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कंप्यूटर पर काम करने के बाद अकसर गरदन का दर्द तेज हो जाता है. क्या इस से छुटकारा पाने का कोई इलाज है.

सवाल

मेरी उम्र 35 वर्ष है. मुझे पूरा सप्ताह कंप्यूटर पर काम करने के बाद अकसर खासकर शुक्रवार की शाम से गरदन का दर्द तेज हो जाता है. क्या इस से छुटकारा पाने का कोई इलाज है?

जवाब

कंप्यूटर पर ज्यादा देर तक काम करने से पीठ, गरदन और कंधों का दर्द होने लगता है. आप दर्द से 3 तरीकों से निबट सकते हैं- बैठने की मुद्रा सुधार कर, ऐडजस्टेबल फर्नीचर का इस्तेमाल कर और कंप्यूटर के अति इस्तेमाल को कम करने वाली कुछ रोजाना की आदतें अपना कर.

सब से पहले अपनी कुरसी को इस तरह ऐडजस्ट करें कि आप के पांव जमीन से सटे रहें और आप की जांघें जमीन के समांतर रहें.

आप के घुटने और कूल्हे समान लैवल में होने चाहिए या फिर घुटने आप के कूल्हों से थोड़ा ऊपर. जरूरत पड़े तो फुटस्टूल का इस्तेमाल करें या कुरसी की ऊंचाई ऐडजस्ट कर लें. इसी तरह आप की कुहनियां भी 90 डिग्री के कोण पर होनी चाहिए ताकि आप को कंधे न झुकाने पड़ें.

कुहनियों और कलाइयों को टेबल पर सपोर्ट मिलना चाहिए. कीबोर्ड को थोड़ा तिरछा रखने से जोड़ों पर बेवजह दबाव कम होगा.

गरदन झुकाने से बचने के लिए आप की स्क्रीन आप की आंखों के ठीक सामने होनी चाहिए. हर घंटे बाद ब्रेक लेते रहें या आसपास टहलें. कंधों और गरदन को घुमाने वाले कुछ व्यायाम कर लें. यदि फिर भी समस्या बनी रहे तो डाक्टर से संपर्क करें.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

आखिर क्यों गुस्से में हैं कंगना रनौत

लेखक चेतन भगत की बुक ‘वन इंडियन गर्ल’ के विमोचन के अवसर पर अभिनेत्री कंगना रनौत ने बताया कि इस बुक को पढ़कर उन्हें अपने जीवन की कई बाते याद आई. एक जगह तो पढ़ते हुए उनकी आंखों में आंसू तक आ गए. उन्हें कई बार यह ‘फेस’ करना पड़ा कि वह एक लड़की हैं और उन्हें पूरी आजादी नहीं है. यह बुक ‘फेमिनिज्म’ को दर्शाती है और इसे एक लड़की के नजरिये से लिखा गया है.

अपने और ऋतिक रोशन को लेकर कंट्रोवर्सी के बारे में उनका कहना है कि मुझे उन पिता से ख़ास नाराज़गी है जो अपने बेटे को पीछे रख, खुद कुछ न कुछ कहने के लिए आगे आते हैं. उन्हें कब तक छुपाओगे, कब तक उन्हें शरण दिया जायेगा. जो कुछ कहना है वह व्यक्ति सामने आकर कहे, मैं उसका उत्तर देने के लिए तैयार हूं.

शिमोन पेरेज: शांति का मसीहा

इजरायल और फलस्तीन की जंग की तरह महज चंद लड़ाइयां पीढ़ियों तक चलती हैं. दुख की बात यह है कि इन दोनों देशों के बीच के संघर्ष के खत्म होने की कोई उम्मीद नहीं दिखती. लेकिन शिमोन पेरेज कुछ और ही सोचते थे. इजरायल के पूर्व राष्ट्रपति शिमोन पेरेज 1993 के ओस्लो समझौते के मुख्य शिल्पकार थे. वह करार हालांकि नाकाम रहा, मगर नोबेल शांति पुरस्कार विजेता पेरेज उत्तरी आयरलैंड जैसे संघर्षों का अक्सर हवाला देते थे, जिन्हें दूसरे पक्ष की गरिमा और उसके हितों का ख्याल रखकर शांत किया जा सका.

28 सितंबर को अपनी मौत के तीन साल पहले पेरेज कोलंबिया के राष्ट्रपति जे एम सांतोस से यह सीखने के लिए मिले थे कि आखिर किस तरह कोलंबिया ने आधी सदी पुरानी घरेलू जंग के खात्मे की राह निकाली? हालांकि कोलंबिया का शांति समझौता, जिसका मकसद विचारधारा को लेकर छिड़ी घरेलू जंग को खत्म करना था, कोई ऐसा आदर्श करार नहीं था, जिससे इजरायल और फलस्तीन को कोई बड़ी मदद मिलती, क्योंकि उनके टकराव की जड़ें मजहब, नस्ल और ऐतिहासिक अन्याय से जुड़ी हैं. फिर भी, कोलंबियाई प्रयासों से एक सबक तो सीखा ही जा सकता है कि अंतहीन सी दिखती हिंसा से उपजी निराशा की दीवार को सबसे पहले तोड़ना चाहिए.

पेरेज को इस बात के लिए याद किया जाएगा कि वह शांति के लिए दुश्मन को संभावित साथी के तौर पर देखने की संभावनाएं लगातार तलाशते रहे. उनका मानना था कि इजरायल को शांति की स्थापना के लिए जमीन का लेनदेन करना पड़ेगा और एक संतुष्ट फलस्तीन मुल्क को भी स्वीकार करना होगा.

यह ‘दो देश वाला समाधान’ अभी दूर दिखता है. फिर भी, ओस्लो समझौते का तर्क प्रासंगिक है- इजरायल की दीर्घकालिक सुरक्षा पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण संबंधों पर निर्भर है, जैसा कि उसने मिस्र और जॉर्डन के साथ पुरअमन रिश्ता कायम भी किया है. मध्य-पूर्व में उसकी सैन्य श्रेष्ठता हमेशा यूं ही नहीं बनी रह सकती और परमाणु हथियारों से अधिक मजबूत सुरक्षा दीवार व युद्ध निवारक शांतिपूर्ण संबंध होते हैं. अनेक इजरायलियों व फलस्तीनियों के लिए शिमोन पेरेज शांति की यही विरासत सौंप गए हैं.

डिबेट की गरिमा का ध्यान रखें नेता

‘डिबेट’ वह मौका होता है, जिसमें उम्मीदवार तमाम मुद्दों पर अपनी बात रखते हैं, मॉडरेटर्स इसे संचालित करते हैं, समय-सीमा का पूरा ध्यान रखा जाता है, खुद को साबित करने के लिए वाकपटुता, तर्क, हाजिर-जवाबी, आरोपों व प्रत्यारोपों का सहारा लिया जाता है और फिर अंत में ‘विजेता’ की घोषणा की जाती है. मगर जब एक उम्मीदवार गंभीर हो और दूसरा सतही, तो ‘डिबेट’ अपनी गरिमा खो देती है.

हाल ही में डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन के बीच हुई बहस किसी तमाशा से कम न थी. मंच पर आक्रामक तरीके से अकॉर्डियन (वाद्य यंत्र) बजाने की शैली में अपने हाथों को घुमाते हुए ट्रंप ने रोजगार, आतंकवाद, नाफ्टा (उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता), चीन-नीति जैसे मुद्दों पर डेमोक्रेटिक पार्टी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया. मगर ‘डिबेट’ के परवान चढ़ते ही वह अपने विपक्षी उम्मीदवार के सामने बगलें झांकते दिखे, जो उनसे अपेक्षाकृत अधिक संतुलित और प्राइमरी में अब तक ट्रंप के सामने आए तमाम रिपब्लिकनों से अधिक मजबूत थीं.

मॉडरेटर की भूमिका निभा रहे एनबीसी न्यूज के लेस्टर हॉल्ट ने जब ‘समृद्धि’, ‘अमेरिका की दिशा’ और ‘सुरक्षा’ जैसे पूर्व-निर्धारित मुद्दों पर अपनी बात रखने को कहा, तो ट्रंप ज्यादा उत्तेजित दिखे. उन्होंने आईएस, बेरोजगारी, अश्वेत अमेरिकियों की दुर्दशा, गैर-कानूनी प्रवासियों से पैदा होती मुश्किलों आदि के लिए हिलेरी क्लिंटन के बहाने डेमोक्रेटिक पार्टी को जिम्मेदार ठहराया. मगर उनका झूठ ‘डिबेट’ में भी नहीं छिप सका.

हालांकि हिलेरी भी कुछ मामलों में अपेक्षाओं पर खरी उतरीं, तो कुछ में उम्मीद से बेहतर उनका प्रदर्शन रहा, जबकि कुछ मुद्दों पर वह निराश करती दिखीं. उनमें चपलता की कमी थी. उनके लफ्ज और सख्त होने चाहिए थे. व्यंग्य का पुट भी गायब था. वैसे, बढ़त हासिल करने के लिए उन्होंने संतुलन साधने की कोशिश की. ऐसे में, यही कहा जाएगा कि रिपब्लिकन ने एक बदतरीन उम्मीदवार चुना है, जिन्होंने बहस को निराशाजनक आयाम दिया. दुखद यह भी है कि राष्ट्रपति और देश का भविष्य इस कदर तय हो रहा है, जिनमें तर्क झूठ की बुनियाद पर गढ़े गए हैं.

भाजपा और भगवाई

भारतीय जनता पार्टी की योजना तो थी कि मुसलमानों को देशद्रोही और आतंकवादी बता कर हिंदुओं को भगवा झंडे के नीचे ले आया जाए पर उन के अंधभक्तों ने अतिउत्साह में गोसेवा के नाम पर दलितों को उकसा दिया और भगवाइयों का दबा हुआ गुस्सा उभर आया है. सारे देश में दलित उत्पीड़न, जो अब तक सामान्य बात थी, नौनन्यूज थी यानी समाचार बनने लायक न था, अब सुर्खियां बन गया है.

राममंदिर के मामले में भाजपा को खूब वोट मिले पर ये वोट उन पिछड़ों के थे जो सवर्णों जैसे बनने की चाह में भारतीय जनता पार्टी के रथ के घोड़ों की तरह खींच रहे थे. लालकृष्ण आडवाणी, उन श्रेष्ठ सवर्णों में आते हैं या नहीं जिन्हें हिंदू समाज पर राज करने का पौराणिक हक है, एक सवाल है. शायद इसीलिए अटल बिहारी वाजपेयी, जिन का 1999 की जीत में कोई योगदान न था, रथयात्री लालकृष्ण आडवाणी को ढकेल सके थे.

अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सकते में हैं कि वे दलित आक्रोश और पिछड़ों में बढ़ते असंतोष का क्या करें. दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु की हारों ने यह तो जता दिया कि देश चाहे कांग्रेसमुक्त बन जाए पर भाजपायुक्त नहीं बन सकता क्योंकि दलितों और पिछड़ों के वोटों पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता.

दलितों को एक मूर्ति भीमराव अंबेडकर के रूप में मिल चुकी है जो भारतीय जनता पार्टी के राम, विष्णु, कृष्ण से ज्यादा दिख रही है. और भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक कारणों से एक ही परदे पर राम और अंबेडकर को दिखाना पड़ रहा है, हालांकि यह पुराणों का घोर अपमान है. राजनीति की जरूरत चाहे जो हो पर आम भाजपाई इसे अपनाने को तैयार नहीं है और इसीलिए देशभर में दलित उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं. और अब हर घटना को नमकमिर्च लगा कर परोसा जा रहा है.

विकास इस खाई को पाटने का एक अच्छा तरीका था पर भाजपा सरकार के भगवाधारी नेताओं ने इस विकास को धर्मविलास के गोबर में मिला डाला. वित्तमंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि देश दुनिया में सब से तेज दौड़ रहा है पर वे यह भी जान लें कि हिरन की आराम की चाल भी चींटी की तेज रफ्तार से कहीं ज्यादा होती है. विकास का सपना पूरा होता दिखता तो दलित-सवर्ण खाई इतनी तीखी न होती.

नरेंद्र मोदी भाषण चाहे अच्छा देते हों पर वे उन विचारकों में से नहीं, जो देश को दूरदर्शिता से देख सकें. उन के लिए छोटीमोटी समस्याएं ही उतनी हैं कि विकास, स्वच्छ सरकार, सभ्य सरकार जैसी बातें अब दलितों, पिछड़ों को तो क्या, उन अमीरों को भी नहीं भा रहीं जो पौराणिकवादी भक्त नहीं हैं.

मायावती, रोहित वेमुला या उना में हुई घटना तो केवल छिटपुट उदाहरण हैं. भारतीय समाज के लिए बड़ी चुनौती दलितों को बराबर का अवसर देना है जो भाजपा के वश का नहीं लगता.

अरे..! यह क्या बोल गए फवाद खान

उरी पर आतंकवादी हमले के बाद कई राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर पाकिस्तानी कलाकार चल रहे थे और देश के मूड़ को भांपते हुए ‘इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन’ ने जैसे ही पाकिस्तानी कलाकारों पर बैन की सिफारिश की, वैसे ही पाकिस्तान पहुंच चुके पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान द्वारा जिस तरह की बयानबाजी की खबरे आयी हैं, वह यदि वह सच है, तो इससे फवाद खान ने अपना अहित करने के साथ साथ करण जोहर व फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ को भी नुकसान पहुंचाने का काम किया है, जिसमें उन्होंने भी अभिनय किया है. फवाद खान के जिस बयान की चर्चा हो रही है, उसमें कितनी सच्चाई है, इसका खुलासा अभी तक नहीं हुआ है. मगर करण जोहर की प्रचार टीम फवाद खान को बचाने के काम में जुट गयी है.

करण जोहर और फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ की प्रचार टीम ने पत्रकारों को ईमेल भेजकर फवाद खान को जोरदार तरीके से बचाव किया है. इस ईमेल में लिखा गया है-‘‘फवाद खान के नजदीकी सूत्रों के अनुसार यह खबर गलत है कि  मनसे की धमकी के बाद फवाद खान ने भारत छोड़ा. सच यह है कि फवाद खान ने दो माह पहले ही अपना काम पूरा होने पर भारत छोड़ दिया था. अफवाहें उड़ रही है कि फवाद खान ने पाकिस्तानी मीडिया से बात की है, जो कि गलत है. फवाद ने पाकिस्तानी मीडिया से कोई बात नहीं की है.’’

करण जोहर की प्रचार टीम की तरफ से ईमेल वाला बयान तब आया, जब एक अंग्रेजी की वेबसाइट पर ‘इम्पा’ अध्यक्ष टी पी अग्रवाल ने माना कि उन्होंने सुना है कि फवाद खान ने पाकिस्तानी मीडिया से बात करते हुए कहा है कि ‘‘बालीवुड किसी के बाप का है क्या?’’ इस बात की पुष्टि ‘एमएनएस चित्रपट सेना’ के अध्यक्ष अमेया खोपेकर भी करते हैं.

इम्पा अध्यक्ष टीपी अग्रवाल कहते हैं-‘‘पाकिस्तानी कलाकारों को बैन करने का निर्णय मेरा अकेले का नहीं था. इम्पा की वार्षिक बैठक में दो सौ फिल्म निर्माता शामिल थे. सभी ने एक स्वर से इस बैन की मांग की. सभी निर्माताओं ने मेरी प्रशंसा की कि मैंने अपनी फिल्म ‘लाली की शादी में लड्डू दीवाना’ से राहत फतेह अली खान का गाना निकालकर भारतीय गायक का गाना जोड़ा. अब फवाद खान को बयान हमें सुनाई पड़ा है, उसको लेकर अभी ‘इम्पा’ की बैठक नहीं हुई है.’’

फवाद खान के इसी बयान पर प्रतिक्रिया देते हए इम्पा के उपाध्यक्ष अशोक पंडित ने कहा-‘‘2014 में जब पेशावर पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब हमारे भारतीय कलाकारों ने इसकी निंदा की थी. पर उरी में आतंकवादी हमला होने पर पाकिस्तानी कलाकार चुप क्यों है? जबकि यह पाकिस्तानी कलाकार स्पेन या इंग्लैंड पर आतंकवादी हमला होने निंदा करते हुए नजर आ चुके हैं. फिर कलाकार खुदा नहीं होता है. क्या पाकिस्तानी कलाकार इंसानियत के नाते भी उरी कांड की निंदा नहीं कर सकते? अगर आप हमारे दुःख में हमारे साथ नहीं हो, तो खुशी में क्यों?’’

फवाद खान के ‘‘बालीवुड  किसी के बाप का है क्या?’’ बयान की पुष्टि नही हो पायी है, पर इस बयान ने तूल पकड़ लिया है. अब बौलीवुड में खुलेआम कहा जा रहा है कि फवाद खान को जो शोहरत व कमाई हो रही है, उसका आधार बौलीवुड ही है? सूत्रों का दावा है कि बडे़ बजट की पाकिस्तानी फिल्म में अभिनय करने के लिए फवाद खान को 25 लाख रूपए ही मेहनताने के रूप में मिलते हैं, जबकि एक बौलीवुड फिल्म में अभिनय करने के लिए फवाद खान एक से डेढ़ करोड़ रूपए लेते हैं. फवाद खान ने पाकिस्तान में टीवी सीरियल ही किए हैं. एक पाकिस्तानी टीवी सीरियल में अभिनय करने के लिए चार पांच लाख रूपए से ज्यादा नहीं मिलते. इसके अलावा बौलीवुड फिल्म विश्व के कई देशों में रिलीज होती हैं, इस वजह से इन्हे दूसरे देशों में कंसर्ट व अन्य स्टेज शो करने का अवसर व लंबी रकम मिलती है. अब बौलीवुड में बैन होने पर फवाद खान के दुबई, अमरीका व लंदन मे होने वाले स्टेज शो पर असर पड़ेगा. उन्हे जो इंडोर्समेंट मिल रहे हैं, उन पर भी असर पडे़गा. बालीवुड का एक तबका मानता है कि इस तरह के नुकसान से फवाद खान परेशान हो गए हैं और अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं, अथवा अपनी खीज को मिटाने के लिए इस तरह का बयान दिया होगा.

सच तो एक न एक दिन सामने आएगा ही, फिलहाल तो यही लगता है कि फवाद खान ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है. अंततः खामियाजा तो फवाद खान को ही भुगतना पड़ेगा.

दो क्रिकेटर, एक तैराक, एक टेनिस खिलाड़ी और ‘मिर्जिया’

इन दिनों भारत क्रिकेट के रंग में डूबा हुआ है. एक तरफ न्यूजीलैंड के साथ भारतीय टीम के क्रिकेट मैच का लोग आनंद ले रहे हैं. तो दूसरी तरफ सिनेमा घरों में मशहूर क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी की जिंदगी पर बनी बायोपिक फिल्म ‘एम एस धोनी:अनकही कहानी’ लोगों को आकर्षित कर रही है.

फिल्म ‘‘एम एस धोनीःअनकही कहानी’’ में फिल्मकार नीरज पांडे ने क्रिकेट से ज्यादा महत्व क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी की दो प्रेम कहानियों पर ध्यान दिया है. अब सात अक्टूबर को दो क्रिकेटर, एक तैराक व एक टेनिस खिलाड़ी एक साथ मिलकर ‘‘मिर्जा साहिबान’’ पर आधारित रोमांटिक गाथा ‘‘मिर्जिया’’ लेकर आ रहे हैं. मजेदार बात यह है कि ‘‘मिर्जिया’’ में भी दो प्रेम कहानियां समानांतर चलती हैं. एक प्रेमकथा हजारो वर्ष पुरानी मिर्जा साहिबान की है. तो दूसरी कहानी वह है जो कि ‘‘मिर्जा साहिबान’’ की कहानी की गूंज आज के राजस्थान के दो प्रेमियों आदिल व शुचि असर डालती है.

अब यदि आप यह सोचकर परेशान हो रहे होंगे कि फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ का क्रिकेटर या तैराक या टेनिस से क्या संबंध है, तो परेशान होने की बात नहीं है. बल्कि यह कटु सत्य है. मजेदार बात यह है कि इन चारों ने एक दूसरे की जिंदगी पर गहरा असर भी किया है. इतना ही नहीं यह चारों आज भी अपने अपने खेल से जुड़े हुए हैं.

जी हां! ‘‘सरिता’’ पत्रिका आज अपने पाठकों को इसी सच से वाकिफ कराने जा रही है. अब तक लोग इस बात से वाकिफ हो चुके हैं कि गुलजार लिखित पटकथा और राकेष ओमप्रकाश मेहरा निर्देशित फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ में हर्षवर्धन कपूर और सैयामी खेर ने अहम किरदार निभाए हैं और यह चारों न सिर्फ खेल से जुड़े रहे हैं, बल्कि आज भी किसी न किसी रूप में खेलों से जुड़े हुए हैं. फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ के सेट पर शूटिंग के साथ साथ क्रिकेट भी खेला जाता था.

फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ के पटकथा लेखक गुलजार शुरू से ही टेनिस खेलने के शौकीन रहे हैं. वह आज भी टेनिस खेलते हैं. उनकी फिटनेस का राज टेनिस का खेल ही है. जबकि फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ के निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा राष्ट्रीय स्तर के तैराक हैं. राकेश ओप्रकाश मेहरा, गुलजार की लेखनी से काफी प्रभावित हैं और वह गुलजार को अपना गुरू भी मानते हैं.

जबकि फिल्म ‘मिर्जिया’ के हीरो हर्षवर्धन कपूर भी क्रिकेट व फुटबाल खेलते रहे हैं. हर्षवर्धन कपूर ने तो बाकायदा मशहूर क्रिकेटर मोंहिंदर अमरनाथ से क्रिकेट की ट्रेनिंग भी हासिल की है. खुद हर्षवर्धन कपूर ने ‘‘सरिता’’ पत्रिका से बात करते हुए कहा- ‘‘मैंने मोहिन्दर अमरनाथ से क्रिकेट की ट्रेनिंग ली है. मुंबई के खार जिम खाना में मैं उनसे क्रिकेट सीखता था. खार जिम खाना में मैंने कई मैच खेले हैं. इसके अलावा फुटबाल भी खेलता था. जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था, तब से फुटबाल खेलना शुरू किया था. अब जबकि शूटिंग नही कर रहा हूं, तो सप्ताह में एक बार फुटबाल खेलने जाता हूं. हां! अब मुझे क्रिकेट या फुटबाल खेलते समय यह देखना पड़ता है कि फिल्म का प्रमोशन या शूटिंग न रूके. मैं और राकेश जी खेल से जुड़े रहे हैं, इसलिए हमारे बीच एक अलग तरह की बांडिंग हो गयी है. मैं तो उनके साथ दुबारा भी काम करना चाहूंगा.’’

तो क्या अब हर्षवर्धन कपूर क्रिकेट या फुटबाल कभी नहीं खेलेंगे? इस पर हषर्वर्धन कपूर ने कहा-‘‘वास्तव में कलाकार के जीवन में बंदिशें ज्यादा आ जाती है. पर मैंने सोचा है कि फिल्म ‘भावेष जोशी’ की शूटिंग पूरी करने के बाद थोड़ा सा अंतराल लेकर क्रिकेट व फुटबाल खेलूंगा. अफसोस की बात है कि हमारे देश में खेलों के लिए सुविधाएं नहीं है. मेरा सपना है कि मैं छुट्टियों में दोस्तों के साथ इंग्लैंड जाउं और वहां क्रिकेट या फुटबाल की ट्रेनिंग लूं. तो हमारा खेल अच्छा हो जाएगा. इसके अलावा जब हम दोस्तों के बीच फुटबाल खेलते हैं, तो उस वक्त हमारे बीच जो बांडिंग होती है, वह कमाल की होती है. पर हम शहरी ज्यादा से ज्यादा किसी होटल में जाकर भोजन कर लिया या फिल्म देख ली. हमारे देश के हर शहर में कई क्रिकेट व फुटबाल के मैदान बनने चाहिए. पर हो यह रहा है कि हर खाली जगह पर सीमेंट की इमारतें खड़ी होती जा रही हैं.’’

तो वहीं फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ की हीरोईन सैयामी खेर भी फुटबाल और क्रिकेट महाराष्ट्र के लिए खेल चुकी हैं. वह तो राष्ट्रीय स्तर पर क्रिकेट खेलने जा रही थी, पर उनके पिता ने मना कर दिया. इस बात को कबूल करते हुए सैयामी खेर ने बताया- ‘‘मेरा पहला प्यार स्पोटर्स है. खेलों में मेरी रूचि अभी भी है. मैंने महाराष्ट् के लिए क्रिकेट खेला है. मेरा राष्ट्रीय क्रिकेट टीम के लिए भी चयन हो रहा था, मगर मेरे पिताजी ने जाने नहीं दिया. जहां तक अभिनय का सवाल है, तो जब मैं नासिक से मुंबई पढ़ने आयी, तो थिएटर से जुड़ी और थिएटर ने अभिनय के प्रति मेरा लगाव पैदा किया. सेंट जेवियर्स कालेज में मैंने बहुत अभिनय किया है. यह भी सच है कि मैं बचपन से अभिनेत्री नहीं बनना चाहती थी. जब मैं थिएटर से जुड़ी, तो मुझे समझ में आया कि अभिनय एक ऐसी कला है, जिससे इंसान अपने आपको जान पाता है.’’

इतना ही नहीं मुंबई के खार जिमखाना में रविवार के दिन फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ के निर्देशक राकेश ओम प्रकाश मेहरा, अभिनेत्री सैयामी खेर और राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ फिल्म ‘दिल्ली6’ में अभिनय कर चुकी अभिनेत्री सोहा अली खान बैडमिंटन खेलते हुए नजर आ जाते हैं. इस पर जब हमने सैयामी खेर से सवाल किया, तो सैयामी खेर ने कहा-‘‘आपको यह बात कैसे पता चली? यह बात बहुत कम लोगों को पता है. पर यह सच हैं कि हर रविवार को हम बैडमिंटन खेलने जाते हैं. हमारे साथ राकेश ओमप्रकाषश मेहरा और सोहा अली खान भी बैडमिंटन खेलती हैं. सोहा अली खान ने राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ फिल्म ‘रंग दे बसंती’ की थी, इसलिए उनकी भी राकेश जी के साथ अच्छी बांडिंग है. जब आपको यह पता चल गया है, तो आपको यह भी पता होगा कि राकेश जी बहुत अच्छा भोजन पकाते हैं. अक्सर रविवार के दिन बैडमिंटन खेलने के बाद हम लोग उनसे कहते हैं कि अब आप हमें मटन बनाकर खिलाइए.’’

सैयामी खेर आगे कहती हैं-‘‘मैं महाराष्ट्र की टीम के लिए बैडमिंटन खेला करती थी. इसलिए फिल्म ‘मिर्जिया’ के सेट पर मेरे और राकेश सर के बीच जो बांडिंग बनी, उसकी वजह स्पोर्ट्स है. शूटिंग के दौरान समय मिलने पर हम लोग क्रिकेट खेला करते थे. अब शूटिंग खत्म होने के बाद हम लोग हर रविवार को बैडमिंटन खेलते हैं.’’

मजेदार बात यह है कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा को बैडमिंटन सैयामी खेर ने ही सिखाया है. जब हमने इस बारे में सैयामी खेर से सवाल किया, तो सैयामी खेर ने कहा-‘‘आपको तो हमारे खेल को लेकर काफी कुछ पता है. आपको पता होना चाहिए कि राकेश ओमप्रकाश मेहरा बहुत अच्छे तैराक हैं. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर तक की तैराकी की है. तो वह मुझे वाटर पोलो सिखाते हैं, जिसके बदले में मैं उन्हें बैडमिंटन सिखाती हूं.’’ 

बौलीवुड की देशभक्ति या बैन होने का डर

उरी पर हुए आतंकवादी हमले के बाद देश के अंदर व देश के बाहर बहुत कुछ बदला है. बौलीवुड में भी कुछ बदलाव नजर आ रहा है. पर बौलीवुड के अंदरूनी सूत्रों का दावा है कि बौलीवुड में बदलाव की वजह एक राजनैतिक पार्टी ‘मनसे’ द्वारा पाकिस्तानी कलाकारों के विरोध को लेकर उठाया गया कदम है.

पहले तो सलमान खान ने भी पाकिस्तानी कलाकारों के समर्थन में बयान दे दिया. लेकिन जैसे ही ‘मनसे’ और ‘शिवसेना’ पार्टियों ने सलमान के खिलाफ हमला बोला, वैसे ही अब कुछ अखबारों में सफाई दी जा रही है कि सलमान खान के बयान को सही ढंग से बिना सुने व समझे लोग सलमान के बयान को प्रचारित कर रहे हैं. कुछ अंग्रेजी अखबारों का दावा है कि सलमान खान ने ऐसा कुछ नहीं कहा, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है. वैसे यही हथकंडा सलमान खान ने उस वक्त भी अपनाया था, जब फिल्म ‘सुल्तान’ को लेकर औरत के बलात्कार की स्थिति को लेकर बयान दिया था.

तो वहीं ‘मनसे’ के विरोध के बाद शाहरुख खान की फिल्म ‘‘रईस’’ के प्रदर्शन की तारीख बदलने के लिए शाहरुख खान ने फिल्म के निर्माताओं को हरी झंडी दे दी है. इन दिनों शाहरुख खान को अपने करियर की चिंता सता रही है. ‘दिलवाले’ के बाद ‘फैन’ की असफलता से वह काफी विचलित हैं. अब वह चाहते हैं कि उनकी फिल्म ‘रईस’ सही ढंग से प्रदर्शित हो तथा इसे बाक्स आफिस पर सफलता भी मिले. इसी के चलते वह ‘रईस’ के प्रदर्शन की तारीख कई बार बदल चुके है. अब ‘मनसे’ के विरोध के बाद उन्होने पुनः ‘रईस’ के प्रदर्शन की तारीख बदलने का निर्णय लिया है. शाहरुख खान की फिल्म ‘‘रईस’’ और रितिक रोशन की फिल्म ‘काबिल’ एक ही दिन रिलीज हो रही थी. राकेश रोशन व रितिक रोशन भी चाहते थे कि उसी दिन ‘रईस’ न प्रदर्शित हो. पर शाहरुख खान तारीख बदलने के लिए तैयार नहीं थे. लेकिन नया विवाद पैदा होने पर उन्होंने चुपचाप अपनी फिल्म को कुछ समय के लिए प्रदर्शित न करने का मन बनाया है.

उधर ‘रईस’ के प्रदर्शन में रोड़ा डालने का काम इसी फिल्म से बौलीवुड में अपने करियर की शुरुआत कर रही पाकिस्तानी अदाकारा माहिरा खान ने किया है. सूत्रों की माने तो माहिरा खान ने भारत में पाकिस्तानी कलाकारों के बैन पर अपने फेसबुक पर जो कुछ लिखा है, उससे पाकिस्तानी दर्शकों को भले ही माहिरा खान ने खुश कर दिया हो, पर माहिरा खान का यह फेसबुक पोस्ट उनके और फिल्म ‘रईस’ के खिलाफ जा रहा है. सूत्रों का दावा है कि माहिरा खान के इस फेसबुक पोस्ट ने भी शाहरुख खान को अपनी फिल्म ‘‘रईस’’ के प्रदर्शन को आगे खिसकाने पर मजबूर कर दिया.

उधर अजय देवगन खुद ब खुद सफाई दे रहे हें कि उनकी फिल्म ‘‘शिवाय’’ में एक भी पाकिस्तानी कलाकार नहीं है. अजय देवगन के प्रचारक ने हर पत्रकार को ईमेल भेजा है. इस ईमेल में लिखा है-‘‘कुछ लोग खबर फैला रहे हैं कि ‘शिवाय’ में एक पाकिस्तानी अदाकारा ने अभिनय किया है. पर सच यह है कि ‘शिवाय’ में एक भी पाकिस्तानी कलाकार ने अभिनय नहीं किया है.’’

जबकि सोनाक्षी सिन्हा सफाई देते फिर रही हैं कि वह फिल्म ‘नूर’ में पाकिस्तानी पत्रकार का किरदार नहीं निभा रही हैं. सोनाक्षी सिन्हा इन दिनों एक पाकिस्तानी लेखक सबा इम्तियाज के उपन्यास ‘‘कराची यू आर कांलिंग मी’’ पर निर्माणाधीन फिल्म ‘‘नूर’’ में अभिनय कर रही हैं. सनहिल सिप्पी के निर्देशन में बन रही इस फिल्म की कहानी नूर की कठिन जिंदगी और उसके प्यार पर है. अब तक वह कहती रही हैं कि फिल्म ‘‘नूर’’ में उनका अलग गेटअप है और वह चुनौतीपूर्ण किरदार निभा रही हैं. मगर हाल ही में सोनाक्षी सिन्हा ने मीडिया के सवाल न करने पर भी मीडिया से बात करते हुए सफाई दे डाली कि वह फिल्म ‘नूर’ में पाकिस्तानी पत्रकार का किरदार नहीं निभा रही हैं. सोनाक्षी सिन्हा ने मीडिया से कहा-‘‘मैं कहना चाहूंगी कि मैं इस फिल्म में पाकिस्तानी पत्रकार की भूमिका में नही हूं. माना कि यह फिल्म एक पाकिस्तानी लेखक की किताब पर है. मगर फिल्म की कहानी को मुंबई की पृष्ठभूमि में ढाला गया है.’’

इतना ही नहीं सूत्रों की माने तो करण जौहर की फिल्म ‘‘ऐ दिल है मुश्किल’’ भी अब आगे खिसकने जा रही है. करण जोहर की इस फिल्म में पाकिस्तानी अभिनेता फवाद खान ने अभिनय किया है. जिसके चलते ‘मनसे’ का विरोध करण जोहर को झेलना पड़ रहा है. तो वहीं माहिरा खान की ही तरह फवाद खान ने पाकिस्तानी मीडिया के सामने ‘बौलीवुड किसी के बाप का नहीं’ बयान देकर करण जोहर की मुसीबतें बढ़ा दी हैं.

नवाजुद्दीन पर लगा दहेज उत्पीड़न का आरोप

सफलता को पाना बड़ा मुश्किल होता है. सफलता की उंचाईयों को छूते ही इंसान पर कई तरह के आरोप लगने शुरू हो जाते हैं. अभी 2016 के जनवरी माह में मुंबई की एक महिला ने अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दिकी पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया था. वह मामला किसी तरह से रफा दफा हुआ, तो अब नवाजुद्दीन सिद्दिकी पर उनके छोटे भाई की पत्नी आफरीन ने दहेज प्रताड़ना के साथ साथ मारपीट करने का आरोप लगाया है.

नवाजुद्दीन पिछले 15 दिन से अपने गांव मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना गांव में ही हैं और उनके भाई मिनाजुद्दीन सिद्दिकी की पत्नी आफरीन ने एसएसपी से शिकायत की है कि नवाजुद्दीन व उनके परिवार का हर सदस्य उन्हे दहेज के लिए प्रताड़ित करता रहता है. आफरीन का आरोप है कि नवाजुद्दीन ने उसके पेट में लात मार कर उसका गर्भ गिराने का भी प्रयास किया.

आफरीन और मिनाजुद्दीन की शादी अभी 31 मई 2016 को ही हुई थी. आफरीन ने आरोप लगाते हुए कहा है कि नवाजुद्दीन, मिनाजुद्दीन व उनके परिवार के सदस्य उसे धमकाते हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनके साथ हैं. इसलिए उन्हें किसी का डर नही. पर एसएसएसपी ने इस मामले की जांच का जिम्मा बुढाना के पुलिस इंस्पेक्टर को सौंपा है. इस मामले में नवाजुद्दीन से बात नही हो पायी.

राज रोग

खांसी से खासा परेशान रहे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अब बेंगलुरु में गले की सर्जरी करवा कर आराम कर रहे हैं यानी बीमारी गंभीर है जिस का इलाज वे दिल्ली से दूर इसलिए भी करा रहे हैं कि वहां गुलदस्ता ले कर अस्पताल आने वाले कथित शुभचिंतकों की भीड़ नहीं होगी और पार्टी में अफरातफरी भी नहीं मचेगी. इस के अलावा वे वहां सुकुन से सोच भी पाएंगे कि इश्क और मुश्क जैसे शाश्वत विकार किस पद्धति से छिपाए जा सकते हैं. हां, उन्होंने सिद्ध कर दिया कि नैचुरोपैथी और विपश्यना बेकार की बातें हैं. उन से उन की खांसी नहीं छूटी है.

नेताओं की बीमारियां हमेशा ही चर्चा का विषय रही हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बीमारी भी कम रहस्यमय नहीं मानी जा रही. प्रतिस्पर्धा का दूसरा नाम हो चला राजनीति करना कभी सरल नहीं रहा. इस में जो शीर्ष पर पहुंच जाता है उस के लिए रोजमर्राई जिंदगी दुश्वार होती जाती है. ऐसे में तनाव और तनावजन्य रोग होना स्वाभाविक बातें हैं जिन से बचने के लिए तमाम नेता योग वगैरा किया करते हैं और खानपान में परहेज करते हैं. अब इसे सुखों का सिमटता दायरा कहने में हर्ज क्या है.

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