Download App

बास्को मार्टिस की फिल्म ‘सर्कस’ हुई बंद

हमने ‘सरिता’ में इस स्थान पर 13 सितंबर को ही बताया था कि कंगना के बाद परिणीति चोपड़ा के बास्को मार्टिस की फिल्म ‘सर्कस’ से अलग होने के बाद इस फिल्म का भविष्य अधर में लटक गया है. और हमने सवाल उठाया था कि ‘‘अब क्या होगा फिल्म ‘सर्कस’ का?’’ तो इसका जवाब अब आ चुका है. सूत्रों ने दावा किया है कि बास्को मार्टिस ने फिल्म ‘सर्कस’ को बंद कर दिया है.

बास्को मार्टिस के अति नजदीकी सूत्र दावा कर रहे हैं कि बास्को मार्टिस ने फिल्म ‘‘सर्कस’’ को बंद कर दिया है, मगर बास्को को इस बात का गहरा दुःख पहुंचा है कि कंगना रानोट के बाद परिणीत चोपड़ा ने भी उन्हे धोखा दे दिया.

पहले कंगना रानौत ने बास्को मार्टिस के निर्देशन में फिल्म ‘सर्कस’ में सूरज पंचोली के साथ अभिनय करने के लिए हामी भरी थी. पर बाद में कंगना ने मना कर दिया. इसके बाद बास्को ने परिणीत से बात की. पर परिणीत ने अहम के चलते खुद को ‘सर्कस’ से अलग कर लिया.

बौलीवुड के सूत्रों के अनुसार बास्को मार्टिस फिल्म ‘‘सर्कस’’ से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखने वाले थे. उन्हे यकीन था कि कोई भी अभिनेत्री उनके साथ काम करने के लिए तैयार हो जाएगी. आखिर नृत्य निर्देषक के रूप में हर अभिनेत्री से उनके गहरे व अच्छे तालुकात हैं, मगर जिस तरह से उन्हे कंगना व परिणीत ने धोखा दिया है, उसके बाद उनकी हिम्मत दूसरी अभिनेत्री से बात करने की नहीं हो रही है.

मगर कुछ लोग ‘‘सर्कस’’ के बंद होने के लिए सूरज पंचोली को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं. वैसे ‘सर्कस’ का बंद होना सूरज पंचोली के लिए सबसे ज्यादा नुकसान की खबर है. लोगों का मानना है कि बास्को मार्टिस अपनी फिल्म ‘‘सर्कस’’ के हीरो सूरज पंचोली को बदलना नही चाहते थे. सूरज पंचोली के सितारे गर्दिश में हैं और वही बास्को मार्टिस को भी ले डूबे.

वास्तव में सूरज पंचोली ने अपने अभिनय करियर की शुरूआत आथिया शेट्टी के साथ फिल्म ‘‘हीरो’’ से की थी. फिल्म ‘हीरो’ बाक्स आफिस पर इस कदर पिटी कि फिल्म ‘हीरो’ के प्रदर्शन के बाद से फिल्म ‘हीरो’ की असफलता का भूत इससे जुड़े लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहा है. ‘हीरो’ के निर्देशक निखिल अडवाणी को उसके बाद दूसरी फिल्म नहीं मिल रही है. फरहान अख्तर व कृति सैनन वाली फिल्म ‘लखनऊ सेंट्रल’ जिसे निखिल अडवाणी निर्देशित करने वाले थे, उसके बंद होने की खबर दो दिन पहले ही आयी है. उधर फिल्म की हीरोइन आथिया शेट्टी की भी ‘हीरो’ के प्रदर्शन के बाद से कोई फिल्म शुरू नहीं हो पायी.

जहां तक सूरज पंचोली का सवाल है तो ‘हीरो’ की असफलता के बाद उनकी प्रेमिका जिया खान की मौत से जुड़ा मुकदमा अदालत में चल ही रहा है. तो वहीं फरहान अख्तर व रितेश सिद्धवानी की कंपनी ‘एक्सेल इंटरटेनमेंट’ ने सूरज पंचोली को लेकर बनाई जाने वाली फुटबाल वाली फिल्म के लिए किसी स्टूडियों का साथ न मिलने पर बंद कर दिया. उसके बाद रेमो डिसूजा के निर्देशन में बनने वाली वह फिल्म भी बंद हो गयी, जिसमें सूरज पंचोली के साथ अजय देवगन अभिनय करने वाले थे. और अब सूरज पंचोली की तीसरी फिल्म ‘‘सर्कस’’ के बंद होने की खबरें आ रही हैं.

पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि फिल्म ‘‘सर्कस’’ को दो हीरोईनों ने छोड़ दिया, तो तीसरी हीरोईन के नाम पर बास्को मार्टिस विचार क्यों नहीं कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब किसी सूत्र के पास नहीं है..जबकि खुद बास्को मार्टिस चुप हैं.

अपने ही चक्रव्यूहों मे फंसती उमा भारती

नरेंद्र मोदी की सरकार मे तेजतर्रार फायर ब्रांड कही जाने बाली साध्वी उमा भारती लीं नहीं गईं थी, बल्कि आरएसएस के दबाब के चलते एक तयशुदा फार्मूले के तहत बतौर मंत्री एडजेस्ट की गईं थी, जिसकी अघोषित शर्त यह थी कि वे अपनी आदत के मुताबिक बेवजह बोलेंगी नहीं, जिससे पार्टी और सरकार की साख पर बट्टा लगे.

ढाई साल उमा ने एक धार्मिक व्रत की तरह इस करार का ईमानदारी से पालन किया पर अब लग रहा है कि वे फिर आपा खो रही हैं, जिसकी मूल वजह हमेशा की तरह उनके चिर परिचित प्रतिद्वंदी कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह और शुरू से ही उनकी आंख की किरकिरी रहे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं. इस दिलचस्प विवाद के बीज अब से कोई 13 साल पहले बोये गए थे जब मध्यप्रदेश की सत्ता पर अंगद के पांव की तरह जमे दिग्विजय को उखाड़ फेकने का बीड़ा उमा ने उठाया था और एक साल ताबड़तोड़ तूफानी दौरे करते हुए आम लोगों को कांग्रेसी शासन के भ्रष्टाचार के बारे में बताया था. इसी अभियान के दौरान उमा ने दिग्विजय सिंह पर 1500 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप भी लगाया था, तब उनकी हां में हां मिलाने बालों में 2 दिग्गज भाजपाई नेता सुंदर लाल पटवा और विक्रम वर्मा भी शामिल थे.

कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई और भाजपा उमा की अगुवाई मे सत्ता पर काबिज हुई, लेकिन हुबली वारंट के चलते उमा को कुर्सी छोड़नी पड़ी, तो पार्टी ने बाबूलाल गौर को सीएम बना दिया और उमा को आश्वश्त किया कि हुबली मुकदमा निबटते ही उन्हें दोबारा सीएम बना दिया जाएगा, लेकिन ऐसा किया नहीं गया और शिवराज सिंह को सीएम बना दिया गया, तो उमा तिलमिला उठीं और सीधे अयोध्या का रुख कर लिया और बाद में नई पार्टी भाजश बना ली.

इधर घोटाले के आरोप को दिग्विजय अदालत ले गए और उमा सहित पटवा और विक्रम वर्मा पर मानहानि का दावा ठोक दिया. इस एपिसोड का पार्ट 2 पिछली 29 सितंबर से शुरू हुआ, जब इस वक्त बर्बाद करते मुकदमे पर अदालत ने उमा के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिये, जिसे हल्के में लेने की चूक वे नहीं कर सकती थीं, क्योकि इसके पहले पटवा और वर्मा ने दिग्विजय से एक तरह से माफी मांगते उन्हे ईमानदारी का सर्टिफिकेट दे दिया था, चूंकि अब इन दोनों की कोई हैसियत सत्ता और संगठन में नहीं रह गई है, इसलिए लोगों ने इसे सियासी शिगूफ़ा मानते नजरंदाज कर दिया, पर केंद्रीय मंत्री रहते उमा भी राजीनामे के लिए ऐसी माफी मांगतीं, तो खुद कटघरे में खड़ी होतीं.

इधर दिग्विजय अपनी जिद पर अड़े थे और अभी भी अड़े हैं कि या तो उमा भी माफी मांगे या फिर लगाए गए आरोप साबित करें. भोपाल में 17 अक्तूबर को उमा जब एसीजेएम अजय सिंह ठाकुर की अदालत में पेश हुईं, तो अदालत ने वारंट रद्द कर दिया. इस दिन मीडिया से चर्चा करते उन्होने वही कहा जो मुद्दत से कहती आ रहीं हैं कि कुछ भी हो जाए पर देश, तिरंगा, गंगा, गाय और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कोई समझौता नहीं करूंगी, पर दिग्विजय के मुकदमे पर क्या करेंगी, इस पर उनका कहना था कि वे मेरे भाई हैं, मामला वापस ले लें तो अच्छा है और उन पर मैंने आरोप पार्टी द्वारा चुनाव के दौरान प्रकाशित पुस्तक के आधार पर लगाए थे.

आज मामूली सी दिख रही उमा की यह सफाई भाजपा को भारी भी पड़ सकती है और कानूनी पेचीदगियों का भी शिकार हो सकती है, क्योंकि वे दिग्विजय पर लगाए आरोपों के बाबत पूरी को पार्टी को जिम्मेदार ठहरा रहीं है, यानि अब या तो आरोप भाजपा साबित करे और अगर न कर पाये जिसकी उम्मीद ज्यादा है तो पूरी पार्टी दिग्विजय से माफी मांगे. उमा भोपाल में यह भी कहती रहीं हैं कि सत्ता उन्होंने दिलाई और उसका मजा दूसरे जाहिर है शिवराज सिंह उठा रहे हैं. कलह के इस यज्ञ में एक आहुती भोपाल आए केंद्रीय मंत्री वैंकैया नायडू ने यह कहते डाल दी कि कुछ लोग नहीं चाहते थे कि शिवराज सीएम बनें.

अब तय है कि जो होगा वो शिवराज और प्रदेश भाजपा के लिहाज से ठीक नहीं होगा. शिवराज के दुश्मनों की तादाद पार्टी के भीतर बढ़ती जा रही है, इनमे उजागर नाम बाबूलाल और कैलाश विजयवर्गीय सहित कई छुटभैयों के भी हैं. हैरानी नहीं होनी चाहिए अगर तिलमिलाई उमा भारती शिवराज विरोधी गुट की अगुवाई उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद करती नजर आयें.

नीतीश-लालू: यह रिश्ता क्या कहलाता है

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दूसरे राज्यों में जा कर सभाएं करना और भारतीय जनता पार्टी व नरेंद्र मोदी पर तंज कसना उन के सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल को हजम नहीं हो रहा है.

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव तो अपने ‘छोटे भाई’ की इस अदा पर चुप्पी साधे हुए हैं, पर उन के करीबी और पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह को नीतीश कुमार का यह रवैया ठीक नहीं लग रहा है. वे कहते हैं कि अपने सियासी फायदे के लिए नीतीश कुमार सहयोगी दलों की अनदेखी कर रहे हैं. उन्होंने उन से कुछ तल्ख सवाल पूछे हैं, जैसे आखिर उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार किस ने बना दिया? किस हैसियत से वे मिशन-2019 की बात कर रहे हैं? क्या अकेले घूम कर नीतीश कुमार सैकुलर ताकतों को कमजोर नहीं कर रहे हैं? दूसरे राज्यों में सभा करने से पहले नीतीश कुमार को क्या सहयोगी दलों से बात नहीं करनी चाहिए? क्या उन्हें भरोसे में नहीं लेना चाहिए? वगैरह.

इतना ही नहीं, नीतीश कुमार पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा कि पहले तो 10 सालों तक नीतीश कुमार ने खूब शराब बिकवाई और अब कूदकूद कर उसे बंद कराने में लगे हैं. नरेंद्र मोदी की सरकार देश में जो बीमारी फैला रही है, उसे ठीक करना अकेले नीतीश कुमार के बूते की बात नहीं है. ‘हम’ सब से बड़े हैं, यह भावना ठीक नहीं है.

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच की तनातनी की सब से बड़ी वजह नीतीश कुमार की उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हाथ आजमाने की कोशिश है और लालू प्रसाद यादव यह नहीं चाहते हैं. नीतीश कुमार बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को मिली कामयाबी को पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भुनाना चाहते हैं, जबकि लालू प्रसाद यादव इस मसले पर खामोश हैं. वे नहीं चाहते हैं कि महागठबंधन उत्तर प्रदेश में उन के समधी को कोई चुनौती दे या उन के लिए किसी भी तरह की परेशानी खड़ी करे.

लालू प्रसाद यादव इस बात को ले कर कतई खुश नहीं हैं कि नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में धुआंधार चुनाव प्रचार कर रहे हैं और अपना जनाधार बनानेबढ़ाने की जुगत में लगे हुए हैं. लालू प्रसाद यादव इस बात से भी नाराज बताए जाते हैं कि नीतीश कुमार उन से कोई सलाहमशवरा किए बिना उत्तर प्रदेश के वाराणसी, कानपुर, नोएडा और लखनऊ में अकेले लगातार रैलियां कर रहे हैं.

गौरतलब है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुर्मी जाति की आबादी अच्छीखासी है और नीतीश कुमार की नजर उस पर गड़ी हुई है. उसी के बहाने वे वहां अपना जनाधार बढ़ाने की चाहत रखते हैं. नीतीश कुमार महागठबंधन की अनदेखी कर उत्तर प्रदेश में ‘एकला चलो रे’ की राजनीति कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव अपनी रिश्तेदारी की वजह से उत्तर प्रदेश में चुप रहना चाहते हैं. वे नहीं चाहते कि सियासी कूवत बढ़ाने के चक्कर में उन के पारिवारिक रिश्ते पर किसी तरह की आंच आए. वे काफी ऊहापोह में हैं. एक तरफ नीतीश कुमार से सियासी रिश्ता भी निभाना है, क्योंकि उन्होंने ही उन्हें बिहार की राजनीति में दोबारा उठने का मौका दिया था, वहीं दूसरी ओर उन की बेटी की शादी मुलायम सिंह यादव के परिवार में हुई है.  वे बारबार यही रट लगाते रहे हैं कि उन की पार्टी उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्ष ताकतों का साथ देगी. उन की नजर में मुलायम सिंह यादव से बड़ा धर्मनिरपेक्ष भला और कौन हो सकता है.

बिहार की राजनीति में ‘बड़े भाई’ (लालू प्रसाद यादव) और ‘छोटे भाई’ (नीतीश कुमार) के नाम से मशहूर दोनों नेताओं के बीच समधी मुलायम सिंह यादव की वजह से खासी खटास पैदा हो चुकी है. सियासी रिश्तेदारी पर पारिवारिक रिश्तेदारी भारी पड़ रही है. राजद के एक बड़े नेता कहते हैं कि अगर दोनों नेताओं के बीच पनपे गड्ढे को नहीं पाटा गया, तो बड़ी खाई बन सकती है. इस के अलावा नीतीश कुमार के शराबबंदी के फैसले की तो लालू प्रसाद यादव तारीफ कर रहे हैं, पर ताड़ी पर पाबंदी लगाने के मामले में वे उन से खासा नाराज चल रहे हैं. लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि ताड़ी पर रोक लगाने से पासी समुदाय के सामने भुखमरी की नौबत आ गई है. इन्हें पासी जाति के वोट की चिंता है, तो नीतीश कुमार को उन औरतों की चिंता सता रही है, जिन के पास पति ताड़ी पी कर बौराते रहते हैं.

गौरतलब है कि साल 1990 में बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव ने ताड़ी को टैक्स फ्री कर दिया था. अंबेडकर जयंती जलसे में नीतीश कुमार ने ताड़ी की वकालत करने वालों की जम कर खिंचाई की थी और खूब खरीखोटी भी सुनाई थी. उन्होंने किसी का नाम लिए बगैर कहा था कि कुछ लोग ताड़ी पर सियासत कर रहे हैं और हायतौबा मचा रहे हैं. ऐसे लोगों को पता नहीं है कि ताड़ी गरीबों और पिछड़ों को कितना नुकसान पहुंचा रही है.

10, सर्कुलर रोड, पटना पर बने राबड़ी देवी के सरकारी आवास पर हुई राजद संसदीय दल की बैठक में शामिल नेताओं ने बैठक के दौरान तो अपने मुंह पर पट्टी बांधे रखी, पर बैठक से बाहर निकलते ही राज्य सरकार पर तीर चलाने शुरू कर दिए. रघुवंश प्रसाद सिंह, तस्लीमुद्दीन, प्रभुनाथ सिंह वगैरह नेताओं ने नीतीश कुमार को जीभर कर कोसा. बैठक के बाद मीडिया से बातचीत करते हुए तस्लीमुद्दीन ने कहा कि नीतीश कुमार से कानून व्यवस्था संभल नहीं रही है, इसलिए उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. दूसरे राज्यों में घूम कर के नीतीश कुमार अपनी नाकामी छिपा रहे हैं.

राजद के सांसद रह चुके प्रभुनाथ सिंह ने कहा कि सिवान में पत्रकार राजदेव रंजन मर्डर केस के लिए शहाबुद्दीन दोषी हैं, तो कानून अपना काम करेगा. इस के साथ ही वे यह भी कहते हैं कि जेल में शहाबुद्दीन से मिलने एकसाथ 63 लोग पहुंच गए, यह पूरी तरह से प्रशासनिक नाकामी है. केंद्रीय मंत्री रह चुके रघुवंश प्रसाद सिंह ने महागठबंधन की सरकार पर सवालिया निशान लगाते हुए कह दिया था कि महागठबंधन की सरकार है कहां? इस में केवल कुछ लोग ही शामिल हैं. वहीं सांसद रह चुके जगदानंद सिंह ने कहा कि बिहार में कानून व्यवस्था की हालत में सुधार होना चाहिए, लेकिन इस के साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार में अपराध कम हैं.

रघुवंश प्रसाद सिंह के सवालों ने जनता दल (यूनाइटेड) के अंदरखाने में हलचल पैदा कर दी है. जद (यू) का कोई बड़ा नेता इस मसले पर कुछ भी बोलने से परहेज कर रहा है, पर जद (यू) के मुख्य प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं कि रघुवंश प्रसाद सिंह किसी भी तरह से महागठबंधन धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं. लोकसभा का चुनाव हारने के बाद अब वे राज्यसभा में जाने का रास्ता खोजने में लगे हैं. राजद और जनता दल (यू) के बीच चल रही खींचतान की हवा के बीच 1 सितंबर, 2016 को नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच एक घंटे तक गुफ्तगू चली. दोनों की मुलाकात किस सिलसिले में थी, इसे बताने में दोनों नेता परहेज कर रहे हैं.

जद (यू) के सूत्रों की मानें, तो बोर्ड और निगमों के खाली पड़े पदों पर अपनेअपने भरोसेमंद कार्यकर्ताओं को सैट करने के मसले पर दोनों नेताओं की मुलाकात हुई थी. वहीं राजद सूत्रों ने बताया कि लालू प्रसाद यादव ने दोनों पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बनाने और सरकार को सही तरीके से काम करने के मसले पर बात की. लालू ने नीतीश को समझाया कि प्रधानमंत्री के चक्कर में कहीं मुख्यमंत्री की कुरसी न गंवानी पड़ जाए. इस से जहां महागठबंधन का मकसद पूरा नहीं होगा, वहीं भाजपा को मजबूत होने का मौका भी मिल जाएगा.

गौरतलब है कि 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में इस महागठबंधन का 178 सीटों पर कब्जा है. इस में जद (यू) की झोली में 71, राजद के खाते में 80 और कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें हैं. राजग के खाते में 58 सीट ही हैं, जिस से महागठबंधन का हौसला बुलंद है. मुसलिम, यादव, कुर्मी, कुशवाहा, पिछड़े, अतिपिछड़े और महादलित महागठबंधन की ताकत बन चुके हैं, जिन की आबादी तकरीबन 70 फीसदी है. महागठबंधन की जीत के पीछे सब से बड़ी वजह यह भी रही कि पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार से सबक लेते हुए नीतीश, लालू और कांगे्रस ने मिल कर महागठबंधन बनाने में जरा भी देरी नहीं की.

महागठबंधन ने शुरू से ही नीतीश कुमार की अगुआई में चुनाव लड़ने का ऐलान किया और आखिरी तक उस पर कायम रहा. जब महागठबंधन बनाने की कवायद परवान चढ़ी थी, तब महागठबंधन के अगुआ रहे मुलायम सिंह यादव ने नीतीश कुमार को स्वार्थी बताते हुए कन्नी काट ली थी, वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने भी महागठबंधन को खास तवज्जुह नहीं दी थी. लेकिन अब लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच बढ़ती खटास से महागठबंधन और बिहार सरकार पर खतरे के काले बादल मंडराने लगे हैं. लालू यादव इस बार अपने स्वभाव के उलट अपनी जबान पर काबू रखे हुए हैं, पर नीतीश कुमार लालू यादव की चुप्पी को उन की सियासी मजबूरी समझ कर महागठबंधन के समझौतों के खिलाफ काम करते जा रहे हैं.

लालू यादव ने खुद कुछ न बोल कर अपनी पार्टी के सीनियर नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को नीतीश कुमार के खिलाफ बोलने के लिए लगा रखा है. अगर नीतीश कुमार नहीं संभले, तो महागठबंधन के लठबंधन बनने में देर नहीं लगेगी. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि जब नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ 17 साल पुराने रिश्ते को झटके में तोड़ डाला, तो लालू यादव को धोखा देने में उन्हें कितना समय लगेगा.

मिशन-2019: नीतीश का सपना

बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को धूल चटाने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पिछले 4-5 महीने से संघवाद और भाजपा के खिलाफ देशव्यापी मुहिम छेड़ने के लिए तमाम समाजवादियों और सियासी दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार में नरेंद्र मोदी को पटकनी देने के बाद अब नीतीश कुमार दिल्ली पहुंच कर मोदी से दोदो हाथ करने की तिकड़म में लग गए हैं. नरेंद्र मोदी के कद के बराबर खड़ा करने के लिए उन की पार्टी जद (यू) ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बना दिया है.

आम चुनाव में अभी ढाई साल की देरी है, पर नीतीश कुमार की सोच यही है कि बिहार विधानसभा में मिली करिश्माई जीत के जादू को वे आम लोकसभा चुनाव तक बरकरार रखें. उन्हें इस बात का एहसास है कि बिहार विधानसभा चुनाव उन के और मोदी के बीच ही लड़ा गया था और उस में उन्होंने प्रधानमंत्री को मात दी थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के सामने बौने नजर आए नीतीश कुमार ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपने कद को बड़ा साबित कर डाला था.

विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को मात देने के लिए नरेंद्र मोदी को खुद ही मैदान में उतरना पड़ा था, पर लोकसभा चुनाव में दिखा उन का जादू बिहार में नहीं चल पाया. 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में भाजपा को 53 सीटों पर समेट कर नीतीशलालू गठबंधन ने मोदी को धूल चटा कर आम चुनाव की हार का बदला लिया था.

अब नीतीश कुमार दिल्ली पहुंच कर नरेंद्र मोदी को उन के ही किले में घेर कर शिकस्त देने की कवायद में लग गए हैं. साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर अभी से ही उन्होंने अपनी निगाहें टिका दी हैं. सभी गैरभाजपाई दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश में उन्होंने एड़ीचोटी का जोर लगा दिया है. यही वजह है कि बिहार को छोड़ वे नैशनल मुद्दों पर बयान देने में लगे हुए हैं. शराबबंदी को वे नैशनल लैवल तक ले जाने की कवायद में लगे हुए हैं और इस के साथ ही महिला आरक्षण और स्टूडैंट्स क्रेडिट कार्ड जैसे मुद्दों को भी हवा देनी शुरू कर दी है.

नीतीश कुमार अपनी सरकार की अनदेखी कर अब भाजपा की पोलपट्टी खोलने में लग गए हैं और हर मंच से भाजपा विरोध की ही बात करने लगे हैं. वे चिल्लाचिल्ला कर कह रहे हैं कि भाजपा और संघ की आजादी की लड़ाई में कोई भी भूमिका नहीं रही है, इस के बाद वे राष्ट्रभक्ति का ढोल पीटते रहे हैं. भगवा झंडा फहराने वालों को तिरंगे से कभी भी कोई वास्ता नहीं रहा, आज वे लोग तिरंगे पर लैक्चर झाड़ रहे हैं.

साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने कई वादे और दावे किए थे, पर सारे हवा हो गए. न काला धन देश में आया और न ही लोगों के खाते में 15-15 लाख रुपए आए. किसानों को उचित समर्थन मूल्य भी नहीं मिला. बेरोजगारी खत्म करने के नाम पर केंद्र की सरकार को वोट मिले थे, पर क्या हुआ?

नीतीश कुमार के इस दांव ने भाजपा और संघ को बौखला दिया है. भाजपा नेता और राजग सरकार में नीतीश कैबिनेट में उपमुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि केंद्र और बिहार में भाजपा के साथ मिल कर 17 साल तक सत्ता की मलाई खाने वाले नीतीश कुमार के मुंह से भाजपा और संघ का विरोध उसी तरह है, जैसे कहा जाता है कि सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. वहीं जद (यू) के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह साफ लहजे में कहते हैं कि नीतीश कुमार की अगुआई में नैशनल लैवल पर गैरसंघवाद और गैरभाजपाई दलों का राजनीतिक मंच बनाने की मुहिम शुरू हो चुकी है.

‘यह मेरी जिंदगी है’ झूठ है

‘मेरी मरजी, मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मैं चाहे यहां जाऊं, मैं चाहे वहां जाऊं, मेरी मरजी…’ आज के टीनएजर्स हिंदी फिल्म के इस गीत से बहुत प्रेरित लगते हैं. उन का मानना है कि यह मेरी जिंदगी है, मैं चाहे जो मरजी करूं, किसी को उस से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. वे सोचते हैं कि उन की जिंदगी पर सिर्फ उन का ही हक है. वे जो कर रहे हैं या सोच रहे हैं सही है, लेकिन उन का यह मानना कि ‘यह मेरी जिंदगी है’ सही नहीं है, क्योंकि उन की इस बिंदास लाइफस्टाइल से उन के आसपास रहने वाले, नजदीकी रिश्तेदार व दोस्त भी प्रभावित होते हैं. सब से बड़ी बात यह है कि अपनी मरजी के अनुसार जिंदगी जीने से औरों के अलावा टीनएजर्स स्वयं नकारात्मक रूप से प्रभावित हो सकते हैं.

21 वर्षीय मोनाली की आदत है कि उस के मन में जो आता है वह सामने वाले को कह देती है. साथ ही वह यह भी कहती है, ‘भई, मैं तो साफ बोलती हूं, किसी को बुरा लगे तो लगे, मैं परवा नहीं करती.’

अपने इस स्वभाव के चलते वह किसी के परिधान, उस की व्यक्तिगत जिंदगी, उस की चालढाल पर भी कमैंट करने से नहीं चूकती. ऐसा करते समय वह एक बार भी नहीं सोचती कि अपने इस व्यवहार से वह कितने लोगों का दिल दुखाती है, कितने लोगों को आहत करती है. ऐसा करते समय वह सिर्फ यह सोचती है कि यह मेरी जिंदगी है, मैं जैसा चाहे व्यवहार करूं. लेकिन अपनी इस गलती का परिणाम भी उसे जल्द ही भुगतना पड़ा. लोगों ने उस से दूरी बनानी शुरू कर दी. इस तरह अपनी जिंदगी को ले कर उस के इस रवैए ने उसे सब से अलगथलग कर दिया.

आइए, जानते हैं कि अपनी जिंदगी को अपनी तरह से जीने वाले किशोर कौनकौन सी गलतियां करते हैं. उन के इस व्यवहार से वे खुद और अन्य लोग कैसे प्रभावित होते हैं :

लेटलतीफी

अपनी जिंदगी को सिर्फ अपना मान कर अगर आप समय से नहीं उठते, समय से औफिस या स्कूल नहीं जाते, दोस्तोंरिश्तेदारों से मिलने के लिए दिए गए समय से हमेशा लेट पहुंचते हैं, तो आप की यह लेटलतीफी आप को भारी पड़ेगी. अगर आप सोच रहे हैं कि यह मेरी जिंदगी है, मैं जब मरजी जाऊं, मुझे समय की क्या परवा, तो आप गलत सोच रहे हैं. आप को मालूम होगा कि समय किसी की परवा नहीं करता.

आज आप स्कूलकालेज जाने, दोस्तों से मिलने में लेटलतीफी दिखा रहे हैं, लेकिन इसी की वजह से न केवल आप के घर वाले व दोस्त परेशान हैं बल्कि आप की यह आदत आप को किसी दिन जिंदगी के महत्त्वपूर्ण निर्णयों में जैसे इंटरव्यू में लेट पहुंचने, परीक्षा हौल में देर से पहुंचने, सुबहसुबह ट्रेन पकड़ने में पीछे कर सकती है. इस तरह अपनी इस आदत के कारण जिंदगी की दौड़ में धीरेधीरे आप सब से पीछे हो जाएंगे.

आज भले ही आप को यह आदत जिंदगी अपनी मरजी से जीने का सुकून दे रही हो, लेकिन कुछ समय बाद आप को पछताने का मौका भी नहीं देगी. इसलिए ‘यह मेरी जिंदगी है’ मानना छोडि़ए और समय की कीमत समझिए वरना आप दूसरों को तो परेशान करेंगे ही खुद भी कम परेशान नहीं होंगे.

नियम मेरे लिए नहीं बने

जिंदगी में ‘यह मेरी जिंदगी है’ का फंडा अपनाने वाले टीनएजर्स मानते हैं कि नियम, कायदेकानून मेरे लिए नहीं बने, मुझे उन का पालन करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह मेरी जिंदगी है, मैं इसे अपने तरीके से जीऊंगा.

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या नियमकानून का पालन न कर के आप फायदे में रहेंगे? नहीं, ऐसा हरगिज नहीं है. एक सिंपल से उदाहरण से इस बात को समझते हैं. अगर आप नियमकानून नहीं मानते, तो सड़क पर भी ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करेंगे, क्योंकि आप तो अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीते हैं लेकिन आप का यह तरीका किसी दिन आप की जिंदगी पर भी भारी पड़ सकता है.

हो सकता है किसी दिन आप सड़क पर अपनी स्कूटी ले कर निकलें और अपनी आदतानुसार आप ने ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं किया. ऐसा ही कुछ आप के जैसा सामने वाला एक अन्य टीनएजर भी निकला, तो सोचिए इस का परिणाम कितना भयावह होगा यानी दोनों ही किसी अस्पताल के बैड पर भयानक चोट खाए, दर्द से तड़पते लेटे होंगे और परेशान होंगे आप के घर वाले.

इसी तरह आप घर, स्कूल, आसपड़ोस, सोसायटी के नियमों की अनदेखी करेंगे तो खुद ही नुकसान में रहेंगे. इसलिए समय रहते यह बात समझ जाइए कि आप की जिंदगी सिर्फ आप की नहीं है, आप की गलतियों से आप तो प्रभावित होंगे ही अन्य भी होंगे. समय पर उठना, स्कूल जाना, होमवर्क करना, पढ़ाई करना, पेरैंट्स के बनाए नियमों को मानना, ये सभी आप के फायदे के लिए हैं और इन्हें मानने में ही आप की भलाई है.

बड़ों की बात लैक्चर नहीं

‘बेटा पढ़ लो, ऐग्जाम नजदीक आ रहे हैं’, ‘इतनी रात को दोस्तों के साथ पार्टी अटैंड करना ठीक नहीं’, ‘पार्टी में ऐसे कपड़े पहन कर मत जाओ, कुछ और पहन लो’, ‘हैल्दी खाना खाया करो, जंक फूड तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा’, ‘हर समय मोबाइल पर न लगे रहा करो. इस से तुम्हारी पढ़ाई पर असर पड़ेगा.’ जैसी बातें हर किशोर को पेरैंट्स का लैक्चर लगती हैं और वह पलट कर कहता है, ‘यह मेरी जिंदगी है, मुझे पता है कैसे जीना है, आप मेरे काम में दखल न दें. मुझे अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने दें.’

उपरोक्त सभी मामलों में पेरैंट्स किशोरों को उन के भले के लिए सलाह देते हैं, क्योंकि किशोरों की जिंदगी सिर्फ उन की जिंदगी नहीं है. उन की जिंदगी से उन के पेरैंट्स भी जुड़े हैं. अगर किसी अभिभावक के बच्चे को कोई तकलीफ होती है तो मातापिता भी दुखी होते हैं वहीं अगर पेरैंट्स की बात मान कर बच्चे सफल होते हैं तो पेरैंट्स को खुशी होती है. इसलिए यह मेरी जिंदगी है सर्वथा गलत है और स्वार्थभरा रवैया है.

अगर आप पेरैंट्स की नसीहतें नहीं मानेंगे तो खुद तो मुसीबत में पड़ेंगे ही पेरैंट्स को भी दुखी करेंगे. उदाहरण के तौर पर अगर पेरैंट्स ने लेटनाइट पार्टी में शौर्ट ड्रैस पहन कर जाने से मना किया, लेकिन आप ‘यह मेरी जिंदगी है’ के फंडे को मानते हुए शौर्ट ड्रैस पहन कर पार्टी में चली गईं और वहां कुछ मनचले आप को सौफ्ट ड्रिंक में नशीला पदार्थ मिला कर देते हैं और जब आप होश खो देती हैं तो वे आप के साथ गलत व्यवहार करते हैं.

जब तक आप को होश आएगा, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और आप के पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा. तब आप को एहसास होगा कि आप ने अपने पेरैंट्स की बात न मान कर बहुत बड़ी गलती की. आप की इस एक गलती ने आप को तो मुसीबत में डाला ही, आप के परिवार व अपनों को भी दुखी किया.

इस तरह पेरैंट्स बच्चों की शिक्षा पर, उन की सुखसुविधाओं पर अपनी जिंदगी भर की कमाई खर्च देते हैं ताकि बच्चे भविष्य में सफल हो सकें. तो फिर आप ही सोचिए आप की जिंदगी सिर्फ आप की कैसी हुई? आप की जिंदगी पर आप से ज्यादा आप के अपनों का अधिकार है और अगर वे आप को आप की शिक्षा, कैरियर, खानपान, पहनावे को ले कर कोई सलाह देते हैं, तो इस में आप की ही भलाई है.            

शौहर ही बन गया ‘गब्बर’

मनोज ने बांहों में जोर से कस कर अपनी बीवी फूलकुमारी को जकड़ लिया और भाभी सविता देवी ने उस के जिस्म पर गरम सलाखों से मारना शुरू कर दिया. बीचबीच में मनोज का बड़ा भाई सरोज उसे उकसाता रहा. फूलकुमारी रोतीचिल्लाती, तो उसे फिल्म ‘शोले’ की हीरोइन बसंती की तरह नाचने के लिए कहा जाता. जब वह नाचने से इनकार करती, तो गरम सलाखों से दागा जाता. दर्द से तड़पती फूलकुमारी नाचने की कोशिश करती, पर गश खा कर जमीन पर गिर पड़ती थी. चेहरे पर पानी डाल कर उसे होश में लाया जाता और उस के बाद फिर से उसे नाचने का फरमान सुना दिया जाता. फिल्म ‘शोले’ के खतरनाक विलेन गब्बर सिंह की हैवानियत को भी फूलकुमारी के पति और ससुराल वालों ने मात दे दी थी.

फूलकुमारी के बेटी को जन्म देने के साथ ही परेशानियों का सिलसिला शुरू हो गया था और उस की शादीशुदा और पारिवारिक जिंदगी लगातार खराब होती गई थी. बेटी को जनने वाली फूलकुमारी पर उस के सास, ससुर, भैसुर, गोतनी और उस के पति का जोरजुल्म शुरू हो गया. फूलकुमारी और उस के मांबाप को परेशान करने के लिए मनोज ने यह रट लगानी शुरू कर दी कि उसे दहेज में मोटरसाइकिल नहीं मिली है. वह फूलकुमारी पर दबाव बनाने लगा कि वह अपने मांबाप से मोटरसाइकिल दिलाए, नहीं तो तलाक के लिए तैयार हो जाए. मनोज की इस कारिस्तानी में गांव का ही रामानंद केवट भी बढ़चढ़ कर मदद करने लगा. रामानंद केवट पर औरतों को सताने के पहले से कई मुकदमे दर्ज हैं. उस ने अपने बड़ी बहू को इस कदर तंग किया था कि उस ने फांसी लगा कर अपनी जिंदगी ही खत्म कर ली थी. वह छोटी बहू को भी डराधमका कर रखता है और कहीं बाहर आनेजाने भी नहीं देता है. फूलकुमारी देवी बताती है कि मनोज ने मायके वालों से फोन पर बात करने पर भी पाबंदी लगा दी. 4 जून, 2016 को उसे घर के एक कमरे में धकेल कर दरवाजा बंद कर दिया गया और सास मुन्नी देवी पहरेदार के रूप में बाहर डंडा ले कर बैठी रहती थीं.

24 मई, 2014 को बिहार की राजधानी पटना के दीघा थाने की बिंद टोली में काफी धूमधाम से मनोज और फूलकुमारी की शादी हुई थी. भोजपुर जिले के आरा शहर के रघु टोला में रहने वाले किसान रामदयाल केवट और मुन्नी देवी के बेटे मनोज के साथ फूलकुमारी आरा आ गई  इस बीच मनोज के बड़े भाई धनोज की बीवी रिंकू ने 6 मार्च, 2015 को बेटी को जन्म दिया. घर में खुशियां मनाई गईं और जम कर पार्टी हुई. उस के बाद जनवरी, 2016 को धनोज और रिंकू मुंबई चले गए. धनोज मुंबई में गरम मसाले का कारोबार करता है. उस के बाद मनोज और फूलकुमारी देवी के घर भी 27 अक्तूबर, 2015 को बेटी का जन्म हुआ. फूलकुमारी के बेटी होने के बाद पूरे घर में कुहराम मच गया. जब फूलकुमारी के पिता रवींद्र महतो को अपनी बेटी की दर्दभरी कहानी का पता चला, तो वे बेटी की ससुराल आरा पहुंचे. उन्हें बेटी से नहीं मिलने दिया गया और बेइज्जत कर के घर से भगा दिया गया.

उस के बाद रवींद्र महतो महिला थाने पहुंचे और इंचार्ज पूनम कुमारी से मिल कर पूरी घटना की जानकारी दी. रवींद्र ने जब एफआईआर दर्ज करने की गुजारिश की, तो थाना इंचार्ज ने उन से कहा कि आप लोग पटना के दीघा थाना इलाके में रहते हैं, इसलिए आरा में एफआईआर दर्ज करने से आप लोगों को बारबार पटना से आरा आनेजाने में काफी पैसा और समय बरबाद होगा. आरा के सभी मामले पटना में ही रैफर कर दिए जाते हैं, इसलिए दीघा थाने जा कर एफआईआर दर्ज कराएं, तो अच्छा रहेगा. थानाध्यक्ष पूनम कुमारी ने कहा कि दीघा थाने के थानाध्यक्ष के पास जा कर मामला दर्ज कराएं. पूनम कुमारी ने यह भी भरोसा दिलाया कि अगर दीघा थानाध्यक्ष मामला दर्ज नहीं करेंगे, तो उन से उन की बात करा देना. महिला थाने से निराशा हाथ लगने के बाद रवींद्र महतो पटना के दीघा थाने गए. वहां पर पुलिस वालों को बेटी के साथ हुए अत्याचार की कहानी सुनाई और एफआईआर दर्ज करने की गुहार लगाई. रवींद्र की बातों को सुनने के बाद पुलिस वालों ने साफतौर पर कहा कि यह मामला तो भोजपुर जिले के आरा शहर का है, इसलिए यहां तो किसी भी हालत में एफआईआर दर्ज नहीं होगी. आरा में जा कर ही मामला दर्ज कराएं.

इस के बाद फूलकुमारी के पिता रवींद्र महतो थाने में ही बैठ कर रोने लगे और बेटी को इंसाफ दिलाने की रट लगाने लगे. इस के बाद भी पुलिस वालों ने उन की मदद नहीं की. पटना पुलिस हैडक्वार्टर के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, 9 जून, 2016 को दोपहर में महिला थाने की थानाध्यक्ष पूनम कुमारी ने रिपोर्ट में कहा था कि घायल के परिजन खुद ही इंजरी रिपोर्ट और एफआईआर दर्ज नहीं कराना चाह रहे थे. उन का कहना था कि पटना में एफआईआर दर्ज करेंगे. इस से यह साफ हो जाता है कि महिला थानों में भी औरतों के मामले को ले कर किस कदर लापरवाही बरती जाती है.

राफेल के बहाने

नरेंद्र मोदी सरकार का मेक इन इंडिया लगातार बेमतलब सा दिख रहा है. देश की रक्षा के लिए सरकार ने फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू हवाईजहाजों को खरीदने का फैसला किया है. यानी हम अभी भी इस तरह के हवाईजहाज खुद नहीं बना सकते, चाहे कितने ही दावे कर लें. इस सौदे में 16 सौ करोड़ रुपए का एक हवाईजहाज होगा. 36 हवाईजहाजों से भारत जैसे देश का कुछ बनताबिगड़ता नहीं, यह पक्का है. हां, पाकिस्तान, जिसे हम अपना अकेला दुश्मन मानते हैं, उसी के मुकाबले के लड़ाकू हवाईजहाज खरीदेगा.

सवाल तो यह उठना चाहिए कि जब अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस अपनेआप ये हवाईजहाज बना सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? हम से तो अपनी रोज की जरूरत के मोबाइल भी नहीं बन रहे. हम चीन जैसे देश से 46.08 खरब रुपए का सामान खरीदते हैं और उसे बस 53 अरब रुपए का सामान बेच पाते हैं, जिस में ज्यादातर कच्चा माल है  राफेल जैसे हवाईजहाज खरीदने का फैसला नरेंद्र मोदी सरकार को करना पड़ा, यह और अफसोस की बात है क्योंकि उम्मीद थी कि 2014 की उन की जीत के बाद देश तेजी से आगे बढ़ेगा और हम एक गरीब देश के बिल्ले से छुटकारा पा जाएंगे. पर यहां तो हमें ताबड़तोड़ रक्षा के हथियार भी खरीदने पड़ रहे हैं और रोजमर्रा के लिए जरूरी मोबाइल भी. हमारे बाजार विदेशी नामों से भरे हैं. सड़कों पर विदेशी नामों वाली गाडि़यां दौड़ रही हैं. घरों में टैलीविजन, एयरकंडीशनर, कंप्यूटर, कपड़े, कैमरे सभी तो विदेशी तकनीक पर बने हैं. ऐसे में रक्षा के लिए भी यदि हर चीज विदेशी होगी, तो हम कहां से अपना सिर उठा सकेंगे. बच्चे पैदा करना ही हमारा अपना काम रह गया है. उस में भी दवाइयां अब विदेशी नामों की हैं. विदेशी मशीनों से अस्पताल भरे हैं. हम किस तरह के लोग हैं, जो अपना काम खुद नहीं कर पा रहे. मजेदार बात यह है कि इस तरह के सवाल पूछे जाएं, तो जवाब दिया जाता है कि 18वीं सदी का सामान इस्तेमाल करो. खादी पहनो, बैलगाड़ी पर चलो.

विदेशी लड़ाकू विमान, पनडुब्बियां, तोपें, राइफलें खरीदना जरूरी है, पर देश का माहौल तो ऐसा होना चाहिए न कि हर चीज हम बनाए ही नहीं, दूसरों को भरभर कर भेजें. अभी तो बस आदमी बाहर भेज पा रहे हैं, क्योंकि बच्चे बनाने में तेज हैं.

मत कहो, मुझे सब पता है

‘मुझे सब पता है,’ अकसर यह जुमला आप ने अपने घर में बच्चेबड़े सभी के मुंह से सुना होगा, लेकिन क्या आप को लगता है कि यह सही है? हो सकता है आप को वह बात न पता हो जो सामने वाला बताने जा रहा है. इसलिए जरूरी है कि हर बात में यह बोलने से पहले कि मुझे सब पता है एक बार सोच लें अन्यथा इस के नैगेटिव प्रभाव मन में मलाल पैदा करेंगे. क्या है ‘मुझे सब पता है’

ओवर कौन्फिडैंस : ऐसे लोगों को लगता है कि उन्हें सब पता है, किसी से कुछ जानने की उन्हें आवश्यकता ही नहीं है, लेकिन जब वे अपने इस ओवर कौन्फिडैंस के चलते बिना सोचेसमझे और बिना जाने कोई कदम उठाते हैं और नुकसान होने पर उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है तो उन्हें समझ आता है कि वाकई उन्हें इस बात की जानकारी सामने वाले से कम थी और उन के इसी ओवर कौन्फिडैंस के कारण बनता काम बिगड़ गया.

घमंड : ‘मैं किसी से क्यों सीखूं, मैं तो जीनियस हूं?’ सोचने वाले लोगों को अपनी अक्ल से ज्यादा अपने पैसे, रुतबे और शोहरत का घमंड होता है. उन्हें लगता है कि किसी से कुछ पूछना मतलब अपनी नाक कटवाना. अगर कुछ न भी पता हो तो भी उन्हें किसी और से पूछना अपनी तोहीन लगती है. ऐसे लोग मुंह पर भले बोल दें कि उन्हें सब पता है लेकिन चोरीछिपे उस बात के बारे में पूरी जानकारी हासिल करने को उत्सुक रहते हैं.

कुछ नया न सीखने की इच्छा रखना : हमेशा कुछ नया सीखना आगे बढ़ने के लिए अच्छा होता है लेकिन कुछ लोगों में यह आदत होती है कि वे हर नई चीज को जानने व सीखने से बचना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि गाड़ी चल तो रही है, फिर अपने दिमाग में एक चीज और डाल कर उसे कष्ट क्यों देना.

पुरातनवादी सोच होना : ऐसे लोग लकीर के फकीर होते हैं. वे अपनी घिसीपिटी, पुरानी परिपाटी पर चलते रहते हैं. जब उन्हें कोई नई बात बताई जाए तो वे कहते हैं कि यह तो हमें पता है और इस काम को जैसा हम करते आ रहे हैं वैसे ही ठीक है.

आलसी : कुछ स्टूडैंट इतने आलसी होते हैं कि उन्हें ढंग की या मतलब की बात बताओ तो भी वे सुनने की जहमत नहीं उठाते, क्योंकि उन का दिमाग तो टीवी, गर्लफ्रैंड या फिर कहीं और चल रहा होता है इसलिए सामने वाले की बात सुनने का उन के पास टाइम नहीं होता. जब उन्हें उस काम को करने की आवश्यकता पड़ती है तब समझ आता है कि काश सामने वाले की बात उस वक्त सुन ली होती, तो अब परेशानी न होती. इन्हें लापरवाह भी कह सकते हैं.

बड़बोला होना :  इन्हें पतावता कुछ होता नहीं, लेकिन प्रैजेंट ऐसे करते हैं जैसे दुनिया भर की खबर इन के पास ही है. बातें बनाने में नंबर वन होते हैं. हर चीज के लिए कह देते हैं कि इस में क्या है यह तो मुझे पता है, यह तो बहुत आसान है, लेकिन करने के नाम पर इन के पसीने छूटने लगते हैं, क्योंकि काम करना तो दूर उस की एबीसीडी तक इन्हें पता नहीं होती.

नुकसान

लोग आप से कटने लगेंगे : अगर आप खुद को ज्यादा स्मार्ट समझते हैं और आप को लगता है कि आप को सब पता है, किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है, तो लोग आप से बात करने में हिचकिचाने लगेंगे, आप से कटने लगेंगे, क्योंकि उन्हें लगेगा कि आप को सब पता है तो कुछ बताने की जरूरत ही नहीं है. ऐसे में आप को न तो कोई नई बात पता चलेगी और न ही कोई नेक सलाह मिलेगी. इस में नुकसान आप का ही होगा.

आप को बदतमीज समझेंगे : अकसर बड़े लोगों को लगता है कि छोटे उन के द्वारा बताई जाने वाली हर बात को सुनें, क्योंकि उन्हें जिंदगी का ज्यादा अनुभव है और अगर वे कुछ बता रहे हैं तो सोचसमझ कर भले के लिए ही बता रहे हैं, लेकिन जब वह बात नहीं सुनी जाती या फिर उसे इग्नोर किया जाता है तो बड़ों को अपना अपमान लगता है और वे बच्चे को बदतमीज समझते हैं. इसलिए अगर आप नहीं चाहते कि लोग आप को बदतमीज समझें तो उन की बात को सुनें. वैसे भी वह है तो आप के भले के लिए ही. अगर अच्छी लगी तो अपना लें वरना एक कान से सुनें और दूसरे से निकाल दें.

अपना मजाक खुद उड़वाएंगे इसलिए मजाक का पात्र न बनें : किसी के कुछ बताने पर आप का यह कहना कि मुझे सब पता है जैसे कि अगर आप को कोई एड्रैस, जहां आप को पहुंचना है, की लोकेशन बताना चाहे और आप तुरंत कह दें कि मुझे पता है, वह एरिया, मेरा देखाभाला है, तो सामने वाला आप का जवाब सुन कर चुप हो जाएगा, लेकिन जब आप उस जगह पहुंचेंगे और आप को वहां सारी बिल्डिंगें एक सी लगेंगी और कोई लैंडमार्क नहीं होने की वजह से आप रास्ता भटकेंगे तो पछताएंगे कि पहले रास्ता समझ लिया होता तो कितना अच्छा होता. ऐसे में जब आप दोबारा उस से फोन कर के लोकेशन के बारे में पूछेंगे तो उस की नजरों में गिर जाएंगे और मजाक का पात्र बनेंगे. सामने वाला मजाक बनाता हुआ कह सकता है, ‘भाई, अब क्यों पूछ रहा है, तुझे तो सब पता है?’

बात के मालूम न होने पर जब गलती होगी तो लोगों के ताने सुनने को मिलेंगे : बात के मालूम न होने पर जब बात बिगड़ जाएगी तो घर वालों, दोस्तों और रिश्तेदारों को आप की उस नादानी पर गुस्सा आना स्वाभाविक है, क्योंकि समय रहते आप ने उस बात को महत्त्व नहीं दिया और उस गलती का खमियाजा सब को भुगतना पड़ता है.

एक अच्छी और नई बात सीखने से अनभिज्ञ रह जाएंगे : कुछ बातें ऐसी होती हैं कि जिस वक्त हमें कोई बता रहा होता है उस वक्त तो हमारे लिए उन बातों का कोई महत्त्व नहीं होता, लेकिन कुछ समय बीतने पर जब उन से संबंधित कोई अन्य घटना या बात हमारे सामने आती है तो हमें एहसास होता है कि काश हम ने उस समय ध्यान से उस की बात सुनी होती, तो आज ऐसी स्थिति उत्पन्न न होती.

क्या करें

बात को काटें नहीं सुनें : किसी भी दूसरे व्यक्ति की बात बीच में ही काटने से पहले एक बार पूरी बात अवश्य सुन लें, हो सकता है वह आप को कुछ ऐसी बात बता रहा हो जो आप को न पता हो या उस के बारे में आप को आधीअधूरी जानकारी हो. ऐसा करने से फायदा आप को ही होगा.

शालीनता का परिचय दें बदतमीजी का नहीं : अगर कोई बड़ा कोई बात बताने की कोशिश कर रहा है तो उस की बात ध्यान से सुनें, फिर चाहे वह बात आप को पता ही क्यों न हो. जब उन की बात खत्म हो जाए तब आप आराम से उन्हें वह बताएं जो आप को पता था और उस बारे में डिस्कस करें.

मुंहफट न बनें : मुंहफट न बनें, बल्कि अगर किसी बात के लिए इनकार भी करना है तो उसे समझाते हुए और उस बात को न माने जाने की वजह बताते हुए बातचीत को आगे बढ़ाएं न कि एकदम मुंह पर साफ मना कर दें.

समझें, फिर रिऐक्ट करें : सामने वाला जो कह रहा है उस बात को समझें, फिर रिऐक्ट करें. हो सकता है वह बात आप के भले की ही हो.

जानकारी हासिल करें : अगर आप को कोई बात नहीं पता है, तो निसंकोच अपने किसी परिचित से उस के बारे में जानकारी हासिल करें. ऐसा कर के आप उस की नजरों में और भी अच्छे बन जाएंगे कि आप को कोई बात पूछने में किसी से कोई भी ईगो नहीं है.

खुद को अपडेट रखें : उस वक्त वह बात ध्यान से सुन ली होती तो इतनी परेशानी न होती. हमेशा खुद को अपडेट करते रहना चाहिए. नई बातें और जानकारी हासिल करते रहना ज्ञान में वृद्धि करता है. ऐसा कर के आप समय के साथ चल पाते हैं और लोगों के बीच बैठ कर किसी भी नए टौपिक पर बात कर सकते हैं, क्योंकि आप के पास लोगों की अपेक्षा अधिक जानकारी होगी.                                       

‘मुझे सब पता है,’ न कहने के फायदे

–       सुनने की क्षमता विकसित होती है. सिर्फ अच्छे वक्ता ही नहीं बल्कि अच्छे श्रोता भी कहलाते हैं.

–       इस में नुकसान तो कोई नहीं. अलबत्ता कोई काम की ही बात पता चल जाती है.

–       लोगों की नजरों में एक अच्छी इमेज बनती है कि आप सीरियस हैं और हर बात को ध्यान से सुनते हैं.

–       इधरउधर से बातें ध्यान से सुनने के कारण नौलेज ज्यादा हो जाती है, जो कभी न कभी काम आ ही जाती है.

–       हर वह बात जो अन्य लेगों को देर से पता चलती है, आप को सब से पहले पता चलेगी.

सोन दियारा: एके-47 की गूंज और खून के छींटे

बिहार में सोन नदी के दियारा इलाके में बालू माफिया की करतूत देख कर साफ हो जाता है कि उसे पुलिस का कोई खौफ ही नहीं है. दियारा के आसपास के इलाकों के लोग फौजी और सिपाही नाम से मशहूर 2 गिरोहों का साथ देते हैं. मनेर के दियारा इलाके की एक बड़ी खासीयत यह है कि वहां के तकरीबन हर घर में एक फौजी है. फौज में रहने के दौरान उन की पोस्टिंग जब जम्मू व कश्मीर में होती है, तो वे वहां अपने नाम से राइफल या बंदूक का लाइसैंस जारी करा लेते हैं और दियारा इलाके में बालू के गैरकानूनी खनन में लगे अपराधी गिरोहों को ढाईतीन हजार रुपए के मासिक किराए पर दे देते हैं.

बालू निकालने के लिए जिन जेसीबी और पोकलेन मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे लोकल बाहुबलियों की होती हैं. एक मशीन की कीमत 40 लाख से 50 लाख रुपए होती है और उसे खरीदना आम आदमी के बूते की बात नहीं है. सोन नदी से गैरकानूनी रूप से बालू निकालने और उस से करोड़ों रुपए की कमाई करने वाले शंकर दयाल सिंह उर्फ फौजी और उमाशंकर सिंह उर्फ सिपाही को पटना, भोजपुर और सारण जिलों की पुलिस पिछले कई सालों से ढूंढ़ रही है, पर उन पर हाथ नहीं डाल सकी है.

मूल रूप से कैमूर जिले के रहने वाले फौजी पर दर्जनों हत्याओं और पुलिस पर गोलियां चलाने का आरोप है. सिपाही गिरोह का सरगना मनेर थाने की सूअरमरवा भरवा पंचायत का मुखिया है. इन दोनों के बीच बालू घाट पर कब्जा जमाने को ले कर अकसर खूनी भिड़ंत होती रहती है. 30 और 31 जुलाई, 2016 को इन दोनों गुटों के बीच अंधाधुंध फायरिंग से सोन का दियारा का इलाका थर्रा उठा था. फायरिंग में कोइलवर के प्रमोद पांडे की मौत हो गई थी और दोनों ओर के दर्जनों लोग घायल हो गए थे. प्रमोद फौजी गिरोह का सदस्य था. 30 मार्च, 2014 को पुलिस ने फौजी को उस के 9 गुरगों के साथ पकड़ा था. उस के पास से बड़े पैमाने पर देशी और विदेशी हथियारों का जखीरा बरामद किया गया था, लेकिन जेल से छूटने के बाद वह फिर से बालू खनन के गैरकानूनी काम में लग गया.

दियारा के जिस इलाके को ले कर खूनी जंग छिड़ी हुई है, उस जमीन के बारे में सरकार और प्रशासन के बीच ही विवाद का माहौल बना हुआ है. 2 अगस्त, 2016 को पटना और भोजुपर जिले के एसपी और 3 ब्लौकों के सर्किल अफसरों की बैठक में जमीन को ले कर बातचीत हुई. पटना और भोजपुर को जोड़ने वाले महुई हाल का इलाका साल 1920 के सर्वे के हिसाब से पटना को मिल गया था. साल 1972 में हुए सर्वे के मुताबिक उसे भोजपुर का हिस्सा करार दिया गया, लेकिन आज तक उसे मंजूरी नहीं मिल सकी. इस लिहाज से उसे पटना का ही इलाका बताया जा रहा है. बिहटा और आनंदपुर गांव के किसान भी इस सरकारी हेरफेर से उलझन में हैं. किसानों की जमीन की रसीद पटना जिले से ही कट रही है.

फौजी ने इन्हीं किसानों से बालू निकालने का एग्रीमैंट कर रखा है. सिपाही गुट जबतब इस एग्रीमैंट का विरोध कर अपना कब्जा जमाना चाहता है, जिस से गोलीबारी होती है. सिपाही गिरोह का कहना है कि यह जमीन सरकार की है. बालू वाली जमीन ठेके पर लेने के बाद सरगना वहां से बालू निकालने के लिए पोकलेन मशीन और नावों का इंतजाम कराता है. गौरतलब है कि सड़क रास्ते से बालू ढोने वाली गाडि़यों का चालान काटा जाता है, पर नदी रास्ते से जाने वाली नावें बंदूक के जोर पर ही चलती हैं. महुई महाल से बालू निकाल कर माफिया वाले उसे नाव के जरीए छपरा ले जाते हैं और बेच देते हैं. दियारा इलाके के काफी दूर होने की वजह से अपराधी गिरोह जम कर चांदी काटते हैं. वहां पुलिस और प्रशासन के अफसरों का पहुंचना काफी मुश्किल है. इस का फायदा उठाते हुए फौजी और सिपाही गिरोह ने अपनीअपनी चैकपोस्ट भी बना रखी हैं और उस रास्ते से गुजरने वाली नावों से टैक्स वसूलते हैं.

पटना के एसएसपी मनु महाराज ने सोन नदी में नाव चलाने पर रोक लगा दी थी, इस के बाद भी बालू माफिया नाव चला रहे हैं और बालू को निकालने में लगे हैं. दिनरात सैकड़ों नावें बालू ढोने में लगी हैं. नाविकों का कहना है कि उन के पास रोजीरोटी का दूसरा कोई जरीया नहीं है. सरकार पहले किसी दूसरे रोजगार का इंतजाम करे, उस के बाद ही नाव चलाने और बालू ढोने पर रोक लगाए. गौरतलब है कि नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मनेर के पास सोन नदी के दियारा इलाकों के चौरासी, रामपुर और सूअरमरवा में बालू निकालने की मंजूरी नहीं दी है. उस के बाद भी गैरकानूनी तरीके से बालू की निकासी जारी है.  सोन नदी में रोज 2 हजार से ज्यादा नावें बालू ढोती हैं. एक नाव पर 8 से 10 आदमी काम करते हैं. मनेर के पास सोन नदी से उठाई गई बालू को डपरा के डोरीगंज, मांझी, पहलेजा, सिंगही, झौवाढाला वगैरह घाटों पर उतारा जाता है. लोकल ठेकेदार उस बालू को खरीद कर जमा करते हैं. उस के बाद बालू को उत्तरपश्चिमी बिहार के अलगअलग जिलों में ऊंची कीमतों पर बेचा जाता है.

पुलिस सूत्र बताते हैं कि गैरकानूनी रूप से बालू खनन करने वाले माफिया की पहुंच पुलिस और सरकार के आला अफसरों तक है, जिस की वजह से उन लोगों के खिलाफ कोई कड़ी कार्यवाही नहीं हो पाती है. सोन नदी से बालू निकालने की खबर मिलने के बाद 4 अगस्त, 2016 को पुलिस दियारा इलाके में दलबल के साथ पहुंच तो गई, पर किसी तरह की कार्यवाही नहीं कर सकी और न ही नावों को जब्त कर सकी. पुलिस टीम में कोई ऐसा नहीं था, जिसे नाव का इंजन स्टार्ट करना आता हो. पुलिस को देखते ही बालू मजदूर नावों को छोड़ कर नदी में कूद गए. पुलिस उन्हें ढूंढ़ती रह गई, पर एक भी मजदूर हाथ नहीं आ सका

पिछले दिनों हुई खूनी भिड़ंत के बाद पुलिस ने दियारा के आसपास के इलाकों में ताबड़तोड़ छापामारी की और फौजी के एक भाई कृष्ण सिंह और उस के 2 बेटों अभिमन्यु सिंह और नीरज सिंह को दबोच लिया. साथ ही, फौजी के 3 गुरगों अनिल कुमार, रामबाबू राय और शशि कुमार को भी गिरफ्तार कर लिया. उन के पास से पुलिस ने 3 पिस्तौल और 7 जिंदा कारतूस बरामद किए. तीनों को भोजपुर और मनेर से पकड़ा गया था. फौजी के भाई और बेटों ने पुलिस को बयान दिया कि उस के भाई और पिता क्या काम करते हैं, उन्हें कुछ भी पता नहीं है. पुलिस ने 24 पोकलेन मशीनों और 4 नावों को भी कब्जे में ले लिया है. एसएसपी मनु महाराज का दावा है कि सोन के दियारा इलाकों में हर हाल में गैरकानूनी बालू का खनन रोका जाएगा. इस के लिए पटना, भोजपुर और सारण की पुलिस मिल कर घाटों की निगरानी करेगी. यहां पुलिस बल तैनात किए जाएंगे. दियारा इलाके में पुलिस के पहुंचने में काफी समय लग जाता है, इसलिए वहां स्थायी रूप से पुलिस बलों की तैनाती जरूरी है.

महत्त्वपूर्ण है सार्वजनिक शिष्टाचार

विनम्रता, सद्भावना और प्यार से परिपूर्ण व्यवहार जो दूसरों पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है, को ही शिष्टाचार कहते हैं. हमें समाज में सभ्यता और सम्मान से रहना चाहिए. शिष्टाचार के नियमों का पालन हमें खुद भी सख्ती से करना चाहिए और अपने बच्चों को भी मैनर्स सिखाते रहना चाहिए. जब बात सार्वजनिक स्थानों पर शिष्टाचार की हो तो मैनर्स की हमें ज्यादा परवा नहीं रहती, इस से साफ जाहिर है कि शिष्टाचार पर हमारा सारा फोकस घर और जानपहचान वालों तक ही सीमित है. जिस समाज और देश में हम रहते हैं क्या उस के प्रति हमारी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं हैं? जिन रास्तों से हम रोज गुजरते हैं, जिन सार्वजनिक स्थानों पर हम सैरसपाटे के लिए जाते हैं, जो सार्वजनिक वाहन हमें अपने गंतव्य तक पहुंचाते हैं क्या उन्हें साफसुथरा रखना हमारा नैतिक दायित्व नहीं बनता?

कैसे डैवलप करें शिष्टाचार

आजकल बच्चों को शिष्टाचार और संस्कार सिखाने के लिए बहुत से कार्यक्रम चलाए जाते हैं. इन की आवश्यकता उन घरों में ज्यादा है, जहां बच्चों की परवरिश मेड या नौकरों द्वारा होती है. आजकल अधिकांश घरों में पेरैंट्स के पास बच्चों के साथ बैठने का वक्त ही नहीं होता. पुराने समय में घरों में बड़ेबुजुर्गों और मांबाप के संरक्षण में पैदा होते ही बच्चों की पाठशालाकार्यशाला शुरू हो जाती थी. दरअसल, बड़ों के अनुशासन में बच्चे शिष्टाचार में निपुणता हासिल करते हैं, इसीलिए संस्कारी घरों में बच्चों के थोड़ा समझदार होते ही बड़े भी अपने व्यवहार को बदलना शुरू कर देते हैं, ताकि बच्चा शिष्ट बने, जोकि एक बेहद अच्छी सोच है. अपनी कमियों पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है. आजकल के बच्चे काफी समझदार व स्मार्ट हैं. वे अकसर अभिभावकों से सवाल पूछते हैं कि जो काम आप खुद करते हैं, तो फिर हमें उसे करने से क्यों रोकते हैं?

प्रश्न उठता है कि किशोर शिष्टाचार को कैसे अपनी लाइफ का हिस्सा बनाएं? इस के लिए एक शिष्ट इंसान का छद्म मुखौटा लगा लेना काफी नहीं है. समाज में यदि सचमुच अपनी इमेज एक सभ्य व्यक्ति की बनानी है, तो शिष्टाचार को गहराई से जीवन में अपनाना होगा. इस के लिए अपने ऊपर कंट्रोल की जरूरत होती है. विनम्रता और सद्भाव शिष्टाचार की प्रथम सीढ़ी हैं, फिर धीरेधीरे अनुशासन और अभ्यास से शिष्ट आचरण को जीवन में ढालना ज्यादा मुश्किल नहीं है. कई बार किशोर जानते हैं कि हमारा व्यवहार ठीक नहीं है फिर भी वैसा ही व्यवहार रखते हैं. गलती बारबार रिपीट करना अशिष्टता है.

घर बाहर की दुनिया और शिष्टाचार

घर और बाहर के समाज में जमीनआसमान का फर्क होता है, उदाहरण के लिए घर की स्वच्छता का तो हम बहुत ध्यान रखते हैं, लेकिन सड़क या किसी सार्वजनिक स्थान पर कौन सफाई करता है? लेकिन कम से कम हम उसे और गंदा करने से तो बचा ही सकते हैं.

आइए, सीखें कुछ सामान्य शिष्टाचार, जिन्हें सार्वजनिक स्थानों पर जाते समय ध्यान में रखना चाहिए :

–       जब भी कहीं बाहर अपने या सार्वजनिक वाहन से जाएं तो ध्यान रखें खानेपीने की चीजों के खाली पैकेट व फलों के छिलके सड़क पर न फेंकें, इस के लिए घर से खाली पौलिथीन साथ ले कर चलें.

–       रास्ते या दीवार पर थूकना, भद्दे कमैंट्स लिखना, पान की पीक जहांतहां फेंकना ठीक नहीं है. खाली बोतल या किसी तरह का अन्य बेकार सामान डस्टबिन में ही डालें.

–       सार्वजनिक स्थल पर मित्रों के साथ धीमी आवाज में बात करें, गाली व अभद्र भाषा का प्रयोग कतई न करें. पेड़पौधों व सजावटी वस्तुओं को नुकसान न पहुंचाएं.

–       रास्ते में पड़ा सामान जैसे पत्थर आदि किसी दुर्घटना का कारण बन सकते हैं, इसे एक तरफ हटा दें.

– भीड़भाड़ वाली जगहों पर ट्रेन, मैट्रो व बस आदि में चढ़तेउतरते समय धक्कामुक्की न करें, विकलांगों, महिलाओं और बच्चों को प्राथमिकता दें.

–       सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान व नशा न करें.

–       सार्वजनिक सभा या लोगों के बीच किसी से इशारे या कानाफूसी न करें, उसी भाषा का प्रयोग करें जिसे सभी लोग समझ सकें. तीखी आवाज में बोलना, छींकना, खांसना, ठहाके लगा कर हंसना अशिष्टता है, इन से बचें.

–       किसी सार्वजनिक शोक सभा में प्रसंग से हट कर बातें शुरू

करना, दुखी व्यक्ति की बात न सुनना, अशिष्टता ही नहीं अमानवीयता भी है.

–       अस्पताल में बीमार व्यक्ति के साथ कम शब्दों में बात कर उसे जल्दी ठीक होने का आश्वासन दें, निराशाजनक बातें न करें.

–       सार्वजनिक स्थलों पर खासतौर से भीड़भाड़ वाली जगहों पर ड्राइव करते समय ट्रैफिक नियमों का पालन अवश्य करें. अपना फोन साइलैंट रखें. यदि ज्यादा आवश्यक हो तो मैसेज से या वाहन एक तरफ रोक कर संक्षिप्त बात करें. आजकल महानगरों में पार्किंग को ले कर काफी दुर्घटनाएं होने लगी हैं इसलिए किसी भी कंट्रोवर्सी से बचने के लिए पार्किंग स्थल पर ही गाड़ी पार्क करें.

–       स्मार्टफोन पर हर समय चिपके रहना आज किशोरों का शौक बन गया है. अकसर ऐसे समय में साथ वाले व्यक्ति

की उपेक्षा होती है. जरूरी बातों के बीच फोन को साइलैंट रखें.

–       किसी भी समारोह में खानेपीने संबंधी शिष्टाचार के लिए

अपनी प्लेट में जरूरत भर का खाना परोसें. अपने साथ आए लोगों को भी विनम्रता से खाना ला कर दें.

–       पिक्चर हौल में जोरजोर से बातें करना, किसी दृश्य पर चीख कर कमैंट्स करना या पिक्चर की कहानी पहले बता कर सारा सस्पैंस खत्म कर देना अशिष्टता है, इस से दूसरे दर्शकों को बुरा लग सकता है और उन के मनोरंजन का सारा मजा किरकिरा हो सकता है. पिक्चर हौल में गर्लफ्रैंड के साथ अश्लील हरकतें करना शिष्टाचार के खिलाफ है.

अत: जीवन में हर जगह शिष्टाचार की आवश्यकता होती है. व्यक्ति में कोई खास योग्यता या आकर्षण न भी हो, फिर भी वह शिष्टाचार के माध्यम से दूसरे के हृदय में अपने लिए सम्मान और एक विशिष्ट स्थान बना सकता है. मन की शांति और समाज में सद्भाव बनाए रखने के लिए भी हमारा शिष्ट होना बेहद जरूरी है.

आजकल हमारे समाज में अशिष्टता का माहौल बड़ी तेजी से फैल रहा है. अपनेआप में सीमित होते लोगों के बीच स्वार्थ और अमानवीयता ज्यादा बढ़ रही है, जो देश, समाज और खुद हमारी न्यू जनरेशन के लिए बहुत घातक है. आज उच्चशिक्षित लोग भी कृत्रिम शिष्टाचार को निभाते दिखते हैं. शिक्षा का उद्देश्य किशोरों को समाज के लिए सभ्य इंसान बनाना है. किशोरों को यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि अफसर बनना, अमीर बनना, महंगी गाडि़यों में घूमना या करोड़ों के सुविधाजनक घरों में रहना ही जीवन नहीं है. इन सभी के नशे में शिष्टाचार न भूलें. जीवन में और भी बातों के साथ अपनी सभ्यता, संयम, विनयशीलता, सभी के साथ आदरपूर्ण व्यवहार भी बहुत ही जरूरी है.                       

मैं 2 साल पहले रिलेशन में थी. पर वह लड़का आज भी मुझे दिमाग से नहीं निकाल पा रहा. क्या करूं.

सवाल

मैं 17 वर्षीय लड़की हूं. 2 साल पहले मैं एक लड़के के साथ रिलेशन में थी. मैं आज भी उसे मैसेज करती हूं, पर वह मुझे दिमाग से नहीं निकाल पा रहा. मैं क्या करूं?

जवाब

आप अपनी तरफ से ही श्योर नहीं हैं कि आप उस से आज भी रिश्ता रखे हुए हैं कि नहीं. यदि आप के मन में उस के प्रति हमदर्दी नहीं है तो यह सोचना छोड़ दें कि वह आप को दिमाग से नहीं निकाल पा रहा, और अगर आप अब भी उस की वैलविशर हैं तो उसे समझाइए कि वर्तमान में जीना सीखे और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. आप उस से अच्छी दोस्ती रख कर भी ये सब कर सकती हैं.

17 साल की उम्र वह अवस्था है जहां विचार बदलते रहते हैं. आज कोई अच्छा लगता है तो कल कोई. आकर्षण के इस भंवर में खो कर ही वह आप को दिमाग से नहीं निकाल पा रहा है.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें