पद और सत्ता के नशे में चूर व्यक्ति सब का शोषण करता जाता है पर कभी न कभी तो बुराई का अंत होता ही है. ऐसे व्यक्ति को जब अपने किए की सजा मिलती है तो जाने कितनों की छाती को ठंडक पहुंचती है... हमारे चाचाजी अपनी लड़की के लिए वर खोज रहे थे. लड़की कालेज में पढ़ाती थी. अपने विषय में शोध भी कर रही थी.

जाहिर है लड़की को पढ़ालिखा कर चाचाजी किसी ढोरडंगर के साथ तो नहीं बांध सकते. वर ऐसा हो जिस का दिमागी स्तर लड़की से मेल तो खाए. हर रोज अखबार पलटते, लाल पैन से निशान लगाते. बातचीत होती, नतीजा फिर भी शून्य. ‘‘वकीलों के रिश्ते आज ज्यादा थे अखबार में...’’ चाचाजी ने कहा. ‘‘वकील भी अच्छे होते हैं, चाचाजी.’’ ‘‘नहीं बेटा, हमारे साथ वे फिट नहीं हो सकते.’’ ‘‘क्यों, चाचाजी? अच्छाखासा कमाते हैं...’’ ‘‘कमाई का तो मैं ने उल्लेख ही नहीं किया. जरूर कमाते होंगे और हम से कहीं ज्यादा सम?ादार भी होंगे. सवाल यह है कि हमें भी उतना ही चुस्तचालाक होना चाहिए न...

हम जैसों को तो एक अदना सा वकील बेच कर खा जाए. ऐसा है कि एक वकील का पेशा साफसुथरा नहीं हो सकता न. उस का अपना कोई जमीर हो सकता है या नहीं, मेरी तो यही सम?ा में नहीं आता. उस की सारी की सारी निष्ठा इतनी लचर होती है कि जिस का खाता है उस के साथ भी नहीं होती. एक विषधर नाग पर भरोसा किया जा सकता है लेकिन इस काले कोट पर नहीं. नहीं भाई, मु?ो अपने घर में एक वकील तो कभी नहीं चाहिए.’’ चाचाजी के शब्द कहीं भी गलत नहीं थे. वे सच कह रहे थे. इस पेशे में सच?ाठ का तो कोई अर्थ है ही नहीं.

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