पैसा कलियुग का ही नहीं, बल्कि हर युग का भगवान रहा है, जिस का एक रूप घूस है जो आमतौर पर बुरी मानी जाती है. घूस का चलन दरअसल धर्म से ही आया है. भगवान से देवीदेवताओं से कोई काम कराना हो तो घूस पंडेपुजारियों के जरिए दी जाती है, जो ऊपर नहीं जाती बल्कि नीचे लेने वाले की रोजीरोटी और ऐशोआराम की जिंदगी का जरिया होती है. लड़की की शादी से बच्चे पैदा होने तक घूस दी जाती है.

मानव जीवन का ऐसा कोई काम नहीं है जो धार्मिक रिश्वत से न होता हो. यह और बात है कि जिन के काम नहीं होते वे अपने भाग्य और कर्मों को कोसते हल्ला नहीं मचाते और जिन के इत्तफाक से हो जाते हैं वे चिल्लाचिल्ला कर दुनिया को बताते हैं कि देखो, मैं ने दान दिया और मैं सरकारी अफसर बन गया.

यह भी और बात है कि अकसर इस यजमान ने नीचे वालों को भी घूस दी हुई होती है. लेकिन वह इन दिखने वालों के बजाय श्रेय न दिखने वाले ऊपरवाले को देता है. यानी घूस नीचेऊपर दोनों जगह चलती है. फर्क सिर्फ इतना है कि ऊपरवाले को दी गई घूस दक्षिणा कहलाती है और जो इसे ऊपर तक पहुंचाने का जिम्मा लेता है उसे दलाल नहीं बल्कि पुजारी या पंडा कहा जाता है. घूस का यह कारोबार खरबों का है जिस से लाखोंकरोड़ों के पेट पल रहे हैं.

धार्मिक घूस पंडे और मंदिर की हैसियत के मुताबिक दी जाती है. छोटे मंदिर में 11 से ले कर 101 रुपए में काम चल जाता है तो ब्रैंडेड मंदिरों में लाखोंकरोड़ों की घूस दी जाती है. यहां भक्त यानी ग्राहक की हैसियत अहम हो जाती है, वरना तो भगवान अगर होता तो दोनों ही जगह एक ही रहता, फर्क भव्यता, शो बाजी और झांकी का रहता है.

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