कभी किताबों के बीच, कभी एक्स्ट्रा क्लासेज में तो कभी हुनर सिखाने वाली गलियों में. बस, एक ही धुन है, आगे निकल जाने की. पीछे रह गए, तो बस एक ही रास्ता… सहनशीलता और धैर्य का पाठ इन्होंने सीखा ही नहीं. गोया कि इस की प्रतियोगिता अभी शुरू ही नहीं हुई है. धैर्य, सहनशीलता, सरलता, समझदारी इन में से कोई भी संस्कार चैनल्स को अपील नहीं कर रहे. इन में ग्लैमर का तड़का नहीं लगाया जा सकता. ये पाठ तो घर पर ही बच्चे सीखते थे. संयुक्त परिवार में जानेअनजाने ही बहुत सी बातें बच्चे सीख जाते थे. दादीनानी की कहानियां जिंदगी के सबक सिखा देती थीं. लेकिन आज बच्चों के पास इतने रिश्ते ही नहीं रह गए. बच्चे इतने व्यस्त हैं कि उन के पास समय भी नहीं है. पेरैंट्स नहीं चाहते कि वे फालतू घर में बैठे रहें.

छुट्टियां हैं, तो कुछ नया सीखें

रिऐलिटी शो में भाग लेना प्रतिष्ठासूचक बन गया है. अभिभावकों के रुझान को देखते हुए ऐसे प्रोग्राम्स की तादाद भी बढ़ती जा रही है. टीवी चैनलों पर नित नए डांस व रिऐलिटी शो शुरू हो रहे हैं. ऐसे ही एक रिऐलिटी डांस शो ने पिछले साल मुंबई की 11 साल की नेहा सावंत की जिंदगी छीन ली थी. नेहा ने कई रिऐलिटी शोज में भाग लिया. नेहा को लग रहा था कि डांस उस की पढ़ाई पर असर डाल रहा है. उस ने डांस क्लास से ब्रेक लेने के बारे में पेरैंट्स से बात की. तनाव इस कदर बढ़ चुका था कि पेरैंट्स के औफिस जाने के बाद उस ने परदे की रौड से लटक कर जान दे दी. आगे निकलना है, सब से आगे. न निकल सके तो जिंदगी को पीछे छोड़ देना है. पिछले कुछ महीनों में किशोर बच्चों के आत्महत्या करने के मामले आश्चर्यजनक रूप से बढ़े हैं. इस के पीछे शैक्षिक और अभिभावकों द्वारा डाला गया मानसिक दबाव पहली वजह रहा है. बच्चे जराजरा सी बात पर परेशान हो अपना संतुलन खो बैठते हैं.

जयपुर में, कुछ महीने पहले ही, बनीपार्क में रहने वाली 15 साल की गरिमा ने महज इसलिए फंदा लगा कर खुदकुशी कर ली क्योंकि कंप्यूटर को ले कर उस की छोटे भाई से अनबन हो गई थी. जयपुर के ही सोडाला इलाके में एक छात्र ने पढ़ाई की टैंशन से मुक्ति पाने के लिए जिंदगी से मुक्ति पाना ज्यादा आसान समझा. कमोबेश यही हाल सभी शहरों के हैं. मुंबई की लिलि, ठाणे की रूपल, अहमदाबाद की रश्मि शर्मा, विजयवाड़ा की स्नेहा, नासिक की रक्षा दिनकर और चंडीगढ़ की साक्षी ने भी आत्महत्याएं कर डालीं. देश के विभिन्न शहरों में ऐसे मामले सामने आए हैं जहां किशोर बच्चों ने तनाव का सामना करने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझा. पीछे रह गए विलाप करते परिजन. बगैर सोचेसमझे इन बच्चों को संशय था कि वे पेरैंट्स और टीचर्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाएंगे. मनोचिकित्सकों, समाजशास्त्रियों और सलाहकारों का मत है कि इसी दबाव को बच्चे अन्यथा ले कर परेशान होते रहते हैं. पेरैंट्स और टीचर्स का दबाव ही बच्चों में सुसाइड वायरस पहुंचाता है.

आत्महत्या के मामलों को पूर्व निर्धारित या प्रीप्लांड नहीं कहा जा सकता. इन बच्चों को आत्महत्या की तरफ कहीं हम तो नहीं धकेल रहे? बाल मनोचिकित्सकों का कहना है, अकसर पढ़ाई के लिए मांबाप की डांट, गुस्सा और बहिष्कार का डर बच्चे के कोमल मन पर हावी हो जाता है. यही वजह है कि वे खुद को खत्म करने की ठान लेते हैं.

छुट्टियों में भी राहत नहीं

मीतू आज स्कूल से एक फौर्म ले कर आई है. वोकेशनल कोर्सेज शुरू होने को हैं. वह कहती है, ‘‘मम्मी, मुझे भी कुछ सीखने जाना है. सभी फ्रैंड्स कुछ न कुछ कर रही हैं, मैं पीछे रह गई तो?’’ मम्मी भी इसी उधेड़बुन में लगी हुई हैं कि इन छुट्टियों में बिटिया को कौनकौन से कोर्स करवाने हैं. नया सैशन पहले ही शुरू हो गया. उस पर भी थोड़ा ध्यान देना है. इस बार स्कूल मैगजीन में बिटिया छाई रहे, इस के प्रयास जोरों पर हैं. डांस के साथड्रामा क्लासेज भी जौइन करवानी होगी. उस के कैरियर के लिए उन्होंने छुट्टियों में अपने पीहर जाने का प्रोग्राम भी स्थगित कर दिया है, कितनी बड़ी कुर्बानी. पर सच पूछा जाए तो यह मैंटल टौर्चर किस का है, आप का या बच्चों का? जब ये बच्चे बड़े होंगे तो इन का दिमाग कलपुरजों की तरह काम करने लगेगा. नानी के घर की धमाचौकड़ी और दादी की कहानियों से महरूम ये बच्चे न जाने कौन सी दिशा में बहते जा रहे हैं? ऐसे में छोटी सी असफलता उन्हें नाउम्मीदी के अंधे कुएं में धकेल देती है.

पूरे साल किताबें घोटघोट कर पीने के बाद छुट्टियों के दिनों की बेफिक्री उन के नसीब में नहीं. 12 महीने अनवरत दौड़, छुट्टियों में और भी तेज भागो. ऐसे में लड़खड़ाने और गिरने की संभावना नहीं बढ़ जाएगी क्या?

बच्चों को मजबूत बनाएं

बच्चे 3 साल के हुए नहीं कि एक दबाव निरंतर उन के साथ बना रहता है. कुछ है जो अंदर ही अंदर पनपता रहता है. किशोर उम्र तक आतेआते नतीजे विस्फोटक भी हो सकते हैं. मनोचिकित्सक कहते हैं, बड़ों के मुकाबले बच्चों में समायोजन की क्षमता काफी कम होती है. मुश्किल समय में, जैसे बोर्ड एग्जाम के दौरान बच्चों में अच्छा परफौर्म करने का दबाव रहता है. किशोरावस्था और वयस्क होने के इस संक्रमणकाल में उन पर अच्छे परीक्षा परिणामों, रोजगार, रिश्तों में समायोजन, जिंदगी में काबिल बनने और सैटल होने जैसे कई तरह के दबाव होते हैं. पेरैंट्स के सपोर्ट की उन्हें इस समय सब से ज्यादा जरूरत होती है. मातापिता का दायित्व सब से बड़ा है कि वे बच्चों को इन दबावों को झेलना सिखाएं और हिम्मत दें, ताकि वे जिंदगी को हंस कर जीने का उत्साह बनाए रखें. डा. सैलजा बताती हैं, ‘‘मैं अपने परिचित के घर पर थी. टीवी पर बच्चे की आत्महत्या से जुड़ी खबर आते ही मेरी परिचित ने टीवी का स्विच औफ कर दिया. कारण बताया कि ऐसी खबरें मेरी बेटी के दिमाग पर उलटा असर डालेंगी. मैं दंग रह गई. बच्चों को इस तरह की खबरों से बचाने की कोशिश कहां तक ठीक है? आप तो टीवी बंद कर देंगे लेकिन इस तरह की बातें वे दोस्तों से सुन कर आते हैं, उस का क्या?’’

अपनी निराशा से बच्चों को बचाएं

बाल मनोव्यवहार विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में बच्चे पर 3 साल की उम्र से ही दबाव बनने की शुरुआत हो जाती है. जब उसे पढ़़ाई में अच्छे प्रदर्शन के लिए ट्यूशन के लिए भेजना शुरू कर दिया जाता है. फिर, अगर वह दूसरे बच्चों से पीछे है, तो पेरैंट्स कुंठित होने लगते हैं. बच्चे की खुद की अपनी सौ परेशानियां और मुश्किलें हैं. ऐसे में वह आखिर कितना दबाव सहन कर पाएगा

वयस्क होते बच्चों पर अब भौतिकता भी दबाव बनाने लगी है. महज 20 साल की उम्र में ही वे खुद की कार लेना चाहते हैं. वे समझने लगते हैं कि यदि उन्होंने पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन किया तो वे सब चीजें हासिल कर पाएंगे.

उन की भी सुनें

विशेषज्ञों का कहना है कि पेरैंट्स, टीचर्स और बच्चों के बीच लगातार संवाद बना रहना जरूरी है. इस के लिए 24 घंटे उन पर नजर नहीं रखनी है, बस, उन की भावनाओं को समझें. किशोरावस्था में वे कई तरह के बदलावों से गुजर रहे होते हैं और उस समय उन्हें ऐसे पेरैंट्स की जरूरत होती है जो उन्हें समझें, प्यार और भावनात्मक सहारा दें. पेरैंट्स कामकाजी हैं, तो यह जरूरत और ज्यादा बढ़ जाती है. ऐसे पेरैंट्स की बेटियों पर दबाव और ज्यादा होता है. लड़कियों को यह छूट नहीं होती कि वे किसी से मन की बात कह पाएं. उन पर सामाजिक जिम्मेदारियां भी ज्यादा होती हैं.

सलाह लेने से कतराएं नहीं

बदलती लाइफ स्टाइल इन मामलों की अधिकता के लिए एक हद तक जिम्मेदार मानी जा सकती है. एकल परिवारों में बच्चों को दादादादी, चाचाचाची, भाईबहनों और ऐसे ही दूसरे रिश्तों की कमी महसूस होती है, जो पेरैंट्स की गैरमौजूदगी में उन का खयाल रखें. समय की कमी के कारण पेरैंट्स से भी बात नहीं हो पाती. ऐसे में पेरैंट्स और टीचर्स इन स्थितियों को कैसे हैंडल करें? दरअसल बच्चों को दबाव से जूझना सिखाएं. ज्यादा परेशानी है, तो काउंसलिंग करवाई जा सकती है. आज परिवारों में बाल आत्महत्याओं से जो दुखांत खालीपन आ रहा है, जो पेरैंट्स को पूरी जिंदगी का दर्द दिए जा रहा है, उस से बचने के लिए सार्थक प्रयास तो करने ही होंगे. बच्चों पर पढ़ाई के अतिरिक्त दबाव बनाने के बजाय उन्हें खुला छोड़ दें खिलने के लिए. उन्हें चहकने दें. आखिर आप अपने एक बच्चे को कितने रूपों में बांटना चाहते हैं, डांसर, ऐक्टर, पेंटर. इन सारे झूठे फ्रेमों से बाहर निकल जाइए. इस भूलभुलैया में बच्चे खुद को भुला बैठेंगे. उन्हें वही बचपन जीने दो, जो कभी आप ने जिया है.

कुकुरमुत्ते की तरह खुले वोकेशनल कोर्सेज उन की मदद नहीं कर सकते. हां, दादीनानी का दुलार, पेरैंट्स का दोस्ताना रवैया उन की समझ बढ़ा सकते हैं और सहनशीलता का पाठ भी पढ़ा सकते हैं.

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