तुम प्रीत हो, मनमीत हो

संजो रखा है तुम्हें

इन नयनों की परिधि में

हर सांस में, हर धड़कन में तुम हो

जीवन डायरी के कोरे पन्नों में तुम हो

जब चाहे इसे पढ़ा करती हूं

रिवाजों के खंजरों से बचाए रखा है इसे

नियमोंबंधनों से बंधा पंछी मन

अपने ‘पर’ खोल उड़ चला

अब नभ की ओर

जहां कोई भय नहीं, कोई दीवार नहीं

बस तुम हो और मैं हूं

रातरानी सी महकती रहूं मैं

तुम्हारी बांहों की पनाहों में

गमकती रहूं मैं

हर दीवार गिरा

बस अब एक हो जाएं हम

जीवन के इन पलों को

भरपूर जी जाएं हम.

 

– मीता प्रेम शर्मा

 

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