हम दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक देश होने का ढिंढोरा दशकों से पीट रहे हैं. छातियां चौड़ी कर बता रहे हैं कि हम कितने संपन्न मुल्क में रहते हैं. हालांकि लोकतंत्र की आधारभूत शक्ति, सार्थकता व परिभाषा से हम उतने ही दूर हैं जितनी एक निरर्थक और खोखले लोकतांत्रिक देश की जनता हो सकती है. छद्म देशभक्ति, जातिगत व्यवस्था, भेदभाव, अंधभक्ति, धर्मपुराण आधारित सोच और भारत माता की जय बोलने भर से लोकतंत्र मजबूत हो जाएगा, समझने वालों को शायद यह बात अखरे कि भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से फेल और निरर्थक हो गया है, लेकिन सचाई यही है.

लोकतंत्र क्या होता है? एक ऐसी व्यवस्था जिस में जनता की संप्रभुता हो. जिस में जनता ही सत्ताधारी हो. जिस की अनुमति से शासन होता हो. लेकिन क्या ऐसा है? नहीं. दरअसल, जो  परिस्थितियां लोकतंत्र को किसी भी देश में सफल बनाती हैं वे इस देश में गौण हैं. देश में तानाशाही विचारधारा की शक्तियां, जो देशभक्ति और धर्म की आड़ में अपने नियमकायदे जनता पर थोपना चाहती हैं, शासन कर रही हैं. विकास के नाम पर धार्मिक एजेंडे चमका रहे राजनीतिक दलों की राजनीति मौकापरस्ती और भ्रष्टाचार का खेल बन कर रह गई है. जनता अपने अधिकार और कर्तव्य से विमुख है. इन सब, खासतौर से जनता की सुस्ती, के चलते इस देश में लोकतंत्र कमजोर और निरर्थक होता जा रहा है.

आई स्क्रेच योर बैक, यू स्क्रेच माइन अंगरेजी जुमला है, आई स्क्रेच योर बैक, यू स्क्रेच माइन. इस फलसफे और चोरचोर मौसेरे भाई की तर्ज पर सत्ताधारी और विपक्षी दल एकदूसरे की बैक संभालते हैं. जनता से मिली ताकतों को निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने को एक हो जाते हैं. जब देश के गरीबों की गाढ़ी कमाई ले कर विजय माल्या जैसा उद्योगपति सरकार की नाक के नीचे से फुर्र हो जाता है तो सरकार विपक्षी दलों को चुप करने के लिए क्वात्रोची का हवाला देती है. जब कोई कोयला घोटाला या 2जी की बात करता है तो उसे बोफोर्स, चारा घोटाला और व्यापमं का हवाला देकर चुप करा दिया जाता है. दोनों एकदूसरे की कमियों पर परदा यह सोच कर डालते हैं कि जब हम सत्ता में आएंगे तो यही सरकार विपक्षी दल के रूप में हमारी पीठ खुजाएगी. हां, दिखावे के लिए घोटालों, भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में तथाकथित कमीशन, जांच समिति बैठाने का नाटक कर जनता को बरगलाया जाता है. संसद में जनता के पैसे से आराम फरमा रहे 552 जनप्रतिनिधियों का आपस में कोई सामंजस्य नहीं है. जाहिर है जनहित के मुद्दे इन के लिए मजाक से ज्यादा भला और क्या होंगे. जनता ने जिन सिपाहियों को देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास के लिए चुना है वे अपने सरकारी बंगलागाड़ी और घोटालेबाजी में मसरूफ हैं. अब तक ज्यादातर घोटालों के मास्टरमाइंड अगर आजाद हैं तो सिर्फ इसलिए कि हम सुस्त रहे और सरकार पर नकेल नहीं कस सके. क्यों नहीं हम ने इस के खिलाफ आवाज उठाई? इतना सब होने के बावजूद हम फिर भी बेईमान नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और बाबुओं की मनमानी देखने को मजबूर हैं.

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