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बीसीसीसी से जुड़ीं शर्मिला

फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर सैंसर बोर्ड में अपने कार्यकाल के दौरान किसी भी तरह के विवादों से न सिर्फ बची रहीं बल्कि आज जिस तरह सैंसर बोर्ड को लगातार आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है, उन के काम के दौरान ऐसा कम ही हुआ. अब उन्हें ब्रौडकास्टिंग कंटैंट कंप्लेंट्स काउंसिल यानी बीसीसीसी के नए सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया है. बीसीसीसी टीवी कंटैंट के खिलाफ शिकायतों को सुनने वाला एक स्वनियामक संस्था है. यह टीवी में किसी भी तरह के विवादास्पद और आपत्तिजनक कंटैंट के खिलाफ आई याचिका के आधार पर चैनल के खिलाफ ऐक्शन लेती है. आईबीएफ के निदेशक मंडल ने शर्मिला को नियुक्त किया है. उम्मीद है वे अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाएंगी.

बौलीवुड पर करों का बोझ

लगातार बढ़ते अनियमित करों के बोझ से आमजन तो परेशान हैं ही, फिल्म उद्योग भी कम हलकान नहीं है. बीते दिनों ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ और ‘दिल धड़कने दो’ सरीखी कामयाब फिल्में बना चुकी निर्देशिका जोया अख्तर ने भारतीय फिल्मों पर करों के भारी बोझ पर चिंता जताई है. उन का कहना है कि फिल्म वालों पर इस तरह से करों का बोझ लादा गया है कि निर्माताओं की कमर टूट रही है. कई निर्माता फिल्म बनाने से पहले करों से घबरा जाते हैं. उन के मुताबिक, हम मनोरंजन के लिए कर का भुगतान कर रहे हैं जो तर्कसंगत कर है और हम सेवा के लिए भी कर अदा कर रहे हैं, ऐसे में हम लग्जरी हैं या सेवा हैं? वे सरकार से इस उद्योग को सहयोग देने का आग्रह भी कर रही हैं. बहरहाल, आमजन की भी करों से जुड़ी पीड़ा अब तक कौन सी सरकार ने सुनी है भला, जो फिल्म वालों की सुन लेगी.

‘गोलमाल 4’ का गोलमाल

निर्देशक रोहित शेट्टी फिल्म ‘दिलवाले’ की असफलता से उबरे नहीं हैं. उन्होंने ‘गोलमाल 4’ फिल्म बनाने के लिए अजय देवगन से हाथ मिलाया तो है लेकिन वे  अजय की फिल्म ‘शिवाय’ के प्रदर्शन के इंतजार में हैं कि दर्शक उन्हें कितना पसंद करते हैं. यही नहीं, ‘गोलमाल 4’ में हीरोइन के तौर पर वे करीना कपूर को लेना चाहते थे लेकिन वे गर्भवती हैं. चर्चा है कि दीपिका पादुकोण और आलिया भट्ट दोनों रोहित के निर्देशन में काम करना चाहती हैं. इसी चर्चा के बीच यह चर्चा भी गरम है कि रोहित ‘गोलमाल 4’ में अजय की हीरोइन काजोल को बनाने की सोच रहे हैं जोकि अजय की असली हीरोइन भी हैं.

पिता बने शाहिद

करीना कपूर जहां अपने बेबी बंप के साथ रैंप पर कैटवाक करती हुई भावुक हो रही हैं वहीं उन के पूर्व पुरुषमित्र शाहिद कपूर के पास भी भावुक होने का समान कारण है. वजह यह है कि वे एक पुत्री के पिता बन गए हैं. शाहिद की पत्नी मीरा राजपूत को जब आननफानन पिछले दिनों खार के हिंदुजा हैल्थकेयर सर्जिकल अस्पताल में भरती कराया गया था, तभी से कयास लगाए जा रहे थे कि शाहिद को जल्द ही कोई गुड न्यूज मिलने वाली है. शाहिद ने एक बेटी के पिता बनते ही ट्वीट किया, ‘वह आ गई है और हमारे पास खुशी को इजहार करने के लिए शब्द नहीं हैं. शुभकामनाओं के लिए आप सभी का धन्यवाद.’ शाहिद की मीरा से शादी पिछले वर्ष जुलाई में हुई थी.

बचपन को खिलने दें

कभी किताबों के बीच, कभी एक्स्ट्रा क्लासेज में तो कभी हुनर सिखाने वाली गलियों में. बस, एक ही धुन है, आगे निकल जाने की. पीछे रह गए, तो बस एक ही रास्ता… सहनशीलता और धैर्य का पाठ इन्होंने सीखा ही नहीं. गोया कि इस की प्रतियोगिता अभी शुरू ही नहीं हुई है. धैर्य, सहनशीलता, सरलता, समझदारी इन में से कोई भी संस्कार चैनल्स को अपील नहीं कर रहे. इन में ग्लैमर का तड़का नहीं लगाया जा सकता. ये पाठ तो घर पर ही बच्चे सीखते थे. संयुक्त परिवार में जानेअनजाने ही बहुत सी बातें बच्चे सीख जाते थे. दादीनानी की कहानियां जिंदगी के सबक सिखा देती थीं. लेकिन आज बच्चों के पास इतने रिश्ते ही नहीं रह गए. बच्चे इतने व्यस्त हैं कि उन के पास समय भी नहीं है. पेरैंट्स नहीं चाहते कि वे फालतू घर में बैठे रहें.

छुट्टियां हैं, तो कुछ नया सीखें

रिऐलिटी शो में भाग लेना प्रतिष्ठासूचक बन गया है. अभिभावकों के रुझान को देखते हुए ऐसे प्रोग्राम्स की तादाद भी बढ़ती जा रही है. टीवी चैनलों पर नित नए डांस व रिऐलिटी शो शुरू हो रहे हैं. ऐसे ही एक रिऐलिटी डांस शो ने पिछले साल मुंबई की 11 साल की नेहा सावंत की जिंदगी छीन ली थी. नेहा ने कई रिऐलिटी शोज में भाग लिया. नेहा को लग रहा था कि डांस उस की पढ़ाई पर असर डाल रहा है. उस ने डांस क्लास से ब्रेक लेने के बारे में पेरैंट्स से बात की. तनाव इस कदर बढ़ चुका था कि पेरैंट्स के औफिस जाने के बाद उस ने परदे की रौड से लटक कर जान दे दी. आगे निकलना है, सब से आगे. न निकल सके तो जिंदगी को पीछे छोड़ देना है. पिछले कुछ महीनों में किशोर बच्चों के आत्महत्या करने के मामले आश्चर्यजनक रूप से बढ़े हैं. इस के पीछे शैक्षिक और अभिभावकों द्वारा डाला गया मानसिक दबाव पहली वजह रहा है. बच्चे जराजरा सी बात पर परेशान हो अपना संतुलन खो बैठते हैं.

जयपुर में, कुछ महीने पहले ही, बनीपार्क में रहने वाली 15 साल की गरिमा ने महज इसलिए फंदा लगा कर खुदकुशी कर ली क्योंकि कंप्यूटर को ले कर उस की छोटे भाई से अनबन हो गई थी. जयपुर के ही सोडाला इलाके में एक छात्र ने पढ़ाई की टैंशन से मुक्ति पाने के लिए जिंदगी से मुक्ति पाना ज्यादा आसान समझा. कमोबेश यही हाल सभी शहरों के हैं. मुंबई की लिलि, ठाणे की रूपल, अहमदाबाद की रश्मि शर्मा, विजयवाड़ा की स्नेहा, नासिक की रक्षा दिनकर और चंडीगढ़ की साक्षी ने भी आत्महत्याएं कर डालीं. देश के विभिन्न शहरों में ऐसे मामले सामने आए हैं जहां किशोर बच्चों ने तनाव का सामना करने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझा. पीछे रह गए विलाप करते परिजन. बगैर सोचेसमझे इन बच्चों को संशय था कि वे पेरैंट्स और टीचर्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाएंगे. मनोचिकित्सकों, समाजशास्त्रियों और सलाहकारों का मत है कि इसी दबाव को बच्चे अन्यथा ले कर परेशान होते रहते हैं. पेरैंट्स और टीचर्स का दबाव ही बच्चों में सुसाइड वायरस पहुंचाता है.

आत्महत्या के मामलों को पूर्व निर्धारित या प्रीप्लांड नहीं कहा जा सकता. इन बच्चों को आत्महत्या की तरफ कहीं हम तो नहीं धकेल रहे? बाल मनोचिकित्सकों का कहना है, अकसर पढ़ाई के लिए मांबाप की डांट, गुस्सा और बहिष्कार का डर बच्चे के कोमल मन पर हावी हो जाता है. यही वजह है कि वे खुद को खत्म करने की ठान लेते हैं.

छुट्टियों में भी राहत नहीं

मीतू आज स्कूल से एक फौर्म ले कर आई है. वोकेशनल कोर्सेज शुरू होने को हैं. वह कहती है, ‘‘मम्मी, मुझे भी कुछ सीखने जाना है. सभी फ्रैंड्स कुछ न कुछ कर रही हैं, मैं पीछे रह गई तो?’’ मम्मी भी इसी उधेड़बुन में लगी हुई हैं कि इन छुट्टियों में बिटिया को कौनकौन से कोर्स करवाने हैं. नया सैशन पहले ही शुरू हो गया. उस पर भी थोड़ा ध्यान देना है. इस बार स्कूल मैगजीन में बिटिया छाई रहे, इस के प्रयास जोरों पर हैं. डांस के साथड्रामा क्लासेज भी जौइन करवानी होगी. उस के कैरियर के लिए उन्होंने छुट्टियों में अपने पीहर जाने का प्रोग्राम भी स्थगित कर दिया है, कितनी बड़ी कुर्बानी. पर सच पूछा जाए तो यह मैंटल टौर्चर किस का है, आप का या बच्चों का? जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इन का दिमाग कलपुरजों की तरह काम करने लगेगा. नानी के घर की धमाचौकड़ी और दादी की कहानियों से महरूम ये बच्चे न जाने कौन सी दिशा में बहते जा रहे हैं? ऐसे में छोटी सी असफलता उन्हें नाउम्मीदी के अंधे कुएं में धकेल देती है.

पूरे साल किताबें घोटघोट कर पीने के बाद छुट्टियों के दिनों की बेफिक्री उन के नसीब में नहीं. 12 महीने अनवरत दौड़, छुट्टियों में और भी तेज भागो. ऐसे में लड़खड़ाने और गिरने की संभावना नहीं बढ़ जाएगी क्या?

बच्चों को मजबूत बनाएं

बच्चे 3 साल के हुए नहीं कि एक दबाव निरंतर उन के साथ बना रहता है. कुछ है जो अंदर ही अंदर पनपता रहता है. किशोर उम्र तक आतेआते नतीजे विस्फोटक भी हो सकते हैं. मनोचिकित्सक कहते हैं, बड़ों के मुकाबले बच्चों में समायोजन की क्षमता काफी कम होती है. मुश्किल समय में, जैसे बोर्ड एग्जाम के दौरान बच्चों में अच्छा परफौर्म करने का दबाव रहता है. किशोरावस्था और वयस्क होने के इस संक्रमणकाल में उन पर अच्छे परीक्षा परिणामों, रोजगार, रिश्तों में समायोजन, जिंदगी में काबिल बनने और सैटल होने जैसे कई तरह के दबाव होते हैं. पेरैंट्स के सपोर्ट की उन्हें इस समय सब से ज्यादा जरूरत होती है. मातापिता का दायित्व सब से बड़ा है कि वे बच्चों को इन दबावों को झेलना सिखाएं और हिम्मत दें, ताकि वे जिंदगी को हंस कर जीने का उत्साह बनाए रखें. डा. सैलजा बताती हैं, ‘‘मैं अपने परिचित के घर पर थी. टीवी पर बच्चे की आत्महत्या से जुड़ी खबर आते ही मेरी परिचित ने टीवी का स्विच औफ कर दिया. कारण बताया कि ऐसी खबरें मेरी बेटी के दिमाग पर उलटा असर डालेंगी. मैं दंग रह गई. बच्चों को इस तरह की खबरों से बचाने की कोशिश कहां तक ठीक है? आप तो टीवी बंद कर देंगे लेकिन इस तरह की बातें वे दोस्तों से सुन कर आते हैं, उस का क्या?’’

अपनी निराशा से बच्चों को बचाएं

बाल मनोव्यवहार विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में बच्चे पर 3 साल की उम्र से ही दबाव बनने की शुरुआत हो जाती है. जब उसे पढ़़ाई में अच्छे प्रदर्शन के लिए ट्यूशन के लिए भेजना शुरू कर दिया जाता है. फिर, अगर वह दूसरे बच्चों से पीछे है, तो पेरैंट्स कुंठित होने लगते हैं. बच्चे की खुद की अपनी सौ परेशानियां और मुश्किलें हैं. ऐसे में वह आखिर कितना दबाव सहन कर पाएगा

वयस्क होते बच्चों पर अब भौतिकता भी दबाव बनाने लगी है. महज 20 साल की उम्र में ही वे खुद की कार लेना चाहते हैं. वे समझने लगते हैं कि यदि उन्होंने पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन किया तो वे सब चीजें हासिल कर पाएंगे.

उन की भी सुनें

विशेषज्ञों का कहना है कि पेरैंट्स, टीचर्स और बच्चों के बीच लगातार संवाद बना रहना जरूरी है. इस के लिए 24 घंटे उन पर नजर नहीं रखनी है, बस, उन की भावनाओं को समझें. किशोरावस्था में वे कई तरह के बदलावों से गुजर रहे होते हैं और उस समय उन्हें ऐसे पेरैंट्स की जरूरत होती है जो उन्हें समझें, प्यार और भावनात्मक सहारा दें. पेरैंट्स कामकाजी हैं, तो यह जरूरत और ज्यादा बढ़ जाती है. ऐसे पेरैंट्स की बेटियों पर दबाव और ज्यादा होता है. लड़कियों को यह छूट नहीं होती कि वे किसी से मन की बात कह पाएं. उन पर सामाजिक जिम्मेदारियां भी ज्यादा होती हैं.

सलाह लेने से कतराएं नहीं

बदलती लाइफ स्टाइल इन मामलों की अधिकता के लिए एक हद तक जिम्मेदार मानी जा सकती है. एकल परिवारों में बच्चों को दादादादी, चाचाचाची, भाईबहनों और ऐसे ही दूसरे रिश्तों की कमी महसूस होती है, जो पेरैंट्स की गैरमौजूदगी में उन का खयाल रखें. समय की कमी के कारण पेरैंट्स से भी बात नहीं हो पाती. ऐसे में पेरैंट्स और टीचर्स इन स्थितियों को कैसे हैंडल करें? दरअसल बच्चों को दबाव से जूझना सिखाएं. ज्यादा परेशानी है, तो काउंसलिंग करवाई जा सकती है. आज परिवारों में बाल आत्महत्याओं से जो दुखांत खालीपन आ रहा है, जो पेरैंट्स को पूरी जिंदगी का दर्द दिए जा रहा है, उस से बचने के लिए सार्थक प्रयास तो करने ही होंगे. बच्चों पर पढ़ाई के अतिरिक्त दबाव बनाने के बजाय उन्हें खुला छोड़ दें खिलने के लिए. उन्हें चहकने दें. आखिर आप अपने एक बच्चे को कितने रूपों में बांटना चाहते हैं, डांसर, ऐक्टर, पेंटर. इन सारे झूठे फ्रेमों से बाहर निकल जाइए. इस भूलभुलैया में बच्चे खुद को भुला बैठेंगे. उन्हें वही बचपन जीने दो, जो कभी आप ने जिया है.

कुकुरमुत्ते की तरह खुले वोकेशनल कोर्सेज उन की मदद नहीं कर सकते. हां, दादीनानी का दुलार, पेरैंट्स का दोस्ताना रवैया उन की समझ बढ़ा सकते हैं और सहनशीलता का पाठ भी पढ़ा सकते हैं.

धार्मिक आतंकवाद से परिवारों पर त्रासदी

8 जुलाई को मुठभेड़ में मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के परिवार में मातम पसरा हुआ है. पुलवामा के दादसरा गांव में हायर सैकंडरी स्कूल में प्रिंसिपल रहे उस के वृद्ध पिता मुजफ्फर अहमद वानी, मां मैमूना, बहन इरम और भाई नवेद आलम का बुरा हाल है. एक तो परिवार के सदस्य की मौत और ऊपर से समूचे जम्मूकश्मीर राज्य में मौत के बाद फैली हिंसा से यह परिवार बेहद सदमे में है. पढे़लिखे वानी परिवार पर आतंकवाद, अलगाववाद समर्थक का कलंक चस्पा है. 23 साल के बुरहान वानी की मां मैमूना मुजफ्फर भी विज्ञान में पोस्टग्रेजुएट हैं. वे अपने गांव में कुरआन पढ़ाती थीं. इसे घरपरिवार में मिले धार्मिक संस्कार कहें या कुछ और, बुरहान 2010 में घर से भाग गया और 15 साल की उम्र में आतंकी बन गया. पढ़ाई में टौपर और क्रिकेट के शौकीन बुरहान ने हिंसा का रास्ता पकड़ा तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मांबाप उस के लौट आने की बाट जोहते रहे पर वह 2011 में हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य बना और फिर पूरे संगठन की बागडोर अपने हाथों में ले ली.

वह सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने लगा और पढ़ेलिखे युवाओं को आतंकी संगठन में भरती करने लगा. बुरहान का परिवार हमेशा उस के हिंसा के रास्ते पर चले जाने से खुद को असुरक्षित, ग्लानि, अफसोस, दुखदर्द, ताने सहने पर बेबस महसूस करता रहा. बुरहान का एक भाई खालिद पहले ही 2015 में भारतीय सेना द्वारा मारा गया था. इतने दुखों के बावजूद इस परिवार को मजहब का सहारा है.

सदमे में परिवार

पिछले साल उत्तर प्रदेश के दादरी में हिंदू गुंडों की हिंसक भीड़ द्वारा गाय का मांस रखने के शक में मारे गए अखलाक का परिवार दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर है. 52 साल के अखलाक की बूढ़ी मां असगरी बेगम, पत्नी इकराम, भाई जान मोहम्मद, 22 साल का छोटा बेटा दानिश, बड़ा बेटा सरताज और बेटी साजिदा हर दिन खौफ व चिंता में गुजार रहे हैं . 28 सितंबर, 2015 को रात को साढ़े 10 बजे थे. रात का खाना खा कर अखलाक, उस की बूढ़ी मां, पत्नी और बेटा दानिश सोए ही थे कि अचानक घर के अंदर भीड़ घुस आई. दानिश को भीड़ ने पीटना शुरू कर दिया. बूढ़ी मां व पत्नी को पीटा गया और अखलाक को तो इतना बुरी तरह मारा गया कि उस की मौत हो गई. इस परिवार पर आरोप लगाया गया कि उस के घर में गाय का मांस रखा है. दानिश 4 दिन तक अस्पताल के आईसीयू में दाखिल रहा. बाद में परिवार के सदस्य कई दिनों तक गायब रहे. अखलाक को खोने के बाद यह परिवार ताजिंदगी खौफ से उबर नहीं पाएगा.

इसी तरह बारामूला जिले के सोपोर के दुआफगाह गांव के रहने वाले अफजल गुरु का परिवार बदहाल है. जवान पत्नी तबस्सुम, बेटा गालिब, पिता हबीबुल्लाह, मां आयशा बेगम बेटे की आतंकी के तौर पर गिरफ्तारी से ले कर फांसी की सजा दिए जाने तक और उस के बाद भी तिलतिल कर जी रहे हैं. 2001 में भारतीय संसद पर हमले के आरोपी 43 साल के अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2013 में फांसी की सजा दी गई थी. वह जैशे मोहम्मद का समर्थक था. उस पर हत्या, षड्यंत्र, हथियार रखने और देश के विरुद्ध हमले के आरोप थे. कश्मीर की आजादी के नाम पर वह जिहाद के लिए प्रेरित हुआ था. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर फार्मास्युटिकल कंपनी में एरिया मैनेजर के तौर पर नौकरी करने वाले अफजल ने 1998 में बारामूला की तबस्सुम से शादी की थी. तबस्सुम फांसी पर चढ़ाए गए आतंकी की पत्नी का दाग जीतेजी कभी नहीं धो पाएगी. समाज में रह कर बेटे गालिब को पालना उस के लिए दूभर है. अफजल के मांबाप का भी हाल बेहाल है.

मजे की बात है कि फांसी की सजा के फैसले पर अफजल ने अपने परिवार वालों से कहा था कि वह खुदा का शुक्रगुजार है कि उसे बलिदान के लिए चुना गया. जब उस ने अपने मांबाप से फांसी पर चढ़ते वक्त यह कहा कि तबस्सुम और गालिब का खयाल रखना तो मांबाप का दिल दहाड़े मार उठा था.

पलायन का दर्द

1989-90 में जम्मूकश्मीर में हिंसा के बाद हजारों कश्मीरी पंडितों का घाटी से सामूहिक पलायन शुरू हुआ और वे अब तक मारेमारे फिर रहे हैं. जगहजगह कश्मीरी पंडित परिवारों का दुख और गुस्सा दिखता है. उस दौर में 50 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ने पर मजबूर हुए थे. अपना घर, अपनी जमीन, रिश्ते, नाते, जुड़ाव, लगाव टूटने का दर्द हजारों परिवार आज तक भुगत रहे हैं. जम्मू की रहने वाली 26 साल की रौली कौल पैदा भी नहीं हुई थी कि उस के मांबाप को अपना घर छोड़ कर जम्मू में एक कमरे के घर में आ कर पनाह लेनी पड़ी थी. यहां एक कमरे में 10 लोग रहने पर मजबूर हैं. खानेपीने, सोने, उठनेबैठने से ले कर हर तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. रौली के मांबाप अपनी जमीन, अपना घर छूटने के दुख में चल बसे और बेटी मांबाप की मौत के बाद अकेलेपन की जिंदगी गुजार रही है. भाई शादी कर के अलग घर में चला गया. रौली के दूसरे रिश्तेदार उस के मददगार बने हुए हैं.

फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा कश्मीरी पंडित हैं. वे अपने उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं कि मेरा घर लूट लिया गया. मेरी मां को रातोंरात घर छोड़ना पड़ा, मेरे भाई पर चाकू से हमला हुआ. इस परिवार के लिए जिंदगी आज भी एक दुस्वप्न की तरह है. सेवानिवृत्त अधिकारी जी एल दफ्तरी कश्मीर की यादों को अपने भीतर समेटे हुए हैं लेकिन पलायन के दर्द को भूले नहीं हैं. उन के और उन की पत्नी के लिए वहां की यादें, संस्कार, विश्वास सबकुछ है पर निजी कंपनी में काम करने वाले उन के बेटे को उन के दुखदर्द के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं है. वे घाटी में वापस लौटना चाहते हैं पर हर रोज हो रहा खूनखराबा उन्हें विचलित कर देता है. दफ्तरी परिवार को सुरक्षा व निश्चिंतता के अलावा आर्थिक गारंटी भी चाहिए.

उजड़ते घरौंदे

धर्म के नाम पर भेदभाव, छुआछूत, अनाचार झेल रहे दलितों की दशा भी दयनीय है. दलित परिवार खुद को न समाज से जोड़ पाता है, न इस देश से. दलित स्कूल, नौकरी, कामधंधा जैसी जगह पर उपेक्षित रहता है. वह अपनी पीड़ा किसी से कह भी नहीं पाता. हरियाणा के गोहाना और मिर्चपुर में दलितों के दर्जनों घर दबंगों ने जला दिए थे. लूटपाट की गई. ये परिवार उन जगहों से उजड़ गए. मारेमारे फिर रहे हैं. हाल में उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान में दलितों पर अत्याचार की घटनाओं ने उन के परिवारों की दुर्दशा को उजागर किया है. पीडि़त दलित परिवार जलालत की जिंदगी गुजरबसर कर रहे हैं. गुजरात के ऊना में पिटाई से घायल हुए दलित लड़कों के परिवारों की रातों की नींद गायब है. इन परिवारों को ऊंची जातियों की ओर से कोई इज्जत नहीं दी जाती.

ये भारतीय परिवारों की त्रासदी के ही किस्से नहीं हैं, विश्वभर में आतंकवाद से पीडि़त परिवारों की बदहाली से समूची दुनिया विचलित है. पेरिस में 2 बेटियों की मां हाना का आईएस हमले में पैर टूट गया. पति 2 साल पहले हार्टअटैक से मर गए थे. बेटियों का भरणपोषण करने वाली वह अकेली है. अब बेटियों की जिम्मेदारी हाना के लिए मुसीबत बन गई. परिवार में और किसी का सहारा नहीं है. अपंगता ने इस परिवार का जीवन दूभर बना दिया है. आर्थिक परेशानियां मुंहबाए खड़ी हैं. सैकड़ों यजीदी महिलाओं का बोको हरम द्वारा अपहरण और उन के बलात्कार किए जाने की घटनाओं से उन के परिवारों पर क्या बीत रही होगी, सोचा जा सकता है. काहिरा में अलकायदा के हमले में मारी गई 17 साल की सेसिल वन्नियर के मांबाप न्याय के लिए दरदर भटक रहे हैं. सेसिल अपने मांबाप की इकलौती संतान थी और फ्रांस से छात्रों के एक ग्रुप के साथ घूमने गई थी. इस हमले में 24 अन्य छात्रछात्राएं घायल हो गए थे. इन में से कई अब जिंदगीभर के लिए अपंग बन गए हैं. सेसिल की मां कैथरीन वन्नियर और दूसरे बच्चों की मांएं जीवनभर का दुख झेलने को मजबूर हैं. पेरिस स्थित अपने घर में सेसिल के पिता जीन लक बेटी की मौत के बाद सदम से डिप्रैशन में हैं.

29 साल की हाली ग्राहम ने पेरिस हमले में अपने मांबाप को खो दिया. मां लीजा ग्राहम और पिता लिंडसे ग्राहम की मौत के बाद अकेलेपन ने बेटी को तोड़ दिया है. मांबाप की रिक्तता इस जवान बेटी के लिए सब से बड़ी त्रासदी है. इस दुनिया से उस का मन अब उचट गया है. पिछले एकडेढ़ दशक में लाखों परिवार अपनों को खो कर, बिछड़ कर अमेरिका, ब्रिटेन, जरमनी, इटली के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. अपनों की मृत्यु, बिछोह का दर्द लिए बचा जीवन जीने पर मजबूर हैं. हजारों नहीं, लाखों उदाहरण ऐसे परिवारों के हैं जो दुनियाभर में हो रहे आतंकी हमलों के शिकार हैं. ये दुखदर्द के सैलाब में डूबे हुए हैं. अकेले सीरियाई जंग में 4 लाख 70 हजार से ज्यादा सीरियाई लोग मारे जा चुके हैं. लाखों को अपना घरबार छोड़ कर भागना पड़ा है.

कट्टरता का बोलबाला

जुलाई माह में तुर्की में तख्तापलट की कोशिश, अमेरिका में श्वेतअश्वेत हमले, फ्रांस के नीस शहर में ट्रक सवार के हमले में सैकड़ों परिवारों पर कहर टूट पड़ा. नीस में राष्ट्रीय दिवस मना रहे लोगों पर आईएस के आतंकवादी ने ट्रक चढ़ा कर 130 लोगों को मौत के घाट उतार दिया. 250 लोग घायल हो कर अपंग बन गए. फ्रांस में यह तीसरा बड़ा हमला था. इस से पहले 13 नवंबर, 2015 को पेरिस में आईएस ने बम धमाकों से 140 लोगों को मार दिया था. इस से पहले पेरिस में ही मशहूर कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो के दफ्तर में हुए हमले में 12 लोग मारे गए थे. तुर्की में धार्मिक कट्टर लोगों द्वारा राष्ट्रपति के खिलाफ किए गए तख्तापलट के प्रयास में 300 से ज्यादा लोगों की जानें चली गईं और 1,500 लोग घायल हो कर अस्पतालों में पड़े हैं. 80 हजार लोग जेलों में बंद हैं. इस घटना के लिए अमेरिका के पैंसिलवेनिया में निर्वासित जीवन बिता रहे उदार मुसलिम धर्मप्रचारक हेतुल्ला गुलेन को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. कहा जा रहा है कि सेना की वरदी में गुलेन समर्थकों ने विद्रोह को अंजाम दिया है. गुलेन इमाम रहते हुए इसलाम का प्रचार करता था. उस ने हिजमत नाम का आंदोलन शुरू किया था. 100 से ज्यादा देशों में उस का करीब 1 हजार स्कूलों का नैटवर्क है. लाखों परिवार उस के अनुयायी हैं.

नस्लीय हिंसा

अमेरिका में नस्लीय हिंसा पुरानी है. पर धर्म की मुहर लगी है और चर्च के इशारे पर चलती है. वहां 2 अश्वेतों की पुलिस गोली से मौत के बाद हिंसक प्रदर्शन हो रहा है. टैक्सास के डलास शहर में 5 पुलिसकर्मियों को मार डाला गया. पहला मामला 5 जुलाई का है. लुइसियाना में पुलिस ने एल्टन स्टर्लिंग नाम के अश्वेत को रोका. पुलिस को उस पर हथियार रखने का शक था. कहासुनी और हाथापाई के बाद 37 साल के एल्टन को पुलिस वालों ने जमीन पर गिरा दिया और उसे कई गोलियां मारीं. एल्टन की मौके पर ही मौत हो गई. दूसरा मामला 6 जुलाई को हुआ. मिनेसोरा में फिलांडो केस्टिले अपनी महिला मित्र के साथ कार में था. पुलिस ने उसे ड्राइविंग लाइसैंस के लिए रोका. पर पुलिस का कहना है कि उसे लगा कि वह बंदूक निकाल रहा है, सो पुलिस ने उसे गोली मार दी. उस की महिला मित्र लेविश रेनोल्डस ने पूरी घटना का वीडियो बना लिया था. इस वीडियो के वायरल होते ही विरोध प्रदर्शन तेज हो गया. फिलांडो की हत्या के बाद उस का परिवार बेहद दुखी है और गर्लफ्रैंड का भविष्य अंधकार में चला गया. उस पर मुसीबतें टूट पड़ी हैं.

अमेरिका में ज्यादातर राज्य धार्मिक नस्लीय हिंसा की चपेट में हैं. पिछले 5 वर्षों में ईसाई और मुसलिम नफरत में करीब 16 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. पिछले साल 250 से अधिक अश्वेत मारे गए. इस साल अब तक 123 अश्वेत नस्लीय हिंसा की भेंट चढ़ गए. यह धार्मिकद्वेष है जो विभिन्न पंथों, धर्मों के बीच सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. अमेरिका में हेट ग्रुप बढ़ते जा रहे हैं. 2014 में इन की संख्या 784 थी. पिछले साल 100 से अधिक नए हेट ग्रुप बने और इस समय इन की तादाद 900 के करीब है. ये हेट ग्रुप श्वेतों द्वारा अश्वेतों के खिलाफ चलाए जा रहे हैं. अश्वेतों के अलावा 42 फीसदी अरब देशों के मुसलमानों के खिलाफ ग्रुप की संख्या बढ़ी है. 2012 के आंकड़े बताते हैं कि अफगानिस्तान में 2,632, इराक 2,436, पाकिस्तान 1,848, नाइजीरिया 1,386, सीरिया 657, यमन 365, सोमालिया 323, भारत 233, थाईलैंड 174 और फिलीपींस में 109 मौतें आतंकवाद से हुईं. भारत की बात करें तो 1974 से 2004 तक 4,018 आतंकी वारदातें हुईं जिन में 12,500 लोग मारे गए. भारत 162 देशों में शीर्ष 100 आतंक प्रभावित देशों में छठे नंबर पर है. पाकिस्तान चौथे स्थान पर है.

भटकते युवा

आतंकवादी संगठनों की मुख्य ताकत युवा हैं. संगठनों ने युवाओं को धर्म का पाठ पढ़ा कर इंसानियत के खिलाफ हथियार उठाने के लिए तैयार कर लिया है. दुनियाभर में इन की भरती का अभियान चल रहा है. औनलाइन भरती चालू है. गैरमुसलिम देशों के मुसलमान युवकों को इंटरनैट के जरिए गुमराह कर के संगठनों में शामिल कराया जा रहा है और उन के परिवारों को मोटी रकम दी जा रही है. मुसलिम युवा आसानी से इन के झांसे में आ रहे हैं. दरअसल, शताब्दियों से दुनिया धर्मयुद्धों से जूझती रही है. आतंकवाद की जड़ धर्म है. विश्वभर में धर्म के नाम पर जो हिंसा, मारकाट हो रही है उस के लिए व्यक्ति, परिवार को निर्दोष बता कर पल्ला नहीं झाड़ सकते. आतंकवाद के लिए परिवार भी दोषी है. हर परिवार किसी न किसी धर्म से जुड़ा हुआ है. वह एक धर्म के प्रति पक्षपाती है. धर्मगुरु, प्रचारक परिवारों को धर्म के प्रति ब्रेनवाश करने में कामयाब हो रहे हैं. वे वेद को ईश्वरीय वाणी बताते हैं. वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय आज्ञा बता कर छुआछूत, भेदभाव, अत्याचार किया जाता रहा. गरीबी, भुखमरी, पिछड़ेपन को पूर्वजन्मों के कर्मों का फल बता कर प्रमाणित ठहराया गया.

उधर, जिहाद को अल्लाह का हुक्म करार दिया गया. धार्मिक किताबों में काफिर को मार देना जायज ठहराया गया. धर्म के लिए जान देने वालों को सीधे जन्नत मिलने और वहां खूबसूरत हूरें मिलने का लालच दिया गया. इस तरह की बातों में लोगों को भरोसा दिलाने में पंडेपुजारी, पादरी, मुल्लामौलवी कामयाब रहे हैं. परिवार धार्मिक संगठनों पर पूरा भरोसा करते हैं. उन्हें चंदा, दानदक्षिणा देते हैं. लोग अपनेअपने धर्म के संगठन के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े दिखाई देते हैं. उन के नाजायज काम पर या तो चुप रहते हैं या खुल कर समर्थन करते सुनाई देते हैं.

परिवार धार्मिक स्थलों पर अपने स्वार्थ के लिए यानी मांगने जाते हैं. धर्मस्थलों पर कलह, दुर्दशा, हिंसा धर्म को मानने वाले परिवारों की वजह से है. ये स्थल भेदभाव के गढ़ हैं. ये केवल कर्मकांड के माध्यम बने हुए हैं. यहां बराबरी नहीं है यानी जीवन की कोई नई दिशा देने के साधन नहीं हैं, फिर भी परिवारों द्वारा इन्हें महत्ता दी जाती है. जाति, धर्म के नाम पर भेदभाव, छुआछूत, हिंसा भी आतंकवाद का रूप है. जातीय श्रेष्ठता, ऊंचनीच की भावना और उस के अनुरूप सामाजिक व्यवहार आतंकवाद ही है.

आतंक और धर्म

अकसर कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता. असल में आतंकवाद का पर्याय ही धर्म है. आतंक धर्म की पैदाइश है. इराक, सीरिया, लीबिया, मिस्र, सूडान, रूस, अल्जीरिया, यमन, ब्रुसैल्स लगभग पूरे मध्यपूर्व में आतंक और रक्तपात के पीछे धर्म ही है. जानलेवा धर्म को प्रश्रय आम लोग ही दे रहे हैं. धार्मिक ग्रंथों में हिंसा, वैरभाव की सीख भरी पड़ी है. ये वो किताबें हैं जिन्हें लोग दिनरात पूजते हैं. हर परिवार इन किताबों को अपनी जिंदगी में आत्मसात किए बैठा है. बातबात में इन के उदाहरण दिए जाते हैं. गुरु, प्रवचक इन्हीं किताबों के किस्से, कहानियां अपने भक्तों को सुना कर हिंसा, भेदभाव, विघटन जैसी बुराइयों को पुख्ता करते रहते हैं और समाज, परिवार इन से सहमत होता है. यानी परिवार हिंसा, भेदभाव को प्रश्रय देने के जिम्मेदार हैं. विदेशों में रह रहे परिवारों की बात करें तो वे अपनीअपनी अलग धार्मिक पहचान बना कर रखते हैं. मुसलिम अपनी अलग पहचान रखता है. हिंदू, ईसाई, सिख यानी हर धर्म के लोग अलग पहचाने जाते हैं. इस वजह से घृणा, हिंसा पनपती है.

बढ़ती नास्तिकता

सवाल है कि क्या समाज, परिवार बिना किसी धर्म के रह नहीं सकता? रह सकता है. यूरोप में 40 फीसदी लोग बिना किसी धर्म और ईश्वर के रह रहे हैं. अच्छी तरह से रह रहे हैं. बिना धर्म के वे सुखी, संपन्न, सचाई, ईमानदारी से रह रहे हैं. धर्म का प्रभाव उन में न के बराबर है. न ईश्वरीय सत्ता में विश्वास है, न रुचि है. यह संतोष की बात है कि यूरोप के चर्च बंद होने लगे हैं, बिक रहे हैं या किराए पर उठ रहे हैं. कई स्थानों पर तो होटल, रेस्टोरैंट और नाइटक्लब तक खुल गए हैं. क्योंकि वहां चर्चों में आय बंद हो गई है. लोगों ने जाना छोड़ दिया है. उन की धर्म और आस्था में कोई रुचि नहीं है. वे इस पर अपना समय, धन और ऊर्जा नष्ट नहीं करते. पर दूसरी तरफ यह सच है कि अशिक्षित और गरीब देशों, समाजों, परिवारों में धर्म और आस्था का बोलबाला है. वजह यह है कि इन लोगों को धर्म और ईश्वर के नाम पर बहलाना अधिक आसान है. यूरोप में पुनर्जागरण, आंदोलन के बाद और शिक्षा की वजह से हुआ है.

यूरोप में नास्तिकों की संख्या बढ़ती जा रही है. भारत व अन्य देशों में हालात उलटे हैं. आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में स्कूलों से ज्यादा मंदिर, मसजिद बढ़ते जा रहे हैं. भारत के महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में नास्तिक जरूर बढ़ रहे हैं क्योंकि इन राज्यों में धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन हुए और नास्तिक बनने वाले वे लोग हैं जो धर्म से पीडि़त रहे हैं. आज निधर्मी समाज की जरूरत है. निधर्मी व्यक्ति या परिवार निष्पक्ष, अधार्मिक स्वार्थरहित, लोकतांत्रिक, उदार, मानवीय, सहनशील, तरक्कीपसंद, वैज्ञानिक सोच का समर्थक होता है. वह तंग खयाल से दूर रहता है. दूसरी ओर धार्मिक व्यक्ति हर जगह स्वार्थ, लालच, पक्षपाती दृष्टिकोण से ओतप्रोत रहता है. व्यक्ति, परिवार की सोच धर्म व ईश्वर रहित यानी वैज्ञानिक होगी तो विश्व में आतंक, हिंसा बहुत हद तक कम हो जाएगी. आज हर देश पर धर्म का ठप्पा है. एक भी देश निधर्मी नहीं है. अगर भारत निधर्मी होता तो क्या 1947 में विभाजन होता? लाखों लोगों का कत्लेआम होता? परिवार बिखरते? 1984 का सिख दंगा होता? परिवार टूटते? जम्मूकश्मीर में लोग मारे जाते? कश्मीरी पंडितों के परिवार पलायन का दर्द भोगते? इस के अलावा क्या इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, मिस्र, सूडान जैसे देश बरबाद होते? लाखों शरणार्थी परिवार इधरउधर भटकते?

आपदा प्रबंधन नहीं कुप्रबंधन कहिए

नाकामी की कहानी – 1

बिहार के वैशाली जिले के राघोपुरा दियारा में 22 अगस्त की रात 8 बजे से 23 अगस्त की सुबह 5 बजे तक 45 लोग उफनते और गरजते बाढ़ के पानी के बीच नाव में फंसे रहे. कोई डर के मारे चीख रहा था तो कोई जान जाने के खौफ से चिल्ला रहा था. कोई दहाड़े मारमार कर रो रहा था. रातभर नाव पर यही मंजर बना रहा. उन्हें ले जा रही नाव का इंजन खराब हो गया. नाव में 25 स्कूली छात्र और मास्टर समेत 45 लोग सवार थे. नाव पर सवार कुछ लोगों ने इस की जानकारी व्हाट्सऐप के जरिए पटना के कुछ पत्रकारों को दी. पत्रकारों ने रात 12 बजे आपदा प्रबंधन विभाग के टोलफ्री नंबर पर कई बार फोन लगाया पर किसी ने फोन उठाने की जहमत नहीं उठाई. उस के बाद आपदा विभाग के प्रधान सचिव व्यास के मोबाइल फोन की घंटी बजाई गई, पर बात नहीं हो सकी.

नाव में सवार मनोज कुमार ने बताया कि सारी रात नाव में सवार लोग चीखतेचिल्लाते रहे पर उन की आवाज सुनने वाला कोई नहीं था. सरकारी मदद की सारी उम्मीदें टूटने के बाद नाव में सवार सुरेंद्र कुमार ने अपने मोबाइल फोन से अपने गांव के दोस्तों को सूचना दी तो गांव में अफरातफरी मच गई. गांव के लोग तेज रोशनी वाली टौर्चों के साथ कई नाव ले कर निकल पड़े. अंधेरा होने और बाढ़ के पानी की तेज आवाज होने की वजह से कुछ पता नहीं चल पाया.

नाव में फंसे लोग अपने दोस्तों से मोबाइल से लगातार संपर्क में रहे पर फंसी हुई नाव की लोकेशन नहीं मिल सकी.

सुबह 5 बजे हलकी रोशनी होने के बाद गंगा की लहरों के बीच फंसी नाव नजर आई और सभी को दूसरे नाव में लाद कर बचाया गया. गांव वालों ने खुद ही अपने लोगों को आपदा से बचाया और आपदाओं में फंसे नागरिकों की जान बचाने का ढिंढोरा पीटने वाले आपदा प्रबंधन बल की नींद नहीं खुली. अखबारों और टैलीविजन चैनलों पर विज्ञापन दिखा कर आपदा की घड़ी में सूचना मिलने पर तत्काल राहत कार्य पहुंचाने का दावा करने वाला आपदा प्रबंधन बल कान में तेल डाल कर सोता रहा. आपदा में फंसे लोगों का फोन रिसीव करने का भी उस ने कष्ट नहीं उठाया.

नाकामी की कहानी – 2

2 अगस्त को मुंबईगोआ नैशनल हाईवे पर रायगढ़ जिले में महाड़ के पास 100 साल पुराना, ब्रिटिश जमाने में बना पुल सावित्री नदी के तेज बहाव में बह गया. महाराष्ट्र परिवहन निगम की 2 बसों समेत कई प्राइवेट कारें और मोटरसाइकिलें उफनती नदी में समा गईं. मुंबई शहर से 170 किलोमीटर की दूरी पर हुए हादसे में 15 लोग मारे गए और दर्जनों लापता हैं. एनडीआरएफ की टीम पानी में बहे लोगों को निकालने में नाकाम रही. लोकल मछुआरों की मदद से टीम राहत, बचाव और लाशों के ढूंढ़ने का काम करती रही पर खास कामयाबी नहीं मिल सकी. 300 किलो वजन चुंबक को पानी में डाल कर पानी में डूबी गाडि़यों की खोज की गई लेकिन एक भी गाड़ी का पता नहीं चल सका. पानी के तेज बहाव और नदी में भरे मगरमच्छों की वजह से एनडीआरएफ टीम को भारी मशक्कत का सामना करना पड़ा.

पुल के आसपास के लोगों का कहना है कि नदी में गैरकानूनी तरीके से बालू के खनन से पुल की नींव कमजोर पड़ गई थी, जो पानी के तेज बहाव को नहीं झेल सकी. प्रशासन को कई बार इस बारे में सूचना दी गई पर बालू खनन को रोकने का कोई उपाय नहीं किया गया. गौरतलब है कि इसी साल मई महीने में पुल की जांच की गई थी और उस की मरम्मत करने के बाद उसे ट्रैफिक के लायक करार दिया गया था.

नाकामी की कहानी – 3

पिछले साल चेन्नई में बाढ़ का पानी तांडव मचा रहा था. बाढ़ से पूरा शहर डूब रहा था और पानी आने के 72 घंटे तक राष्ट्रीय आपदा मोचन बल यानी एनडीआरएफ की टीम नहीं पहुंच सकी. बाढ़ ने जान और माल का काफी नुकसान कर डाला था. आखिर सेना बुलाई गई और सेना ने हालात पर काबू पाया. तमिलनाडु सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग बाढ़ के सामने पूरी तरह से बेबस नजर आए. वायुसेना के हैलिकौप्टरों ने 5 दिनों में 40 उड़ानें भर कर बाढ़ में फंसे 700 लोगों को निकाला और बाढ़ पीडि़तों के बीच 281 टन राहत सामग्री पहुंचाई. बारिश की वजह से चेन्नई में 269 लोगों को जान गंवानी पड़ी. एनडीआरएफ का दावा है कि चेन्नई बाढ़ में 50 टीमों को लगाया गया था. टीम के साथ 194 बोट, 1,571 लाइफ जैकेट, 1,071 लाइफबोट, दवाइयां और जीवनरक्षक उपकरण मुहैया कराए गए थे.

नाकामी की कहानी – 4

साल 2013 में उत्तराखंड में हुई आपदा के बाद भी हमारी आंखें नहीं खुल सकी हैं. केदारनाथ आपदा के बाद एनडीएमए के पूर्व उपाध्यक्ष शशिधर रेड्डी ने साफ तौर पर हिदायत दी थी कि उत्तराखंड समेत देश के सभी हिमालय प्रभावित इलाकों में आपदाओं से निबटने के लिए पूरी व्यवस्था करनी जरूरी है. इन इलाकों में भूकंप, भारी बारिश, भूस्खलन और बादल फटने जैसी आपदाएं अकसर होती रहती हैं. केदारनाथ में विनाश का तांडव 15 जून, 2013 से ही शुरू हो गया था और सरकार व आपदा प्रबंधन वाले 19 जून तक समझ ही नहीं सके कि क्या और कैसे किया जाए? इतने दिनों में तो प्रकृति ने विनाश का नया इतिहास ही रच डाला. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही करीब 4 हजार लोग मारे गए. उस के बाद तो आपदा प्रबंधन के लोगों ने बचाव नहीं केवल लाशों को ढूंढ़ने व उन्हें ठिकाने लगाने का ही काम किया. केदारनाथ आपदा के 3 साल गुजर गए और आज तक आपदा प्रबंधन के कोई ठोस उपाय नहीं किए जा सके हैं. आपदा खत्म, सरकार की सोच खत्म.

तूफान, सूनामी, बवंडर, आंधी, बाढ़, आग, बम विस्फोट, दंगे समेत आतंकवादी हमलों व आपराधिक वारदातों के समय आपदा प्रबंधन की जरूरत पड़ती है. आपदा आने पर ही आपदा से बचाव का इंतजाम दुरुस्त करने की याद आती है और आपदा के खत्म होने के बाद सरकारें, आपदा प्रबंधन विभाग और आपदा झेलने वाले कान में तेल डाल कर सो जाते हैं.

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, किसी भी प्राकृतिक आपदा यानी भूकंप, बाढ़, सूखा, बवंडर, सूनामी, ज्वालामुखी फटना, जंगल में आग, भूस्खलन, आंधी आदि और इंसानों द्वारा पैदा की गई आपदा यानी आगजनी, पुल, बांध या इमारत के धराशायी होने, औद्योगिक दुर्घटना, रेल दुर्घटना, महामारी आदि से पैदा हुई आपदा से हुई जान व माल की हिफाजत करना या बरबादी को कम करना आपदा प्रबंधन विभाग का काम है.

फिसड्डी है आपदा प्रबंधन

बिहार में बाढ़ की तबाही के बाद बिहार सरकार को आपदा प्रबंधन की याद आई. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आननफानन बाढ़, सुखाड़, आगजनी, भूकंप, तूफान, पीने के पानी का संकट आदि आपदाओं से निबटने हेतु आपदा प्रबंधन को मजबूत करने के लिए ताबड़तोड़ बैठकें करने में लगे रहे. उन्होंने राज्य के सभी जिलों में आपदा प्रबंधन योजना बनाने का फरमान जारी किया कि हर जिले के आपदा प्रबंधन विभाग के औफिस में लाइफजैकेट, महाजाल, टैंट, बरतन, मोटरबोट, जीपीएस सैट, इमरर्जैंसी लाइट, जीवनरक्षक दवाएं, एंबुलैंस, क्विक मैडिकल रिसपौंस टीम आदि का इंतजाम रखा जाए. इस के साथ ही, आपदाओं से निबटने के लिए ट्रेंड कैडेटों को भी हर समय तैयार रखा जाए.

कम्यूनिस्ट नेता कुणाल कहते हैं कि आपदा प्रबंधन के मामले में बिहार सरकार पूरी तरह से फिसड्डी और संवेदनहीन साबित हुई है. पिछले साल बेमौसम हुई बारिश ने 22 लोगों की जान ले ली और 70 फीसदी गेहूं की फसल बरबाद हो गई. मौसम विभाग ने भारी बारिश की सूचना दी थी पर उसे सभी जिलों के जिलाधिकारियों तक नहीं पहुंचाया गया. राज्य सरकार अकसर मौसम विभाग की सूचनाओं की अनदेखी करती रही है.

आपदा की हालत पैदा होने पर राहत, बचाव और पुनर्वास का इंतजाम करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण एनडीएमए नाम की नोडल एजेंसी बनाई गई है. अगस्त 1999 में ओडिशा में आई विनाशकारी सूनामी ने करीब 10 हजार लोगों की जान ले ली थी और 2 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए थे. उस सूनामी ने 20 लाख लोगों का जीवन अस्तव्यस्त कर डाला था. उस के बाद जनवरी 2001 में भुज में आए भूकंप ने 20 हजार लोगों को अपनी आगोश में ले लिया था और 1 लाख 67 हजार लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए थे. 6 लाख से ज्यादा लोगों के घर बरबाद हो गए थे.

उसी समय सरकार को आपदाओं से निबटने के लिए एक अलग एजेंसी बनाने की जरूरत महसूस हुई और इतनी बड़ी तबाही के बाद भी एजेंसी को बनाने में सरकार ने 4 साल लगा दिए. साल 2005 में आखिरकार आपदा प्रबंधन अधिनियम बनाया गया.

क्या है अधिनियम

एक अनुमान के मुताबिक, हर साल अलगअलग तरह की आपदाओं में करीब 8 से 10 हजार करोड़ रुपए का माली नुकसान होता है. इस से निबटने के लिए केंद्र सरकार के आपदा प्रबंधन का बजट महज 65 करोड़ रुपए है, जिस का बड़ा हिस्सा तो प्रचार आदि में ही खर्च हो जाता है. 26 दिसंबर, 2005 में संसद ने आपदा प्रबंधन अधिनियम पास किया था और उस के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया था. उस में बीएसएफ, सीआरपीएफ, इंडोतिब्बत बौर्डर पुलिस और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की 2-2 बटालियनों को शामिल किया गया था. एक बटालियन में 1,149 कर्मचारी होते हैं. हर बटालियन में जवानों के साथ सहयोगी के तौर पर इंजीनियर, डाक्टर, बिजली तकनीशियन, अन्य सहयोगी व कुत्ते आदि शामिल होते हैं. सरकार 1954 से ही आपदाओं से निबटने के लिए तंत्र बनाने की कोशिश करती रही पर उसे आकार लेने में 50 साल लग गए. इसी से साबित हो जाता है कि हमारी सरकारें आपदाओं को ले कर कितनी गंभीर हैं.

 जब भी कहीं बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने की वजह से लोग मरतेचीखते रहते हैं तो वहां राहतबचाव की फाइलें विभाग दर विभाग चक्कर काटने लगती हैं. कैबिनेट सचिवालय, गृह मंत्रालय, राज्य के मुख्यमंत्री और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बीच फाइलें घूमने लगती हैं और इस चक्कर में कई लोगों की जानें चली जाती हैं.

राष्ट्रीय आपदा मोचन बल के महानिदेशक ओ पी सिंह का दावा है कि आपदा टीमें नावों, खाने के पैकेटों और दवाओं से लैस हैं. बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान में ऐसी 56 टीमें काम कर रही हैं. बल के डीआईजी एस एस गुलेरिया पटना में कैंप किए हुए हैं. उन के मुताबिक, पहले ही दिन टीम ने बाढ़ में फंसे 26 हजार लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया और 9,100 लोगों को मैडिकल सुविधा मुहैया कराई है.

देश में हर 5 साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन खा जाती है और 1,600 जानें लील लेती है. पिछले 3 दशकों में दुनियाभर में 23 सब से बड़े समुद्री तूफान आए, जिन में से 21 की मार भारतीय उपमहाद्वीप ने भी झेली है. पिछले 18 सालों के दौरान देश ने 6 बड़े भूकंपों को झेला है जिन में 24 हजार से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. ऐसे देश में आपदा प्रबंधन को ले कर कोई खास जागरूकता नहीं है, इसलिए आपदा से ज्यादा नुकसान आपदा के बाद राहत और बचाव की मुस्तैदी नहीं होने से ही होता है.

क्यों होती है देर

भारत के आपदा प्रबंधन में कुप्रबंधन इसलिए कायम है क्योंकि इस का एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथों में है तो दूसरा छोर गृहमंत्रालय के पास होता है. इतना ही नहीं, तीसरा कोना राज्यों के मुख्यमंत्री ने थाम रखा होता है जबकि चौथा सिरा आपदा प्रबंधन और पांचवा सेना ने थाम रखा होता है. इस वजह से हर विभाग खुद को बौस समझता है और दूसरे को छोटा साबित करने में लगा रहता है. इस से जिम्मेदारी को एकदूसरे के सिर पर टालने का ड्रामा भी खूब होता है.

30 जून, 2015 को पटना के फुलवारी शरीफ इलाके में 5 साल की मासूम बच्ची के बोरवैल में गिरने की घटना ने बिहार स्टेट डिजास्टर रेस्पौंस फोर्स की पोल खोल कर रख दी थी. सूचना के बाद भी फोर्स की टीम काफी देरी से घटनास्थल पर पहुंची. टीम पहुंची तो उसे औपरेशन शुरू करने में 2 घंटे का वक्त लग गया. बबीता की मां रोतेबिलखते खुद ही घंटों तक बोरवैल के आसपास से बालू हटाती रही और फोर्स के लोग वहां खड़े तमाशा देखते रहे.

गुजरात के भुज में साल 2001 में आए भीषण भूकंप के कुछ सालों के बाद गुजरात में ऐक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम को इसराईल से खरीदा गया था. इस मशीन में इतनी ताकत है कि वह जमीन के 20 मीटर नीचे दबे किसी इंसान के दिल की धड़कन को सुन सकती है. वहीं, हाइड्रोलिक रैस्क्यू इक्विपमैंट को नीदरलैंड से मंगवाया गया था, इस से मजबूत से मजबूत फर्श या छत को फोड़ कर इंसान को बचाया जा सकता है. अमेरिका से लाइन थ्रोइंग गन को इसलिए खरीदा गया था कि उस से किसी ऊंची इमारत में फंसे आदमी तक रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है. अल्ट्रा हाईप्रैशर फाइटिंग मशीन को भी खरीदा गया था. उस की खासीयत यह है कि वह आग बुझाने वाले आम उपकरण से 15 गुना कम पानी खर्च कर के भी पूरा काम कर देती है. ये सारे उपकरण कहां हैं और किस हालत में हैं, यह किसी, खासकर आपदा प्रबंधन विभाग को पता नहीं है. पिछले कुछ सालों के दौरान हुई आपदाओं में इन उपकरणों का कभी इस्तेमाल होते देखा ही नहीं गया.

रिटायर्ड डीजीपी डी पी ओझा कहते हैं कि आपदा को ले कर सरकार, प्रशासन और जनता के बीच जागरूकता नाम की कोई चीज नहीं है. न ही घटनास्थल तक तुरंत पहुंचने के लिए कोई ठोस उपाय है. आपदा के संभावित क्षेत्रों में लोगों को बचाव की तत्काल और बुनियादी बातों की जानकारी दे कर आपदा से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है. वहीं दूसरी ओर, आपदा प्रबंधन तंत्र ही खुद एक आपदा है. हम प्राकृतिक आपदाओं से निबटने में फिसड्डी रहे हैं. ऐसे में अगर आणविक या जैविक हमला जैसा कुछ हो जाए तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या होगा?

आपदा प्रबंधन : एक नजर

आपदा प्रबंधन में कुल 12 बटालियनें अभी काम कर रही हैं. इन की असम के गुवाहाटी, पश्चिम बंगाल के कोलकाता, ओडिशा के मुंडई, तमिलनाडु के अराकोणम, महाराष्ट्र के पुणे, गुजरात के गांधीनगर, उत्तर प्रदेश के वाराणसी और गाजियाबाद, पंजाब के भटिंडा, बिहार के पटना, आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा एवं अरुणाचल प्रदेश के इटानगर में तैनाती की गई है. आपदा प्रबंधन का दावा है कि उस ने आपदाओं के बीच से 1 लाख 33 हजार 192 मानव जीवन को बचाया है. 44 आपदा राहत टीमों को देश के 12 राज्यों में तैनात किया गया है. टीम का दावा है कि असम और बिहार में टीम ने बाढ़ में फंसे 2 हजार लोगों को बाहर निकाला है.

हम खुद न्योता देते हैं आपदाओं को

25 अगस्त की दोपहर को पटना के मुख्य इलाके में बने मौर्यालोक मार्केट कौंपलैक्स की एक दुकान में अचानक ही आग की लपटें उठनी शुरू हो गईं. आग और धुएं का गुबार देखते ही पूरी मार्केट में अफरातफरी मच गई. एक जूते की दुकान में भीषण आग लग गई थी. कई दुकानदारों ने अपनेअपने सीजफायर मशीनों से आग बुझाने की पुरजोर कोशिश की पर कामयाबी नहीं मिली. आग की लपटें तेज होती जा रही थीं. फायर ब्रिगेड को सूचना दी गई तो करीब 45 मिनट के बाद फायर ब्रिगेड की 3 गाडि़यां टनटन करती हुई पहुंचीं और आग पर काबू पाया गया. इतनी बड़ी मार्केट में आग बुझाने का सिस्टम फेल था.

आपदा को ले कर सरकार के साथसाथ आम जनता भी सर्तक नहीं है. सरकारी और प्राइवेट बहुमंजिली इमारतों, सरकारी दफ्तरों और स्कूलों में भूकंप व आगजनी जैसी आपदाओं से निबटने का कोई ठोस उपाय ही नहीं होता है. सरकारी अफसरों की जेबें गरम कर के तमाम कानूनों को धता बता कर आपदा प्रबंधन के नाम पर केवल कुछ खानापूर्ति कर के छोड़ दिया जाता है, जो आपदा के समय किसी काम के नहीं रहते हैं.

भूकंप के लिए काफी संवेदनशील माने जाने वाले दिल्ली के 28 नामी स्कूल आपदा प्रबंधन औडिट में फेल हो गए. सिस्मिक जोन में आने वाले इन स्कूलों की इमारतों को बनाने से पहले आपदा प्रबंधन का कोई खयाल ही नहीं रखा गया है. स्कूलों के संचालक भी आपदा प्रबंधन को ले कर अपनी आंखकान बंद किए हुए हैं. पिछले दिनों आपदा प्रबंधन विभाग ने दिल्ली के 63 में से 28 नामी स्कूलों का निरीक्षण किया तो किसी भी स्कूल में आपदा को ले कर बचाव के उपाय नहीं थे, खासकर आग से बचाव का तो कोई इंतजाम ही नहीं था.

आपदा और धर्म

इस में शक नहीं कि आपदा प्रबंधन के मामले में हमारा देश फिसड्डी है और लोगों ने कभी दूसरे कई मसलों को ले कर आपदाओं पर वैज्ञानिक तौर पर सोचने की जरूरत नहीं समझी. इस की एक वजह धर्म और उस के दुकानदार हैं जिन्होंने घुट्टी यह पिला रखी है कि आपदाएं ईश्वरीय नाराजगी या कहर हैं. इन से बचाता भी वही पालनतारणहार ही है. बड़ी प्राकृतिक आपदाओं की तो छोडि़ए, हालत यह है कि किसी को दिल का दौरा भी पड़ता है तो नजदीक खड़े चार लोगों में से दो ‘ऊपर वाले’ से बचाने की गुहार लगाते अपना शाश्वत निकम्मापन दिखाते हैं और दो तुलसी की पत्तियां व गंगाजल लेने को दौड़ पड़ते हैं. ये 5-10 मिनट बड़े कीमती हैं जिन में समझदारी दिखाते मरीज को तुरंत अस्पताल ले जा कर चिकित्सकीय मदद दिलाई जाए तो बचने की संभावनाएं 80 फीसदी बढ़ जाती हैं.

बड़ी आपदाओं की तरफ से हर स्तर पर लापरवाही इसी मानसिकता की देन है. इस के तहत बाढ़, भूकंप, सुनामी वगैरा भगवान लाता है और पूजापाठ करने से उस का गुस्सा कम हो जाता है और फिर आपदा अपने पैर वापस खींच लेती है. धर्मग्रंथ ऐसे चमत्कारी किस्सेकहानियों से भरे पड़े हैं जो आम लोगों को मरने की हद तक भाग्यवादी बनाते हैं. भाग्यवादियों का यह समाज आपदा प्रबंधन को ले कर कभी सरकार पर दबाव नहीं बना पाया और हालत यही रही तो बना भी नहीं पाएगा. यह बात तो और तरस खाने वाली है कि अकसर जिन आपदाग्रस्त लोगों को सेना या किसी दूसरी सरकारी एजेंसी के कर्मचारी बचाते हैं, बचने वाला, बिना उन की तरफ देखे, प्रसाद ले कर सीधे मंदिर की तरफ भागता है, भगवान को धन्यवाद देता है यानी बच गए तो ऊपर वाले की कृपा थी और मर जाते तो यह भी ऊपर वाले की इच्छा होती . तमाम पंडेपुजारी इसी दिमागी दिवालिएपन की खा रहे हैं जिन्हें हर हाल में दक्षिणा मिलनी तय रहती है. ‘ओ माई गौड’ फिल्म में इसी मामूली से सवाल को तर्कपूर्ण ढंग से अभिनेता परेश रावल के जरिए उठाया गया तो धर्म के ठेकेदारों के माथे ठनके थे. जो समाज आपदाओं को ले कर धर्मभीरू और अंधविश्वासी हो, उस का तो वाकई ऊपर वाला ही, कहीं हो तो, मालिक है. ऐसे में सरकारें भी आपदाओं को ले कर गंभीर नहीं होतीं, तो हैरानी किस बात की.

विजन 2030: वर्चस्व को कायम रख पाएगा सऊदी अरब?

क्या सऊदी अरब सहित खाड़ी देशों का तेल पर कायम वर्चस्व खत्म हो रहा है? क्या तेल की गिरती कीमतें इन देशों की अर्थव्यवस्था को संभालने में असमर्थ हो रही हैं? क्या सऊदी अरब द्वारा तेल की पैदावार कम न करने के बाद भी उस का दबदबा बना रहेगा? क्या तेल की जरूरत पहले से कम या फिर अन्य विकल्पों ने तेल पर निर्भरता को कम कर दिया? इन देशों का तेल पर कायम वर्चस्व खत्म होने से क्षेत्र पर इस का क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या सऊदी अरब विश्व में मुसलिम नेतृत्व की भूमिका अदा करता रहेगा या फिर नेतृत्व ईरान के हाथ में चला जाएगा जिस का वह दावा करता है?

ऐसे अनेक सवाल तेल की गिरती कीमतों, ईरानी तेल के बाजार में आने और सऊदी अरब द्वारा ‘विजन 2030’ को पेश करने के बाद से चर्चा का विषय बने हुए हैं.

संशय में अरब

कुछ समय से तेल की गिरती कीमतों ने जहां विश्व को फायदा पहुंचाया वहां सऊदी अरब जैसे तेल पैदा करने वाले देशों को संशय में डाल दिया है. तेल की गिरती कीमतों ने ही सऊदी अरब को तेल पर निर्भरता कम करने हेतु ‘विजन 2030’ को लाने पर विवश किया है. जानकारों के अनुसार, इस विजन को लागू करने में बड़ी रुकावटें हैं. लेकिन इस में ऐसे मुद्दे भी शामिल हैं जिन को सिर्फ चर्चा के लिए लाना ही एक ऐतिहासिक पहल मानी जा रही है. निसंदेह उस की यह तैयारी तेल के बाद के समय की है जिस पर विचारविमर्श कर अमल करना है.

शहजादा मोहम्मद बिन सलमान द्वारा पेश इस विजन का मकसद सामाजिक विकास के दायरे को बढ़ावा देना है ताकि एक मजबूत उत्पादकीय समाज का निर्माण हो सके. विजन में शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक विकास, सऊदी पहचान पर गर्व, इसलामी जड़ों, पर्यटन, संस्कृति और पारिवारिक जिंदगी का विकास, बच्चों में नैतिक मूल्यों को बढ़ाना, छोटे व मझोले कारोबारियों को प्रोत्साहित करना, महिलाओं का सशक्तीकरण सहित शहरों के आर्थिक विकास पर विशेष तौर पर ध्यान दिया गया है. इस के द्वारा पहली बार सऊदी कंपनी आरामको अपनी 5 फीसदी हिस्सेदारी को बाजार में बेचेगी. 2 खरब डौलर की लागत से एक सरकारी निवेश कोष बनाया जाएगा जो एक होल्डिंग कंपनी के तौर पर काम करेगा. विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए स्वतंत्र नीतियां अपनाई जाएंगी. अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए गैरजरूरी खर्चों में कटौती की जाएगी, ताकि निजी क्षेत्र का विस्तार संभव हो सके.

आर्थिक मामलों के जानकार इसे 1930 में अमेरिका की आर्थिक मंदी से उबरने में अमेरिकी राष्ट्रपति की आर्थिक योजना से जोड़ कर देख रहे हैं जब अमेरिका को आर्थिक मंदी से निकालने के लिए राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रुजवेल्ट की अगुआई में पहल की गई थी. तब इस योजना की बुनियाद ‘3 आर’ पर आधारित थी – रिलीफ, रिकवरी और रिफौर्म. इस की वजह से ही अमेरिका में कार्य में वृद्धि हुई और देश का आर्थिक विकास संभव हो सका और जिस की वजह से अमेरिका ऐतिहासिक मंदी से उबरने में कामयाब हुआ था. सवाल यह है कि क्या सऊदी अरब भी इसी तरह विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाने में कामयाब होगा? इस सवाल का जवाब उस समय तक नहीं दिया जा सकता जब तक इस ‘विजन 2030’ पर अमल न शुरू हो जाए.

अमेरिका का तेल

विश्व बाजार की यहां के तेल पर निर्भरता के चलते ही इस क्षेत्र को ‘पैट्रोडौलर’ की संज्ञा दी गई थी, लेकिन 2015 के शुरू में ही अमेरिका का तेल बाजार में आने लगा और उस की पैदावार मध्यपूर्व के तेल की कुल पैदावार के समान थी. इस से तेल की कुल पैदावार दोगुना हो गई. अमेरिका का तेल न केवल सस्ता है, बल्कि छोटेछोटे इलाकों से भी निकाला जा सकता है. इस तेल के बाजार में आने से तेल की कीमतें आधी रह गईं. जो तेल दिसंबर 2014 में 114 डौलर प्रति बैरल था उस की कीमत 30 डौलर प्रति बैरल तक गिर गई है. इस सूरतेहाल से ज्यादा परेशानी तेल पैदा करने वाले देशों को हो रही है. सऊदी अरब किसी भी तरह तेल की पैदावार में कमी करने के लिए तैयार नहीं है. दूसरी ओर, ईरान पर से पाबंदी उठाने के बाद उसे भी विश्व बाजार में तेल बेचने की इजाजत मिल गई है. ईरान में भी तेल की बहुत पैदावार है. उस ने तय किया है कि वह तेल की पैदावार में वृद्धि करेगा. ईरान वर्तमान में तेल पैदा करने वाला चौथा सब से बड़ा देश है.

ईरान का दबदबा

ईरान मुसलिम जगत सहित विश्व के मुसलमानों को यह भरोसा दिलाता है कि वह नेतृत्व करने योग्य है और सऊदी अरब स्थित मक्का व मदीना का इंतजाम उस के हाथ में दिया जाए ताकि वह उस का कार्यभार संभाले. उस का नेतृत्व का दावा सऊदी अरब के लिए एक बड़ा चैलेंज है. इस की वजह से वह खुद को आईएसआईएस और ईरान से घिरा महसूस कर रहा है और अपने बचाव के लिए इसराईल की ओर झुक रहा है. इस का रहस्योद्घाटन इसराईली प्रधानमंत्री बेन्जामिन नेतान्याहू ने स्विटजरलैंड में आयोजित ‘वर्ल्ड इकनौमिक फोरम’ में भारतीय मूल के वरिष्ठ पत्रकार फरीद जकरिया को दिए साक्षात्कार में किया है.ईरान इस वर्ष होने वाले हज को ले कर सऊदी अरब को चेता रहा है कि हाजियों की सुरक्षा सऊदी अरब के दायित्व में शामिल है. ज्ञात रहे गत वर्ष होने वाली हज दुर्घटना में सब से ज्यादा शिया हाजी मारे गए थे और ज्यादातर ईरानी थे जबकि सऊदी अरब का तर्क है कि हज को दूसरों पर दबाव डालने अर्थात सियासी मकसद के लिए इस्तेमाल न करें.

तेल पैदा करने वाले देशों में जिस तरह का संकट पाया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है. अकेले सऊदी अरब की आबादी में दोतिहाई 30 वर्ष से कम आयु के युवा हैं और इन युवाओं में बेरोजगारी 30 फीसदी तक पहुंच चुकी है. तेल व्यवस्था उन्हें रोजगार देने में असमर्थ है, जिस की वजह से वहां बेचैनी पाई जा रही है. दूसरी तरफ, सऊदी अरब ने अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के चलते टैक्स लगाने और सब्सिडी खत्म करने का सिलसिला शुरू कर दिया है. भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के लगभग 60 हजार कामगारों को चिह्नित किया गया है जिन की नौकरी खत्म कर वापस भेजा जाएगा. खाड़ी देशों यानी संयुक्त अरब अमीरात में भी आर्थिक मंदी दस्तक दे रही है और रोजगार के अवसर घट रहे हैं. इस दबाव को क्या ‘विजन 2030’ द्वारा दूर कर पाना संभव होगा या इस बेचैनी का फायदा ईरान उठा लेगा? इस के जवाब पर सभी की निगाहें लगी हुई हैं, जो अभी भविष्य के गर्भ में है.

दायरा बढ़ाते गैरभाजपाई और गैरकांग्रेसी दल

देश की राजनीति में 2 बड़े दलों का वर्चस्व हमेशा से रहा है. कांग्रेस का जनाधार टूटा तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. भाजपा और कांग्रेस के विचारों में अंतर हो सकता है पर दोनों ही दलों की नीतियों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है. वैसे, 1980 के बाद केंद्र में कांग्रेस और भाजपा की बहुमत की सरकार बहुत कम बार बनी है. लंबे समय तक गठबंधन की सरकारों ने राज किया. कांग्रेस ने यूपीए और भाजपा ने एनडीए जैसे गठबंधन बनाकर सत्ता को अपने हाथों में रखा. कांग्रेस और भाजपा की बुनियादी नीतियों में फर्क न होने के कारण देश के विकास की रफ्तार एकजैसी ही रही है. टैक्स प्रणाली में दोनों दलों की सोच सामने दिखती है. जिन मुददों की, विपक्ष में रहते, भाजपा आलोचना करती थी, सत्ता में आ कर उन का समर्थन करने लगती है. कांग्रेस भी ऐसा ही करती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने देश के वोटरों को जो सपना दिखाया था वह 2 सालों में पूरा होता नहीं दिख रहा है. दरअसल, बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी भाजपा कांग्रेस के बनाए रास्ते पर ही चल रही है.

कांग्रेस जिस तरह से प्रदेशों में चल रही सरकारों को कमजोर करती थी वही काम भाजपा कर रही है.  लोकसभा में जिस तरह से भाजपा हंगामा करती थी, उसी तरह से कांग्रेस अब कर रही है. जमीन अधिग्रहण बिल, जीएसटी और एलपीजी जैसे मुद्दों में जनता को दोनों दलों में कोई बुनियादी फर्क नहीं दिखा. शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जो चमक नरेंद्र मोदी की वजह से दिखी, वह गायब हो गई है. लोकसभा चुनावों के बाद 2 सालों के दौरान भाजपा ने कोई बड़ा चुनाव नहीं जीता है. दिल्ली और बिहार में हुए चुनावों में मिली करारी हार ने भाजपा की नीतियों की पोल खोल दी है. उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपनी जीत को ले कर पूरी तरह से भरोसा करने की हालत में नहीं है. उत्तर प्रदेश में भाजपा लगातार दूसरे दलों में तोड़फोड़ कर उन के लोगों को अपनी पार्टी में ला रही है. पंजाब में यही हालत है. अकाली और भाजपा के गठबंधन को हार का सामना करना पड़ सकता है.

बिखरती दो दलीय राजनीति

यह सच है कि कांग्रेस लाभ उठाने की हालत में नहीं दिख रही है. भाजपा को इस बात का सुख है कि उस ने कांग्रेसमुक्त भारत को काफी हद तक सफल बना लिया है. भाजपा को इस बात का भ्रम है कि केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के कमजोर होने से उसे मैदान खाली मिलेगा. असल में जिसे भाजपा अपने लिए वाकओवर समझ रही है वह संकट का कारण है. पूरे देश के राजनीतिक हालात को देखें तो साफ

पता चलता है कि ज्यादातर राज्यों में गैरभाजपा और गैरकांग्रेस दलों का बोलबाला बढ़ गया है. देश के बडे़ हिस्से पर इन छोटे दलों का कब्जा है. ये दल अपना मजबूत जनाधार बना चुके हैं. ऐेसे में भाजपा के सामने अगर कांग्रेस खड़ी नहीं दिखेगी तो ये दल सीनातान कर खड़े दिखेंगे. भाजपा बहुत सारे प्रयास करने के बावजूद इन दलों को कमजोर नहीं कर पा रही है. राजनीति में जो जगह कांग्रेस और भाजपा के हटने से खाली हो रही है, उसे ये दल भर रहे हैं.

गैरभाजपा और गैरकांग्रेस दलों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. पहले ये दल अलगअलग खडे़ दिखते थे, अब ये एकसाथ दिखने और चलने की कोशिश कर रहे हैं. इन दलों में बिहार में राजद और जदयू, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा, दिल्ली व पंजाब में आम आदमी पार्टी यानी आप, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में जयललिता और ओडिशा में नवीन पटनायक, कश्मीर में महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला जैसे बहुत सारे नेता और उन के दल ऐसे हैं जो गैरभाजपा और गैरकांग्रेस की राजनीति कर रहे हैं. ये दल अब पहले की तरह नहीं हैं. अपनेअपने प्रदेशों में इन्होंने कांग्रेस और भाजपा को मजबूत नहीं होने दिया है. अब केंद्र में इन की महत्त्वपूर्ण भूमिका दिख रही है. जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा ने गठबंधन की राजनीति सीखी है उसी तरह से गैरकांग्रेसी, गैरभाजपा दलों ने भी अपने में सुधार किया है. अब मौका मिलने पर वे केंद्र की राजनीति को भी बेहतर तरह से चला सकते हैं. ऐसे में केंद्र की राजनीति में केवल भाजपा और कांग्रेस को ही विकल्प के रूप में न देखें, गैरकांग्रेसी, गैरभाजपा दल भी बेहतर हालत में हैं.  

भाजपा-कांग्रेस की समान सोच  

कांग्रेस और भाजपा की समान सोच और नीतियों का ही परिणाम है कि गैरकांग्रेस और गैरभाजपाई दलों का देश की राजनीति में महत्त्व बढ़ता जा रहा है. राजनीति में जब कट्टरवादी सोच की बात होती है तो सब से पहले भारतीय जनता पार्टी और जनसंघ जैसों के नाम लिए जाते हैं. सही मानो में देखें तो भाजपा से अधिक कट्टरवादी सोच कांग्रेस की रही है. आजादी के बाद सब से पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए कांग्रेस ने ही सोमनाथ मंदिर बनवाने का काम किया. कांग्रेस ने राजारजवाड़ों और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करने का दिखावा किया. उस ने समाज में एक नए प्रकार के राजारजवाड़ों व जमींदारों को स्थापित करने का काम किया. हिंदू कोड बिल में सुधार की जरूरतों को लंबे समय तक लटकाने का काम कांग्रेस ने किया. कांग्रेस के बड़े से बडे़ नेता कभी किसी मंदिर तो कभी किसी मजार पर जा कर इस बात को बताते रहे कि राजनीति के लिए धर्म का साथ जरूरी होता है. राजनीति में वे धर्म को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से भी कभी संकोच नहीं करते थे. इसी तरह से नेता को चुनाव लड़ाने से पहले क्षेत्र के जातीय समीकरण को देखने की शुरुआत भी कांग्रेस के जमाने में ही हुई थी.

धर्म के तराजू के एक पलडे़ में वह कट्टर हिंदू रखती थी तो दूसरे में कट्टर मुसलिमों को रखना चाहती थी. इसी वजह से वह धर्मनिरपेक्ष हो कर काम नहीं कर पा रही थी. इंदिरा गांधी के समय तक जनता इन बातों को ठीक से समझ पाने में असफल थी. उन के बाद राजीव गांधी ने भी जब उसी राह पर चलना चाहा तो कांग्रेस की पोल खुल गई. शाहबानो कांड और उस के बाद अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाने की घटना ने कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि को उजागर कर दिया. केवल धर्म ही नहीं, सामाजिक सुधार और रूढि़वादी सोच को खत्म करने की दिशा में कांग्रेस ने हर कदम उठाने से पहले यह देखने की कोशिश की कि इस का धार्मिक प्रभाव क्या पडे़गा? कांग्रेस की इसी परंपरा पर दूसरे दल भी चलने लगे. जिस का नुकसान देश को उठाना पड़ा. 

नएनए विरोधी पैदा करना, फिर उन को दरकिनार करने की रणनीति बना कर कांग्रेस ने लंबे समय तक देश में राज करने का रास्ता निकाला था. जिस से एक बार चुनाव में कांग्रेस ही हार हो भी जाती थी तो जल्द ही उस की वापसी हो जाती थी. ऐसे में देश की राजनीति 2 बडे़ दलों कांग्रेस और भाजपा के बीच फंस कर रह गई. दक्षिण भारत के कुछ राज्यों और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का मुकाबला वामपंथी दलों से था. इन को छोड़ कर देश के बाकी राज्यों में कांग्रेस का एकछत्र राज्य था. उत्तर प्रदेश और बिहार में जहां भाजपा व कांग्रेस सरीखे 2 दलों के मुकाबले तीसरे दल ने घुसपैठ की, वहां ये दोनों ही दल सत्ता हासिल करने को तरस गए. मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों में कांग्रेस व भाजपा ने फ्रैंडली मैच खेल कर सत्ता पर कब्जा बनाए रखा. दिल्ली में पहली बार कांग्रेस व भाजपा के बीच आप पार्टी ने सेंधमारी की है. जिस का संदेश पूरे देश में गया.

बातें नहीं, काम चाहिए

चुनाव परिणामों को देखे तो अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि जनता अब नेताओं को बहानेबाजी करने का मौका नहीं देना चाहती है. लोकसभा चुनाव के दौरान ‘मोदी जी को लाना है’ का नारा खूब चला तो दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय ‘पांच साल, केजरीवाल’ का नारा लोगों को पसंद आया. कांग्रेस ने सरकार चलाते समय इस बात का बारबार रोना रोया कि बहुमत से सरकार न चलाने के कारण वह अपनी पसंद का काम नहीं कर पाई, जिस से देश का सही तरह से विकास नहीं हो सका. जनता ने नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा को पूरी ताकत से देश चलाने का फैसला दे कर ऐसी बहानेबाजी करने की गुजाइंश को खत्म कर दिया. पिछली बार 49 दिन की सरकार चलाने के बाद केजरीवाल ने भी बहुमत न होने का रोना रोया तो जनता ने उन को भी पूरा बहुमत दे दिया. इस तरह के फैसलों से नेताओं के पास बहानेबाजी की गुंजाइश खत्म हो गई.

ऐसे फैसले देश के दूसरे हिस्सों की जनता भी कर रही है. 2005, 2010 और 2015 में बिहार, 2007 और 2012 में उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पंजाब, 2008 और 2013 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़, 2004, 2009 और 2014 में आंध्र प्रदेश, 2014 में तेलंगाना, 2002 से अब तक गुजरात, 2009 और 2014 में ओडिशा, 2011 में तमिलानाडु और पश्चिम बंगाल में जनता ने या तो किसी पार्टी या चुनाव से पहले बने गठबंधन को स्पष्ट बहुमत दे कर सरकार चलाने का मौका दिया. जिस पार्टी ने जनता से किए गए वादों को पूरा नहीं किया उस को अगले चुनाव में पूरी तरह से नकार दिया जाता है. उत्तर प्रदेश में 2007 में पहली

बार बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को स्पष्ट बहुमत दिया. वह जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी तो 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया. इसी तरह से 2012 में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला जब वह काम करती नहीं दिखी तो 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को केवल

5 सीटों तक सीमित कर दिया.

छोटे चुनावों का बड़ा महत्त्व

पहले राजनीति में लोकसभा और विधानसभा चुनावों का ही महत्त्व समझा जाता था. अब ऐसा नहीं है. अब कौर्पोरेशन के चुनाव से ले कर, ग्राम प्रधान, जिला पंचायत और ब्लौक स्तर के चुनाव भी महत्त्वपूर्ण होने लगे हैं. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनावों में बडे़ दलों ने खुल कर हिस्सा लिया. भले ही ये चुनाव दलों के निशान पर न लडे़ गए हों पर दलों के नेताओं ने अपनेअपने लोगों को चुनाव मैदान में उतारा. जिला पंचायत और ब्लौक प्रमुख चुनावों में सभी दलों की ताकत देखने को मिली. पार्षद चुनावों में जीतहार की समीक्षा करते समय छोटे चुनावों के महत्त्व को सामने रखा जाता है. गुजरात और मध्य प्रदेश के पार्षद चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के प्रदर्शन की समीक्षा इस तरह से हुई जैसे वे लोकसभा और विधानसभा के परिणाम हों.  दरअसल, छोटे चुनावों के जरिए नेता निचले स्तर तक वोटर से संपर्क साधने में सफल होते हैं. वोटर यह देखता है कि जो उस के काम आ रहा है उसे ही वोट दिया जाए.ऐसे चुनावों में जीत से छोटे नेताओं का मनोबल बढ़ता है. उन को राजनीति कैसे करनी है, यह समझ आता है और आर्थिक रूप से भी उन की हालत मजबूत होती है. आज के दौर में राजनीति साधारण किस्म से नहीं हो सकती, चुनाव लड़ने के लिए बडे़ बजट की जरूरत होती है. ऐसे में ये चुनाव बहुत काम के होते हैं. इन चुनावों में भी बहुत सारा पैसा मिलने लगा है, जिस की वजह से नेता इन चुनावों को महत्त्व देने लगे हैं. समाज में नेताओं की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. ऐसे में केवल विधानसभा या लोकसभा चुनावों के भरोसे बैठने से अच्छा है कि छोटे चुनावों में जीत हासिल की जाए. छोटे चुनावों में कम लोगों तक अपनी बात पहुंचानी होती है, जिस से जीत हासिल करना सरल होता है. छोटे दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं को इन चुनावों में ज्यादा सफलता मिल रही है. उस का सब से बड़ा कारण यह है कि छोटे दलों में गुटबाजी कम है. वहां जो बेहतर होता है उसे चुनावी टिकट मिल जाता है.

क्षेत्रीय नेताओं का बढ़ता कद

कांग्रेस और भाजपा जैसे बडे़ दलों में प्रदेश स्तर के नेताओं का कद एक सीमा के अंदर रखा जाता है, जबकि क्षेत्रीय दलों के अगुआ नेताओं का कद अब राष्ट्रीय लैवल पर बड़ा होने लगा है. पहले जहां केंद्र में प्रधानमंत्री पद के लिए गैरभाजपाई और गैरकांग्रेसी दलों के नेताओं की ओर देखा जाता था, वहीं अब क्षेत्रीय दलों के नेता भी अपना मजबूत कद ले कर सामने खडे़ हैं. इन के पास कांग्रेसी और भाजपाई नेताओं से ज्यादा अनुभव भी है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती, बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव, बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में जयललिता, ओडिशा के नवीन पटनायक की साख कम नहीं है.

ये लोग अपनेअपने राज्यों में बेहतर काम कर रहे हैं. इन की सफलता ही कही जाएगी कि ये कांग्रेस और भाजपा जैसे बडे़ दलों के मुकाबले बेहतर हालत में खडे़ हैं. पहले यह कहा जाता था कि छोटे दल आपस में सुलह कर के नहीं चल सकते. अब ऐसा नहीं है. बिहार चुनाव में यह दिखा कि भाजपा के खिलाफ एक महागठबंधन तैयार हो गया. अब क्षेत्रीय दल पहले से अधिक सचेत और सतर्क हो गए हैं.

मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने केंद्र में मंत्री रहते अपने काम से अच्छा प्रभाव डाला है. उन के विभागों में बेहतर काम हुआ. ऐसे में इन नेताओं को केंद्र और राज्य दोनों का अनुभव है. और अब इन के नाम पर दूसरे नेताओं में सहमति बनने में कोई परेशानी नहीं आएगी. पहले मुलायम सिंह के प्रधानमंत्री बनने की राह में लालू प्रसाद यादव रोड़ा लगा चुके हैं, अब ऐसा नहीं होगा. इसी तरह से नीतीश कुमार ने बिहार में सरकार चला कर दिखा दिया. अब वे केंद्र में प्रधानमंत्री पद के अच्छे दावेदार माने जा रहे हैं. आम आदमी पार्टी को भले ही राजनीति में लंबा अनुभव नहीं रहा हो पर जिस तरह से ‘आप’ ने मजबूत दिख रही भाजपा और कांग्रेस को दिल्ली में पछाड़ा और पंजाब में टक्कर दे रही है, उस से यह साफ है कि आप वोटर के बीच अपनी जगह बनाने की कोशिश में सफल हो रही है.

प्रदेशों से मिलेगी ताकत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब जैसे प्रदेशों में भाजपा की सरकारें हैं. लंबे समय से राज करने के बाद भी इन प्रदेशों में विकास की गति दूसरे प्रदेशों की तरह ही है. लोकसभा चुनाव में गुजरात मौडल का बहुत प्रचार हुआ. चुनावी शोर के बाद असल तसवीर सामने आई तो पता चला कि गुजरात में भी गरीबी है. वहां भी गैरबराबरी के लोगों में जातीय लड़ाई है. गुजरात के ऊना में जिस तरह से दलितों की पिटाई हुई, वैसी घटनाएं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों तक में नहीं सुनी गईं. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के सुशासन की नींव हिल चुकी है. व्यापमं घोटाला किसी परिचय का मुहताज नहीं है. यही मामला उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे गैरभाजपा शासित राज्यों में होता तो उन का भरपूर दुष्प्रचार किया जाता.

केंद्र में राज कर रही भाजपा मध्य प्रदेश, गुजरात और पंजाब में पहले जैसी सफलता हासिल नहीं कर पाएगी. जिस से केंद्र सरकार दबाव में आएगी. उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए सब से बड़ी चुनौती है. यहां भाजपा की खराब हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां वह अपने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम तक सामने लाने से बच रही है. भाजपा के कमजोर होने का लाभ कांग्रेस को मिलता नहीं दिख रहा है. बहुत सारे प्रयासों के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत में सुधार होता नहीं दिख रहा है. जिस तरह से बिहार में नीतीश कुमार ने अपनी वापसी की, उसी तरह से उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव मजबूत दिखाई दे रहे हैं. अगर उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार की वापसी होती है तो भाजपा को सब से करारा झटका लगेगा. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से दिल्ली का रास्ता दिखेगा. यही वजह है कि नीतीश कुमार खुद भी उत्तर प्रदेश में काफी सक्रिय दिख रहे हैं. 5 माह के अंदर वे उत्तर प्रदेश में 5 बार सम्मेलन कर खुद को ब्रैंड बनाने की कोशिश में है.

मेरे चेहरे पर बहुत सारे काले दाग हैं, जिन की वजह से मैं बहुत परेशान रहती हूं. कोई उपाय बताएं.

सवाल

मेरे चेहरे पर बहुत सारे काले दाग हैं, जिन की वजह से मैं बहुत परेशान रहती हूं. मैं ने कई उपाय कर लिए, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ. चेहरे के दागों को हटाने का कोई उपाय बताएं?

जवाब

चेहरे पर दागधब्बे लंबे समय तक धूप में रहने की वजह, दिन भर प्रदूषण के संपर्क में आने से और कभीकभी हारमोनल बदलाव के कारण भी हो जाते हैं और फिर समय के साथ गहरे होते जाते हैं. लेकिन कुछ उपायों द्वारा इन्हें हलका किया जा सकता है. आप टमाटर के रस को रुई की सहायता से दागों पर लगाएं और फिर सूखने पर चेहरे को धो लें. इस के अलावा आलू के छिलकों का रस चेहरे के दागधब्बों पर लगाने से भी दाग हलके हो जाते हैं. आप चाहें तो दही व बेसन या फिर नीबू व शहद का पेस्ट भी चेहरे पर लगा सकती हैं. इस पेस्ट को चेहरे पर अच्छी तरह लगा लें. सूखने पर चेहरे को धो लें. इन उपायों को लगातार करते रहने से धब्बे जरूर हलके होंगे और त्वचा में निखार आ जाएगा.

 

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