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‘ऐ दिल है मुश्किल’ के प्रदर्शन को लेकर बढ़ी मुश्किलें

अब लगभग यह तय हो गया कि 28 अक्टूबर को करण जौहर की फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ रिलीज नहीं हो पाएगी. फिल्म के प्रदर्शन को लेकर मुश्किलें बढ़ गयी हैं. फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार फवाद खान के अभिनय को लेकर करण जौहर को इन मुश्किलों का सामना करना पर रहा है.

कुछ दिन पहले ही हमने आपको बताया था कि सिनेमाघर मालिक इस फिल्म को प्रदर्शित नहीं करेंगे. और अब इस बात कि आधिकारिक पुष्टी भी हो गई है.

‘सिनेमा ओनर्स एंड थिएटर एक्जबीटर्स एसोसिएशन आफ इंडिया’ के अध्यक्ष नितिन दातार ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करेक ऐलान कर दिया है कि उनकी एसोसिएशन ने निर्णय लिया है कि वह उस फिल्म को प्रदर्शित नहीं करेंगे, जिस फिल्म में पाकिस्तानी कलाकार शामिल होंगे.

नितिन दातार ने कहा कि देश हित और इस वक्त देश का माहौल को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया है.

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में नितिन दातार ने कहा, ‘‘एसोसिएशन ने अपने सभी वितरकों से दरख्वास्त की है कि ऐसी फिल्म के प्रदर्शन से बचे जिसमें पाकिस्तानी कलाकार, गायक, लेखक, संगीतकार, तकनीशियन, निर्देशक शामिल हों.’’

नितिन दातार फिल्म उद्योग के दूसरे संगठनों के संपर्क में भी है और वह हर संगठन से इस मसले पर सहयोग चाहते हैं. बहरहाल, अभी तक मल्टीप्लेक्स वाले इस मसले पर चुप हैं. देखना है कि आगे आगे क्या होता है.

मगर ‘सिनेमा ओनर्स एंड थिएटर एक्जबीटर्स एसोसिएशन आफ इंडिया’ के इस निर्णय से ‘ऐ दिल है मुश्किल’ के अलावा फिल्म ‘रईस’, ‘डिअर जिंदगी’ और ‘मॉम’ के प्रदर्शन पर भी असर पड़ेगा.

जीवन की मुसकान

बचपन में मैं अपने दादादादी के साथ गांव में थी. कार्तिक मास में सवेरे नदी पर स्नान करने की प्रथा है, इसीलिए मेरी दादी और अन्य पड़ोसी महिलाएं, लड़कियां स्नान के लिए चल दीं. दादी ने मुझे किनारे बैठा कर वहीं नहाने के लिए कहा और खुद थोड़े गहरे पानी में चली गईं.

औरतें गपशप करतेकरते नहा रही थीं. मौका देख कर मैं भी गहरे पानी में उतर गई. तभी अचानक पानी का एक जोरदार बहाव आया और मैं पानी के साथ बहती चली गई. मुझे तैरना नहीं आता था. तभी एक 15-16 साल के लड़के ने मुझे लपक कर पकड़ा और किनारे पर ले आया. बड़ों को इस की खबर भी नहीं हुई. स्नान होने के पश्चात दादी और अन्य महिलाएं घर जाने को तैयार हुई ही थीं कि 4-5 लड़के वहां आ गए और बोलने लगे, ‘‘यही लड़की है, यही लड़की है.’’

सब की नजरें मेरी ओर गईं. मैं सहमी सी जमीन में नजरें गड़ाए खड़ी थी. सरला चाची के पूछने पर लड़कों ने सारी बात बता दी. मेरी दादी तो सुनते ही सुधबुध खो बैठीं और मुझे पकड़ कर रोने लगीं. बाद में पता चला कि कुछ लड़के पुल की दूसरी तरफ तैर रहे थे. उन में से एक लड़का तैरता हुआ इस तरफ चला आया. अचानक मैं उसे डूबती नजर आई और उस ने मुझे बचा लिया. जब भी यह घटना याद आती है, मन उस अनजान, लड़के के प्रति आदर से भर आता है.

निधि अग्रवाल, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

*

मेरी सगाई के लिए दादाजी बैंक लौकर से जेवर ले कर घर आए. मेहमानों की व्यस्तता और समय की कमी के चलते मम्मी ने सारे जेवर रात में देखे तो उस में कुंदन के गहनों का डब्बा नहीं था. वही हार मुझे पहनना था. शुक्रवार का दिन था. शनिवार व रविवार बैंक बंद था. अब हम सब को टैंशन हो रही थी क्योंकि दादाजी कह रहे थे कि बैंक लौकर में अब केवल 2 डब्बे बचे हैं. इस का मतलब डब्बा लौकर में नहीं है. तो क्या वह रास्ते में गिरा या बैंक में लौकर के बाहर छूट गया? रविवार को सगाई संपन्न हुई. सभी मेहमान सोमवार की सुबह रवाना हो गए.

हम 12 बजे बैंक पहुंचे. वहां बहुत भीड़ थी. जब हमारा नंबर आया, हम लौकर में गए तो अंदर डब्बा नहीं था. हम समझ चुके थे कि बहुत नुकसान हो गया. अब कुछ नहीं हो सकता. हम घर आ रहे थे. इतने में बैंक का चपरासी ने दादाजी को देखा और कहा, ‘‘नमस्ते दादाजी. यह लो आप का सामान. दादाजी, आप लौकर के बाहर बैठ कर बैग में सामान डाल रहे थे तो यह डब्बा लुढ़क कर बैंच के नीचे चला गया. आज सुबह सफाई के समय मुझे मिला.’’ हम सब अपना गम भूल गए.

सोनाली जैन, भिलाई (छ.ग.)

हाल ए दिल

लहराता हुआ ये आंचल मेरा

अकसर तुम को छू जाता है

नहीं है कोई जज्बात

फिर कैसे चाहत बढ़ाता है

इन में जो तारे टिमटिमाते हैं

लगता है तुम्हारे होंठ मुसकराते हैं

नहीं है कोई करीब

फिर भी नजदीकियों का एहसास

सलवटें मेरे आंचल की

जो तुम से लिपटा करती हैं

रहरह कर तुम्हारा हाल ए दिल

मुझ से कहा करती हैं

चाहत है बस इतनी

मेरी आंखों में अब

हो घूंघट में चेहरा मेरा

और उठा लो आ कर तुम.

       

– मोनालिसा पंवार

 

एक हो जाएं हम

तुम प्रीत हो, मनमीत हो

संजो रखा है तुम्हें

इन नयनों की परिधि में

हर सांस में, हर धड़कन में तुम हो

जीवन डायरी के कोरे पन्नों में तुम हो

जब चाहे इसे पढ़ा करती हूं

रिवाजों के खंजरों से बचाए रखा है इसे

नियमोंबंधनों से बंधा पंछी मन

अपने ‘पर’ खोल उड़ चला

अब नभ की ओर

जहां कोई भय नहीं, कोई दीवार नहीं

बस तुम हो और मैं हूं

रातरानी सी महकती रहूं मैं

तुम्हारी बांहों की पनाहों में

गमकती रहूं मैं

हर दीवार गिरा

बस अब एक हो जाएं हम

जीवन के इन पलों को

भरपूर जी जाएं हम.

 

– मीता प्रेम शर्मा

 

वैश्विक दबाव में सुस्त हुआ बाजार

वैश्विक स्तर पर विभिन्न बाजारों के कमजोर रहने का दबाव बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में देखने को मिला. चौतरफा बिकवाली का माहौल बना और बाजार में सुस्ती रही. वैश्विक बाजार में मंदी की वजह अमेरिकी फैड रिजर्व द्वारा ब्याज दरों को ले कर असमंजसता रही. लेकिन 22 सितंबर को अमेरिका के फैड रिजर्व द्वारा ब्याज की दर यथावत रखने के निर्णय से विश्व बाजारों में फिर तेजी का माहौल बना. इस तेजी के बावजूद बीएसई का सूचकांक सुस्त रहा. भारतीय बाजार को जो उत्साह दिखाना चाहिए था उस दौरान वह नहीं देखा गया और सूचकांक मामूली तेजी पर बंद होता रहा. इधर, रुपए में भी मामूली मजबूती देखने को मिली और डौलर के मुकाबले रुपया मजबूती के रुख पर रहा.

हम शहरी युवक बंदिश वाली जिंदगी जीते हैं: हर्षवर्धन कपूर

इंसान किस क्षेत्र में अपना कैरियर बनाएगा, इस में उस इंसान की परवरिश की अहम भूमिका होती है. राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘मिर्जिया’ में मुख्य भूमिका निभाने वाले अभिनेता हर्षवर्धन कपूर इस बात पर यकीन करते हैं. हर्षवर्धन कपूर ने फिल्मी माहौल में ही आंखें खोलीं और फिल्में देखते, फिल्मों के बारे में चर्चाएं सुनते हुए ही बड़े हुए हैं. फिलहाल उन की पहचान अनिल कपूर के बेटे, अभिनेता संजय कपूर के भतीजे, अभिनेत्री सोनम कपूर के भाई, अभिनेता अर्जुन कपूर के कजिन, फिल्म निर्माता रिया कपूर के भाई के रूप में है. मगर उन्होंने अभिनय कैरियर की शुरुआत अपने घर की कंपनी से करने के बजाय बाहर की प्रोडक्शन कंपनी से की. उन की पहली फिल्म ‘मिर्जिया’ है. जबकि वे दूसरी फिल्म ‘भावेश जोशी’ भी घर से बाहर यानी, विक्रमादित्य मोटावणे व अनुराग कश्यप के साथ कर रहे हैं.

हर्षवर्धन कपूर से अनिल कपूर के औफिस में मुलाकात हुई. जब उन से अभिनय के मैदान पर उतरने का सबब पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘हम जिस माहौल में बड़े होते हैं, वह जिंदगी का हिस्सा बनता ही है. जब हम बचपन से फिल्मी माहौल में पलतेबढ़ते हैं, तो सिनेमा हमारी जिंदगी का हिस्सा हो जाता है. मुझ पर सिनेमा का जो प्रभाव पड़ा है, उस के चलते जिस तरह की फिल्म मुझे पसंद आ सकती है, वह आप को नहीं आ सकती. वास्तव में यह सोच का मसला है, जो कि आप की परवरिश व आप के अनुभवों के आधार पर विकसित होती है. मुझे बहुत कम उम्र में पता चल गया था कि मुझे फिल्मों में अभिनय करना है और किस तरह की फिल्में करनी हैं.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मेरे दिमाग में यह बात शुरू से थी कि मुझे फिल्मों में कुछ करना है. शायद मैं लेखक या निर्देशक बन जाऊं या फिर अभिनय कर लूं क्योंकि मुझे लिखने का भी शौक रहा है. फिर जब कालेज जाने की उम्र आई तो मैं ने तय कर लिया था कि पहले मुझे अभिनेता बनना है.  अभिनेता बनने के बाद मैं कभी फिल्म की पटकथा लिखने के अलावा निर्देशन भी करना चाहूंगा. अमेरिका जा कर 4 वर्ष तक फिल्म पटकथा लेखन की ट्रेनिंग भी हासिल की है. उस के बाद 1 साल की ट्रेनिंग अभिनय की भी ली.

4 साल के लेखन के प्रशिक्षण के दौरान आप कहानियां कहां से प्रेरित हो कर लिख या चुन रहे थे? इस सवाल का जवाब हर्षवर्धन यों देते हैं, ‘‘जब हम अपनी जिंदगी के अनुभवों को ले कर दिमाग से सोचना शुरू करते हैं, तो वहीं से कहानी मिलती है. जो मैं ने लिखा, उस का संबंध सीधे मेरी जिंदगी से नहीं था. सबकुछ मेरी कल्पना का हिस्सा रहा. जब कोई किरदार मुझे पसंद आया, या मैं ने सोचा कि मैं खुद को इस किरदार के रूप में परदे पर देखना चाहूंगा, तो मैं ने उस के इर्दगिर्द एक कल्पना गढ़ी और उसे कहानी का रूप दिया. हर रचनात्मकता का अलग अनुभव होता है. मसलन, मेरी फिल्म ‘मिर्जिया’ की कहानी पहले से ही मौजूद है, तो उस कहानी को परदे पर कैसे पेश किया जाए, यह राकेश ओमप्रकाश मेहरा की अपनी कल्पना है.’’

पटकथा लेखन के प्रशिक्षण के बाद एक कलाकार के तौर पर पटकथा को समझना और उस के किसी किरदार को अभिनय से संवारने में कितनी मदद मिलती है? इस पर वे बताते हैं, ‘‘बहुत ज्यादा मदद मिलती है. मेरे लिए फन अनुभव यह होता है कि मैं लेखक के विजन के अनुरूप भी सोच पाता हूं जैसे कि जब मेरे पास ‘भावेश जोशी’ और ‘मिर्जिया’ की पटकथाएं आईं. गुलजार साहब के साथ बैठने का अवसर नहीं मिला, मगर हम ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ बैठ कर काफी विचारविमर्श किया. पटकथा लेखन की समझ के चलते हमें लेखक का विजन और निर्देशक क्या कहना चाहता है, इस की समझ बड़ी आसानी से हो जाती है और कलाकार के तौर पर काम करना आसान हो जाता है. मगर जब आप गुलजार या राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ काम करते हैं, तो आप को ज्यादा सोचना या बोलना नहीं पड़ता. पर मैं अपना दिमाग चलाना बंद कभी नहीं कर सकता. मैं हमेशा सोचता रहता हूं.’’

‘मिर्जिया’ को विस्तार से समझाते हुए वे कहते हैं, ‘‘हमारी फिल्म में ‘मिर्जिया’ की कहानी 2 तरह से चलती है. एक कहानी तो उस जमाने की है जब यह घटित हुई थी. यह सोलमेट प्रेम कहानी है. यह कहानी फैंटसी और सपने की तरह है. और दूसरी कहानी वर्तमान में राजस्थान में चलती है. वह कहानी है आदिल और सुचिता की. मिर्जा साहिबा की जो प्रेम कहानी थी, वह अमरप्रेम की कहानी थी. उस प्रेम को कोई करता नहीं. जो कहानी आदिल और शुचि के साथ रिलेट कर रहे हैं, उसे हम ने इस तरह पेश किया है कि मिर्जा साहिबा की वे भावनाएं व कंफलिक्ट आज होते तो ऐसे ही होते.’’

कब लगा कि फिल्म ‘मिर्जिया’ के किरदार को निभा सकते हैं, इस पर उन का जवाब था, ‘‘जब अमेरिका से प्रशिक्षित हो कर लौटा और मैं ने फिल्म ‘मिर्जिया’ की पटकथा पढ़ी, तो मुझे अंदर से एहसास हुआ कि मैं भी इस फिल्म के किरदार आदिल जैसा ही हूं. मिर्जा साहिबा एक ऐसी कहानी है, जिस में मैं एकदम फिट होता हूं. जब मैं ने पढ़ा कि एक लड़का है, जो घोड़े दौड़ाता है, तीर चलाता है, एक लड़की से प्यार करता है. वह लड़की एक दिन उस के तीर तोड़ देती है. तो वह मेरे दिमाग में बैठ गया. कभी आप कोई कहानी पढ़ते हो और वह कहानी आप के दिमाग में बैठ जाती है और आप सोचते हो कि मुझे भी ऐसा ही दिखना है. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हो गया था.’’

‘मिर्जिया’ में अभिनय करने से पहले की तैयारियों को ले कर वे कहते हैं, ‘‘इस फिल्म के लिए मुझे 18 माह की बहुत कठिन ट्रेनिंग के दौर से गुजरना पड़ा. मिर्जा का किरदार घुड़सवारी व तीरंदाजी करता है, इसलिए हम ने घुड़सवारी व तीरंदाजी सीखी. पोलो सीखा. ट्रेनिंग पूरी होने के बाद जब मैं मुंबई के महालक्ष्मी के रेसकोर्स में घुड़सवारी की प्रैक्टिस कर रहा था, तो एक दिन वहां राकेश ओमप्रकाश मेहरा और एलान अमान पहुंच गए. मैं ने सोचा कि मैं घुड़सवारी में बहुत अभ्यस्त हो गया हूं, पर उन्होंने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है. मेरे हिसाब से भारत में जो भी औप्शन थे, वे सब मैं ने सीख लिए थे. लेकिन जिस तरह से हमारे शहर बन रहे हैं, वहां कुछ करने के लिए बचा ही नहीं है. तो 6 सप्ताह के लिए मुझे अमेरिका भेजा गया. वहां पर एक ट्रेनर जेरी हैं, उन के साथ मैं रहा. उन के अपने 15 घोड़े हैं, अपनी जमीन है. अपना खुद का अस्तबल है. मैं उन का मेहमान था. हर सुबह अस्तबल की सफाई करनी पड़ती थी. घोड़ों को नहलाना पड़ता था. उस के बाद हम नाश्ता करते थे. फिर हम घुड़सवारी की ट्रेनिंग व प्रैक्टिस करते थे. राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अमेरिका जाते समय मुझे एक सूची पकड़ाई थी कि हर दिन ये 15 चीजें करनी हैं. मैं ने वे सब कीं. बहुत कठिन समय रहा. हम मोबाइल फोन नहीं रख सकते थे. वहीं खाना बनाता था. मैं बहुत अकेला रहता था तो मुझे अकेलेपन को भी झेलना था क्योंकि आदिल भी बहुत अकेला रहता है. मेरा बहुत भावनात्मक स्तर पर उपयोग किया गया.’’

क्या मैथड ऐक्ंिटग हर किरदार के साथ संभव है? इस पर उन का कहना था, ‘‘अब तक जो 2 फिल्में मैं ने की हैं, उन में तो संभव रहा. ‘मिर्जिया’ में तो बहुत स्ट्रीम पोजीशन हो गई थी. मैं एक माह पहले ही लद्दाख गया था. जब आप कोई काम लंबे समय तक कर रहे होते हैं, तो आप को अपने अंदर एक विश्वास आ जाता है.’’ सयामी खेर के साथ काम करने के अनुभव को ले कर वे बताते हैं, ‘‘उस के साथ काम करना बहुत अच्छा रहा. वह शहर की लड़की नहीं है, वह नासिक से है, तो इस का असर पड़ता है. मेरी व उस की परवरिश में बहुत बड़ा अंतर है. हम शहरी युवक बंदिश वाली जिंदगी जीते हैं. हमारे पास आउटडोर गतिविधियों के लिए कोई जगह या साधन नहीं है. जबकि नासिक में यह सब बहुत उपलब्ध है. काश, मुझे भी सयामी जैसे अवसर मिलते. परवरिश के अंतर की वजह से अभिनय में क्या अंतर आया? इस पर हर्षवर्धन कहते हैं, ‘‘हम दोनों मेहनत करते हैं, पर हम दोनों के मेहनत करने का तरीका अलग है. मुझे दृश्य के साथ बैठना पड़ता है. मेरी तरह वह मैथड अभिनय को नहीं अपनाती. वह जो एहसास करती है, उसे ही परफौर्म करती है. वह बहुत ही ज्यादा स्पौंटेनियस कलाकार है जबकि मैं हर सीन पर बहुत सोचता हूं.’’

आप जिन रिश्तों की बात कर रहे हैं. कौर्पोरेट कंपनियों के आने के बाद वे रिश्ते खत्म हो गए? इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है. यह भारत है. हमारी भावनाएं नहीं खत्म होतीं. पर जब हम स्वतंत्र फिल्म निर्माता के साथ काम करते हैं, तो एक अलग अनुभव होता है. मसलन, हम ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ काम किया. तो हमें जब कुछ खाने की इच्छा होती, तो हम उन से कह देते. इस से हम सहज होते हैं, जिस का असर हमारी परफौर्मेंस पर होता है. पर कौर्पोरेट का माहौल सही नहीं लगता है. कौर्पोरेट का माहौल कहीं न कहीं रचनात्मकता पर प्रभाव डालता है.’

अब 7 लोक कल्याण मार्ग

जानने वाले जानते हैं कि 7 रेसकोर्स और 10 जनपथ जैसे नाम इमारतों के नहीं, बल्कि ताकतों के होते हैं जिन से देश की दिशा और दशा तय होती है. इन ताकतों के नाम भले ही बदल जाएं पर इन का रसूख कम नहीं होता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आवास 7 रेस कोर्स का नाम बदल कर 7 लोक कल्याण मार्ग हो गया है जिस से सनातनी सुगंध आती है और यह संकेत भी मिलता है कि अब सत्ता में रेस खत्म हो चुकी है. रेसकोर्स से आती अंगरेजियत की बू दूर करने में मीनाक्षी लेखी ने मोदी की सहायता की और शुद्ध धार्मिक सा नाम सुझा दिया. अब लोगों को कल्याण की आस नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि नाम में काफी दम रहता है.

ये पति

मैं अपने पति के साथ न्यूयार्क शहर गई थी, वहां मैं अपनी एक पुरानी सहेली के घर पर रुकी थी. सहेली और उस के पति दोनों दिन में अपने काम पर चले जाते थे. उस ने मुझे एक टैक्सी वाले का फोन नंबर दिया था जिस से दिन में कहीं घूमना हो तो उसे बुला लूं. मैं ने वह नंबर अपने पति को दे दिया था. जरूरत के अनुसार वही टैक्सी बुला लिया करते थे. एक सप्ताह के बाद हम दोनों एक रिश्तेदार के यहां बोस्टन शहर में आ गए थे. वहां भी दोनों पतिपत्नी दिन में अपनेअपने औफिस चले जाते थे. एक दिन मेरे पति ने बोस्टन घूमने के लिए उसी टैक्सी वाले को कौल कर दिया था. उस ने पूछा कहां आना है तो उन्होंने रोड नंबर और इंटरसैक्शन नंबर बता दिया था. उस ने कहा कि मैं 10 मिनट में पहुंच जाऊंगा.

अमेरिका में तो लोग समय के पाबंद होते हैं. जब 20 मिनट हो गए तो उन्होंने फिर फोन कर पूछा, ‘‘मैं भी तो वहीं हूं, पर आप किधर हैं?’’

उस ने कहा, ‘‘मैं न्यूयार्क में आप के दिए पते पर हूं.’’

मेरे पति ने कहा, ‘‘पर मैं तो 360 किलोमीटर दूर बोस्टन में हूं.’’ इतना बोलने के तुरंत बाद ही उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि ऐसे रोड नंबर और इंटरसैक्शन तो अनेक शहरों में हैं. उन्होंने कहा, ‘‘सौरी, मुझ से बड़ी भूल हो गई. मैं तो बोस्टन आ गया हूं. आप अपना अकाउंट नंबर दें या फिर पोस्टल ऐड्रैस दें, मेरी वजह से जो नुकसान हुआ, उतने डौलर का चैक भेज दूंगा या मनी ट्रांसफर कर दूंगा.’’ टैक्सी वाले ने हंसते हुए कहा, ‘‘गाई (मित्र), नो प्रौब्लम. ऐसा कभीकभी हो जाता है. आप डौलर की चिंता न करें. बस गुडविल बनी रहे. अगली बार जब न्यूयार्क आएं तो मुझे याद करेंगे. बाए, हेव ए गुड डे.’’     

एस सिन्हा

*

मेरे पति अपनेआप को बहुत बड़ा कुक समझते हैं. एक दिन घर में कुछ मेहमान आए. इन्होंने मुझ से चाय बनाने को कहा व स्वयं खाना बनाने में जुट गए. जब हम मेहमानों को खाना लगाने लगे तो इन्होंने कुकर खोल कर देखा, उस में सिर्फ पानी ही पानी था. दरअसल, दाल पकाते वक्त इन्होंने कुकर में नमक व अन्य सारी सामग्री कुकर में डाल दी थी, परंतु उस में दाल डालना भूल गए थे. फिर इन्होंने फटाफट कढ़ी छौंकी और मेहमानों को खाना खिलाया. इस घटना के बाद इन्होंने कभी भी मुझ से यह नहीं कहा कि वे बहुत बड़े कुक हैं.

सुनंदा गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

इन्हें भी आजमाइए

– पार्टी में स्मार्ट तरीके से खाएं. ज्यादा फैटी व मिर्चमसालों वाले खाने से परहेज करें. खाने के साथ लोगों से बातचीत भी करते रहें, इस से आप कम खाएंगे. खाने के बीच में पानी का सेवन भी करें. इस से पेट भी भर जाएगा और आप ओवरईटिंग से बच जाएंगे.

– गार्डन की मिट्टी के ऊपर सड़ी हुई घास डालें, इस से मिट्टी का कटाव रुकता है. साथ ही मिट्टी में नमी बनी रहती है और यह घासफूस को उगने से रोकता है. अगर आप नियमित अंतराल पर सड़ी घास का प्रयोग करेंगे तो इस से काफी फायदा होगा.  

– हलदी में एंटीसैप्टिक और एंटीबायोटिक गुणों के कारण इस के इस्तेमाल से नाक का रास्ता साफ हो जाता है जिस से सांस लेना आसान हो जाता है. रात को सोने से पहले रोजाना हलदी का दूध पीने से खर्राटों की समस्या से बचा जा सकता है.

– गरम पानी से चेहरे को धोने के बाद चेहरे पर पपीते का मिक्सचर लगाएं. 15-20 मिनट बाद चेहरे को धोएं. इस से चेहरा मौश्चराइज होता है, साथ ही काफी हद तक चेहरे पर पिंपल नहीं होते.

– चेहरे के मस्से को छिपाने के लिए कंसीलर का प्रयोग करें. आप चाहें तो फाउंडेशन और कंसीलर को मिला कर एकसाथ लगा सकते हैं. इस से मस्सा दिखाई नहीं देगा.

हमारी बेड़ियां

मेरे बेटे के दोस्त वरुण को अपनी नौकरी बचाना मुश्किल हो गया था. कारण थे, पंडितों का जाल, परिवार व उस की मां का अंधविश्वास. हुआ यह कि 1 वर्ष से गंभीर रूप से बीमार पिता की मृत्यु के बाद क्रियाकर्म आदि का उत्तरदायित्व इकलौते बेटे वरुण को संभालना था. वरुण ने 2 माह पहले ही नई कंपनी जौइन की थी. सो, 1 हफ्ते की छुट्टी पर आया वरुण, पिता के चौथे पर ही सारी क्रियाएं पूरी कर वापस नौकरी पर जाना चाहता था. पर उस की मां के साथसाथ ताऊताई आदि ने भी उस की इस बात पर भर्त्सना की. उसे कर्तव्य याद दिलाया. इस स्थिति में वरुण ने अपने बौस से अनुनयविनय कर के छुट्टियां बढ़वाईं. उतने दिन गरुड़ पुराण सुनना, हर समय परिवार के साथ बैठना जरूरी बताया गया. सो, वह ‘वर्क फ्रौम होम’ भी नहीं कर सकता था. आखिर कब तक ऐसी बेडि़यों से हम खुद को और आने वाली पीढि़यों को बांधे रखेंगे?

मीताप्रेम शर्मा, मुनीरका (न.दि.)

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मेरी बूआ सास की शादी ऐसे घर में हुई जहां लोग अंधविश्वासी थे. उन की सास बोलती कि बिना नहाए रसोईघर में नहीं जाना. बात पुरानी है जब घर में नल नहीं होता था. पानी बाहर कुएं से भर कर लाना पड़ता था. खाने, नहाने के लिए पानी भर कर रखना पड़ता था. सर्दी में भी उन की सास बिना नहाए रसोईघर में घुसने नहीं देती थी. बहुत दिनों तक ठंडे पानी से नहानहा कर उन्हें गठिया रोग हो गया. हाथपैर सब ठंडे हो गए. तब भी बिना नहाए रसोईघर में नहीं जाने दिया जाता था. उन को भारी कष्ट झेलना पड़ा. और वे मां भी नहीं बन सकीं. वैसे बहुत इलाज करवाया पर सब व्यर्थ गया. परिवार के अंधविश्वास की वजह से उन की जिंदगी बरबाद हो गई.

विद्यावती देवी (न.दि.)

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मेरे बेटे का जब पहला दांत निकला, मैं अपने पति के साथ पीहर में थी. पंजाब में रिवाज है जब बच्चे का पहला दांत निकलता है तो आसपड़ोस में गोलागिरी और बताशे बांटे जाते हैं. उन का मानना है कि जिस के दांत सुंदर होते हैं, यदि वह गोला चबा कर बच्चे के मुंह में फूंक दे तो उस के दांत भी वैसे ही सुंदर निकलेंगे. यह काम मेरी बहन को सौंपा गया. जैसे ही गिरी चबा कर बेटे के मुंह में फूंकने लगी, मेरे पति चिल्ला उठे, ‘‘रुको, यह क्या कर रही हो? अपने मुंह की गंदगी को बच्चे के मुंह में डाल रही हो? बीमार करना है क्या?’’ वे कमरे से बाहर चले गए. सब चुप हो गए. ऐसी बेवकूफी भरी प्रथा को आखिर हम क्यों नहीं छोड़ते?

शशि बाला, उत्तम नगर (न.दि.)

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