लगाए जाने के संबंध में कानूनी विकल्प भी तलाशेगी.

आईओसी ने साथ ही कहा कि उसे इस मामले में खेल पंचाट का आने वाले फैसले को भी ध्यान में रखना होगा. गौरतलब है कि इंटरनेशनल एथलेटिक्स फेडरेशन (आईएएएफ) ने रूसी एथलीटों को ओलंपिक एथलेटिक्स मुकाबलों में हिस्सा लेने से बैन कर दिया है.

रूस के कई एथलीटों ने इस प्रतिबंध के खिलाफ खेल पंचाट में अपील की है. इस बीच रूस के खेल मंत्री विताली मुत्को ने कहा कि उनके देश में सरकार द्वारा प्रायोजित कोई भी डोपिंग प्रोग्राम या प्लान नहीं है.

अध्यक्ष थॉमस बाक ने कहा रूसी सरकार द्वारा खेलों की अखंडता पर हमला करना धक्कादायक कदम है.

फेसबुक पर देखें बिना इंटरनेट वीडियो

करीब दो साल पहले गूगल ने भारत में सबसे पहले ऑफलाइन यूट्यूब वीडियो  सर्विस की शुरुआत की थी. सोशल नेटवर्क वेबसाइट फेसबुक ने भी यूट्यूब की तर्ज पर ऑफलाइन वीडियो फीचर शामिल किया है. अब आपको फेसबुक वीडियो देखने के लिए लगातार इंटरनेट डाटा खर्च करने की जरूरत नहीं होगी. आप अपने पसंदीदा वीडियो ऑनलाइन के साथ-साथ ऑफलाइन मोड में भी देख सकते हैं.

फेसबुक ने एक बयान में कहा, "देश में सीमित मोबाइल कवरेज की वजह से घटिया वीडियो क्वालिटी अनुभव का हवाला देते हुए यह कदम उठाया गया है."

ऑफलाइन वीडियो फीचर का इस्तेमाल फेसबुक एंड्रॉयड ऐप के लेटेस्ट वर्जन पर शुरू हो गया है.

डाटा खर्च नहीं

एंड्रॉयड पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक एंड्रॉयड ऐप में 85 और 86 (बीटा) वर्जन में ही फिलहाल सेव वीडियो का विकल्प देखा जा सकता है.

फेसबुक एंड्रॉयड ऐप में किसी फेसबुक वीडियो पोस्ट के ड्रॉपडाउन मेन्यू में 'सेव वीडियो' एक विकल्प देख जा सकता है. फेसबुक से डाउनलोड किए जाने वाले वीडियो फेसबुक ऐप में ही सीमित समय के लिए सेव होंगे. इन्हें दूसरे प्लेटफॉर्म पर देखना या शेयर करना संभव नहीं होगा.

ऑफलाइन वीडियो देखने के लिए यूजर्स को बार-बार वीडियो स्ट्रीमिंग के लिए डाटा खर्च नहीं करना होगा. ऑफलाइन मोड पर यूजर्स अपने पसंदीदा वीडियो को सेव या डाउनलोड करके बाद में बिना इंटरनेट के भी देख सकेंगे.

तो हवाई सफर हो सकता है महंगा

देश के अंदर हवाई यात्रा महंगी हो सकती है. सिविल एविएशन मिनिस्ट्री पैसेंजर सर्विस फीस (पीएसएफ) बढ़ाने पर विचार कर रही है. यह फीस हर डोमेस्टिक टिकट पर ली जाती है. हर टिकट पर 130 रुपये की पीएसएफ लगती है. इससे जो पैसा मिलता है, उसका इस्तेमाल देश में एयरपोर्ट्स की सुरक्षा के लिए किया जाता है. 2002 से अभी तक यह चार्ज बढ़ाया नहीं गया है.

नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर एक सरकारी अधिकारी ने कहा, ‘एयरपोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया(एएआई) और दिल्ली एवं मुंबई के प्राइवेट ऑपरेटर्स के पीएसएफ के जरिए जुटाए गए फंड से सिक्यॉरिटी की लागत नहीं निकल पाने के कारण इसमें बढ़ोतरी की शुरुआत की गई थी.’ हालांकि अधिकारी ने यह भी कहा कि पीएसएफ में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी नहीं होगी.

पीएसएफ के जरिए जुटाए गए फंड का इस्तेमाल एयरपोर्ट्स पर तैनात सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्यॉरिटी फोर्स (सीआईएसएफ) के लोगों को सैलरी देने में किया जाता है. एयरपोर्ट्स पर बैगेज की जांच और दूसरे इक्विपमेंट पर भी यह रकम खर्च की जाती है. एयरपोर्ट पर सिक्यॉरिटी का टोटल खर्च 1300 करोड़ रुपए है जबकि पीएसएफ के जरिए जुटाई गई रकम इससे 400 करोड़ रुपए कम है. टोटल शॉर्टफॉल में से एएआई का डेफिसिट सालाना 150 करोड़ रुपए है, जिसका भुगतान वह अपने पास पड़े फंड से करती है. बाकी रकम दिल्ली और मुंबई एयरपोर्ट चलाने वाले प्राइवेट ऑपरेटर्स देते हैं.

टर्मिनल 2 शुरू होने से पहले तक मुंबई एयरपोर्ट प्रॉफिटेबल हुआ करता था. हालांकि, इसके बनने के बाद एयरपोर्ट पर सिक्यॉरिटी का खर्च बढ़ गया. इस मामले में ज्यादा जानकारी के लिए दिल्ली और मुंबई एयरपोर्ट को भेजी गई ईमेल या मेसेज का कोई जवाब नहीं मिला. सूत्रों का कहना है कि कोच्चि, हैदराबाद और बेंगलुरु तीन ऐसे एयरपोर्ट्स हैं, जो पीएसएफ से होने वाली पूरी कमाई खर्च नहीं कर पाते.

प्राइवेट एयरपोर्ट्स के पीएसएफ कलेक्शन प्राइवेट ऑपरेटर के खाते में आते हैं और एएआई के एयरपोर्ट्स पर जुटाया गया फंड सरकार के एयरपोर्ट अकाउंट में जाता है. पीएसएफ से जुटाया गया फंड अगर घटता है तो भी उसकी जिम्मेदारी वहां के एयरपोर्ट ऑपरेटर की होती है. इसी तरह अगर फंड ज्यादा होता है तो भी वह एयरपोर्ट ऑपरेटर्स को मिलता है. एयरपोर्ट चलाने वाली कंपनियां इस रकम का इस्तेमाल सिर्फ सिक्यॉरिटी के लिए कर सकती हैं.

अब अंपायरों की क्लास लगाएगा बीसीसीआई

बीसीसीआई ने मैच अधिकारियों के लिए शैक्षिक और विकास कार्यक्रम के तहत अंपायरों के लिए अंग्रेजी भाषा और संवाद कौशल कोर्स शुरू किया है. गौरतलब है कि कई बार अंपायरों को विदेशी धरती पर या विदेशी खिलाड़ियों के सामने भाषा संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

अंपायरों के पहले दल ने 12 से 16 जुलाई के बीच ट्रेनिंग ली जबकि दूसरे दल की ट्रेनिंग शुरू हो गई है जो 23 जुलाई तक चलेगी. बीसीसीआई ने अपनी वेबसाइट पर यह जानकारी दी.

ब्रिटिश काउंसिल ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के साथ मिलकर इस कोर्स की सामग्री तैयार की है और इसका लक्ष्य मैच अधिकारियों को जरूरी संवाद कौशल में पारंगत बनाना है.

जनता की अकर्मण्यता से निरर्थक होता लोकतंत्र

हम दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक देश होने का ढिंढोरा दशकों से पीट रहे हैं. छातियां चौड़ी कर बता रहे हैं कि हम कितने संपन्न मुल्क में रहते हैं. हालांकि लोकतंत्र की आधारभूत शक्ति, सार्थकता व परिभाषा से हम उतने ही दूर हैं जितनी एक निरर्थक और खोखले लोकतांत्रिक देश की जनता हो सकती है. छद्म देशभक्ति, जातिगत व्यवस्था, भेदभाव, अंधभक्ति, धर्मपुराण आधारित सोच और भारत माता की जय बोलने भर से लोकतंत्र मजबूत हो जाएगा, समझने वालों को शायद यह बात अखरे कि भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से फेल और निरर्थक हो गया है, लेकिन सचाई यही है.

लोकतंत्र क्या होता है? एक ऐसी व्यवस्था जिस में जनता की संप्रभुता हो. जिस में जनता ही सत्ताधारी हो. जिस की अनुमति से शासन होता हो. लेकिन क्या ऐसा है? नहीं. दरअसल, जो  परिस्थितियां लोकतंत्र को किसी भी देश में सफल बनाती हैं वे इस देश में गौण हैं. देश में तानाशाही विचारधारा की शक्तियां, जो देशभक्ति और धर्म की आड़ में अपने नियमकायदे जनता पर थोपना चाहती हैं, शासन कर रही हैं. विकास के नाम पर धार्मिक एजेंडे चमका रहे राजनीतिक दलों की राजनीति मौकापरस्ती और भ्रष्टाचार का खेल बन कर रह गई है. जनता अपने अधिकार और कर्तव्य से विमुख है. इन सब, खासतौर से जनता की सुस्ती, के चलते इस देश में लोकतंत्र कमजोर और निरर्थक होता जा रहा है.

आई स्क्रेच योर बैक, यू स्क्रेच माइन अंगरेजी जुमला है, आई स्क्रेच योर बैक, यू स्क्रेच माइन. इस फलसफे और चोरचोर मौसेरे भाई की तर्ज पर सत्ताधारी और विपक्षी दल एकदूसरे की बैक संभालते हैं. जनता से मिली ताकतों को निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने को एक हो जाते हैं. जब देश के गरीबों की गाढ़ी कमाई ले कर विजय माल्या जैसा उद्योगपति सरकार की नाक के नीचे से फुर्र हो जाता है तो सरकार विपक्षी दलों को चुप करने के लिए क्वात्रोची का हवाला देती है. जब कोई कोयला घोटाला या 2जी की बात करता है तो उसे बोफोर्स, चारा घोटाला और व्यापमं का हवाला देकर चुप करा दिया जाता है. दोनों एकदूसरे की कमियों पर परदा यह सोच कर डालते हैं कि जब हम सत्ता में आएंगे तो यही सरकार विपक्षी दल के रूप में हमारी पीठ खुजाएगी. हां, दिखावे के लिए घोटालों, भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में तथाकथित कमीशन, जांच समिति बैठाने का नाटक कर जनता को बरगलाया जाता है. संसद में जनता के पैसे से आराम फरमा रहे 552 जनप्रतिनिधियों का आपस में कोई सामंजस्य नहीं है. जाहिर है जनहित के मुद्दे इन के लिए मजाक से ज्यादा भला और क्या होंगे. जनता ने जिन सिपाहियों को देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास के लिए चुना है वे अपने सरकारी बंगलागाड़ी और घोटालेबाजी में मसरूफ हैं. अब तक ज्यादातर घोटालों के मास्टरमाइंड अगर आजाद हैं तो सिर्फ इसलिए कि हम सुस्त रहे और सरकार पर नकेल नहीं कस सके. क्यों नहीं हम ने इस के खिलाफ आवाज उठाई? इतना सब होने के बावजूद हम फिर भी बेईमान नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और बाबुओं की मनमानी देखने को मजबूर हैं.

कन्हैया के बाद क्या?

सत्ताधारी दल व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने वालों का गला किस तरह घोंट रहे हैं, जेएनयू प्रकरण इस का ज्वलंत उदाहारण है. देशद्रोह की आड़ में सरकार की सड़ांधभरी रीतिनीति, तानाशाही के खिलाफ खुल कर बोलने वाले का मुंह बंद कराने के लिए पूरा तंत्र एक हो गया. हालांकि डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट संजय कुमार ने जेएनयू केस की जांच के बाद दिल्ली सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी थी, उस में कन्हैया कुमार के खिलाफ कोई सुबूत नहीं पाए जाने की बात कही. लेकिन फिर भी कन्हैया को जेल जाना पड़ा. जिस समय चंद वकीलों की प्रायोजित भीड़ कन्हैया को सरेआम पीट रही थी, उसे कोई बचाने के लिए आगे नहीं आया. फिलहाल, कन्हैया जेल से बाहर है लेकिन यह आंदोलन जनसमर्थन के अभाव के चलते रिजल्टओरिएंटेड सिचुएशन तक नहीं लाया जा सका. हम ऐसी किसी भी पहल, संघर्ष या बदलाव का क्रियान्वयन करने में हमेशा से ही नाकाम रहे हैं.

ऐसे आंदोलन आसानी से गरीब, किसान, पिछड़े, दलित, आदिवासियों के आंदोलन बन सकते हैं लेकिन आमजन की अकर्मण्यता और घर बैठ कर सिर्फ सरकार को कोसने की मानसिकता के चलते हम लाचार हैं. कन्हैया साफ कहता है कि मेरा कोई एजेंडा नहीं है. मैं लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ हूं, तानाशाही के खिलाफ हूं. दक्षिणपंथी ताकतों के खिलाफ लोग एकजुट हुए हैं, यह किसी एक पार्टी का एजेंडा नहीं है. यानी उस के पास व्यवस्था में बदलाव लाने की संभावना है बशर्ते उसे जनसमर्थन हासिल हो. कन्हैया संघर्ष की परिणति देख कर ही लोग जनहित के लिए आवाज उठाने से घबराते हैं. जरा सोचें, जब कन्हैया को

3-4 हजार की भीड़ मिली तब वह सरकार के लिए इतनी चिंता की बात बन गया, अगर उसे करोड़ों देशवासियों का सहयोग मिलता तो वह इस सुस्त और भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने में सफल हो सकता था. दुनियाभर में यही हो रहा है. हौंगकौंग का येलो अम्ब्रेला हो, या सीरिया, नौर्थ कोरिया या इराक के हालात हों, तानाशाह के खिलाफ विद्रोह की चिंगारिया जनसमर्थन की कमी के चलते विस्फुटित होने से पहले ही बुझ गईं. यही कारण है कि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आवाज उठाने वालों को जनसमर्थन न मिलता देख या तो सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है या फिर वे सरकार का हिस्सा बन जाते हैं. हालांकि हिंसा से कोई आंदोलन  सफल नहीं होता. सीरिया,इराक इस बात का उदाहरण हैं. इसलिए जनता कुछ संस्थाओं या कन्हैया कुमार और अरविंद केजरीवाल जैसे जनप्रतिनिधियों के जरिए ही व्यवस्था बदल सकती है. इस तरह हर संघर्ष अपने मुकाम तक नहीं पहुंचते. कन्हैया ने सरकार के खिलाफ मोरचा खोला. सुर्खियों में आया लेकिन नतीजा सिफर रहा. आखिर कन्हैया के बाद क्या?

बेनतीजा संघर्ष—जनसमर्थन की कमी

केंद्र सरकार के सोनेचांदी के आभूषणों पर उत्पाद शुल्क बढ़ाए जाने के विरोधस्वरूप शुरू हुई स्वर्णकारों की हड़ताल करीब डेढ़ महीने चलने के बाद और करोड़ों का कारोबारी नुकसान सहने के बाद समाप्त हो गई. ज्वैलर्स फिलहाल खाली हाथ ही हैं. कहने को तो 11 में से 9 मांगें मान ली गईं पर उत्पाद शुल्क कम नहीं किया गया. केवल आश्वासन भर दिया गया है. खबरें हैं कि  देश के कई हिस्सों में हड़ताल जारी रहेगी लेकिन जिस मांग को ले कर करीब 80 प्रतिशत सर्राफा कारोबारी सड़कों पर उतरे थे, उन्होंने सरकारी तंत्र के आगे दम तोड़ दिया. हालांकि मुंबई में सुनारों के समर्थन में राहुल गांधी की रैली के चलते कुछ व्यापारियों ने दुकानें बंद रखी थीं लेकिन ज्यादातर व्यापारियों का यही कहना है कि जब सरकार ने दोटूक जवाब दे दिया तो अपना और नुकसान करने का औचित्य क्या रह गया. आखिर ऐसे लोकतंत्र के क्या माने जहां हड़ताल करने की इजाजत तो हो लेकिन मांगों पर कोई सुनवाई न हो.

एफटीआईआई के अध्यक्ष के पद से गजेंद्र चौहान को हटाने की छात्रों ने भरसक कोशिश की, हड़ताल भी की लेकिन छात्रों का संघर्ष बेनतीजा रहा. स्मृति ईरानी की शैक्षिक डिगरी पर सवाल उठे लेकिन बातें अनसुनी कर दी गईं. देशभर के कई कालेजों

में अव्यवस्था के खिलाफ होते संघर्ष जनसमर्थन के अभाव में बीच में दम तोड़ देते हैं. कहीं डाक्टर्स, टीचर हड़ताल पर हैं तो कहीं दलितपिछड़े शोषण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.कन्हैया, सुनार, एफटीआईआई की तरह सारे संघर्ष एक तरह से कमजोर परिणाम वाले साबित हुए क्योंकि हम अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट गए. दिक्कत यह है कि व्यवस्था को कोसना तो सब चाहते हैं लेकिन खुद को बदलना नहीं चाहते. देश में भारतीय दंड विधान के तहत कानून बने हुए हैं, जिन्हें अगर जनता ईमानदारी से लागू कराए तो भ्रष्टाचार, हत्या,  बलात्कार और तरहतरह के अत्याचार और अपराध समाज व राष्ट्र से कब के समाप्त हो जाएं. सूचना का अधिकार कानून बना, लागू  हुआ. जिन व्यक्तियों को इस की जिम्मेदारी दी गई, वे फेल हुए हैं क्योंकि हम ने उन पर नजर नहीं रखी, लगाम नहीं कसी.

लाचार मीडिया, अकर्मण्य जनता  

मीडिया से जुड़े एक पुरस्कार समारोह में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा है कि लोकतंत्र की मजबूती प्रैस से जुड़ी है. उन्होंने एक पत्रकार की हत्या का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि विश्व में कहीं भी जब कभी किसी पत्रकार की हत्या होती है और प्रैस को चुप कराया जाता है तो कानून व्यवस्था और लोकतंत्र कमजोर हो जाते हैं. लोकतंत्र के अहम स्तंभों में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका जब एक हो जाते हैं तो चौथे लोकतांत्रिक स्तंभ के तौर पर मीडिया जनता की आवाज हुक्मरानों तक उठाती है. मीडिया के पास व्यवस्था से लड़ने के माध्यम भी हैं और जज्बा भी.लेकिन जनता के समर्थन के अभाव में यह संस्था भी कमजोर हो गई है. अगर लोग मीडिया का समर्थन करें, सिर्फ लफ्फाजी से नहीं, बल्कि समय और धन से तो मीडिया बदलाव ला सकता है. लेकिन हम सिर्फ मजे के लिए टीवी न्यूज देखते हैं. ‘मीडिया बिका हुआ है’, ‘इस का फलां पार्टी से कनैक्शन है’, ‘विज्ञापन ज्यादा दिखाते हैं’, जैसे जुमले दोहरा कर लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. अगर मीडिया को जनसमर्थन और पैसा मिलता तो वह उद्योगपति, राजनेताओं से क्यों मिलता? जब किसी घोटाले का खुलासा मीडिया करता है तो उसे जनता का कोई सपोर्ट नहीं मिलता. लोग बैठ कर तमाशा देखते हैं. नतीजतन मीडिया के दफ्तरों में हमला होता है. आगजनी होती है. उत्पीड़न, सैंसरशिप और हमलों के जरिए पत्रकारों की आवाज बंद कराने के प्रयास बढ़ जाते हैं. अपराधी जैसा व्यवहार किया जाता है. क्योंकि मीडिया में आपराधिक कृत्यों का खुलासा करने का साहस होता है. कई आरटीआई ऐक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट अपनी जान गंवा चुके हैं. ऐसे में अगर मीडिया सत्ताधारी दल के सुर में सुर मिलाए तो हमारा ज्यादा दोष है.

फिल्मी हीरो, धर्मगुरु बनाम असली नायक

फिल्मी हस्तियां, जिन्हें हीरो भी कहते हैं, के पीछे अंधभक्ति गजब की है. अमिताभ बच्चन से ले कर अक्षय कुमार और शाहरुख खान के बंगलों के बाहर उन के दीदार के लिए धूप में खड़े हो कर पुलिस की लाठी तक खाने वाले यह नहीं सोचते कि ये ऐक्टर देश के विकास में कोई योगदान नहीं देते. इन का तमाशा स्क्रीन में चंदघंटों के नाचगाने तक सीमित है और उस के बदले वे करोड़ों रुपए कमा लेते हैं. लोग दीवारों पर इन की तसवीरें चिपका कर पूजते हैं. इसी तरह धर्मगुरु अंधभक्तों की जेबें ढीली करने में संकोच नहीं करते. कोई योग की आड़ में परचून की दुकान चला रहा है तो कोई आर्ट औफ लिविंग के बैनर तले अपना उल्लू सीधा कर रहा है. किसी का भी देश के विकास में रत्तीभर योगदान नहीं है. ये न तो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और हमारे भविष्य के लिए कोई काम करते हैं और न ही लोकतंत्र की मजबूती में कोई रोल निभाते है. जबकि आमजन के अधिकारों के लिए लड़ने वाले असली नायकों को हम कुछ नहीं देते.

कौन सा आरटीआई ऐक्टिविस्ट किसी नेता की कारगुजारियों को हमारे सामने लाने के प्रयास में मारा गया, हम नहीं जानते, लेकिन किस हीरो के कितने सिक्स पैक ऐब्स हैं या फलां हीरोइन ने कितनी बार लिपलौक किया या बिकनी पहनी, जबानी याद रहता है. लोकतंत्र को खोखला करते निरंकुश तत्त्वों पर अंकुश लगाने के लिए जान की बाजी लगाने वालों से जनता को कोई सरोकार नहीं है. अगर जनता परदे के नकली नायकों को पूजने के बजाय असली नायकों को समर्थन दे, उन की धन और बल से मदद करे तो देश के हालात बदल सकते हैं, लोकतंत्र मजबूत हो सकता है.

जनता खामोश क्यों?

जनतंत्र में अगर तंत्र कमजोर या निरंकुश होने लगे तो दोष जनता का है क्योंकि जनता के हाथ में तंत्र को चुनने या अस्वीकृत करने का अधिकार होता है. इसलिए अगर आज का लोकतंत्र कमतर और निरर्थक है तो जिम्मेदार जनता की खामोशी है. जब जनता को लोकतंत्र की अथाह ताकत मिली है तो वह उस का इस्तेमाल क्यों नहीं करती है. राजनीतिक पार्टियां जनहित के बड़बड़े वादे कर हमारी वोटशक्ति से सत्तासीन हो कर निरंकुश हो जाती हैं, तो हम खामोश क्यों रहते हैं? क्यों नहीं अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से उन पर नकेल कसते? जनता उन के दायित्व उन्हें याद क्यों नहीं दिलाती? और जब कन्हैया जैसी एकल या मीडिया जैसी संस्थात्मक इकाइयां अपने आंदोलन या टूल्स के जरिए इन पर अंकुश लगाना चाहती हैं तो सब तमाशाई बन जाते हैं और उन का तनमनधन से साथ नहीं देते. क्यों नहीं ऐसी संस्थाओं या जनता के लिए लड़ने वालों का खुल कर धनमन से समर्थन किया जाता है? चुनी हुई सरकारें जब नकारा निकलती हैं तो हम विकल्प के तौर पर फिर से उसी मिजाज की दूसरी सरकार चुन लेते हैं. जड़ में जा कर उस समस्या को खत्म न करने की आदत के चलते सरकारें स्वार्थी और भ्रष्ट हैं. सरकारों के पास देश चलाने की शक्ति है पर सत्ताधारी दल अपनी निरंकुशता के नशे में चूर रहता है और विपक्षी दल अपने हितों के लिए एक हो जाते हैं. हम फिल्मटीवी के सितारों की अंधश्रद्धा में धन और वक्त बरबाद कर देते हैं लेकिन अपने इलाके के जनप्रतिनिधि के कामकाज का ब्योरा रखने का समय नहीं है. हम पाकिस्तान से क्रिकेट का एक मैच जीतने पर दीवाली मनाते हैं. आतिशबाजी में लोगों के घरों में आग तक लगा देते हैं लेकिन लोकतंत्र में लगी आग को बुझाने के लिए कुछ नहीं करना चाहते. अफ़सोस होता है कि हमारे पास खुद के लिए ईमानदारी नहीं है. हमारी लापरवाही, अकर्मण्यता, बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन कर हमारी नसों में समा चुकी है, जिस का फायदा सत्ताधारी दल उठा रहे हैं.

अपनी जिम्मेदारी कब निभाएंगे

आजादी के इतने सालों बाद भी सरकारी योजनाओं का लाभ गरीब को नहीं मिल रहा है. देश में नेता, कौर्पोरेट और भ्रष्ट अफसरशाही का गठबंधन है. महंगाई,  गरीबी, भूख और बेरोजगारी जैसे मसले सालों से जसतस हैं. अभी भी देश के लोगों का पेट भरने के लिए आयात और कर्ज लेना पड़ता है. अमीरगरीब के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है. किसान आत्महत्या कर रहा है, शिक्षा मंहगी है, आर्थिक और तकनीकी मोरचों पर हम कई देशों से पीछे हैं, उन्नत हथियार आयात करते हैं जबकि मुट्ठीभर आतंकियों से लड़ने में पसीना छूट जाता है. क्या इन सब के लिए दोषी सिर्फ सत्ताधारी दल, नेता, अफसर और बाबू हैं? बेशक हैं. लेकिन इन्हें यह कुरसी दी किस ने? हम ने. हम ने अपने वोट के बल पर इस व्यवस्था को चुना है. अगर हम इन्हें चुन सकते हैं तो इन पर अंकुश भी लगा सकते हैं. पर हम सबकुछ नियति मान कर खामोश हो जाते हैं. यही सोच लोकतंत्र को कमजोर करती है. हमारे देश में इतने संसाधन हैं कि अगर हम ईमानदारी से एक सही सरकार चुन कर उस का दोहन करें, देश संपन्न हो सकता है. लेकिन हमारी अकर्मण्यता के चलते मुट्ठीभर लोग अरबों को लाचार बनाए हुए हैं.

लोकतंत्र की सार्थकता

देश की 99 प्रतिशत जनता पूजापाठ के नाम पर दानपुण्य करती है, स्कूल अस्पताल में ऐडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए, राशनकार्ड, लाइसैंस, पासपोर्ट के लिए, नौकरी के लिए, रैडलाइट पर चालान से बचने के लिए,  मुकदमा जीतने और हारने के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए, कौंट्रैक्ट लेने के लिए, रिश्वत देती है. फिर उम्मीद करती है कि ईमानदार सरकार देश का विकास कर देगी? आंकड़े बताते हैं कि हर साल करीब 60-70 फीसदी भारतीय किसी न किसी काम के लिए रिश्वत देते हैं. भ्रष्ट देशों की कतार में हम काफी ऊपर हैं. आंकड़े यह भी बताते हैं कि जितना धन घोटालों, रिश्वत और कालेधन के तौर पर मारा जाता है, उस रकम से लाखों प्राइमरी हैल्थसैंटर, शिक्षण संस्थान, गरीबों के लिए आवास, मनरेगा जैसी सैकड़ों स्कीमें, तकनीकी इंस्टिट्यूट, कृषि योजनाएं और देश के विकास के लिए तमाम संयंत्र स्थापित किए जा सकते हैं. दुनिया के सब से बड़े अमीर यहीं बसते हैं. हमारी जीडीपी से कई गुना पैसा तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है और हम मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते हैं. अगर हम अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल करें तो हमें कर्ज के लिए विश्व बैंक के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे. बेमतलब के टैक्स भी नहीं भरने पड़ेंगे.

पर ये सब तभी संभव है जब हम बदलें. अपनी जिम्मेदारी समझें. निरंकुश व्यवस्था या सियासी शक्तियों पर लगाम कसने के लिए हमें लोकतंत्र की शक्तियों और अधिकारों को न सिर्फ समझना होगा बल्कि उन्हें अमलीजामा भी पहनाना होगा. सिर्फ भीड़ बन कर वोटबैंक का हिस्सा बने रहने से कुछ नहीं होगा. जातपात, रीतिरिवाज, धर्म, रूढि़वाद, मानसिकता, कामचोरी और अकर्मण्यता से उठ कर हमें लोकतंत्र को सार्थक और मजबूत बनाना होगा. लोकतंत्र एक ऐसा ढांचा है जिस की नींव में जनता अपने मूल संवैधानिक अधिकारों, विवेक और चुनाव की आजादी को भर कर ऐसी सरकार/संस्था का चुनाव करती है जो देश को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक मोरचे पर सुचारु रूप से चलाए और अगर वह संस्था ऐसा नहीं करती है तो जनता उस पर अपने वोट के अधिकार के जरिए न सिर्फ अंकुश लगाए, बल्कि जरूरत पड़ने पर शक्तिहीन कर लोकतांत्रिक मूल्यों को कायम रखे.

इन्हें है हमारी जरूरत

देशदुनिया में कई ऐसी संस्थाएं हैं जो जनअधिकारों के बलबूते सालों से संघर्ष कर रही हैं. उन को पहचानने की जरूरत है ताकि ऐसे ही सामाजिक सरोकारों वाली संस्थाएं व नायक और पनपें. डाक्टर्स विदआउट बौर्डर्स, पेटा, फीमेन, स्माइल, ग्रीन पीस के अलावा एड्स अवेयरनैस प्रोजैक्ट, ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम, चाइल्ड एब्यूज प्रिवैंशन, स्ट्रीट चिल्ड्रन एजुकेशन, ड्रग रिहेबिलिटेशन सैंटर और सैक्स वर्किंग आदि सामाजिक पहलुओं पर कई एनजीओ और सामाजिक संस्थाएं काम कर रही हैं. इन्हें कई बार अनुदान मिलता है लेकिन कई बार इन का अस्तित्व संकट में आ जाता है. अगर इन्हें आमजन का धन और संख्याबल से सपोर्ट मिले तो कई बदलाव लाए जा सकते हैं. यूक्रेन का नारीवादी संगठन ‘फीमेन’ धर्म की पाबंदियों और महिला विरोधी तत्त्वों के खिलाफ नग्न प्रदर्शन करता है. लेकिन दुनियाभर की जनता इन्हें सिर्फ तमाशे या खबरों में चटखारे लगाने के मनोरंजन के नजरिए से देखती है. साथ देने के लिए कम ही लोग आगे बढ़ते हैं. ऐसे ही अंतर्राष्ट्रीय राहत संस्था मैडिसिन सांफ्रंतिया दुनियाभर मेंआपातकाल हादसों में डाक्टरी मदद करती है. 25 साल की एक अमेरिकी महिला एरिन जैकिस ने सुंदरा नाम के एक एनजीओ की नींव भारत में डाली. बड़ेबड़े होटलों में जो साबुन बच जाता है, यह एनजीओ उसे इकट्ठा कर के रिसाइकिल करता है और उसे जरूरतमंद बच्चों में बांटता है. अगर हम ऐसे नायकों की मदद कर उन्हें प्रोसाहन दें तो न सिर्फ लोकतंत्र मजबूत होगा, बल्कि सामाजिक बदलाव भी आएगा.

PHOTOS: ये हैं वो 7 महिलाएं, जिन्हें माना जाता है दुनिया में सबसे हॉट

कौन महिला कितनी खूबसूरत और हॉट है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह उस महिला को किस नजर से देख रहा है. अक्सर लोग मानते हैं कि एक्टिंग ऐसा प्रोफेशन है, जहां खूबसूरती और हॉटनेस भरपूर देखने को मिलती है, लेकिन आज हम बात करेंगे कुछ ऐसी महिलाओं की जिनका एक्टिंग और फिल्मी दुनिया से कोई वास्ता नहीं. फिर भी मानी जाती हैं दुनिया में सबसे हॉट.

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बस एक रुपए में मिलेगा स्मार्टफोन

शाओमी भारत में अपनी सेकेंड एनिवर्सरी मना रही है. बिजनेस के दो साल पूरे करने के उपलक्ष्य में तीन दिनों का कार्निवल आयोजित कर रही है. कंपनी बुधवार से शुक्रवार तीन दिन तक चलने वाली सेल में कई आकर्षक ऑफर दे रही है. इस दौरान कंपनी कॉन्टेस्ट आयोजित करेगी. कुछ प्रोडक्ट की कीमत में अस्थाई कटौती की जाएगी. मी सेकेंड एनिवर्सरी कार्निवल के दौरान 1 रुपये के फ्लैश डील भी मिलेंगे.

बुधवार से शुक्रवार तक चलने वाली मी सेकेंड एनिवर्सरी सेल के तहत, शाओमी मी 5 स्मार्टफोन 2,000 रुपये की छूट के साथ 22,999 रुपये की कीमत पर उपलब्ध होगा. शाओमी मी 4 फोन 4,000 रुपये के डिस्काउंट के साथ 10,999 रुपये में मिलेगा. दोनों स्मार्टफोन फ्लिपकार्ट और मीडॉटकॉम पर मिलेंगे. इसके अलावा मी ब्लूटूथ स्पीकर 500 रुपये की छूट के साथ 1,999 रुपये पर खरीदा जा सकता है.

फ्लैश डील की बात करें तो शाओमी हर दिन दोपहर में 2 बजे अपने रजिस्टर्ड यूज़र को चुनिंदा डिवाइस मात्र 1 रुपये में मुहैया कराएगी. सेल के पहले दिन दस शाओमी मी 5 और सौ  मी पावर बैंक (20000 एमएएच) इस डील के तहत उपलब्ध होंगे. 21 जुलाई को दस शाओमी रेडमी नोट 3 और 10 मी बैंड (व्हाइट एलईडी) फ्लैश डील के तहत उपलब्ध कराए जाएंगे. और सेल के आखिरी दिन दस शाओमी मी मैक्स और सौ मी ब्लूटूथ स्पीकर उपलब्ध होंगे. फ्लैश डील सेल हर दिनदोपहर 2 बजे आयोजित की जाएगी. इस सेल में हिस्सा लेने के लिए रजिस्ट्रेशन की ज़रूरत पड़ेगी और इसके लिए सेल की खबर को 19 जुलाई से पहले फेसबुक पर शेयर करना होगा.

कुछ ऑफर सिर्फ ऐप पर उपलब्ध होंगे. शाओमी मी 5 का गोल्ड कलर वेरिएंट खरीदने पर मुफ्त इन-इयर हेडफोन प्रो गोल्ड मिलेगा. शाओमी मी 4आई के साथ मुफ्त यूएसबी केबल और यूएसबी फैन मिलेंगे. रेडमी नोट 3, मी मैक्स और 20000 एमएएच के पावर बैंक के साथ भी कुछ ऑफर दिए जाएंगे. अगर आप रेडमी नोट 3 को फोन केस के साथ खरीदते हैं तो आपको 100 रुपये की छूट मिलेगी. इसी तरह मी मैक्स स्मार्टफोन को केस के साथ खरीदने पर 50 रुपये की छूट मिलेगी. इसके अलावा शाओमी चुनिंदा ग्राहकों को मी टीवी भी देगी जिन्होंने मी स्टोर ऐप से खरीदारी की है.

फ्लैश डील्स के अलावा शाओमी 10000 एमएएच मी पावर बैंक, मी इन-इयर कैपसूल हेडफोन और मी इन-इयर हेडफोन प्रो गोल्ड को सीमित संख्या में बेचेगी. मी सेकेंड एनिवर्सरी की वेबसाइट पर गेम खेलने पर कंपनी मी कैश कूपन और मुफ्त मी मैक्स देगी. कीमत की कटौती सिर्फ ब्लूटूथ स्पीकर के लिए की जाएगी. यह 700 रुपये के डिस्काउंट के साथ इन तीन दिनों तक 1,999 रुपये में उपलब्ध होगा.

क्या टूट पाएगा 87 साल पुराना रिकॉर्ड!

लॉर्ड्स के मैदान पर पाकिस्तान के कप्तान मिसबाह उल हक़ ने जब शतक मारा तब शतक से ज्यादा उनकी उम्र की चर्चा हुई और होनी भी चाहिए. 42 साल की उम्र में अपने आपको इतना फिट रखना और शानदार खेलते हुए लॉर्ड्स के मैदान पर मेजबान इंग्लैंड के खिलाफ शतक ठोकना कोई आसान बात नहीं थी.

मिसबाह की फिटनेस को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है वह अगले कुछ साल तक क्रिकेट खेल सकते हैं, लेकिन यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि क्या मिसबाह वह रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं, जो पिछले 87 सालों से नहीं टूटा है.

जी हां, जिस रिकॉर्ड की बात हो रही है वह है टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा उम्र में शतक लगाने का रिकॉर्ड. चलिए जानते हैं कौन-कौन से खिलाड़ी इस रिकॉर्ड के अधिकारी हैं.

1929 में बना यह रिकॉर्ड, क्या कोई तोड़ पाएगा

आजकल बहुत कम ऐसे खिलाड़ी हैं, जो 40 साल की उम्र के बाद टेस्ट क्रिकेट खेलते हैं. 45 साल की उम्र तक तो अंतरराष्ट्रीय टेस्ट क्रिकेट खेलना काफी मुश्किल काम है, लेकिन इंग्लैंड के टेस्ट खिलाड़ी सर जैक होब्स ने 1929 में एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया जो अभी तक नहीं टूट पाया है.

46 साल की उम्र में सर होब्स ने टेस्ट क्रिकेट में शतक लगाया और सबसे ज्यादा उम्र में शतक लगाने का वर्ल्ड रिकॉर्ड अपना नाम कर लिया. 8 मार्च 1929 को मेलबर्न के मैदान पर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए टेस्ट मैच में सर होब्स ने सलामी बल्लेबाज के रूप में अपनी पहली पारी में शानदार 142 रन बनाए और यह रिकॉर्ड कायम किया.

शानदार प्रथम श्रेणी क्रिकेटर थे सर होब्स

यह होब्स के टेस्ट कॅरियर का 15वां शतक था. सर होब्स एक शानदार टेस्ट खिलाड़ी के साथ-साथ एक बेहतरीन प्रथम श्रेणी क्रिकेटर भी थे. सर होब्स ने 61 टेस्ट मैच खेलते हुए करीब 57 की औसत से 5410 रन बनाए हैं.

प्रथम श्रेणी क्रिकेट में उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया है. प्रथम श्रेणी के क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन और सबसे ज्यादा सेंचुरी मारने का वर्ल्ड रिकॉर्ड सर होब्स के नाम है. प्रथम श्रेणी क्रिकेट में सर होब्स 61760 बनाए हैं और 199 शतक ठोके हैं. इस शानदार रिकॉर्ड से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वह कितने महान खिलाड़ी थे.

हेनरी हेन्द्रें और वारेन बर्डस्ले दूसरे और तीसरे स्थान पर

इंग्लैंड के हेनरी हेन्द्रें और ऑस्ट्रेलिया के वारेन बर्डस्ले सबसे ज्यादा उम्र में शतक बनाने के मामले में दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं. हेनरी ने 45 साल की उम्र में टेस्ट क्रिकेट में शतक ठोका था जबकि बर्डस्ले ने 43 साल की उम्र में शतक मारा है.

6 जुलाई 1934 को इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए टेस्ट मैच में हेन्द्रें ने 132 रन की शानदार पारी खेलते हुए यह रिकॉर्ड अपने नाम किया था. हेन्द्रें ने भी प्रथम श्रेणी क्रिकेट में शानदार प्रदर्शन किया है.

हेनरी हेन्द्रें ने प्रथम श्रेणी क्रिकेट में 57611 रन बनाए और 170 शतक मारे हैं. सर होब्स के बाद वह दूसरे ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने प्रथम श्रेणी क्रिकेट में सबसे ज्यादा शतक मारे हैं.

अगर वारेन बर्डस्ले की बात कि जाए तो 1926 में इंग्लैंड के खिलाफ उन्होंने रिकॉर्ड कायम किए थे. वारेन बर्डस्ले ने इंग्लैंड के खिलाफ 193 रन का शानदार पारी खेलते हुए यह रिकॉर्ड कायम किया.

बर्डस्ले पहले ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने ज्यादा उम्र के बावजूद एक पारी में इतने रन बनाए. बर्डस्ले ने ऑस्ट्रेलिया की तरफ से 41 टेस्ट मैच खेलते हुए करीब 40 की औसत से 2469 रन बनाए हैं और 193 रन उनके करियर का सर्वाधिक स्कोर रहा है.

जानिए भारत की तरफ से किसने किया है यह कारनामा

भारत की तरफ से विजय मर्चेंट ने सबसे ज्यादा उम्र में शतक मारने रिकॉर्ड कायम किया है. 40 साल की उम्र में विजय मर्चेंट ने यह रिकॉर्ड कायम किया. 1951 में भारत और इंग्लैंड के बीच हुए टेस्ट मैच में मर्चेंट ने सलामी बल्लेबाज के रूप में 154 रन बनाए थे.

मर्चेंट ने भारत की तरफ से सिर्फ 10 टेस्ट मैच खेलते हुए करीब 48 की औसत से 859 रन बनाए हैं. प्रथम श्रेणी क्रिकेट में विजय मर्चेंट का रिकॉर्ड काफी अच्छा रहा है. मर्चेंट ने 150 प्रथम श्रेणी मैच खेलते हुए 72 की औसत 13470 रन बनाए हैं.

सरकार की तरफ से बैंकों को तोहफा

सरकार नें मंगलवार को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक और इंडियन ओवरसीज बैंक सहित 13 सरकारी बैंकों को 22,915 करोड़ की राशि उपलब्ध कराई है. इन बैंकों के कर्ज परिचालन को बेहतर बनाने के लिए और साथ ही बाजार से बेहतर पूंजी जुटाने के लिए सक्षम बनाने के लिए यह पूंजी उपलब्ध कराई गई है. बजट में किए गए एलानों को पूरा करते हुए ऐसा किया गया है. बैंकों में सबसे ज्यादा 7575 करोड़ रुपए की पूंजी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया(एसबीआई) को मिलेगी. नॉन परफर्मिंग एसेट की समस्या से जूझ रह सरकारी बैंकों के लिए यह राहत की खबर है.

वित्त मंत्रालय ने कहा है कि चालू वित्त वर्ष के दौरान बैंकों को पूंजी उपलब्ध कराने की प्रक्रिया उनके पिछले पांच साल की कर्ज वृद्धि की संयोजित सालाना वृद्धि दर, कर्ज वृद्धि के उनके अपने अनुमान और हर सरकारी बैंक की वृद्धि की संभावना के वस्तुनिष्ठ आकलन पर आधारित है. पूंजी आबंटन योजना की घोषणा के बाद सरकारी बैंकों के शेयरों में तेजी आई है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2016-17 के बजट में सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए 25,000 करोड़ रुपए के आवंटन का प्रस्ताव किया था. उन्होंने कहा था, ‘अगर इन बैंकों को अतिरिक्त पूंजी की जरूरत होती है तो हम ऐसा करने के लिए संसाधन की तलाश करेंगे. हम इन बैंकों के पीछे मजबूती से खड़े हैं.’ सरकार द्वारा पिछले साल घोषित इंद्रधनुष कार्य योजना के तहत अगले चार साल में सरकारी बैंकों में 70,000 करोड़ रुपए डाले जाएंगे जबकि उन्हें बासेल-3 के वैश्विक जोखिम मानदंड के मद्देनजर और 1.1 लाख करोड़ रुपए जुटाने होंगे.

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